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Friday, September 30, 2022

चंद्रू-चेंदरू, केवल और मैं

चेंदरू से मेरी मुलाकात, मुझे ठीक याद नहीं, फिर भी, शायद... 1969 में 11 वर्ष की उम्र में अपने अभिभावकों के साथ मैं पहली बार बस्तर गया था। तब नारायणपुर के आगे सोनपुर में एक सप्ताह रुका था। फारेस्ट रेस्ट हाउस के बगल में रेंजर साहब का सरकारी आवास था। नाम याद नहीं, मगर युवा और नव-विवाहित रेंजर साहब जंगल की परवाह करने वाले अधिकारी के रूप में मुझे याद हैं, ‘बंगले‘ (सरकारी मुलाजिम का आवास कच्ची झोपड़ी भी हो तो बंगला ही कहलाएगा।) पर हों तो अपनी पत्नी के साथ कैरम या ताश खेलते। उन्होंने किसी दिन चेन्दरू की कहानी सुनाई और फिर उसे बुलवा कर मुलाकात कराई थी। बाद में छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद चेंदरू के परिवार-जन बेलगुर और पन्डी के साथ घुलने-मिलने का संयोग बना और उनसे चेन्दरू का किस्सा सुनने का। और अब पिछले दिनों राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के ‘बच्चों के लिए द्विभाषी संस्करण‘ के लिए अनुवाद का काम किया, जो अब ‘बस्तर का मोगली चेंदरू - बस्तर के मोगली चेंदरू‘ पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ है।

लगभग बीस बरस पहले छत्तीसगढ़ के फिल्मी ताल्लुकों की खोज-बीन करते हुए मैंने चेंदरू के बारे में जानकारी इस तरह से जुटाई थी- ‘सन 1957 में बनी अर्न सक्सडॉर्फ की स्वीडिश फिल्म के प्रदर्शन से बस्तर, गढ़ बेंगाल निवासी दस वर्षीय बालक चेन्दरू अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हुआ। फिल्म का नाम ‘एन डीजंगलसागा‘ (‘ए जंगल सागा‘ या ‘ए जंगल टेल‘ अथवा अंगरेजी शीर्षक ‘दि फ्लूट एंड दि एरो‘) था। फिल्म में संगीत पं. रविशंकर का है, उनका नाम तब उजागर हो ही रहा था। यह कान फिल्म फेस्टिवल 1958 में प्रदर्शित फिल्मों की सूची में रही है। उसी दौरान चेन्दरू और शेर के साथ उसकी दोस्ती पर किताब भी प्रकाशित हुई। सन 1998 में अधेड़ हुए चेन्दरू और इस पूरे सिलसिले को नीलिमा और प्रमोद माथुर ने अपनी फिल्म ‘जंगल ड्रीम्स‘ का विषय बनाया।‘

1998 के बाद चेंदरू और उसकी कहानी फिर चर्चा में आई, सुगबुगाहट हुई। रायपुर से प्रकाशित हाने वाले समाचार पत्र दैनिक देशबन्धु के सहयोगी अखबार ‘हाइवे चैनल‘, जगदलपुर के केवल कृष्ण जी तक इसकी धमक पहुंची और वे नारायणपुर पहुंचे। केवल याद करते हैं, इसकी खोज-खबर के दौरान वे रामसिंह ठाकुर जी से भी मिले थे। रपट में आई जानकारी का अंश मुख्यतः चेंदरू के पुत्र जैराम की बातें थीं, उसके बताए नामों को रपट में उसी तरह रखा गया है। वे यह भी याद करते हैं कि जिस सहजता से पुस्तक ‘चंद्रूः द ब्वाय एण्ड द टाईगर‘ उन्हें दिखाई गई, दी गई, पुस्तक वापसी को भी चेंदरू की मां ने उसी सहजता से लिया।

यह रपट केवल कृष्ण जी ने देशबंधु, रायपुर में आलोक पुतुल जी को भेजी, पत्र के साथ, कि ‘यह मैटर भेज रहा हूं। फोटोग्राफ्स का इंतजार करना। पार्सल से भेजूंगा। एक दुर्लभ पुस्तक भी भेजूंगा। उसे चंद्रू को वापस करना है। स्कैन करके तुरंत वापस कर देना। मैटर रुचिर भैया को जरूर जरूर जरूर जरूर दिखाना। मैटर मिलते ही फोन से सूचित करना। कैसा लगा बताना।‘ 09.01.99 को संभवतः पत्र मिलते ही पुतुल जी ने जवाब भेजा- ‘बहुत प्यारी रपट. बहुत-बहुत प्यारी! यकीन मानों, पिछले 3-4 वर्षों में पढ़ी गयी और पसंद की गयी शायद कोई रपट मेरे ध्यान में नहीं है, जिसे इसके समकक्ष मैं बता सकूं. TIME भी ऐसी रपट छापने का लोभ संवरण नहीं कर सकती. बधाई, शुभकामनाएं!'

यह सचित्र रपट अखबार के अवकाश अंक, 17 जनवरी 1999 को प्रकाशित हुई। जैसा आमतौर पर होता है, चेंदरू तो चेंदरू ही रह गया था, उसी तरह केवल कृष्ण की यह रपट भी। छत्तीसगढ़ सरकार के वन और पर्यटन विभाग, चेंदरू को मूर्ति-चित्रों में साकार करते रहे हैं, संभवतः उसके परिवार के माली हालात की ओर भी सरकार का ध्यान गया है। इधर इस रपट के आधार पर इसका उल्लेख या आधार-आभार के बिना इस्तेमाल कर, कितने ईनाम-इकराम कितनों की झोली में गए, के बजाय जरूरी लगा कि यह रपट यथा-मूल संदर्भ सार्वजनिक सहज उपलब्ध करा दी जाए। मेरी जानकारी में छत्तीसगढ़ के किसी प्लेटफार्म पर इस विस्तार और महत्व के साथ चेंदरू की दास्तान यहीं पहली बार आई थी। संकोची केवल जी मेरी जिद के लिहाज में पड़ गए और अखबार का वह पन्ना उपलब्ध करा दिया। यहां आगे वही रपट-

एक टार्जन की कहानी

बरसों पहले स्वीडन की फिल्मकार ने एक फिल्म बनाई थी। फिल्म का हीरो था ८ साल का आदिवासी बच्चा चंद्रू जो बस्तर के एक जंगली गांव में रहता था और शेर के साथ खेलता था। फिल्म सारी दुनिया में दिखाई और सराही गई। शोहरत अपने कंधों पर बिठाकर चंद्रू को स्वीडन ले गई। वह साल भर वहां रहा जहां लोग उसे देखने आते थे। फिर वह लौट आया बस्तर के उसी जंगली गांव में। अब वह है, उसका परिवार है और अतीत की वे स्मृतियां हैं। नारायणपुर के पास गढ़बेंगाल गांव में छिंद रस पीते-पिलाते, झाड़-फूंक करते अपना स्वाभाविक जीवन जी रहे चंद्रू से केवल कृष्ण ने मुलाकात की और चार दशक पुरानी उसी यादों को कुरेदा।

वह शेर था। सचमुच का शेर! जिंदा शेर!! और ८ साल का नन्हा आदिवासी बालक चंद्रू उसका दोस्त था। चंद्रू शेर के पंजा को अपने हाथों में थामकर नाचता, उसके साथ जंगल-जंगल घूमता। वह उस शेर के साथ शिकार पर जाता। उसे पत्ते के दोने में खाना खिलाता। फुर्सत में चंद्रू अपने नाखूनों से उस शेर की खाल साफ करता। जब खेलते-कूदते, नाचते-दौड़ते और शिकार करते शेर और चंद्रू थक कर लस्त-पस्त हो जाते तो वहीं जंगल में ही किसी घने पेड़ की छांव में दोनों पसर जाते।

... यह सब कुछ किसी सपने जैसा ही है। लेकिन यह सपना नहीं सच है। बिल्कुल सच! चन्द्रू आज भी बस्तर के एक छोटे से गांव में रहता है। लेकिन अब उसके साथ उसका दोस्त शेर नहीं होता। 

नारायणपुर से कोण्डागांव की ओर, करीब ५ किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव है- गढ़बेंगाल। इस गांव में जब आप चंद्रू का पता पूछेंगे तो कोई भी बता देगा कि पुलिया के उस पार चिखलीपारा में उसका घर है। डामर रोड के एक किनारे से एक पतली पगडंडी उतरती है। यही पगडंडी उबड़-खाबड़ जमीन को पार करती हुई, लकड़ी के बाड़ों वाले घरों के चक्कर काटती हुई, एक नदी तक ले जाएगी। इसी नदी के तट पर है चंद्रू का घर। दीवारें गोबर-मिट्टी से लिपी-पुती, चकाचक। हो सकता है कि जब आप यहां पहुंचे तो चंद्रू आपको घर पर न मिले। आपको पता चलेगा कि वह या तो झाड़फूंक करने गया है या फिर मजदूरी करने। या फिर गांव में ही किसी छीन पेड़ के नीचे बैठ कर किसी को छीन-रस पिला रहा होगा। चंद्रू के पांच घर पर बहुत कम टिकते हैं। आज चंद्रू बूढ़ा हो गया है, लेकिन उसका नाता जंगल से अब भी बरकरार है।

करीब चार दशक पहले स्वीडन की एक महिला ‘एस्ट्रीट‘ ने बस्तर पर एक फिल्म बनाई थी-‘टार्जन ट्रुफ‘। इस फिल्म का केन्द्रीय पात्र चंद्रू ही था। तब वह ८ साल का था। निपट आदिवासी, जंगल के गांव का ग्रामीण बच्चा। फिल्म में चंद्रू और शेर की दोस्ती को लेकर एक कहानी बुनी गई थी। शेर का नाम था तम्बू। फिल्म में शेर तम्बू और चन्द्रू साथ-साथ जंगलों में घूमते शिकार करते, नदी नालों में उबुक चुबक करते। चंद्रू इसमें एक तरह से नन्हा टार्जन ही था। दरअसल चंद्रू और तम्बू की दोस्ती की कहानी तो एक बहाना मात्र थी। फिल्म का उद्देश्य था बस्तर के आदिवासी जनजीवन को दुनिया के सामने लाना। इसीलिए फिल्म में चंद्रू के पिता, उसके दादा, उसकी मां, छोटी बहन सोनाई और आसपास के गांवों के दूसरे बहुत सारे लोग भी दिखाए गए। फिल्म की शूटिंग घोटूलों में भी की गई थी। बताते हैं कि इस फिल्म ने पूरी दुनिया में नाम कमाया। कई देशों में इसने धूम मचाई। आज भी समय समय पर यह चर्चित होती रहती है।

लेकिन चन्द्रू और उसका परिवार अपनी ख्याति से पूरी तरह अंजान है। उनका जीवन गढ़बेंगाल के किसी दूसरे ग्रामीण के जीवन से बिलकुल भिन्न नहीं। जब इन पंक्तियों का लेखक अपने साथी नरेन्द्र दुबे और अजय देशमुख के साथ गढ़बेंगाल में चंद्रू के घर पहुंचा तो उसे पता चला कि चंद्रू घर पर नहीं है। वह देवगांव गया है। देवगांव वहां से थोड़ी दूर है। किसी ने चंद्रू को झाड़ फूंक के लिए बुलाया था। घर पर चंद्रू का छोटा बेटा जैराम और दूसरे लोग मिले। जैराम नवमीं में पढ़ता है। पढ़ा-लिखा होने के बावजूद वह बिलकुल चंद्रू जैसा ही है। सीधा-साधा, शर्मिला और जंगल से जुड़ा हुआ। जैराम को मालूम है कि उसके पिता पर फिल्म बनी है, लेकिन उस फिल्म का नाम क्या था और उसे किसने बनाया, उसे नहीं पता। जैराम ने यह फिल्म खुद भी देखी है। वह बताया है वह कि सन १९९६ में दिल्ली से कोई प्रताप नाम का आदमी उसके पिता (चंद्रू) को ढूंढता हुआ गढ़बेंगाल पहुंचा था। वह अपने साथ चंद्रू पर बनी फिल्म ‘टार्जन ट्रुफ‘ भी लाया था। उसी ने गांव वालों को यह फिल्म दिखाई थी। दरअसल प्रताप खुद भी चंद्रू पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाना चाहते थे। उन्होंने इस डाक्यूमेंट्री फिल्म की शूटिंग रावघाट के उन्हीं इलाकों में की, जहां पर ४ दशक पहले ‘टार्जन ट्रुफ‘ बनी थी। जैराम बताता है कि प्रताप की इस फिल्म में उसने भी अपने पिता के साथ काम किया है।

जैराम अचानक बातें करता करता उठकर घर की एक अंधेरी खोली में घुस गया। वहां से टीन की संदुकची खोलने जैसी आवाज सुनाई पड़ी। जब वह बाहर आया तो उसके हाथ में एक रंगीन किताब थी। किताब का नाम था ‘चंद्रूः द ब्याव एण्ड द टाईगर‘। लेखक के नाम की जगह लिखा था- एस्ट्रीड बरगमैन सक्सड्रोफ, इंग्लिश वर्सन बाई वीलियम सेनसोम। प्रकाशन स्थल की जगह लिखा था कोलिन्स, सेंट जेम्स लंदन, १९६०। यह पुस्तक लेखिका एस्ट्रीड ने १९८५ में चंद्रू के लिए भेजी थी। 

पुस्तक इन शब्दों के साथ शुरू होती है- ‘‘सुदूर भारत के हृदयस्थल मध्यभारत के घने जंगलों के बीच स्थित है एक गांव, नाम है गढ़बंगाल। यहां के रहवासियों को मुरिया नाम दिया गया है। मुरियाओं का विश्वास है कि उनका बहुरंगी गांव दुनिया के किसी भी स्थान से अधिक खूबसूरत है। अपने आप में संतुष्ट उनके जीवन में हंसी खुशी है और गीतों की मधुर तान पर थिरकता है उनका जीवन।‘‘

... पुस्तक में बताया गया है कि चंद्रू एक जवान लड़का है। वह चालाक और सधा शिकारी भी है।:‘गुलेल‘ से वह ३० कदम की दूरी से चिड़िया पर निशाना साध सकता है। दूसरों की अपेक्षा वह अधिक तेजी से पेड़ों पर चढ़ सकता है। वह एक अच्छा गायक और नर्तक भी है। उसके बाल लम्बे और काले हैं। आंखें भूरी। कंधा मजबूत। हंसते ही सफेद दांत झक्क से दिखते हैं। ...वह एक दोपहर थी, जब चंद्रू एक नदी के किनारे बांस की खपच्ची लिए बैठा था। अचानक उसने बंदरों के चिल्लाने चीखने का शोर सुना। माजरा समझते उसे देर न लगी। बिना देर किए वह एक पेड़ पर चढ़ गया। ... वहाँ झुरमुटों में कुछ हलचल हुई। और तभी सोने की तरह चमक वाला एक शेर का सिर नजर आया। शेर झुरमुट से निकलकर दबे पांव वापस जंगल के भीतर चला गया। उस दिन चंद्रू ने जाना कि पूरे जंगल में, पूरे भारत में, और सभी जंगली जानवरों में सबसे खूबसूरत शेर ही है।

चंद्रू वहीं नदी के किनारे डेरा डालकर बैठ गया। ...और एक दिन चंद्रू एक शेर के बच्चे को लेकर घर आया। ... पुस्तक में चंद्रू की दिनचर्या के बारे में और भी बहुत कुछ है- यह कि वह अपने कपड़े खुद साफ करता है। वह अपनी मां के लिए जंगल से जला काट कर लाता है। उसे जानवरों से बहुत प्यार है। आदि।

पुस्तक ‘चंद्रूः द ब्वाय एण्ड द टाईगर‘ अब चंद्रू के परिवार में पीढ़ियों के लिए एक धरोहर है। यही एक मात्र सबूत भी कि चंद्रू ने दुनिया में कितना नाम कमाया है। जब चंद्रू की पीढ़ी घमंड करना सीख जाएगी, तब शायद उसे सबसे पहले इसी पुस्तक पर घमंड होगा। लेकिन अभी ऐसा कुछ नहीं है। चंद्रू का बेटा जैराम चंद्रू जैसा ही सहज है। चंद्रू अपने बच्चों को न तो अतीत के बारे में ज्यादा कुछ बताता है और न फिल्म के बारे में। जैराम बताता है कि उसके पिता ने रावघाट के जंगलों में एक शेर का बच्चा पाया था। वह उसे साथ लेकर घर आ गए थे और उसी के साथ खेलते थे। जैराम ज्यादा कुछ नहीं जानता।

दूसरे दिन सुबह लेखक जब फिर चंद्रू के घर पहुंचा तब भी यह घर पर नहीं था। जैराम भी उसकी तलाश में निकला था थोड़ी देर की प्रतीक्षा के बाद जैराम वापस लौटा तो उसके पीछे-पीछे चंद्रू था। बूढ़ा चंद्रू घुटनों से नीचे तक बांधी गई लुंगी, साधारण सा कुर्ता, कंधे पर दुपट्टे की तरह ओढ़ी गई एक और लुंगी। उसके बाल वैसे ही काले और लम्बे हैं। लेकिन शरीर बूढ़ा हो गया है। यकीन करना मुश्किल था कि यही वह चंद्रू है।

चंद्रू ने बताया कि उसे फिल्म की शूटिंग के दौरान २ रुपए की रोजी मिलती थी। वह बताता है कि फिल्म वालों ने उसे प्रशिक्षण दिया था। फिल्म वाले जैसा-जैसा कहते जाते चंद्रू वैसा-वैसा कैमरे के आगे करता जाता। फिल्म कब रिलीज हुई उसे नहीं मालूम। एक दिन अचानक उसका स्वीडन से बुलावा आया। चंद्रू स्वीडन पहुंचा और वहां करीब १ साल तक रहा। वह बताता है कि लोग वहां उसे देखने आते थे। स्वीडन के लोग चंद्रू को बहुत पसंद आए। उनकी चमड़ी का गोरा रंग भी उसे भा गया। चंद्रू बताता है कि शूटिंग के समय शेर फिल्म वाले अपने साथ लेकर आए थे। उनके पास २ शेर थे। एक बड़ा और दूसरा बच्चा। बड़े शेर को शूटिंग पूरी होने के बाद फिल्म वालों ने मार डाला। बच्चे को वे साथ ले गए। चंद्रू और ज्यादा कुछ नहीं बताता। ... वह आग्रह करता है कि लेखक और उसके साथी उसके साथ छिंद-रस पिए। फिर कहता है कि उसके छिंद का रस मीठा नहीं है, वह उन्हें किसी दूसरे ग्रामीण के छिंद पेड़ की ओर ले जाएगा। ....

चंद्रू के लिए गांव, जंगल और छिन्द-रस से बढ़कर शायद कुछ नहीं। शोहरत भी नहीं। इसीलिए तो वह बिना बिजली वाले घर के अंधेरे में भी खुश है। वह जिस पारे में रहता है, उस पारे में आज तक बिजली नहीं पहुंची।

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