13 मई 1982 के अंक में रोशनचंद्र चंद्राकर दारा लिखित लेख ‘मांडदेवल या भाड़देव‘ पढ़ने को मिला। प्रसन्नता हुई कि गंभीर और गूढ़ विषयों को जन-रुचि के अनुकूल ढालकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है।
इस लेख पर संक्षिप्त प्रतिक्रिया देना आवश्यक जान पड़ा। लेख के प्रारंभ में ही मंदिर के नाम की चर्चा है। मंदिर को- ‘मांड देवल के नाम से संबोधित तथा स्थानीय लोगों के मुख सुख का नाम भाड़ देव‘ बताया गया; स्पष्ट नहीं होता कि वास्तविक नाम क्या है? मेरी जानकारी के अनुसार वास्तविक और प्रचलित नाम ‘भाड़ देवल‘ है।
जिस दूसरे बिन्दु पर टिप्पणी करना चाहूँगा, वह है- जैन अथवा शैव मंदिर का विवाद। इस संदर्भ में ‘पंचरथ शली में निर्मित एवं युगल मूर्तियों की काम-क्रीड़ा को निरखकर‘ (उद्धृत), उसके शिव मंदिर होने का अनुमान प्रगट किया गया है, जबकि ये दोनों गुण शिव मंदिरों के लिये अनिवार्य नहीं हैं और जैन मंदिरों के लिये इनका निषेध भी नहीं है।
प्रस्तर की भिन्नता का तर्क भी इस आधार पर अमान्य किया जा सकता है कि भिन्न प्रस्तर का प्रयोग, विशेषकर ‘ब्लैक ग्रेनाइट‘, गर्भगृह की प्रतिमा हेतु, अक्सर देखने को मिल जाता है, शिल्प-शास्त्रीय ग्रंथों में भी ऐसा कोई निषेध निर्दिष्ट नहीं है।
एक अन्य तर्क ‘भाड़ देव‘ नाम का है, संभवतः लेखक ने इस शब्द का प्रयोग ‘भांड़‘ के अर्थ में करना चाहा है (भांड़ का अर्थ निर्लज्ज व्यक्ति होता है, जबकि भाड़ का अर्थ भड़भूंजे की भट्ठी होता है) वैसे भी तिरस्कारपूर्ण पात्र हेतु ‘भांड़‘ शब्द का प्रयोग होता है। इसलिये यह तर्क भी उपयुक्त प्रतीत नहीं होता, साथ ही यह तर्क अनुमान भात्र पर ही आधारित है। गारे की जुडाई मंदिर के मूल निर्माताओं अथवा परवर्ती कालीन अनुरक्षण-संरक्षणकर्ताओं की देन हो सकती है।
इसका शिव मंदिर होना, और इसकी संभावना-मात्र के लिये ये दो तर्क दिये जा सकते हैं- यह मंदिर भूमिज शैली का, जिसमें सामान्यतः शैव मंदिर ही निर्मित हुए हैं तथा द्वितीयतः गर्भगृह का धरातल नीचा है, यह भी सामान्यतः शैव मंदिरों में हुआ करता है।
यदि पंचरथ जैसे मंदिर-वास्तु के शब्द (term) का प्रयोग किया गया है तो उसे स्पष्ट करना चाहिये। साथ ही अगर रथ-संख्या की जानकारी दी जाती है तो यह आधारभूत सूचना होनी चाहिए कि यह छत्तीसगढ़ में भूमिज शैली का एक प्रतिनिधि है (भोरमदेव मंदिर के साथ-साथ) तथा भूमिज होने के नाते इसकी विशिष्टता यह है कि यह भूमिज (भूमि से जन्म लेता या प्रारंभ होता) नहीं बल्कि ऊंची जगती (प्लेटफार्म) पर बनाया गया है। लेखक के लिये एक अन्य सूचना यह भी कि ‘लोहे की पट्टिका बांधने का दायित्व निर्वाह‘ लगभग सवा सौ साल पहले हुआ था।
कुछ बातें लेख के स्वरुप के संबंध में भी कहना चाहूंगा, वह यह कि इस प्रकार के लेखों का स्वरूप जनरुचि के अनुकूल होना चाहिये, जिससे सामान्य-जन पुरातत्व के तथ्यों से परिचित हो सके, विवाद तो अध्येताओं की जिम्मेदारी है, इस पचड़े में आम-पाठक को न डालें, इससे बेवजह वह भ्रमित होगा। उसे अपनी सांस्कृतिक धरोहरों का भान कराके, ऐसे स्मारकों-प्रतिमाओं आदि के प्रति सम्मान और सुरक्षा का भाव जगाने का प्रयास ही साधुवाद के योग्य होगा।
और अंततः, इसे सुझाव ही समझा जाय, शिकायत नहीं, कृपया।
-राहुल कुमार सिंह,
अकलतरा,
बिलासपुर (मध्यप्रदेश)
पुनश्च- आरंग, स्थानीय उच्चारण में ‘आरिंग‘ है और Corpus Inscriptionum Indicarum, Vol-III के पेज 191 में बताया गया है कि नक्शों में रायपुर Raepoor, Raipur and Ryepoor और India Atlas Sheet No. 91 में आरंग Airing and Arang इस तरह है।
पढ़ाई पूरी करने के बाद, किंतु शासकीय सेवा आरंभ करने के पहले का यह समय था। पुरातत्व के क्षेत्र में क्या लिखा-पढ़ा जा रहा है, जन-सामान्य तक पहुंच रहा है, नजर रखना और संयत टिप्पणी करना अपना दायित्व मानता था, मानता हूं, यहां जिम्मेदार चिंता भी है कि ‘शैव-जैन‘ सौहार्द बना रहे, लेख अनावश्यक विवाद का कारण न बन जाए, उसी क्रम में अखबार में छपे लेख पर 'लोकवाणी' स्तंभ के लिए मेरी यह टिप्पणी, संभवतः छपी नहीं थी, लेकिन इस नोट की टाइप की हुई राइस पेपर पर कार्बन प्रति अब तक सुरक्षित है। इसके साथ जुड़ी थोड़ी बात टाइपराइटर की।
1970 आदि में अपना लिखा, कभी-कहीं छपने लगा था। न छपे तो लगता कि टाइप कर के भेजना था। बाजार से टाइप करवाने की झंझट और फिर गलतियां, अपनी पसंद का साफ-सुथरा टाइप भी न होता था। घर में अंगरेजी टाइपराइटर था और अपनी सभी लिखाई हिंदी की। शायद 1978-79 की बात है, तब रेमिंगटन पोर्टेबल हिंदी टाइपराइटर नया-नया आया था, उस पर खुद टाइप करने लगा। एक अभ्यास यह भी करता कि कुछ लिखना है तो सीधे टाइपराइटर पर लिखूं, काट-छांट न हो। अभ्यास हो जाने के कारण 1981 में अपना लघु शोध प्रबंध, इसी टाइपराइटर पर स्वयं टाइप किया। यह नोट भी इसी तरह, उसी टाइपराइटर पर टाइप किया गया था। छोटी सी एक और बात। तब नाम के साथ इतने पते पर पत्र मुझ तक तक पहुंचने लगे थे :)।
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