Wednesday, June 4, 2025

संग्रहालय और कथा-कथन

इस वर्ष 2025 में अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस पर संचालनालय पुरातत्व, अभिलेखागार और संग्रहालय, रायपुर में 16 से 18 मई को संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसके लिए निर्धारित विषयों में से The Importance of Storytelling in Future Museum Experiences पर मुझे कुछ बातें कहना था, साथ ही आयोजकों द्वारा लिख्ति परचे की अपेक्षा थी। निजी कारणवश आयोजन में उपस्थित न हो सका, मगर परचा तैयार कर चुका था। इस अवसर पर प्रकाशित पुस्तिका में मेरे परचे को परिचय सहित शामिल किया गया है- 

राहुल कुमार सिंह 
# जन्म- 1958, अकलतरा, छत्तीसगढ़ निवासी। पुरातत्व की उच्च शिक्षा प्राप्त, स्वर्ण पदक सहित। राज्य सरकार में 36 वर्षों तक सेवा। फेलो, अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज। 500 से अधिक स्थलों का पुरातत्वीय-सांस्कृतिक सर्वेक्षण किया, जिनमें ताला, डीपाडीह, गढ़धनोरा, भोंगापाल, डमरू आदि उत्खनन तथा लालबाग, इंदौर, गूजरी महल, ग्वालियर, ओरछा अनुरक्षण-विकास परियोजनाओं में महती भूमिका।
# मौलिक कृतियाँ: ‘एक थे फूफा‘ उपन्यासिका, ‘सिंहावलोकन‘ तथा ‘छत्तीसगढ़ का लोक-पुराण (समग्र शिक्षा के लिए चयनित) निबंध संग्रह, ‘संग्रहालय विज्ञान का परिचय‘, ‘ताला का पुरा-वैभव‘ (सहलेखन)। हंस, इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी आदि प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानी, निबंध प्रकाशित। 
# राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अंतर्गत बच्चों के लिए द्विभाषी संस्करण की सात पुस्तकों का छत्तीसगढ़ी भाषा में अनुवाद। नाटक ‘जसमा ओड़न‘ का छत्तीसगढ़ी अनुवाद (अप्रकाशित)। प्रामाणिक अभिलेखीय ग्रंथ ‘उत्कीर्ण लेख‘ का परिवर्धन। शोध-पत्रिका ‘कोसल‘ के संपादक सदस्य। 
# पुरस्कार/सम्मान: बिलासा सम्मान 2008, श्रेष्ठ ब्लॉग विचारक 2011, पुरी पीठाधीश्वर द्वारा 2013 में ‘धरती-पुत्र‘ सम्मान तथा 2019 में इंडिया टुडे संस्कृति सम्मान। 
# संप्रति: प्रमुख, धरोहर परियोजना, बायोडायवर्सिटी एक्सप्लोरेशन एंड रिसर्च सेंटर। शैक्षणिक, प्रशासनिक संस्थानों में प्रशिक्षण-विशेषज्ञ। संस्कृति विषयक स्वाध्याय और वेब-अभिलेखन। 

भविष्य के संग्रहालय अनुभव में कथा-कथन 

इस कहानी में पहले 2011 के अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस की याद, जिसका विषय था ‘संग्रहालय और स्मृति: चीजें कहें तुम्हारी कहानी। आज उस दिवस का भविष्य है, जब यह कहानी कही जा रही है, जो भविष्य के संग्रहालय अनुभव को समृद्ध और रोचक बनाने में सहायक हो सकेगी। यों हमारी परंपरा रही है, वैदिक संवाद-प्रसंग कथा का रूप ले लेते हैं, उपनिषद और महाकाव्य होते पौराणिक कथाओं का विशाल भंडार है, वहीं बृहत्कथा, कथासरित्सागर और जातक कथाओं के साथ पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियां हैं। दरअसल अधिकतर किस्से, ऐतिहासिक तथ्यों में सिमटने से बची रह गई घटना-स्थितियों को रोचक बनाकर याद रखने में मददगार होते हैं, ज्यों तुक छंदोबद्ध कविता और गीत। 

यहां कहानी, संग्रहालयों की और इस महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर की। सन 1784 में कलकत्‍ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम आबादी वाला (सन 1872 में 19119, 1901 में 32114, 1931 में 45390) शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना गया, वैसे रायपुर शहर के 1867-68 के एक नक्‍शे में अष्‍टकोणीय भवन वाले स्‍थान पर ही म्‍यूजियम दर्शाया गया है। 

इस संग्रहालय का एक खास उल्‍लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्‍लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्‍चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए। फिर उल्‍लेख है कि दर्शक संख्‍या में कमी का कारण संग्रहालय के प्रति घटती रुचि नहीं, बल्कि चौकीदार का कदाचरण है, जो परेशानी से बचने के लिए संग्रहालय को खुला रखने के समय भी उसे बंद रखता है। 

सन 1936 के प्रतिवेदन, (द म्यूजियम्स आफ इंडिया- एसएफ मरखम एंड एच हारग्रीव्स) से रायपुर संग्रहालय की रोचक जानकारी मिलती है, जिसके अनुसार रायपुर म्युनिस्पैलिटी और लोकल बोर्ड मिलकर संग्रहालय के लिए 400 रुपए खरचते थे, रायपुर संग्रहालय में तब 22 सालों से क्लर्क, संग्रहाध्यक्ष के बतौर प्रभारी था, जिसकी तनख्‍वाह मात्र 20 रुपए (तब के मान से कम?) थी। संग्रहालय में गौरैयों का बेहिसाब प्रवेश समस्या बताई गई है। 

यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि इसी साल यानि 1936 में 8 फरवरी को मेले के अवसर पर लगभग 7000 दर्शकों ने रायपुर संग्रहालय देखा, जबकि पिछले पूरे साल के दर्शकों का आंकड़ा 72188 दर्ज किया गया है। इसके साथ यहां आंकड़े जुटाने के खास और श्रमसाध्य तरीके का जिक्र जरूरी है। संग्रहालय के सामने पुरुष, महिला और बच्चों के लिए तीन अलग-अलग डिब्बे होते, जिसमें कंकड डाल कर दर्शक प्रवेश करता और हर शाम इसे गिन लिया जाता। यह सब काम एक क्लर्क और एक चौकीदार मिल कर करते थे। तब संग्रहालय के साप्ताहिक अवकाश का दिन रविवार और बाकी दिन खुलने का समय सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक होता। 

सन 1953 में इस नये भवन का उद्‌घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। अब यहां भी देश-दुनिया के अन्य संग्रहालयों की तरह सोमवार साप्ताहिक अवकाश और खुलने का समय सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे है। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। ध्यान दें, अंगरेजी राज था, तब शायद राजा और दान शब्द किसी भारतीय के संदर्भ में इस्तेमाल से बचा जाता था, शिलापट्‌ट पर इसे नांदगांव के रईस का बसर्फे या गिफ्ट बताया गया है। 

संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्‍मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है। 

रायपुर संग्रहालय की सिरपुर से प्राप्त मंजुश्री कांस्य प्रतिमा अन्य देशों में आयोजित भारत महोत्सव में प्रदर्शित की जा चुकी है, इसी प्रकार सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं और स्वर्ण एवं अन्य धातुओं के सिक्कों का अमूल्य संग्रह संग्रहालय में है। ऐसे पुरावशेष जन-सामान्य तो क्या, विशेषज्ञों और राज्य की संस्कृति और विरासत से जुड़े गणमान्य, इससे लगभग अनभिज्ञ हैं, तथा उनके लिए भी सहज उपलब्ध नहीं है। उल्लेखनीय है कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के भारतीय कला के मर्मज्ञ प्रोफेसर प्रमोदचंद्र ने मंजुश्री प्रतिमा को छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला का सक्षम प्रतिनिधि उदाहरण माना था। इसके पश्चात 1987 में देश के महान कलाविद और संग्रहालय विज्ञानी राय कृष्णदास के पुत्र आनंदकृष्ण रायपुर पधारे और तत्कालीन प्रभारी श्री वी.पी. नगायच से विनम्रतापूर्वक सिरपुर की कांस्य प्रतिमाओं को देखने का यह कहते हुए आग्रह किया कि उनके बारे में बस पढ़ा है, चित्र देखे हैं। इन प्रतिमाओं को एक-एक कर हाथ में लेते हुए भावुक हो गए, नजर भर कर देखते और माथे से लगाते गए। 

इस संस्था से जुड़कर विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी एम.जी. दीक्षित ने 1955-57 के दौर में सिरपुर उत्खनन कराया। अधिकारी विद्वान बालचंद्र जैन, सहायक संग्रहाध्यक्ष पद पर रहते हुए सन 1960-61 में ‘उत्कीर्ण लेख‘ पुस्तक तैयार की, जो वस्तुतः संग्रहालय के अभिलेखों का सूचीपत्र है, किंतु इस प्रकाशन से न सिर्फ संग्रहालय, बल्कि प्राचीन इतिहास के माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठा उजागर हुई। साठादि के दशक में इस परिसर का बगीचा, शहर का सबसे सुंदर बगीचा होता था। राज्य निर्माण के बाद डॉ. के.के. चक्रवर्ती, डॉ. इंदिरा मिश्र और प्रदीप पंत जी, आरंभिक अधिकारियों ने राज्य में शासकीय विभाग के कामकाज की दृष्टि से संस्कृति-पुरातत्व की मजबूत बुनियाद तैयार कर दी थी। इस संग्रहालय से जुड़े कई अल्प वेतन भोगी सदस्यों की निष्ठा और योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता, जिनमें से कुछ नाम- जलहल सिंह, राजकुमार पांडेय, मूलचंद, बाबूलाल, भगेला, प्रेमलाल, महेश आदि हैं। 

एक कहानी महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय के अनूठे काष्ठस्तंभ लेख की। वर्तमान सक्ती जिले में महानदी और मांद के संगम पर स्थित चन्दरपुर के निकट ग्राम किरारी की इस कहानी में कोई दो हजार साल पुरानी यादें हैं, जिस काल की लिपि इस काष्ठस्तंभ पर उत्कीर्ण है। वह पन्ना फिर खुला सन 1921 में, जब गांव के हीराबंध तालाब सूखने पर, खाद के लिए तालाब की मिट्टी निकालते हुए यह काष्ठस्तंभ मिला। धूप और नमी पाकर लकड़ी चिटकने से खुदे हुए अक्षर टूटने लगे, मगर गनीमत कि इस लिपि से अनजान होने के बावजूद स्थानीय पं. लक्ष्मीप्रसाद उपाध्याय ने इसकी यथादृष्टि नकल उतार ली। नकल उतारने वाले का लिपि से अनजान होना ही उस नकल की विश्वसनीयता का आधार बना और लकड़ी के दरकने से बिगड़ गए अक्षरों के बावजूद भी पं. लक्ष्मीप्रसाद द्वारा बनाई लगभग 349 अक्षरों की नकल के आधार पर इस अभिलेख का पाठ डा. हीरानंद शास्त्री ने तैयार किया (Epigraphia Indica Vol. XVIII, 1925-26, Page- 152-157), जो साहित्य-प्रेमियों में पुत्र सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय‘ के पिता के रुप में जाने जाते हैं। इस लकड़ी को तब जानकारों ने बीजासाल बताया। कहानी आगे बढ़ी।

1947 में पुरातत्व के महानिदेशक डा. एन.पी. चक्रवर्ती ने इस लकड़ी के परीक्षण के लिए वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून भेजा। वहां इसका परीक्षण एस.एस. घोष ने किया और अपने अध्ययन का परिणाम Ancient India No. 6, January 1950, Page- 17-20 में प्रकाशित किया, जिसमें पाया गया कि यह लकड़ी बीजासाल नहीं बल्कि महुआ ‘मधुका लैटीफोलिआ‘ है। वनस्पति विज्ञान के साथ पुराने शास्त्रीय ग्रंथों के संदर्भों की दृष्टि से इस स्तंभ को समझने का प्रयास करते हुए, घोष का यह शोध-लेख भी विशिष्ट महत्व का है। उन्होंने इस स्तंभ के यज्ञ-यूप, वाजपेय-अनुष्ठान, तालाब-स्तंभ, जय-स्तंभ और ध्वज-स्तंभ होने की संभावना की ओर ध्यान दिलाया है। यह अध्ययन इस स्तंभ पर खुदे अक्षरों और तालाब से प्राप्ति के आधार पर प्रयोजन निर्धारण की दृष्टि से पुराविदों के लिए महत्वपूर्ण था ही, अध्ययनकर्ता घोष ने टिप्पणी की कि यह काष्ठ-तकनीशियनों के लिए भी रोचक है, क्योंकि लकड़ी, महुआ मिट्टी-पानी को सहन कर सकने वाला, मजबूत स्तंभ और अक्षर उकेरने के लिए भी उपयुक्त होता है।

इस अनूठे पुरावशेष की जानकारी पं. लोचन प्रसाद पांडेय ने सर जान मार्शल को भेजी। फलस्वरूप इसे तब मध्यप्रांत की राजधानी नागपुर के शासकीय संग्रहालय ले जाया गया, जिसका सुरक्षित रह गया अंश अब इस संग्रहालय की अभिलेख दीर्घा में प्रदर्शित है। 

कहा जाता है, संग्रहालयीकरण, उपनिवेशवादी मानसिकता है और अंगरेज कहते रहे कि यहां इतिहास की बात करने पर लोग किस्से सुनाने लगते हैं, भारत में कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं है। माना कि किस्सा, इतिहास नहीं होता, लेकिन इतिहास वस्तुओं का हो या स्वयं संग्रहालय का, हिन्दुस्तानी हो या अंगरेजी, कहते-सुनते क्यूं कहानी जैसा ही लगने लगता है? चलिए, कहानी ही सही, लेकिन हकीकत का बयान इन कहानियों के बिना कैसे संभव हो!

एक और हकीकत का अफसाना- कोई 30 साल पहले किसी दिन बिलासपुर, गोंड़पारा यानि राजेंद्रनगर वाले अपने दफ्तर में मेज पर के कागज-पुरजों की छंटाई करते हुए एक परची मिली, जिस पर कुछ लिखा हुआ था, जिज्ञासा हुई कि अजनबी सी यह किसकी लिखावट है। पूछने पर बताया गया कि कुछ दिन पहले एक किशोर आया था, उसने यह छोड़ा था, बताना भूल गए थे। मेरी पूछताछ का कारण था कि पुरजे पर की लिखावट, पुरानी नागरी लिपि की नकल है, साफ तौर पर पहचानी जा सकती थी। तुरंत हरकत जरूरी हो गया। कार्यालय के सहयोगियों ने याद कर बताया कि रमेश जायसवाल नाम था, सिंधी कालोनी में कहीं रहता था। उसकी खोज में निकले, ज्यादा मशक्कत नहीं हुई, रमेश मिल गए। बताया कि मामा के यहां समडील गए थे, तांबे के स्लेट पर लिखावट की जानकारी मिली, देखने गए और कुछ हिस्से की नकल बना ली थी, वही पुरजा छोड़ कर आए थे। 

अगले ही दिन सुबह रमेश को साथ ले कर समडील जा कर गांव के देव-स्थलों, खेत-खार देखते लखन पटेल के घर पहुंचे। लखन ने ताम्रपत्र सहजता से दिखा दिया, फोटो और नाप-जोख भी करने दिया। बातें होने लगी। इस पर उसने बताया कि उसके कोई आल-औलाद नहीं थी। कुछ बरस पहले खेत जोतते यह मिला, उसे वह घर ले आया, पूजा-पाठ की जगह पर रख दिया। इसके बाद संतान प्राप्ति हुई, तब से इस ताम्रपत्र की पूजा-प्रतिष्ठा और बढ़ गई। ताम्रपत्र को संग्रहालय के लिए प्राप्त करना था, लेकिन लगा कि मामला संवेदनशील है, नियम-कानून के लिए बेसब्री करना ठीक नहीं होगा और करना भी हो तो, अभी वह अवसर नहीं है। 

वापस बिलासपुर लौटकर इस ताम्रपत्र के मजमून पर मशक्कत शुरू हुई। कार्यालय के वरिष्ठ मार्गदर्शक श्री पैकरा साथ नहीं जा पाए थे, अफसोस करने लगे और जा कर स्थल और ताम्रपत्र देखने की इच्छा व्यक्त की। लोक-व्यवहार वाले कामों में श्री पैकरा की कार्य-कुशलता को मैंने अधिकतर अपने से बेहतर पाया है। मैंने उन्हें काम सौपा कि वहां जाएं तो स्वयं भी ग्राम और स्थल निरीक्षण का एक नोट बनाएं (उद्देश्य था कि पहले गांव और लोगों से मिलते-जुलते स्वयं वहां से आत्मीयता महसूस करें) और लौटने के पहले ताम्रपत्र देखने लखनलाल से मिलने जाएं। साथ ही यों मुश्किल है, लेकिन प्रयास करें (ऐसी चुनौती से उनका उत्साहवर्धन होता है) कि बिना किसी दबाव के ताम्रपत्र संग्रहालय के लिए प्राप्त हो जाए। 

पैकरा जी तालाब, डीह, खेत-खार करते गांव में घूम-फिर कर लखनलाल के पास पहुंचे। लखनलाल ने ताम्रपत्र दिखाया और उसके साथ का किस्सा पूरे विस्तार से सुनाया। ताम्रपत्र मिले हैं तब से जमीन खरीद ली, लंबे समय बाद संतान हुआ। कुछ गांव वाले भी आ गए। उन्हें लगा कि इस ‘बीजक‘ में जरूर किसी खजाने का पता है, जिसके चक्कर में आया कोई फरेबी है। उत्तेजित गांव वालों को श्री पैकरा ने समझाइश और थोड़ी अमलदारी का रुतबा बताया। बातचीत होने लगी। पैकरा जी ने अपना पूरा नाम बताया अमृतलाल, संयोग कि लखनलाल के पिता का नाम भी अमृतलाल ही था। लखनलाल को फैसला करते देर न लगी। पुरखों का आशीर्वाद, वंश चलाने अब बाल-बच्चे, लोग-लइका तो आ ही गए हैं और पिता-पुरखा के सहिनांव पिता-तुल्य अमृतलाल इस ताम-सिलेट को लेने आ गए हैं। सहर्ष ताम्रपत्र पैकरा जी को सौंप दिया। 

ताम्रपत्र, बिलासपुर संग्रहालय के संग्रह में है। रमेश जायसवाल, बिलासपुर निगम के पार्षद बने, जन-सेवा में लगे हैं। श्री पैकरा अब मुख्यालय रायपुर में उपसंचालक पद का दायित्व निर्वाह कर रहे हैं। समडील के तत्कालीन सरपंच विष्णु जायसवाल जी के पुत्र हेमंत जी से पता लगा, लखनलाल जी घर-परिवार सहित राजी-खुशी हैं। जैसे उनके दिन फिरे, सबके फिरें। 

तो किस्सा कोताह यह कि संग्रहालय में वस्तु-प्रादर्शों के साथ ऐसी कहानियां भी संजोई जाती रहें, जो भविष्य के संग्रहालय अनुभव को और भी जीवंत रखे।

Saturday, May 31, 2025

माँ दंतेश्वरी

ओमप्रकाश सोनी, सुकमा, बस्तर में इतिहास के प्राध्यापक हैं, उनके माध्यम से माँ दंतेश्वरी से जुड़ी कुछ बातें कहने का अवसर बना। अब वह उनकी पुस्तक ‘बस्तर साम्राज्ञी माँ दंतेश्वरी (इतिहास और पुरातत्व)‘ में 'भूमिका' के रूप में प्रकाशित है-

भूमिका 

अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका (उज्जयिनी) एवं द्वारका, सात अति पवित्र तीर्थ प्रसिद्ध हैं। चार धाम और द्वादश ज्योतिर्लिंग के अलावा बार्हस्पत्यसूत्र में आठ-आठ शैव, वैष्णव और शाक्त सिद्धिदायक तीर्थों की सूची मिलती है। सात नगरियों की तरह गंगा, यमुना, सरस्वती, सिंधु, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी- सात नदियां अति पवित्र मानी गई हैं। वैदिक सप्त सिंधु का आशय संभवतः इन सात नदियों से नहीं है, मगर प्रसंगवश ‘हिंदु‘ (हप्त हिन्दु) शब्द सिंधु नदी से संबंधित भौगोलिक क्षेत्र के रूप में पांचवीं सदी इस्वी पूर्व से प्रचलित रहा है, जिससे इंडोई और इंडिया शब्द आया। पाणिनी ने भी सिन्धु शब्द का प्रयोग देश के अर्थ में किया है। 

ऐसी कई सूचियां और उनके माहात्म्य मिलते हैं। सती की कथा और उसके अंगों के गिरने के स्थान पर बने शक्तिपीठों की संख्या ‘तन्त्रचूडामणि‘ में बावन, ‘शिवचरित्र‘ में इक्यावन, ‘देवीभागवत‘ में एक सौ आठ दी गई है और ‘कालिकापुराण‘ में छब्बीस उपपीठों का वर्णन है पर साधारणतया पीठों की संख्या इक्यावन स्वीकृत है। दंतेवाड़ा, बस्तर की दंतेश्वरी, सती के दांत गिरने का स्थान और उस पर स्थापित शक्तिपीठ के रूप में मानी जाती हैं। 
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स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद छत्तीसगढ़ की 14 देशी रियासतों में से कांकेर को जोड़ कर बस्तर जिला बना। यहां से अतीत की ओर लौटें तो नागयुग में ‘मासुनिदेश‘, ‘चक्रकोट‘ तथा ‘भ्रमरकोट‘, नलयुग में ‘निषधदेश‘, गुप्तकाल ‘महाकान्तार‘, महामेघ-शक-सातवाहन काल में ‘विद्याधराधिवास‘, ‘मलयमहेन्द्रचकोरक्षेत्र‘, ‘महावन‘, मौर्यकाल में आटविक राज्य, इससे और पहले ‘अश्मक‘, ‘स्त्रीराज्य‘ या उसका हिस्सा रहा। सबसे पुराना नाम दण्डकारण्य पता लगता है। 

मिथक-कथाएं, अक्सर बेहतर हकीकत बयां करती हैं, कभी सच बोलने के लिए मददगार बनती हैं, सच के पहलुओं को खोलने में सहायक तो सदैव होती हैं। इस क्रम में अध्येताओं ने रामवनगमन पथ के साथ दण्डकारण्य-बस्तर में लंका की खोज का प्रयास किया है। रामकथा का शूर्पणखा और सीताहरण प्रसंग दण्डकारण्य से जुड़ा है। मगर ध्यान रहे कि केशकाल-बाराभांवर की भंगाराम-तेलीन सत्ती मां (अब प्रचलित भंगाराम को बंगाराम या वारंगल-ओरंगाल से आई मानते भोरंगाल-भंगाराम भी कहा गया है।) हैं और सुकमा की रामाराम, चिटमटिन देवी हैं। पौराणिक दण्डकारण्य या दण्डक वन, सामान्यतः दक्षिणापथ का विस्तृत भूभाग प्रतीत होता है, इसी के अंतर्गत ऐतिहासिक महाकांतार-बस्तर भी है। यह रोचक है कि ‘दण्ड‘ को राजाओं द्वारा व्यवहार में लाई जाने वाली लौकिक शक्ति के प्रतीक के रूप में देखा गया है। राम के धनुष का नाम ही कोदण्ड है तथा वह दण्ड ही है जो प्रतीक रूप ध्वज (यथा- मयूरध्वज, सीरध्वज-जनक, कपिध्वज-अर्जुन) को धारण करता है। 

प्रथम राजा पृथु के दण्डकारण्य में अभिषेक का उल्लेख मिलता है। कहा गया है- 
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।। 
अर्थात दण्ड ही शासन करता है। दण्ड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दण्ड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दण्ड को ही धर्म कहा है। 

कथा में पृथु ने भूमि को कन्या मानकर उसका पोषण (दोहन) किया, इसी से हमारे ग्रह का नाम पृथ्वी हुआ। वह भूमि को समतल करने वाला पहला व्यक्ति था, उसने कृषि, अन्नादि उपजाने की शुरूआत करा कर संस्कृति और सभ्यता के नये युग का सूत्रपात किया। भागवत की कथा में पृथु ने पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सकल औषधि, धान्य, रस, रत्न सहित स्वर्णादि धातु प्राप्त करने की कला का भी बोध कराया। 

इस अंचल की परंपरा में मयूरध्वज की कथा के सूत्र विद्यमान हैं। जैमिनी अश्वमेध के अलावा अन्य ग्रंथों में भी यह कथा थोड़े फेरबदल से आई है, जिसमें ब्राह्मण को दान देने के लिए राजा-रानी अपने पुत्र को आरे से चीरने लगते हैं। इस कथा का असर बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम (1861-1868) ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। बस्तर का प्रसिद्ध दशहरा, देवी द्वारा महिषासुर के वध का अर्थात पाशविक वृत्तियों पर विजय का उत्सव है, जिसके प्रतीक रूप में भैंसों की बलि दी जाती थी। दशहरा के लिए फूलरथ और रैनीरथ निर्माण में केवल बसूले के प्रयोग की परंपरा रही है। 

कपोल-कल्पना लगने वाली कथा में संभवतः यह दृष्टि है कि आरे का निषेध वन-पर्यावरण की रक्षा का सर्वप्रमुख कारण होता है। टंगिया और बसूले से दैनंदिन आवश्ययकता-पूर्ति हो जाती है, लेकिन आरा वनों के असंतुलित दोहन और अक्सर अंधाधुंध कटाई का साधन बनने लगता है। यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरण चेतना के बीज के रूप में भी देखी जा सकती है। बस्तर के जनजातीय असंतोष के इतिहास में ..1859 का संघर्ष ‘कोई विद्रोह‘ नाम से जाना जाता है, जिसमें फोतकेल, कोतापल्ली, भेज्जी और भोपालपट्टनम के जमींदारों ने जंगल काटने का विरोध किया। आंदोलन का नारा- ‘एक साल पेड़ के पीछे एक आदमी का सिर‘ से इसकी उग्रता का अनुमान किया जा सकता है। ऐसा ही एक अन्य उल्लेख ‘ताड़-झोंकनी‘ (1775), दरियावदेव-हलबा योद्धाओं का मिलता है, जिसमें काटे गए ताड़ वृक्षों को हाथ से झेलते, वृक्ष के नीचे दब कर हलबा वीरों की मृत्यु हो गई थी। 

महाभारत के नलोपाख्यान कथा में कलि-वास वाले पक्षी-रूपी पांसे, नल का एकमात्र वस्त्र ले कर उड़ जाते हैं तब अनावृत्त नल, दमयंती को ऋक्षवान पर्वत को लांघकर अवंती देश जाने वाला मार्ग, विंध्य पर्वत, पयोष्णी नदी, महर्षियों के आश्रम, दक्षिणापथ, विदर्भ और कोसल जाने का मार्ग बताते हैं। 

इस भौगोलिक विवरण से पड़ोसी विदर्भ की राजकुमारी दमयंती और निषध देश के साथ बस्तर का कुछ-कुछ रिश्ता बनता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक रहे राकेश तिवारी अपनी पुस्तक ‘पवन ऐसा डोलै...‘ (2018) में इसका परीक्षण करते हुए लिखते हैं- अनुमान लगता है कि निषध राज्य जबलपुर के पूरब में आज के छत्तीसगढ़ राज्य अथवा प्राचीन दक्षिण कोसल और उसके आस-पास रहा होना चाहिए। प्रख्यात पाश्चात्य विद्वान मोनियर विलियम ने पहले ही मोटे तौर पर इससे मिलता-जुलता अनुमान लगाया है। मगर पांचवीं सदी इस्वी के नल राजवंश के अभिलेख, सोने के सिक्के और गढ़धनोरा, भोंगापाल जैसे कला केंद्रों से उनका सीधा जुड़ाव इस भूभाग से प्रमाणित होता है। आर्यावर्त और दक्षिणापथ के बीच की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी महाकांतार-बस्तर है ही। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के दक्षिणापथ विजय अभियान में कोसल के महेन्द्र के बाद महाकांतार के व्याघ्रराज का उल्लेख है। 
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कहा गया है कि विधाता ने इन्द्र, मरुत, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चंद्र एवं कुबेर के प्रमुख अंशों से युक्त राजा की रचना की। अन्य देवता अलक्ष्य हैं, मगर राजा को हम देख सकते हैं ... राजा में विष्णु का अंश होगा। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है- राज्याभिषेक के बाद मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है। पुराने नाटकों में राजा को देव संबोधित किया गया है, कुषाण राजाओं ने स्वयं को देवपुत्र कहा है। मगर दूसरी तरफ राजनीतिप्रकाश में कहा गया है कि ‘स्वयं प्रजा विष्णु है।‘ राजा और सम्राट शब्द पर विचार करें- राजा-राजन् शब्द राज् अर्थात ‘चमकना‘ से आया माना जाता है और कहीं इसे रंज अर्थात (प्रजा को) ‘प्रसन्न करना‘ के अर्थ में देखा गया है। सम्राट शब्द का आशय है, क्षेत्र-विशेष, जिसके पूर्णतः अधीन हो। इसी प्रकार एक मत है कि राजन शब्द के मूल में ‘राट‘ है, जिससे राष्ट्र और सम्राट बनता है। 

काछिनमाता, माणिक्येश्वरी, सती आदि का समाहार स्वरूप दंतेश्वरी देवी बस्तर सामाज्ञी भी हैं। ज्यों ओरछा के दशरथनंदन राम‘राजा‘ हैं। अंग्रेजी में ‘ट्यूटरली डेइटी‘ यानि ऐसा देवता या आत्मा है जो किसी विशिष्ट स्थान, भौगोलिक विशेषता, व्यक्ति, वंश, राष्ट्र, संस्कृति या व्यवसाय का संरक्षक हो। शास्त्रीय ग्रंथों में राज्य की दैवी उत्पत्ति का सिद्धांत और राजा के देवत्व का उल्लेख आता है। ठाकुरदेव, बड़ादेव, बुढ़ादेव गांव के मालिक-देवता और दुल्हादेव, गृहस्वामी माने जाते हैं। इस तरह राजा और देव अभिन्न हो जाते हैं। 

राजा के दैवी उत्पत्ति में, बस्तर के राजा आदिवासी-देवसमूह की अधिष्ठात्री देवी दन्तेश्वरी के प्रमुख-पुजारी होने के नाते ईश्वर का अवतार माने जाते थे। प्रवीरचंद्र भंजदेव इसके साथ ‘माटी पुजारी‘ अर्थात बस्तर के सभी छोटे-बड़े देवी-देवताओं के सबसे मुख्य पुजारी माने जाते थे। स्वाभाविक ही वे अपनी पुस्तिका का शीर्षक ‘आइ प्रवीर द आदिवासी गॉड‘ (1966) रखते हैं, वहीं कांकेर के ‘राजा‘ डॉ.आदित्य प्रताप देव अपनी पुस्तक ‘किग्स, स्पिरिट्स एंड मेमोरी इन सेंट्रल इंडिया‘ (2022) के पहले अध्याय के लिए ‘द किंग एज ‘‘आइ’’ शीर्षक रखते हैं और मड़ई-दशहरा जैसे उत्सव-परंपराओं के दर्शक, सहभागी होते केंद्रीय पात्र बनते, मानों खुद की तलाश करने विवश होते हैं, राजा में देवत्व आरोपण पर कुछ यूं लिखते हैं- ‘‘राजा के आंगा देव होने के नाते पुराने राजमहल के ‘छोटे पाट‘, पूरे राज्य के आंगा देवों और राजा, जिन्हें बहुधा स्वयं देव (भगवान) रूप माना जाता था, उनकी शक्ति को समस्या निवारण के लिए, अपने में समा लेने में सक्षम थे।‘‘ (बड़े पाट, स्थानीय शीतला माता मंदिर में स्थापित हैं।) 

11 वीं सदी इस्वी के मधुरान्तकदेव के ताम्रपत्र में मेडिपोट (मेरिया-नरबलि) का उल्लेख है। बस्तर के जनजातीय असंतोष के इतिहास में 1842-63 का मेरिया विद्रोह भी दर्ज है। देवता को बलि दिए जाने के संदर्भ में दंतेश्वरी मंदिर, दंतेवाड़ा के द्विभाषी शिलालेख देखा जा सकता है, 18 वीं सदी इस्वी के आरंभिक वर्षों के दो पाषाण खंडों पर खुदा लेख दिकपालदेव से संबंधित है, जिसमें कहा गया है कि दंतावली देवी के मंदिर में संपन्न कुटुम्ब यात्रा अनुष्ठान में कई हजार भैंसे और बकरों की बलि दी गई, जिससे शंखिनी नदी का पानी पांच दिनों तक लाल कुसुम वर्ण हो गया। 

प्रवीरचंद्र भंजदेव परंपरा-आग्रही थे तो बलि जैसे मानवीय मसलों पर आधुनिक सुधारवादी भी थे। ऐसे एक प्रसंग का उल्लेख मिलता है, जिसमें बताया जाता है कि सन् 1960 के आसपास उन्होंने दशहरे के अवसर पर बकरा-महिष की बलि का निषेध कर नारियल चढ़ाने की परिपाटी चालू की। इसे चुनौती सी देते हुए बलराम नामक एक व्यक्ति ने, आदिवासी मुखियों के साथ प्रवीर से कहा- ‘महाराज पुराने जमाने में तो राजा लोग फूल रथ के सामने नर-बलि देते थे। आप कम से कम बकरे की बलि तो देने दीजिए। नारियल-वारियल से काम कैसे चलेगा महाराज। कुछ तो विचारिये।‘ इस पर प्रवीर ने कहा, ‘तो ठीक है, जाकर फूल रथ के सामने बलराम को काट दो। 
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धर्मक्षेत्र-पवित्र नगरियों का माहात्म्य प्राचीन ग्रथों में कहा जाता रहा है। इस दिशा में आधुनिक गंभीर अध्ययनों में भारत रत्न महामहोपाध्याय डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे विशेष उल्लेखनीय है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास‘ के तृतीय भाग में तीर्थप्रकरण के अंतर्गत गंगा, नर्मदा, गोदावरी के साथ प्रयाग, काशी, गया, कुरुक्षेत्र, मथुरा, जगन्नथ, कांची, पंढरपुर की विस्तार से चर्चा की है साथ ही दो हजार से अधिक नामों की परिचयात्मक तीर्थसूची दी है। काणे कहते हैं- ‘तीर्थयात्रा को नये रंग में ढालना होगा।‘ 

माहात्म्य कहने का आधुनिक समाज-मानवशास्त्रीय स्वरूप ‘सेक्रेड काम्प्लेक्स‘ (पावन या पुनीत प्रखंड/पवित्र संकुल-परिसर) के रूप में स्थल-विशेष का अध्ययन है। पिछली सदी के पचास-साठादि दशक में गया निवासी भूगोल विषय के स्नातक एल पी विद्यार्थी ने गयावालों का अध्ययन कर ‘द सेक्रेड काम्प्लेक्स इन हिंदू गया’ (1961) के रूप में आगे बढ़ाया, जो मानवशास्त्रियों के पारंपरिक अध्ययन तरीकों से अलग पद्धतिगत अभिविन्यास निर्धारित करता, अपने तरह का आरंभिक अध्ययन है। इस क्रम में उन्होंने बनारस, भुवनेश्वर, देवघर और पुरी के अलावा अन्य मंदिरों और घाटों का भी अध्ययन किया। 

प्रसिद्ध मानवशास्त्री डीएन मजुमदार ने भी काणे की तरह वस्तुस्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए परंपरा के साथ समय की आवश्यकता के अनुकूल समझौते पर बल दिया है साथ ही विद्यार्थी के अध्ययन को रेखांकित करते हुए कहा है- ‘‘हमारे मंदिर और धार्मिक तीर्थस्थल हमारी विरासत हैं और भारत की पहचान को आकार देते हैं। उनसे जुड़ी लोक मान्यताएं, रीति-रिवाज और शिक्षा को अलग करना या पहचानना मुश्किल है। कहानी केवल शास्त्रों में और मंदिर कला और वास्तुकला में ही नहीं है, बल्कि लोक और रीति-रिवाजों में भी है जो शहरों और मंदिरों के ‘पवित्र परिसर‘ में अभिन्न रूप से बुने हुए हैं। डॉ. विद्यार्थी ने मंदिरों के सामाजिक संगठन का वर्णन करने के लिए पवित्र केंद्र, पवित्र खंड, पवित्र समूह, पवित्र क्षेत्र, पवित्र भूमि, पवित्र भूगोल जैसे शब्दों का उपयोग किया है। वह तीर्थस्थल के पवित्र परिसर का वर्णन करते मानते हैं कि ऐसी अवधारणा भारत में आदिवासी धर्मों पर भी लागू होती है, जिसमें उनके पवित्र उपवन, पवित्र प्रदर्शन और पवित्र अनुष्ठान शामिल हैं।‘‘ 

सेक्रेड काम्प्लेक्स के अध्ययन का क्रम डॉ. माखन झा ने आगे बढ़ाया तथा ‘काम्प्लेक्स सोसायटीज एंड अदर एंथ्रोपोलॉजिकल एसेज‘ (1991) आदि कई प्रकाशन सामने आए। डॉ. माखन झा का छत्तीसगढ़ से रिश्ता बना, उन्होंने 1969-70 में रतनपुर और आसपास के क्षेत्र का व्यापक-गहन सर्वेक्षण किया और अपने विभिन्न प्रकाशनों में उसे शामिल किया। डी.एन. मजुमदार की बस्तर आवाजाही अकलतरा निवासी इंद्रजीत सिंह के माध्यम से हुई। डॉ. इंद्रजीत सिंह का शोधग्रंथ ‘‘द गोंडवाना एंड द गोंड्स‘ (1944), किसी भारतीय द्वारा बस्तर पर किया गया पहला शोधकार्य है। 

धार्मिक-तीर्थस्थल, पर्यटन स्थलों से कई मायनों में अलग होते हैं। मंदिर के साथ इतिहास, आस्था और परंपरा की महीन परतें होती हैं, ये परतें न सिर्फ महीन होतीं, बल्कि आपस में घुली-मिली भी होती हैं। इन्हें परखने के लिए उसका अंग बन जाना, आत्मीयता से अवलोकन कर तटस्थ अभिलेखन संभव होता सकता है। प्राचीन मंदिर, धार्मिक आस्था के साथ-साथ शिक्षा, चिकित्सा, लोक-कल्याण और संस्कृति के केंद्र होते थे, जहां जन-समुदाय एकत्र हो घुलता-मिलता था। अतएव वहां भाषा-संस्कृति के ऐसे बहुतेरे ऐतिहासिक तथ्य होते हैं जिनका महत्व समय-सापेक्ष और काल-स्वीकृत हो कर परंपरा में बदल जाने के कारण होता है। ऐसी आस्था, जिसका आधार मात्र धार्मिक नहीं, जो समष्टि से विकसित है, सभ्यतागत ढांचे के भाग के रूप में समय के साथ पुष्ट होती है। इस क्रम में नवाचार भी जुड़ता जाता है, ज्यों इस वर्ष 2025 में दंतेवाड़ा की फागुन मड़ई में पहुंचे 994 देव-विग्रहों का परिचय पत्र बनाया गया, जिसमें उनका नाम-पता, पुजारी का नाम और मोबाइल नंबर के साथ सिरहा, वादक-वृंद और झंडा पकड़ने वाले का नाम दर्ज किए जाने का समाचार है। 

केदारनाथ ठाकुर बस्तर भूषण 1908 में राजबाड़ा के अंदर स्थित दंतेश्वरी मंदिर के साथ दंतेवाड़ा के दंतंश्वरी मंदिर का विवरण मिलता है, उन्होंने ‘दन्तेश्वरी मंदिर के तेवहार‘ शीर्षक के अंतर्गत चैत्र से फालगुन तक सभी बारह माह की गतिविधियों का लेखा दिया है। यही इस पुस्तक की पीठिका या प्रस्थान बिंदु है, इस उद्यम में तीर्थयात्री के साथ पर्यटक और अध्येता की भूमिका का सम्यक निर्वाह हुआ है, इसलिए यह माहात्म्य, सेक्रेड काम्प्लेक्स के शोध के साथ वस्तुतः स्थल-पुराण है, जिसमें स्थान-विशेष की संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रथाओं, जातीय परंपराओं और वहां के समाज का भी वर्णन है। 
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डॉ. हीरालाल शुक्ल मानते हैं कि शाक्त केंद्र दंतेवाड़ा का मंदिर नाग युग में ‘दत्तवाड़ा‘ नाम से विकसित हो चुका था। उन्होंने ‘आदिवासी बस्तर का बृहद् इतिहास‘-चतुर्थ खण्ड (2007) में नाटककार अर्जुन होता रचित उड़िया कृति ‘बस्तर विजय‘ (1941 में प्रकाशित), डॉ. चित्तरंजन कर द्वारा अनुदित, को शामिल किया है। नाटक का अंतिम अंश इस प्रकार है- महाराजा- हाँ, और एक बात। मंत्री महाशय! बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी की कृपा ही बस्तर-विजय का मूल है। गाँव-गाँव में, घर-घर में उनकी पूजा का आयोजन करो। राज्य में प्रचार करो, सभी उनकी ‘बस्तरेन‘ नाम से पूजा करेंगे ... ... ... 
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‘जय माँ बस्तरेन् की जय‘ 

-राहुल कुमार सिंह 
प्रमुख, धरोहर परियोजना 
बायोडायवर्सिटी एक्सप्लोरेशन एंड रिसर्च सेंटर

Sunday, May 4, 2025

महाभारत, भारत और भरत

श्रीमद्भगवतगीता (गीता) और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र को यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर‘ में शामिल किया गया है। प्रधानमंत्री जी ने इसे ‘हमारी सनातन बुद्धिमत्ता और समृद्ध संस्कृति की वैश्विक मान्यता‘ कहा है। इस खबर पर कहा जा सकता है कि किसी भी सूची की विश्वसनीयता और महत्व, उसकी प्रविष्टियों से होता है और इन दो प्रविष्टियों से ‘रजिस्टर‘ की दर्ज संख्या के साथ विश्वसनीयता में भी इजाफा हुआ है। रामचरितमानस, पंचतंत्र और आचार्य आनंदवर्धन कृत सहृदयालोक जैसी प्रविष्टियां इस रजिस्टर में पहले ही दर्ज की जा चुकी हैं। 1992 में स्थापित इस रजिस्टर का मुख्य उद्देश्य दस्तावेजी धरोहरों का संरक्षण है। गीता के साथ विशेष उल्लेखनीय कि वह हमारी परंपरा में भी ‘स्मृति प्रस्थान‘ है। 

तीन प्रस्थानों- श्रुति, स्मृृति और न्याय में दूसरा, यानि स्मृति प्रस्थान, गीता है। श्रुति, उपनिषद हैं, जो वेद-समष्टि के भाव-बोध को, स्थायी मूल्यों को, शब्दों में लाने का उद्यम, अवधारणा हैं। इसलिए सर्वकालिक हैं। स्मृति, व्यक्ति के द्वारा समष्टि के लिए की गई श्रुति-अवधारणा की व्याख्या है, समयानुकूल, प्रसंगानुकूल आकृति-विन्यास है और ‘ब्रह्मसूत्र‘ न्याय अवधारणाओं का विश्लेषण, मीमांसा। श्रुति की अभिव्यक्ति- भाषा, चित्र, गीत में हो सकती है, अविच्छिन्न का ऐसा अंश, जिसमें प्रकृतिगत पूर्णता है, संस्कार की परतें उसे एकांगी बनाती हैं, उनसे उबर कर बोध की अपनी मूल प्रवृत्तियों को पहचाना जा सकता है। 

महाभारत के छठवें- भीष्म पर्व से जय (महाभारत) युद्ध आरंभ होता है। दसवें दिन के युद्ध में भीष्म के शर-शैया पर आ जाने के बाद संजय कुरुक्षेत्र से लौटे हैं। व्यास के धृतराष्ट्र को दिव्य नेत्र प्रदान करने के प्रस्ताव पर धृतराष्ट्र कुटुम्बीजनों का वध न देखना पड़े, मगर युद्ध का सारा वृतांत जानें, ऐसी इच्छा व्यक्त करते हैं। इस पर सूत गवल्गण पुत्र संजय को स्वयं व्यास दिव्य दृष्टि संपन्न हो कर सर्वज्ञ होने का वर देते हैं कि वह युद्धभूमि की सारी बातें, जो उसके प्रत्यक्ष न हो अथवा वह मन में ही क्यों न सोची गई हो, जान लेगा। संजय स्पष्ट करते हैं कि इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त रोमांचकारक संवाद को सुना। धृतराष्ट्र प्रश्न करते हैं संजय उनका समाधान करते हैं, इसलिए ‘गीता‘ लाइव, रीयल टाइम नहीं, बल्कि संजय द्वारा देखा-जाना-बूझा, सुनाया गया स्मृति-प्रतिवेदन है। 

स्मृति का एक रिफ्रेशर स्वयं महाभारत, आश्वमेधिक पर्व में अनुगीता पर्व है, जिसमें गीता के 700 श्लोक से लगभग ड्योढ़ी, 1027 श्लोक की अनुगीता है। अनुगीता में अर्जुन को कृष्ण गले लगाते, मगर फटकारते हैं कि उसने गीता का उपदेश याद नहीं रखा। साथ-साथ कृष्ण यह भी स्वीकार करते हैं कि वह पूरा स्मरण न हो पाने के कारण उसे उसी रूप में दुहरा देना अब उनके वश में भी नहीं है। ध्यातव्य कि अनुगीता, स्मृति प्रस्थान गीता की प्रसंगानुकूल व्याख्या है, इसलिए दुहराई नहीं गई, (दुहराने का औचित्य भी न होता) और आकार बढ़ गया है। 

गांधी, हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) से, खासकर उनकी पुस्तक ‘सिविल डिसओबिडिएन्स‘ से प्रभावित थे वहीं थोरो भारतीय दर्शन और चिंतन के समर्थक, उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वॉल्डन‘ में कहा है- ‘प्राचीन खंडहरों की तुलना में भगवद्गीता कितनी अधिक महिमामयी है।‘ गीता पर बाल गंगाधर तिलक जैसे विद्वानों की टीका के अलावा गांधी की ‘अनासक्ति योग‘ प्रसिद्ध है। गांधी का संदर्भ लें तो उनके ‘हिन्द स्वराज‘ श्रुतित्व, आत्मकथा स्मृतित्व, पत्रादि अन्य लेखन में न्यायत्व है। गांधी, हिन्द स्वराज में कोई परिवर्तन नहीं करते बल्कि वर्षों बाद के भी किए गए सवालों का जवाब देते हैं कि ऐसी बात वे पहले ही हिन्द स्वराज में कह चुके हैं। जैसा कहा जाता है कि आवश्यक होने पर संविधान की व्याख्या में उसकी ‘श्रुतिगत‘, प्रस्तावना-आधार मददगार होगी। 

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नाट्यशास्त्र को पंचम वेद भी कहा गया है। नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति के बारे में कथा बताई जाती है देवताओं के अनुरोध पर ब्रह्मा ने ऋग्वेद के पाठ्य, सामवेद के गीत, यजुर्वेद के अभिनय तथा अथर्ववेद के रस तत्त्व से इस पंचम वेद को रचा, कथा का आशय नाटक परंपरा का मूल चारों वेद ही हैं। चार उपवेदों अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, गांधर्ववेद और आयुर्वेद से संबद्ध नाट्यवेद, सर्वश्राव्य, अर्थात जो सभी वर्णों के लिए हो, इस पांचवे वेद की सृष्टि हुई। 

नाट्यशास्त्र का रचयिता मुनि भरत को माना जाता है। यहां भरत, भारत और भारती इन तीन शब्दों पर विचार कर लें। भारत का एक अर्थ अभिनेता भी है और भरत को भी व्यास की तरह व्यक्ति-विशेष नहीं जातिवाचक माना जाता है। कुबेरनाथ राय भरत को कल्पित या कुल-नाम मानते हुए, भरतों को कला-रसिक, साहित्य, कथा, और अभिनयपटु बताते हैं और इस तरह कला, संगीत, साहित्य की ‘वाग्देवी‘ सरस्वती का नाम भारती सटीक बैठता है। नाट्यशास्त्र के पैंतीसवें अध्याय के एक श्लोक का संदर्भ भी प्रासंगिक होगा, जिसमें भरतों (नटों) के प्रकार बताते हुए कहा गया है- ‘जो नाटक के अभिनय में अकेला धुरी की तरह हो, अनेक भूमिकाएं करके नाटक का उद्धार करने वाला हो, भाण्ड और उपकरण भी संभालता हो, वह भरत है। 

स्मरणीय कि नाट्यशास्त्र का पाठ बहुत बाद में प्राप्त हुआ। इस ग्रंथ का उल्लेख तो मिलता था, लेकिन ग्रंथ उपलब्ध नहीं था। 1789 में सर विलियम जोन्स ने मूल संस्कृत ‘अभिज्ञान शाकुंतलम‘ का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित कराया, तब उसकी भूमिका में नाट्यशास्त्र के उपलब्ध न होने का अफसोस भी जताया। होरैस हेमैन विल्सन ने मूल संस्कृत नाटकों के आधार पर दो खंड तैयार किए, जिसका प्रकाशन 1827 में हुआ। विल्सन, जोन्स के शकुंतला नाटक के क्रम में एच.टी. कोलब्रुक 1808 के शोध लेख और जे. टेलर द्वारा अनूदित नाटक प्रबोध चंद्रोदय 1811 की चर्चा करते हुए विभिन्न टीकाकारों द्वारा भरत मुनि के नाट्यशास्त्र का संदर्भ लिए जाने एवं उक्त के उपलब्ध न होने का उल्लेख करते हैं। अन्य उपलब्ध सामग्री के आधार पर नाट्यकला के तीन प्रकारं- नाट्य, नृत्य और नृत्त को स्पष्ट करते हुए उल्लेख करते हुए स्पष्ट करते हैं कि इनमें अभिनय और भाषा के साथ किया जाने वाला ‘नाट्य‘ ही वास्तविक नाटक है, ‘नृत्य‘, भाषा (संवाद) के बिना, मूकाभिनय का हाव-भाव है और ‘नृत्त‘, नर्तन-मात्र है। तथा देवताओं के सामने प्रदर्शन के लिए गंधर्व और अप्सराओं को भरत ने प्रशिक्षित किया। 

विल्सन के बाद नाट्यशास्त्र के कुछ फुटकर अंश प्रकाश में आए, मगर समग्र रूप 1894 में पहली बार प्रकाशित हुआ। इसने न सिर्फ भारतीय रंगमंच, बल्कि पूरी दुनिया के रंगकर्म को प्रभावित किया। नाट्यशास्त्र का प्रामाणिक संस्करण अभिनवगुप्त की टीका अभिनवभारती सहित चार खंडों में 1926 से 1964 के बीच प्रकाशित हुआ। अब 2024 में पहली बार अधिकारी विद्वान आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा किया गया इसका संपूर्ण हिंदी अनुवाद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया है। आचार्य त्रिपाठी, साहित्य के पांच ग्रंथों में ऋग्वेद, रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र के साथ नाट्यशास्त्र की गणना करते हैं। 

नाट्यशास्त्र के लिए कहा जाता है कि संसार का ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला, योग, कर्म नहीं जो इस नाट्य में गुंफित न हो जाता हो। 37 अध्याय वाले इस नाट्यशास्त्र के आरंभिक अध्याय में नाट्योत्पत्ति और मंडपविधान विवरण है। अगले अध्यायों में रस सिद्धांत- मुद्राएं, अभिनय, भाव और रस, वाणी, छंद, काव्यशास्त्र, वाद्य-संगीत, नृत्य आदि की विशद व्याख्या है। अंत में यह भी कहा गया है- ‘नाट्यवेद में शिक्षित प्रहसनों का अभिनय करने लगे ... उन्होंने मिलकर ग्राम्य धर्म से युक्त शिल्पक का प्रयोग किया, जिसमें ऋषियों पर सामूहिक रूप से व्यंग्य था। ... और शास्त्रकार की उदारता, कि कहता है- ‘जो यहां नहीं कहा गया, उसे लोक की अनुकृति करके जान लेना चाहिए।‘

Tuesday, April 22, 2025

कथा-कहानी

पचीसवां साल लगते इस सदी में पढ़ी पसंद आई कहानियां, जिनकी याद सबसे पहले आए, जिन्हें बार-बार कभी-भी दुहरा लेना चाहता हूं, यहां सहेज रहा हूं। (प्रेमचंद, रेणु, देथा से ले कर चेखव, ओ. हेनरी, पिछली सदी के पढ़े, इसलिए सूची में नहीं हैं।)- 

1 - कैलाश में प्रतिदिन संध्या समय शिवजी साधु-संतों और देवताओं को प्रवचन सुनाते थे। एक दिन पार्वती ने कहा कि इन साधु-संतो को ठंडी हवा और ओस से बचाने के लिए एक हाल का निर्माण किया जावे। किंतु शिव का यह संकल्प नहीं था फिर भी पार्वती का आग्रह बना रहा। अतः ज्योतिषियों को बुलाकर मंडप निर्माण के लिए उनकी सलाह ली गई। उन्होंने कहा कि ग्रहों के अनुसार शनि की प्रतिकूलता के कारण यह भवन अग्नि के द्वारा भस्म हो जायगा। फिर भी मंडप का निर्माण किया गया। अब शिव-पार्वती के लिये यह एक समस्या थी। शिव ने विचार किया कि शनि से अपना कोप शांत करने की प्रार्थना की जाय, यद्यपि इसकी उन्हें आशा नहीं थी क्योंकि शनि का कोप प्रसिद्ध था। इससे पार्वती को बड़ी ठेस पहुंची और उन्होंने निश्चय किया कि उस नन्हें से दुष्ट ग्रह को वे अपने द्वारा निर्मित मंडप के नाश का कारण नहीं बनने देंगी। उन्होंने यह तय किया कि यदि शनि न माने और मंडप को नष्ट ही करना चाहे तो इससे पूर्व वे स्वयं ही उसे नष्ट कर देंगी। शिव ने शनि से की गई प्रार्थना का उत्तर पाने तक रुकने को कहा। शनि के पास वे स्वयं जाने को तैयार हुए और कहा कि यदि शनि मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लेते हैं तो मैं वापस आकर ही यह शुभ समाचार तुम्हें दूँगा। किन्तु यदि वे न मानें तो मैं यह डंका (डमरू?) बजाऊंगा। तब तुम उसे सुनकर इस मंडप को आग लगा देना ताकि शनि को इसे जलाने का श्रेय न मिल सके। पार्वती मशाल जलाकर तत्पर थी कि डंका बजे तो वे तत्काल अपना कार्य करें। और उस दुष्ट ग्रह को अपनी दुष्ट योजना सफल बनाने का क्षणमात्र भी अवसर न दें। वहाँ शिव की प्रार्थना को शनि ने स्वीकार कर लिया। अतः जब शनि ने शिव से प्रार्थना की कि वे उसे अपने प्रसिद्ध तांडव नृत्य को दिखावें तो शिव इन्कार न कर सके। उसकी प्रार्थना के अनुसार शिव डंका बजाकर तांडव नृत्य करने लगे। इस डंके का शब्द सुनकर यहाँ पार्वती ने मंडप में आग लगा दी और वह शिव संकल्प के अनुसार जलकर राख हो गया। चाहे जो हो दैवी संकल्प पूरा होना ही चाहिये। शनि तो दैवी योजना में निमित्त मात्र था। 
(श्री सत्य सांई वचनामृत 17-10-61) 

2 - ‘अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। ...‘ पितरों ने कहा- ब्राह्मण श्रेष्ठ! इसी विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, उसे सुनकर तुम्हें वैसा ही आचरण करना चाहिये। पहले की बात है, अलर्क नाम से प्रसिद्ध एक राजर्षि थे, जो बड़े ही तपस्वी, धर्मज्ञ, सत्यवादी, महात्मा और दृढ़प्रतिज्ञ थे। उन्होंने अपने धनुष की सहायता से समुद्रपर्यन्त इस पृथ्वी को जीतकर अत्यन्त दुष्कर पराक्रम कर दिखाया था। इसके पश्चात् उनका मन सूक्ष्मतत्त्व की खोज में लगा। महामते! वे बड़े-बड़े कर्मों का आरम्भ त्यागकर एक वृक्ष के नीचे जा बैठे और सूक्ष्म तत्त्व की खोज के लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगे। 

अलर्क कहने लगे- मुझे मन से ही बल प्राप्त हुआ है, अतः वही सबसे प्रबल है। मन को जीत लेने पर ही मुझे स्थायी विजय प्राप्त हो सकती है। मैं इन्द्रियरूपी शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ, इसलिये बाहर के शत्रुओं पर हमला न करके इन भीतरी शत्रुओं को ही अपने बाणों का निशाना बनाऊँगा। यह मन चंचलता के कारण सभी मनुष्यों से तरह-तरह के कर्म कराता है, अतः अब मैं मन पर ही तीखे बाणों का प्रहार करूँगा। मन बोला- अलर्क। तुम्हारे ये बाण मुझे किसी तरह नहीं बींध सकते। यदि इन्हें चलाओगे तो ये तुम्हारे ही मर्मस्थानों को चीर डालेंगे और मर्मस्थानों के चीरे जाने पर तुम्हारी ही मृत्यु होगी; अतः तुम अन्य प्रकार के बाणों का विचार करो, जिनसे तुम मुझे मार सकोगे। यह सुनकर थोड़ी देर तक विचार के बाद वे नासिका को लक्ष्य करके बोले। मेरी यह नासिका अनेक प्रकार की सुगन्धियों का अनुभव करके भी फिर उन्हीं की इच्छा करती है, इसलिये इन तीखे बाणों को मैं इस नासिका पर ही छोड़ूंगा। जो मन ने बोला, वही बात नासिका ने कही- तुम दूसरे प्रकार के बाणों का अनुसंधान करो। 

अलर्क ने क्रमशः जिह्वा को लक्ष्य करके कहा- यह रसना स्वादिष्ट रसों का उपभोग करके फिर उन्हें ही पाना चाहती है। इसलिये अब इसी के ऊपर अपने तीखे सायकों का प्रहार करूँगा। ... वही जवाब पाकर त्वचा पर कुपित होकर बोले। यह त्वचा नाना प्रकार के स्पर्शाें का अनुभव करके फिर उन्हीं की अभिलाषा किया करती है, अतः नाना प्रकार के बाणों से मारकर इस त्वचा को ही विदीर्ण कर डालूँगा। उससे भी वही बात सुन कर श्रोत्र को सुनाते हुए कहा- यह श्रोत्र बारंबार नाना प्रकार के शब्दों को सुनकर उन्हीं की अभिलाषा करता है, इसलिये मैं इन तीखे बाणों को श्रोत्र-इन्द्रिय के ऊपर चलाऊँगा। पुनः वैसी ही बात श्रोत ने कहा। यह सुनकर अलर्क ने कुछ सोच-विचारकर नेत्र को सुनाते हुए कहा- यह आँख भी अनेकों बार विभिन्न रूपों का दर्शन करके पुनः उन्हीं को देखना चाहती है। अतः मैं इसे अपने तीखे तीरों से मार डालूँगा। आँख ने वैसा ही कहा। यह सुनकर अलर्क ने कुछ देर विचार करने के बाद बुद्धि को लक्ष्य करके यह बात कही- यह बुद्धि अपनी ज्ञानशक्ति से अनेक प्रकार का निश्चय करती है, अतः इस बुद्धि पर ही अपने तीक्ष्ण सायकों का प्रहार करूँगा। बुद्धि भी वही बोली। 

ब्राह्मण ने कहा- देवि! तदनन्तर अलर्क ने उसी पेड़ के नीचे बैठकर घोर तपस्या की, किंतु उससे मन-बुद्धिसहित पाँचों इन्द्रियों को मारने योग्य किसी उत्तम बाण का पता न चला। तब वे सामर्थ्यशाली राजा एकाग्रचित्त होकर विचार करने लगे। विप्रवर! बहुत दिनों तक निरन्तर सोचने-विचारने के बाद बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा अलर्क को योग से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी साधन नहीं प्रतीत हुआ। वे मन को एकाग्र करके स्थिर आसन से बैठ गये और ध्यानयोग का साधन करने लगे। इस ध्यानयोगरूप एक ही बाण से मारकर उन बलशाली नरेश ने समस्त इन्द्रियों को सहसा परास्त कर दिया। वे ध्यानयोग के द्वारा आत्मा में प्रवेश करके परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हो गये। इस सफलता से राजर्षि अलर्क को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने इस गाथा का गान किया- ‘अहो! बड़े कष्ट की बात है कि अब तक मैं बाहरी कामों में ही लगा रहा और भोगों की तृष्णा से आबद्ध होकर राज्य की ही उपासना करता रहा। ध्यानयोग से बढ़कर दूसरा कोई उत्तम सुख का साधन नहीं है, यह बात तो मुझे बहुत पीछे मालूम हुई है‘। 

पितामहों ने कहा- बेटा परशुराम! इन सब बातों को अच्छी तरह समझकर तुम क्षत्रियों का नाश न करो। घोर तपस्या में लग जाओ, उसी से तुम्हें कल्याण प्राप्त होगा। अपने पितामहों के इस प्रकार कहने पर महान् सौभाग्यशाली जमदग्निनन्दन परशुरामजी ने कठोर तपस्या की और इससे उन्हें परम दुर्लभ सिद्धि प्राप्त हुई। 
(महाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मणगीता विषयक तीसवाँ अध्याय) 

3 - शिकारी का सिर था या नहीं? तीन शिकारियों को यह पता चला कि गांव से थोड़ी ही दूर दर में एक भेड़िया छिपा हुआ है। उन्होंने उसे खोजने और मार डालने का फैसला किया। कैसे उन्होंने उसका शिकार किया, लोग अलग-अलग ढंग से यह बात सुनाते हैं। मुझे तो बचपन से यह क़िस्सा इस तरह याद है। 

शिकारियों से बचने के लिये भेड़िया गुफा में जा छिपा। उसमें जाते का एक ही, और वह भी बहुत तंग रास्ता था-सिर तो उसमें जा सकता था, मगर कंधे नहीं। शिकारी पत्थरों के पीछे छिप गये, अपनी बन्दूकें उन्होंने गुफा के मुंह की तरफ़ तान लीं और भेड़िये के बाहर आने का इन्तजार करने लगे। मगर लगता है कि भेड़िया भी कुछ मूर्ख नहीं था। वह आराम से वहां बैठा रहा। मतलब यह कि हार उसकी होगी, जो बैठे-बैठे और इन्तजार करते-करते पहले ऊब जायेगा। 

एक शिकारी ऊब गया। उसने किसी न किसी तरह गुफा में घुसने और वहां से भेड़िये को निकालने का फ़ैसला किया। गुफा के मुंह के पास जाकर उसने उसमें अपना सिर घुसेड़ दिया। बाक़ी दो शिकारी देर तक अपने साथी की तरफ़ देखते और हैरान होते रहे कि वह आगे रेंगने या फिर सिर बाहर निकालने की ही कोशिश क्यों नहीं करता। आखिर वे भी इन्तजार करते-करते तंग आ गये। उन्होंने शिकारी को हिलाया-डुलाया और तब उन्हें इस बात का यक़ीन हो गया कि उसका सिर नहीं है। 

अब वे यह सोचने लगे गुफा में घुसने के पहले उसका सिर था या नहीं? एक ने कहा कि शायद था, तो दूसरा बोला कि शायद नहीं था। 

सिर के बिना धड़ को वे गांव में लाये, लोगों को घटना सुनायी। एक बुजुर्ग ने कहा- इस बात को ध्यान में रखते हुए कि शिकारी भेड़िये के पास गुफा में घुसा, वह एक जमाने से ही, यहां तक कि पैदाइश से ही सिर के बिना था। बात को साफ़ करने के लिये वे उसकी विधवा हो गयी बीवी के पास गये। 

‘‘मैं क्या जानूं कि मेरे पति का सिर था या नहीं? सिर्फ इतना ही याद है कि हर साल वह अपने लिये नयी टोपी का आर्डर देता था।‘‘ 
(रसूल हमज़ातोव मेरा दाग़िस्तान पेज-42) 

4 - शक्करपारे 
रोज़ की तरह, सात साल का गुट्टू मुन्ना अपनी हमउम्र पड़ोसिन चुनमुन के पास खेलने पहुँचा। चुनमुन उसे अपने मकान के दालान में खड़ी मिली। वह बड़े चाव से कुटुर-कुटुर शक्करपारे खा रही थी। गुट्टू मुन्ना उसके क़रीब जाकर खड़ा हो गया, मगर न जाने क्यों चुनमुन ऐसी बन गई, जैसे उसने उसे देखा ही न हो। गुट्टू मुन्ना फिर ठीक चुनमुन के सामने आकर खड़ा हो गया, मगर चुनमुन ने तब भी उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। 

‘यह चुनमुन बड़ी शान ही में मरी जा रही है!‘ गुट्टू मुन्ना ने सोचा और कहा, मत बोलो तो मत बोलो, हम भी नहीं बोलेंगे। 

फिर उसका ध्यान शक्करपारों की ओर गया। नरम पड़ते हुए वह बोला, चुनमुन! ओ चुनमुन! मुझसे क्यों बोल रहा है? चुनमुन बोली, याद नहीं. कल शाम तेरी-मेरी कुट्टी हो गई थी। 

गुट्टू मुन्ना को याद आया, कल शाम उसका और चुनमुन का झगड़ा हो गया था। उस झगड़े में सारा दोष चुनमुन ही का था। हाँ, घोड़ा-घोड़ा खेलने में गिर ही जाते हैं, उसने चुनमुन को जानकर थोड़े ही गिराया था। और फिर स्वयं वह भी तो गिरा था, उसके भी तो घुटने छिल गए थे। अब चुनमुन बेकार में अगर इस झगड़े को बढ़ाए तो चुनमुन की ग़लती है। कुट्टी तो फिर कुट्टी ही सही! 

लेकिन इस तर्क से चुनमुन को पराजित करने के बजाय, गुट्टू मुन्ना ने शक्करपारों पर दृष्टि जमाकर प्रस्ताव रखा, अच्छा चुनमुन, अब तेरा-मेरा सल्ला, हैं भाई? चुनमुन कुछ नहीं बोली। उसके दाँत कुटुर-कुटुर करते रहे। गुट्टू मुन्ना ने उसकी चुप्पी को खामोशी-ए-नीम-रज़ा समझकर उत्साह से कहा, अच्छा, अब तेरा-मेरा सल्ला हो गया; है ना चुनमुन ? अब तेरी-मेरी दोस्ती हो गई; है ना चुनमुन? अब तेरी-मेरी दोस्ती हो गई। 

गुट्टू मुन्ना चुनमुन के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। 

कुटुर-कुटुर-कुटुर! चुनमुन ने उत्तर दिया। 

गुट्टू मुन्ना घोर आशावादी था, इस उत्तर से तनिक भी निराश न हो, उसने बड़े ही प्रसन्न स्वर में कहा, अब मेरा-तेरा सल्ला हो गया, है ना? अब मैं और तू खूब मिलकर खेलेंगे, है ना? संग बाज़ार घूमने जाएँगे, है ना? खूब चीजें खाएँगे, है ना? तू मुझे शक्करपारे खिलाएगी, है ना? 

मगर इन शांति-घोषणाओं का चुनमुन पर कोई असर न हुआ। वह मज़े से एक शक्करपारे को अँगुलियों में थामकर चूसती रही। उसके चेहरे का हर हिस्सा बतलाता रहा कि शक्करपारे गुट्टू मुन्ना के वायदों से कहीं ज़्यादा मीठे हैं। हारकर गुट्टू मुन्ना दालान की सीढ़ियों पर बैठ गया। उसे विचार आया कि क्यों न वह चुनमुन के शक्करपारे छीन ले। और उन्हें छीनना उसके लिए कोई कठिन कार्य नहीं था। वह चुनमुन से तगड़ा जो था। लेकिन चुनमुन से शक्करपारे छीनने का अर्थ था, चुनमुन का रोना और उसकी माँ का भीतर से निकलकर आना। और गुट्टू मुन्ना अगर किसी से डरता था तो चुनमुन की माँ से। संक्षेप में यह कि छीनकर शक्करपारे मिल तो सकते थे, पर बड़े ही महँगे दामों में। कुछ समझ में न आता देख गुट्टू मुन्ना ने चुनमुन की ओर देखा, इस आशा से कि शायद उसकी मनःस्थिति में इस बीच कोई परिवर्तन आ गया हो। लेकिन स्थिति पूर्ववत् थी। चुनमुन की जेब से एक के बाद एक निकलकर शक्करपारे उसके मुँह में गायब होते जा रहे थे। 

गुट्टू मुन्ना ने देखा कि मौक़ा कुछ कर दिखाने का है, खाली बैठने से काम नहीं चलेगा। 

बादशाह फ़ोट्टी थ्री फ़ोर फ़ोट्टी फोर। मुहल्ले के शराबी की नक़ल करते हुए वह ज़ोर से चीखा। 

चुनमुन ने पलटकर उसकी ओर मुस्कराते हुए देखा और उसे लगा जैसे शक्करपारे उसके मुँह में आ गए हों। फ़ोटी फ़ोटीरी फ़ोर काला आदमी! उसने अपना अभिनय जारी रखा। 

चुनमुन ने एक शक्करपारा अपने होंठों में दबा लिया और उसे होंठों से ऊपर-नीचे हिलाती रही। गुट्टू मुन्ना के अभिनय पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया। गुट्टू मुन्ना के मुँह में आए हुए शक्करपारे गायब हो गए, वहाँ केवल लार बची रही। 

गुट्टू मुन्ना फिर यूँ ही बेमतलब ज़ोर से हँसा। लेकिन इस हँसी का चुनमुन पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा। मगर गुट्टू मुन्ना चुनमुन की जिज्ञासा प्रबल होने पर आस लगाए रहा और अपनी हँसी को तर्कयुक्त सिद्ध करने के लिए कोई मज़ेदार बात सोचने लगा। परंतु उसका ज़रखेज दिमाग भी आज कोई मज़ेदार बात न उपजा सका। इस मज़ेदार बात की कमी से तनिक भी हतोत्साह न हो गुट्टू मुन्ना पुनः जी खोलकर हँसा। 

काफ़ी हँस चुकने के बाद उसने हँसी रोकने का प्रयास करते हुए कहा, ओहो, बड़े मज़े की बात, ओ हो हो हो! और वह फिर हँसने लगा। 

चुनमुन उसकी ओर से मुँह फेरती हुई बोली, कोई भी बात नहीं है। 

बात है। गुट्टू मुन्ना ने तैश में आकर कहा, लेकिन चुनमुन ने यह चुनौती स्वीकार नहीं की और बात वहीं रह गई। 

गुट्टू मुन्ना की इच्छा हुई कि जाकर चुनमुन की चोटी खींच दे। शक्करपारे के मामले में वह सरासर बेईमानी कर रही थी। चोटी खींचने से तो शक्करपारे मिल नहीं सकते थे। गुट्टू मुन्ना ने खींचकर एक कंकड़ उठाया और पास ही सोए हुए पिल्ले को दे मारा। पिल्ला किकियाता हुआ उठकर भागा। गुट्टू मुन्ना की आँखें भागते हुए पिल्ले को संतोष-भरी नज़र से देखती रहीं। पिल्ला एक फलवाले के खोंचे के क़रीब टाँगों में दुम दबाए खड़ा हो गया। 

फलवाला आवाज़ लगा रहा था, आम लो, लँगड़े आम! 

गुट्टू मुन्ना को एक मज़ाक सूझा, उसने ज़ोर से पुकारा, ए लँगड़े! 

चुनमुन उसकी इस बात पर हँस दी। गुट्टू मुन्ना तुनककर बोला, मेरी बात पर क्यों हँस रही है? 

चुनमुन चबाया हुआ शक्करपारा निगलती हुई बोली, कोई भी नहीं हँस रहा। गुट्टू मुन्ना कुछ देर चुप रहा, फिर उसने एलान किया, मुझे और भी बहुत-सी बातें आती हैं। और चुनमुन के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन चुनमुन ने उसकी हँसी की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इधर गणितज्ञ गुट्टू मुन्ना के मस्तिष्क ने उसे बताया, जिस रफ़्तार से ये शक्करपारे खाए जा रहे हैं, उससे वे शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगे। अगर उसने अभी कुछ नहीं किया तो फिर उसकी शक्करपारे खाने की आशाएँ मात्र आशाएँ ही रह जाएँगी। 

फिर गुट्टू मुन्ना के मस्तिष्क के भीतर कहीं एक लाल बत्ती जली और उसके विचारों ने आश्चर्यप्रद फुर्ती से काम करना शुरू किया। इतनी फुर्ती से कि पलक मारते ही उनका कार्य समाप्त भी हो गया। गुट्टू मुन्ना को अपनी सबसे ज़बर्दस्त तरक़ीब सूझ गई। वह छलाँगें भरता हुआ अहाते के दरवाज़े पर जा पहुँचा। 

अब मेरा हवाई जहाज़ चलेगा! उसने बुलंद स्वर में घोषणा की और लपककर दरवाज़े पर चढ़ गया। उसके भार से दरवाज़ा चरमराता हुआ आगे-पीछे घूमने लगा। 

घर घर घर ढर्र ढर्र ढर्र ऊँ ऊँ ऊँ! गुट्टू मुन्ना का हवाई जहाज़ चल पड़ा। धीरे-धीरे, जैसे बिना किसी विशेष मतलब के, टहलते हुए चुनमुन हवाई जहाज़ के पास आकर खड़ी हो गई। 

जो हवाई जहाज़ पर चढ़ना चाहे चढ़ सकता है, लेकिन उसे सल्ला करना होगा और शक्करपारे खिलाने होंगे। 

चालक ने आकाश में उड़ते-उड़ते ही एलान किया। 

चुनमुन चुप रही। हवाई जहाज़ फौरन ज़मीन पर उतर आया और चालक ने एक बार फिर से एलान किया, हवाई जहाज़ पर जिसे चढ़ना हो, आ जाए! 

घर्र घर्र घर्र। हवाई जहाज़ स्टार्ट हो चुकने पर काफी देर यात्री की प्रतीक्षा करता रहा। फिर यात्री न आता देख चालक ने हवाई जहाज़ बिना यात्री के उड़ा दिया। 

ऊँ ऊँ ऊँ ऽऽऽ हवाई जहाज़ वायु को चीरता हुआ तेज़ी से उड़ने लगा और चालक ने एक बार फिर एलान किया, जिसे हवाई जहाज़ में आना हो, आ जाए! फिर विज्ञापन के हथकडे प्रयोग करता हुआ बोला, बड़ा ही मज़ा आ रहा है हवाई जहाज़ में। ओ हो! ओ हो! अहा! ओ हो! अहा! ओ हो! जिसे आना हो, आ जाए! 

लेकिन शायद उस दिन गुट्ट मुन्ना बिल्ली का मुँह देखकर उठा था, वरना क्यों हवाई जहाज़ की बेहद शौकीन चुनमुन ने अपनी कल्पनाप्रियता को ताक पर रख एक रूखा यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा, बड़ा हो रहा है यह हवाई जहाज़ ऐसे हवाई जहाज़ में कौन बैठे? ये हवाई जहाज़ थोड़े है, यह तो दरवाज़ा है! 

हवाई जहाज़ की रफ्तार धीमी पड़ने लगी, फिर सहसा वह तेज़ चलने लगा और चालक चीखने लगा, ओ हो! बड़ा मज़ा! ‘ओ हो! बड़ा मज़ा! ओ हो‘ 

चुनमुन कुछ देर हवाई जहाज़ को देखती रही और फिर, दरवाज़ा टूट जाएगा! कहकर सीढ़ियों पर बैठ गई। 

उसके सीढ़ियों पर बैठते ही हवाई जहाज़ ज़मीन पर उतर आया। चालक उसमें से कूदकर उतरा और चुनमुन के पास आकर खड़ा हो गया। 

उसने चुनमुन को ‘देती है या नहीं‘ वाली खूँख्वार नज़र से देखा। चुनमुन ने झट से जेब से चार शक्करपारे निकाल मुँह में एक साथ ठूँस लिए और हथेलियाँ झाड़ती हुई बोली, अब हैं ही नहीं, खतम! अब हैं ही नहीं, खतम! 

इस बात ने जैसे गुट्टू मुन्ना के गालों पर दो करारे चाँटे जड़ दिए। 

गुस्से से उसका चेहरा तमतमा उठा और उसका मुँह निराशा की कड़वाहट से भर आया। उसने फिर आव देखा न ताव, धड़ाधड़ चुनमुन के दो-तीन घूँसे जड़ दिए। चुनमुन रोने लगी। उसके रोते ही गुट्टू मुन्ना को ध्यान आया कि वह कितनी बड़ी भूल कर बैठा। मत रो चुनमुन! उसने कहा, मत रो! फिर कुछ रुककर, मत रो! 

मगर चुनमुन थी कि ‘पैं-पैं‘ लगाती ही रही और फिर हुआ वही जो होना था। चुनमुन की माँ घर से निकलकर आई और अपनी पिसे मसाले से सनी हथेलियाँ गुट्टू मुन्ना और चुनमुन के गालों पर जमा गई। फिर उसने घर का दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया और चुनमुन को संबोधित कर चीखी, अब देख, कौन तुझे भीतर आने देता है। 

मार खाकर दोनों बच्चे सीढ़ियों पर बैठे रोते रहे, फिर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि दोनों ने एक-दूसरे के चेहरे देखे। डबडबाती हुई सूजी-सूजी आँखें, मसाले से पुते हुए गाल, बिखरे हुए बाल, फड़फड़ाती हुई नाक की नोकें। चेहरे देखकर हँसी रोकी नहीं जा सकती है। 

तो पहले चुनमुन हँसी। फिर गुट्टू मुन्ना हँसा। 

गुट्टू मुन्ना ने पूछा, क्यों हँस रही है? 

चुनमुन बोली, तू क्यों हँस रहा है? गुट्टू मुन्ना ने जवाब दिया, मैं तो तेरी शक्ल देखकर हँस रहा हूँ। बंदर-जैसी लग रही है। 

चुनमुन बोली, मैं भी तेरी शक्ल देखकर हँस रही हूँ। बंदर-जैसी लग रही है। 

गुट्टू मुन्ना ने अपने दिमाग़ पर ज़ोर दिया और फिर सहसा प्रेरणा पाकर बोला, हम दोनों की शक्ल बंदर-जैसी लग रही है। चल, पनवाड़ी के ऐने में जाकर देखें! 
(मनोहर श्याम जोशी) 

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Wednesday, March 26, 2025

परीक्षक गुरु

परीक्षक रहे गुरुओं की याद, जिन्होंने परीक्षा में नंबर दिए, उससे अधिक अपने व्यवहार से सिखाया, किसी विद्यार्थी के लिए दुर्लभ, वह सम्मान मुझे इनसे मिला। ऐसे तीन- रमानाथ मिश्र जी, रहमान अली जी और बालचंद्र जैन जी। 

डॉ. रमानाथ मिश्र 1980-81, स्नातकोत्तर अंतिम की परीक्षा के वैकल्पिक प्रश्न-पत्र के वाह्य परीक्षक। लघु शोध-निबंध विकल्प के लिए डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम मार्गदर्शन थे। विषय था- ‘जांजगीर का विष्णु मंदिर: एक अध्ययन‘ था। जांजगीर का भीमा या नकटा कहा जाने वाला यह मंदिर बार-बार देखा हुआ था, गृह-ग्राम अकलतरा के करीब था, कई कथाएं चलती थीं, छमासी रात, मंदिर के दो हिस्से, भीम बली और उसकी छेनी-हथौड़ी। इन सबको समझने-बूझने का मन होता। इसके बावजूद इस पर काम करने के लिए हिचक थी, निगम सर से मैंने कारण बताया कि ‘मैटर नहीं मिलता‘, इस पर उन्होंने कहा, फिर तो इसी पर काम करो, यह बात मैंने हमेशा के लिए गांठ बांध ली। निबंध लिखने की तैयारी के दौरान मार्गदर्शन के लिए वे स्वयं भी जांजगीर आए। जहां कहीं अटका, स्नातक कक्षाओं के गुरु डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर इसके लिए मार्गदर्शन देते रहे। निगम सर मेरे लिखे को बार-बार जांचते रहे, इसके लिए ऐसा भी अवसर आया कि वे कॉलेज के बाद साथ लगे हॉस्टल के मेरे कमरे में आ गए।  

परीक्षा का परिणाम आया। शोध-निबंध में मुझे आशा से अधिक नंबर मिले थे। निगम सर ने बताया कि वाह्य परीक्षक भारतीय और कलचुरि कला-स्थापत्य के बड़े विद्वान थे, उन्होंने इसे बहुत पसंद किया। कुछ साल बाद निगम सर ने किताब दिखाई, जिसमें मेरे शोध-निबंध से लिया गया जांजगीर के इस विष्णु मंदिर की भू-योजना का रेखांकन उल्लेख सहित शामिल था, मेरे लिए इससे बढ़कर और क्या हो सकता था कि रमानाथ मिश्र जैसे विद्वान की पुस्तक में इसे स्थान मिला है। 


तब तक मैं मिश्र सर से कभी नहीं मिला था। उनकी यह पुस्तक आने के कुछ साल बाद एक सेमिनार में मैं उनसे मुलाकात हुई, उन्हें बस अपना नाम बता पाया कि उन्होंने तुरंत याद किया, ‘जांजगीर का विष्णु मंदिर‘। मैं उनका आभार व्यक्त करूं इसके पहले ही उन्होंने खेद व्यक्त किया कि आपके शोध-निबंध के रेखांकन का उपयोग मैंने किया था, इसका उल्लेख करते हुए आपका नाम नहीं दे पाया था। फिर उन्होंने पूछा कि आपको इसमें अंक तो ठीक मिले थे न, मैंने जवाब दिया मेरी आशा से भी अधिक सर- 86/100। 

000 

डॉ. रहमान अली 1981, एम.ए. अंतिम के स्थापत्य प्रश्न-पत्र के परीक्षक थे। रायपुर से एम.ए. की परीक्षा पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए प्राच्य निकेतन में प्रवेश लेने भोपाल गया। भोपाल पहली बार जा रहा था, वहां डेरा-डंडा था और जान-पहचान के नाम पर ’प्राच्य निकेतन‘ के प्राचार्य डॉ. राजकुमार शर्मा। (जबलपुर हाईकोर्ट के प्रसिद्ध वकील सतीशचंद्र दत्त, मेरे पिता और चाचा के करीबी थे, जिनकी बहन डॉ. शर्मा की पत्नी थीं।) डॉ. शर्मा से मिला, उनके निर्देशानुसार एडमिशन फार्म भरकर जमा कर दिया। तब प्राच्य निकेतन, बिरला मंदिर के पीछे होता था। ग्राउंड फ्लोर पर म्यूजियम और पहली मंजिल पर संस्थान-कक्षाएं, जिसमें बीच का हॉल लाइब्रेरी-रीडिंग रूम। लाइब्रेरी में इंतजार करने को कहा गया, वहां पहले-पहल लाइब्रेरियन पंडित मैडम से परिचय हुआ। 

प्रश्न-पत्र, जिसमें क्र. 7 पर
खजुराहो के मंदिर पर प्रश्न है।
कुछ देर में प्रवेश-प्रभारी डॉ. रहमान अली के सामने उपस्थित होने का बुलावा हुआ। अली सर ने बैठने का इशारा किया, नजर फार्म पर, मुख-मुद्रा गंभीर। पूछा, रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से? परीक्षा में ‘स्थापत्य‘ आप्शन था? खजुराहो के मंदिर वाले प्रश्न के उत्तर में कंदरिया महादेव की भूयोजना का रेखांकन था? जवाब में जी हां, जी हां के साथ थोड़ी घबराहट के साथ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। तब उन्होंने मेरे प्राप्तांक बताते हुए कहा- ‘आपका यह पेपर मैंने जांचा था। आपकी हैण्डराइटिंग मुझे ध्यान थी, एडमिशन फार्म पर वैसा ही देखा तब स्थापत्य वाला पेपर और कंदरिया रेखांकन याद आया। वह पेपर जांचते हुए मैंने सोचा था, इस विद्यार्थी से कभी मुलाकात होगी। डिप्लोमा पढ़ाई के दौरान और उसके बाद भी अली सर का विशेष अनुग्रह मुझ पर बना रहा। उस पेपर में मिले अंक से मुझे भी ऐसा लगा था कि कभी इन उदार परीक्षक को जान पाता, उनसे मिल पाता- मुझे अंक मिले थे 69/100। 

000 

श्री बालचंद्र जैन, 1981-82, संग्रहालय विज्ञान स्नातकोत्तर पत्रोपाधि परीक्षा के प्रैक्टिकल में वाह्य परीक्षक थे, तब इन उद्भट विद्वान को न के बराबर समझ पाया था। 1984 से शासकीय सेवा में आया, बिलासपुर कार्यालय था और नियंत्रक उपसंचालक कार्यालय, जबलपुर होता था। जैन साहब तब तक सेवा-निवृत्त हो चुके थे, निवास जबलपुर में था। विभागीय बैठकों के लिए जबलपुर जाना होता था। अब तक उनकी विद्वत्ता और साथ ही विशिष्ट प्रशासनिक कौशल के बारे में कई बातें जानने-समझने लगा था। 

1986 में बैठक के लिए जबलपुर गए और विभागीय वरिष्ठ सहयोगी अधिकारी रायकवार जी के साथ जैन साहब के निवास उनसे मिलने गया। गंभीर-रिजर्व और कड़क माने जाने वाले जैन साहब का मेरे प्रति व्यवहार सहज, बल्कि आत्मीय था। विदा लेते हुए उन्होंने धीरे से ध्यान कराया, जिसे मैं पूरी तरह भूल वुका था, प्राच्य निकेतन में तुमने मेरे सारे सवालों का जवाब बहुत अच्छी तरह दिया, अब विभाग में आ गए हो, काम करने का मौका है, खूब काम करो, कहते हुए अपने ‘उत्कीर्ण लेख‘ वाले काम को आगे बढ़ाने का आशीर्वाद रायकवार जी के साथ मुझे दिया। हमें संतोष है कि वह काम यथामति तैयार कर विभाग से प्रकाशित करा सके। 


जैन साहब का 12/11/86 को मेरे नाम लिखा पत्र, जिसमें दीपावली और नववर्ष की शुभकामनाएं के साथ श्री रायकवार जी व अन्यों को सादर नमस्कार लिखा है। दूसरा पत्र 1/6/87 का श्री रायकवार के नाम है, जिसमें उन्होंने कृपापूर्वक लिखा- ‘श्री राहुल के प्रति मुझे भारी स्नेह हो गया है। उनसे बहुत आशाएं हैं। जैन साहब के निधन पर मैंने उन पर श्रद्धांजलि लेख लिखा था, जो तब 1995 के जून दूसरे सप्ताह में ‘हरिभूमि‘ समाचार पत्र के संपादकीय पेज पर पूरे आठवें कॉलम में छपा था, जिसकी कतरन सुरक्षित नहीं रख पाया। महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर में उन्होंने अपनी सेवा के महत्वपूर्ण वर्ष बिताए थे, नवंबर 2024 में यहीं उनकी जन्मशती के आयोजन में उन्हें प्रति अपनी भाव-श्रद्धांजलि समर्पित करने का अवसर आया। 

इन तीन परीक्षक गुरुओं के अलावा तीन ऐसे गुरु हैं, जिन्होंने कक्षाओं में नहीं पढ़ाया, मगर अनमोल सिखाया- डॉ. प्रमोदचंद्र, श्री कृष्ण देव और श्री मधुसूदन ए. ढाकी, इन पर फिर कभी, फिलहाल सारे गुरुजन का पुण्य स्मरण।

Saturday, March 22, 2025

कोचिंग

1996-97। संयोगवश प्रतियोगी परीक्षा और कोचिंग से जुड़़ गया। हुआ यूं कि पता चला मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा के बाद साक्षात्कार की तैयारियां हो रही हैं। वह दौर ऐसा भी आया था कि दो-तीन सत्रों की मुख्य परीक्षा के परिणाम आ गए थे और कुछ समय के अंतर से साक्षात्कार होने थे। मैंने जानने की कोशिश की, किस तरह तैयारी कराई जाती है। जानकर अजीब लगा कि साक्षात्कार के लिए पिछले वर्षों में पूछे गए सवालों की सूची इंदौर से आ जाती है, फिर उसके प्रश्नों के जवाब लिखवाए जाते हैं और अधिकतर प्रतियोगी नोट्स ले कर, प्री और मेन्स की तैयारी की तरह इन जवाबों को रट लेते हैं। मुझे लगा कि यह अजीब है, साक्षात्कार की तारीख आने में थोड़ा वक्त था, इसलिए मैंने अपनी निशुल्क सेवा देने का प्रस्ताव रखा। धीरे-धीरे माहौल बदला। प्रतियोगी किसी कोचिंग के हों, मुझसे आ कर मिलने लगे, कई घर पर भी आने लगे। 

इस दौरान की ढेरो यादें हैं, जिन कुछ समझाइशों के लिए जोर होता था, यहां उनमें से कुछ-

# हां-नहीं, सही-गलत के बजाय सहमत -असहमत, उचित-अनुचित, उपयुक्त-अनुपयुक्त, जैसे शब्दों का इस्तेमाल करें, जजमेंटल हो, विश्लेषण करें। 
# उत्तर देते हुए भावुक नहीं संवेदनशील हों, विषयगत नहीं वस्तुगत तथ्यात्मक रहें। जब तक आवश्यक न हो माता-पिता, भाई-बहन के बजाय परिवार-अभिभावक, रिश्तेदार-परिचित जैसे शब्दों का इस्तेमाल करें। अखबार, पत्रकारिता की भाषा चिन्ताजनक, दुर्भाग्यपूर्ण, कलंक जैसे शब्दों और अपावश्यक विशेषण के इस्तेमाल से बचें।
# अपनी प्रामाणिकता और असलियत (आथेन्टिक और जेनुइन होने) का भरोसा रखें। अपने विचारों को स्पष्ट तार्किकता के साथ प्रस्तुत करें, न कि भावनात्मक प्रतिबद्धता से। प्रश्नों के जवाब में जानकारी, दृष्टिकोण को प्रस्तुति-कौशल होना चाहिए, शोध की गहराई या विशेषज्ञ की तरह के बजाय सामानज्ञ की सहजता और सतर्क जागरूकता अधिक जरूरी है। 
# एक सवाल अधिकतर होता कि क्या शासन/तंत्र की किसी नीति के विरुद्ध बोल सकते हैं/ सरकारी योजना की आलोचना कर सकते हैं? तंत्र के हिस्से के रूप में शासन की आलोचना या कमी का जिक्र सुधार-पूर्ति के सुझाव सहित किया जा सकता है। जैसे आधा गिलास पानी में आधा भरा होना आशावाद और आधा खाली होना निराशावाद है तो आधा खाली को कैसे भरा जा सकता है की दृष्टि से देखना तथ्यगत सकारात्मक है, जिसे साक्षात्कारवाद कह सकते हैं। 

सिलसिला बना रहा। बैंक, डिफेंस, एसएससी, पुलिस आदि के साक्षात्कार की तैयार वालों से संपर्क होता गया, मानता हूं कि अलग-अलग पृष्ठभूमि के युवाओं से लगातार मिलते रहने से अधिक साफ सोच पाने और बेहतरी में सहायक हुई होगी। 2012-13 में छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग का पैटर्न बदला, इस दौरान कई भूमिकाओं में आयोग से जुड़ गया, इसलिए अपनी मर्यादा तय कर ली। इस भूमिका के साथ खास तौर पर कहना है कि परीक्षा परिणाम के बाद चयनितों की दुनिया बदल जाती है, उनसे संपर्क न रहे, मेरा यथासंभव प्रयास होता, मगर जिनका चयन नहीं हो पाया, उनमें से कई ऐसे हैं, जो चयनितों से बेहतर स्थिति में हैं। 

1998.99 में पुलिस सब-इंस्पेक्टर की लिखित परीक्षा के बाद, उनके फिजिकल और साक्षात्कार के लिए बिलासपुर में मेरा नियमित जुड़ाव रहा। रेलवे ग्राउंड में फिजिकल का अभ्यास होता था। इस परीक्षा में चयन न हो पाने वाले एक प्रतियोगी को पत्र लिखा था, वह यहां है- 
प्रिय ..., 
शुभकामनाए 

कल शाम लगभग सभी लोग इकट्ठे हुए, श्री पी. जी. कृष्णन भी लगभग डेढ़-दो घन्टे रुके, पंकज अवस्थी भी आया था, मुझसे अलग से चर्चा हुई, वह अपना परिचय बताया और एकदम घरू बालक निकला. 

लगभग पूरे समय सब लोग (मेरे आलावा) तुम्हारी चर्चा करते रहे, और तुम्हारे सलेक्ट न होने पर आश्चर्य तो शायद किसी को नहीं था, अफसोस जरूर सबको था, पी. जी. का कहना था कि उनके लाड़ ने तुम्हारा नुकसान किया, वरना तुम्हें फिजिकल में 70 तक नन्बर मिलना था, लेकिन देर से आना, उनकी सहानु‌भूति और स्नेह के इच्छुक रहना, इस दिशा में तुम अधिक प्रयासरत रहे। 

तुम्हारे सभी मित्रों का यह मानना था कि जहाँ भी उन्हें किसी जानकारी के लिए मुश्किल होती थी, किसी किताब के बजाय तुम्हारी जानकारी पर अधिक भरोसा होता था, लेकिन तुम्हारे चयन की संभाव‌ना को लेकर कहीं-न-कहीं शंकित सभी थे, ऐसा क्यों हुआ तुम अधिक अच्छा विश्लेषण कर सकते हैं। 

इन्टरव्यूज (मॉक) के दौरान के लिए मैं तुमसे बार-बार जो कहता रहा, वह यहाँ दुहराने की जरूरत नहीं समझता. 

अब यह विश्लेषण करो कि तुम्हारी योग्यता (जो सचमुच तुममें है) का विश्‌वास तुम उन सभी लोगों को दिलाने में सफल रहे हो, जो तुम्हारा चयन करने वाले नहीं है, और चयन करने वालों के लिए अपनी उर्जा और क्षमता बचाकर नहीं रख पाये, तुम्हारे इस प्रयास ने तुम्हें सबकी सहानुभूति का पात्र बनाया, यदि तुम्हें इससे तसल्ली मिल रही हो, तो कम से कम मेरा ऐसा उद्देश्य नहीं है, क्योंकि बधाई का पात्र, सहानुभूति का पात्र बन जाये तो इस पर गुस्सा ही आ सकता है, मैं अपने लिए यह जरूर दुहराना चाहूँगा कि मेरे प्रति किसी का सहानुभूति दिखाना मुझे सबसे घृणास्पद लगता है और इसीलिए किसी अन्य के प्रति भी कुशलता (या चतुराईपूर्वक) सम्वेद‌ना प्रकट नहीं कर पाता, मुझे ऐसा लगता है कि किसी को या किसी की सहानुभूति, सच्ची वही होती है जो सहयोग के रूप में सामने आए. 

खैर पुनः दुहराता हूँ अपना विश्लेषण तुम करो, तुम्हारा मूल्यांकन न सिर्फ मैंने बल्कि उपरोक्त उल्लेख के अनुसार सभी ने किया है, और अपनी क्षमता और योग्यता सिर्फ वहाँ साबित करना सीखो, जहां वह आवश्यक है, हर सडक चलते बेकार के आदमी या चाय-पान ठेले पर अपने बुद्धि कौशल का प्रकाश फैलाना सार्थक नहीं होता है लेकिन यदि यह अभ्यास मानकर किया जाय तो इसे भी उपयोगी बनाया जा सकता है, अपनी योग्यता और अपनी सफलता के बीच सीधा और हक का रिश्ता कायम करने का प्रयास करो न कि अवैध संबंध स्थापित करने का, बीच के लोग सहयोगी हो सकते हैं निर्णायक नहीं, निर्णायिक सिर्फ तुम हो सकते हो और दूसरे लोग, अधिकृत लोग, उसे अटेस्ट कर सकते हैं, उन्हें उनके द्वारा तुम्हें सत्यापित किया जाय, इसके लिए मजबूर किया जा सकता है, यानि अगर परीक्षा केन्द्र उल्टा-पुल्टा हो तो ज्यादा जिद के साथ अपने लक्ष्य के लिए प्रयास करना, अपने को झोंककर अपनी सफलता खुद तय करना, पुनः शुभकामनाएं. 

राहुल 15-4-2000 

प्रतियोगी परीक्षा के दौर के बाद तब संपर्क में आए युवा अब भी यदा-कदा संपर्क करते हैं, तब की कोई बात याद दिलाते हैं, जिनमें से एक ऊपर वाला पत्र है, इसी तरह एक चयनित ने याद दिलाया था, वह यह है- 

प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने के बाद मिलने आने वालों से मैं कहा करता- Be an average officer, who is constantly trying to improve his average ... ’

तुम एक ऐसे औसत अधिकारी बनो जो सदैव अपने औसत को बेहतर करने की कोशिश कर रहा हो।’ न कि Excellent या Best बनो। बस अपने औसत को लगातार सुधारते चलो। 

मेरी इस बात की याद दिलाते हुए एक चयनित, अब वरिष्ठ अधिकारी ने टिप्पणी की- बच्चे बुजुर्गों की बात सुनते ही कहां हैं... मैं भी अपनी मस्ती में रहता था। कभी उनका कहना मानता नहीं था, पर आज उनकी कही बात याद आती है बहुत और मानने की कोशिश भी होती है। 

वो कहते थे कि औसत होने का अभिमान नहीं पकड़ता। बेहतरीन होने का अभिमान पकड़ सकता है। औसत के आगे बेहतर दिशा में भी बहुत कुछ है, पीछे भी बहुत कुछ ... स्कोप बहुत है औसत इंसान के पास बेहतर होने का...

औसत व्यक्ति विनम्र होता है, क्योंकि वो औसत है, वो बहुत कुछ नहीं जानता। ’मेरी ही बात सही है, ऐसा उसका आग्रह नही होता। आपकी भी बात आपके Point of View (दृष्टिकोण) से सही है, ऐसा मानने में उसे कोई दिक्कत नहीं। सबकी दृष्टि का कोण एक हो, ऐसा संभव भी नहीं।’ 

औसत का नियम यह भी बताता है कि सिर्फ एक इंसान के साथ भी बेहतर या खराब संबंध आपके संपूर्ण औसत को बहुत बेहतर या बहुत खराब तरीके से प्रभावित कर सकता है, यदि वो इंसान बेहद प्रभावशाली हो। So, 

 Always pick your battles carefully...Avoid unnecessary battles ... लड़ो तभी जब उससे आपके औसत के बेहतर होने की संभावना हो...’ अब समझ पा रहा हूं कि मेरा प्रयास होता था, साक्षात्कार को एक पड़ाव माना जाए, प्रतियोगी युवा इसे अंतिम लक्ष्य की तरह न देखें और साक्षात्कार में कामयाबी के गुर, सुखी और सफल जीवन के लिए भी लगभग उतने ही अनुकूल और आवश्यक होते हैं।

सिंहावलोकन पर संबंधित अन्य पोस्ट के लिंक- 

Thursday, March 20, 2025

सुरेन्द्र परिहार का पत्र 19-5-1987

सुरेन्द्र परिहार सर, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय शिक्षण विभाग (यूटीडी) मैं मैं उनका/ यूटीडी का विद्यार्थी नहीं रहा, मगर पुस्तकालय और परिचितों के कारण, (1976-1981) लगभग प्रतिदिन 3 नंबर सिटी बस से वहां जाता था। (कहा जाता था कि जो यूटीडी में नहीं पढ़ा, उसकी आधी जिंदगी बेकार और जिसने वहां पढ़ाई कर ली उसकी पूरी...!🙂) समाजशास्त्र के इंद्रदेव सर, भाषा विज्ञान के रमेशचंद्र मेहरोत्रा सर, भूगोल के पीसी अग्रवाल सर किसी भी विद्यार्थी की जिज्ञासा समाधान के लिए सहज तैसार हो जाते। परिहार सर की बात निराली थी, कोई भी जिज्ञासु कभी भी उनसे मिलने उनके निवास पर जा सकता था (वे आजन्म अविवाहित रहे), वहां चाय भी मिल जाती थी, पुस्तक पढ़ने को ले सकते थे, लाइब्रेरी से किताब चाहिए और विद्यार्थी को न मिल पा रही हो (मैं उस लाइब्रेरी की सदस्य नहीं था, रीडिंग रूम की सुविधा ले लेता था और बाद में जान-पहचान हो जाने के कारण शोध-संदर्भ खंड में भी जा सकता था।), तो अपने खाते से निकलवा कर देते थे।

विश्वविद्यालयीन पढ़ाई के बाद भी उनके जीवन भर, उनसे मेरा संपर्क बना रहा, जिज्ञासुओं के प्रति उनके रवैये के बारे में उनसे परिचित सभी भलीभांति जानते हैं, जो अपरिचित हैं, इस पत्र से अनुमान कर सकते हैं- 

प्रिय राहुल, 

आपका 10 मई का पत्र एक सुखद अचरज रहा। इस बीच आपसे एक अर्से से मुलाकात नहीं हो पाई। यह जानकर मुझे बड़ा अच्छा लगा कि आप पुरातत्व विभाग में काम कर रहे हैं और अध्ययन और शोध में अपनी रुचि बराबर बना कर रखते हैं। 

आपने आदिम धर्म पर इस बीच परियोजना के लिये एक लेख लिखा है - यह सुखद सूचना है मानव विज्ञान में आदिम और आधुनिक धर्म दोनों पर मानव शास्त्री काफी लम्बे समय से काम कर रहे हैं और धर्म की मान्यताओं और विकास के सम्बंध में काफी बहसें चालती रहती है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न मानवशास्त्रियों ने यह उठाया कि मानव कि धर्म समाज में क्या काम करता है? आदिम अथवा आधुनिक समाज में उसकी क्या उपादेयता है? क्या तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति के कारण वह अपनी जगह खो चुका है? धर्म के क्षेत्र में होने वाली सभी बहसों में आपको मार्क्स के विचारों को अवश्य पढ़ना चाहिये। धर्म के विकास और उपादेयता पर मार्क्स और एंगेल्स ने यह कह कर बहुत गर्मी पैदा कर दी कि ‘‘धर्म जनता का अफीम है‘‘। मैं मार्क्स के विचारों से सहमत नहीं पर इस क्षेत्र में मावर्स को प्रतिभाशाली अवश्य मानता हूं। किसी अच्छी बहस की शुरुआत मार्क्स से की जानी चाहिए।

आदिम धर्म के क्षेत्र में हमारे विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में काफी साहित्य - समाजशास्त्र और मानवशास्त्र दोनों ही विषयों में। आप स्वयं यहां आकर कोई पुस्तक ले सकते हैं अथवा इस बीच यदि मैं बिलासपुर अकलतरा आया तो अपने साथ लेता आउंगा। अच्छा तो होगा यदि अपना वक्त निकाल कर यहां आयें तो काफी बातचीत रहेगी। 

पुरातत्व विभाग इन दिनों छत्तीसगढ़ में खनन का कहां कहां काम चला रहा है? बुद्धकालीन मूर्तियां और अवशेष सिरपुर को छोड़कर और कहां है, कृपया सूचित करें। मैं बिलासपुर आने पर आपके संग्रहालय को अवश्य देखना चाहूंगा।। 

शुभकामनाओं के साथ 
आपका शुभांक्षी 
सुरेन्द्र परिहार 
19/5/187

Wednesday, March 19, 2025

बस्तर में संग्रहालय

बस्तर के अखबार ‘दण्डकारण्य समाचार‘ की 1959 से 2003 तक की 45 वर्षों की यात्रा का संकलन है ‘जिज्ञासा‘। इसमें दस्तावेजी महत्व की जानकारियां हैं। संग्रहालय विज्ञान से जुड़े होने के कारण इसकी दो प्रविष्टियां मेरे लिए खास हैं- पहली 1961 में उद्घाटित पुरातत्वीय संग्रहालय (पेज-25) और दूसरी जगदलपुर में 1964 में नृतत्वशास्त्रीय संग्रहालय (पेज-70) के प्रस्ताव पर कार्यवाही का निम्नानुसार है- 

Vol 2 No. XXXIX Jagdalpur, Sunday, February 12, 1961 

Kabir Inaugurates Archeological Museum 

Jagdalpur, Feb. 5. The Minister for Scientific Research and Cultural Affairs Professor Humaun Kabir told a packed gathering here that the object of the Government was to study Indian Archeology throughout India and Baster would now also be put under this programme. 

He was inaugurating a small Archeological Museum housed in the District Collectorate on the afternoon of Feb. 4. The function was orgins by the District Publicity and Social Welfare department with an initial collection about 20 sculptures. 

"Bastar is a land of fascinating interest having influences from different parts of the country with manifestations of diversity of culture besides its unique place in the sphere of Anthropology, Geology and the ike and rich also in archeological remains scattered all over the disrict with thousands of years of history behind them," Shri Kabir said, Announcing a token grant of Rs. 1000/00 for the museum, the Minister said that while the departments of Anthropology and Gelogy are already at work at Bastar, the Government would step in the archelogical sphere also when time was ripe for it and appreciated the move taken locally towards this. 

speaking at length of cultural heritage of India Prof. Humayun Kabir said that researches now being carried & linguistic survey of India being made from next year would have more insight into this. The Minister advised the district to apraoch Government of India for a technical Institute to be followed by Polytechnic Institution for the benifit of tribals. Later in the evening Prof. Humayan Kabir paid visit to Republic Day Exhibition and gave away prizes to the competitors in the presence of a t gatheringe. He felt happy at the development programmes undertaken at Bastar and laid stress on placing emphasis on spread of education which alone would lead our country to progress, he said. 

On both these functions, in the absence of the Collector, the Duputy Collector Sri P.G.Y. Mudaliar who welcomed the Minister and introducted him to gathering stated in brief the background under which the functions were held and later proposed a vote of thanks for the chief guest in glowing terms. He also thanked all those connected with the successful organisation of the functions. 

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Voll. V No. 40 Jagdalpur, Sunday April 26, 1964 

Anthropological Museum at Jagdalpur 

JAGDALPUR, April 14, 1964. The Government of lndia, it is understood, is examning a proposal for opening of an Anthropological Museum at Jagdalpur, the Hdqrs of Bastar District. The Directorate of the Anthropological Survey of India, Calcutta, had recently deputed Doctor N.C. Chowdhary, the Curator of Indian Museum to Jagdalpur for survey and to find out this possibility. This survey by the Anthropological Survey of India was undertaken in view of a request from the Ministry of Education, Government of India inviting comments and suggestions on the proposal immediately and also asking for a comprehensive scheme with full financial involvement in case the directorate support the proposal, it is very reliably learnt. 

Shri Sunderial Tripathi of the Anthropological Institute Jagdalpur, it is also gathered, met the Education Minister Shri M.C. Chagla in New Delhi early last March and put before him the fact that Bastar area had many interesting historical finds relating to tribals, finds of early 9th to 15th Century A.D. and urged the desirability of establishing an Anthropological museum at Jagdalpur Maintained directly by the Central Government which would prove very useful to the country. 

Doctor Chowdhary who was here for four days left for Calcutta and is likely to submit his comments and suggestions shortly to the Directorate.

Tuesday, March 18, 2025

प्रवीरचंद्र भंजदेव - कालक्रम

बस्तर के अखबार ‘दण्डकारण्य समाचार‘ की 1959 से 2003 तक की 45 वर्षों की यात्रा का संकलन है ‘जिज्ञासा‘। इसमें आई दस्तावेजी महत्व की जानकारियों में पेज 84 पर वर्ष 7 अंक 37 जगदलपुर, रविवार 27 मार्च 1966 के साथ ‘राजमहल में गोली कांड, पुलिस की गोली से प्रवीरचंद्र भंजदेव का निधन‘ प्रकाशित है और इसी क्रम में पेज 85-86 पर उनके जीवन की महत्वपूर्ण तिथियां इस प्रकार छपी हैं- 

स्वर्गीय प्रवीर के जीवन की महत्वपूर्ण तिथियां 

२५ जून १९२९-प्रवीरचंद्र भंजदेव का शिलांग में जन्म 
९ मार्च १९३४-प्रवीर के लघु भ्राता वर्तमान महाराजा श्री विजयचंद्र भंजदेव का इंग्लैंड में जन्म। 
फरवरी १९३६- प्रवीर की माता महारानी प्रफुल्ल कुमारी का इंग्लैंड में देहावसान। 
१६ जुलाई १९४७- प्रवीर का विधिवत राज्याभिषेक। 
१ जनवरी १९४८- बस्तर का रियासत का विलीनीकरण। 
१९५३-शासन द्वारा प्रवीर की सारी संपत्ति कोर्ट आफ वार्डस के अधीन करने की घोषणा 
१९५५- प्रवीर द्वारा आदिवासी किसान मजदूर संघ की स्थापना। 
१९५७- प्रवीर का जिला कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित होना तथा बाद में आम चुनाव में विधायक निर्वाचित होना। प्रवीर के पिता स्व. श्री प्रफुल्लचंद्र का निधन। 
१९५८- प्रवीर द्वारा आदिवासी सेवा दल स्थापना। 
१९५९- श्री प्रवीर द्वारा विधानसभा की मान्यता से त्यागपत्र। 
११ फरवरी १९६१-धनपूंजी गांव में प्रवीर की गिरफ्तारी
 
१२ फरवरी १९६१- शासन द्वारा प्रवीर गतिविधियों तथा उनके वक्तव्यों को जनविरोधी बताते हुये उनकी मान्यता रद्द की घोषणा। 
२७ मार्च १९६१- तोकापाल अश्रु गैस कांड। 
३१ मार्च १९६१- लोहंडीगुड़ा तथा सिरिसगुड़ा में आदिवासियों द्वारा प्रदर्शन तथा प्रवीर की रिहाई की मांग। लोहंडीगुड़ा में पुलिस द्वारा आदिवासियों पर गोली चालन। 
२६ अप्रैल १९६१- प्रवीर की नरसिंहगढ़ जेल से रिहाई, शासन द्वारा नियुक्त सलाहकार बोर्ड द्वारा प्रवीर की गिरफ्तारी को अवैध निरूपित किया जाना। 
४ जुलाई १९६१-प्रवीर का पाटन की राजकन्या शुभ राजकुमारी से विवाह (प्रवीर द्वारा महारानी वेदवती देवी नामकरण) 
अक्टूबर १९६१- प्रवीर द्वारा १४ वर्षों की लंबी अवधि के बाद पुनः विधिवत रथारुढ़ होकर दशहरा समारोह का नेतृत्व (इसके पूर्व वे १९४७ में रथारुढ़ हुये थे।) 
नवंबर १९६१- प्रवीर द्वारा ‘राजा मड़ई‘ का पुनः शुभारंभ (राजा मड़ई १९३७ से बंद थी) 
दिसंबर १९६१-प्रवीर दूद्वारा ‘महाराजा पार्टी‘ की स्थापना। 
फरवरी १९६२- कांकेर तथा बीजापुर के अतिरिक्त शेष सभी क्षेत्रों से महाराजा पार्टी के प्रत्याशियों की विजय। 
६ अक्टूबर १९६२- महारानी वेदवती देवी का बस्तर आगमन। 
८ तथा ९ अक्टूबर १९६२- महाराजा प्रवीर तया महारानी वेदवती देवी, दोनों के द्वारा रथारुढ़ होकर दशहरा समारोह का नेतृत्व। 
८ मई १९६३-जगदलपुर राजमहल में प्रवीर की संपत्ति कोर्ट आफ वार्डस से मुक्त करने के लिये आदिवासियों द्वारा कोर्ट आफ वार्डस के कार्यालय पर हमला। 
९ मई १९६२- महारानी वेदवती द्वारा महल का त्याग तथा पाटन को प्रस्थान। 
१० मई १९६३- म. प्र. शासन द्वारा प्रवीर की संपत्ति कोर्ट आफ वार्डस से मुक्त करने का निर्णय। 
३० जुलाई १९६३- प्रवीर की ३० लाख की संपत्ति कोर्ट आफ वार्डस से मुक्त 
१६ नवंबर १९६३- प्रवीर द्वारा दीपावली के अवसर पर दान करते समय रिक्शा चालक मोतीलाल का हाथ काट दिया जाना। 
१९ नवंबर १९६३- मोतीलाल का हाथ काटने के अभियोग में प्रवीर की गिरफ्तारी तथा ५०० रुपये की जमानत पर रिहाई। 
२२ सितंबर १९६४- हाथ काटने के अभियोग में प्रवीर को १००० रु. जुर्माना तथा १८ माह की सख्त कैद की सजा सुनाया जाना एवं प्रवीर द्वारा अपील पेश। 
१२ जनवरी १९६५- प्रवीर द्वारा दिल्ली जाकर शांतिवन में अनशन। गृहमंत्री श्री नंदा द्वारा आश्वासन दिये जाने पर अनशन की उसी दिन समाप्ति। 
२ नवंबर १९६५-खाद्य संकट से प्रभावित सैकड़ों आंदिवासियों का महल में जमाव। 
१६ नवंबर १९६५-आदिवासी महिलाओं द्वारा रुपये में चार सेर चावल तथा सोने की लापता छड़ी की मांगों को लेकर जिलाधीश कार्यालय में धरना तथा प्रदर्शन। 
१२ दिसंबर १९६५- प्रवीर द्वारा सोने की लापता छड़ी की मांग लेकर अनशन। 
१६ दिसंबर १९६५-कमिश्नर श्री वीरभद्रसिंह के आश्वासन पर अनशन समाप्ति। 
४ फरवरी १९६६-केशरपाल में लेव्ही वसूली के समय उपद्रव। पुलिस द्वारा आदिवासियों पर अश्रु गैस लाठी चार्ज। 
८ फरवरी १९६६- लेव्ही वसूली के प्रश्न पर प्रवीर द्वारा विजय भवन में अनशन आरंभ। 
११ फरवरी १९६६- शासन द्वारा उचित कार्यवाही का आश्वासन दिये जाने पर अनशन की समाप्ति। 
१८ मार्च १९६६- राजमहल में पुलिस द्वारा आदिवासियों को पीटे जाने पर आदिवासियों द्वारा तीर कमान संभाल लिया जाना प्रवीर के बीच बचाव से अप्रिय घटना का टल जाना। 
२५ मार्च १९६६- आदिवासी कैदियों को न्यायालय ले जाते समय अन्य आदिवासियों द्वारा पुलिस दल पर तीर फेंकना जिसमें एक सूबेदार सहित ९ पुलिसमैन आहत (सरदार अवतार सिंह) की मृत्यु। पुलिस द्वारा आदिवासियों को महल में घेरकर गोली चालन। आधी रात तक संघर्ष। 
२५ मार्च १९६६- रात्रि के समय गोलियों से प्रवीर की महल में मृत्यु। 
२६ मार्च १९६६- प्रवीर का संध्या समय अंतिम संस्कार।
-इस्माईल जगदलपुरी

Wednesday, March 12, 2025

देउरकोना - पति पाती

पत्र लेखक-पति - राहुल कुमार सिंह, डीपाडीह कलां, 26/1/89 
पत्र प्राप्तकर्ता-पत्नी - श्रीमती नम्रता सिंह, अकलतरा, 3/2/89 


देउरकोना मंदिर          (संभवतः शिव मंदिर) 
लगभग 8 वीं सदी ई.     (दक्षिण पूर्व) 

त्रिरथ प्रकार का, पंचभूमि शिखर वाला पूर्वाभिमुख मंदिर है अग्रभाग खंडित होने से प्रवेश द्वार अप्राप्त है. अधिष्ठान अंशतः भूमि में दबा, अर्द्धस्तंभयुक्त प्रक्षेप वाली जंघा, चैत्य गवाक्ष, कीर्तिमुख, प्रतिमाओं (गणेश) युक्त शिखर, उपर क्षत शिखर पर आमलक शिला रखी है। 

जंघा के निचले भाग पर छोटी उत्कीर्ण प्रतिमाओं युक्त पाषाण मध्य में slit तथा उपर मकर मुख (सम्मुख युग्म) जंघा पर मालाधारी गन्धर्व तथा चैत्य में मुकुल. 

कीचक और गज का अंकन शिखर प्रक्षेप के सलिलान्तरों में। 

ईब नदी के बायें पार्श्व में लगभग 8 वीं सदी ई. का मंदिर है। 

यह स्थान सन्ना से लगभग 12 कि.मी. तथा इतना ही डीपाडीह से दूर है मार्ग के पश्चिम व्यपवर्तन (ग्राम नन्हेसर) से मात्र 1 कि.मी. दूर यहां पहुंचा जा सकता है। 

ईब उद्गम- जड़ाकोना ग्राम निकट ही है। रानीझूला पहाड़ी से निकला है। शिवालय पहाड़ी देउरकोना मंदिर के पास वटली पहाड़ी का नाम है। 

पोस्ट तथा राजस्व ग्राम - नन्हेसर 
पटवारी हल्का - 2 (खेड़ार) 
विकास खंड+तहसील - बगीचा 
थाना - सन्ना 
जिला - रायगढ़