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Tuesday, September 13, 2022

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अपने लिखे में अच्छे का निर्णय और चयन पाठकों पर छोड़ना चाहिए मगर बुरे का फैसला करने के के लिए खुद को पहल करने से नहीं हिचकना चाहिए, ऐसा मानते हुए मेरा लिखा यह एक निरस्त किए जाने लायक। फिर भी इसे क्यों संभाले रखा है और यहां प्रस्तुत कर रहा हूं! सोचते हुए ध्यान आता है कि उस दौर में मुक्तिबोध के वैचारिक गद्य को पढ़ते चकराया हुआ था। बहुत सारी बातें उल-जलूल और दिमागी गुहान्धकार वाली लगती थीं। ऐसा लगा कि विचार-क्रम में जो भी अभिव्यक्त हो, वही शायद अधिक ईमानदार होता है, इसलिए ...

‘बिम्ब‘ परिवार के सचिव नवल जायसवाल, जिनकी तस्वीरों और लेखनी से मेरा परिचय रहा है, ‘परस्पर‘ का सम्पादन एवं आकल्पन किया था। लेख उन्होंने मंगाया था, संभवतः इसीलिए छापा, बल्कि प्रशंसा भी की, यह उनकी उदारता। इस प्रकाशन के लिए मेरे द्वारा लिखा लेख यहां प्रस्तुत-


पहचान की भूमिका

प्रतिरूपण, सदैव सृजनधर्मी होता है। विषय वस्तु की केंद्रीय स्थिति, माध्यम की भिन्नता और दृष्टिकोण से विविधता उत्पन्न होती है। वह अपने मूल भाव का खास, दिमागी आईने से गुजरा प्रतिबिंब होता है। विषयवस्तु वह मूल है जो तार्किक भाव को जन्म देकर आध्यात्मिक निराकार को संवेदन के लिए छोड़ देती है। कल्पना के स्रोत की खोज कर क्षितिज के परे जाने की ज्ञानवस्तु ही प्रतिरूपण का मूर्त रूप है। मानव मन की अभिव्यक्तियों के तरीकों में से एक है छायाचित्र और छायाचित्रों के बारे में सोचते हुए एक विशिष्ट व्यवहार वाक्य ध्यान में आता है कि किसी प्राकृतिक दृश्य या भौतिक दृश्य की प्रशंसा में उसे चित्र जैसा सुंदर कहा जाता है और किसी चित्र की प्रशंसा उसे सजीव जैसा सुंदर कह कर की जाती है। मानव मन में उत्पन्न भाव का वह व्यक्ति स्वयं स्वागत करता है और इसे ही सुखद मानता है, मनोविनोद की परिधि में आता है। मनोविनोद भी प्रतिरूपण का आरंभ मान सकते हैं। मनोविनोद और प्रशंसा एक ही भाव के दो पहलू हैं।

यह खास बिंदु शायद सिर्फ अधिकतम यथावत प्रतिरूपण से जुड़ा होता है और प्रतिरूपण में सृजन का आयाम जुड़कर उसे कला का दर्जा व प्रतिष्ठा देता है। चित्र हो या छायाचित्र दोनों में कला संपन्नता का अस्तित्व अनिवार्य है। छायाकला आधुनिक तकनीक से ओतप्रोत विकास के सौर मंडल से बाहर जाती हुई विधा है।

पुरातत्व विभाग में अन्य अध्ययन क्षेत्रों की भांति प्रलेखन विवरण वर्गीकरण और व्याख्या पृथक-पृथक महत्वपूर्ण खंड है, किंतु प्रलेखन की दृष्टि से छायाचित्र उनका महत्व सर्वाधिक है। यथासंभव अधिकतम प्रतिरूपण और उनका संयोजन पुनः वर्गीकरण कर ही अध्ययन की दिशा और निष्कर्ष में निर्धारित होते हैं। पुरातात्विक अध्ययन में सहायक सामग्री के रूप में छायाचित्रण का इस दृष्टि से भी विशिष्ट स्थान है कि प्रतिमाएं, विशेषकर, जो स्वयं भी मानवीय आकारों, प्रकृति का प्रतिरूपण है उन्हें भिन्न माध्यम अर्थात कैमरे से पुनः प्रतिरूपित किया जाता है किंतु यहां सृजन की संभावना अत्यंत होती है क्योंकि प्रलेखन की दृष्टि से किए गए छायाचित्रण में वस्तुगत गुणों का होना आवश्यक होता है। प्रलेखन की सीमा निश्चित नहीं की जा सकती है किंतु छाया कला का अंश इस प्रकार प्रतिरोपित हो कि वह उवाच की दशा हस्तगत कर ले क्योंकि सौंदर्यात्मक क्रिया बोलने की क्रिया है। भाव-प्रधान प्रलेखन अपना स्थायी बोध प्रदर्शित करते हैं।

पुरातत्वविद बन जाने से अधिक सौभाग्यशाली अवसर मुझे अंचल के पुरातात्विक स्थलों पर कार्यकर्ता बनकर रहने का मिला। ये स्थल अधिकतर अंदरूनी जंगली क्षेत्रों में हैं। इस संदर्भ में एक उल्लेखनीय विचार बिंदु मुझे अनायास प्राप्त हुआ। खुदाई आदि से प्राप्त मूर्तियों के छायाचित्र का काम पूरा हो जाने पर हमने उन स्थलों के कामगारों को दिखाया और आश्चर्यजनक ढंग से उन्होंने अपने गांव की खुद साफ कर निकाली गई मूर्तियों को नहीं पहचाना। मुझे इससे उनके जागरूक और चेतना का स्तर समझकर अत्यधिक निराशा हुई, किंतु यह विचार बिंदु तब बन गया जब उनमें से कुछ लोग अपने साथियों की तस्वीरें भी नहीं पहचान सके, तब मुझे अनुमान हुआ कि संभवतः हम अपनी दृष्टि का विकास व संकोच जिस आसानी से आयामों में कर सकते हैं वह करने का उन्हें अभ्यास नहीं होता। वे उस मांसल और जीवंत गहराई के बिना, जिसमें स्पंदन होता है, उसे पहचान कर स्वीकार करने में कठिनाई महसूस करते हैं। रंग, प्रकाश और आयामों की शास्त्रीय भाषा को पढ़ने का चरित्र वे विकसित नहीं कर पाए हैं। इस दुर्गम पथ का मार्ग प्रशस्त करने में छायाचित्र सहायक हो सकते हैं लेकिन इस दिशा में प्रयास आवश्यक है हमें अपनी संवेदना के धरातल का मानचित्र तैयार करना होगा और उस मानचित्र पर उन कामगारों के अनुभव और अनुभूति को दर्ज करना पड़ेगा। सफलता को एक विशेष दृष्टि का नाम दे सकते हैं।

मैं जब भी अनुभव करता हूं और अतीत में मैंने जो अनुभव किया था या भिन्न भिन्न परिस्थितियों में जो अनुभव करने की मुझे आशा है यदि मैं इनके बीच के संबंध पर बल देता हूं तो मेरा बल देना केवल अनुभव करने पर ही आधारित रहेगा किंतु यह सब आवश्यक प्रक्रिया का पार्श्व है।

गवाहों के संदर्भ में लिखे जा रहे इस लेख का मूल दायित्व यह है कि पुरातत्व से छायाचित्र कितने करीब है यह जाना जा सकता है और इसकी आवश्यकता को महत्व दिया जाना है, माना जाना चाहिए। जहां शब्द समाप्त हो जाते हैं वहां से छायाचित्र का प्रतिरूपण पहलू आरंभ होता है। संभवतः श्रव्य और दृश्य के सामंजस्य को दृष्टि में रखकर ही पुरातत्व सामग्री की समिधा बटोरी गई होगी। यह और भी प्रासंगिक हो जाता है कि छायाचित्र अपनी आवश्यकता दर्ज करने लगे हैं। अब इस बात को भी रेखांकित करना चाहिए कि पुरातत्व से संबंधित छायाचित्र एक साधारण छायाचित्र न हो, बल्कि छाया के उत्कृष्ट नमूने बने।

वस्तुगत छायाचित्रण का कार्य दिन-ब-दिन विकसित तकनीक के उपकरणों के उत्तरोत्तर बेहतर होता जा रहा है लेकिन यह बेहतरी आयाम-सीमा की कमी पूरी नहीं कर सकती। इस कमी को पूरी करने में मांसलता विषयगत छायाचित्रण में दृष्टिकोण की विशेषता से लगभग पूरी हो जाती है। यह गंभीर उद्देश्य संवेदना की आत्मीय दृष्टि से सहज संभव हो सकता है। मुझे चीजें साफ साफ नजर आ रही हैं की छाया कला का समस्त परिवार पुरातत्व के सर्वांगों को दृश्य की संपूर्णता के साथ क्षितिज तक ले जाने में समर्थ है अतः इस नवीनतम तकनीक और कला का भरपूर उपयोग करे।

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