Monday, August 1, 2016

स्थान-नाम

‘छत्तीसगढ़‘ नाम छत्तीस घर से या छत्तीस किलों के आधार पर नहीं, बल्कि कलचुरियों के मैदानी खालसा क्षेत्र के छत्तीस प्रशासनिक-राजस्व मुख्यालयों/केन्द्रों के कारण हुआ। फिर भी अन्य मतों का उल्लेख होता है और इस क्रम में सामाजिक विज्ञान के विभिन्न अनुशासन जीवन्त होते हैं। वर्तमान छत्तीसगढ़ में स्थान नामों की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय कि पिछले सौ सालों में सर्वाधिक नाम परिवर्तन शायद सरगुजा अंचल में हुए हैं। स्थान-नाम अध्ययन का आरंभ तलाशें तो हिन्दी में इसकी शुरुआत ही छत्तीसगढ़ के स्थान-नामों पर विचार के साथ हुई। रायबहादुर हीरालाल ने जबलपुर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका हितकारिणी के लिए 1915-16 में ‘मध्यदेशीय ग्रामनाम अर्थावली‘ शीर्षक से लेख लिखे, जो 1917 में ‘मध्यप्रदेशीय भौगोलिक नामार्थ-परिचय‘ पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। 
हितकारिणी का अंक, जिसमें रायपुर, बिलासपुर
स्थान नामों की चर्चा है.

हिन्दी में प्रकाशित स्थान-नामों की इस पहली-पहल पुस्तक में सी पी एंड बरार यानि मध्यप्रांत या मध्यप्रदेश और बरार, जिसका एक प्रमुख भाग छत्तीसगढ़ था, के विभिन्न स्थान नामों पर व्यवस्थित और सुबोध चर्चा है।

स्थान-नाम का अध्ययन भाषाविज्ञान का महत्वपूर्ण और रोचक हिस्सा है। छत्तीसगढ़ में इसके अध्येताओं में महत्वपूर्ण नाम है, प्रो. एन एस साहू। स्थान-नामों पर ‘ए लिंग्विस्टिक स्टडी आफ प्लेसनेम्स आफ द डिस्ट्रिक्ट आफ रायपुर एंड दुर्ग‘, डा. साहू का शोध प्रबंध है, अन्य संदर्भों में इसका वर्ष 1974 या 1977 उल्लेख मिलता है, लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि यह शोध 1974 में प्रस्तुत किया गया था, जिस पर 1975 में डाक्टरेट उपाधि मिली। यह शोध 1989 में ‘टोपोनिमी‘ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ है। मेरी जानकारी में छत्तीसगढ़ में इस दिशा में यह पहला शास्त्रीय अध्ययन है। डा. साहू द्वारा उपलब्ध कराई गई प्रति को देख कर लगा कि पूरे काम में विषय और शोध अनुशासन का अत्यधिक दबाव है। कई नामों की व्याख्या गड़बड़ लगती है, एक उदाहरण साजा+पाली है, जिसे लेखक ने 'डेकोर'+'शिफ्ट' से बना बताया है, जबकि साजा, वृक्ष और पाली, बसाहट का आशय अधिक मान्य होगा। साथ ही पुस्तक में कुछ चूक है। डा. साहू जैसे बापरवाह (एलर्ट और केयरफुल) अध्येता के काम में विसंगति खटकती है, जैसे रायबहादुर हीरालाल का कोई उल्लेख नहीं है, कुछ अन्य गंभीर अशुद्धियां हैं, जिसके बारे में उन्होंने बताया कि पुस्तक प्रकाशन के पूर्व उन्हें प्रूफ नहीं दिखाया गया था। मजेदार यह कि नाम पर किए गए इन शोधार्थी का पूरा नाम जानने में भी मशक्कत हुई, उन्होंने स्वयं बताया कि वह ‘एन एस‘ से जाने जाते हैं, वस्तुतः ‘नारायण सिंह‘ हैं, लेकिन मुझे कहीं उनका नाम ‘नरसिंह‘ भी मिला।

1981 में डा. चित्तरंजन कर का शोध ‘छत्तीसगढ़ के अभिलेखों का नामवैज्ञानिक अनुशीलन‘ - ‘एन ओनोमेस्टिक स्टडी आफ द इंसक्रिप्शन्स आफ छत्तीसगढ़‘ आया, अब तक यह पुस्तक रूप में मुद्रित नहीं हुई है, लेकिन 1982 में ‘नामविज्ञान‘ शीर्षक से हस्तलिखित चक्रमुद्रित (साइक्लोस्टाइल) रूप में प्रकाश में आई है। प्रकाशन का यह स्वरूप अपने आप में अनूठा और उल्लेखनीय है। इसमें शोध-प्रबंध के दृढ़ निर्धारित प्रारूप और उसकी सीमाओं के चलते बौद्धिक उपक्रम के मशीनी हो जाने की मजबूरी झलकती है, लेकिन शोध-प्रविधियों के आदर्श-पालन के फलस्वरूप शोध के अनुशासन और मर्यादा का निर्वाह अनुकरणीय है। इस अध्ययन में नामों के कई रोचक पक्ष उजागर हुए हैं, एक उदाहरण में स्पष्ट किया गया है कि शर्करापद्रक और शर्करापाटक में कैसे 'शर्करा' का आशय बदल जाता है।

1984-85 के डा. विनय कुमार पाठक के डी-लिट शोध प्रबंध से मेरा परिचय सन 2000 में ‘छत्तीसगढ़ के स्थान-नामों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘ शीर्षक वाली पुस्तक के माध्यम से हुआ। उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण इस शोध में छत्तीसगढ़ की समग्रता के साथ विषय-अनुशासन और शोध-प्रविधि प्रभावशाली है। यह कार्य विचार के कई अवसर देता है लेकिन इसमें असहमतियों की भी गुंजाइश पर्याप्त है। कुछ उदाहरण- पृष्ठ 55 का ‘नार‘ वल्लरि के बजाय नाला/पतली जलधारा होना चाहिए। पृष्ठ 56 का ‘बीजा‘ बीज से नहीं बीजा वृक्ष से संबंधित होना चाहिए। पृष्ठ 65 का ‘देवर‘ रिश्ता नहीं देउर, देउल, देवल, देवालय है। पृष्ठ 67 का ‘भतरा‘, ‘भुजिया‘ खाद्य पदार्थ से नहीं बल्कि जनजातियों से और ‘करी‘ संभवतः करही वृक्ष से संबंधित है। पृष्ठ 69 का ‘गाड़ाघाट‘ जाति के अर्थ में नहीं गाड़ा वाहन आशय का होगा। पृष्ठ 70 का मानिकपुर, मानिकचौरी, भंडार कबीरपंथियों/सतनामियों से और लाख संख्यात्मक गिनती के बजाय लाखा बंजारा से संबंधित होगा। पृष्ठ 73 का जयरामनगर (पुराना नाम पाराघाट) सेठ जयरामवाल के कारण है। पृष्ठ 74 का ‘अखरा‘, लाठी चलाने का, करतब प्रशिक्षण स्थल, व्यायाम शाला, स्पष्टीकरण आवश्यक है। पृष्ठ 77-79 पर सद्गुण-संबंधी स्थान-नाम और दुर्गुण-संबंधी स्थान-नाम सूची में बड़ा, सीधा, चोरा, गुंडा, जलील आदि शब्द या आशय के ग्राम नामों पर असहमति होती हैं, जैसे मोहलई और मोहलाइन पत्तल बनाने वाले पत्ते-वनस्पति से संबंधित है न कि मोह से। चौरेल, चतुष्टय से और चोरिया मछली पकड़ने के उपकरण से तथा चूरा, चूड़ी आभूषण से संबंधित है। पृष्ठ 130 का छापर, छावनी-छप्पर के बजाय सलोनी मिट्टी के अधिक करीब है।

एक मजेदार ग्राम-नाम की चर्चा अपनी ओर से करना चाहूंगा, वह है 'बैकुंठ'। यह रायपुर-भाटापारा के बीच सेंचुरी सीमेंट कारखाना का रेलवे स्टेशन है और तीन गांवों 'बहेसर-कुंदरू-टंडवा' की जमीन संलग्न होने के कारण उनके पहले अक्षरों को जोड़ कर 'मुख-सुख' से बैकुंठ बन गया। बहरहाल, छत्तीसगढ़ के ग्राम-नामों पर हुए इन शोधों को देख कर लगा कि स्थान-नामों में आए नगर, पुर, पारा, पार, गांव के अलावा डांड, केरा, केला, पदर, पाली, नार, डोल, दा, उद, उदा, तरा, तरी, तराई, वंड, गुंडा, मुड़ा, खेड़ा, डीह, कांपा, गहन, डेरा, दादर जैसे कई शब्द हैं, जिनकी समानता अपने पड़ोसी प्रदेशों के ग्राम-नामों से है तथा उनकी भाषा से प्रभावित है, इसी तरह मसाती, दमामी, कलां-खुर्द पर भी ध्यान जाता है और केन्द्री-बेन्द्री, हिर्री-सिर्री, चेऊ-मेऊ, खोरसी-बोरसी, कल्ले-मुल्ले, चर्रा-मर्रा तुकबंद जोड़े ग्राम नाम भी कई-एक हैं, इन्हें आधार बनाना बेहतर निष्कर्ष पर पहुंचा सकता है। अंगरेजी स्पेलिंग के कारण भी ढेरों ग्राम नाम अब बदल गए हैं, ये परिवर्तन अचंभित करने वाले और मजेदार भी है- लमाइनडीह लभांडी बन गया तो जबड़ नाला, जब्बार नाला बन जाता है, डंड़हा या डाढ़ा पारा, दाधापारा हो जाता है, मांढर, मांधर बन जाता है, भंवरटांक अब भनवारटंक प्रचलित है। इस कारक का भी ध्यान रखना आवश्यक है। यह एक पूरा अध्याय हो सकता है। रायपुर-सरायपाली राष्ट्रीय राजमार्ग पर ऐसे ढेरों ग्राम-नाम नमूने देखे जा सकते हैं। ठीक (या प्रचलित) वर्तनी सहित ग्राम-नाम राजस्व नक्शों में तो है, लेकिन आसानी से उपलब्ध होने वाले मेरी जानकारी के अन्य स्रोतों में ग्राम-नाम रोमन में ही मिलते हैं।

इन अध्येताओं के स्थान-नामों की चर्चा जरूरी मानते, राय बहादुर हीरालाल, मुड़वारा (कहीं मुरवाड़ा लिखा मिलता है) से संबंधित हैं, जो रेलवे के बाद कटनी नदी के आधार पर इसी स्टेशन-जंक्शन नाम से जाना गया और अब मुड़वारा भी संलग्न किन्तु पृथक जंक्शन है। डा. एन एस साहू, सुरपा-भनसुली, जिला दुर्ग निवासी हैं। डा. चित्तरंजन कर पैकिन, सरायपाली निवासी हैं, ग्राम नाम की बात आते ही पैकिन से पदातिक, पाइक, पैदल सैनिक, पैकरा का उल्लेख करते हैं। डा. विनय कुमार पाठक का पुश्तैनी मूल स्थान मुंगेली के पास बइगाकांपा, कोंदाकांपा है, लेकिन परिवार पाठकपारा, मुंगेली में रहा और उनका जन्म-बचपन पचरीघाट, जूना बिलासपुर का है।

अध्येताओं के स्थान-नामों के साथ-साथ तीन, यथा नाम तथा गुण, ‘हीरालाल‘ का उल्लेख प्रासंगिक, बल्कि आवश्यक है। छत्तीसगढ़ी बोली-भाषा-व्याकरण की चर्चा होने पर सबसे पहले हैं- सन 1885 में छत्तीसगढ़ी का व्याकरण तैयार करने वाले धमतरी के व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय, जिनके बारे में पोस्ट छत्तीसगढ़ी में उल्लेख है। दूसरे रायबहादुर हीरालाल, जिनका जिक्र यहां है और तीसरे भाषाविज्ञानी (बघेलखंडी, छत्तीसगढ़ होते हुए अब भोपालवासी) डा. हीरालाल शुक्ल, अस्मिता की राजनीति और बस्तर में रामकथा, पोस्ट जिनसे संबंधित है।

10 comments:

  1. ग्राम नाम विषय बड़ा रोचक है, इस पर अभी और भी कार्य होना चाहिए। आपने बहुत ही अच्छी जानकारी दी।

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  2. Safar samiksha se sandarbh sahit samalochan ka sampoorn hua....

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  3. सुग्घर संग्रहनीय लेख

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  4. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति जन्मदिन : मीना कुमारी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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  5. Kya gram damru(bolodabazaar) main mile sikke par likha "rayo achutdasas yuge" panchal raja Achyut ke liye hai?
    Aur "ma" symbol ka matlab "maakandi(kampilya)" ke liye hai?

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  6. Kya gram damru(bolodabazaar) main mile sikke par likha "rayo achutdasas yuge" panchal raja Achyut ke liye hai?
    Aur "ma" symbol ka matlab "maakandi(kampilya)" ke liye hai?

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  7. ये पुस्तकें कहाँ से मिल सकता है?कृपया नाम-पता बताने की कृपा करेंगे।मुझे लेना है।
    घूरसाय रजक
    ग्राम पोस्ट कपोट,तहसील पाली
    जिला कोरबा मो.9009084256

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  8. आपके आलेख जितनी बार पढ़ो,एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है। अद्भुत।

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