Pages

Sunday, September 25, 2011

रामराम

वह परिवेश, जो होश संभालने के पहले से देखते रहें, उससे एक अलग ही रिश्ता होता है, जन्मना। जो पहले से है, वह सदैव से विद्यमान, शाश्वत लगता है। अक्सर उसके प्रति वैसा कुतूहल भी नहीं होता, क्योंकि हमारी जानी दुनिया वही होती है, मन मानता है कि वही दुनिया है और उसे वैसी ही होना चाहिए।
किसी रामनामी को पहली बार कब देखा, याद नहीं। कह सकता हूं कि होश संभालने के पहले से देखता रहा हूं। रामनामियों से मेरा ऐसा ही रिश्ता रहा है। जब देखा कि लोगों को आश्चर्य होता है, जिज्ञासा होती है इनके बारे में, तो मुझे अजीब लगा। बाद में जाना कि इनके बारे में जानने कोई अमरीकी आया करता था, शोध किया, वे डॉ. लैम्ब रामदास हुए, उनकी पुस्‍तक है- Rapt in the name: the Ramnamis, Ramnam, and untouchable religion in Central India। कुछ और परिचित पत्रकार-लेखक, अध्येता-विद्वानों को रूचि लेते देखा। दसेक साल पहले सुन्दरी अनीता से रामनामियों पर उनके शोध के दौरान मुलाकात और फिर मेल-फोन से सम्पर्क बना रहा। अनीता को लंदन विश्वविद्यालय से इस अध्ययन Dominant Texts, Subaltern Performances:Two Tellings of the Ramayan in Central India पर डाक्टरेट उपाधि मिली, जिसमें रामकथा, विशेषकर रामचरितमानस के पदों की खास 'रामनामी' व्याख्‍या और इस अंचल की रामलीला में कथा-प्रसंगों की निराली प्रस्तुति को शोध-अध्ययन का विषय बनाकर सामाजिक संरचना को समझने का प्रयास है।
बड़े भजन मेलों और शिवरीनारायण मेले में रामनामियों के साथ समय बिता कर मैंने देखा-जाना कि वे दशरथनंदन राम के नहीं बल्कि निर्गुण निराकार ब्रह्मस्वरूप राम के उपासक हैं और इस भेद को अपने तईं बनाए रखने के लिए राम का नाम एक बार कभी भूले से भी प्रयोग नहीं करते, रामराम ही कहते, लिखते, पढ़ते हैं (छत्‍तीसगढ़ी में इन्‍हें रामनामी नहीं रामरामी या रमरमिहा ही कहा जाता है)। रामराम पूरे शरीर पर, कहने से स्पष्ट नहीं हो पाता कि गुदना शरीर के गुह्‌य हिस्सों सहित आंख की पलकों और जीभ पर भी होता है। समय बदला है। पूरे शरीर पर गोदना, कम होते-होते माथे पर रामराम तक आया फिर हाथ में, लेकिन अब बिना गुदना के रामनामियों की संख्‍या बढ़ती जा रही है।
छत्तीसगढ़ में मेलों की गिनती का आरंभ अंचल की परम्परा के अनुरूप 'राम' अर्थात्‌ रामनामियों के बड़े भजन से किया जा सकता है, जिसमें पूस सुदी ग्यारस को ध्वजारोहण की तैयारियां प्रारंभ कर चबूतरा बनाया जाता है, दूसरे दिन द्वादशी को झंडा चढ़ाने के साथ ही मेला औपचारिक रूप से उद्‌घाटित माना जाता है, तीसरे दिन त्रयोदशी को भण्डारा में रमरमिहा सदस्‍यों एवं श्रद्धालुओं को प्रसाद वितरण होता है।
संपूर्ण मेला क्षेत्र में अलग-अलग एवं सामूहिक रामायण पाठ होता रहता है। नख-शिख राम-नाम गुदना वाले, मोरपंख मुकुटधारी, रामनामी चादर ओढ़े रमरमिहा स्त्री-पुरूष मेले के दृश्य और माहौल को राममय बना देते हैं। परिवेश की सघनता इतनी असरकारक होती है कि मेले में सम्मिलित प्रत्येक व्यक्ति, समष्टि हो जाता है। सदी पूरी कर चुका यह मेला महानदी के दाहिने और बायें तट पर, प्रतिवर्ष अलग-अलग गांवों में समानांतर भरता है। कुछ वर्षों में बारी-बारी से दाहिने और बायें तट पर मेले का संयुक्त आयोजन भी हुआ है। मेले के पूर्व बिलासपुर-रायपुर संभाग के रामनामी बहुल क्षेत्र से गुजरने वाली भव्य शोभा यात्रा का आयोजन भी किया गया है।

13 मई 2011 को इस हकीकत की कहानी, फिल्म्स डिवीजन के 51 मिनट के वृत्तचित्र, को सेंसर प्रमाण-पत्र मिला, जिसमें मैं विषय विशेषज्ञ के रूप में शामिल हूं। कमल तिवारी के कथालेख के साथ फिल्म शुरू होती है, कुछ इस तरह-
'समूची दुनिया किसी कथा के छूटे प्रभाव की तरह है' - योगवशिष्ठ कहता है। न जाने कितनी कथाएं हैं, जिनसे बनता है जगत।
एक कहानी यहां भी जी जा रही है। ... यहां श्रद्धा का एक सैलाब है जो तट पर बह निकला है। वैसे बहती श्रद्धा का आरंभ कहां होता है ... आत्मा का, विश्वासों का यह कौन सा भाव है जो अपने शरीर को ही वह पवित्र स्थल बना लेता है, जहां सारी श्रद्धा जैसे मंदिर की सी शक्ल में सिमट आती है। ... इसी आस्था की छुअन अपने शरीर पर लिये चले आए हैं। ये मेला है, आस्थाओं का समागम है, या जिन्दगी को जीने का एक अलग अंदाज़।
ये रामकहानी है, रामनामी समाज की। एक ऐसा समुदाय जो अपने होने में ही एक कथा है। इनके शरीर पर उभरते ये शब्द महज शब्द नहीं, जीवन को जीने के, समझने के सूत्र हैं। इन्हीं सूत्रों से बुनी गई है, रामनामी समाज की गाथा। वो गाथा जो एक सदी से कुछ ज्यादा समय में ले पाई है आकार। रामनामी समुदाय की पहचान है, उनके शरीर पर गुदने के रूप में लिखा रामराम। उनके सिर पर विराजता मोर मुकुट और बदन पर रामराम लिखा बाना।
... ट्रेलर समाप्त... आगे 'रुपहले परदे' पर देखना चाहें तो स्वयं उद्यम करें, या लाइव के लिए आ जाएं छत्तीसगढ़, आपका स्वागत है। आपने समझ लिया हो कि यह पोस्‍ट छत्‍तीसगढ़, फिल्‍म और स्‍वयं के प्रचार-प्रसार के लिए है, तो कहने की इजाजत लूंगा कि 'आप तो बड़े समझदार निकले।'

सभी तस्वीरें फिल्म निर्देशक भोपाल के सुनिल शुक्ल (अपना नाम वे इसी तरह लिखते हैं) ने उतारी हैं। मेरे प्रोफाइल वाली तस्वीर भी उन्हीं की ली हुई है। इस फोटो पर शुभाशंसा मिलती रही है, मैं सब से कहता हूं कि शकल तो वही है, जो हमेशा से है, लेकिन इसमें अलग कुछ है तो वह सुनिल जी की फोटोग्राफी के बदौलत है, सो इस मामले के सारे पिछले-अगले काम्प्लिमेंट, उन्हीं के नाम, रामराम।
28 सितंबर 2011, दैनिक भास्‍कर, रायपुरके सिटी भास्‍कर मुख्‍य पृष्‍ठ क्र. 17 की कतरन
इस तरह से भी प्रकाशित हुआ
इसका एक जिक्र राम के दीवाने... शीर्षक से भी है।

अखिल भारतीय रामनामी महासभा के तत्वाधान में आयोजित वार्षिक सम्मेलन (रामराम बड़े भजन मेला) की यह वर्षवार सूची मुख्यतः श्री गुलाराम जी द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के आधार पर है। वर्षवार भजन मेला एक-एक वर्ष महानदी के दाएं और बाएं आयोजित होता है। बाद में दाएं और बाएं दोनों ओर भी आयोजित हुआ, जिसे दा/बा से दर्शाया गया है।

1910-पिरदा, 1911-पिरदा, 1912-देवरबोड़, 1913-मंधाईभांठा 1914-दुर्ग, 1915-मुड़पार,
1916-परसाडीह, 1917-बड़े चुरेला 1918-छपोरा, 1919-छोटे चुरेला, 1920-सेंदरी,
1921-भिनोदा 1922-प्रधानपुर, 1923-कुरदी, 1924-भांठागांव, 1925-पिकरीपार
1926-जोगीडीपा, 1927-बटउपाली, 1928-जांजगीर, 1929-कोड़िया 1930-परसाडीह,
1931-रींवांपार, 1932-मोहतरा (बालपुर), 1933-कुटराबोर 1934-रमतला, 1935-पतेरापाली,
1936-बरभांठा, 1937-भटगांव 1938-भदरा, 1939-अकलतरा, 1940-बड़े सीपत,
1941-ग्वालिनडीह 1942-कोसीर, 1943-फगुरम, 1944-कटेकोनी, 1945-मड़वा,
1946-तालदेवरी, 1947-बिसनपुर, 1948-रायगढ़, 1949-सेन्दुरास 1950-केसला,
1951-दहिदा, 1952-मालखरौदा, 1953-खैरा 1954-ठठारी, 1955-छोइहा,
1956-सारसकेला, 1957-जेवरा 1958-रबेली, 1959-धनगांव, 1960-जवाली पुरेना,
1961-मल्दा 1962-करही, 1963-जमगहन, 1964-ओड़ेकेरा, 1965-डोमाडीह
1966-धुरकोट, 1967-मोहतरा, 1968-छपोरा, 1969-रईकोना 1970-खपरीडीह,
1971-चंदई, 1972-मौहापाली, 1973-पवनी 1974-सिंघरा, 1975-बलौदी-मुड़वाभांठा,
1976-कोरबा-छोटे सीपत, 1977-बरदुला-पासीद 1978-नरियरा, 1979-गोरबा, 1980-धुरुवाकारी,
1981-छिन्द, 1982-हरियाठी 1983-पंडरीपानी, 1984-बड़े पंड़रमुड़ा, 1985-सरसीवां,
1986-परसाडीह 1987-अरजुनी, 1988-सूपा, 1989-लेंन्ध्रा, 1990-कांशीगढ़
1991-कैथा, 1992-देवरीगढ़, 1993-नाचनपाली, 1994-पंडरीपानी-नवापारा दा-बा
1995-बिलासपुर-उरकुली दा-दा, 1996-परसदा-बेलादुला दा-बा 1997-खरकेना-कपिस्दा बा-दा,
1998-गौरादादर-खमरिया दा-बा 1999-मुनगाडीह-आनंदपारा (चुरेला) दा-दा,
2000-मरघटी-चरौदा बा-बा 2001-हरदी दा, 2002-चिस्दा-ठनगन बा-बा, 2003-दोमुहानी बा
2004-चारपारा बा, 2005-डंगनिया दा, 2006-बंदोरा बा 2007-शुक्लाभांठा दा,
2008-कुशियारीडीह-तुलसी बा-बा, 2009-पेलागढ़-गिरसानाला दा-दा,
2010-पिरदा (शताब्दी वर्ष) दा
2011-पंडरीपाली-बरतुंगा दा-दा, 2012-कुसमुल-कुटेला दा-दा
2013-बेल्हा (बिलाईगढ़) दा, रेड़ा (सारंगढ़) दा, रक्शा (कोसिर) दा
2014-रेड़ा से लालमाटी (हसौद) बा, रक्शा से बासिन (घोघरी) बा, बेल्हा से बिनौरी (मलार) बा
2015-कोदवा, 2016-रानीसागर-नगझर, 2017- इंदिरानगर (कोसीर)-तुषार,
2018- कुरदा-मुड़पार, 2019- सलौनीकला-गौराडीह, 2020- पिकरीपार,
2021- नंदेली-चंदलीडीह

Monday, September 12, 2011

हिन्‍दी

बुल्‍के जी की हस्‍तलिपि का नमूना
21-12-60 को रामवन, सतना के
 बाबू शारदाप्रसाद जी को लिखा पत्र,
 जिसमें 'भक्‍त शबरी' व रामकथा
संबंधी अन्‍य पुस्‍तकों का उल्‍लेख है।
हिन्‍दीसेवी बुल्‍के जी, फादर बुल्‍के के बजाय बाबा बुल्‍के कहलाने लगे थे। उन्‍होंने शायद हिन्‍दी सेवा का कोई घोषित किस्‍म का व्रत नहीं लिया, लेकिन सहज भाव से जहां इस भाषा को आवश्‍यकता थी, ऐसे क्षेत्र की पहचान की, जिससे भाषा को मजबूत किया जा सके और वहां उनके प्रयास से जो संभव था, किया। उनके द्वारा तैयार शब्‍दकोश और रामकथा शोध, इसी का परिणाम और उदाहरण है। बुल्‍के जी तक हिन्‍दी भाषा-साहित्‍य के शोध-प्रबंध भी अंगरेजी में लिखे जाने का कायदा था, लेकिन उन्‍होंने अपना शोध प्रबंध सन 1949 में हिन्‍दी में तैयार कर जमा करने के अपने निर्णय के साथ बुद्धिजीवियों-हिन्‍दीजीवियों पर कम भरोसा किया और अपने निदेशक डॉ. माताप्रसाद गुप्ता और गुरु डॉ. धीरेन्‍द्र वर्मा के माध्‍यम से इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के तत्‍कालीन कुलपति, डॉ. अमरनाथ झा और अकादमिक परिषद को भी प्रभाव में ले कर मजबूर किया, इस निर्णय को मान्‍य करने के लिए।

दूसरे, देवकीनंदन-दुर्गाप्रसाद खत्री याद आ रहे हैं, चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, भूतनाथ, रोहतास मठ और विज्ञान फंतासियों वाले। यह वह दौर था जब भारतीय भाषाओं के नाम पर बांगला का ही प्रचार था और इसी भाषा में ढेरों मौलिक साहित्‍य और अनुवाद उपलब्‍ध होता था। कहा जाता है कि खत्री जी की इन किताबों को पढ़ने के लिए लोगों ने हिन्‍दी सीखी। उन्‍होंने शायद कभी हिन्‍दी सेवा का दंभ नहीं भरा और उन्‍हें इस तरह से याद भी कम ही किया जाता है। बरेली वाले पंडित राधेश्याम कथावाचक का राधेश्यामी रामायण और उनके नाटक, मुंशी सदासुखलाल का सुखसागर, सबलसिंह चौहान का महाभारत और गीता प्रेस, गोरखपुर की पत्रिका 'कल्‍याण' के नामोल्‍लेख के बिना बात अधूरी होगी।

इसके बाद पचास के दशक से आरंभ होने वाला पूरा दौर रहा है इलाहाबाद से छपने वाली किताबों का, जब उर्दू जासूसी दुनिया का बांगला और हिन्‍दी उल्‍था होता। लेखक इब्‍ने सफ़ी (सफ़ी के बेटे- असली नाम असरार अहमद), बीए और हिन्‍दी अनुवादक प्रेमप्रकाश, बीए। जासूसी दुनिया प्रेमियों को खबर जरूर होगी कि ये किताबें आजकल मद्रास से रीप्रिंट हो कर एएचव्‍हीलर पर 60 रु. में मिल जा रही हैं। जासूसी साहित्य में ओमप्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक की भी लंबी पारी रही है। दूसरा महत्‍वपूर्ण नाम याद आता है कुसुम प्रकाशन, जिसमें भयंकर जासूस सीरीज के लेखक नकाबपोश 'भेदी' और प्रमुख पात्र इंस्‍पेक्‍टर वर्मा-सार्जेन्‍ट रमेश होते। इसी तरह भयंकर भेदिया सीरीज के लेखक सुरागरसां होते और जासूस जोड़ी बैरिस्‍टर सुरेश-सहकारी कमल कहलाती।
इसके अलावा सामाजिक उपन्‍यास कुसुम सीरीज में छपते जिनके लेखकों में एक खरौद, छत्‍तीसगढ़ के श्री एमएल (मनराखनलाल) द्विवेदी भी होते। जासूस महल की किताबें होतीं और अंगरेजी से अनूदित मिस्‍टर ब्‍लैक, टिंकर की जासूसी होती तो दूसरी ओर बहराम चोट्टा। इस दौर में हिंदी किताब का लगभग अर्थ जासूसी पुस्‍तक ही होता। जासूसी उपन्यासों की महिमा के कुछ उल्लेख प्रासंगिक होंगे- पदुमलाल पुन्नालाल बख्शीे 'चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति को निःसंकोच सबसे प्रिय उपन्यास कहते और पाब्लो नेरूदा से पूछा गया कि अगर आग लग जाए तो आप अपनी कौन सी किताब बचाना चाहेंगे, जवाब था मेरी कृतियों के बजाय मैं उन जासूसी कहानी संग्रह को पहले बचाना चाहूंगा, जो मेरा अधिक मनोरंजन करती हैं। जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा, अमृतलाल नागर के भी प्रिय रहे वहीं मुक्तिबोध, स्टेनली गार्डनर और अगाथा क्रिस्टी को भी पढ़ना पसंद करते थे।

तीसरे, हिन्‍दी फिल्‍में हैं, जिसने हिन्‍दी को न सिर्फ फैलाया, बल्कि प्रचलित रखने में इसकी भूमिका महत्‍वपूर्ण है और रहेगी, क्‍योंकि भाषा के लिए गंभीर साहित्‍य के साथ उसका प्रचलन में रहना जरूरी है। यदि आमतौर पर भारत की सम्‍पर्क भाषा अंगरेजी मानी जाती है तो इसके समानांतर आमजन की वास्‍तविक सम्‍पर्क भाषा, उत्‍तर से दक्षिण तक हिन्‍दी है और वह अधिकतर फिल्‍मों के कारण ही है। हिन्‍दी साहित्‍यकारों में ज्‍यादातर ने अपने नाम से या नाम छुपा कर हिन्‍दी फिल्‍मों के लिए काम किया है। राही मासूम रजा, कमलेश्‍वर और बाद में मनोहर श्‍याम जोशी, फिल्‍मों-सीरियल से जुड़े सबसे ज्‍यादा उजागर नाम रहे। इस संदर्भ में आनंद बक्षी जैसे गीतकार और फिल्‍मी गीत भी याद आ रहे हैं। ''सुनो, कहो, कहा, सुना, कुछ हुआ क्‍या, अभी तो नहीं, कुछ भी नहीं, चली हवा, उठी घटा...'' जैसे गीतों से ले कर मेरे नैना सावन भादों, फिर भी मेरा मन प्‍यासा, तक जैसे गीत। और फिर सलीम-जावेद जोड़ी के फिल्मी संवाद- ‘कितने आदमी थे‘, ‘मेरे पास मां है‘, या ‘मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता‘। यह सब चाहे व्‍यावसायिक-बाजारू, हल्‍का-फुल्‍का और मनोरंजन के लिए गिना जाए, मगर हिन्‍दी की लोकप्रियता, लोगों की जबान पर चढ़ने के लिए कम महत्‍व का नहीं।

हिन्‍दी की पृष्‍ठभूमि मजबूत मानी जा सकती है, वैदिक-लौकिक संस्‍कृत से प्राकृत-पालि और अपभ्रंश हो कर खड़ी बोली तक, लेकिन उसका इतिहास पुराना नहीं है और यही कारण है कि हिन्‍दी के विद्वानों को याद करें तो वे और उनकी पृष्‍ठभूमि में या कहें अधिकार की मूल भाषा उर्दू(अरबी-फारसी), संस्‍कृत या अंगरेजी होती है। यहीं राजाजी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के साथ तमिलभाषी रांगेय राघव और कन्नड़भाषी नारायण दत्त की हिन्दी साधना भी स्मरणीय हैं। आशय यह कि हिन्‍दी सेवा के लिए लगातार सहज भाव से उद्यम आवश्‍यक है और इसमें वक्‍त भी लगना ही है। भाषाएं यों ही खड़ी नहीं हो जातीं। हां, हिन्‍दी की पृष्‍ठभूमि और इतिहास पर मेरी दृष्टि में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की दो पुस्‍तकें, हिन्‍दी साहित्‍य का आदिकाल और हिन्‍दी साहित्‍य की भूमिका के साथ उनके कुछ निबंध सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण हैं।

हम में से अधिकतर, बच्‍चों के सिर्फ अंगरेजी ज्ञान से संतुष्‍ट नहीं होते बल्कि उसकी फर्राटा अंगरेजी पर पहले चमत्‍कृत फिर गौरवान्वित होते हैं। चैत-बैसाख की कौन कहे हफ्ते के सात दिनों के हिन्‍दी नाम और 1 से 100 तक की क्‍या 20 तक की गिनती पूछने पर बच्‍चा कहता है, क्‍या पापा..., पत्‍नी कहती है आप भी तो... और हम अपनी 'दकियानूसी' पर झेंप जाते हैं। आगे क्‍या कहूं आप सब खुद समझदार हैं।

मैं सोचने लगा कि क्‍या हम भाषा में सोचते हैं और हां तो मैं किस भाषा में सोचता हूं। लगता है, रोजमर्रा काम-काज को हिन्‍दी और छत्‍तीसगढ़ी में, गंभीर अकादमिक विषय-वस्‍तु, अंगरेजी और हिन्‍दी (उर्दू शामिल) में कभी संस्‍कृत में भी और किसी विद्वान का सहारा हो तो इंडो-आर्यन और इंडो-यूरोपियन तक। मन की ठाट, अपनी पहली जबान, सिर्फ छत्‍तीसगढ़ी में (सरगुजिया, हल्‍बी शामिल) और कभी इससे अलग तो भोजपुरी या बुंदेली में। बोलने में सबसे सहज छत्‍तीसगढ़ी, फिर हिन्‍दी को पाता हूं, कभी लंबी सोहबत रही तो जबान पर भोजपुरी और बुंदेली भी आ जाती है। कोई जर्मन, फ्रेंच या इटैलियन मिल जाए सिर्फ तभी अंगरेजी। पढ़ने में हिन्‍दी सहजता से, अंगरेजी सुस्‍ती से और छत्‍तीसगढ़ी (बचपन में बांगला) कठिनाई से। मैं हिन्‍दी का प्रबल पक्षधर, क्‍योंकि जिसे जो भी और जितनी भी आती है, हिन्‍दी ही आती है। जी हां, मेरे सहज लिख पाने की भाषा सिर्फ और सिर्फ हिन्‍दी है।

सवाल होता है, हिन्‍दी दिवस मनाने से क्‍या होगा? पता नहीं, लेकिन जवाब मैं इस सवाल से मिला कर ढूंढने का प्रयास करता हूं, क्‍या जन्‍म दिन मनाने से आयु बढ़ जाती है?

यहां आई अधिकांश बातें आशय मात्र हैं, तथ्‍य की दृष्टि से भिन्‍न हो सकती हैं। कभी टिप्‍पणी, कभी मेल पर या यहां-वहां लिख चुका हूं, वही तरतीबवार जोड़ने का प्रयास है। किसी का नाम लेने-छोड़ने या सूची बनाने का प्रयास यहां कतई नहीं है। सभी, खासकर अज्ञात, अल्‍पज्ञात हिन्‍दी सेवियों को नमन।

Tuesday, September 6, 2011

भाषा

सितम्‍बर का महीना। 14 तारीख आने में अभी समय है। हिन्‍दी दिवस पर कुछ बात कहने की पृष्‍ठभूमि में फिलहाल अन्‍य भाषाओं (और लिपि) से संबंधित फुटकर कुछ नोट, अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 21 फरवरी (सन 1952) को बांग्ला युवाओं की शहादत का स्मरण करते हुए-

# ककहरा से शुरू करें। अंगरेजी (रोमन) अल्‍फाबेट के सभी 26 अक्षरों से बना छोटा सा सार्थक वाक्‍य, जो अब अधिकतर दिखता है, फान्‍ट के नमूने के लिए, पहले इसी वाक्‍य से टाइपराइटर सुधार के बाद ट्रायल होता था, आप परिचित जरूर होंगे लेकिन हमेशा मजेदार लगता है- The quick brown fox jumps over the lazy dog. ऐसा ही एक अन्‍य लोकप्रिय वाक्‍य है- Pack my box with five dozen liquor jugs और बिना दुहराव के, ठीक 26 अक्षरों वाला वाक्‍य- Mr. Jock, TV quiz PhD, bags few lynx है। टाइपराइटर कुंजीपटल की एक पंक्ति के अक्षरों को मिला कर सबसे लंबा सार्थक शब्द TYPEWRITER ही बनता है और उल्‍टा-सीधा एक समान के प्रचलित उदाहरण हैं- WAS IT A CAR OR A CAT I SAW. या A NUT FOR A JAR OF TUNA. इसी तरह हिन्‍दी में 'कोतरा रोड में डरो रात को।' (कोतरा रोड, रायगढ़, छत्‍तीसगढ़ में है.)

# संस्‍कृत में भाषा के कितने ही कमाल हैं, पहले पहल रामरक्षास्‍तोत्र के ''रामो राजमणिः सदा विजयते...'' से अकारांत पुल्लिंग कारक रचना का एकवचन याद करने का आइडिया जोरदार लगा था, उसी तरह एक अन्‍य प्रयोग जिसमें सवाल ही जवाब हैं-
प्रश्‍न- का काली अर्थात् काली वस्‍तु क्‍या है?
उत्‍तर- काकाली (काक+आली) कौओं की पंक्ति।
प्रश्‍न- का मधुरा अर्थात् मधुर क्‍या है?
उत्‍तर- काम धुरा (काम+धुरा) अर्थात् कामदेव का अनुग्रह वहन।
प्रश्‍न- का शीतलवाहिनी गंगा अर्थात् शीतलवाहिनी गंगा कौन है?
उत्‍तर- काशी-तल-वाहिनी गंगा अर्थात् काशी तल में प्रवाहित गंगा शीतल है।
प्रश्‍न- कं संजघान कृष्‍णः अर्थात् कृष्‍ण ने किसको मारा?
उत्‍तर- कंसं जघान कृष्‍णः अर्थात् कृष्‍ण ने कंस को मारा।
प्रश्‍न- कं बलवन्‍तं न बाधते शीतम् अर्थात् किस बलवान को शीत नहीं बाधता?
उत्‍तर- कंबलवन्‍तं न बाधते शीतम् अर्थात् कंबल वाले को शीत नहीं बाधता।

# कुछ नमूने देखिए-
हम बचपन में 'का ग द ही ना पा यो' का खिलवाड़ करते हुए का, काग, गदही, कागद, दही, ना, हीना, नापा, पायो, यो जैसे शब्द तोड़-मरोड़ करते थे। निराला जी ने 'ताक कमसिनवारि' को ताक कम सिन वारि, सिनवारि, ता ककमसि, नवारि, कमसिन, कमसिननारि आदि में तोड़ने का प्रयोग किया है। THE PEN IS MIGHTIER THAN THE SWORD वाक्य के शब्द PENIS, THIS, WORD, TEAR, SWARD, MIGHTY, EARTHEN, बन कर कई अर्थछटाएं बनती हैं। यह उद्धरण ऐसी-वैसी जगह से नहीं, अज्ञेय के संग्रह शाश्‍वती में ऐसे और भी नमूनों सहित यह VARIORUM शीर्षक से है।

# एक नमूना यह भी-
i cdnuolt blveiee taht I cluod aulaclty uesdnatnrd waht I was rdanieg. The phaonmneal pweor of the hmuan mnid, aoccdrnig to a rscheearch at Cmabrigde Uinervtisy, it dseno't mtaetr in waht oerdr the ltteres in a wrod are, the olny iproamtnt tihng is taht the frsit and lsat ltteer be in the rghit pclae. The rset can be a taotl mses and you can sitll raed it whotuit a pboerlm. Tihs is bcuseae the huamn mnid deos not raed ervey lteter by istlef, but teh wrod as a wlohe. Azanmig huh? yaeh and I awlyas tghuhot slpeling was ipmorantt! can you raed tihs?

अंगरेजी में स्‍पेलिंग और प्रूफ की गलतियों के लिए और क्‍या कहें? हां! याद आ रहा है, 1980 के दौरान 'हिंदी एक्‍सप्रेस' पत्रिका निकलनी शुरू हुई, जिसके पहले अंक का एक उद्धरण- 'पत्रिका में सबकी रुचि का ध्‍यान रखा गया है, प्रूफ की भूलें भी हैं, क्‍योंकि कुछ लोगों की रुचि सिर्फ इसी में होती है।'

# मोड़ी या मुडि़या लिपि के उदाहरण एक वाक्‍य में 'सेठजी अजमेर' को 'सेठजी आज मर', 'रुई ली' को 'रोई ली' और 'बड़ी बही' को 'बड़ी बहू' पढ़ने की बात बताई जाती है। तात्‍पर्य ''सेठजी का अजमेर शहर जाना, रुई लेना-खरीदना और बही-खाता भेजना'' का समाचार सेठ जी के मरने, रो लेने और बड़ी बहू को भेजने का संदेश बन जाता है। कहा जाता है कि यह गड़बड़ मात्रा न लगाने या कम लगाने के कारण होती थी, अगर रोमन के उदाहरण से अनुमान लगाएं तो ए, ई, आई, ओ, यू का इस्‍तेमाल किए बिना लेखन की तरह।

# सन 1880 में यूरोप और एशिया से हजारों लोग 'हवाई' के शक्‍कर कारखानों में काम करने के लिए लाए गए। अप्रवासियों में अधिकांश चीनी, जापानी, कोरियाई, स्‍पेनी व पुर्तगाली थे, जो न तो मालिकों की अंगरेजी समझ पाते थे न ही मूल हवाई निवासियों की भाषा। पुरुष काम में तो महिलाएं चूल्‍हा-चौकी में लगी रहतीं। भाषा के लिए किसी के पास समय कहां?, लेकिन बच्‍चों का काम कैसे चले। आपसी समझ के लिए पहले तो अशुद्ध खिचड़ी अंगरेजी प्रयुक्‍त होती रही लेकिन 25-30 साल बीतते, नई पीढ़ी आ जाने पर, विशिष्‍ट अजनबी सी भाषा विकसित हो गई। इस भाषा, वर्तमान हवाई क्रिओल में द्वीपवासियों की सभी मूल भाषाओं के शब्‍द हैं किन्‍तु इसके व्‍याकरण की साम्‍यता अन्‍य से किंचित ही है।

हवाई विश्‍वविद्यालय के भाषाशास्‍त्र के प्रो. डेरेक बिकर्टन ने इस भाषा के तीव्र विकास का अध्‍ययन किया है और वे अपनी पुस्‍तक Roots of Language में इस निष्‍कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह भाषा पूरी तरह से बच्‍चों के खेल की उपज है। बिकर्टन के अनुसार उनके पालकों के पास भाषा समझने-सीखने का वक्‍त नहीं था और वह जबान भी नहीं जिसे वे अगली पीढ़ी को दे सकते। वे यह भी इंगित करते हैं कि निश्‍चय ही आरंभ में पालक भी इस नई भाषा को समझ सकने में असमर्थ रहे, उन्‍होंने भी यह भाषा अपनी नई पीढ़ी से सीखी। दुनिया की एकमात्र ज्ञात भाषा, जो बड़ों ने बच्‍चों से सीखी। भाषा हमेशा किसी की बपौती हो, जरूरी नहीं। वैसे भी भाषा तो मातृभाषा होती है।

दूसरी तरफ भाषाशास्‍त्री गणेश देवी का कथन- 'हर भाषा में पर्यावरण से जुड़ा एक ज्ञान जुड़ा होता है. जब एक भाषा चली जाती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान लुप्त हो जाता है, जो एक बहुत बड़ा नुकसान है क्योंकि भाषा ही एक माध्यम है जिससे लोग अपनी सामूहिक स्मृति और ज्ञान को जीवित रखते हैं।' और वेरियर एल्विन 1932-35 की अपनी डायरी में तटस्‍थ दिखते हुए फिक्रमंद जान पड़ते हैं, इन शब्‍दों में- 'मंडला जिले के गोंड, बड़ी सीमा तक अपना कबीलापन खो चुके थे। वे अपनी भाषा खो चुके थे।'

एक और बात, पापुआ-न्यू गुयाना की, लगभग 452000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में निवास करने वाली कोई 70 लाख आबादी, 850 से अधिक भाषाएं इस्तेमाल करती है, जिसमें एक इशारों वाली 'भाषा' भी है। भाषाई विविधता की दृष्टि से इसके मुकाबले और कोई नहीं।

# शायद नवनीत पत्रिका में कभी प्रकाशित हुआ- भाषावैज्ञानिक अध्‍ययन का एक निष्‍कर्ष, सामान्‍यतः माता-गृहिणी का शब्‍द भंडार 4000 शब्‍दों का होता है। टिप्‍पणी- "इतनी कम लागत और इतना बड़ा कारोबार।"

महिलाओं से क्षमा सहित, आशय कि सोच रहा हूं- ब्‍लागरों के मामले में यह बात किस तरह लागू होगी। क्षमा पर्व का माहौल है, ब्‍लागरों से क्षमा सहित।

Thursday, September 1, 2011

लिटिल लिटिया

गौरैया के बाद पंडुक, फिर पंडुक-पंडुक, और अब लिटिया। आकार से लगता है कि अंग्रेजी के लिटिल और लिटिया नामधारी इस छोटी सी चिडि़या का कोई रिश्‍ता जरूर होगा। लिटिया यानि दरजी, फुटकी या टेलर बर्ड- Orthotomus sutorius। घोंसला-माहिर इस चिडि़या को बया यानि वीवर बर्ड के साथ याद किया जाता है। बया, बुनकर तो लिटिया, दरजी। लिटिया पत्‍तों और तिनके-डंठल को आपस में मिलाकर घोंसला रचती है। छत्‍तीसगढ़ के कई लिटिया/लटिया गांवों को शायद इसी से नाम मिला है।

यह चिडि़या आसपास हो तो इसके चहचहाने की आवाज के बाद इसकी काया जितनी लंबी और खास ढंग से उठी पूंछ, इस चंचल जीव की ओर जरूर ध्‍यान खींचती है। कुछ दिनों से घर की बैठकी के पास पारिजात, हरसिंगार, शेफाली या जास्‍मीन जैसे मधुर नाम (Nyctanthes arbor-tristis नाम से तो घबराहट होती है) वाले पेड़ पर अधिक फुदकती।
तब हमारा ध्‍यान गया कि जहां वह बार-बार आ कर बैठ रही है वहां एक छोटा घोंसला है, पत्‍तों में ओझल-सा।
अवसर पाकर घोंसले में झांका, वह यहां आप भी देखिए-
छोटी सी बात, बस इत्‍ती-सी। छत्‍तीसगढ़ी शब्‍द खोन्‍धरा (गांव का नाम भी) होता है घोंसला, खोता, नीड़ का समानार्थी और आशियाना या घरौंदा के अर्थ में भी प्रयुक्‍त होता है, लेकिन सोच रहा हूं कि घोंसला तो सौरघर, प्रसूति गृह के अधिक निकट का अर्थ देता है। पैतृक निवास से स्‍वेच्‍छया विस्‍थापित बसेरे से दूर, नीड़ का निर्माण कर वास करते मुझे, अब घर से खबर आई है, इन चूजों के उड़ जाने की।

(तस्‍वीरें, 22-23 अगस्‍त 2011, बिलासपुर, छत्‍तीसगढ़ की)