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Friday, September 30, 2022

चंद्रू-चेंदरू, केवल और मैं

चेंदरू से मेरी मुलाकात, मुझे ठीक याद नहीं, फिर भी, शायद... 1969 में 11 वर्ष की उम्र में अपने अभिभावकों के साथ मैं पहली बार बस्तर गया था। तब नारायणपुर के आगे सोनपुर में एक सप्ताह रुका था। फारेस्ट रेस्ट हाउस के बगल में रेंजर साहब का सरकारी आवास था। नाम याद नहीं, मगर युवा और नव-विवाहित रेंजर साहब जंगल की परवाह करने वाले अधिकारी के रूप में मुझे याद हैं, ‘बंगले‘ (सरकारी मुलाजिम का आवास कच्ची झोपड़ी भी हो तो बंगला ही कहलाएगा।) पर हों तो अपनी पत्नी के साथ कैरम या ताश खेलते। उन्होंने किसी दिन चेन्दरू की कहानी सुनाई और फिर उसे बुलवा कर मुलाकात कराई थी। बाद में छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद चेंदरू के परिवार-जन बेलगुर और पन्डी के साथ घुलने-मिलने का संयोग बना और उनसे चेन्दरू का किस्सा सुनने का। और अब पिछले दिनों राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के ‘बच्चों के लिए द्विभाषी संस्करण‘ के लिए अनुवाद का काम किया, जो अब ‘बस्तर का मोगली चेंदरू - बस्तर के मोगली चेंदरू‘ पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ है।

लगभग बीस बरस पहले छत्तीसगढ़ के फिल्मी ताल्लुकों की खोज-बीन करते हुए मैंने चेंदरू के बारे में जानकारी इस तरह से जुटाई थी- ‘सन 1957 में बनी अर्न सक्सडॉर्फ की स्वीडिश फिल्म के प्रदर्शन से बस्तर, गढ़ बेंगाल निवासी दस वर्षीय बालक चेन्दरू अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हुआ। फिल्म का नाम ‘एन डीजंगलसागा‘ (‘ए जंगल सागा‘ या ‘ए जंगल टेल‘ अथवा अंगरेजी शीर्षक ‘दि फ्लूट एंड दि एरो‘) था। फिल्म में संगीत पं. रविशंकर का है, उनका नाम तब उजागर हो ही रहा था। यह कान फिल्म फेस्टिवल 1958 में प्रदर्शित फिल्मों की सूची में रही है। उसी दौरान चेन्दरू और शेर के साथ उसकी दोस्ती पर किताब भी प्रकाशित हुई। सन 1998 में अधेड़ हुए चेन्दरू और इस पूरे सिलसिले को नीलिमा और प्रमोद माथुर ने अपनी फिल्म ‘जंगल ड्रीम्स‘ का विषय बनाया।‘

1998 के बाद चेंदरू और उसकी कहानी फिर चर्चा में आई, सुगबुगाहट हुई। रायपुर से प्रकाशित हाने वाले समाचार पत्र दैनिक देशबन्धु के सहयोगी अखबार ‘हाइवे चैनल‘, जगदलपुर के केवल कृष्ण जी तक इसकी धमक पहुंची और वे नारायणपुर पहुंचे। केवल याद करते हैं, इसकी खोज-खबर के दौरान वे रामसिंह ठाकुर जी से भी मिले थे। रपट में आई जानकारी का अंश मुख्यतः चेंदरू के पुत्र जैराम की बातें थीं, उसके बताए नामों को रपट में उसी तरह रखा गया है। वे यह भी याद करते हैं कि जिस सहजता से पुस्तक ‘चंद्रूः द ब्वाय एण्ड द टाईगर‘ उन्हें दिखाई गई, दी गई, पुस्तक वापसी को भी चेंदरू की मां ने उसी सहजता से लिया।

यह रपट केवल कृष्ण जी ने देशबंधु, रायपुर में आलोक पुतुल जी को भेजी, पत्र के साथ, कि ‘यह मैटर भेज रहा हूं। फोटोग्राफ्स का इंतजार करना। पार्सल से भेजूंगा। एक दुर्लभ पुस्तक भी भेजूंगा। उसे चंद्रू को वापस करना है। स्कैन करके तुरंत वापस कर देना। मैटर रुचिर भैया को जरूर जरूर जरूर जरूर दिखाना। मैटर मिलते ही फोन से सूचित करना। कैसा लगा बताना।‘ 09.01.99 को संभवतः पत्र मिलते ही पुतुल जी ने जवाब भेजा- ‘बहुत प्यारी रपट. बहुत-बहुत प्यारी! यकीन मानों, पिछले 3-4 वर्षों में पढ़ी गयी और पसंद की गयी शायद कोई रपट मेरे ध्यान में नहीं है, जिसे इसके समकक्ष मैं बता सकूं. TIME भी ऐसी रपट छापने का लोभ संवरण नहीं कर सकती. बधाई, शुभकामनाएं!'

यह सचित्र रपट अखबार के अवकाश अंक, 17 जनवरी 1999 को प्रकाशित हुई। जैसा आमतौर पर होता है, चेंदरू तो चेंदरू ही रह गया था, उसी तरह केवल कृष्ण की यह रपट भी। छत्तीसगढ़ सरकार के वन और पर्यटन विभाग, चेंदरू को मूर्ति-चित्रों में साकार करते रहे हैं, संभवतः उसके परिवार के माली हालात की ओर भी सरकार का ध्यान गया है। इधर इस रपट के आधार पर इसका उल्लेख या आधार-आभार के बिना इस्तेमाल कर, कितने ईनाम-इकराम कितनों की झोली में गए, के बजाय जरूरी लगा कि यह रपट यथा-मूल संदर्भ सार्वजनिक सहज उपलब्ध करा दी जाए। मेरी जानकारी में छत्तीसगढ़ के किसी प्लेटफार्म पर इस विस्तार और महत्व के साथ चेंदरू की दास्तान यहीं पहली बार आई थी। संकोची केवल जी मेरी जिद के लिहाज में पड़ गए और अखबार का वह पन्ना उपलब्ध करा दिया। यहां आगे वही रपट-

एक टार्जन की कहानी

बरसों पहले स्वीडन की फिल्मकार ने एक फिल्म बनाई थी। फिल्म का हीरो था ८ साल का आदिवासी बच्चा चंद्रू जो बस्तर के एक जंगली गांव में रहता था और शेर के साथ खेलता था। फिल्म सारी दुनिया में दिखाई और सराही गई। शोहरत अपने कंधों पर बिठाकर चंद्रू को स्वीडन ले गई। वह साल भर वहां रहा जहां लोग उसे देखने आते थे। फिर वह लौट आया बस्तर के उसी जंगली गांव में। अब वह है, उसका परिवार है और अतीत की वे स्मृतियां हैं। नारायणपुर के पास गढ़बेंगाल गांव में छिंद रस पीते-पिलाते, झाड़-फूंक करते अपना स्वाभाविक जीवन जी रहे चंद्रू से केवल कृष्ण ने मुलाकात की और चार दशक पुरानी उसी यादों को कुरेदा।

वह शेर था। सचमुच का शेर! जिंदा शेर!! और ८ साल का नन्हा आदिवासी बालक चंद्रू उसका दोस्त था। चंद्रू शेर के पंजा को अपने हाथों में थामकर नाचता, उसके साथ जंगल-जंगल घूमता। वह उस शेर के साथ शिकार पर जाता। उसे पत्ते के दोने में खाना खिलाता। फुर्सत में चंद्रू अपने नाखूनों से उस शेर की खाल साफ करता। जब खेलते-कूदते, नाचते-दौड़ते और शिकार करते शेर और चंद्रू थक कर लस्त-पस्त हो जाते तो वहीं जंगल में ही किसी घने पेड़ की छांव में दोनों पसर जाते।

... यह सब कुछ किसी सपने जैसा ही है। लेकिन यह सपना नहीं सच है। बिल्कुल सच! चन्द्रू आज भी बस्तर के एक छोटे से गांव में रहता है। लेकिन अब उसके साथ उसका दोस्त शेर नहीं होता। 

नारायणपुर से कोण्डागांव की ओर, करीब ५ किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव है- गढ़बेंगाल। इस गांव में जब आप चंद्रू का पता पूछेंगे तो कोई भी बता देगा कि पुलिया के उस पार चिखलीपारा में उसका घर है। डामर रोड के एक किनारे से एक पतली पगडंडी उतरती है। यही पगडंडी उबड़-खाबड़ जमीन को पार करती हुई, लकड़ी के बाड़ों वाले घरों के चक्कर काटती हुई, एक नदी तक ले जाएगी। इसी नदी के तट पर है चंद्रू का घर। दीवारें गोबर-मिट्टी से लिपी-पुती, चकाचक। हो सकता है कि जब आप यहां पहुंचे तो चंद्रू आपको घर पर न मिले। आपको पता चलेगा कि वह या तो झाड़फूंक करने गया है या फिर मजदूरी करने। या फिर गांव में ही किसी छीन पेड़ के नीचे बैठ कर किसी को छीन-रस पिला रहा होगा। चंद्रू के पांच घर पर बहुत कम टिकते हैं। आज चंद्रू बूढ़ा हो गया है, लेकिन उसका नाता जंगल से अब भी बरकरार है।

करीब चार दशक पहले स्वीडन की एक महिला ‘एस्ट्रीट‘ ने बस्तर पर एक फिल्म बनाई थी-‘टार्जन ट्रुफ‘। इस फिल्म का केन्द्रीय पात्र चंद्रू ही था। तब वह ८ साल का था। निपट आदिवासी, जंगल के गांव का ग्रामीण बच्चा। फिल्म में चंद्रू और शेर की दोस्ती को लेकर एक कहानी बुनी गई थी। शेर का नाम था तम्बू। फिल्म में शेर तम्बू और चन्द्रू साथ-साथ जंगलों में घूमते शिकार करते, नदी नालों में उबुक चुबक करते। चंद्रू इसमें एक तरह से नन्हा टार्जन ही था। दरअसल चंद्रू और तम्बू की दोस्ती की कहानी तो एक बहाना मात्र थी। फिल्म का उद्देश्य था बस्तर के आदिवासी जनजीवन को दुनिया के सामने लाना। इसीलिए फिल्म में चंद्रू के पिता, उसके दादा, उसकी मां, छोटी बहन सोनाई और आसपास के गांवों के दूसरे बहुत सारे लोग भी दिखाए गए। फिल्म की शूटिंग घोटूलों में भी की गई थी। बताते हैं कि इस फिल्म ने पूरी दुनिया में नाम कमाया। कई देशों में इसने धूम मचाई। आज भी समय समय पर यह चर्चित होती रहती है।

लेकिन चन्द्रू और उसका परिवार अपनी ख्याति से पूरी तरह अंजान है। उनका जीवन गढ़बेंगाल के किसी दूसरे ग्रामीण के जीवन से बिलकुल भिन्न नहीं। जब इन पंक्तियों का लेखक अपने साथी नरेन्द्र दुबे और अजय देशमुख के साथ गढ़बेंगाल में चंद्रू के घर पहुंचा तो उसे पता चला कि चंद्रू घर पर नहीं है। वह देवगांव गया है। देवगांव वहां से थोड़ी दूर है। किसी ने चंद्रू को झाड़ फूंक के लिए बुलाया था। घर पर चंद्रू का छोटा बेटा जैराम और दूसरे लोग मिले। जैराम नवमीं में पढ़ता है। पढ़ा-लिखा होने के बावजूद वह बिलकुल चंद्रू जैसा ही है। सीधा-साधा, शर्मिला और जंगल से जुड़ा हुआ। जैराम को मालूम है कि उसके पिता पर फिल्म बनी है, लेकिन उस फिल्म का नाम क्या था और उसे किसने बनाया, उसे नहीं पता। जैराम ने यह फिल्म खुद भी देखी है। वह बताया है वह कि सन १९९६ में दिल्ली से कोई प्रताप नाम का आदमी उसके पिता (चंद्रू) को ढूंढता हुआ गढ़बेंगाल पहुंचा था। वह अपने साथ चंद्रू पर बनी फिल्म ‘टार्जन ट्रुफ‘ भी लाया था। उसी ने गांव वालों को यह फिल्म दिखाई थी। दरअसल प्रताप खुद भी चंद्रू पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाना चाहते थे। उन्होंने इस डाक्यूमेंट्री फिल्म की शूटिंग रावघाट के उन्हीं इलाकों में की, जहां पर ४ दशक पहले ‘टार्जन ट्रुफ‘ बनी थी। जैराम बताता है कि प्रताप की इस फिल्म में उसने भी अपने पिता के साथ काम किया है।

जैराम अचानक बातें करता करता उठकर घर की एक अंधेरी खोली में घुस गया। वहां से टीन की संदुकची खोलने जैसी आवाज सुनाई पड़ी। जब वह बाहर आया तो उसके हाथ में एक रंगीन किताब थी। किताब का नाम था ‘चंद्रूः द ब्याव एण्ड द टाईगर‘। लेखक के नाम की जगह लिखा था- एस्ट्रीड बरगमैन सक्सड्रोफ, इंग्लिश वर्सन बाई वीलियम सेनसोम। प्रकाशन स्थल की जगह लिखा था कोलिन्स, सेंट जेम्स लंदन, १९६०। यह पुस्तक लेखिका एस्ट्रीड ने १९८५ में चंद्रू के लिए भेजी थी। 

पुस्तक इन शब्दों के साथ शुरू होती है- ‘‘सुदूर भारत के हृदयस्थल मध्यभारत के घने जंगलों के बीच स्थित है एक गांव, नाम है गढ़बंगाल। यहां के रहवासियों को मुरिया नाम दिया गया है। मुरियाओं का विश्वास है कि उनका बहुरंगी गांव दुनिया के किसी भी स्थान से अधिक खूबसूरत है। अपने आप में संतुष्ट उनके जीवन में हंसी खुशी है और गीतों की मधुर तान पर थिरकता है उनका जीवन।‘‘

... पुस्तक में बताया गया है कि चंद्रू एक जवान लड़का है। वह चालाक और सधा शिकारी भी है।:‘गुलेल‘ से वह ३० कदम की दूरी से चिड़िया पर निशाना साध सकता है। दूसरों की अपेक्षा वह अधिक तेजी से पेड़ों पर चढ़ सकता है। वह एक अच्छा गायक और नर्तक भी है। उसके बाल लम्बे और काले हैं। आंखें भूरी। कंधा मजबूत। हंसते ही सफेद दांत झक्क से दिखते हैं। ...वह एक दोपहर थी, जब चंद्रू एक नदी के किनारे बांस की खपच्ची लिए बैठा था। अचानक उसने बंदरों के चिल्लाने चीखने का शोर सुना। माजरा समझते उसे देर न लगी। बिना देर किए वह एक पेड़ पर चढ़ गया। ... वहाँ झुरमुटों में कुछ हलचल हुई। और तभी सोने की तरह चमक वाला एक शेर का सिर नजर आया। शेर झुरमुट से निकलकर दबे पांव वापस जंगल के भीतर चला गया। उस दिन चंद्रू ने जाना कि पूरे जंगल में, पूरे भारत में, और सभी जंगली जानवरों में सबसे खूबसूरत शेर ही है।

चंद्रू वहीं नदी के किनारे डेरा डालकर बैठ गया। ...और एक दिन चंद्रू एक शेर के बच्चे को लेकर घर आया। ... पुस्तक में चंद्रू की दिनचर्या के बारे में और भी बहुत कुछ है- यह कि वह अपने कपड़े खुद साफ करता है। वह अपनी मां के लिए जंगल से जला काट कर लाता है। उसे जानवरों से बहुत प्यार है। आदि।

पुस्तक ‘चंद्रूः द ब्वाय एण्ड द टाईगर‘ अब चंद्रू के परिवार में पीढ़ियों के लिए एक धरोहर है। यही एक मात्र सबूत भी कि चंद्रू ने दुनिया में कितना नाम कमाया है। जब चंद्रू की पीढ़ी घमंड करना सीख जाएगी, तब शायद उसे सबसे पहले इसी पुस्तक पर घमंड होगा। लेकिन अभी ऐसा कुछ नहीं है। चंद्रू का बेटा जैराम चंद्रू जैसा ही सहज है। चंद्रू अपने बच्चों को न तो अतीत के बारे में ज्यादा कुछ बताता है और न फिल्म के बारे में। जैराम बताता है कि उसके पिता ने रावघाट के जंगलों में एक शेर का बच्चा पाया था। वह उसे साथ लेकर घर आ गए थे और उसी के साथ खेलते थे। जैराम ज्यादा कुछ नहीं जानता।

दूसरे दिन सुबह लेखक जब फिर चंद्रू के घर पहुंचा तब भी यह घर पर नहीं था। जैराम भी उसकी तलाश में निकला था थोड़ी देर की प्रतीक्षा के बाद जैराम वापस लौटा तो उसके पीछे-पीछे चंद्रू था। बूढ़ा चंद्रू घुटनों से नीचे तक बांधी गई लुंगी, साधारण सा कुर्ता, कंधे पर दुपट्टे की तरह ओढ़ी गई एक और लुंगी। उसके बाल वैसे ही काले और लम्बे हैं। लेकिन शरीर बूढ़ा हो गया है। यकीन करना मुश्किल था कि यही वह चंद्रू है।

चंद्रू ने बताया कि उसे फिल्म की शूटिंग के दौरान २ रुपए की रोजी मिलती थी। वह बताता है कि फिल्म वालों ने उसे प्रशिक्षण दिया था। फिल्म वाले जैसा-जैसा कहते जाते चंद्रू वैसा-वैसा कैमरे के आगे करता जाता। फिल्म कब रिलीज हुई उसे नहीं मालूम। एक दिन अचानक उसका स्वीडन से बुलावा आया। चंद्रू स्वीडन पहुंचा और वहां करीब १ साल तक रहा। वह बताता है कि लोग वहां उसे देखने आते थे। स्वीडन के लोग चंद्रू को बहुत पसंद आए। उनकी चमड़ी का गोरा रंग भी उसे भा गया। चंद्रू बताता है कि शूटिंग के समय शेर फिल्म वाले अपने साथ लेकर आए थे। उनके पास २ शेर थे। एक बड़ा और दूसरा बच्चा। बड़े शेर को शूटिंग पूरी होने के बाद फिल्म वालों ने मार डाला। बच्चे को वे साथ ले गए। चंद्रू और ज्यादा कुछ नहीं बताता। ... वह आग्रह करता है कि लेखक और उसके साथी उसके साथ छिंद-रस पिए। फिर कहता है कि उसके छिंद का रस मीठा नहीं है, वह उन्हें किसी दूसरे ग्रामीण के छिंद पेड़ की ओर ले जाएगा। ....

चंद्रू के लिए गांव, जंगल और छिन्द-रस से बढ़कर शायद कुछ नहीं। शोहरत भी नहीं। इसीलिए तो वह बिना बिजली वाले घर के अंधेरे में भी खुश है। वह जिस पारे में रहता है, उस पारे में आज तक बिजली नहीं पहुंची।

Sunday, September 25, 2022

छत्तीसगढ़ में प्रकाशित कृतियां

रायपुर से प्रकाशित समाचार पत्र ‘राष्ट्रबंधु‘ में श्री हेमनाथ यदु के दो लेख प्रकाशित हुए थे। इन लेखों की प्रकाशन तिथि में व्यतिक्रम जान पड़ता है। ‘छत्तीसगढ़ में प्रकाशित कृतियां‘ 16-12-1976 में प्रकाशित हुआ, जिसके आरंभ में चौदहवीं शताब्दी और स्व. श्री गोपाल मिश्र का उल्लेख आया है। इस लेख के अंत में ‘(शेष आगामी अंक में)‘, उल्लिखित है, जबकि इसी शीर्षक का लेख इसके पहले 21-28/12/1976, दीपावली अंक में प्रकाशित हुआ था, इस लेख का आरंभ 1956 से ‘सहयोगी प्रकाशन‘ के माध्यम से होने वाले प्रकाशन से होता है। पत्रिका के संपादक यशस्वी हरि ठाकुर जी के योग्य उत्तराधिकारी-पुत्र श्री आशीष सिंह ने, न सिर्फ यह सब संभाल कर रखा है, बल्कि अपने पिता की तरह ही उदारतापूर्वक मुझ जैसे जिज्ञासुओं के लिए पूरी तहकीकात सहित सामग्री-जानकारी उपलब्ध कराते हैं। 

श्री हेमनाथ यदु (01.04.1928-05.04.1979) स्वयं छत्तीसगढ़ी के महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। लोक निर्माण विभाग की शासकीय सेवा में रहे। उनकी रचनाएं ‘सोन चिररइया‘, छत्तीसगढ़ के गउ तिहार‘, ‘छत्तीसगढ़ी रामायण‘, ‘नवा सुरुज के अगवानी‘, ‘मन के कलपना‘ आदि हैं। 

लेख के आरंभ में ‘चौदहवीं शताब्दी‘ आया है, मगर इस काल के साथ किसी का नाम नहीं है, संभवतः यह धर्मदास के लिए है। इसके बाद गोपाल मिश्र का नाम आता है, जिनका जीवन काल संवत 1706-1781 (1649-1724) तथा उनकी कृति ‘खूब तमाशा‘ का रचनाकाल सन 1689 के आसपास माना जाता है। लेख में कृतियों के रचनाकाल, प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं है, साथ ही जान पड़ता है कि सूची कालक्रम अनुसार नहीं है। लेख में कुछ मुद्रण-प्रूफ त्रुटियां भी हैं, वह सुधिजनों के लिए अड़चन नहीं करेगा, मगर शोध आदि प्रयोजन हेतु इस ओर ध्यान रखना आवश्यक होगा। 

छत्तीसगढ़ में प्रकाशित कृतियां (16.12.1976) 

छत्तीसगढ़ में प्रकाशित कृतियां चौदहवीं शताब्दी से मिलती हैं। प्रकाशन में स्व० श्री गोपाल मिश्र का नाम प्रथम पंक्ति में लिखा जा सकता है। भक्त चिन्तामणि, खूब तमाशा, सुदामा चरित्र, रामप्रताप, जैमिनी अश्वमेध इनकी कृति है। स्व० माखनचंद्र मिश्र का छंदविलास, जगमोहन सिंह का श्यामास्वप्न, पं. मालिक त्रिवेदी द्वारा रचित रामराज्य वियोग एवं प्रबोधचन्द्रिका उल्लेखनीय है। छन्द रत्नमाला, रामलीला, मित्रकाव्य, रामविनोद, रामस्तव के रचयिता रघुबरदयाल है। उमराव बख्शी द्वारा रामायण नाटक रचित है। कुछ अन्य लेखकों की कृतियां इस प्रकार हैः- 

अज्ञातवास, सीता अन्वेषण, मधुकर सीकर - सरयू प्रसाद त्रिपाठी ‘मधुकर‘
सावित्री. गीतवल्लरी - विद्याभूषण मिश्र
अपराधी - यदुनन्दन प्रसाद श्रीवास्तव
ज्योति निर्झर- रूपनारायण ‘वेणु‘ 
अग्नि परीक्षा, लहर ओर चांद - देवीसिंह चौहान 
निशा - बृजभूषणलाल पाण्डे 
बिहारी सतसई को सतलरी, ज्ञानेश्वरी का अनुवाद, गीत गोविन्द का अनुवाद - वृजराज सिंह ठाकुर, माधो प्रसाद तिवारी 
चांपा दर्शन- हरिहर प्रसाद तिवारी
कवर्धा दर्पण - सम्पादक पं० गिरधर शर्मा
इस्पात के स्वर-सम्पादित डा० सच्चिदानन्द पाण्डेय एण्ड डा० मनराखन लाल साहू
समकालीन कविता सार्थकता और समझ-राजेन्द्र मिश्रा
रम्य रास, कल्पना कानन, जोशे फरहद, बैगडिया का राजकुमार - राजा चक्रधर सिंह
भूल भुलैया, छत्तीसगढ़ गौरव - सुरलाल पाण्डेय 
छन्द प्रभाकर - जगन्नाथ प्रसाद भानु
कृष्णायन, सत्य की खोज - बिसाहूराम 
छत्तीसगढ़ी हल्बी ओर भतरी का तुलनात्मक अध्ययन - भालचन्द्रराव तैलंग 
अन्तिम अध्याय - पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी 
वाह री ससुराल - घनश्याम प्रसाद ‘श्याम‘
भूख - स्वराज प्रसाद त्रिवेदी
शराबी - मुकुन्द केशव पाध्ये 
चन्द्रशेखर आजाद को जीवनी - विश्वनाथ वैशम्पायन
कामायनी एक अध्ययन, साहित्यकार की डायरी, चांद का मुंह टेढ़ा - गजानन्द माधव मुक्तिबोध
दुर्ग दर्पण- गोकुल प्रसाद
माया दर्पन - श्रीकांत
हरिना संवरी - मनहर चौहान
जानौ अतका बात - गयाराम साहू 
बलिदान - तुलाराम गोपाल

छत्तीसगढ़ से प्रकाशित कृतियां (21-28.12.1976)

छत्तीसगढ़ में प्रकाशन के अभाव में अनेकों कृतियां अप्रकाशित है। इस समस्या को हल करने के लिए सन् १९५६ में सहयोगी प्रकाशन का जन्म होता है। सहयोगी प्रकाशन के माध्यम से इस अंचल के कवि प्रथम बार पुस्तकाकार में प्रकाशित हुए। उनके द्वारा प्रकाशित निम्नलिखित कृतियां है। पता है सहयोगी प्रकाशन कंकाली पारा रायपुर। 

प्रकाशित कृतियों की सूची:-

१. नये स्वर १ सम्पादक हरि ठाकुर 
२. नये स्वर २ सम्पादक हरि ठाकुर 
३. नये स्वर ३ सम्पादक नन्दकिशोर तिवारी
४. गीतों के शिलालेख - हरि ठाकुर
५. नये विश्वास के बादल हरि ठाकुर 
६. लोहे का नगर - हरि ठाकुर 
७. कुंजबिहारी चौबे के गीत (छत्तीसगढ़ी)
८. सुआ गीत (संलकन - हेमनाथ यदु 
९. सुन्दर कांड (छत्तीसगढ़ी) हेमनाथ यदु
१०. किष्किंधा कांड (छत्तीसगढ़ी) हेमनाथ यदु 
११. रंहचुली (छत्तीसगढ़ी) भगतसिंह सोनी 
१२. छत्तीसगढ़ के रत्न- हरि ठाकुर
१३. संझौती के बेरा ( छत्तीसगढ़ी) - लखनलाल गुप्त 
१४. छत्तीसगढ़ी साहित्य का ऐतिहासिक अध्ययन - नन्दकिशोर तिवारी

ज्योति प्रकाशन के द्वारा निम्नांकित पुस्तकों का प्रकाशन किया गया। पता - सत्तीबाजार रायपुर है।

१. डोकरी के कहनी शिवशंकर शुक्ल
२. रधिया के कहनी - शिवशंकर शुक्ल
३. राजकुमारी नयना - शिवशंकर शुक्ल 
४. अक्कल हे फेर पइसा नइये - शिवशंकर शुक्ल
५. मोंगरा - शिवशंकर शुक्ल 
६. दियना के अंजोर - शिवशंकर शुक्ल 
७. छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य का सामाजिक अध्ययन डा. दयाशंकर शुक्ल 
८. भाभी का मन्दिर - शिवशंकर शुक्ल 

प्रकाशन के क्षेत्र में प्रयास प्रकाशन बिलासपुर का नाम भुलाया नहीं जा सकता। प्रयास प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की सूची निम्नानुसार है। 

१. प्रयास (काव्य संग्रह) सम्पादक डा. विनयकुमार पाठक 
२. नये गीत थिरकते बोल - काव्य संग्रह - सम्पादक डा. विनयकुमार पाठक
३. सुघ्धर गीत (छत्तीसगढ़ी) सम्पादक डा. विनयकुमार पाठक 
४. नवा सुरुज नवा अंजोर (छत्तीसगढ़ी) सम्पादक स्व. अखेचंद क्लांत
५. भोजली गीत छत्तीसगढ़ी) स्व. अखेचन्द क्लांत 
६. खौलता खून - सम्पादक डा. विनयकुमार पाठक
७. मैं भारत हू - सम्पादक डा. विनयकुमार पाठक 
८. जागिस छत्तीसगढ़ के माटी - गयाराम साहू 
९. चंदा उए अकास म (छत्तीसगढ़ी) - बृजलाल शुक्ला
१०. नव जागृति हो सबके मन में - श्याम कार्तिक चतुर्वेदी
११. जीवन मधु - श्याम कातिक चतुर्वेदी
१२. घरती के भगवान - सीताराम शर्मा
१३. चन्दा के छांव म - शकुन्तला शर्मा ‘रश्मि‘ 
१४. अब तो जागौ रे - गयाराम साहू 
१५. जला हुआ आदमी - कृष्ण नागपाल बूंद
१६. जंगल में भटकते यात्री - कृष्ण नागपाल बूंद
१७. फुटहा करम - ठा. हृदयसिंह चौहान
१८. छत्तीसगढ़ी लोक कथा - डा. विनयकुमार पाठक
१९. प्रबंध पाटल - डा. पालेश्वर शर्मा
२०. सुसक झन कुररी! सुरता ले - डा. पालेश्वर शर्मा
२१. वैदेही विछोह - कपिलनाथ कश्यप 
२२. नवा बिहान (छत्तीसगढ़ी) - भरतलाल तिवारी 
२३ छत्तीसगढ़ी साहित्य अऊ साहित्यकार - डा. विनयकुमार पाठक 
२४. भुइयां के पाकिस चूंदी - राजेन्द्रप्रसाद तिवारी 
२५. राम विवाह - टीकाराम स्वर्णकार 
२६. बेलपान (छत्तीसगढ़ी) - देवधर दास महन्त 
२७. कलस करवा - सतीश कुमार प्रजापति एवं संगमसागर 

छत्तीसगढ़ सहयोगी प्रकाशन के माध्यम से मात्र एक पुस्तक सोन चिरइया (छत्तीसगढ़ी) रचयिता हेमनाथ यदु का ही प्रकाशन हो पाया। इसी तरह साहित्य समागम जोरा रायपुर द्वारा सुमन संचय का ही प्रकाशन किया गया है। इसके सम्पादक है उदयकुमार साहू। 

कुछ अन्य फुटकर प्रकाशन का विवरण नीचे लिखे अनुसार है। 

दानलीला - सुन्दरलाल शर्मा 
दानलीला - बैजनाथ प्रसाद 
दानलीला - नर्मदाप्रसाद दुबे 
नागलीला - गोविन्दराव विट्ठल 
कांग्रेस आल्हा - पुरुषोत्तमलाल 
श्री मातेश्वरी गुटका - जगन्नाथ भानु 
लड़ाई के गीत - किशनलाल ढोटे 
राम केवट संवाद - द्वारिका प्रसाद तिवारी 
कुछु काही -‘‘- 
सुराज गीत -‘‘- 
फागुन गीत -‘‘- 
राम बनवास - श्यामलाल चतुर्वेदी 
सोन के माली - नारायणलाल परमार 
सुदामा चरित्र - फूलचन्द श्रीवास्तव 
ग्राम संगीत - -‘‘- 
गंवई के गीत - विमलकुमार पाठक 
सियान गोठ - स्व. कोदूराम दलित 
हीरू के कहनी - बंशीधर पांडेय 
महादेव के बिहाव - गयाप्रसाद बसोढ़िया 
छत्तीसगढ़ी लोक कहानियां - नारायणलाल परमार 
श्याम सन्देश- स्व. जमनाप्रसाद यादव 
छत्तीसगढ़ी सुराज - गिरधरदास वैष्णव 
गंवई में अंजोर - रामकृष्ण अग्रवाल 
चन्दा अमरित बरसाइस - लखनलाल गुप्त 
सरग ले डोला आइस - 
अपूर्वा - डा. नरेन्द्र देव वर्मा 
छत्तीसगढ़ी रामचरित नाटक - उदयराम 
साहूकार से छुटकारा - टिकेन्द्र टिकरिहा 
जले रक्त से दीप- रघुवीर पथिक 
बिन भांडी के अंगना - प्रभंजन शास्त्री 
सब के दिन बहुरे - दाऊ निरंजनसिंह 
बेटी ेचई - मनोहरदास नृसिंह 
छत्तीसगढ़ी के लोक गीत - दानेश्वर शर्मा 
बहराम चोट्टा - विश्वेन्द्र ठाकुर 
मैथली मंगल - सुकलाल प्रसाद पांडेय 
विजय गीत - मावलीप्रसाद श्रीवास्तव 
चन्द्रहास - गेन्दराम सागर 
धान के देश में - हरिप्रसाद अवधिया 
पर्वत शिला पर - हरिप्रसाद अवधिया 
मोक्ष द्वारा - सीताराम शर्मा 
उल्लू के पंख - लतीफ घोंघी 
शतरंज की चाल - लक्ष्मण शाकद्विपीय 
शिव सरोज गोविन्द रोदन - गोविन्दराव बिट्ठल .. 
खुसरा चिराई के बिहाव - कपिल नाथ 
युग मेला - कृष्णकुमार भट्ट 
मन के कलपना - हेमनाथ यदु 
स्वराज्य प्रश्नोत्तरी हमारे नेता - स्व. रामदयाल तिवारी 
गियां - सुकलालप्रमाद पडिय 

प्रकाशन के संकल्प में छत्तीसगढ़ साहित्य संगम दुर्ग का योगदान प्रशंसनीय है। पसर भर अंजोर कृति का प्रकाशन कर छत्तीसगढ़ी साहित्य में एक और कड़ी जोड़ दिया। इस कृति के सम्पादक है हेमनाथ यदु। हिन्दी साहित्य समिति कुरूद द्वारा डा. महेन्द्र कश्यप राही कृत चन्दा (छत्तीसगढ़ी) का प्रकाशन किया गया है। छत्तीसगढ़ विभागीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन रायपुर द्वारा भी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हैं। 

१. लोचनप्रसाद पांडेय की जीवनी - स्व० प्यारेलाल गुप्त 
२. समवाय - प्रधान सम्पादक शारदाप्रसाद तिवारी 
३. मिटती रेखाएं - शारदाप्रसाद तिवारी 
४. छत्तीसगढ़ी गीत अऊ कविता - हरि ठाकुर 
५. मड़इया के गीत - देवीप्रसाद वर्मा 
६. कांवर भर धूप - नारायणलाल परमार 
७. रामकथा - कपिलनाथ कश्यप 
८. रोशन हाथों का दस्तकें - स्व० सतीश चौबे 
९. सत्रह कहानियां - स्व० पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी तथा देवीप्रसाद वर्मा 

रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर द्वारा प्रकाशित कृति प्राचीन छत्तीसगढ़ है। इसके लेखक हैं स्व० प्यारेलाल गुप्त। बुनकर सहकारी समिति द्वारा प्रकाशित कृति ठाकुर प्यारेलाल सिंह की जीवनी इस क्षेत्र के लिए अमूल्य निधि है। इस कृति के लेखक है हरि ठाकुर। सुरुज मरे नइय कृति के कृतिकार है नारायणलाल परमार। अभिनन्दन ग्रन्थ में विप्र अभिनन्दन ग्रन्थ एंड जतर अभिनन्दन ग्रंथ उल्लेखनीय है। गौरहा कृत छत्तीसगढ़ी काव्य संकलन रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर की पाठ्य पुस्तक (वैकल्पिक विषय में) स्वीकृत किया गया है। 

छत्तीसगढ़ के कुछ लेखक और कवियों को कृति अन्य स्थानों से प्रकाशित है जिसमें स्व. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इसी तरह स्व० बल्देव प्रसाद मिश्र काी कृति भी अन्य प्रकाशकों के द्वारा प्रकाशित को गई है। श्री लक्ष्मण शाकद्विपीय द्वारा सत्य के अवशेष बोर नन्दकिशोर तिवारी द्वारा मुकुटधर पांडेय व्यक्तित्व एवं कृतित्व अन्य प्रकाशको द्वारा की गई है। कुछ अन्य पठनीय पुस्तकों में गोकुलप्रसाद द्वारा रचित रायपुर रश्मि, और दुर्ग दर्पण है। खण्डहरों का वैभव में मुनि कान्तिसागर के विद्वता का परिचय है। छत्तीसगढ़ परिचय स्व० बल्देव प्रसाद मिश्र की अनमोल कृति है। सन् १८९० में प्रकाशित हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा रचित छत्तीसगढ़ी व्याकरण छत्तीसगढ़ी साहित्य में प्रथम प्रकाशित कृति है।
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Friday, September 23, 2022

किस्सा भंवर गणेश

बात कुछ पुरानी है, यही कोई तीस-पैंतीस साल हुए। इस दौरान बिलासपुर में पदस्थ सहकर्मी रजिस्ट्रीकरण अधिकारियों, पहले श्री आनंद कुमार रिसबूड और उनके बाद श्री गिरधारी लाल रायकवार के साथ लावर-कोनी, इटवा-पाली की दो यात्राओं की अब गड्ड-मड्ड हो गई यादों के साथ और कुछ बातें।

एक शिलालेख की जानकारी मिलती थी, कलचुरि संवत 900 का कोनी शिलालेख। इस शिलालेख का अध्ययन-संपादन हो चुका था और वह प्रकाशित भी था, इसलिए पहले तो इसकी ओर ध्यान नहीं गया। किसी दिन बात होने लगी कि यह गांव, बिलासपुर कोनी तो है नहीं, फिर कहां है, और क्या शिलालेख अब भी वहां है, किस स्थिति में है। स्थानीय स्तर पर आसपास अरपा के बाएं तट पर कोनी नामक एक गांव की जानकारी मिली, मगर वहां किसी पुरावशेष या शिलालेख होने की पुष्टि किसी भी स्तर पर संभव नहीं हुई। संदर्भ ग्रंथों में विवरण मिला कि इस शिलालेख जानकारी जनवरी 1946 में डॉ. बी. सी. छाबड़ा, गवर्नमेंट एपिग्राफिस्ट के द्वारा प्रकाश में लाई गई थी। शिलालेख पृथ्वीदेव द्वितीय के राजत्व काल में कलचुरि संवत 900 तिथि गणना के आधार पर 20 अप्रैल 1148 के सूर्य ग्रहण की तिथि का है। यह भी पता लग गया कि यह ग्राम कोनी, बिलासपुर से लगभग 10 मील दूर अरपा नदी के बाएं तट पर है। इससे यह निश्चय हो गया कि ग्राम वही है, जिसकी बिलासपुर वाले कोनी से अलग पहचान के लिए, उसके पास के गांव के नाम के साथ जोड़ कर लावर-कोनी कहा जाता है।

यह पता लगते ही एक दिन श्री रिसबूड के साथ हमारी सवारी रवाना हो गई। अरपा के बाद पड़ने वाले नाले के किनारे बायीं ओर का कच्चा रास्ता था। प्राथमिक जानकारी के आधार पर आगे बढ़ते हुए हमको लावर के साथ कोनी गांव मिला। नदी किनारे गांव के बाहर सूने में एक आधुनिक मंदिर दिखा। हमें वहां पुजारी मिले। गांव वाले जो चढ़ावा, दान-दक्षिणा करते उससे गुजारा करते हुए भगवान की सेवा में लगे। पुजारी ने बड़ी आत्मीयता से स्वागत किया। जलपान पूछा। उनसे बात होने लगी तो उन्होंने बताया कि वे पहले लीलागर के किनारे कुटीघाट के हनुमान धारा मंदिर में थे, अब यहां आ गए हैं, अकेले रहते हैं। फिर शिलालेख की चर्चा हुई, उन्होंने शिलालेख दिखाया। परिसर में पुरातात्विक महत्व की प्रतिमाएं भी रखी थीं, जिससे स्पष्ट अनुमान हुआ कि यह 12 वीं सदी ईस्वी का मूल प्राचीन स्थल है। एक अभियान पूरा हुआ।

इस ‘उपलब्धि‘ से संतुष्ट, हमारी गाड़ी आगे बढ़ी। इरादा था कि घूमते हुए मल्हार तक जाएंगे, जहां तक हो सके नदी किनारे-किनारे। इसके पीछे कारण यह भी था कि लावर-कोनी की तरह गांव जोड़ा नाम सुना था- इटवा-पाली। इन दोनों गांवों के नाम रोचक थे। जब भी अवसर होता, समय बिताने के लिए रायकवार जी से ग्राम नामों, उनकी व्युत्पत्ति तथा नाम के आधार पर पुरातात्विक स्थल होने का अनुमान पर बातें होती रहती थीं। पाली तो, रतनपुर-कटघोरा मार्ग पर प्रसिद्ध महादेव मंदिर वाला स्थान है। एक पाली महानदी और मांद संगम पर है- महादेव पाली, उसका भी एक किस्सा है, ‘उलेला पूरा‘ वह फिर कभी। इटवा नाम भी रोचक लगा था, क्योंकि मुझे झारखंड के इटखोरी, चतरा जाने का अवसर मिला था और अनुमान हुआ था कि इस तरह के नाम ईंट अवशेष वाले पुरातात्विक स्थल के होते हैं। इटवा पहुंचने के पहले पाली गांव आया और गांव के पहले ही पुरानी बसाहट के अवशेषों का अनुमान हुआ। वहां आसपास घूमते हुए प्राचीन मूर्ति दिखी, यह आकस्मिक हुआ। हम लोग मूर्ति देखकर अवाक रह गए यह एक काले बेसाल्ट पत्थर या ग्रेनाइट की मूर्ति थी, अंजलिबद्ध मानव रूप गरुड़ की स्वतंत्र प्रतिमा। यह वही मूर्ति थी, जो अब भंवर गणेश या भांवर गणेश के नाम से जानी गई है। प्रतिमा आकर्षक, कलात्मक और महत्वपूर्ण थी। इसके बारे में पहले कहीं भी, किसी प्रकार का उल्लेख हमलोगों की जानकारी में नहीं आया था। इसलिए पहली-पहल मान, अपनी खोज का रोमांच हो रहा था।

यहां दस-बारह साल का बातूनी बालक मिला, जिज्ञासु था और आसपास के गांवों, ऐसी विशिष्टताओं में रुचि लेने वाला, हमारे लिए स्थानीय सूचक। हम उसके साथ उसके घर गए। उनके पिता से मिले, मुझे ध्यान आता है कि वे डॉक्टर थे, नाम अहमद हसन खान था। उनसे बात होने लगी तो उन्होंने बताया कि वे मूलतः सीपत के पास नरगोड़ा गांव के रहने वाले हैं। उनसे मिली जानकारी के आधार पर बाद में हम लोग नरगोड़ा भी गए और वहां भी कुछ पुरानी मूर्तियां देखने का मौका मिला। इसी क्रम में नरगोड़ा, गोड़ी, गोढ़ी (बिल्हा के पास के अन्य प्राचीन स्थल, किरारी-गोढ़ी), और प्राचीन टीले वाला गांव गुड़ी मिला। यह टीला नहर रास्ते के पास गांव के छोर पर, चौड़ा तालाब के किनारे मंदिर अवशेष वाला है।

बातें समेटते हम आगे बढ़े, अपने अगले लक्ष्य, इटवा के लिए। इटवा में किसी खास पुरानी चीजों की जानकारी नहीं मिली। यहां एक आधुनिक मंदिर मिला। पूजित और मान्यता वाला धार्मिक स्थल, जो लोकप्रिय था। हमारी हर पूछताछ के जवाब में इसी का पता बताया गया था। वहां मंदिर के साथ, एक तालाब कुंड जैसा याद आता है। उसके बारे में बहुत रोचक मान्यता बताई गई कि उसमें बीच में कभी अचानक मंदार यानि गुड़हल के लाल फूल आते हैं वे फूल, जो शिवरीनारायण कुंड में चढ़ाए जाते हैं, डाले जाते हैं, वही यहां निकलते हैं और वे फूल जब यहां आते है तो एकदम ताजे होते हैं। हमलोग उस क्षेत्र की अन्य जानकारियों पर बात करते जितनी देर वहां रुके, हमारे रहते तक वहां कोई फूल नहीं आया और नहीं कोई इटवा में पुरानी चीजें देखने को मिली। यह अनुमान हुआ कि शिवरीनारायण मंदिर के साथ किसी परंपरा, आस्था या धार्मिक मान्यता का संबंध अवश्य है।

लगभग पूरा दिन बीत गया, इसलिए आगे मल्हार की ओर बढ़ने का इरादा छोड़कर वापसी की तैयारी करने लगे और रास्ते पूछने लगे। समय का दबाव न हो तो ऐसी यात्राओं में हम आमतौर पर प्रयास करते कि जिस रास्ते से गए, उसके बजाय अन्य रास्ते से लौटें, चाहे रास्ता कुछ मुश्किल और लंबा हो। वापस होते हुए अलग रास्ता लिया और इससे कुछ-कुछ नक्शा समझ में बैठा कि नदी के समानांतर एक रास्ता वह है, जिस पर हम चल कर आए। इसी के समानांतर खुंटाघाट बांध वाला नहर का रास्ता है, जो मुख्य मार्ग पर मस्तूरी में आता है। नहर रास्ते से जाएं तो, वेद परसदा गांव से दाहिने उतर कर इटवा पाली पहुंच सकते हैं। इसी तरह मस्तूरी-मल्हार वाली सड़क से भी वेद परसदा से दाहिने मुड़कर, नहर पार कर यहां पहुंचा जा सकता है।

पुरातात्विक अवशेष अपने परिवेश के साथ सार्थक और प्रासंगिक होते हैं, इसलिए उन्हें मूल स्थान पर ही सुरक्षित रखना प्राथमिकता होती है। किंतु सुरक्षा के अच्छे इंतजाम और चौकसी न होने पर चोरी या अन्य दुर्घटना की आशंका बनी रहती है। इस प्रतिमा के रजिस्ट्रेशन के पहले सुरक्षा के लिए हम लोगों ने समझाइश दी थी। इसे संग्रहालय के लिए देने का प्रस्ताव ग्रामवासियों के समक्ष रखा गया था। स्थानीय तौर पर लोगों ने इसकी व्यवस्था तो की थी लेकिन व्यवस्था पर्याप्त नहीं थी। ऐसे अवसर पर, गांव के कई लोग जिम्मेदार बनते दिखते हैं, सामने आते हैं, लेकिन घटना होने पर कोई इसकी जिम्मेदारी नहीं लेता है। इसलिए संग्रहालय के लिए ऐसी वस्तु को एकत्र करना मुश्किल होता है। लोग यह बताने लगे कि कभी इस प्रतिमा को ले जाने का प्रयास किसी ने किया था, मगर गाड़ा का अछांद टूट गया और चोर इसे वहीं छोड़कर भाग गए थे। फिर ग्रामवासी अपनी धार्मिक भावना का हवाला देने लगे। हमारे लिए यही रास्ता रह गया कि सुरक्षा के लिए समझाइश दें, प्रतिमा का पंजीकरण कर लिया जाय, वह शासकीय दस्तावेजों में तो रहे किंतु अधिक ‘पेपरबाजी‘ न की जाए।

शिव मंदिर, ग्राम पाली (इटवा), जिला बिलासपुर की भंवर गणेश या भांवर गणेश नाम से जानी जाने वाली यह प्रतिमा रजिस्ट्रीकरण कार्यालय, बिलासपुर से क्र बीएलआर/एमपी/529/एम.पी., दिनांक 10.05.1985, पंजीकृत है। काले पत्थर की 65गुणा38गुणा8 सेंटीमीटर आकार की यह गरुड़ प्रतिमा पद्मपीठ पर वीरासन में, पद्मयुक्त अंजलिबद्ध है। कलात्मक प्रभामंडल, मुकुट, भुजाओं व पैरों में नागबंध और पारंपरिक आभूषण-अलंकरण वाली, चोंचनुमा लंबी और नुकीली नाक और श्मश्रुयुक्त (दाढ़ी-मूंछ वाली) है। रतनपुर की कलचुरि कला शैली की 12 वीं सदी इस्वी, प्रतिमा की तिथि निर्धारित की जा सकती है।

इस तरह प्रतिमा का रजिस्ट्रेशन और डॉक्यूमेंटेशन हम लोगों ने कर लिया था। बहुत बाद में मुझे यह ध्यान आता है कि उस प्रतिमा की चोरी हुई। ऐसी चोरी के पीछे मुख्य प्रेरक होता है कि प्रतिमा का महत्व बताने के लिए उसे लाखों करोड़ों की कह दिया जाता है जबकि वास्तविकता यह है कि इसका कोई ऐसा खरीददार नहीं होता। स्मगलिंग की बात भी फिल्मों में दिखाई जाती है वह अब कम से कम ऐसा नहीं है। कारण कि यूनेस्को का 1970 कन्वेंशन Means of Prohibiting and Preventing the Illicit Import, Export and Transfer of Ownership of Cultural Property तथा इसी क्रम में आगे 1995 में Unidroit Convention on Stolen or Illegally Exported Cultural Oblects आया।

1970 कन्वेंशन के बाद देश भर में रजिस्ट्रीकरण कार्यालयों की स्थापना हुई। सन 1975 में छत्तीसगढ़ में भी रायपुर और बिलासपुर में कार्यालय स्थापित किए गए। सन 1975 के बाद जब से रजिस्ट्रेशन एक्ट आया है तब से हकीकत यह है, खासकर ऐसी कोई मूर्ति जिसका रिकॉर्ड हो, उसकी चोरी, खरीद-बिक्री हुई हो, वह कहीं भी हो बरामद होती है, कार्यवाही हो सकती है। ऐसी कोई प्राचीन कलाकृति विदेश भी चली गई हो तो प्रत्यावर्तन नियमों के तहत वह उस देश को मूल स्थान में लौटना होता है। इसीलिए अब इस बात की आशंका न के बराबर है। दरअसल रजिस्ट्रेशन एक्ट स्थिति को रोकने के लिए आया और यह बहुत कारगर साबित हुआ है। उल्लेखनीय कि पिछले दिनों ब्रिटेन से वापस भारत लाई जाने वाली कलाकृतियों संबंधी समाचार में उल्लेख आया कि 2014 से अब तक 228 कलाकृतियां भारत को लौटाई गई हैं।

हास्यास्पद कि इसे एक खबर में ‘‘ग्रामीणों की मानें तो‘‘ जोड़ कर जिम्मेदारी से बचते हुए ‘बेशकीमती काले ग्रेनाइट व हीरे के मिश्रण से बनी‘ और बाजार में इसकी कीमत 12 से 14 करोड़‘ बताई जाने का उल्लेख किया गया है। ऐसी ही खबरें चोरी की इन घटनाओं में उत्प्रेरक का काम करती हैं। इससे यह धारणा अभी भी चलती है कि पुरानी मूर्तियां लाखों की, करोड़ों की होती हैं। रातों-रात करोड़ों बना लेने के फिराक में, लालच में आकर उठाईगिर या छोटे चोर, अपराध करते हैं, नुकसान कर बैठते हैं। चोरी के बाद, ग्राहक न मिलने पर समझ में नहीं आता कि क्या करें, तो बचने के लिए तोड़फोड़ या तालाब में फेंक देना, लावारिस छोड़ देना, जैसी हरकत करते हैं। मूर्तियों के लापता होने के पीछे कुछ स्थानों में एक अन्य कारण, पुजारी से मन-मुटाव होने की जानकारी भी मिलती है।

यह सब याद करने का प्रसंग बना कि 25 अगस्त 2022, गुरुवार को देर रात एक बार फिर इस प्रतिमा की चोरी हुई। इस मूर्ति की चोरी एक बार 26-27 जनवरी 2004 को हुई थी, चोरी की प्राथमिकी श्री रूपेश पाठक आत्मज श्री गोपाल प्रसाद पाठक, ग्राम पाली द्वारा दर्ज कराई गई थी, तब मस्तूरी थाना प्रभारी श्री सी.आर. टांडिया थे। इस क्रम में डॉ. जी.के. चन्द्रौल, श्री एस.एस. यादव, श्री जी.एल. रायकवार तथा राहुल कुमार सिंह (स्वयं) की समिति द्वारा अनुमानित मूल्य रु. पैंतीस हजार निर्धारित किया गया था। प्रकरण में प्रतिमा अन्वेषण की विभागीय कार्यवाही हेतु सूचना, असिस्टेंट डायरेक्टर (सी.आईयू.), एंटीक्विटी सेंट्रल ब्यूरो आफ इंविस्टिगेशन (को आर्डिनेशन), डिवीजन क्राइम रिपोर्ट विंग के साथ इंटरपोल विंग, असिस्टेंट डायरेक्टर (डी.आई.जी.) सी.बी.आई. नई दिल्ली, महानिदेशक, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, नई दिल्ली को देते हुए प्रयास किया गया। यह प्रतिमा मस्तूरी थाना द्वारा दिनांक 14 फरवरी 2005 बरामद की जा कर संबंधित धारक को सौंप दी गई थी। पुनः 20-21 अप्रैल 2006 को चोरी हुई थी, जिसकी रिपोर्ट श्री जगन्नाथ पटेल पिता श्री महेत्तर पटेल द्वारा मस्तूरी थाना में लिखाई गई थी। थाना प्रभारी मस्तूरी ने इस संबंध में अवगत कराया था कि दिनांक 12 मार्च 2007 को मूर्ति का पुनः मंदिर में स्थापित होने की सूचना पर मूर्ति जप्त की गई एवं सुरक्षार्थ सुपुर्दनामा में ग्रामवासियों को दिया गया।

गरुड़ की इस प्रतिमा से अनुमान होता है कि यह किसी विष्णु मंदिर के समक्ष स्थापित रही होगी। परंपरा, गरूड़ स्तंभ की भी रही है, जिसमें देवालयों के सामने परिसर में स्तंभ पर गरुड़ प्रतिमा स्थापित की जाती है। हमलोगों ने इस बात पर भी विचार किया कि इसे स्थानीय जन ने भंवर या भांवर गणेश नाम क्यों दिया होगा। संभवतः चोंच जैसी लंबी नाक को सूंढ मान कर प्रतिमा को गणेश मान लिया गया। भंवर, भौंरे या मधुमक्खी को कहा जाता है, प्रतिमा का रंग भौंरे की तरह काला है, क्या इसलिए भंवर कहा गया? भौंरा-भ्रमर के साथ यह भी संभव कि गणेश, भांवर लगाने वाले यानि परिक्रमा-अव्वल देवता हैं। यह प्रतिमा भी भांवर लगाकर वापस आती रही है, आशा है अब भी वापस आएगी और अब सुरक्षित रहेगी।

कुछ पुराने नोट्स के तथ्यों के साथ यहां आई अन्य बातें याददाश्त के आधार पर लिखी गई हैं, इसलिए इसे किस्सा कहा है, जिसका उद्देश्य मुख्यतः रेखांकित करना कि पुरावशेषों की चोरी के पीछे सामान्यतः किस प्रकार की गफलत मानसिकता होती है।

पुनश्च- 

एक बार फिर चोरी पकड़ी गई,
अखबार में प्रकाशित संबंधित समाचार।


Monday, September 19, 2022

तलवा से प्राप्त सिक्के

सन 1995 का मई माह। अपने नोट्स और कुछ स्मृति के आधार पर कुछ बातें। किसी सुबह कलेक्टर, बिलासपुर श्री एम.के. राउत का फोन आया। उन्होंने बताया कि बाराद्वार थाने के किसी गांव से सोने के सिक्के मिले हैं, जिन्हें जब्त कर सक्ती अनुविभाग में जमा कराया गया है। स्थल का निरीक्षण और सिक्कों का परीक्षण किया जाए, बाराद्वार और सक्ती के संबंधित कार्यालयों को अवगत कराया गया है, मौके पर किसी तरह की कठिनाई हो तो उनसे संपर्क किया जावे। बाराद्वार थाने से प्राथमिक जानकारी मिल गई। और सक्ती में श्री कार्तिकेय गोयल, आइएएस ने अपने समक्ष सिक्कों का परीक्षण मुझे (संग्रहाध्यक्ष, जिला पुरातत्व संग्रहालय, बिलासपुर को) कराया। उक्त निर्देशों के परिपालन में की गई कार्यवाही/प्रतिवेदन- 

ग्राम तलवा, बिलासपुर से लगभग 105 कि.मी. दूर बाराद्वार-जैजैपुर मार्ग पर बस्ती बाराद्वार के निकट सक्ती-तहसील, थाना- बाराद्वार के अंतर्गत प.ह.नं.- 16 में स्थित है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार ग्राम तलवा के तीन कृषि मजदूर क्रमशः हरिहर व हरिसिंह आ. कार्तिक तथा बुधराम आ. भोकलो को कृषि कार्य के दौरान खेत से धातु पिण्डों की प्राप्ति हुई थी जो माह मई 95 के प्रथम सप्ताह में जब्त कर तहसील कार्यालय सक्ती में लाकर जमा किये गये हैं।

उक्त सिक्कों का कथित प्राप्ति स्थल ग्राम-तलवा के दक्षिणी भाग में स्थित पनखत्ती तालाब के निकट है। तालाब के दक्षिण-पूर्वी पार के फूट जाने से इस मार्ग से तालाब की जा निकासी हुई थी जिससे संलग्न खेत में मिट्‌टी पट गई थी। खेत को पुनः समतल बनाते हुए उक्त सिक्के प्राप्त हुए बताये जाते हैं। सिक्कों का अवलोकन करने पर ज्ञात हुआ कि उक्त सिक्के 5वीं-6वी सदी ईसवी काल से संबंधित है। अवलोकन विवरण निम्नानुसार है :-

0 हरिहर आ. कार्तिक से मिले 56 स्वर्ण सिक्के विभिन्न आकार के सिक्के 1.9 से.मी. से 2.8 से.मी. तक के हैं। सिक्कों के ऊपरी भाग पर गरूड़ अंकित है तथा निचले भाग पर तत्कालिन पेटिकाशीर्ष शैली की ब्राह्मी में शासकों के नाम महेन्द्रादित्य तथा प्रसन्नमात्र अंकित है। सिक्के-उत्पीड़ितांक या ठप्पांकित (Repousse) शैली के है। 

0 हरिसिंह आ. कातिक से मिले 24 नग सिक्के जिनका न्यूनतम आकार लगभग 1.8 से.मी. तथा अधिकतम 2.2 से.मी. है। अंकित लिपि एवं चिन्ह पूर्व वर्णित सिक्कों के अनुरूप है। 

0 बुधराम आ. भोकलो से मिले एक सिक्का तथा दो सलाई (Sticks) हैं। यह सिक्का भी पूर्व वर्णित सिक्कों के अनुरूप है जिस पर श्री महेन्द्रादित्य उत्कीर्ण है। दो सलाइयां संभवतः स्वर्ण सिक्कों को ही गलाकर बनाई गई होगी जिनका आकार 5.3x.7x.5 से.मी. तथा 2.5x.5x.35 से.मी. है।

इस प्रकार उक्त प्राप्तियों में कुल 81 स्वर्ण सिक्के तथा 2 सलाइयां है जिसका कुल वजन लगभग 125 ग्राम है। जिनमें से सिक्के पुरातत्वीय महत्व के है, किन्तु सलाइयों का कोई पुरातात्विक-ऐतिहासिक कलात्मक महत्व नहीं है। पुरातात्विक महत्व के 81 सिक्कों के अधिक विस्तृत व गहन अध्ययन की आवश्‍यकता है जो उक्त सिक्कों की रसायनीकरण (साफ-सफाई) के पश्चात संभव हो सकेगी।

ठप्पाकित शैली के अब तक प्राप्त सिक्कों के परिप्रेक्ष्य में तलवा से प्राप्त निधि की स्थित इस प्रकार हैः-

ठप्पांकित प्रकार के सिक्के हमारे देश में सर्वप्रथम 1926-27 में प्रकाश में आये बहरामपुर, जिला-कटक (उड़ीसा) से 47 प्रसन्नमात्र के सिक्के (स्वर्ण) सर्वप्रथम दर्ज ठप्पांकित सिक्के हैं।

अब तक कुल 306 ठप्पांकित सिक्के प्राप्त हुए है। तलवा निधि से प्राप्त सिक्कों को जोड़ने पर यह संख्‍या अब 387 हो गई है। इस प्रकार के सिक्के मूलतः दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) तथा सीमावर्ती क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं।

रायपुर जिले के खैरताल से 54 सिक्के पितईबंद से 49 सिक्के, ग्राम रीवां से 39 सिक्के सिरपुर उत्खनन से 1? सिक्का तथा महासमुन्द व सिरपुर क्षेत्रों में फुटकर 4 सिक्के प्राप्त हुए हैं। बस्तर जिले के एडेंगा से 32 सिक्के, दुर्ग जिले के कुलिया से 30, रायगढ़ जिले के साल्हेपाली से 1 सिक्का तथा बिलासपुर जिले के मल्हार से 2 (1 स्वर्ण व 1 ताम्र), ताला से 1 (रजत) तथा नन्दौर से 1 सिक्का प्राप्त हुआ है।

उड़ीसा में बहरामपुर से प्राप्त 47 सिक्कों के अतिरिक्त कालाहांडी जिले से बहना से 10 सिक्के मारागुडा से 8 सिक्के तथा मदनपुर रामपुर से 1 सिक्का प्राप्त हुआ है। महाराष्ट्र के भंडारा जिले से 12 सिक्के प्राप्त हुए हैं, बिहार में शाहाबाद जिले से 1 तथा अन्य फुटकर 6 सिक्के (नागपुर संग्रहालय को बिहार शासन से प्राप्त) उत्तरप्रदेश में लखनऊ संग्रहालय में 5 सिक्के तथा पश्चिम बंगाल में कलकत्ता के निजी संग्रहालय में 2 सिक्के हैं।

इस प्रकार तलवा से प्राप्त 81 सिक्कों की निधि संख्‍या की दृष्टि से अब तक प्राप्त सभी निधियों से अधिक है।

पूर्व में प्राप्त ठप्पांकित सिक्कों पर अंकित शासकों का नामवार वर्गीकरण इस प्रकार हैः- महेन्द्रादित्य 137 सिक्के, क्रमादित्य 4 सिक्के, (संभवतः क्रमशः कुमारगुप्त प्रथम व स्कन्दगुप्त), प्रसन्नमात्र के 24 सिक्के (शरभपुरीय शासक), वराहराज के 29 भवदत्त के 3, अर्धपति के 3, नंदनराज के 1, स्तंभ के 1 (सभी नलवंशी शासक) तथा अन्य 4 सिक्के जो संभवतः कुषाण तथा गुप्त शासकों से संबंधित है। 

तलवा निधि में प्राप्त सिक्कों में आरंभिक अनुमान के अनुसार 78 सिक्के महेन्द्रादित्य तथा 3 सिक्के प्रसन्नमात्र के हैं। इस प्रकार महेन्द्रादित्य की कुल सिक्कों की संख्‍या अब बढ़कर 215 तथा प्रसन्नमात्र की कुल सिक्कों की संख्‍या 127 हो जावेगी।

पूर्व में प्राप्त निधि संयोगों में महेन्द्रादित्य के सिक्के कुषाण व गुप्त शासकों के साथ प्राप्त हुए हैं तथा क्रमादित्य, प्रसन्नमात्र व अन्य नल शासकों के सिक्के साथ भी प्राप्त हो चुके हैं। ठप्पांकित प्रकार के सिक्के सामान्य तौर पर स्वर्ण धातु के ही हैं किन्तु अपवादस्वरूप प्राप्त चांदी तथा ताम्बे के 1-1 सिक्के बिलासपुर जिले के क्रमशः ताला एवं मल्हार से प्राप्त हुए हैं।
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यह प्रतिवेदन संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व, छत्तीसगढ़ शासन, रायपुर के शोध जर्नल ‘कोसल-12‘ वर्ष 2021 में Notes & News में पेज 214-216 पर प्रकाशित है। इसके साथ संपादकीय नोट इस प्रकार है-

टीप :- उल्लेखनीय है कि तलवा के इस महत्वपूर्ण मुद्रानिधि के संबंध में जानकारी का एकमात्र स्रोत लेखक द्वारा प्रस्तुत यह प्रतिवेदन आलेख ही है। इसमें लेखक ने तलवा मुद्रानिधि पर प्रतिवेदन के साथ ही तत्समय देश के विभिन्न क्षेत्रों से ज्ञात ठप्पांकित सिक्कों पर गंभीर शोधपरक जानकारी भी प्रस्तुत की है, जो पुरातत्त्वीय सर्वेक्षणकर्त्ताओं के कार्य हेतु मार्गदर्शी है। - संपादक

Sunday, September 18, 2022

रायपुर संग्रहालय के सिक्के-1961

श्री बालचन्द्र जैन
20 नवंबर 1924 - 06 जून 1995

रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, प्राचीन सिक्कों और अभिलेखों के संग्रह और प्रकाशन के कारण प्रतिष्ठित है, इस दिशा में सर्वाधिक उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण कार्य बालचन्द्र जैन जी का है। संग्रहालय और उनके काम की एक झलक यहां है। इसी विशेषांक में पेज 303-308 पर विदिशा से प्राप्त किए गए सिक्कों पर लेख, जिनका उल्लेख इस लेख में है, भी पृथक से है। 

1960 का एक अन्य संदर्भ प्राप्त होता है, महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय (उद्भव, संगठन और कार्यकलाप) पुस्तिका तब सहायक संग्रहाध्यक्ष रहे बालचन्द्र जैन जी ने तैयार की थी। इस पुस्तिका में 1956-57, 57-58 तथा 58-59 में अवाप्त प्रदर्शन सामग्री के आंकड़ों में सिक्के की संख्या क्रमशः 73, 61 व 1000 बताई गई है। यहां रायपुर संग्रहालय के भारतीय सिक्कों पर NUMISMATIC SOCIETY OF INDIA, VARANASI के GOLDEN JUBILEE VOLUME में प्रकाशित उनका लेख, शब्दशः –

THE COLLECTION OF INDIAN COINS IN THE RAIPUR MUSEUM
BALCHANDRA JAIN

The museum at Raipur was established in the year 1875 by late Mahant Ghasidas, the then ruling chief of the Nandgaon State, now a tahsil of the Durg district of Madhya Pradesh. In 1953, the management of the museum was taken over by the State Government and the new institution, named the Mahant Ghasidas Memorial Museum, came into existence, in which the old Raipur Museum was merged. Accordingly, along with other exhibits, a small collection of 102 coins and 41 medals Was transferred to the new museum which formed the nucleus of its coin-collection. The above coins are said to have been found in the Balaghat district and various places of the Chhattisgarh, while the medals which belong to the Indo-British period of the Indian history, were received from the Secretary to the Chief Commissioner of the former Central Provinces. 

During his term of appointment as the Asstt. Curator of this museum, Shri V. P. Rode (1953-56) made numerous efforts to increase the collection and he succeeded in acquiring 117 coins. These were received from the Deputy Commissioner, Raigarh district (A/ 9, R 2, and E 3), Shri Bhura, a businessman of Seoni (A1 and E 9), Shrimati Doongaji, Raipur (A 19), Shri Narayanlal Parmar, Raipur (B. 1), Shri Banjari, Raipur (E 13) and Dr. Kothari of Raipur (60 foreign coins including ancient Roman coins). 

Thus, the strength of the coin-collection of the museum at the end of the month of October 1956, when the writer of these lines, assumed charge of it, was: 219 coins, 41 medals and 2 tokens. 

I had come on transfer from the Central Museum, Nagpur where I was holding charge of a collection consisting of about 10,000 coins that represents almost all the periods of Indian history. Naturally, I was not satisfied with the then strength of the collection of the Raipur Museum and I decided to make fresh efforts to build up a representative collection of coins of the various periods. Fortunately, in the early months of 1957, the discovery of a gold coin in the Betul district was reported and ultimately, the coin was presented to the Raipur Museum by the Deputy Commissioner of that district under the orders of the Commissioner of the Bhopal division. The coin when examined was found to be the issue of the Bahamani king Mahmud II, son of Muhammad II. That was a good beginning. 

In the same year, Shri Vidya Charan Shukla M. P., Nagpur, donated to the museum, one tiny gold and five copper coins from the collection of his father, late Pandit Ravi Shankar Shukla, the former Chief Minister of Madhya Pradesh. The copper coin included an ancient Chinese coin found in the Bilaspur district and four uninscribed local coins of ancient South Kosala. Similarly, Shri Ramchandra Swarnakar of Katni (M. P.) was pleased to spare from his collection, 2 silver and 32 copper coins of the British period. At the same time, thirteen Ellichpur mint copper coins of Mughal emperor Muhammadshah and six other coins of the modern Indian States were acquired by me from various sources, Thus the strength of the collection of the museum on the 31st of March 1958 was : gold 11, silver 70, copper including bronze etc. 206 and medals 43. A list of these was prepared and published in March 1958. 

The financial year 1958-59 witnessed the largest acquisitions; in all 6 gold, 256 silver and 898 copper coins were added to the collection during that year. Of these 2 gold coins of Kalachuri Gangeyadeva which were found at village Karitalai in the Murwara tahsil of the Jabalpur district and 167 silver Mughal coins were presented by the Collector, Jabalpur district; 15 silver coins including the issues of the English East India Company having the names of William IV and queen Victoria and those of the old Bhopal State (Shahejahan Begum) were received from the Tahsildar of Raisen (M. P.); while a lot of 30 silver and 8 copper coins of the Sultans of Malava came from the Collector, Sehore district. It was in that year that 4 gold, 10 silver and 25 copper coins were purchased from the museums of Nagpur, Lucknow and Madras while two silver coins of Victoria, one bronze Pañchala coin and five coins of the modern Indian States were obtained locally. 

Shri S. N. Bhargava of Nagpur possesses a very good collection of ancient and modern Indian coins. Acceding to my request, he very kindly presented 54 copper coins and a clay sealing to the museum. His donation of a few early indigenous coins called for the immediate endeavour to enrich the collection by acquiring the early cast, and uninscribed coins, and coins of cities, guilds, republics and early dynasties. Incidentally, in the month of April 1958, when I was on a tour of Bhopal in my private capacity, I met a coin-collector of Vidiśã who possessed about 2,000 ancient Indian coins collected by him from Vidiśã and Ujjain. The collection was examined jointly by Shri K. D. Bajpai, the then Curator of the Archaeological Museum, Mathura, and myself. We purchased the lot comprising about 1,700 coins for our respective museums for a total price of Rs. 500/-. The collection was divided in two equal shares, and the one which came to the Raipur Museum contained 32 silver and 803 copper coins including the silver punch-marked, early cast and uninscribed, tribal coins of Eran and Ujjain, coins of the city of Vidisa, coins of Ramagupta, Western Kshatrapas, Naga kings of Padmavati and many other ancient Indian coins.¹ 

In 1959-60, the first coin added to the collection of the museum was a gold coin of Narasimhagupta which was purchased from Varanasi. Coins found in the Sirpur excavations of 1956 (one gold coin of Prasannamatra, one Chinese copper coin) and 104 copper Kalachuri coins and that of Paseva (117 billon coins of the Sultans of Delhi and one Śrīdāma coin) were also added to the cabinet in that year. The most important acquisition of the year was the hoard of 46 gold coins of Mahendraditya and 3 gold coins of Kramāditya discovered in the village Pitaiband of Raipur district. During last year (1960-61), the Collector, Raipur district, presented two hoards consisting of 119 silver coins of the Mughal emperors and 84 silver coins of the Bhonsle rulers of Nagpur (issued in the name of Ahmedshah from Katak mint ?). Third hoard was received from the Tahsildar of Sibora, district Jabalpur. It contained 138 copper coins of the Sultans of Malava, most of which are the issues of Hosangshah. Similarly, three silver seals of the old Bastar State and one Indo-British medal were transferred to the Museum from the Jagdalpur treasury under the orders of the State Government. Twenty coins were received in donation from private sources. 

The strength of the coin-collection of the Museum has now increased to 73 gold, 432 silver and 1493 copper coins, from a nucleus collection of 143 coins and medals which existed on the 21st March 1953, the day of opening of the Museum. 

1. Some of them are being published in this Volume. See pp. 303-308, ante. 
2. JNSI, Alt. Comm. Vol., pp. 184-187.

यहां यथासंभव शुद्धता का ध्यान रखा गया है, किंतु गंभीर शोध-अध्ययन में उद्धृत करने, संदर्भ के लिए कृपया मूल स्रोत का उपयोग करें।

Saturday, September 17, 2022

खैरागढ़ ताम्रपत्र

बात 1989-90 की है। हमलोग रायपुर विश्वविद्यालय में आचार्य रमेन्द्रनाथ मिश्र जी के परिसर स्थित प्राध्यापक आवास तथा विश्वविद्यालय के शिक्षण विभाग गए थे। वहां हुई दो खास बात याद है पहली कि शिक्षण विभाग में चर्चा के दौरान पता चला कि इस वर्ष एम.फिल. में 36 विद्यार्थी हैं तो उनके शोध निबंध के लिए विषय तय करने में सब की एक राय बनी कि प्रत्येक को छत्तीसगढ़ के 36 में से एक-एक गढ़, विषय यह ध्यान रखते हुए दिया जाए कि विद्यार्थी उस अंचल का निवासी या उससे परिचित हो।

यहां संदर्भ दूसरी बात का है, वह यह कि मिश्र जी ने अपने निवास पर एक ताम्रपत्र दिखाया। बाकी लोग चर्चा करते रहे, मैंने उनकी अनुमति से वहीं इसका प्रारंभिक पाठ तैयार कर लिया। इस पाठ को सुधार कर अच्छी तरह संपादित कर प्रकाशित कराने का विचार था, मगर ऐसा करना रह गया। पिछले दिनों मेरे द्वारा तैयार किया गया पाठ मिला तो फिर खोजबीन में लगा।

इसका परिचयात्मक प्रारंभिक प्रकाशन शोध पत्रिका ‘प्राच्य प्रतिभा‘ Journal of Prachya Niketan, Bhopal Vol.-V, No.-2, July 1977 में हुआ था। मालूम हुआ कि यह संक्षिप्त परिचय सहित अब इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ के संग्रहालय में प्रदर्शित है। इनमें आई जानकारी अंशतः उपयोगी मगर, दोनों अशुद्धियों के कारण भ्रामक है। साथ ही इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ के शोध जर्नल ‘कला-वैभव‘, अंक 18-19 वर्ष 2009-10/2010-11 में पृष्ठ-90 पर चित्र सहित संक्षिप्त विवरण डॉ. मंगलानंद झा ने प्रकाशित कराया, जो उपरोक्त चित्र में आई जानकारी के ही अनुरूप है, मगर उसमें ताम्रपत्र की लम्बाई साढ़े 46 सें.मी. व चौड़ाई 31 सें.मी, कुल वजन 1 किलो 974 ग्राम उल्लिखित है। ‘प्राच्य प्रतिभा‘ में लेखक के नाम की त्रुटि के अलावा ताम्रपत्र का आकार भी गलत छपा है। ताम्रपत्र का आकार खैरागढ़ विश्वविद्यालय की जानकारी में भी अशुद्ध है, मगर इस संबंध में श्री चौरे ने स्पष्ट किया कि ताम्रपत्र का वास्तविक आकार 48X30 सेंटीमीटर है। उक्त ताम्रपत्र का चित्र श्री मिश्र के निवास पर उपलब्ध है। उन्होंने कृपापूर्वक उस चित्र से प्रति तैयार करने की अनुमति दी, जो यहां नीचे है। आप महानुभावों के प्रति आभार।

ताम्रपत्र का पूरा पाठ साथ ही इसका संपादन भी संभवतः अभी तक नहीं हुआ है। इसमें विलंब न करते हुए, रुचि रखने वाले अध्येता, जो इसे प्रकाशित भी करा सकते हैं, ऊपर फोटो, जिससे पाठ देखा जा सकता है और नीचे 1989-90 में मेरे द्वारा तैयार पाठ की हस्तलिखित प्रति का चित्र तथा पंक्तिवार पाठ-टेक्स्ट, जिसे शुद्ध करते हुए, संपादित कर प्रकाशित किया जाना है, प्रस्तुत है।

यतो धर्मश्ततोजयाः
श्री
श्री श्री चन्द्रबंसी (याने) सोवनंसी कात्कीयवंस गंगवंसी राजओं का लेख

(पंक्ति 01) सोमबंशी राजाओं के बंस से जरासंघ के पुत्र शहदेव के सौमापी नामक पुत्र होये फेर इस तरह वसावली चालु हुई श्र्सुत
(पंक्ति 02) वान अयुता निर तीत्र सुफत्र ब्रहस्त करमा सु स्रुमद्रासेन मुमत रावल सुनीत सत्यजीत विस्वजीत रीपुजयं ये सव चंद्र
(पंक्ति 03) वंसी कलीजुग के १००० वर्स तक राज करे हैं वाद रीपुंजय नामक राजा से इनकी वंसावली चालु है इस कुल का मुख असथा
(पंक्ति 04) न हस्तनापुर का था जो मुसलमानों के चड़ाई के कार्ण बीर विक्रम देव राजा हस्ततान्पुर छोड़ कर मद्रास की ओर करना
(पंक्ति 05) टक में विक्रमी सम्वत् ८८२ में बुनीयाद डालकर राज अस्थापीत कीये जीन्के पुरत्र प्रताप रुद्रदेव जगदीश पुरी आये
(पंक्ति 06) और चन्दसेखर सुरजवसी से वीजै कर राज प्राप्त कीये इन्के तीन पुत्र प्रथम पुत्र बोधकेसरी देव ७१ वर्स पुरी
(पंक्ति 07) का राज भोग्य किये कीये दुतीये पुत्र कातकी प्रताप राद्रदेव मंन्द्रास में राज कीये इन्के वंसज भीमसेन
(पंक्ति 08) देव मुसलमानी परवर्तन में विक्रमी सम्वत ११८८ सुभ पक्षे भाद्रोपदेमा शापच्चोरिध झूंसी
(पंक्ति 09) के तर्फ जात्रा कर राज्य कीये त्रितीये पुत्र कात्की प्रताप रुद्रदेव नामक राजा का भाई आन्यम
(पंक्ति 10) राज उस अस्थान को छोड़ औरंगल यानी वारगल में आ बसे थे जब मुसलमानों ने इस अस्थान पर चड़ा
(पंक्ति 11) ई की तब अन्यमराजा बस्तर को चला आया और वहाँ पर राज अस्थापीत कीया जिसके वंसज
(पंक्ति 12) हम्मीरदेव उर्फ येमी राजदेव महाराजा हुए तीन्के पुत्र भैराजदेव तीन्के पुत्र पुरसोतमदेव
(पंक्ति 13) जगदीस जाकर मन्दीर साफ कराकर अपने पुरी राजवंश में शामिल हो मादुला पांजी लिखा
(पंक्ति 14) य जिन्के पुत्र जैसिंहदेव के पुत्र नरसिंहदेव के पुत्र प्रतापराजदेव जीन्के पुत्र जगदीस देव
(पंक्ति 15) जिन्के पुत्र विरनरायदेव इन्के पुत्र विरसिंहदेव इन्की रानी चन्दलिन बदनकुमारी महारानी
(पंक्ति 16) बिशए दीगपालदेव पुत्र प्राप्त हुये ते दिगपालदेव बिबाह कीन बरदी के चन्देल राव रतन राजा
(पंक्ति 17)वो कन्या अजबकुमारी महारानी विशये दो पुत्र उतपन्न हुये प्रथम पुत्र रक्षपालदेव जो ब
(पंक्ति 18) स्तर का राज भोग्य किये ऐ राजा चालक बृहमन का आसेप लेते हुये बंस वल्दकर रक्षा किये
(पंक्ति 19) दुतिय पुत्र अनंगपाल देव जो पुरी पुरसोत्तमदेव के पुष्प पुत्र हो कर सिहावा में शेस साल छिपकर राज किये इन्के पुत्र वीर
(पंक्ति 20) कान्हरदेव उर्फ करनेस्वरदेव जिन्के वंस का यह लेष लिषा जाता है बौध केसरीदेव पुरी नरेश के त्रितीये पुस्त
(पंक्ति 21) में पुरसोतम देव हुये और समुन्द्र की रेनुका से श्री जगनाथ जी के मंदिर को निकालकर सुना सजाकर श्रीकृष्णाजि के
(पंक्ति 22) उस पिंडज को लाकर चन्दन के घरे रामेरष कर अस्थापना की जो पान्डवों के जलाने से बाकी रह गया था वो आोडीया राज थापेतिन
(पंक्ति 23) के पट पुस्त में कर्ज केसरी देव जिन्के पुत्र (दुतिये) पुरसोतमदेव जो अपने जेष्ठ पुत्र सिध्द केसरीदेव को पुरी का राज सर्मपन कर
(पंक्ति 24) कुस्ट रोग्ग ग्रसित सिहावा आये कुन्ड में अशनान कर कुष्ठ नास किये वो सिहावा में रहै दिगपालदेव से बस्तर राजा से अनंगपाल
(पंक्ति 25) देव नामक पुत्र मांग पुस्य पुत्र माने और सिहावा राज प्राप्त कर प्राणांयाम बैकुठ गये अनंगपाल थोड़े दिन छिपकर राज्य
(पंक्ति 26) किये जिन्हें पुत्र वीर कान्हरदेव विवाह कनि भोपालादेवी से विष्यात पुरी से मदत लाये कर श्री साके १२४२ रुद्र नाम
(पंक्ति 27) सम्वतसरे सुभ पक्षे पंचम्यांतिथौ सिहावा नाम नगरे श्रृड्गी रिषि आश्रमे वर्तमान काकैर नाम नगरे सोमबंसी व्याघ्र प
(पंक्ति 28) द अत्रि गोत्र प्रथम विषयात हो सिहावा राज किये तिनके पुत्र कपिल नरेन्द्र देव के पुत्र तानुदेव जो सिहावा मे राज करते
(पंक्ति 29) हुये कांकेर नौरंगपुर की जमिदारी को भैना (याने) कड़ार से फते कर दोनों तालूका में राज कीये
(पंक्ति 30) ते सिहावा-कांकैर का राज करते हुए नागवंसि छत्रीयों से धमतरी दाहेज में पाये धमतरी अमल कर तीनो तालुका में राज कीये
(पंक्ति 31) जिन्के पुत्र अजै नरेनद्रदेव तिनों तालुका में राज किये इन्के पुत्र हमिरदेव तीनों तालुका में राज कीये तिन्के पुत्र रुद्रदेव धर्मशील
(पंक्ति 32) सिव भक्त राजा भये रुद्रदेव राजा के पधारे रुद्रेश्वर महादेव महानदी के तीर में धमतरी के नजीक इन्के पुत्रं हिमं
(पंक्ति 33) चल साह देव धमतरी में गद्दी कर तीनो तालुका में राज किये अर्थ रुद्रदेवराजा के प्रसंसा में पत्र लिषाये
(पंक्ति 34) मैथिल रामचरणदास लिषे के सम्बत १७०७ मासोतमे मासे फालगुन मास कृष्ण पछे सुभ तिथौउ
(पंक्ति 35) चतुरदसी सुभनाम नछत्रे श्री रुद्रेस्वर महादेव के पूजान उत्साह सहित पूर्ण भये अस राजा रुद्रदेव सम शिव भक्त आज राजा कल जुग में थोर
(पंक्ति 36) होई है - इति सुभमस्ताः
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Tuesday, September 13, 2022

फोटो

अपने लिखे में अच्छे का निर्णय और चयन पाठकों पर छोड़ना चाहिए मगर बुरे का फैसला करने के के लिए खुद को पहल करने से नहीं हिचकना चाहिए, ऐसा मानते हुए मेरा लिखा यह एक निरस्त किए जाने लायक। फिर भी इसे क्यों संभाले रखा है और यहां प्रस्तुत कर रहा हूं! सोचते हुए ध्यान आता है कि उस दौर में मुक्तिबोध के वैचारिक गद्य को पढ़ते चकराया हुआ था। बहुत सारी बातें उल-जलूल और दिमागी गुहान्धकार वाली लगती थीं। ऐसा लगा कि विचार-क्रम में जो भी अभिव्यक्त हो, वही शायद अधिक ईमानदार होता है, इसलिए ...

‘बिम्ब‘ परिवार के सचिव नवल जायसवाल, जिनकी तस्वीरों और लेखनी से मेरा परिचय रहा है, ‘परस्पर‘ का सम्पादन एवं आकल्पन किया था। लेख उन्होंने मंगाया था, संभवतः इसीलिए छापा, बल्कि प्रशंसा भी की, यह उनकी उदारता। इस प्रकाशन के लिए मेरे द्वारा लिखा लेख यहां प्रस्तुत-


पहचान की भूमिका

प्रतिरूपण, सदैव सृजनधर्मी होता है। विषय वस्तु की केंद्रीय स्थिति, माध्यम की भिन्नता और दृष्टिकोण से विविधता उत्पन्न होती है। वह अपने मूल भाव का खास, दिमागी आईने से गुजरा प्रतिबिंब होता है। विषयवस्तु वह मूल है जो तार्किक भाव को जन्म देकर आध्यात्मिक निराकार को संवेदन के लिए छोड़ देती है। कल्पना के स्रोत की खोज कर क्षितिज के परे जाने की ज्ञानवस्तु ही प्रतिरूपण का मूर्त रूप है। मानव मन की अभिव्यक्तियों के तरीकों में से एक है छायाचित्र और छायाचित्रों के बारे में सोचते हुए एक विशिष्ट व्यवहार वाक्य ध्यान में आता है कि किसी प्राकृतिक दृश्य या भौतिक दृश्य की प्रशंसा में उसे चित्र जैसा सुंदर कहा जाता है और किसी चित्र की प्रशंसा उसे सजीव जैसा सुंदर कह कर की जाती है। मानव मन में उत्पन्न भाव का वह व्यक्ति स्वयं स्वागत करता है और इसे ही सुखद मानता है, मनोविनोद की परिधि में आता है। मनोविनोद भी प्रतिरूपण का आरंभ मान सकते हैं। मनोविनोद और प्रशंसा एक ही भाव के दो पहलू हैं।

यह खास बिंदु शायद सिर्फ अधिकतम यथावत प्रतिरूपण से जुड़ा होता है और प्रतिरूपण में सृजन का आयाम जुड़कर उसे कला का दर्जा व प्रतिष्ठा देता है। चित्र हो या छायाचित्र दोनों में कला संपन्नता का अस्तित्व अनिवार्य है। छायाकला आधुनिक तकनीक से ओतप्रोत विकास के सौर मंडल से बाहर जाती हुई विधा है।

पुरातत्व विभाग में अन्य अध्ययन क्षेत्रों की भांति प्रलेखन विवरण वर्गीकरण और व्याख्या पृथक-पृथक महत्वपूर्ण खंड है, किंतु प्रलेखन की दृष्टि से छायाचित्र उनका महत्व सर्वाधिक है। यथासंभव अधिकतम प्रतिरूपण और उनका संयोजन पुनः वर्गीकरण कर ही अध्ययन की दिशा और निष्कर्ष में निर्धारित होते हैं। पुरातात्विक अध्ययन में सहायक सामग्री के रूप में छायाचित्रण का इस दृष्टि से भी विशिष्ट स्थान है कि प्रतिमाएं, विशेषकर, जो स्वयं भी मानवीय आकारों, प्रकृति का प्रतिरूपण है उन्हें भिन्न माध्यम अर्थात कैमरे से पुनः प्रतिरूपित किया जाता है किंतु यहां सृजन की संभावना अत्यंत होती है क्योंकि प्रलेखन की दृष्टि से किए गए छायाचित्रण में वस्तुगत गुणों का होना आवश्यक होता है। प्रलेखन की सीमा निश्चित नहीं की जा सकती है किंतु छाया कला का अंश इस प्रकार प्रतिरोपित हो कि वह उवाच की दशा हस्तगत कर ले क्योंकि सौंदर्यात्मक क्रिया बोलने की क्रिया है। भाव-प्रधान प्रलेखन अपना स्थायी बोध प्रदर्शित करते हैं।

पुरातत्वविद बन जाने से अधिक सौभाग्यशाली अवसर मुझे अंचल के पुरातात्विक स्थलों पर कार्यकर्ता बनकर रहने का मिला। ये स्थल अधिकतर अंदरूनी जंगली क्षेत्रों में हैं। इस संदर्भ में एक उल्लेखनीय विचार बिंदु मुझे अनायास प्राप्त हुआ। खुदाई आदि से प्राप्त मूर्तियों के छायाचित्र का काम पूरा हो जाने पर हमने उन स्थलों के कामगारों को दिखाया और आश्चर्यजनक ढंग से उन्होंने अपने गांव की खुद साफ कर निकाली गई मूर्तियों को नहीं पहचाना। मुझे इससे उनके जागरूक और चेतना का स्तर समझकर अत्यधिक निराशा हुई, किंतु यह विचार बिंदु तब बन गया जब उनमें से कुछ लोग अपने साथियों की तस्वीरें भी नहीं पहचान सके, तब मुझे अनुमान हुआ कि संभवतः हम अपनी दृष्टि का विकास व संकोच जिस आसानी से आयामों में कर सकते हैं वह करने का उन्हें अभ्यास नहीं होता। वे उस मांसल और जीवंत गहराई के बिना, जिसमें स्पंदन होता है, उसे पहचान कर स्वीकार करने में कठिनाई महसूस करते हैं। रंग, प्रकाश और आयामों की शास्त्रीय भाषा को पढ़ने का चरित्र वे विकसित नहीं कर पाए हैं। इस दुर्गम पथ का मार्ग प्रशस्त करने में छायाचित्र सहायक हो सकते हैं लेकिन इस दिशा में प्रयास आवश्यक है हमें अपनी संवेदना के धरातल का मानचित्र तैयार करना होगा और उस मानचित्र पर उन कामगारों के अनुभव और अनुभूति को दर्ज करना पड़ेगा। सफलता को एक विशेष दृष्टि का नाम दे सकते हैं।

मैं जब भी अनुभव करता हूं और अतीत में मैंने जो अनुभव किया था या भिन्न भिन्न परिस्थितियों में जो अनुभव करने की मुझे आशा है यदि मैं इनके बीच के संबंध पर बल देता हूं तो मेरा बल देना केवल अनुभव करने पर ही आधारित रहेगा किंतु यह सब आवश्यक प्रक्रिया का पार्श्व है।

गवाहों के संदर्भ में लिखे जा रहे इस लेख का मूल दायित्व यह है कि पुरातत्व से छायाचित्र कितने करीब है यह जाना जा सकता है और इसकी आवश्यकता को महत्व दिया जाना है, माना जाना चाहिए। जहां शब्द समाप्त हो जाते हैं वहां से छायाचित्र का प्रतिरूपण पहलू आरंभ होता है। संभवतः श्रव्य और दृश्य के सामंजस्य को दृष्टि में रखकर ही पुरातत्व सामग्री की समिधा बटोरी गई होगी। यह और भी प्रासंगिक हो जाता है कि छायाचित्र अपनी आवश्यकता दर्ज करने लगे हैं। अब इस बात को भी रेखांकित करना चाहिए कि पुरातत्व से संबंधित छायाचित्र एक साधारण छायाचित्र न हो, बल्कि छाया के उत्कृष्ट नमूने बने।

वस्तुगत छायाचित्रण का कार्य दिन-ब-दिन विकसित तकनीक के उपकरणों के उत्तरोत्तर बेहतर होता जा रहा है लेकिन यह बेहतरी आयाम-सीमा की कमी पूरी नहीं कर सकती। इस कमी को पूरी करने में मांसलता विषयगत छायाचित्रण में दृष्टिकोण की विशेषता से लगभग पूरी हो जाती है। यह गंभीर उद्देश्य संवेदना की आत्मीय दृष्टि से सहज संभव हो सकता है। मुझे चीजें साफ साफ नजर आ रही हैं की छाया कला का समस्त परिवार पुरातत्व के सर्वांगों को दृश्य की संपूर्णता के साथ क्षितिज तक ले जाने में समर्थ है अतः इस नवीनतम तकनीक और कला का भरपूर उपयोग करे।

Saturday, September 10, 2022

'घर-द्वार' समाचार

छत्तीसगढ़ी फिल्मों के इतिहास में 'घर-द्वार' महत्वपूर्ण पड़ाव है, जिसके बारे में ढेरों जानकारियां असानी से विस्तारपूर्वक मिल जाती हैं। यहां देखने का प्रयास है कि इस फिल्म निर्माण संबंधी माहौल, उस दौर के समाचारों को पढ़कर कैसा महसूस होता है। राष्ट्रबंधु समाचार पत्र को यहां आधार बनाया गया है, जिसके सम्पादक हरि ठाकुर ने इस फिल्म के लिए गीत लिखे थे। 


28-1-71 अंक के सचित्र समाचार का चित्र और टेक्स्ट यहां प्रस्तुत- 

फिल्म-संसार में नयी सम्भावनाओं के साथ प्रस्तुत 
जे.के. फिल्म्स का
घर-द्वार 
छत्तीसगढ़ी में 
एक अभूतपूर्व फिल्म 


छत्तीसगढ़ी में फिल्म व्यवसाय और स्थानीय कलाकारों की प्रतिभा को उजागर करने की नई संभावनाओं के साथ छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘घर द्वार‘ का निर्माण कार्य जे.के. फिल्म्स के युवा निर्माता श्री जयकुमार पांडे ने पूरा कर लिया है। इस फिल्म के माध्यम से समर्थ तथा अनुभवी निर्देशक श्री निर्जन तिवारी ने छत्तीसगढ़ की आंचलिक समस्याओं और विशेषताओं को सार्वभौमिक स्तर पर अभिव्यक्ति देने का अद्भुत प्रयास किया है। 

कथा - बिंदु 

छत्तीसगढ़ की धान बहुल शस्य श्यामला धरती के महमहाते ग्रामीण वातावरण में मालगुजारी परंपरा के प्रतीक के रूप में दीनानाथ (भगवतीचरण दीक्षित) का चरित्र अपने समस्त पुरातन संस्कारों और विश्वासों के साथ प्रकट होता है। उनके दो पुत्र हैं- महेश (कान मोहन) और रमेश (शिशिर)। इन तीनों को लेकर आधुनिकता और पुरातन का संघर्ष चित्रित करते हुए कथा का बुनाव चालू होता है। परंपरागत भारतीय परिवार के टूटने बिखरने के मार्मिक प्रसंगों के साथ कथा आगे बढ़ती है और मामा जगत नारायण (शिवकुमार) एक सुखी परिवार की शांति के लिए अभिशाप बनकर पदार्पण करता है। मामा गांव के सेठ (बसंत दीवान) के साथ मिलकर दोनों भाइयों में फूट डालने, उनके परिवार को तबाह करने, गांव में दंगा कराने के षड्यंत्र में सफल होता है। खलनायक मामा ने षड्यंत्र को अपनी हास्यपूर्ण भूमिका के साथ बड़ी विचित्रता के साथ प्रस्तुत किया है। अंत में बड़े भाई को गांव छोड़कर शहर की शरण लेनी पड़ती है। 

फिल्म में हरिठाकुर के मादक गीतों को जमाल सेन ने संगीतबद्ध कर छत्तीसगढ़ी लोक धुनों के माधुर्य में वृद्धि की है। अनिल साहा ने बड़ी सूझबूझ के साथ फोटोग्राफी की है। फिल्म की नायिका नवोदित कलाकार रंजित ठाकुर हैं। अन्य कलाकार हैं दुलारी, गीता कौशल, कालेले, जोगलेकर, बल्लू रिजवी, मीनाकुमारी (जूनियर) नशीने, जे.पी. पांडे, जयकुमार आदि। 

इसके अतिरिक्त ऊपर आए दिनांक 3.12.70 अंक के समाचार ‘निर्देशक श्री निर्जन तिवारी से भेंट-वार्ता‘ में बताया गया है कि फिलहाल फिल्म के केवल 4 प्रिंट तैयार होंगे। ... ... ... श्री तिवारी ने बताया कि उन्हें स्थानीय कलाकारों से जिन्होंने कैमरे का कभी मुंह नहीं देखा था, न केवल सराहनीय सहयोग मिला बल्कि उनके निष्ठा पूर्ण कार्यों से उन्हें भरपूर संतोष भी हुआ। उन्होंने कहा कि कुछ कलाकारों का अभिनय तो इतना मर्मस्पर्शी, नयापन और खुलापन लिए हुए है कि वे अनुभवी, व्यवसायी कलाकारों को भी पछाड़ सकते हैं। निश्चय ही यह फिल्म छत्तीसगढ़ के नये कलाकारों को नई प्रेरणा प्रदान करेगी। ... ... ... दिनांक 29 नवंबर को होटल नटराज में एक प्रेस वार्ता में श्री तिवारी ने बताया कि फिल्म की लागत लगभग दो लाख रुपये है और इसकी लंबाई 14 है। उन्होंने बताया कि वे शीघ्र ही एक हिंदी फिल्म स्थानीय कलाकारों के सहयोग से बनाने की घोषणा करेंगे। पत्रकारों ने फिल्म के गीत सुने और उन्हें पसंद किया। श्री तिवारी ने सराईपाली के कुमार साहबों- श्री बीरेंद्रकुमार सिंह और श्री महेंद्रकुमार सिंह जी के प्रति विशेष आभार व्यक्त किया जिन्होंने शूटिंग के समय हर प्रकार का सहयोग प्रदान किया। ... ... ... फिल्म छत्तीसगढ़ के चार बड़े शहरों में एक साथ रिलीज होगी दयाल फिल्म रायपुर फिल्म के वितरक हैं।

Thursday, September 8, 2022

गणेशोत्सव पर नदगइहां नाच

रायपुर से प्रति सोमवार और गुरुवार को प्रकाशित होने वाले अर्द्ध साप्ताहिक पत्र ‘राष्ट्रबन्धु‘ में प्रकाशित ‘संत रामदास की वाणी‘ का मुलाहिजा फरमाइए। यह स्तंभ, संभवतः पत्र के संपादकीय विभाग द्वारा लिखा जाता था। नाच, यानि नाचा पर इस संक्षिप्त किंतु गंभीर समीक्षत्मक दृष्टि की सहजता अपने-आप में मानक है, नाचा-गम्मत की चर्चा में ऐसे पुराने महत्वपूर्ण संदर्भ नजरअंदाज हो जाते हैं। उल्लेखनीय कि दाउ रामचंद्र देशमुख ने नाचा की स्थिति से व्यथित हो कर सन 1950 में ‘छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल‘ का गठन किया, जिसका पहला वर्कशाप 1951 में पिनकापार में आयोजित हुआ था। इस संदर्भ और पृष्ठभूमि के लिए प्रासंगिक ‘राष्ट्रबन्धु‘ 25.9.1950 अंक में प्रकाशित टिप्पणी यहां प्रस्तुत-


यदि आप छत्तीसगढ़ के सबसे मनहूस व्यक्तियों में से नहीं हैं तो आपने नदगइहां नाच अवश्य देखा होगा और यदि सचमुच नहीं देखा है तो इस समय अवश्य देख लीजिए। गणेशोत्सव के दिनों में छत्तीसगढ़ के कोने कोने में इस नृत्य और प्रहसन की धूम मच जाती है।
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साहित्य और कला की दृष्टि से नदगइहां नाच किशोर साहू के चलचित्रों से अधिक उत्कृष्ट होते हैं, यदि वे सचमुच शुद्ध देहाती चीज हों तो बनिया पारा के नाटकों से तो वे निश्चय ही अधिक कलापूर्ण होते हैं कि इन खेलों से लगातार हंसी का फवारा छूटते रहता है।
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यथार्थ रूप में कलापूर्ण खेल का आनन्द लेने के लिये आपको शुद्ध देहाती नाच ढूंढ निकालना होगा। आज कल नकली खेलों की भरमार है। रवेली वालों के नाच की हमने बड़ी तारीफ सुनी थी। उसके साथ हम एक बार आधी रात तक जागकर हमें बहुत निराश होना पड़ा। शहरवालों की भद्दी रुचि का लाभ उठाने के लिये ऐसे बेतुके खेल तैय्यार कर लिये हैं खेली वालों ने। जिसमें जीवन की कला सम्पूर्णतः नष्ट हो गई है। समाज की रुचि के संस्कार की ओर भी ध्यान रहना चाहिए।
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सच्चा नदगइहां नाच यदि हमने कहीं देखा तो खैरागढ़ में। चार घंटे बैठ कर मंत्र मुग्ध की तरह पूरे एक दर्जन खेल देख गये। ग्राम-जीवन के प्रत्येक पहलू का और स्वाभाविक चित्र एक के बाद एक सामने आ रहे थे। सरल ग्रामीणों के सरल जीवन के कितने आल्हाद पूर्ण चित्र थे। सुख और दुख, प्रेम और विरह, भय और क्रोध नव रसों की सरस थाली सामने परोस दी गई थी!
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वह विलक्षण कलाकार कौन था? जिसने इन खेलों को जन्म दिया। कुछ लोगों ने हमें बताया कि राजनांदगांव के निकट बसन्तपुर नामक गांव में सुखराम नाम के एक कलाकार ने इन खेलों को चलाया। हमें तो ये कृतियां अधिक पुरानी लगती हैं, और इनका स्रोत भी इतना स्वच्छ है कि शहर की जानकारी रखने वाला व्यक्ति इनका निर्माण करे, यह असम्भव सा लगता है। हो सकता है बसन्तपुर के सुखराम ने इनका विशेष प्रचार किया हो।
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हमने इन खेलों को बनिया पारा के नाटकों से उत्कृष्ट कहकर अतिशयोक्ति नहीं की है। वहां तो वही उन्नीसवीं शताब्दी की नाट्यशैली उपहास प्रद एक्टिंग तथा अस्वाभाविक मुनादी के तरीके पर सम्भाषण अभीतक प्रचलित है। स्टेज और परदे के बन्धन से मुक्त नदगइहां नाच की एक्टिंग की स्वाभाविकता तथा उसके सम्भाषण के सहज प्रवाह मन को मुग्ध कर लेते हैं ।
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यदि इन खेलों के साथ मधुर संगीत और-स्त्री पात्रों के लिये सच्चे स्टार का मेल़ हो तब तो ये सिनेमा घरों के बिकट प्रतिद्वन्द्वी बन जायेंगे।
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Wednesday, September 7, 2022

छत्तीसगढ़ी अभिव्यक्ति - 2004

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात, शासकीय दायित्व निर्वाह करते हुए विभिन्न आयोजन में सहभागी बनने और आयोजनों के लिए प्रतिवेदन तैयार करने का अवसर मिलता रहा। आयोजनों का प्रतिवेदन, जो प्रेस विज्ञप्ति, इस आयोजन और विभागीय गतिविधियों के प्रतिवेदन के लिए उपयुक्त हो तैयार करना होता था। ऐसे ही एक महत्वपूर्ण आयोजन का प्रतिवेदन विभागीय सहयोगियों की मदद से मेरे द्वारा तैयार किया गया था, उपयोगी संदर्भ मानते हुए यहां प्रस्तुत- 

छत्तीसगढ़ शासन, संस्कृति विभाग द्वारा राज्य की संस्कृति, परंपरा, भाषा-साहित्य तथा लोक-जीवन के विविध आयामों को उजागर करने के लिए ‘छत्तीसगढ़ी अभिव्यक्ति-2004’ राज्य स्तरीय संगोष्ठी का आयोजन 23 एवं 24 मार्च को रायपुर में किया गया। यह संगोष्ठी छत्तीसगढ़ी भाषा-व्यंजकता, छत्तीसगढ़ के खेल, बाल-गीत, व्यंजन एवं छत्तीसगढ़ की संत परंपरा पर केन्द्रित थी। आयोजन में राज्य के सभी जिलों से संस्कृति और भाषा के विशेषज्ञों, अध्येताओं को आमंत्रित किया गया।

23 मार्च, मंगलवार को उद्घाटन सत्र में कार्यक्रम का परिचय देते हुए संचालक, संस्कृति, श्री प्रदीप पंत ने बताया कि यह संगोष्ठी छत्तीसगढ़ी भाषा-व्यंजकता, छत्तीसगढ़ के खेल, बाल-गीत, व्यंजन एवं छत्तीसगढ़ की संत परंपरा पर केन्द्रित है। इस संगोष्ठी के माध्यम से राज्य की समृद्ध परंपरा का संवर्धन करने की दिशा में एक प्रयास किया जा रहा है तथा प्रत्येक जिले में ‘छत्तीसगढ़ी अभिव्यक्ति’ संगोष्ठियां जिला प्रशासन के माध्यम से विभाग द्वारा सम्पन्न की जा रही है। संगोष्ठी में श्री श्यामलाल चतुर्वेदी, श्री स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा ने अपने विचार रखे।

इस अवसर पर मुख्य अतिथि, डॉ. इंदिरा मिश्र, अपर मुख्य सचिव, संस्कृति ने अपने उद्बोधन में छत्तीसगढ़ी की भाषायी समृद्धि और अभिव्यक्ति सामर्थ्य पर प्रकाश डालते हुए एक पत्रिका का प्रकाशन करने की योजना बतायी, जिसका स्वरूप छत्तीसगढ़ी के विद्वानों से परामर्श कर निर्धारित किया जाएगा।

शुभारंभ सत्र के पश्चात् ‘छत्तीसगढ़ी भाषा-व्यंजकता’ सत्र की अध्यक्षता डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा ने की और आधार लेख डॉ. बिहारीलाल साहू ने पढ़ा। आधार लेख में डॉ. साहू ने कहा कि छत्तीसगढ़ी, छत्तीसगढ़ की जनभाषा है। यह हिन्दी भाषा समुच्चय की सशक्त सदस्या है। इसकी उत्पत्ति अर्धमागधी अपभ्रंश से मानी गयी है तथा यह पूर्वी हिन्दी की पुरोगामी भाषा है। इसकी संरचना में एक ओर शौरसेनी अपभ्रंश के भाषिक तत्वों का समावेश है तो दूसरी ओर इसमें मागधी वर्ग की हिन्दी और अहिन्दी भाषा-रूपों का समाहार है। यद्यपि छत्तीसगढ़ी, छत्तीसगढ़ अंचल की जनभाषा है तथापि यहॉं विविध भाषा-बोलियों का संगम समाहार देखा जा सकता है। यहॉ आर्य भाषा परिवार की छत्तीसगढ़ी के साथ आग्नेय अथवा निषाद वर्ग की कोरकू, खरिया, खैरवारी, गदबा, शबर आदि बोलियॉं तथा द्राविड़ वर्ग की कुड़ुख, गोंड़ी, दोरली और परजी आदि भाषा रूप पारिवारिक एवं जातीय परिसर में प्रचलित हैं। इधर मंगोल अथवा किरात भाषा परिवार की बोली तिब्बती शरणार्थियों के साथ सरगुजांचल के मैनपाट में आ पहुची है। वस्तुतः छत्तीसगढ़ का भाषिक परिदृश्य वैविध्यपूर्ण है किंतु छत्तीसगढ़ी उसकी ‘लिंग्वा फ्रेंका’ है, जन प्रचलन की सर्वाधिक समर्थ भाषा है। 

उन्होंने आगे कहा कि छत्तीसगढ़ी लोकभाषा है और लोकाभिव्यंजता उसकी मूल प्रकृति है। छत्तीसगढ़ी भाषा का लोक जीवन के पालने में लालन-पालन हुआ है, उसका वाचिक परम्परा में उन्मेष हुआ है। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ी भाषा का वाचिक या मौखिक साहित्य जितना समृद्व और अभिव्यंजक है उतना उसका अभिजात्य या शिष्ट साहित्य नहीं। छत्तीसगढ़ में प्रचलित लोकोक्ति, मुहावरे और पहेलियां इस धारा की प्रयुक्त भाषा को अधिक प्रांजल बना देती है। छत्तीसगढ़ी भाषा की अभिव्यंजकता, वाचिक साहित्य के तथ्य और शिल्प दोनों पर दिखलायी देती है। उन्होंने ददरिया, देवार गीत, लोक सुभाषितों, पहेलियों, मुहावरों के उदाहरण भी दिए। 

सत्राध्यक्ष डा. शर्मा ने अपने उद्बोधन में कहा- अभिधा तथा लक्षणा अपने अर्थ का बोध कराने के बाद जब विरत हो जाती है, तब जिस शब्द शक्ति द्वारा व्यंग्यार्थ ज्ञात होता है, उसे व्यंजना शक्ति अथवा व्यापार कहते हैं। व्यंग्यार्थ के लिए ध्वन्यार्थ, सूच्यार्थ, आक्षेपार्थ, प्रतीयमानार्थ आदि शब्द भी प्रयुक्त होते हैं। अभिधा शब्द का साक्षात सांकेतिक अर्थ बतलाती है, और लक्षणा मुख्यार्थ के असिद्ध होने पर रूढ़ि के कारण अथवा किसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए मुख्यार्थ से संबंधित किसी अन्य अर्थ को लक्षित कराती है, किन्तु जब अभिधा और लक्षणा अभीष्ट अर्थ को स्पष्ट करने में असमर्थ रहती है, तो व्यंजना शक्ति का सहारा लेना पड़ता है। अभिधा और लक्षणा का संबंध केवल शब्द से होता है, किन्तु व्यंजना शब्द पर ही नहीं, वरन अर्थ पर भी आधारित रहती है। व्यंजना शक्ति के दो प्रधान भेद हैं- 1. शाब्दी व्यंजना तथा 2. आर्थी व्यंजना। शब्द पर आधारित व्यंजना अभिधामूला तथा लक्षणामूला होती है। जैसे- ‘आमा ल टोरे रे खाहौं कहिके। दगा म डारे बइहा आहौं कहिके।।‘ 

उन्होंने छत्तीसगढ़ी के पारम्परिक काव्य और गद्य में व्यंजकता को सोदाहरण स्पष्ट किया और बताया कि छत्तीसगढ़ लोकोक्ति या कहावतें या छत्तीसगढ़ी मुहावरों में व्यंजना शक्ति निहित है। छत्तीसगढ़ी भाषा में हाना, तुक और विशेष ध्वनि-ध्वन्यात्मकता के साथ चमत्कार पैदा करते हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा में मुहावरों के प्रयोग से सहज ही चमत्कार आ जाता है। 

इस सत्र में डॉ. विनय कुमार पाठक, डॉ. चितरंजन कर, डॉ. मन्नूलाल यदु, डॉ. व्यास नारायण दुबे ने भी अपने महत्वपूर्ण आलेख पढ़े और सत्र की चर्चा में डॉ. नलिनी श्रीवास्तव, डॉ. के.के. झा, श्री अनिरूद्ध नीरव, डॉ. रामनारायण शुक्ल की सहभागिता उल्लेखनीय रही। अपराह्न सत्र ‘छत्तीसगढ़ के खेल, बाल-गीत एवं व्यंजन’ पर केन्द्रित था। इस सत्र की अध्यक्षता श्री श्यामलाल चतुर्वेदी ने की और छत्तीसगढ़ के खेल, बाल-गीत पर आधार लेख श्री प्रताप ठाकुर का था। श्री ठाकुर ने अपने आलेख में कहा है कि छत्तीसगढ़ के खेलों में भी एक तरह का विभाजन है कुछ खेल पुरूष एवं बालक ही खेलते हैं तो कुछ खेलों पर बालिकाओं एवं महिलाओं का एकाधिकार है, परन्तु अधिकांश खेल ऐसे हैं जिन्हे बालक-बालिकाएं मिलजुलकर खेल सकते हैं। अधिकांश खेल वैसे तो नियमबद्ध हैं, परन्तु खेलों में संख्या की कोई बाध्यता नहीं है। कबड्डी एवं खो-खो में संख्या निर्धारित है, ये खेल ग्रामीण अंचल से उठकर राज्य एवं राष्ट्र की सीमा पार कर चुके हैं, इन खेलों को एशियाई खेलों मे शामिल किया गया है, गांवों में कबड्डी अभी भी डुडुआ के ग्रामीण नाम से खेला जाता है, अंतर केवल यह होता है कि एक तरफ का खिलाड़ी जब दूसरी ओर जाता है वह कबड्डी-कबड्डी के स्थान पर ‘‘चल डुडुआ डू-डू-डू-डू’’ कहता है। 

श्री ठाकुर के आलेख में छत्तीसगढ़ के गांवों में खेले जाने वाले खेल- डुडुआ या कबड्डी, खो-खो, चौपड़ या पासा, पचीसा, नौगोंटी-चालगोंटी या भटकौला, छेरी बाघ (शतरंज, चौपड़ की तरह का एक खेल), गिल्ली-डंडा, डंडा-पचरंगा-झाड़ बेंदरा, गेंड़ी, छुआ-छुऔव्वल भुर्री, चर्रा-चर्रा, टीप-रेस, चोर सिपाही, टामरस-धम्मक धुम्मक, सत्तुल, बिस-अमृत, नदी पहाड़, बांटी (बदाबुदी), भौंरा, कुढ़ील या आकुल-चाकुल या चिखौव्वल, नरियर फेंकऊला (हरेली पर्व के समय), सांट लुकऊला या घोड़ा बदाय छाई, पीछे देखो मार खाई, धंसऊला या गड़उला (बरसात के आसपास), खीला ठोंकउला, धम्मक-धुम्मक या धामर-धूसर, पतंग उड़ाना, खिस्सुल, चिमटुल, चेथुल, डंडा को लाउल (खरतोल), हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की- झुल्ला झूल-कदम के फूल, चूड़ी जीत-गोबर जीत, फुगड़ी-कदम्मा, पंचवा, घरगुंदिया, जतुलिया, ठेंकुलिया-धानी मुंदी, पुतरी बिहाव (अक्ती के समय), चकर बिल्लस, रस्सी कूद आदि के साथ खेल-बाल गीतों का परिचय दिया। 

छत्तीसगढ़ के व्यंजन पर आधारित लेख में डॉ. रत्नावली सिंह ने बताया कि अनेक प्रकार के उत्कृष्ट प्रजाति के धान छत्तीसगढ़ के ‘धान के कटोरा’ नाम को सार्थक करते हैं, यद्यपि गेहूं, दालें और तिलहनों का भी उत्पादन होता है, तथापि मुख्य उपज धान है। लोगों का मुख्य भोजन चावल है, यद्यपि चावल की अपेक्षा सस्ता होने के कारण आजकल गेहूं भी यहां के निवासियों के भोजन का हिस्सा बन गया है। सामान्य तथा दोनों समय भात, मिले तो दाल और कई प्रकार के शाक यहां के लोगों का मुख्य भोजन है। पहले रात के समय बचे भात में पानी डालकर, सबेरे बासी खाने का रिवाज था। खमनीकरण के कारण बासी में ऐसे तत्वों का समावेश होता था, जिससे लोग बहुत काम कर सकते थे पर अब बासी का स्थान धीरे-धीरे चाय ने ले लिया है। सबेरे नाश्ते में धुसका एवं अंगाकर खाया जाता है। धुसका, चांवल के आटे से बनता है, जिसे घी एवं चटनी, आचार के साथ खाते हैं। अंगाकर बहुत ही कम बनता है क्योंकि इसे बनाने के लिये कंडे की आग की आवश्यकता होती है। गांव में भी चूल्हे का प्रयोग तो होता है, पर जिस ‘गोरसी’ (मिट्टी से बना आग रखने का पात्र) में परंपरागत अंगाकर बनता था, वह अब बहुत कम देखने में आता है। 

छत्तीसगढ़ के अधिकांश त्यौहार कृषि आधारित होते हैं। सावन की अमावस्या, हरेली से त्यौहारों का सिलसिला शुरू होता है। फिर तो राखी-भोजली, तीजा-पोरा, पितर-नेवरात जैसे पर्व आते हैं। गॉंव की रक्षा और खुशहाली के लिये बैगा हूंम धूप देते हैं, गाय कोठा में नीम की डाल खोंचते हैं। घरों में बरा चौंसेला बनता है जिसे परिवार एवं कमिया तथा कृषि सहायकों को प्रेम से खिलाया जाता है। श्रीमती डॉ. सिंह ने छत्तीसगढ़ के व्यंजनों- चीला (सादा चीला, नूनहा चीला तथा गुरहा चीला), बबरा, बिनसा, चौंसेला, फरा, अइरसा, देहरौरी, खुरमी, पपची, कुसली, ठेठरी, करी, बूंदी, सोंहारी, बरा, भजिया, तसमई आदि पकवानों और उनसे सम्बद्ध पर्व, त्यौहारों पर प्रकाश डाला। 
छत्तीसगढ़ के व्यंजनों पर चर्चा में श्री रसिक बिहारी अवधिया व डॉ. निरूपमा शर्मा की मुख्य सहभागिता रही और खेल एवं बाल-गीत में श्री नंदकिशोर तिवारी, डॉ. निरुपमा शर्मा, श्रीमती शान्ति यदु, श्री बद्रीसिंह कटहरिया, श्रीमती मृणालिका ओझा, डॉ. अनसूया अग्रवाल, श्रीमती शकुन्तला तरार, श्री चंद्रशेखर चकोर, श्री रामकुमार वर्मा, डॉ. राजेन्द्र सोनी आदि सहभागी रहे। सत्र के पश्चात छत्तीसगढ़ी व्यंजन परोसा गया, साथ ही छत्तीसगढ़ के खेल और बाल-गीतों पर आधारित लोक-पारम्परिक शैली के सांस्कृतिक कार्यक्रम की प्रस्तुति हुई। 

24 मार्च, बुधवार को छत्तीसगढ़ की संत परंपरा पर केन्द्रित सत्र की अध्यक्षता श्री स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी ने की और आधार लेख डॉ. सत्यभामा आडिल ने पढ़ा। डॉ. आडिल ने कहा कि छत्तीसगढ़ की जनपदीय संस्कृति में ‘संत-भावना’, मानवता और लोक-कल्याण के उच्च सोपानों को स्पर्श करती है। छत्तीसगढ़ का भौगोलिक परिसीमन अपनी सांस्कृृतिक और धार्मिक विरासत के लिए, अलग पहचान बनाता है। एक ओर यहां ‘कबीर पंथ’ की धर्मदासी शाखा की ‘पीठ’ है, तो ‘सतनाम पंथ’ का उद्गम स्थल भी है। इसी माटी में रामभक्त ‘रामनामी पंथ’ का वृहद् समाज है। छत्तीसगढ़ की समूची संस्कृति मानों इन्हीं तीनों पंथों की सद्वाणी से जीवन्त बनी हुई है। यह संतों की धरती है। छत्तीसगढ़ में प्रवर्तित व स्थापित कबीरपंथ का योगदान छत्तीसगढ़ी साहित्य के संदर्भ में इसलिए भी अतिशय महत्वपूर्ण हो जाता है, कि इसी के माध्यम से हम छत्तीसगढ़ी साहित्य का प्रथम लिपिबद्ध स्वरूप प्राप्त करते हैं। उन्होंने विभिन्न पंथों- कबीर पंथ (कबिरहा), सतनाम पंथ (सतनामी), फकीरा पंथ (फकिरहा) बनजारा पंथ (बनजरहा), बैरागी पंथ, निर्गुनिया, भजनहा, रामनामी (रामनमिहा) का विवरण भी दिया। 

सत्र में सहभागी वक्ताओं श्री देवीप्रसाद वर्मा, डॉ. रमेन्द्र मिश्र, श्री परदेशीराम वर्मा, श्री विमल पाठक, श्री जागेश्वर प्रसाद, डॉ. बलदेव, डॉ. केशरीलाल वर्मा, डॉ. गंगाप्रसाद डडसेना, डॉ. रामकुमार बेहार, श्री हरिहर वैष्णव ने पौराणिक ऋषियों के उल्लेख और ऐतिहासिक सन्दर्भों के साथ महाप्रभु वल्लभाचार्य, दूधाधारी महाराज बलभद्रदास, संत सेनानी यति यतनलाल, महंत लक्ष्मीनारायण दास, गहिरा गुरू, तपस्वी संत रूक्खड़नाथ, संत प्रियादास, स्वामी आत्मानंद की चर्चा की। 

सत्रों में राज्य के विभिन्न जिलों से 200 से अधिक प्रतिभागी उपस्थित हुए, जिसमंे उल्लेखनीय हैं- डॉ. सुरेन्द्र दुबे, डॉ. कुंजबिहारी शर्मा, गिरीश पंकज, सुशील यदु, बसंत दीवान, सतीश जायसवाल, शरद वर्मा, डॉ. सोनउराम निर्मलकर, डॉ. इलीना सेन, रूपेश तिवारी, वीरेन्द्र बहादुर सिंह, डॉ. पीसीलाल यादव, काविश हैदरी, युक्ता राजश्री झा, डॉ. शिखा बेहेरा, संज्ञा टण्डन, उमा महरोत्रा, डॉ. देवेशदत्त मिश्र, खुमान साव, डॉ. पंचराम सोनी, डॉ. सुधीर शर्मा, नारायण सिंह चन्द्राकर, डॉ. शैल शर्मा, सुखनवर हुसैन, मुकुंद कौशल, अशोक सिंघई, विनोद मिश्र, डॉ. महादेव प्रसाद पाण्डेय, आलोक देव, मृगेन्द्र सिंह, कमलाकांत शुक्ला, महेश निर्मलकर, श्याम कश्यप, सुशील भोले, डॉ. सुरेश कुमार शर्मा, शीतल शर्मा, लाल रामकुमार सिंह, मंगत रवीन्द्र, सनत तिवारी, डॉ. नरेश वर्मा, दलेश्वर साहू, लक्ष्मण पाल, डॉ. ऋषिराज पाण्डेय, डॉ, रेनु सक्सेना, महेश वर्मा, नीलू मेघ, अंबर शुक्ल, सुरेन्द्र मिश्र, नरेन्द्र यादव, महावीर अग्रवाल, जमुना प्रसाद कसार, आत्माराम कोशा, डॉ. प्रभंजन शास्त्री आदि।

संगोष्ठी के लिए प्राप्त लेखों की सूची निम्नानुसार है -

0 डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा, बिलासपुर - छत्तीसगढ़ी भाषा में व्यंजना
0 डॉ. बिहारीलाल साहू, रायगढ़ - छत्तीसगढ़ी भाषा की लोकाभिव्यंजकत 
0 डॉ. विनयकुमार पाठक, बिलासपुर - छत्तीसगढ़ी भाषा की व्यंजकता
0 डॉ. चितरंजन कर, रायपुर - छत्तीसगढ़ी भाषा-व्यंजकता
0 श्री चंद्रशेखर चकोर, कांदुल, रायपुर - छत्तीसगढ़ के पारंपरिक खेल
0 श्री प्रताप ठाकुर, बिलासपुर - छत्तीसगढ़ के खेल एवं बाल-गीत
0 श्री रामकुमार वर्मा, भिलाई - मनोरंजन और अभिव्यक्ति का प्रतीक छत्तीसगढ़ी ग्रामीण व                                                   बाल खेल
0 श्रीमती शान्ति यदु, रायपुर - छत्तीसगढ़ के खेल-बाल गीत
0 श्रीमती मृणालिका ओझा, रायपुर - सामाजिक जीवन के सांस्कृतिक झरोखे ‘बाल खेल’
0 डॉ. अनसूया अग्रवाल, महासमुन्द - छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक दर्शनः खेलगीत ‘फुगड़ी’
0 श्रीमती शकुन्तला तरार, रायपुर - लोक खेलों का संवर्धन आवश्यक
0 श्रीमती निरूपमा शर्मा, रायपुर - छत्तीसगढ़ के व्यंजन
0 डॉ. रत्नावली सिंह, बिलासपुर - छत्तीसगढ़ के पकवान
0 श्री रसिक बिहारी अवधिया, रायपुर - छत्तीसगढ़ के पारंपरिक व्यंजन
0 डॉ. सत्यभामा आड़िल, रायपुर - छत्तीसगढ़ की संत परंपरा
0 डॉ. देवीप्रसाद वर्मा, रायपुर - छत्तीसगढ़ की संत परंपरा
0 आचार्य रमेन्द्र नाथ मिश्र, रायपुर - छत्तीसगढ़ की संत परंपरा
0 श्री परदेशीराम वर्मा, भिलाई - छत्तीसगढ़ की संत परंपरा
0 डॉ. रामकुमार बेहार, रायपुर - संत परम्परा- स्वामी बलभद्र दास के विशेष संदर्भ में
0 डॉ. विमल कुमार पाठक, भिलाई - संत परम्परा- गुरू घासीदास का योगदान

इस अवसर पर पुस्तिका ‘छत्तीसगढ़ी अभिव्यक्ति - 2004’ का प्रकाशन भी किया गया।