Wednesday, June 4, 2025

संग्रहालय और कथा-कथन

इस वर्ष 2025 में अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस पर संचालनालय पुरातत्व, अभिलेखागार और संग्रहालय, रायपुर में 16 से 18 मई को संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसके लिए निर्धारित विषयों में से The Importance of Storytelling in Future Museum Experiences पर मुझे कुछ बातें कहना था, साथ ही आयोजकों द्वारा लिख्ति परचे की अपेक्षा थी। निजी कारणवश आयोजन में उपस्थित न हो सका, मगर परचा तैयार कर चुका था। इस अवसर पर प्रकाशित पुस्तिका में मेरे परचे को परिचय सहित शामिल किया गया है- 

राहुल कुमार सिंह 
# जन्म- 1958, अकलतरा, छत्तीसगढ़ निवासी। पुरातत्व की उच्च शिक्षा प्राप्त, स्वर्ण पदक सहित। राज्य सरकार में 36 वर्षों तक सेवा। फेलो, अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज। 500 से अधिक स्थलों का पुरातत्वीय-सांस्कृतिक सर्वेक्षण किया, जिनमें ताला, डीपाडीह, गढ़धनोरा, भोंगापाल, डमरू आदि उत्खनन तथा लालबाग, इंदौर, गूजरी महल, ग्वालियर, ओरछा अनुरक्षण-विकास परियोजनाओं में महती भूमिका।
# मौलिक कृतियाँ: ‘एक थे फूफा‘ उपन्यासिका, ‘सिंहावलोकन‘ तथा ‘छत्तीसगढ़ का लोक-पुराण (समग्र शिक्षा के लिए चयनित) निबंध संग्रह, ‘संग्रहालय विज्ञान का परिचय‘, ‘ताला का पुरा-वैभव‘ (सहलेखन)। हंस, इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी आदि प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानी, निबंध प्रकाशित। 
# राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अंतर्गत बच्चों के लिए द्विभाषी संस्करण की सात पुस्तकों का छत्तीसगढ़ी भाषा में अनुवाद। नाटक ‘जसमा ओड़न‘ का छत्तीसगढ़ी अनुवाद (अप्रकाशित)। प्रामाणिक अभिलेखीय ग्रंथ ‘उत्कीर्ण लेख‘ का परिवर्धन। शोध-पत्रिका ‘कोसल‘ के संपादक सदस्य। 
# पुरस्कार/सम्मान: बिलासा सम्मान 2008, श्रेष्ठ ब्लॉग विचारक 2011, पुरी पीठाधीश्वर द्वारा 2013 में ‘धरती-पुत्र‘ सम्मान तथा 2019 में इंडिया टुडे संस्कृति सम्मान। 
# संप्रति: प्रमुख, धरोहर परियोजना, बायोडायवर्सिटी एक्सप्लोरेशन एंड रिसर्च सेंटर। शैक्षणिक, प्रशासनिक संस्थानों में प्रशिक्षण-विशेषज्ञ। संस्कृति विषयक स्वाध्याय और वेब-अभिलेखन। 

भविष्य के संग्रहालय अनुभव में कथा-कथन 

इस कहानी में पहले 2011 के अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस की याद, जिसका विषय था ‘संग्रहालय और स्मृति: चीजें कहें तुम्हारी कहानी। आज उस दिवस का भविष्य है, जब यह कहानी कही जा रही है, जो भविष्य के संग्रहालय अनुभव को समृद्ध और रोचक बनाने में सहायक हो सकेगी। यों हमारी परंपरा रही है, वैदिक संवाद-प्रसंग कथा का रूप ले लेते हैं, उपनिषद और महाकाव्य होते पौराणिक कथाओं का विशाल भंडार है, वहीं बृहत्कथा, कथासरित्सागर और जातक कथाओं के साथ पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियां हैं। दरअसल अधिकतर किस्से, ऐतिहासिक तथ्यों में सिमटने से बची रह गई घटना-स्थितियों को रोचक बनाकर याद रखने में मददगार होते हैं, ज्यों तुक छंदोबद्ध कविता और गीत। 

यहां कहानी, संग्रहालयों की और इस महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर की। सन 1784 में कलकत्‍ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम आबादी वाला (सन 1872 में 19119, 1901 में 32114, 1931 में 45390) शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना गया, वैसे रायपुर शहर के 1867-68 के एक नक्‍शे में अष्‍टकोणीय भवन वाले स्‍थान पर ही म्‍यूजियम दर्शाया गया है। 

इस संग्रहालय का एक खास उल्‍लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्‍लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्‍चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए। फिर उल्‍लेख है कि दर्शक संख्‍या में कमी का कारण संग्रहालय के प्रति घटती रुचि नहीं, बल्कि चौकीदार का कदाचरण है, जो परेशानी से बचने के लिए संग्रहालय को खुला रखने के समय भी उसे बंद रखता है। 

सन 1936 के प्रतिवेदन, (द म्यूजियम्स आफ इंडिया- एसएफ मरखम एंड एच हारग्रीव्स) से रायपुर संग्रहालय की रोचक जानकारी मिलती है, जिसके अनुसार रायपुर म्युनिस्पैलिटी और लोकल बोर्ड मिलकर संग्रहालय के लिए 400 रुपए खरचते थे, रायपुर संग्रहालय में तब 22 सालों से क्लर्क, संग्रहाध्यक्ष के बतौर प्रभारी था, जिसकी तनख्‍वाह मात्र 20 रुपए (तब के मान से कम?) थी। संग्रहालय में गौरैयों का बेहिसाब प्रवेश समस्या बताई गई है। 

यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि इसी साल यानि 1936 में 8 फरवरी को मेले के अवसर पर लगभग 7000 दर्शकों ने रायपुर संग्रहालय देखा, जबकि पिछले पूरे साल के दर्शकों का आंकड़ा 72188 दर्ज किया गया है। इसके साथ यहां आंकड़े जुटाने के खास और श्रमसाध्य तरीके का जिक्र जरूरी है। संग्रहालय के सामने पुरुष, महिला और बच्चों के लिए तीन अलग-अलग डिब्बे होते, जिसमें कंकड डाल कर दर्शक प्रवेश करता और हर शाम इसे गिन लिया जाता। यह सब काम एक क्लर्क और एक चौकीदार मिल कर करते थे। तब संग्रहालय के साप्ताहिक अवकाश का दिन रविवार और बाकी दिन खुलने का समय सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक होता। 

सन 1953 में इस नये भवन का उद्‌घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। अब यहां भी देश-दुनिया के अन्य संग्रहालयों की तरह सोमवार साप्ताहिक अवकाश और खुलने का समय सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे है। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। ध्यान दें, अंगरेजी राज था, तब शायद राजा और दान शब्द किसी भारतीय के संदर्भ में इस्तेमाल से बचा जाता था, शिलापट्‌ट पर इसे नांदगांव के रईस का बसर्फे या गिफ्ट बताया गया है। 

संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्‍मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है। 

रायपुर संग्रहालय की सिरपुर से प्राप्त मंजुश्री कांस्य प्रतिमा अन्य देशों में आयोजित भारत महोत्सव में प्रदर्शित की जा चुकी है, इसी प्रकार सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं और स्वर्ण एवं अन्य धातुओं के सिक्कों का अमूल्य संग्रह संग्रहालय में है। ऐसे पुरावशेष जन-सामान्य तो क्या, विशेषज्ञों और राज्य की संस्कृति और विरासत से जुड़े गणमान्य, इससे लगभग अनभिज्ञ हैं, तथा उनके लिए भी सहज उपलब्ध नहीं है। उल्लेखनीय है कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के भारतीय कला के मर्मज्ञ प्रोफेसर प्रमोदचंद्र ने मंजुश्री प्रतिमा को छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला का सक्षम प्रतिनिधि उदाहरण माना था। इसके पश्चात 1987 में देश के महान कलाविद और संग्रहालय विज्ञानी राय कृष्णदास के पुत्र आनंदकृष्ण रायपुर पधारे और तत्कालीन प्रभारी श्री वी.पी. नगायच से विनम्रतापूर्वक सिरपुर की कांस्य प्रतिमाओं को देखने का यह कहते हुए आग्रह किया कि उनके बारे में बस पढ़ा है, चित्र देखे हैं। इन प्रतिमाओं को एक-एक कर हाथ में लेते हुए भावुक हो गए, नजर भर कर देखते और माथे से लगाते गए। 

इस संस्था से जुड़कर विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी एम.जी. दीक्षित ने 1955-57 के दौर में सिरपुर उत्खनन कराया। अधिकारी विद्वान बालचंद्र जैन, सहायक संग्रहाध्यक्ष पद पर रहते हुए सन 1960-61 में ‘उत्कीर्ण लेख‘ पुस्तक तैयार की, जो वस्तुतः संग्रहालय के अभिलेखों का सूचीपत्र है, किंतु इस प्रकाशन से न सिर्फ संग्रहालय, बल्कि प्राचीन इतिहास के माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठा उजागर हुई। साठादि के दशक में इस परिसर का बगीचा, शहर का सबसे सुंदर बगीचा होता था। राज्य निर्माण के बाद डॉ. के.के. चक्रवर्ती, डॉ. इंदिरा मिश्र और प्रदीप पंत जी, आरंभिक अधिकारियों ने राज्य में शासकीय विभाग के कामकाज की दृष्टि से संस्कृति-पुरातत्व की मजबूत बुनियाद तैयार कर दी थी। इस संग्रहालय से जुड़े कई अल्प वेतन भोगी सदस्यों की निष्ठा और योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता, जिनमें से कुछ नाम- जलहल सिंह, राजकुमार पांडेय, मूलचंद, बाबूलाल, भगेला, प्रेमलाल, महेश आदि हैं। 

एक कहानी महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय के अनूठे काष्ठस्तंभ लेख की। वर्तमान सक्ती जिले में महानदी और मांद के संगम पर स्थित चन्दरपुर के निकट ग्राम किरारी की इस कहानी में कोई दो हजार साल पुरानी यादें हैं, जिस काल की लिपि इस काष्ठस्तंभ पर उत्कीर्ण है। वह पन्ना फिर खुला सन 1921 में, जब गांव के हीराबंध तालाब सूखने पर, खाद के लिए तालाब की मिट्टी निकालते हुए यह काष्ठस्तंभ मिला। धूप और नमी पाकर लकड़ी चिटकने से खुदे हुए अक्षर टूटने लगे, मगर गनीमत कि इस लिपि से अनजान होने के बावजूद स्थानीय पं. लक्ष्मीप्रसाद उपाध्याय ने इसकी यथादृष्टि नकल उतार ली। नकल उतारने वाले का लिपि से अनजान होना ही उस नकल की विश्वसनीयता का आधार बना और लकड़ी के दरकने से बिगड़ गए अक्षरों के बावजूद भी पं. लक्ष्मीप्रसाद द्वारा बनाई लगभग 349 अक्षरों की नकल के आधार पर इस अभिलेख का पाठ डा. हीरानंद शास्त्री ने तैयार किया (Epigraphia Indica Vol. XVIII, 1925-26, Page- 152-157), जो साहित्य-प्रेमियों में पुत्र सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘ के पिता के रुप में जाने जाते हैं। इस लकड़ी को तब जानकारों ने बीजासाल बताया। कहानी आगे बढ़ी।

1947 में पुरातत्व के महानिदेशक डा. एन.पी. चक्रवर्ती ने इस लकड़ी के परीक्षण के लिए वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून भेजा। वहां इसका परीक्षण एस.एस. घोष ने किया और अपने अध्ययन का परिणाम Ancient India No. 6, January 1950, Page- 17-20 में प्रकाशित किया, जिसमें पाया गया कि यह लकड़ी बीजासाल नहीं बल्कि महुआ ‘मधुका लैटीफोलिआ‘ है। वनस्पति विज्ञान के साथ पुराने शास्त्रीय ग्रंथों के संदर्भों की दृष्टि से इस स्तंभ को समझने का प्रयास करते हुए, घोष का यह शोध-लेख भी विशिष्ट महत्व का है। उन्होंने इस स्तंभ के यज्ञ-यूप, वाजपेय-अनुष्ठान, तालाब-स्तंभ, जय-स्तंभ और ध्वज-स्तंभ होने की संभावना की ओर ध्यान दिलाया है। यह अध्ययन इस स्तंभ पर खुदे अक्षरों और तालाब से प्राप्ति के आधार पर प्रयोजन निर्धारण की दृष्टि से पुराविदों के लिए महत्वपूर्ण था ही, अध्ययनकर्ता घोष ने टिप्पणी की कि यह काष्ठ-तकनीशियनों के लिए भी रोचक है, क्योंकि लकड़ी, महुआ मिट्टी-पानी को सहन कर सकने वाला, मजबूत स्तंभ और अक्षर उकेरने के लिए भी उपयुक्त होता है।

इस अनूठे पुरावशेष की जानकारी पं. लोचन प्रसाद पांडेय ने सर जान मार्शल को भेजी। फलस्वरूप इसे तब मध्यप्रांत की राजधानी नागपुर के शासकीय संग्रहालय ले जाया गया, जिसका सुरक्षित रह गया अंश अब इस संग्रहालय की अभिलेख दीर्घा में प्रदर्शित है। 

कहा जाता है, संग्रहालयीकरण, उपनिवेशवादी मानसिकता है और अंगरेज कहते रहे कि यहां इतिहास की बात करने पर लोग किस्से सुनाने लगते हैं, भारत में कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं है। माना कि किस्सा, इतिहास नहीं होता, लेकिन इतिहास वस्तुओं का हो या स्वयं संग्रहालय का, हिन्दुस्तानी हो या अंगरेजी, कहते-सुनते क्यूं कहानी जैसा ही लगने लगता है? चलिए, कहानी ही सही, लेकिन हकीकत का बयान इन कहानियों के बिना कैसे संभव हो!

एक और हकीकत का अफसाना- कोई 30 साल पहले किसी दिन बिलासपुर, गोंड़पारा यानि राजेंद्रनगर वाले अपने दफ्तर में मेज पर के कागज-पुरजों की छंटाई करते हुए एक परची मिली, जिस पर कुछ लिखा हुआ था, जिज्ञासा हुई कि अजनबी सी यह किसकी लिखावट है। पूछने पर बताया गया कि कुछ दिन पहले एक किशोर आया था, उसने यह छोड़ा था, बताना भूल गए थे। मेरी पूछताछ का कारण था कि पुरजे पर की लिखावट, पुरानी नागरी लिपि की नकल है, साफ तौर पर पहचानी जा सकती थी। तुरंत हरकत जरूरी हो गया। कार्यालय के सहयोगियों ने याद कर बताया कि रमेश जायसवाल नाम था, सिंधी कालोनी में कहीं रहता था। उसकी खोज में निकले, ज्यादा मशक्कत नहीं हुई, रमेश मिल गए। बताया कि मामा के यहां समडील गए थे, तांबे के स्लेट पर लिखावट की जानकारी मिली, देखने गए और कुछ हिस्से की नकल बना ली थी, वही पुरजा छोड़ कर आए थे। 

अगले ही दिन सुबह रमेश को साथ ले कर समडील जा कर गांव के देव-स्थलों, खेत-खार देखते लखन पटेल के घर पहुंचे। लखन ने ताम्रपत्र सहजता से दिखा दिया, फोटो और नाप-जोख भी करने दिया। बातें होने लगी। इस पर उसने बताया कि उसके कोई आल-औलाद नहीं थी। कुछ बरस पहले खेत जोतते यह मिला, उसे वह घर ले आया, पूजा-पाठ की जगह पर रख दिया। इसके बाद संतान प्राप्ति हुई, तब से इस ताम्रपत्र की पूजा-प्रतिष्ठा और बढ़ गई। ताम्रपत्र को संग्रहालय के लिए प्राप्त करना था, लेकिन लगा कि मामला संवेदनशील है, नियम-कानून के लिए बेसब्री करना ठीक नहीं होगा और करना भी हो तो, अभी वह अवसर नहीं है। 

वापस बिलासपुर लौटकर इस ताम्रपत्र के मजमून पर मशक्कत शुरू हुई। कार्यालय के वरिष्ठ मार्गदर्शक श्री पैकरा साथ नहीं जा पाए थे, अफसोस करने लगे और जा कर स्थल और ताम्रपत्र देखने की इच्छा व्यक्त की। लोक-व्यवहार वाले कामों में श्री पैकरा की कार्य-कुशलता को मैंने अधिकतर अपने से बेहतर पाया है। मैंने उन्हें काम सौपा कि वहां जाएं तो स्वयं भी ग्राम और स्थल निरीक्षण का एक नोट बनाएं (उद्देश्य था कि पहले गांव और लोगों से मिलते-जुलते स्वयं वहां से आत्मीयता महसूस करें) और लौटने के पहले ताम्रपत्र देखने लखनलाल से मिलने जाएं। साथ ही यों मुश्किल है, लेकिन प्रयास करें (ऐसी चुनौती से उनका उत्साहवर्धन होता है) कि बिना किसी दबाव के ताम्रपत्र संग्रहालय के लिए प्राप्त हो जाए। 

पैकरा जी तालाब, डीह, खेत-खार करते गांव में घूम-फिर कर लखनलाल के पास पहुंचे। लखनलाल ने ताम्रपत्र दिखाया और उसके साथ का किस्सा पूरे विस्तार से सुनाया। ताम्रपत्र मिले हैं तब से जमीन खरीद ली, लंबे समय बाद संतान हुआ। कुछ गांव वाले भी आ गए। उन्हें लगा कि इस ‘बीजक‘ में जरूर किसी खजाने का पता है, जिसके चक्कर में आया कोई फरेबी है। उत्तेजित गांव वालों को श्री पैकरा ने समझाइश और थोड़ी अमलदारी का रुतबा बताया। बातचीत होने लगी। पैकरा जी ने अपना पूरा नाम बताया अमृतलाल, संयोग कि लखनलाल के पिता का नाम भी अमृतलाल ही था। लखनलाल को फैसला करते देर न लगी। पुरखों का आशीर्वाद, वंश चलाने अब बाल-बच्चे, लोग-लइका तो आ ही गए हैं और पिता-पुरखा के सहिनांव पिता-तुल्य अमृतलाल इस ताम-सिलेट को लेने आ गए हैं। सहर्ष ताम्रपत्र पैकरा जी को सौंप दिया। 

ताम्रपत्र, बिलासपुर संग्रहालय के संग्रह में है। रमेश जायसवाल, बिलासपुर निगम के पार्षद बने, जन-सेवा में लगे हैं। श्री पैकरा अब मुख्यालय रायपुर में उपसंचालक पद का दायित्व निर्वाह कर रहे हैं। समडील के तत्कालीन सरपंच विष्णु जायसवाल जी के पुत्र हेमंत जी से पता लगा, लखनलाल जी घर-परिवार सहित राजी-खुशी हैं। जैसे उनके दिन फिरे, सबके फिरें। 

तो किस्सा कोताह यह कि संग्रहालय में वस्तु-प्रादर्शों के साथ ऐसी कहानियां भी संजोई जाती रहें, जो भविष्य के संग्रहालय अनुभव को और भी जीवंत रखे।

Saturday, May 31, 2025

माँ दंतेश्वरी

ओमप्रकाश सोनी, सुकमा, बस्तर में इतिहास के प्राध्यापक हैं, उनके माध्यम से माँ दंतेश्वरी से जुड़ी कुछ बातें कहने का अवसर बना। अब वह उनकी पुस्तक ‘बस्तर साम्राज्ञी माँ दंतेश्वरी (इतिहास और पुरातत्व)‘ में 'भूमिका' के रूप में प्रकाशित है-

भूमिका 

अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका (उज्जयिनी) एवं द्वारका, सात अति पवित्र तीर्थ प्रसिद्ध हैं। चार धाम और द्वादश ज्योतिर्लिंग के अलावा बार्हस्पत्यसूत्र में आठ-आठ शैव, वैष्णव और शाक्त सिद्धिदायक तीर्थों की सूची मिलती है। सात नगरियों की तरह गंगा, यमुना, सरस्वती, सिंधु, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी- सात नदियां अति पवित्र मानी गई हैं। वैदिक सप्त सिंधु का आशय संभवतः इन सात नदियों से नहीं है, मगर प्रसंगवश ‘हिंदु‘ (हप्त हिन्दु) शब्द सिंधु नदी से संबंधित भौगोलिक क्षेत्र के रूप में पांचवीं सदी इस्वी पूर्व से प्रचलित रहा है, जिससे इंडोई और इंडिया शब्द आया। पाणिनी ने भी सिन्धु शब्द का प्रयोग देश के अर्थ में किया है। 

ऐसी कई सूचियां और उनके माहात्म्य मिलते हैं। सती की कथा और उसके अंगों के गिरने के स्थान पर बने शक्तिपीठों की संख्या ‘तन्त्रचूडामणि‘ में बावन, ‘शिवचरित्र‘ में इक्यावन, ‘देवीभागवत‘ में एक सौ आठ दी गई है और ‘कालिकापुराण‘ में छब्बीस उपपीठों का वर्णन है पर साधारणतया पीठों की संख्या इक्यावन स्वीकृत है। दंतेवाड़ा, बस्तर की दंतेश्वरी, सती के दांत गिरने का स्थान और उस पर स्थापित शक्तिपीठ के रूप में मानी जाती हैं। 
000 
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद छत्तीसगढ़ की 14 देशी रियासतों में से कांकेर को जोड़ कर बस्तर जिला बना। यहां से अतीत की ओर लौटें तो नागयुग में ‘मासुनिदेश‘, ‘चक्रकोट‘ तथा ‘भ्रमरकोट‘, नलयुग में ‘निषधदेश‘, गुप्तकाल ‘महाकान्तार‘, महामेघ-शक-सातवाहन काल में ‘विद्याधराधिवास‘, ‘मलयमहेन्द्रचकोरक्षेत्र‘, ‘महावन‘, मौर्यकाल में आटविक राज्य, इससे और पहले ‘अश्मक‘, ‘स्त्रीराज्य‘ या उसका हिस्सा रहा। सबसे पुराना नाम दण्डकारण्य पता लगता है। 

मिथक-कथाएं, अक्सर बेहतर हकीकत बयां करती हैं, कभी सच बोलने के लिए मददगार बनती हैं, सच के पहलुओं को खोलने में सहायक तो सदैव होती हैं। इस क्रम में अध्येताओं ने रामवनगमन पथ के साथ दण्डकारण्य-बस्तर में लंका की खोज का प्रयास किया है। रामकथा का शूर्पणखा और सीताहरण प्रसंग दण्डकारण्य से जुड़ा है। मगर ध्यान रहे कि केशकाल-बाराभांवर की भंगाराम-तेलीन सत्ती मां (अब प्रचलित भंगाराम को बंगाराम या वारंगल-ओरंगाल से आई मानते भोरंगाल-भंगाराम भी कहा गया है।) हैं और सुकमा की रामाराम, चिटमटिन देवी हैं। पौराणिक दण्डकारण्य या दण्डक वन, सामान्यतः दक्षिणापथ का विस्तृत भूभाग प्रतीत होता है, इसी के अंतर्गत ऐतिहासिक महाकांतार-बस्तर भी है। यह रोचक है कि ‘दण्ड‘ को राजाओं द्वारा व्यवहार में लाई जाने वाली लौकिक शक्ति के प्रतीक के रूप में देखा गया है। राम के धनुष का नाम ही कोदण्ड है तथा वह दण्ड ही है जो प्रतीक रूप ध्वज (यथा- मयूरध्वज, सीरध्वज-जनक, कपिध्वज-अर्जुन) को धारण करता है। 

प्रथम राजा पृथु के दण्डकारण्य में अभिषेक का उल्लेख मिलता है। कहा गया है- 
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।। 
अर्थात दण्ड ही शासन करता है। दण्ड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दण्ड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दण्ड को ही धर्म कहा है। 

कथा में पृथु ने भूमि को कन्या मानकर उसका पोषण (दोहन) किया, इसी से हमारे ग्रह का नाम पृथ्वी हुआ। वह भूमि को समतल करने वाला पहला व्यक्ति था, उसने कृषि, अन्नादि उपजाने की शुरूआत करा कर संस्कृति और सभ्यता के नये युग का सूत्रपात किया। भागवत की कथा में पृथु ने पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सकल औषधि, धान्य, रस, रत्न सहित स्वर्णादि धातु प्राप्त करने की कला का भी बोध कराया। 

इस अंचल की परंपरा में मयूरध्वज की कथा के सूत्र विद्यमान हैं। जैमिनी अश्वमेध के अलावा अन्य ग्रंथों में भी यह कथा थोड़े फेरबदल से आई है, जिसमें ब्राह्मण को दान देने के लिए राजा-रानी अपने पुत्र को आरे से चीरने लगते हैं। इस कथा का असर बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम (1861-1868) ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। बस्तर का प्रसिद्ध दशहरा, देवी द्वारा महिषासुर के वध का अर्थात पाशविक वृत्तियों पर विजय का उत्सव है, जिसके प्रतीक रूप में भैंसों की बलि दी जाती थी। दशहरा के लिए फूलरथ और रैनीरथ निर्माण में केवल बसूले के प्रयोग की परंपरा रही है। 

कपोल-कल्पना लगने वाली कथा में संभवतः यह दृष्टि है कि आरे का निषेध वन-पर्यावरण की रक्षा का सर्वप्रमुख कारण होता है। टंगिया और बसूले से दैनंदिन आवश्ययकता-पूर्ति हो जाती है, लेकिन आरा वनों के असंतुलित दोहन और अक्सर अंधाधुंध कटाई का साधन बनने लगता है। यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरण चेतना के बीज के रूप में भी देखी जा सकती है। बस्तर के जनजातीय असंतोष के इतिहास में ..1859 का संघर्ष ‘कोई विद्रोह‘ नाम से जाना जाता है, जिसमें फोतकेल, कोतापल्ली, भेज्जी और भोपालपट्टनम के जमींदारों ने जंगल काटने का विरोध किया। आंदोलन का नारा- ‘एक साल पेड़ के पीछे एक आदमी का सिर‘ से इसकी उग्रता का अनुमान किया जा सकता है। ऐसा ही एक अन्य उल्लेख ‘ताड़-झोंकनी‘ (1775), दरियावदेव-हलबा योद्धाओं का मिलता है, जिसमें काटे गए ताड़ वृक्षों को हाथ से झेलते, वृक्ष के नीचे दब कर हलबा वीरों की मृत्यु हो गई थी। 

महाभारत के नलोपाख्यान कथा में कलि-वास वाले पक्षी-रूपी पांसे, नल का एकमात्र वस्त्र ले कर उड़ जाते हैं तब अनावृत्त नल, दमयंती को ऋक्षवान पर्वत को लांघकर अवंती देश जाने वाला मार्ग, विंध्य पर्वत, पयोष्णी नदी, महर्षियों के आश्रम, दक्षिणापथ, विदर्भ और कोसल जाने का मार्ग बताते हैं। 

इस भौगोलिक विवरण से पड़ोसी विदर्भ की राजकुमारी दमयंती और निषध देश के साथ बस्तर का कुछ-कुछ रिश्ता बनता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक रहे राकेश तिवारी अपनी पुस्तक ‘पवन ऐसा डोलै...‘ (2018) में इसका परीक्षण करते हुए लिखते हैं- अनुमान लगता है कि निषध राज्य जबलपुर के पूरब में आज के छत्तीसगढ़ राज्य अथवा प्राचीन दक्षिण कोसल और उसके आस-पास रहा होना चाहिए। प्रख्यात पाश्चात्य विद्वान मोनियर विलियम ने पहले ही मोटे तौर पर इससे मिलता-जुलता अनुमान लगाया है। मगर पांचवीं सदी इस्वी के नल राजवंश के अभिलेख, सोने के सिक्के और गढ़धनोरा, भोंगापाल जैसे कला केंद्रों से उनका सीधा जुड़ाव इस भूभाग से प्रमाणित होता है। आर्यावर्त और दक्षिणापथ के बीच की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी महाकांतार-बस्तर है ही। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के दक्षिणापथ विजय अभियान में कोसल के महेन्द्र के बाद महाकांतार के व्याघ्रराज का उल्लेख है। 
000 
कहा गया है कि विधाता ने इन्द्र, मरुत, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चंद्र एवं कुबेर के प्रमुख अंशों से युक्त राजा की रचना की। अन्य देवता अलक्ष्य हैं, मगर राजा को हम देख सकते हैं ... राजा में विष्णु का अंश होगा। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है- राज्याभिषेक के बाद मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है। पुराने नाटकों में राजा को देव संबोधित किया गया है, कुषाण राजाओं ने स्वयं को देवपुत्र कहा है। मगर दूसरी तरफ राजनीतिप्रकाश में कहा गया है कि ‘स्वयं प्रजा विष्णु है।‘ राजा और सम्राट शब्द पर विचार करें- राजा-राजन् शब्द राज् अर्थात ‘चमकना‘ से आया माना जाता है और कहीं इसे रंज अर्थात (प्रजा को) ‘प्रसन्न करना‘ के अर्थ में देखा गया है। सम्राट शब्द का आशय है, क्षेत्र-विशेष, जिसके पूर्णतः अधीन हो। इसी प्रकार एक मत है कि राजन शब्द के मूल में ‘राट‘ है, जिससे राष्ट्र और सम्राट बनता है। 

काछिनमाता, माणिक्येश्वरी, सती आदि का समाहार स्वरूप दंतेश्वरी देवी बस्तर सामाज्ञी भी हैं। ज्यों ओरछा के दशरथनंदन राम‘राजा‘ हैं। अंग्रेजी में ‘ट्यूटरली डेइटी‘ यानि ऐसा देवता या आत्मा है जो किसी विशिष्ट स्थान, भौगोलिक विशेषता, व्यक्ति, वंश, राष्ट्र, संस्कृति या व्यवसाय का संरक्षक हो। शास्त्रीय ग्रंथों में राज्य की दैवी उत्पत्ति का सिद्धांत और राजा के देवत्व का उल्लेख आता है। ठाकुरदेव, बड़ादेव, बुढ़ादेव गांव के मालिक-देवता और दुल्हादेव, गृहस्वामी माने जाते हैं। इस तरह राजा और देव अभिन्न हो जाते हैं। 

राजा के दैवी उत्पत्ति में, बस्तर के राजा आदिवासी-देवसमूह की अधिष्ठात्री देवी दन्तेश्वरी के प्रमुख-पुजारी होने के नाते ईश्वर का अवतार माने जाते थे। प्रवीरचंद्र भंजदेव इसके साथ ‘माटी पुजारी‘ अर्थात बस्तर के सभी छोटे-बड़े देवी-देवताओं के सबसे मुख्य पुजारी माने जाते थे। स्वाभाविक ही वे अपनी पुस्तिका का शीर्षक ‘आइ प्रवीर द आदिवासी गॉड‘ (1966) रखते हैं, वहीं कांकेर के ‘राजा‘ डॉ.आदित्य प्रताप देव अपनी पुस्तक ‘किग्स, स्पिरिट्स एंड मेमोरी इन सेंट्रल इंडिया‘ (2022) के पहले अध्याय के लिए ‘द किंग एज ‘‘आइ’’ शीर्षक रखते हैं और मड़ई-दशहरा जैसे उत्सव-परंपराओं के दर्शक, सहभागी होते केंद्रीय पात्र बनते, मानों खुद की तलाश करने विवश होते हैं, राजा में देवत्व आरोपण पर कुछ यूं लिखते हैं- ‘‘राजा के आंगा देव होने के नाते पुराने राजमहल के ‘छोटे पाट‘, पूरे राज्य के आंगा देवों और राजा, जिन्हें बहुधा स्वयं देव (भगवान) रूप माना जाता था, उनकी शक्ति को समस्या निवारण के लिए, अपने में समा लेने में सक्षम थे।‘‘ (बड़े पाट, स्थानीय शीतला माता मंदिर में स्थापित हैं।) 

11 वीं सदी इस्वी के मधुरान्तकदेव के ताम्रपत्र में मेडिपोट (मेरिया-नरबलि) का उल्लेख है। बस्तर के जनजातीय असंतोष के इतिहास में 1842-63 का मेरिया विद्रोह भी दर्ज है। देवता को बलि दिए जाने के संदर्भ में दंतेश्वरी मंदिर, दंतेवाड़ा के द्विभाषी शिलालेख देखा जा सकता है, 18 वीं सदी इस्वी के आरंभिक वर्षों के दो पाषाण खंडों पर खुदा लेख दिकपालदेव से संबंधित है, जिसमें कहा गया है कि दंतावली देवी के मंदिर में संपन्न कुटुम्ब यात्रा अनुष्ठान में कई हजार भैंसे और बकरों की बलि दी गई, जिससे शंखिनी नदी का पानी पांच दिनों तक लाल कुसुम वर्ण हो गया। 

प्रवीरचंद्र भंजदेव परंपरा-आग्रही थे तो बलि जैसे मानवीय मसलों पर आधुनिक सुधारवादी भी थे। ऐसे एक प्रसंग का उल्लेख मिलता है, जिसमें बताया जाता है कि सन् 1960 के आसपास उन्होंने दशहरे के अवसर पर बकरा-महिष की बलि का निषेध कर नारियल चढ़ाने की परिपाटी चालू की। इसे चुनौती सी देते हुए बलराम नामक एक व्यक्ति ने, आदिवासी मुखियों के साथ प्रवीर से कहा- ‘महाराज पुराने जमाने में तो राजा लोग फूल रथ के सामने नर-बलि देते थे। आप कम से कम बकरे की बलि तो देने दीजिए। नारियल-वारियल से काम कैसे चलेगा महाराज। कुछ तो विचारिये।‘ इस पर प्रवीर ने कहा, ‘तो ठीक है, जाकर फूल रथ के सामने बलराम को काट दो। 
000 
धर्मक्षेत्र-पवित्र नगरियों का माहात्म्य प्राचीन ग्रथों में कहा जाता रहा है। इस दिशा में आधुनिक गंभीर अध्ययनों में भारत रत्न महामहोपाध्याय डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे विशेष उल्लेखनीय है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास‘ के तृतीय भाग में तीर्थप्रकरण के अंतर्गत गंगा, नर्मदा, गोदावरी के साथ प्रयाग, काशी, गया, कुरुक्षेत्र, मथुरा, जगन्नथ, कांची, पंढरपुर की विस्तार से चर्चा की है साथ ही दो हजार से अधिक नामों की परिचयात्मक तीर्थसूची दी है। काणे कहते हैं- ‘तीर्थयात्रा को नये रंग में ढालना होगा।‘ 

माहात्म्य कहने का आधुनिक समाज-मानवशास्त्रीय स्वरूप ‘सेक्रेड काम्प्लेक्स‘ (पावन या पुनीत प्रखंड/पवित्र संकुल-परिसर) के रूप में स्थल-विशेष का अध्ययन है। पिछली सदी के पचास-साठादि दशक में गया निवासी भूगोल विषय के स्नातक एल पी विद्यार्थी ने गयावालों का अध्ययन कर ‘द सेक्रेड काम्प्लेक्स इन हिंदू गया’ (1961) के रूप में आगे बढ़ाया, जो मानवशास्त्रियों के पारंपरिक अध्ययन तरीकों से अलग पद्धतिगत अभिविन्यास निर्धारित करता, अपने तरह का आरंभिक अध्ययन है। इस क्रम में उन्होंने बनारस, भुवनेश्वर, देवघर और पुरी के अलावा अन्य मंदिरों और घाटों का भी अध्ययन किया। 

प्रसिद्ध मानवशास्त्री डीएन मजुमदार ने भी काणे की तरह वस्तुस्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए परंपरा के साथ समय की आवश्यकता के अनुकूल समझौते पर बल दिया है साथ ही विद्यार्थी के अध्ययन को रेखांकित करते हुए कहा है- ‘‘हमारे मंदिर और धार्मिक तीर्थस्थल हमारी विरासत हैं और भारत की पहचान को आकार देते हैं। उनसे जुड़ी लोक मान्यताएं, रीति-रिवाज और शिक्षा को अलग करना या पहचानना मुश्किल है। कहानी केवल शास्त्रों में और मंदिर कला और वास्तुकला में ही नहीं है, बल्कि लोक और रीति-रिवाजों में भी है जो शहरों और मंदिरों के ‘पवित्र परिसर‘ में अभिन्न रूप से बुने हुए हैं। डॉ. विद्यार्थी ने मंदिरों के सामाजिक संगठन का वर्णन करने के लिए पवित्र केंद्र, पवित्र खंड, पवित्र समूह, पवित्र क्षेत्र, पवित्र भूमि, पवित्र भूगोल जैसे शब्दों का उपयोग किया है। वह तीर्थस्थल के पवित्र परिसर का वर्णन करते मानते हैं कि ऐसी अवधारणा भारत में आदिवासी धर्मों पर भी लागू होती है, जिसमें उनके पवित्र उपवन, पवित्र प्रदर्शन और पवित्र अनुष्ठान शामिल हैं।‘‘ 

सेक्रेड काम्प्लेक्स के अध्ययन का क्रम डॉ. माखन झा ने आगे बढ़ाया तथा ‘काम्प्लेक्स सोसायटीज एंड अदर एंथ्रोपोलॉजिकल एसेज‘ (1991) आदि कई प्रकाशन सामने आए। डॉ. माखन झा का छत्तीसगढ़ से रिश्ता बना, उन्होंने 1969-70 में रतनपुर और आसपास के क्षेत्र का व्यापक-गहन सर्वेक्षण किया और अपने विभिन्न प्रकाशनों में उसे शामिल किया। डी.एन. मजुमदार की बस्तर आवाजाही अकलतरा निवासी इंद्रजीत सिंह के माध्यम से हुई। डॉ. इंद्रजीत सिंह का शोधग्रंथ ‘‘द गोंडवाना एंड द गोंड्स‘ (1944), किसी भारतीय द्वारा बस्तर पर किया गया पहला शोधकार्य है। 

धार्मिक-तीर्थस्थल, पर्यटन स्थलों से कई मायनों में अलग होते हैं। मंदिर के साथ इतिहास, आस्था और परंपरा की महीन परतें होती हैं, ये परतें न सिर्फ महीन होतीं, बल्कि आपस में घुली-मिली भी होती हैं। इन्हें परखने के लिए उसका अंग बन जाना, आत्मीयता से अवलोकन कर तटस्थ अभिलेखन संभव होता सकता है। प्राचीन मंदिर, धार्मिक आस्था के साथ-साथ शिक्षा, चिकित्सा, लोक-कल्याण और संस्कृति के केंद्र होते थे, जहां जन-समुदाय एकत्र हो घुलता-मिलता था। अतएव वहां भाषा-संस्कृति के ऐसे बहुतेरे ऐतिहासिक तथ्य होते हैं जिनका महत्व समय-सापेक्ष और काल-स्वीकृत हो कर परंपरा में बदल जाने के कारण होता है। ऐसी आस्था, जिसका आधार मात्र धार्मिक नहीं, जो समष्टि से विकसित है, सभ्यतागत ढांचे के भाग के रूप में समय के साथ पुष्ट होती है। इस क्रम में नवाचार भी जुड़ता जाता है, ज्यों इस वर्ष 2025 में दंतेवाड़ा की फागुन मड़ई में पहुंचे 994 देव-विग्रहों का परिचय पत्र बनाया गया, जिसमें उनका नाम-पता, पुजारी का नाम और मोबाइल नंबर के साथ सिरहा, वादक-वृंद और झंडा पकड़ने वाले का नाम दर्ज किए जाने का समाचार है। 

केदारनाथ ठाकुर बस्तर भूषण 1908 में राजबाड़ा के अंदर स्थित दंतेश्वरी मंदिर के साथ दंतेवाड़ा के दंतंश्वरी मंदिर का विवरण मिलता है, उन्होंने ‘दन्तेश्वरी मंदिर के तेवहार‘ शीर्षक के अंतर्गत चैत्र से फालगुन तक सभी बारह माह की गतिविधियों का लेखा दिया है। यही इस पुस्तक की पीठिका या प्रस्थान बिंदु है, इस उद्यम में तीर्थयात्री के साथ पर्यटक और अध्येता की भूमिका का सम्यक निर्वाह हुआ है, इसलिए यह माहात्म्य, सेक्रेड काम्प्लेक्स के शोध के साथ वस्तुतः स्थल-पुराण है, जिसमें स्थान-विशेष की संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रथाओं, जातीय परंपराओं और वहां के समाज का भी वर्णन है। 
000 
डॉ. हीरालाल शुक्ल मानते हैं कि शाक्त केंद्र दंतेवाड़ा का मंदिर नाग युग में ‘दत्तवाड़ा‘ नाम से विकसित हो चुका था। उन्होंने ‘आदिवासी बस्तर का बृहद् इतिहास‘-चतुर्थ खण्ड (2007) में नाटककार अर्जुन होता रचित उड़िया कृति ‘बस्तर विजय‘ (1941 में प्रकाशित), डॉ. चित्तरंजन कर द्वारा अनुदित, को शामिल किया है। नाटक का अंतिम अंश इस प्रकार है- महाराजा- हाँ, और एक बात। मंत्री महाशय! बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी की कृपा ही बस्तर-विजय का मूल है। गाँव-गाँव में, घर-घर में उनकी पूजा का आयोजन करो। राज्य में प्रचार करो, सभी उनकी ‘बस्तरेन‘ नाम से पूजा करेंगे ... ... ... 
... ... ... 
‘जय माँ बस्तरेन् की जय‘ 

-राहुल कुमार सिंह 
प्रमुख, धरोहर परियोजना 
बायोडायवर्सिटी एक्सप्लोरेशन एंड रिसर्च सेंटर

Sunday, May 4, 2025

महाभारत, भारत और भरत

श्रीमद्भगवतगीता (गीता) और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र को यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर‘ में शामिल किया गया है। प्रधानमंत्री जी ने इसे ‘हमारी सनातन बुद्धिमत्ता और समृद्ध संस्कृति की वैश्विक मान्यता‘ कहा है। इस खबर पर कहा जा सकता है कि किसी भी सूची की विश्वसनीयता और महत्व, उसकी प्रविष्टियों से होता है और इन दो प्रविष्टियों से ‘रजिस्टर‘ की दर्ज संख्या के साथ विश्वसनीयता में भी इजाफा हुआ है। रामचरितमानस, पंचतंत्र और आचार्य आनंदवर्धन कृत सहृदयालोक जैसी प्रविष्टियां इस रजिस्टर में पहले ही दर्ज की जा चुकी हैं। 1992 में स्थापित इस रजिस्टर का मुख्य उद्देश्य दस्तावेजी धरोहरों का संरक्षण है। गीता के साथ विशेष उल्लेखनीय कि वह हमारी परंपरा में भी ‘स्मृति प्रस्थान‘ है। 

तीन प्रस्थानों- श्रुति, स्मृृति और न्याय में दूसरा, यानि स्मृति प्रस्थान, गीता है। श्रुति, उपनिषद हैं, जो वेद-समष्टि के भाव-बोध को, स्थायी मूल्यों को, शब्दों में लाने का उद्यम, अवधारणा हैं। इसलिए सर्वकालिक हैं। स्मृति, व्यक्ति के द्वारा समष्टि के लिए की गई श्रुति-अवधारणा की व्याख्या है, समयानुकूल, प्रसंगानुकूल आकृति-विन्यास है और ‘ब्रह्मसूत्र‘ न्याय अवधारणाओं का विश्लेषण, मीमांसा। श्रुति की अभिव्यक्ति- भाषा, चित्र, गीत में हो सकती है, अविच्छिन्न का ऐसा अंश, जिसमें प्रकृतिगत पूर्णता है, संस्कार की परतें उसे एकांगी बनाती हैं, उनसे उबर कर बोध की अपनी मूल प्रवृत्तियों को पहचाना जा सकता है। 

महाभारत के छठवें- भीष्म पर्व से जय (महाभारत) युद्ध आरंभ होता है। दसवें दिन के युद्ध में भीष्म के शर-शैया पर आ जाने के बाद संजय कुरुक्षेत्र से लौटे हैं। व्यास के धृतराष्ट्र को दिव्य नेत्र प्रदान करने के प्रस्ताव पर धृतराष्ट्र कुटुम्बीजनों का वध न देखना पड़े, मगर युद्ध का सारा वृतांत जानें, ऐसी इच्छा व्यक्त करते हैं। इस पर सूत गवल्गण पुत्र संजय को स्वयं व्यास दिव्य दृष्टि संपन्न हो कर सर्वज्ञ होने का वर देते हैं कि वह युद्धभूमि की सारी बातें, जो उसके प्रत्यक्ष न हो अथवा वह मन में ही क्यों न सोची गई हो, जान लेगा। संजय स्पष्ट करते हैं कि इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त रोमांचकारक संवाद को सुना। धृतराष्ट्र प्रश्न करते हैं संजय उनका समाधान करते हैं, इसलिए ‘गीता‘ लाइव, रीयल टाइम नहीं, बल्कि संजय द्वारा देखा-जाना-बूझा, सुनाया गया स्मृति-प्रतिवेदन है। 

स्मृति का एक रिफ्रेशर स्वयं महाभारत, आश्वमेधिक पर्व में अनुगीता पर्व है, जिसमें गीता के 700 श्लोक से लगभग ड्योढ़ी, 1027 श्लोक की अनुगीता है। अनुगीता में अर्जुन को कृष्ण गले लगाते, मगर फटकारते हैं कि उसने गीता का उपदेश याद नहीं रखा। साथ-साथ कृष्ण यह भी स्वीकार करते हैं कि वह पूरा स्मरण न हो पाने के कारण उसे उसी रूप में दुहरा देना अब उनके वश में भी नहीं है। ध्यातव्य कि अनुगीता, स्मृति प्रस्थान गीता की प्रसंगानुकूल व्याख्या है, इसलिए दुहराई नहीं गई, (दुहराने का औचित्य भी न होता) और आकार बढ़ गया है। 

गांधी, हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) से, खासकर उनकी पुस्तक ‘सिविल डिसओबिडिएन्स‘ से प्रभावित थे वहीं थोरो भारतीय दर्शन और चिंतन के समर्थक, उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वॉल्डन‘ में कहा है- ‘प्राचीन खंडहरों की तुलना में भगवद्गीता कितनी अधिक महिमामयी है।‘ गीता पर बाल गंगाधर तिलक जैसे विद्वानों की टीका के अलावा गांधी की ‘अनासक्ति योग‘ प्रसिद्ध है। गांधी का संदर्भ लें तो उनके ‘हिन्द स्वराज‘ श्रुतित्व, आत्मकथा स्मृतित्व, पत्रादि अन्य लेखन में न्यायत्व है। गांधी, हिन्द स्वराज में कोई परिवर्तन नहीं करते बल्कि वर्षों बाद के भी किए गए सवालों का जवाब देते हैं कि ऐसी बात वे पहले ही हिन्द स्वराज में कह चुके हैं। जैसा कहा जाता है कि आवश्यक होने पर संविधान की व्याख्या में उसकी ‘श्रुतिगत‘, प्रस्तावना-आधार मददगार होगी। 

000 

नाट्यशास्त्र को पंचम वेद भी कहा गया है। नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति के बारे में कथा बताई जाती है देवताओं के अनुरोध पर ब्रह्मा ने ऋग्वेद के पाठ्य, सामवेद के गीत, यजुर्वेद के अभिनय तथा अथर्ववेद के रस तत्त्व से इस पंचम वेद को रचा, कथा का आशय नाटक परंपरा का मूल चारों वेद ही हैं। चार उपवेदों अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, गांधर्ववेद और आयुर्वेद से संबद्ध नाट्यवेद, सर्वश्राव्य, अर्थात जो सभी वर्णों के लिए हो, इस पांचवे वेद की सृष्टि हुई। 

नाट्यशास्त्र का रचयिता मुनि भरत को माना जाता है। यहां भरत, भारत और भारती इन तीन शब्दों पर विचार कर लें। भारत का एक अर्थ अभिनेता भी है और भरत को भी व्यास की तरह व्यक्ति-विशेष नहीं जातिवाचक माना जाता है। कुबेरनाथ राय भरत को कल्पित या कुल-नाम मानते हुए, भरतों को कला-रसिक, साहित्य, कथा, और अभिनयपटु बताते हैं और इस तरह कला, संगीत, साहित्य की ‘वाग्देवी‘ सरस्वती का नाम भारती सटीक बैठता है। नाट्यशास्त्र के पैंतीसवें अध्याय के एक श्लोक का संदर्भ भी प्रासंगिक होगा, जिसमें भरतों (नटों) के प्रकार बताते हुए कहा गया है- ‘जो नाटक के अभिनय में अकेला धुरी की तरह हो, अनेक भूमिकाएं करके नाटक का उद्धार करने वाला हो, भाण्ड और उपकरण भी संभालता हो, वह भरत है। 

स्मरणीय कि नाट्यशास्त्र का पाठ बहुत बाद में प्राप्त हुआ। इस ग्रंथ का उल्लेख तो मिलता था, लेकिन ग्रंथ उपलब्ध नहीं था। 1789 में सर विलियम जोन्स ने मूल संस्कृत ‘अभिज्ञान शाकुंतलम‘ का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित कराया, तब उसकी भूमिका में नाट्यशास्त्र के उपलब्ध न होने का अफसोस भी जताया। होरैस हेमैन विल्सन ने मूल संस्कृत नाटकों के आधार पर दो खंड तैयार किए, जिसका प्रकाशन 1827 में हुआ। विल्सन, जोन्स के शकुंतला नाटक के क्रम में एच.टी. कोलब्रुक 1808 के शोध लेख और जे. टेलर द्वारा अनूदित नाटक प्रबोध चंद्रोदय 1811 की चर्चा करते हुए विभिन्न टीकाकारों द्वारा भरत मुनि के नाट्यशास्त्र का संदर्भ लिए जाने एवं उक्त के उपलब्ध न होने का उल्लेख करते हैं। अन्य उपलब्ध सामग्री के आधार पर नाट्यकला के तीन प्रकारं- नाट्य, नृत्य और नृत्त को स्पष्ट करते हुए उल्लेख करते हुए स्पष्ट करते हैं कि इनमें अभिनय और भाषा के साथ किया जाने वाला ‘नाट्य‘ ही वास्तविक नाटक है, ‘नृत्य‘, भाषा (संवाद) के बिना, मूकाभिनय का हाव-भाव है और ‘नृत्त‘, नर्तन-मात्र है। तथा देवताओं के सामने प्रदर्शन के लिए गंधर्व और अप्सराओं को भरत ने प्रशिक्षित किया। 

विल्सन के बाद नाट्यशास्त्र के कुछ फुटकर अंश प्रकाश में आए, मगर समग्र रूप 1894 में पहली बार प्रकाशित हुआ। इसने न सिर्फ भारतीय रंगमंच, बल्कि पूरी दुनिया के रंगकर्म को प्रभावित किया। नाट्यशास्त्र का प्रामाणिक संस्करण अभिनवगुप्त की टीका अभिनवभारती सहित चार खंडों में 1926 से 1964 के बीच प्रकाशित हुआ। अब 2024 में पहली बार अधिकारी विद्वान आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा किया गया इसका संपूर्ण हिंदी अनुवाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया है। आचार्य त्रिपाठी, साहित्य के पांच ग्रंथों में ऋग्वेद, रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र के साथ नाट्यशास्त्र की गणना करते हैं। 

नाट्यशास्त्र के लिए कहा जाता है कि संसार का ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला, योग, कर्म नहीं जो इस नाट्य में गुंफित न हो जाता हो। 37 अध्याय वाले इस नाट्यशास्त्र के आरंभिक अध्याय में नाट्योत्पत्ति और मंडपविधान विवरण है। अगले अध्यायों में रस सिद्धांत- मुद्राएं, अभिनय, भाव और रस, वाणी, छंद, काव्यशास्त्र, वाद्य-संगीत, नृत्य आदि की विशद व्याख्या है। अंत में यह भी कहा गया है- ‘नाट्यवेद में शिक्षित प्रहसनों का अभिनय करने लगे ... उन्होंने मिलकर ग्राम्य धर्म से युक्त शिल्पक का प्रयोग किया, जिसमें ऋषियों पर सामूहिक रूप से व्यंग्य था। ... और शास्त्रकार की उदारता, कि कहता है- ‘जो यहां नहीं कहा गया, उसे लोक की अनुकृति करके जान लेना चाहिए।‘