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Saturday, July 30, 2022

हरेली-रोहिणी

श्री रोहिणी कुमार वाजपेयी स्मृति व्याख्यान माला के दूसरे वर्ष ‘छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता आंदोलन और नवजागरण‘ विषय पर अटल बिहारी बाजपेयी विश्वविद्यालय द्वारा दिनांक 28 जुलाई 2022 को बिलासपुर में आयोजित कार्यक्रम में अपनी कही गई बातें, स्मृति के आधार पर आंशिक स्पष्टीकरण सहित यथासंभव यथावत यहां प्रस्तुत-

(औपचारिक संबोधन- आयोजन, अतिथियों का उल्लेख, अभिवादन और आभार)


यह अच्छा संयोग बना है कि आज हरेली के दिन हम आदरणीय रोहिणी कुमार वाजपेयी जी की स्मृति में यहां एकत्र हुए हैं। हरियाली का त्यौहार कृषि कर्म का, कृषक जीवन और कृषि संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है और जैसा विवेक जी कह रहे थे रोहिणी कुमार जी मूलतः कृषक स्वभाव के थे। वे कृषि के माध्यम से ग्रामीण जन-जीवन, स्वावलंबन और खादी तक भी पहुंचते थे। ऐसे ही कुछ और संयोग याद आ रहे हैं।

उनके नाम के साथ यह विचार रोचक और प्रासंगिक हो सकता है कि रोहिणी को हम दो प्रकार से याद करते हैं- रोहिणी, जो 28 नक्षत्रों में से चौथा नक्षत्र है और रोहिणी, जो बलराम की माता हैं, वसुदेव की पत्नी। बलराम का एक नाम संकर्षण भी है। अब इन दोनों पर थोड़ा विचार करें। बलराम हलधर हैं और यह प्रतीक है कृषि कार्य का। वास्तव में बलराम को कृषि से जुड़ा, कृषक संस्कृति का देवता माना जा सकता है दूसरा, संकर्षण नाम उनका इसलिए आता है, क्योंकि कथा है कि वह जब भ्रूण रूप में थे, देवकी के गर्भ से उन्हें रोहिणी के गर्भ में प्रतिस्थापित किया गया था तो इसे यूं उन्नत विज्ञान का उदाहरण मान लेना मैं उचित नहीं समझता, लेकिन यह जरूर माना जा सकता है कि गर्भ प्रतिस्थापन की अवधारणा या सोच का बीज, बलराम के साथ जुड़ा हुआ है, मगर यह भी संभव है कि यह रोपाई का प्रतीक हो। इसी प्रकार उल्लेख आता है कि बलराम ने मथुरा के पास यमुना के प्रवाह को बलपूर्वक मोड़ दिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि यह यमुना के पानी से सिंचाई, नहर-व्यवस्था बनाने की प्रतीक रूप में कथा है।

बलराम का चित्रण एक और रूप में किया जाता है, उन्हें मदिरा-पात्र लिए, चषकधारी दिखाया जाता है, उन्हें मदिरा-प्रेमी बताया गया है किंतु इसके साथ यह उल्लेख बहुत कम होता है, इसकी चर्चा कम होती है कि संभवतः वही पहले ऐसे शासक थे, महाभारत के मौसल पर्व में उल्लेख आता है, जिन्होंने अपने राज्य द्वारकापुरी में मद्य-निषेधाज्ञा जारी की थी यह बहुत महत्वपूर्ण और बलराम के चरित्र का एक उल्लेखनीय पक्ष है। वैदिक, पौराणिक, महाकाव्य ग्रंथ और उसमें जो प्रसंग आते हैं, जिन पात्रों की कथा आती है उन पात्रों की कथा बहुत सूक्ष्म और संकेत रूप में, प्रतीक रूप में बहुत सारी अवधारणाओं को साथ लिए होती है, इसलिए उन्हें समझने का प्रयास व्यापक संदर्भों और परिप्रेक्ष्य में करना आवश्यक होता है, उनकी व्याख्या वांछित होती है। इस संदर्भ में इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट कराना चाहूंगा कि बलराम की एक सौतेली माता का नाम भी मदिरा था, एक यह पक्ष भी चर्चा योग्य है।

रोहिणी नक्षत्र का काल सामान्यतः मई के अंतिम और जून के प्रथम सप्ताह का होता है और आप सभी जानते हैं कि मई का अंतिम सप्ताह भीषण ताप का, नौतपा का होता है। आप यह भी समझ सकते हैं जो रोहिणी कुमार जी के व्यक्तित्व से परिचित हैं कि यह उल्लेख क्यों कर रहा हूं। अगर कोई ऐसी स्थिति हो जो उन्हें अनुचित लगती हो, अप्रसन्न हों तो वे नौतपा की तरह तमतमा जाते थे, अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे लेकिन उसके बाद उनके व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष, नौतपा बीतते ही स्नेह की बारिश जैसा भी उतनी ही जल्दी और उतनी ही उदारता से सामने आता था।

एक संयोग यह कि आज का अवसर मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से भी पितृ पुरुषों के स्मरण का है। मेरे पिता और रोहिणी कुमार जी सहपाठी रहे हैं। मेरे पिता और रोहिणी कुमार जी के अन्य सहपाठी सीएमडी कॉलेज के दुबे परिवार वाले राजाबाबू दुबे जी थे, जब भी मिलते सांसारिक आडंबर और हकीकत का रूप बेनकाब करते। टिकरापारा वाले व्यंकटेश तेलंग जी, जिन्होंने छत्तीसगढ़ में यूथ हॉस्टल एसोसिएशन आरंभ किया, बापट जी वाले सोंठी कुष्ठ आश्रम में सेवाएं देते रहे। इसके साथ डॉ शंकर तिवारी जो प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता रहे हैं, कुटुमसर गुफा की खोज उन्होंने की थी। पुरातत्व के क्षेत्र में भीमबेटका का ‘एस बेल्ट‘ खोजा और प्राचीन सिक्कों, लिपि के भी अच्छे जानकार थे। वे मध्यप्रदेश पर्यटन मंडल के पहले अध्यक्ष रहे और तब छत्तीसगढ़ समाहित मध्यप्रदेश का पर्यटन नक्शा पहली बार उन्हीं के कार्यकाल में बना था। आप सभी से मुझे पुत्रवत स्नेह मिलता रहा है। तो इन सभी गुरुतुल्य पितृ पुरुषों को याद करते हुए एक और संयोग का उल्लेख करना चाहता हूं कि रोहिणी कुमार जी के ज्येष्ठ पुत्र जो मेरे हमनाम भी हैं राहुल और व्यंकटेश तेलंग जी की पुत्री शुभदा, जो अब शुभदा जोगलेकर, माउंट लिटेरा जी स्कूल की कर्ता-धर्ता हैं, 1974-75 में एसबीआर कॉलेज में, हम तीनों भी सहपाठी रहे हैं।

प्राचीन इतिहास और पुरातत्व के क्षेत्र में रोहिणी कुमार जी की गहरी पैठ थी। इस क्षेत्र में उनकी रुचि आत्म गौरव को उजागर करने वाली और प्रेरणा देने वाली थी। उनकी रुचि का विशेष कालखंड वही है जो भारत के इतिहास में अंधकार युग कहा जाता है यानी ईसा पूर्व और ईसा की दो-दो सदियां, इस तरह जो लगभग चार-पांच सौ वर्षों का काल है, वह काल भारत के इतिहास का अंधकार युग माना जाता है। उनकी रुचि इस कालखंड के इतिहास में विशेष रूप से थी। साथ ही पुरातत्व के अनछुए पहलुओं पर उनका ध्यान केंद्रित रहता था। मैं मानता हूं कि जिस तरह से किसी नई वस्तु का, भविष्य का, उस में प्रवेश करने का रोमांच और जिज्ञासा होती है उसी तरह उनमें भूत का, अनजान इतिहास के अंधकार में प्रवेश का साहसिक उत्साह होता था। अपने इतिहास में प्रवेश का उद्यम, दरअसल एक साहसी व्यक्ति का ही होता है जो एक अनजाने क्षेत्र में, अंधकार के क्षेत्र में, भूत के क्षेत्र में प्रवेश कर, उसे भेदना चाहता है और उसके रोमांच को महसूस करता है।

छत्तीसगढ़ के मिट्टी की दीवाल और खाई यानि प्राकार-परिखा वाले गढ़ों में भी उनकी खासी रूचि रही। कभी उन्होंने रहौद में गढ़ होने की बात बताई थी, मुझे इसका बिल्कुल भी अनुमान नहीं था इसलिए मैंने संदेह व्यक्त किया तो उनकी कही बात अब भी मेरे कानों में गूंजती है, ‘वहां जब कभी जाओ तो देखना वहां ठुठुआ देवांगन का मकान है उसके आंगन और उसकी बाड़ी को देखना वहां किस तरह का टीला, कैसा माउंड है और उसकी बाड़ी के अंदर आगे बढ़ोगे तो तुम्हें वहां ढेर सारे पुराने मिट्टी के बर्तन और अवशेष यों ही देखने को मिलेंगे।‘ वहां जाने का अवसर मिला और तब मैंने देखा कि पामगढ़ के तो नाम में ही गढ़ है, वहां के गढ़ को सभी जानते भी हैं, लेकिन रहौद और उसके अलावा पामगढ़ से शिवरीनारायण तक हर पांच-सात किलोमीटर इस तरह के गढ़ और खाई के अवशेष अभी भी हैं। यह उन्हीं की प्रेरणा थी जिसके कारण यह इस तरह से देखने का, इसे समझने का अवसर मिला। पुरातत्वीय अन्वेषण की ऐसी दृष्टि, कुछ संस्कार मुझे उनसे मिले।

मल्हार के गढ़ में भी उनकी विशेष रूचि थी और यह रुचि मुख्यतः मल्हार से प्राप्त होने वाले प्राचीन सिक्कों और शिलालेख के कारण थी। मल्हार से प्राप्त होने वाले पुरावशेषों के प्रति वे ग्रामवासियों को तो जागरूक करते ही रहते थे, स्वयं सजग रहते थे। इसी क्रम में 1980 में एक शिलालेख मल्हार से प्राप्त हुआ था, जिसे बिलासपुर में पदस्थ तत्कालीन पुरातत्व अधिकारी श्री रिसबुड ने उनके सहयोग से बिलासपुर संग्रहालय के लिए संग्रहित किया। अब वह शिलालेख बिलासपुर संग्रहालय में प्रदर्शित है। यह महत्वपूर्ण शिलालेख, लगभग दूसरी शताब्दी ईस्वी का है। इस शिलालेख का अध्ययन और प्रकाशन पुरातत्वविदों द्वारा किया गया। यह स्मृति-लेख है, जिसमें राधिक, उपझाय, इसिनाग जैसे शब्द पढ़े गए। उसके पाठ और अनुवाद को लेकर आपने अपना मतभेद प्रकट किया। वे पुरातत्व के क्षेत्र में भाषा, यानी यह शिलालेख जो प्राकृत में था और जिसकी लिपि ब्राह्मी थी, तो वे प्राचीन लिपि और प्राचीन भाषा के भी जानकार थे और इसकी पुनर्व्याख्या करते हुए अपनी टिप्पणी की थी। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया था कि मूल पुरावशेष के स्वयं परीक्षण या उसका बारीक, स्पष्ट और विस्तृत विवरण अध्ययन के लिए आवश्यक होता है।

इसी तरह मल्हार से जो विभिन्न सिक्के प्राप्त होते थे बड़ी संख्या में उनका उन्होंने परीक्षण किया था। ऐसे तांबे के चौकोर सिक्के, देवी-लक्ष्मी और गज प्रकार के रूप में जाने जाते हैं। ऐसे और इससे मिलते-जुलते सिक्के बड़ी मात्रा में मिले जिनका उन्होंने परीक्षण किया। ऐसे सिक्कों पर सामान्यतः लिपि या किसी तरह का लेख नहीं होता लेकिन उन्हें परीक्षण के दौरान यह स्पष्ट हुआ कि इनमें ऐसे भी सिक्के हैं, जिन पर लेख, कुछ ब्राह्मी के अक्षर अंकित हैं। इससे इतिहास का एक महत्वपूर्ण पक्ष उजागर होने का रास्ता बना। तब तक पुराणों के माध्यम से जानकारी थी कि मघ वंश के शासकों का इस क्षेत्र में, दक्षिण कोसल में राज्य था लेकिन इस पौराणिक साहित्यिक स्रोत के अलावा इसकी पुष्टि के लिए और कोई सामग्री नहीं मिली थी। इन सिक्कों की प्राप्ति से पुरातात्विक स्रोत के रूप में ऐसी सामग्री प्राप्त हुई जिन पर मघ वंश के विभिन्न शासकों के नाम पढ़े गए। इससे यह पुष्ट रूप से प्रमाणित हुआ कि ईसा की आरंभिक सदी में, दक्षिण कोसल क्षेत्र में मघों का आधिपत्य या प्रभाव रहा था यह एक महत्वपूर्ण पृष्ठ इतिहास में जुड़ा।

वे किसी बेहद सजग इतिहासकार की तरह, परंपरा से, प्राचीन वस्तुओं, पुरावशेषों से, साहित्य से, सभी स्रोतों से कण-कण जानकारियां एकत्र करने के लिए उत्सुक और प्रयत्नशील रहते थे और इन सभी कड़ियों को आपस में जोड़कर इस अंचल के माध्यम से पूरे भारतीय इतिहास के उन पक्षों को उद्घाटित और प्रकाशित करना चाहते थे जो हमारे आत्म गौरव का विषय हो सकता है हमारे लिए प्रेरक हो सकता है। और इस तरह के जागरण का सार्थक प्रयास उन्होंने किया था।

अपनी बात कहते हुए मुझे यह ध्यान में बराबर है कि आज डॉक्टर त्रिवेदी जी का वक्तव्य है, वे इस आयोजन के मुख्य वक्ता हैं, नवजागरण के दौर की चर्चा करने वाले हैं। डॉक्टर त्रिवेदी के उद्बोधन के प्रति सदैव उत्सुकता रहती है, उसी उत्सुकता सहित निवेदन कि व्यक्ति अपने अवदान से अमर होता है और प्रासंगिकता उसके विचार, उससे मिले संस्कार, उस परंपरा की होती है, जिस दृष्टि से रोहिणी कुमार जी की प्रासंगिकता सर्वकालिक है, उनके साथ तालमेल बिठाते देखना होगा कि हम उनके विचारों के परिप्रेक्ष्य में कितने प्रासंगिक हैं।

आप सभी को, अटल बिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय और माननीय कुलपति जी, आयोजकों को धन्यवाद देता हूं कि मुझे आप सबके बीच उपस्थित हो कर, आदरणीय रोहिणी कुमार जी के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करने का अवसर दिया, पुनः धन्यवाद।

Tuesday, July 26, 2022

नदी गोठ

‘जीवन देवइया छत्तीसगढ़ के नदिया‘ शीर्षक वार्ता, ‘मोर भुंइया‘ आकाशवाणी, रायपुर का कार्यक्रम, जिसकी प्रस्तुति श्याम वर्मा जी की तथा भाग लिया डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर, डॉ. लक्ष्मी शंकर निगम और राहुल कुमार सिंह ने। प्रथम प्रसारण तिथि- 17 जनवरी 2012.
डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर,राहुल कुमार सिंह और डॉ. लक्ष्मी शंकर निगम
यह वार्ता आकाशवाणी से समय-समय पर दुहरा कर प्रसारित होती रही है और जब भी प्रसारित होती है, पसंद करते किसी परिचित का फोन आता है। ठाकुर सर और निगम सर के साथ बैठना और बात करना, मेरे लिए तो तीर्थ-लाभ जैसा ही है। व्यापक विषय ‘समय-सीमा‘ में, इसलिए आधी-अधूरी सी लग सकती हैं। यह ध्वन्यांकित वार्ता मामूली सुधार कर बातचीत की ही तरह यहां प्रस्तुत-

सिंह- गोठ-बात बर हमन इहां जुरे हन, डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर साहब हें, पुरातत्व क्षेत्र के अउ छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ अध्येता आयं, काफी इन सर्वेक्षण करे हावयं, चप्पा चप्पा छत्तीसगढ़ के देखे हुए हे आपके और डॉ. लक्ष्मी शंकर निगम साहब हें, आप पुरातत्व अउ विशेषकर पुरातत्व के ऐतिहासिक भूगोल के क्षेत्र म, दक्षिण कोसल के ऐतिहासिक भूगोल हे, ते कर संबंध म आप शोध करे हें। छत्तीसगढ़ कई क्षेत्र म जाए के आपो ल काफी मौका मिले हे अउ मैं राहुल कुमार सिंह, महूं पुरातत्व के विद्यार्थी रहें और ओ कर बाद अपन काम काज के दौरान मो ल बस्तर से ले के सरगुजा तक पूरा उत्तर-दक्षिण, रायगढ़ से ले के राजनांदगांव तक, अलग अलग काम से क्षेत्र म जाए आए बर मिलिस, नदिया नाहकन, नंदिया के संग-संग चलत रहेन, नदिया के उद्गम संगम ल देखत रहेन, ओइ सब चर्चा बर हमन बइठे हन। ठाकुर साहब लगातार ए क्षेत्र ल देखत रहे हें, जीवन देवइया नदिया मन के बारे म ठाकुर साहब से हम कुुछ सुनना चाहबो, जानना चाहबो

श्री ठाकुर- राहुल जी, आजकल एक ठक कहावत निकले हे ‘जल ही जीवन है‘ और ए हर प्रशासकीय स्तर से प्रचारित करे जात हे। जल देथे कोन हर, आसमान हर देथे, फेर हम पाथन कहां, बोहावत-बोहावत जउन नदिया नरवा म पानी आवत रथे तउने ल हम हर पाथन, देखथन, अउ तइहा जुग में आदमी हर अपन बसेरा नदिया के तीर में, पानी के तीर में बनावय, एकरे सेतिर पूरा भारत में हम देखबो त का बर, देखथन हमर सभ्यता हर एक साल, दू साल, तीन साल, दस साल, हजार साल, नदिया के तीर म बसे हे। परंपरा हमार जीवित हे उहां, नदिया में, तओ छत्तीसगढ़ के घलो हमर ओइ हालत हे ओइसनहे, यहां के सबले बड़े नदिया जउन ह सब नदिया मन ल बटोरत बटोरत बोहावत आथे अउ समुद्र म जा के मिल जाथे ओ महानदी ए। कांकेर से सिहावा तक एक पहाड़ी ए जउन ल राजीवनयन महातम्य जे प्रकाशित होए हे ते म कंक कहे हे अउ श्रीमदभागवत म भी ए नाम हे कंक, कंक पर्वत से निकले के सेती ए कर नाम हे कंकनंदिनी

सिंह- ए ल चित्रोत्पला गंगा के भी नाम दिए जाथे, महानदी ल

श्री ठाकुर- हं, महानदी ल चित्रोत्पला गंगा भी कहे जाथे, बिलकुल आप सही कहत हौ, चित्रोत्पला, नीलोत्पला, उत्पल याने कमल। तओ जउन राजिम नयन हे, राजिम हे वो कमल क्षेत्र में हे, कमल क्षेत्र कहलाथे, का बर, ओही मेर महानदी हर चित्रोत्पला हे, सिरपुर म आ के बिचारी हर महानदी ए।

सिंह- निगम सर से चर्चा करत हन के हमर चित्रोत्पला गंगा तो हमर महानदी ए, जे समुद्र म जाथे अउ गंगा नदी, एक मैदानी भाग म जे ग्लेशियर के नदी होथे, पहाड़ी नदी, बरफ पिघले के नदी, ते मन के स्थिति अउ हमर इहां के छत्तीसगढ़ के स्थिति कइसे रथे

श्री निगम- वइसे छत्तीसगढ़ के जे मैदान हे, ओ मैदान ह उत्तर भारत के दोआब के बाद सबसे बड़े ए, ओतका बड़ मैदान देखे बर नइ मिलय। ओ ल तैं नक्सा म देखबे त अइसे लगिही कि बिलकुल प्लेन चलत हे कहूं उंच-नीच नइ दिखत हे। दोआब जे गंगा यमुना के हे ओ म जतका पानी आथे ओ म से जादा पानी हिमालय पहाड़ से आथे, ओ बर्फीला ए, बर्फीला होए के कारण, बाद में तो बरसाती पानी आथे, अउ ठंड में, गरमी में, ठंड में तो जम जाथे, लेकिन गरमी में बरफ पिघल के फेर पानी आथे। छत्तीसगढ़ म ओ स्थिति नइए, इहां के अधिकांश नदी मन बरसात म तो बहुत बोहाथे, गरमी म कइ ठन सूख जाथे, ओ कर कारण ए हे कि ओ कर जल संग्रहण क्षेत्र हे ओ म बारों महीना पानी नइ मिलय, लेकिन ए नदी म जइसे ठाकुर साहब बताइस, सब ले बड़े नदी महानदी ए, अउ जो हर समुद्र म जाथे, त समुद्र म जाथे त बाद में जइसे जइसे बढ़त जाथे ओ कर रूप ह विकराल होत जाथे, बड़े होत जाथे अउ खासकर के सिवनाथ नदी, जो ओ कर सब ले बड़े सहायक नदी ए छत्तीसगढ़ में वहां जाए के बाद ओ कर रूप ह एकदम बदल जाथे। त महानदी के जल संग्रहण क्षेत्र काफी बड़े हे, लेकिन शिवरीनारायण, जिहां सिवनाथ हर मिलथे, ओ मेर एक ठन अउ नदी मिलथे, जोंक नदी, जोंक घलो बड़े नदी ए, उड़ीसा के माड़ागुड़ा से निकले हे, पुरातात्विक स्थल ए, अउ बोहात-बोहात शिवरीनारायण म आ के मिलथे, जोंक भी मिलथे, सिवनाथ भी मिलथे। तो जइसे राजिम एक बड़े संगम ए वइसे एक बड़े संगम बनथे ओकरे पाए के राजिम असन बड़े तीर्थ सिवरीनारायण ल घलो माने जाथे। एक बात अउ बता दंव राहुल जी, हमर इहां नदी के उद्गम, ओ कर संगम, अउ जउन मेर ओ समुद्र म मिलथे, तीनों स्थान ल बड़ा पवित्र माने जाथे,

सिंह- सब तीरथ ए

श्री निगम- सब तीरथ ए, अउ हम देखथन कि तीरथ होए के कारण ए कर धार्मिक महत्ता तो हइ हे, ए कर पुरातात्विक महत्ता भी बहुत अधिक आ गए हे अउ सब स्थान में बड़ा पुरातत्व के धार्मिक नगरी अउ तीरथ सब मिलथे। जइसे कि राजिम हे, सिवरीनारायण हे, सोमनाथ हे, मनियारी अउ सिवनाथ के संगम म ताला हे अउ आगे जइसे जइसे बढ़त जाबो वइसे वइसे संगम मिलत जाही, अउ ओ संगम के बड़ा महत्व हे।

सिंह- नदिया मन सब बांध बनिन, बांध ले नहर बनिन एहू मन तो एक तरह से पहिली जे पुराना सभ्यता के आधार रहिसे अउ अब ओ कर आधार म जे बांध बन के, नहर बन के अलग-अलग पानी पलोये के इंतिजाम होइस, सिंचाई के इंतिजाम होइस ओहू ह एक नया तरह से जीवनदायिनी स्वरूप ए नदिया मन के

श्री ठाकुर- हां, बिलकुल ठीक कहत हव। गंगरेल बांध हे अउ गंगरेल बांध से विशाल नहर निकलथे। ओ नहर हर आधा ले जादा, पूरा रायपुर जिला अउ दुर्ग के बहुत बड़े हिस्सा ए मन ल पलोथे, गंगरेल हर। मगर पूरा छत्तीसगढ़ ल पलो सकय अतका छमता ओ म नइए। संगे संग एक विशेष बात बतावत हंव, जउन चारों कोती के पानी इकट्ठा होथे, एक स्थान में, ते ठेलका बांधा, बांध नो हय, मैदान हर अइसे ढालू हो गे चारों तरफ से अउ ढलुआ में आ के केंद्र म ओ हर जल हर भरा जाथे, ढेलका गांव में ओ बोहाथे अउ उहां से जेन नरवा निकलथे ओ गंगरेल के धारा ल ठेलका बांध म डालथें अउ ठेलका बांधा के नहर में, गांव के नहर में, जइसे गरमी के फसल बर जइसे हमार इहां नहर छोड़थें त नहर म नइ आवय, ठेलका बांधा म आथे अउ ठेलका बांधा, सब नरवा मन में जाथे चांपारन में चम्पारण जेन कथें ए मन हर तो शासकीय ए में भले बोल देथंव, मगर ओ ल मैं चंपारण नइ मानव, चांपाझर ल, वहां नरवा बोहात आथे, ओ नरवा मोर गांव से गए हे

सिंह- नदिया मन के साथ, हम जे बात करथन तओ नदी मन जइसे बरसात के दिन म जब नदी बढ़ जाथे, पूरा आथे, त ओ कर से काफी नुकसान भी होथे और ए मन ल सब ल नियंत्रित करे बर, काबू करे बर, अउ ओ कर जे जीवनदायी स्वरूप ए, जीवन देवइया ओ कर रूप ए, तइ ल एक प्रकार से बनाए रखे बर बांध, अलग-अलग बांध, देश म बड़े बड़े बांध बनिस, अउ निगम सर ओ कर बारे म कुछ जे बड़े बांध हमर इहां बने हे

श्री निगम- हमर इहां जे सब से बड़े बांध, जेन हिंदुस्तान म हे ओ तो भाखरा नंगल ए। पुराना छत्तीसगढ़ के हिस्सा रहिस संबलपुर, ते म हीराकुड म घलो बांध बने हे बहुत बड़े अउ छत्तीसगढ़ म देखबे त एक ठन बांध हे धमतरी तीर में माडम सिल्ली, ओ कर सबसे बड़े बात ए ओ समय के बने हे, जब सीमेंट के अविस्कार नइ होए रहिसे, चूना म जोड़े हे ओ ल। अउ दूसर का करे हे ओ ल साइफन तकनीक के प्रयोग करे हे ओ म पानी हर जइसे जादा होथे, खिड़की खोले के जरूरत नइ होवय साइफन से निकल जाथे। ए लगभग सौ साल होवत हे। भाखरा नंगल, हीराकुंड तो हइ हे, बाणसागर घलो नवा जीवन देहे हे ओ क्षेत्र ल। हमर इहां के जउन बांध मन हें, वइसे कहि सकत हस कि पहिली नदिया नाला के सब पानी समुद्र में जाथे, फेर बांध ल हमन बना के वापस ओ ल खेत म भेज देहेन। त ए बांध हर फेर जीवनदायिनी बन गे। पहिली तो नदी के किनारे बसना जरूरी रहिसे, अब तो जरूरत नइए, अब तैं कहूं बस जा, बांध बन गे त पानी तोर इहां पहुंच जाही। अउ जीवनदायिनी नहर घलो बन गे ओ कर शाखा।

सिंह- एक प्रकार के नहर घलउ हर नदिया के ही रूप ए, ओकरे निकास ए। तओ नदिया मन तो जीवनदायिनी हें फेर बांध के रूप म बंधिन अउ फेर नहर के रूप म बन के जीवनदायिनी एक अलग रूप म नदिया मन ही निकलिन। त ए तरह के हमर जीवन बर चाहे ओ हर फसल के रूप म होवय, हमर रोजमर्रा के जिंदगी बर होवय, हमर पूरा सभ्यता बर होवय, ए हर प्रकार से नदिया मन हमर जीवनदायिनी ए अउ कहे गए हे सप्तगंगा कहे गए हे देश के हमर जेन बड़े नदिया, अउ सिर्फ हमर देश म नहीं पूरा दुनिया म चाहे ओ नील नदी होवय या यांगटी सिक्यांग होवय, तओ ए सब नदी ह्वांग-हो नदी होवय,

श्री निगम- मिसिसिपी

सिंह- मिसिसिपी हे। हमर गंगा यमुना सरस्वती तो हइ हावयं, त ए सब मन हमर जीवनदायिनी नदी एं। ए सब नदी मन के स्मरण हर ही अपन आप म एक तीर्थ के लाभ देथे, का बर ए सब मन जीवनदायिनी एं। एकर बारे म जे बड़े बड़े पुण्य तीर्थ बनथें नदी मन धार्मिक रूप से भी ए कर बड़ा महत्व हो जाथे।

श्री ठाकुर- राष्ट्रीय स्तर पर पुराण परंपरा म जउन नदी मन के उल्लेख आए हे अउ जउन ल हम ह सामान्य परंपरा हे कि नहाए के पहिली, चाहे हम गांव के तरिया म नहावत हों, नरवा म नहावत हों, ओ पानी ल धर लेथन ओ म हम ह ओ ल अभिषिक्त करथन, गंगा यमुना याने ओ ए पानी में विराजमान हे, अउ हम फेर ओ पानी ल अपन सिर म लेथन, शरीर म लेथन नहाथन। ये गौरव परंपरा में धर्म के क्षेत्र में महानदी ल कहां तक नइ मिलिस, शिवरीनारायण के आगे तक। मगर ए स्थान में, याने मैं आपसी चर्चा में कह चुके हंव, छत्तीसगढ़ हर हमर पांचरात्र धर्म के सबसे बड़े केंद्र ए और महानदी ओ कर संवाहिका ए, शिवरीनारायण कहथन, ओ शबरी के नो हय ओ बिचारी नासिक के ए शबरी हर ओ सौरी नारायण, विष्णु के एक नाम सौरी हे, चतुर्विंशति रूप, अभी मैं श्रीमदभागवत पढ़त हंव, चतुर्विंशति रूप जउन हे ओ में आदि नारायण, ये कोन ए, जउन विग्रह ए, ओ राजिम में हे, ओही रूप सौरी में हे, शिवरीनारायण में, बिल्कुल अलग-अलग नारायण के रूप ए एमन, अउ जांजगीर तो एकमात्र अइसे जगह ए, जिहां मंदिर में चौबीस विष्णु के चौबीसो स्वरूप के चतुर्विंशति स्वरूप के अंकन हे, ठीक...

सिंह- ए मन ल कई प्रकार के नया नया रूप देथे नदिया हर तओ कइसे ढंग से दिखथे हम ल

श्री निगम- अभी ठाकुर साहब जे बात करिस ओ म एक बात अउ ख्याल आत हे, महानदी जो हमर हे, ओ जगन्नाथ जी के यात्रा के भी नदी ए। आज जगन्नाथ पुरी ल कहिथें, कि जगन्नाथ जी के बड़े केंद्र ए, लेकिन जगन्नाथ जी के मंदिर हे ओ कर पहिली हमर इहां शिवरीनारायण म जगन्नाथ जी के दर्शन हो जाथे। अउ मो ल तो अइसे लगथे कि जगन्नाथ जी हे न, ते छत्तीसगढ़ से ही होत होत जगन्नाथ पुरी पहुंचे हे।

श्री ठाकुर- राय ब्रह्मदेव के समय में राजिम में जगन्नाथ मंदिर दाउजी हर बनाए हे, ए कर अभिलेख हे, बालचंद जैन ओ ल प्रकाशित करे हे, अभी भी दीवाल म ओ लिखे हुए रखे हे ओ कर इहां अउ ओ कर बाद शिवरीनारायण में भी होए हे। तओ दोनों क्षेत्र, जिहां तीन नदिया के संगम मानथन हम परंपरागत रूप से, जिहां भी महानदी के तीन नदिया मन के बीच संगम होए हे ओ पांचरात्र धर्म के केंद्र रहे हे।

सिंह- ए तो नस-नाड़ी भी ए, एक प्रकार के जीवन के प्रवाह हे, जे नस-नाड़ी कहे जाथे नदिया मन ल, कभू अइसनहा जमाना भी रहिस हे कि जब शायद सड़क के अतका इंतिजाम नइ रहिस तओ

श्री ठाकुर- नइ राहुल, सुरता होही आप जानत हौ, जांजगीर के आगे चांपा के रास्ता में हसदो

सिंह- हसदो नहाकथे, जी, जी हां 

श्री ठाकुर- हंस दो, दो हंस, द्वि हंस के कथा अउ ए हसदो कतेक ...

सिंह- ए सब मन तो नदी मन जे प्रकार से जीवन संचार ए, रक्त प्रवाह ए, तइ प्रकार से ए हावयं, ए मन के बताहीं निगम सर

श्री निगम- छत्तीसगढ़ में जो नदी हे, हमन नदी के तो सुरता बहुत करेन, ओ कर वैभव ल गाथा ल, लेकिन यहां कोन कोन नदी हे ओकरो बारे म थोरकन बता देतेव आप।

सिंह- एक सोन ल, सोन के नांव सब ले पहिली मैं लेना चाहिहंव। ओ ए नांव से कि सोन के बारे म अक्सर कहे जाथे कि ए हर अमरकंटक ले निकले हे, अइसनहा लेकिन मान्यता ए, ए हर। सच्चाई ए हे कि ए हर पुराना पेंड्रा जमींदारी के गांव रहिस सोन बचरवार, ए सोन बचरवार हर आज भी छत्तीसगढ़ के हिस्सा ए, जिहां से ए सोन नदी के उद्गम हावय और कुछ हिस्सा ही ए कर छत्तीसगढ़ म होवय लेकिन एकर उद्गम सोन के, छत्तीसगढ़ म हे ओइ नांव से ए कर नांव लेना जरूरी हे सोन के नांव कि जइसे देश म हम ब्रह्मपुत्र के नांव लेथन, तओ ब्रह्मपुत्र ल पुल्लिंग नदी माने जाथे, नदी आमतौर से स्त्रीलिंग ए, लेकिन कुछ नदी अइसनहा हे जे मन ल नदी नहीं, नदी के बदला म नद कहे जाथे त ओ म ब्रह्मपुत्र एक हावय बड़े नद ए, अउ ओ रूप म देखन अगर हम अपन क्षेत्र म, छत्तीसगढ़ म त दूसर शायद सब ले महत्वपूर्ण अउ बड़े नद ए, जे हर सोन ए और अइसनहे हमर इहां शिवनाथ जे हर महानदी के प्रमुख सहायक जलधारा ए ओहू ल पुल्लिंग माने गए हे नद माने गए हे, एक सरगुजा के जल प्रवाह हे कन्हर, कन्हर घलौ ल कहे जाथे ओ कर बारे म मान्यता हे। जशपुर म नदी मन ल ले के बहुत, जशपुर के नदी के कहानी हे, जशपुर से लगे हुए पांच-सात किलोमीटर दूर नदी निकलथे, एक नदी हे सिरी अउ दूसर नदी हे बांकी, दुनों छोट छोट नदी ए, सिरी ल पुल्लिंग माने जाथे, पुरुष नद माने जाथे, ओ कर बहाव के दिशा सीधा हे और बांकी के नाम शायद अइ नांव से बांकी पड़े हे का बर एकर बड़ा सरपीला, टेढ़ा-मेढ़ा एकर बहाव हावय और दुनों के उद्गम एके जगह ले हे एके पहाड़ी ले हे, दुनों ल माने जाथे कि दुनों के चूंकि उद्गम एक ही ए, ते नांव से दुनों ल भाई-बहिनी माने जाथे। त हमर इहां ए नदी मन के स्वरूप ल आमतौर से और नदी मन के पवित्रता हे, मंदिर मन म बहुत महत्वपूर्ण ओ कर एक चित्रण होथे सर, ओ कर बारे म कुछ, नदी मन ल जे स्थान दिए गए हे मंदिर म जेन प्रकार से

श्री निगम- ए हर अइसे लगथे, गुप्त काल म चालू होए रहिस हे। कालिदास अपन कुमारसंभव म लिखे हे कि मंदिर के द्वार में गंगा-यमुना के अंकन करना चाहिए। त ओ परंपरा फेर अइसे चलिस कि हर मंदिर में गंगा-यमुना के अंकन द्वार में हो जाथे अउ अइसे कह सकत हस कि अगर तोर तिर पानी नइए, अउ तैं पवित्र हो के नइ आए, त ओ कर दर्शन मात्र से तैं पवित्र हो गएस, मंदिर म घुसे के पहिली, नदी के दर्शन हो जाथे, ओ कर पूजन हो जाथे त आदमी पवित्र हो जाथे,

सिंह- प्रतीक रूप म हो जाथे। 

श्री निगम- प्रतीक रूप म हो जाथे। त इही सब बात ए अब पुराना सियान मन काए सोच सोच के लिखे हें, बनाए हें ओ तो शास्त्र भी जानथे अउ पुरातत्व भी जानथे, लेकिन आम आदमी ओ ल नइ समझत हे, ओ कर वजह से थोड़ा समस्या हो जाथे त ओ ल जानना भी चाहिए अउ हमर मन के काम बताए के घलो आय।

सिंह- जीवन, नदी मन, पवित्रता के परिचायक ए, हमर धार्मिक विश्वास, सभ्यता के लेकिन निश्चित रूप से अलग अलग ढंग से देखे जाए त मनुष्य के जीवन बर कतका जरूरी ए और कोन प्रकार से ओ मन जीवनदायिनी स्वरूप देथें, ते कर हम ल हमेशा प्रत्यक्ष उदाहरण देखे बर मिलत रथे, चाहे हमर सभ्यता होवय, संस्कृति होवय, हमर खान-पान होवय, हमर यातायात परिवहन ए और जल के आवश्यकता तो हइ हे ओ कर तो पूर्ति करते हावयं, सिंचाई म, खेती बाड़ी म सब जगह तओ ए जीवनदायिनी नदी मन ल हम आज याद करत हन। नदिया मन हमर तो जइसे महानदी हे, राजिम हे, आरंग हे सिरपुर हे, शिवरीनारायण हे, नारायणपुर हे। अइसनहा बहुत अकन स्थान हे जे सिर्फ धार्मिक स्थान नो हय, ए कर संग म व्यापारिक स्थान भी ए, राजधानी भी ए, तओ ओ कर बारे म आपके साथ देखे हुए निगम साहब के

श्री निगम- राजधानी बर अइसे ए कि बहुत जरूरत हे, बहुत पानी लगथे, बिन पानी के राजधानी नइ चल सकय, घर-मकान बनाबे, सेना रइही, घोड़ा रइही, हाथी रइही, ओ कर नहाए धोए बर, खाए पिए बर लगिही, त ए बड़ा अइसे स्थान होना चाहिए, जहां पानी के साधन रहय। और नदिया से बढ़िया साधन तो कुछ हो नइ सकय। जब नदिया नइ रहय त तरिया बना लेथें, लेकिन तरिया म तो इकट्ठा करबे, ए म तो प्रवाहित होत हे। त छत्तीसगढ़ म जब राजधानी के बात चलिस त मोर ख्याल से सबसे जुन्ना राजधानी महानदी के तीर में सिरपुर ह मिलथे। सिरपुर के राजधानी आप देखो ईंटा के मंदिर बने हे उहां। ईंटा के मंदिर का बिना पानी के बना सकिहीं,

सिंह- बहुत जरूरी हे

श्री निगम- बहुत जरूरी हे, भट्ठा लगाए बर, ईंटा बनाए बर, त पूरा राजधानी हर वहां से बने हे, ईंट के मकान भी बने हे वहां, कई ठन मंदिर बने हे अउ अइसे कहे जाथे कि सिरपुर में पहिली अतका खजाना छुपे हे कि पूरा पृथ्वी हर दू दिन तक खा सकत हे, त ए हर महानदी के समृद्धि ए। महानदी के तीर म बस गे, सबे प्रकार के उहां व्यापार भी होत रहिस हे, हम ल जानकारी मिले हे कि वहां अनाज के भंडार रहिस हे। गंध के व्यापारी रहयं वहां, ओकरे नांव से गंधेश्वर महादेव नाम पड़े हे, तओ व्यापारी रहिन हें उहां, चीनी यात्री ह्वेनसांग आए रहिस हे, यात्रा पथ घलो ए। मगध के राजकुमारी के शादी होए रहिस हे इहां के राजा संग, वासटा आए रहिस हे। मगध तक रस्ता रहिस होही तभे तो।

सिंह- चीनी सिक्का, रोमन सिक्का

श्री निगम- चीनी सिक्का, रोमन सिक्का मिलथे, त ए हर व्यापार के बहुत बड़े केंद्र रहिस हे, धर्म के बड़े केंद्र रहिस हे और राजनीति के तो सत्ता रहिबे करिस हे ए म राजवंश के जे भूमिका हे ते तो हइ हे लेकिन ए म बहुत बड़े भूमिका नदी मन के घलो हे अउ ओकरे पाए के आप देखो जहां भी होही राजधानी नगर के नदी के तीर में बसथे।

सिंह- सिरकट्टी ल भी माने जाथे कि बंदरगाह ए, प्राकृतिक रूप से सिरकट्टी म ...

श्री ठाकुर- सिरकट्टी में बंदरगाह डॉ. चन्द्रौल सिद्ध करे हे। फिंगेस्वर करा,

श्री निगम- पांडुका तीर हे। 

श्री ठाकुर- पांडुका के उपर म और वहां नौकायन, नौका से अउ हम जे भुवनेश्वर के संबंध म जे इतिहास हे महानदी के मार्ग से नौका म आदमी आवय, व्यापारी अपन व्यापारिक माल ल ले के आवय, और सरकट्टी म बकायदा बने हुए हे सीधा जा के नाव ह खड़ा होवय अउ अइसे तट के तीर में गड्ढा सीधा, तओ नौका हर अइसे तट के तीर म आ गे, माल उतार चढ़ा, अउ ओकर बाद, ओ हर अइसे गिंजर के अइसे दूसर लाइन म आवय

सिंह- पथरा हावय, संयोग से तट मिल गए हे पत्थर के

श्री निगम- बहुत बढ़िया हे अइसे कि नदिया के तट म पथरा हे पथरा ह घुस गए हे, अइसे लेगबे त तो जमीन मिल जाही नदी के भीतर पथरा मिल गे त ओ ल काट दिन ओ मन, अउ चेनल बना देहे हे, कई ठन डोंगा ल उहां रख सकत हस।

सिंह- धमतरी के पास म लीलर म भी ए प्रकार के माने जाथे कि अइसे व्यवस्था हे

श्री निगम- अइसे लगथे कि पुराना जमाना म ए सब नदी बंदरगाह रहिन हें

सिंह- एक मल्हार के भी नाम मिलथे, मल्लालपत्तन

श्री ठाकुर- मल्लालपत्तन नाम ही सूचक हे कि यहां नदिया के, नौकायन के केंद्र रहे हे, व्यापारिक

सिंह- रोमन सिक्का उहों ले मिले हे, पुराना रोमन सिक्का मिले हे और अलग-अलग तरह के बीड मिलथे, मनका मिलथे

श्री ठाकुर- पुरातात्विक सामग्री के तो भंडार आय

श्री निगम- एक चीज अउ राहुल जी बतावं मैं, छत्तीसगढ़ के नदिया मन के बारे में। पुराण म बड़ा कथा मिलथे, कथा तो नइ, जानकारी बहुत मिलथे। ए बात थोड़ा सा गड़बड़ जरूर रथे कि पुराणकार हर बोलथे कि कोई भी नदिया हर झील से निकलथे, अउ झील हर पहाड़ के तलहटी म बसिही, वहीं से निकलही ओइ पा के जतका नदिया हम पढ़त रहेन स्कूल के जमाना म महानदी, सिहावा पर्वत से निकल के बंगाल की खाड़ी में जाती है, अइसे पढ़त रहेन

सिंह- पुराण मन म अइसनहे नाम मिलथे

श्री निगम- पुराण में तो येही नाम तो नइ मिलय मगर हमर छत्तीसगढ़ के बहुत सारा नदी के नाम मिलथे, मिलान हो जाथे अउ काफी कोसिस करे हें विद्वान मन, जे म चित्रोत्पला, महानदी हो जाथे, शुनि शिवनाथ नदी ए, अरपा हे ओकरो नाम मिलथे कृपा के नाम से, खारुन ल क्रमु बोलथें, त अइसे बहुत सारा नदी मन हें, अभी ठाकुर साहब हरिशंकरी के नाम बताइस, त ए सब हर पुराण म मिलथे, त ए बात से स्पष्ट होथे कि छत्तीसगढ़ के नदिया मन के बारे में पुराणकार जानत रहिस हे, अउ न केवल जानत रहिस, बल्कि बताए हे कि कोन सा नदिया कोन से पर्वत से निकले हे, ओ म थोड़ा से गड़बड़ हो गए हे शायद हमर पुरातत्ववेत्ता अउ भूगोल वाला मन नइ जानत रहिन कोन नदिया कहां से निकलथे, का पाए के जब नदिया पहाड़ से निकलथे त कई ठन धारा आथे, त धारा के कारण भ्रम हो जात रहिस ओ मन ल लेकिन नदिया मन के बारे म जानकारी मिलथे।

श्री ठाकुर- राहुल जी, निगम जी मन जइसे बताइन न कि जइसे पुराण साहित्य में छत्तीसगढ़ के नदिया मन के बारे म उल्लेख मिलथे, बिलकुल मिलथे, ओ कर बारे म कोई कथा नइ मिलय

सिंह- लोक जीवन म खूब कथा हे 

श्री ठाकुर- त ए बिलकुल आप सही कहत हौ, लोकजीवन से जुड़े हे ए हर नदी मन, लोक संस्कृति, नागरक संस्कृति उभय संस्कृति एक साथ 

श्री निगम- छत्तीसगढ़ म दिखथे 

श्री ठाकुर- नदिया मन के माध्यम से मिलथे। 

सिंह- लीलागर बर, सिवनाथ बर, सब बर कहानी हावय, कुछ न कुछ कहानी मिल जाथे, ओ मन ल बड़ा जीवन स्वरूप, ओ मन के मानवीकरण कर के कहानी ओ मन के बहुत प्रचलित हावय।

श्री ठाकुर- लोक संस्कृति में अधिकांश नदी मन के बारे म कहानी मिलथे

श्री निगम- लेकिन ओ ल ठीक से व्यवस्थित करे के आवश्यकता हे। जे म पुराणकार अउ जउन लोक संस्कृति हे, दुनों के जब सम्मिश्रण होही, तब छत्तीसगढ़ के नदिया उपर बहुत सुंदर प्रकास पड़ सकत हे। 

श्री ठाकुर- बिल्कुल सही कहथौ, नागरक संस्कृति अउ लोक संस्कृति दुनों के हम ल दर्शन करे बर, हम ल मिलही

सिंह- दुनों ल शायद मिला के देखे के जरूरत हे, मतलब हमर एक ज्ञान के परंपरा हे, अध्ययन के परंपरा हे, हमर लोक जीवन, हमर अनुभव के परंपरा हावय, अउ ज्ञान के अउ अनुभव के दुनों के एक साथ मिलन जे प्रकृति के रूप म नदी हर हे, सभ्यता के रूप म मानव जीवन हे तओ ए कर सम्मिलन, लेकिन ए सब चीज हर, कहीं न कहीं ए देखे बर मिलथे कि नदी के संग संग होत हावय, नदी के किनारे किनारे म होत हे अउ नदी के पूरा एक अपन संस्कृति हो जाथे, सभ्यता हो जाथे अउ जे कर से सिर्फ न राजनैतिक स्थिति ल, व्यापारिक स्थिति ल भी, आर्थिक स्थिति ल भी अउ जीवन के सांस्कृतिक पक्ष ल हर दृष्टि से नदी के संग जोड़ के देखे जा सकत हे अइसनहा सब हमर नदिया मन हें, हमर जीवनदायिनी नदी मन हें, ठाकुर साहब आप बात म हिस्सा लेय, निगम साहब आपके भी धन्यवाद, बड़ा एक आनंददायक चर्चा रहिस, धन्यवाद।

Wednesday, July 20, 2022

वाट्सएप विनोदेन

विश्वविद्यालय मानद उपाधि भी देते हैं, दूसरी तरफ वाट्सएप जैसे मंचों से जुड़े लोगों ने इन माध्यमों को ‘मानद-विश्वविद्यालय‘ उपाधि दे दी है। मगर लगा कि संस्मरण, डायरी, पत्र की तरह अब एक विधा, वाट्सएप-संवाद भी है। इस साल अपने वाट्सएप संपर्कियों में से, विनोदेन मेरे संदेशों का एक हिस्सा यहां, जिसमें आवश्यक संदर्भ स्पष्ट करने के लिए कुछ जोड़ा-घटाया है, अन्यथा यथावत-

23 जून 2022
* ‘तद्भव‘ का जनवरी 2022 अंक देख रहा हूं, लगभग सारी सामग्री पठनीय, स्तरीय।

21 मई 2022
* बनारस ज्ञानवापी के संदर्भ में याद करते हुए, बनारस में मेरा देखा सबसे पुराना, सुरक्षित और कंदवा तालाब के साथ स्थित, सुंदर परिवेश वाला मंदिर कर्दमेश्वर महादेव का है।

उड़ीसा और दक्षिण भारत (तमिल-कर्नाट) में पारंपरिक स्थपति और शिल्पकार अब भी हैं। उत्तर भारत में मेरी जानकारी में अकेला परिवार सोमपुरा (प्रभाकर ओ.) ही है, जो शिल्प शास्त्र का जानकार और उसके अनुसार मंदिर रचना करता है।

15 मई 2022
* उम्र के साथ धीरे-धीरे अभ्यास कि अपने जीवन और विचारों को यथासंभव सार्वजनिक कर दिया जाय, का हिमायती हूं। आश्वस्त रहें मूल विचार-बोध श्रुति अपरिवर्तित रहता है। स्मृति, देश-काल-पात्र अनुरूप प्रकट होती है और न्याय, तर्क-प्रमाण।

गांधी का हिंद स्वराज, श्रुति है, उपनिषदों वाली प्रश्नोत्तर शैली, उनकी उम्र लगभग 40 वर्ष। आत्मकथा, स्मृति है ही, उम्र लगभग 50 वर्ष। और बाकी सारा लेखन न्याय, जिसके लिए वे कहते हैं कि 1920 के बाद का उनका जीवन सार्वजनिक है। न्याय, तर्क-प्रमाण आश्रित है, अतः उसमें परिवर्तन संभव है।

सुकरात ने कुछ लिखा नहीं, शिष्य अफलातून यानि प्लेटो ने उनसे सुनी, उनकी बातों को अपने ढंग से लिखा, प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने इन सभी बातों को अपनी दृष्टि के साथ तर्क की कसौटी पर कसा। तो कह सकते हैं सुकरात-श्रुति, उनके शिष्य प्लेटो-स्मृति, और आगे उनके शिष्य अरस्तू-न्याय।

18 अप्रैल 2022
* सारी गड़बड़ी मालिक और नियंता बन जाने के कारण है।

कुआं, निजी स्तर पर खुदवाया जाए फिर भी नैतिक बाध्यता होती थी कि उसका पानी लेने से अन्य किसी को मना नहीं किया जा सकता।

एक सच्चा किस्सा गनियारी गांव का है। उस गांव के प्रमुख रहे दिघ्रस्कर परिवार के एक सदस्य के साथ मैं गनियारी गया। आधे घंटे का रास्ता, घंटे भर रुक कर वापस आना था, मगर चलते हुए उन्होंने पीने का पानी साथ रखा। मुझे लगा कोई बात होगी, शायद उबला पानी पीते हों, मगर पूछ लिया कि इसकी क्या जरूरत है, प्यास लगे तो गांव में भी पानी तो मिलेगा ही, वे टाल गए। वापसी में मैंने फिर पूछा, तब उन्होंने बताया कि उनके परिवार के बुजुर्ग बिलासपुर में रहते थे, लेकिन गांव में पानी की समस्या देखते गांव वालों के लिए कुआं खुदवाना शुरु किया, इसी बीच किसी की कही बात उनके कान में पड़ी कि मालिक अपने लिए कुआं खुदवा रहे हैं। जिस दिन कुआं खुद कर पूरा हुआ, पूजा-पाठ के साथ पानी निकालना शुरू हुआ, उन्होंने वहां इकट्ठा हुए गांववालों के सामने घोषणा की, यह कुआं हमलोगों ने गांव वालों के लिए खुदवाया है, इसलिए मैं इसका पानी नहीं पियूंगा और मेरे वंश का भी कोई इस कुएं का या गनियारी गांव का पानी नहीं पिएगा।

संभव है इसमें इस पूरी बात में कोई अतिशयोक्ति हो, मगर यह बात उस गांव के बुजुर्गों में भी प्रचलित है।

इसी तरह तेल निकालने का साधन ‘तिरही‘, तेल निकालने का, कोल्हू से पहले का तरीका, जिसमें दो भारी लट्ठों के बीच ‘लीवर‘ के दबाव से तेल निकाला जाता है, सच्चे अर्थों में ‘कोल्ड प्रेस, डबल वर्जिन‘, कच्ची घानी से भी एक कदम आगे यह। रख-रखाव की जिम्मेदारी इसे स्थापित करने वाले की होती है, मगर तेल निकालने का मौका उसके लिए तभी होता है, जब अन्य कोई न हो। अन्य स्थान से आए को प्राथमिकता होती है, क्योंकि जिसकी तिरही है, जिसके घर के सामने स्थापित है, वह तो कभी इस्तेमाल कर सकता है।

वैसे ही कुएं में पानी भरने की प्राथमिकता कुआं-मालिक के बजाय बाहिरी को होती थी, जबकि कुएं का रख-रखाव, सफाई करवाने की जिम्मेदारी, उसकी, अकेले की होती थी। पानी भरते हुए किसी बाहिरी की बाल्टी या बर्तन कुएं में गिरा छूट जाए तो समय-समय पर कुएं में कांटा डाल कर, गिरे हुए सब बर्तन निकलवाना और किसका है, पता कर, उस तक खबर कराना और न पहुंच पाए तो उस तक पहुंचवाना भी कुआं-मालिक की जिम्मेदारी होती थी।

* अंतःस्थित मृत्यु के साथ जीवन का सम-लय।

भ्रम है कि शरीर में जीवन है और मृत्यु आ कर उसे हर लेगी। मृत्यु तो काया में सदैव स्थित है और जीवन प्रतिपल उसमें प्रविष्ट हो रहा है, सांस बन कर, आहार के साथ।

* बरसत हरषत लोग सब करषत लखै न कोइ। तुलसी प्रजा सुभाग ते भूप भानु सो होइ।

सूर्य का पानी सोखना और बरसात पर तुलसी का दोहा। 

* पानी पुराना रास्ता याद करता है और राह रोकने पर नये रास्ते तलाश भी करता है। अपनी राह भी बदलता है।

अनुपम जी की ‘पानी की अपनी स्मृति‘ की बात को मैं इस तरह समझता हूं कि पृथ्वी पर जल एकत्र होने और निकासी की प्राकृतिक व्यवस्था है। सूखे दिनों में या कम बरसात होने पर हम भूल जाते हैं कि कौन सा स्थान पानी जमाव का, या उसके प्रवाह का रास्ता है। हम निर्माण कर जमाव/प्रवाह को प्रभावित करते हैं, वैकल्पिक नालियां खोदकर कामचलाउ इंतजाम करते हैं, किंतु धरातल पर कंटूर, प्रवाह का रास्ता और जमाव का स्थान वही रहता है, यही पानी की स्मृति है, वह अपने स्थान पर लौटना चाहता है।

ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें पानी निकास के लिए पिछले कुछ वर्षों के आधार पर पुल बनाया गया, अधिक बरसात हुई, तो पानी ने अपना कोई बहुत पुराना रास्ता तलाश लिया और पुल के नीचे से बहा ही नहीं। मैंने ऐसा कटघोरा पेंडरा के बीच जटगा के पास नाले के साथ देखा था। इसी तरह सरगुजा, सूरजपुर जिले में सारासोर स्थल है, महान नदी पर विशिष्ट प्राकृतिक संरचना। इसके आसपास ढेरों आधुनिक निर्माण हुए थे, 5-6 साल पहले भारी बाढ़ आई और सभी निर्माण को ध्वस्त कर दिया। ऐसी ही स्थिति मैंने जांजगीर जिले में महानदी और हसदेव के संगम पर देखी थी।

पानी का जमाव व बहाव। प्रभावित-भुक्तभोगी और लाभार्थी।

17 अप्रैल 2022
# नमक-आयोडाइज्ड
# तेल-रिफाइंड
# दूध-पाश्चराइज्ड
# चावल-पहले पालिश्ड अब फोर्टिफाइड
# पानी-प्यूरीफाइड फिल्टर
# हम-फेसबुक्ड

06 अप्रैल 2022
* शिमला के थापा जी का किस्सा पढ़ा। उनकी आंखों से पहाड़ कोई देख रहा हो, दिल कुछ कुछ कइयों का उसी तरह धड़कता है, पिछले दिनों अपने घटे दिन पर एक छोटा नोट लिखा था-

एक फिल्म-संवाद है- जिस रास्ते से गुजरा हूं, कदमों के निशान भी मिटा दिए हैं, मैंने। ताओ कहता है- अच्छा पथ अपने पीछे कोई लकीर नहीं छोड़ता।

उम्र के पड़ाव पर, कोई दिन ऐसा बीते कि दरवाजे पर दस्तक न हो, फोन की घंटी न बजे, और यह आपको बेचैन न करे, तब मान लीजिए आपने सार्थक जीवन जिया है। स्वयं को जगत की स्मृति से लोप होते देखने सा संतोष, स्थिर आनंद और कुछ नहीं।

31 मार्च 2022
* आप जैसे युवा मित्रों की असहमतियों के लिए मैं लगभग लालायित रहता हूं। जानता हूं कि मेरी आयु और बहुत हद तक मधुर व्यवहार के कारण मेरे विचार, अभिव्यक्ति पर ऐसी प्रतिक्रियाएं उनको रोकती हैं, जिनमें प्रतिवाद हो, इसलिए आप जैसे युवा साथियों की टिप्पणी मेरे लिए बहुत कीमती होती है, मुझे खुद को दुरुस्त करने या कम से कम पुनर्विचार करने का अवसर मिलता है।

(28 मार्च 2020- मैं प्रयास करता हूं मेरे कुछ आलोचक, जिनमें एक आशुतोष हैं, दूसरे मेरे पुत्र अनुपम, तीसरे युवा साथी बालमुकुंद, एक और भाई असीम, जो यह बार-बार आगाह करते हैं कि मेरी बातों में जो विज्डम होता है (और सहज रोचकता) वह मेरे लिखने में नहीं आता। मैं अपने बचाव में बस यही कह पाता हूं कि मैं लेखक नहीं, साहित्यकार तो कतई नहीं, वाचिक परम्परा का ‘गोठकार‘ हूं। मन ही मन थोड़ा प्रयास जरूर करता हूं कि उनकी शिकायत दूर कर सकूं, पर अब तक ओके सर्टिफिकेट दुर्लभ है।🙂)

21 फरवरी 2022
* सम्राट अशोक की पोट्रेट अभिलिखित प्रतिमा है। इस पर कभी अंशुमन तिवारी जी ने स्टोरी की थी, एस्केवेशन रिपोर्ट आया, उपिंदर सिंह ने अपनी किताब में शामिल किया (यह किताब आपके पास होनी चाहिए), यह भी निर्धारित हुआ कि इसी तरह की सांची से प्राप्त कलाकृति भी अशोक की ही मूर्ति होनी चाहिए।

03 फरवरी 2022
* इस नारी प्रतिमा का पिछले वर्षों में स्तन को ढका गया है। 12 वीं सदी की है। स्थानीय समिति ने स्तन पर कंचुकीनुमा कपड़ा लगा दिया।

मूर्तियों पर चांदी की आंख लगाना और carved होने के बाद भी ऊपर से आभूषण पहनाया जाना अब आम है। गनीमत है खजुराहो जैसी मूर्तियों को ढकने की मांग नहीं उठी।

आस्था के चलते देव-प्रतिमाओं का लिंग परिवर्तन, यानि पुरुष प्रतिमा को नारी के रूप में पूजे जाने के भी उदाहरण हैं।

06 जनवरी 2022
* बनारस के लिए मुझे प्रिय भानुशंकर मेहता और मोतीचंद्र जी का लेखन और पुस्तकें, शिवप्रसाद सिंह और काशीनाथ सिंह तो हैं ही। बहती गंगा, शिवप्रसाद मिश्र रूद्र काशिकेय, लाजवाब है। गुलेरी जी के दो लेख और भारतेन्दु जी के तो क्लासिक हैं।

Saturday, July 16, 2022

लपका

मौका दिखा कि मन लपका। ‘खजुराहो का लपका‘ पढ़ते हुए सरसरी तौर पर तो यही लगता है कि इतनी सी बात को रंग-रोगन कर पेश किया गया है। मगर सहज प्रवाह वाली यह कहानी पाठक के मन में धीरे-धीरे उतरते हुए, खुलती और खिलती है।

नायिका का आग्रह, कुछ अलग नजरिए से खजुराहो देखने का है, उसका उद्देश्य भी सामान्य पर्यटक का नहीं है। इस बहाने सचमुच खजुराहो को कुछ अलग ढंग से देखा गया है। वार्तालाप, विवरण, कथा-कथन और घटना-क्रम सब कुछ सहज, मगर ताजगी भरा और कई मायनों में अलग-सा भी। स्केच-बुक ले कर चलने वाली नायिका कहानी में क्या रंग भर रही है, आसानी से समझा नहीं जा सकता।

खजुराहो ने उस पूरे अंचल की सोच को प्रभावित किया है। छोटी सी बस्ती में कैरियर की नई संभावनाएं और जीवन के अनूठे आयाम जोड़े हैं, मगर जीवन की मौलिकता बार-बार उभरती है। शास्त्र और लोक, देस-परदेस, जीवन-व्यापार और फक्कड़ी यहां आपस में गुंथे हुए हैं और उनका समानांतर निर्वाह होता चलता है। उदात्त प्रेम के गहरे भाव व मानवीय संवेदना को गोप-हेमवती, सजन-प्रभा की कथा से उभारा गया है और उसे जीवंत किया गया है, उपन्यास के पात्रों के चार-पांच प्रेम-प्रसंगों के माध्यम से।

खजुराहो पर ऐसा उपन्यास तभी संभव है, जब रचनाकार मौटे तौर पर ही सही, बहुत करीब से उस स्थल के भूगोल और इतिहास, शिल्प-स्थापत्य, शास्त्र-पुराण इन सभी से आत्मीय रूप से परिचित हो, जुड़ा रहा हो साथ ही उसे इस पूरे परिवेश के ऐसे तत्व और कारक दिख रहे हों, जिसे न कोई पर्यटक देख पाता, न अध्येता, न वहां का व्यवसायी और न बाशिन्दा। लेखक की सफलता कि जहां स्थानीय भाषा है, वहां परंपरा, भाव और सोच भी उसके अनुकूल है। इसके लिए आवश्यक है कि लेखक वहां के जीवन में घुल-मिल जाए और तटस्थ भी बना रहे।

समृद्ध खजुराहो वीरान रहा और अब विश्व विरासत के नक्शे में हैं। लेखक आगाह करता है कि वहां इसके बावजूद लपक कर पा जाने का सार्थक कुछ भी नहीं है, हजार साल का इतिहास, जिसमें कई हजार सालों की परंपरा मूर्त हुई है, जिसमें धर्म-अध्यात्म-दर्शन की गहनता है, मानों एक ठहरा हुआ घनीभूत समय। यों उघड़ा हुआ, साथ ही परत-दर-परत भी, पूरी कहानी बुनते लेखक ने किस सावधानी से इसका निर्वाह किया है, यह भी पढ़ते हुए या सिर्फ पढ़कर नहीं, बल्कि ठहर कर ही झलकना, झिलमिलाना शुरू होता है, मानों कोई पार्श्व संगीत देर तक मन में भीना-भीना गूंजता रहे। इसलिए यह खजुराहो ही नहीं, किसी पर्यटन स्थल या अन्य कहीं भी होने वाले आकस्मिक बदलाव से फास्ट फारवर्ड हुए जीवन का दस्तावेज है।

किसी पत्रकार के लिए अपने नियमित काम के दौरान समाज को ठहर कर देखने का अवसर कम ही होता है, अक्सर उसने सीमित समय में जितना कुछ देखा-समझा, उसे अधिकतम विश्वसनीय बना कर प्रस्तुत करने का दबाव उस पर होता है, यथातथ्य मगर असरदार। लेकिन इससे कम समय में अधिक भांप लेने का अभ्यास भी बन जाता है। इस पुस्तक का पत्रकार-लेखक, अपनी भू-जल जानकारियों को समाज के दैनंदिन संदर्भों से जोड़ कर सक्रिय हो, उसे समय की बाध्यता न हो और वह रचे, जिसमें उसका मन रमे, तब ऐसी कृति साकार होती है।

इस कृति पर फीचर फिल्म की तैयारी की सूचना पुस्तक पर दी गई है। कहानी में पूरी संभावना है, वार्तालाप और दृश्यों का विवरण सहज-विश्वसनीय है, जो फिल्मकार के लिए काम आसान करेगी, किंतु तरल प्रसंगें के बहाव और नजाकत को पकड़ना, सहेजना चुनौती होगी।

पुस्तक के लेखक सुनील चतुर्वेदी, सामाजिक संस्था ‘विभावरी‘ से जुड़े हैं। जल संवर्धन और संरक्षण पर उनकी पुस्तकें ‘पानी दे गुड़धानी दे‘ और ‘रुको बूंद‘ है। उपन्यास ‘कालीचाट‘, जिस पर इसी नाम से फीचर फिल्म बनी, के लेखक के रूप में अधिक जाने गए। इस पुस्तक की कमियों, जो मुख्यतः मामूली अशुद्धियां हैं, की ओर लेखक का ध्यान है और पढ़ने के प्रवाह में बाधा नहीं होती, इसलिए उनका उल्लेख यहां अनावश्यक होगा। पुस्तक के स्केच अवश्य उल्लेखनीय हैं।

प्रसंगवश -

‘विभावरी‘ के साथ सोनल की ‘कोशिशों की डायरी‘ पुस्तक का उल्लेख
प्रासंगिक ही नहीं, आवश्यक भी लगा। इसी प्रकाशक NeoLit से आई यह डायरी,
विभावरी के एक पक्ष का लेखा-जोखा है।
ऐसा संस्मरण, जिसमें समाया ‘मैं‘ हावी न हो, तब जब रचनाकार स्वयं पात्र भी हो।
ताजगी और सहज सच का सौंदर्य है इसमें।
साथ ही सामाजिक बदलाव के लिए समय-सापेक्ष काम करते हुए
सोच किस तरह उदात्त, समयातीत हो जाती है,
स्थायी प्रभाव डालने वाली, जिसका उदाहरण है यह कृति।


Monday, July 11, 2022

तद्भव से तत्सम

देखते हुए लगा कि संपादक अखिलेश के सजग सामग्री चयन से इस पत्रिका का जनवरी-2022 अंक ‘तद्भव‘ है, स्वयं उसके लेखक होने के तत्सम में कैसा है, देखने के लिए जैसा शायद अक्सर होता है- ‘चिट्ठी‘ और रचना प्रकिया पढ़ा। ‘एक सतत एंग्री मैन‘ और ‘भूगोल की कला‘ पढ़ कर लगा कि ‘वह जो यथार्थ था‘ भी पढ़नी होगी। पढ़ते हुए नोट्स लेता चला, ताकि अपनी सोच-समझ के साथ पच कर एकरूप न हो जाय, तब तय करना मुश्किल होने लगेगा कि क्या किताब में था, मेरी सोच में आया, कितना किताब की बातों की प्रतिक्रिया थी, घालमेल हुआ या... या... या...। जैसा किताब में आया है, शीर्षक यह भी उपयुक्त हो सकता था- ‘विस्मृति का स्मरण‘ (पहली आवृत्ति: 2015, पेज-99)

संस्मरण श्रेणी की यह पुस्तक कहानी है, जैसा कवर पर है- ‘अपने यथार्थ में बचपन की जीने रचने की एक अद्वितीय कहानी‘। पढ़ते हुए सवाल मन में आता है कि आखिर कोई संस्मरण लिखता ही क्यों है? यहां जितनी याद रही बातें दर्ज हैं, भूली हुई बातें उससे कुछ ही कम होंगी, और वे जितनी कम हैं, उनमें याद आती भूली या भूली को याद न कर पाने, भूली यादों की कैफियत को मिला दिया जाए तो शायद वे उतनी ही हो जाएंगी, जितनी याद रही और दर्ज की गई।

एक परिशिष्ट ‘मैं और मेरा समय‘ स्वतंत्र निबंध है और नौ खंडों में बंटी पुस्तक के ‘तीन‘ का काफी हिस्सा वैचारिक निबंध बन गया है। आगे और भी ऐसा होता गया है, समय-समय पर विचार-स्फुलिंग को सुरक्षित दर्ज रखने के लिए, लिए गए नोट्स को तरतीब देने जैसा लगता है। यह मनोवैज्ञानिक, किसी विशेषज्ञ का नहीं, एक सामान्य संवेदनशील मन, जिसके पास अभिव्यक्त करने के लिए भाषा है, का लेखा है, कुछ-कुछ ऐसा ही खंड ‘पांच‘ में कहा गया है। यथार्थ को पकड़ते, उसके द्वंद्व के साथ पूरा करने, समग्र में देखने का प्रयास, ऐसा बार-बार होता है, है और था के बीच, जैसे खंड ‘चार‘ में आनंद और मनोरंजन में भी। या उसके बाद रचना और स्वप्न में। इससे ‘इतिहास के अभाव में-स्मृति, और भविष्य के अभाव में कल्पना की भूमि बंजर होने लगती है।‘ जैसी महत्वपूर्ण निष्पत्ति आती है।

इसी तरह कुंडी और घंटी की अभिधा ऐसी रची गई है कि वही पाठक के लिए लक्षणा और व्यंजना की संभावना बना दे। साहित्य ने पाठकों की आदत ऐसी बिगाड़ रखी है कि उन्हें ध्यान कराते रहना पड़ता है कि जो पढ़ रहे हैं, अभिधा है, मगर इसीलिए यहां लेखक की सपनों में आवाजाही होती है, नींद वाले सपने, खुली आंखों के और बंद आंखों के जागते सपने। भ्रम और स्वप्न का द्वंद्व। बिगड़ैल पाठक मन तभी लक्षणा-व्यंजना के लिए भटकने लगता है। कवियों, चित्रकारों को याद करते, प्रकाश की बात करते भी वैचारिक अभिधा पर ठहरने का प्रयास है।

अभिधा-आग्रही लेखक इस तरह भी अभिव्यक्त होता है- ‘वकीलों के तख़्तों पर मक्खियों के मल के धब्बे हैं। वकीलों के काले कोट पर भी धब्बे होंगे लेकिन काले रंग में धब्बे छुप जाते हैं। काले कोट ख़ुद बड़े-बड़े धब्बे लगते हैं। तीस वर्षों में तहसील के पाँच धब्बे डेढ़ सौ धब्बों में बदल गए हैं। हमारे देश में धब्बों के पास जबर्दस्त प्रजनन शक्ति है। इसलिए बेतहाशा बढ़ती आबादी से बहुत ज़्यादा प्रतिशत वृद्धि धब्बों की है।‘ (पेज-110) 

खंड ‘चार‘ मनोरंजन का है। आरंभ होता है- ‘क़स्बे में मनोरंजन का कोई नियमित इंतज़ाम नहीं था। यदा-कदा मनोरंजन।‘ से और पूरा होता है- ‘बहरहाल क़स्बे में मनोरंजन की समस्या यथावत् बरक़रार थी।‘ पर। खेल और मनोरंजन, सहज-स्वाभाविक जीवन-चर्या से लगभग अभिन्न होता है। वह आयोजन, मंच पर, परदे पर पहुंच कर जीवन से अलग ‘मनोरंजन‘ होता है। यहां लेखक के लिए अच्छा अवसर था कि वह खाली समय-लेजर और मनोरंजन की द्विधा को टटोलते चलता। समाजार्थिक दृष्टि से माना जाता है कि सभ्यता और समृद्धि, या कहें आर्थिक सामर्थ्य, इसी से तय होता है कि व्यक्ति-समुदाय के जीवन का कितना हिस्सा ‘खाली समय-मनोरंजन‘ का है। मुझे बार-बार लगता है कि आज व्यक्ति गति-सुविधा के साथ टीवी पर खेल और खबरों के लिए समय बचाते व्यस्त है, जिस तरह गृहिणियां को चूल्हे-चौके के धूल-धुएं से मुक्त हो कर भी सीरियल और ओटीटी के लिए ‘टाइम मैनेजमेंट‘ करना होता है।

स्मृति और संस्मरण, सुर मेल बना लेता है आज की दशा से, जहां खंड ‘पांच‘ पूरा होता है। मानों संस्मरण खंड-खंड ‘चितामणि‘ से जुड़ा हो। खंड ‘सात‘ का ईश्वर। बचपन की सरलता को सुलझा हुआ कहना शायद ठीक न हो, क्योंकि सुलझा के लिए तो पहले उलझा हुआ होना होता है, इसलिए उलझने के पहले वाला ईश्वर से सीधा-सहज साक्षात्कार, कुछ अलग ही हो सकता है।

पुस्तक का एक अनूठा अंश, जिसे शब्दशः रखना होगा- ‘स्वप्न में संभव है कि साँप स्वप्नदर्शी को काटे और स्वप्नदर्शी देखे कि उसका शरीर स्याह पड़ने की जगह सोने का हो गया । वह मरने की जगह नैनीताल पहुँच गया और नैनीताल में लाल क़िला है और लाल क़िला का निर्माण मुग़लकाल में नहीं बल्कि चंद्रगुप्त मौर्य के ज़माने में हुआ था जिसकी रक्षा पाषाणकाल के लोग कर रहे हैं और लाल क़िला के भीतर व्हाइट हाउस का दफ़्तर लगा हुआ है जहाँ बाबा सहगल कथक कर रहे हैं और दर्शक कोक की बोतल से रक्त पी रहे हैं कि इतने में एक बड़ा भयानक बम का धमाका होता है। अब आप पाते कि न साँप है न आपका शरीर सोने का है, न व्हाइट हाउस है । आप झुमरी तलैया के एक पेड़ की डाल पर बैठे नीचे पैर लटकाए गन्ने की गँडेरी चूस रहे हैं...‘ (पेज-101)

‘दरअसल क़स्बा अब क़स्बा नहीं रहा, वह शहर का प्रहसन हो गया है।‘ कहते हुए लेखक ‘मैं और मेरा समय‘ में आ जाता है, जो पुस्तक का दूसरा हिस्सा, पहले हिस्से का विपर्यय-सा, या कुछ मायनों में पूरक है, यहां उसे लगता है कि ‘मेरे जीवन में ... न कला फ़िल्मों के दुख हैं, न मसाला फ़िल्मों के सुख।‘ (पेज-116) वह लेखक के जागते रहने को ओवर-रेट, अतिरंजित करता जान पड़ता है, जब कहा गया है कि ‘उसका रुदन-उसका अफ़सोस-उसके जागने के ही कारण है।‘ जबकि यह बस उसकी अभिव्यक्ति के सार्वजनिक हो जाने और साधन-सुविधा के चलते व्यापक हो जाने के कारण है, क्योंकि जो लेखक नहीं, उसकी अनुभूतियां भी ईमानदार, सांद्र और गहरी हैं, वह भी गला-फाड़ चिल्ला रहा है, अपने स्तर पर प्रभावी भी कम नहीं, संभव है कि उसकी बातें ठेठ हों, अनटेम्पर्ड, अनआर्टिकुलेटेड, वैसी अलंकारिक न हों, जैसा महिमामंडित ‘साहित्यिक लेखन‘, मगर ज्यों कहा जाता है, फर्क इतना कि ‘वह माइक से दूर है।‘ जैसा मुक्तिबोध कहते हैं- ‘असल में हमारे वाक्-सिद्ध-साहित्यिक अपने-आपको बहुत ‘प्रकट‘ करते हैं, इस तरह अपने-आपको बहुत छिपाते हैं।‘

इस खंड में देख सकते हैं कि तटस्थ दृष्टि और पूरी समझ के साथ विसंगतियों पर सिर्फ नजर नहीं रखी जा रही, इंगित तर्जनी है और उससे भी आगे बढ़ कर ऊंगली रख दी जाने में भी हिचक नहीं है। मगर ‘इस समय को मुझे जानना... से नया नारा तक नहीं गढ़ा‘ तक पैरा अंश, शायद उदाहरण सहित कहने को आवश्यक मानते हुए लिखा गया है। किंतु समाजिक परिवर्तन के बदलाव पर, पूरे कालखंड को देखते हुए, गंभीर वैचारिक चिंतन को, अल्पकाल सापेक्ष, कुछ संज्ञाओं में सीमित-संकीर्ण कर दिया जाना, उथला हो जाना है। यह भी लगता है कि जिस दल, नेता और विचारधारा का नाम छूट गया, क्या वह जान-बूझ कर छोड़ा जा रहा है, बक्श दिया गया है, वे बेदाग बाइज्जत बरी हैं? ‘तद्भव‘ संपादक के इस लेखन को संपादित करने का अवसर, मुझ पाठक के लिए हो, तो उक्त अंश, निसंदेह इस लेखक के समय का यथार्थ है, बावजूद इसके, हटा कर ‘तत्सम‘ बना रखना चाहूंगा।

‘यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ऐसी रचनाएँ किसी भाषा में कभी-कभार ही संभव हो पाती हैं।‘ अच्छा हुआ कि पुस्तक के लिए लिखे, बैक कवर के इस वाक्य पर मेरी नजर, पुस्तक पढ़ने के बाद पड़ी। पुस्तक खरीदते हुए अलट-पलट कर देखने वाले के लिए ऐसे वाक्य, उसके ग्राहक बनने में सहायक होते हों, मगर मुझ जैसे पाठक के लिए आतंक रचते हैं और ऐसा कुछ किताब के पहले पढ़ लें तो पुस्तक से गुजरते दबाव बना रहता है। खासकर यदि ऐसी किसी बात के साथ कोई नाम न हो। नाम हो तो मान लिया जा सकता है कि यह उसकी राय है, मगर नाम न होने से लगता है कि यह तो इस पुस्तक के साथ स्थापित है, इससे दाएं-बाएं नहीं हुआ जा सकता।साथ ही पुस्तक पढ़ने के साथ नोट्स लेते और पूरी होने पर अपनी यह पाठकीय टिप्पणी लिखने के पहले अगर इस वाक्य को देख लिया होता तो शायद ही किसी प्रतिक्रिया का मन बना पाता।

राधाकृष्ण प्रकाशन की इस पुस्तक के बैक कवर पर उसके बजाय राजकमल प्रकाशन का नाम आया है, जिसे राधाकृष्ण और राजकमल के ‘भेद‘ का पता न हो, वह पुस्तक प्रकाशक तय करने में ठिठकेगा।

Monday, July 4, 2022

रामगढ़ की रंगशाला

जानकारी मिलती है कि ‘धर्मयुग‘ साप्ताहिक पत्रिका के 23 मार्च और 30 मार्च 1969 के अंकों में कुंतल गोयल जी का लेख छपा था, जिसका शीर्षक था- ‘रामगढ़ की पहाड़ियां जिनमें एशिया की अतिप्राचीन नाट्यशाला आज भी विद्यमान है‘। यहां प्रस्तुत लेख के कुछ तथ्य और स्थापनाएं यद्यपि भिन्न हैं, फिर भी इसका महत्व स्वयं स्पष्ट है। इसी विषय पर ‘रामगढ़ की रंगशाला‘ शीर्षक से यह लेख ‘रायपुर सम्भाग लघु समाचार पत्र सम्पादक संघ‘ की, हरि ठाकुर, रमेश नय्यर, शरद कोठारी के सम्पादन में 1980 में प्रकाशित स्मारिका में छपा था, यथावत-

भारत की लोक नाट्य संस्कृति का प्रागैतिहासिक केन्द्र
रामगढ़ की रंगशाला
- डा. कुन्तल गोयल
मनीषा भवन, न्यू कालोनी, अंबिकापुर, (सरगुजा) (म. प्र.)

भारतीय नाट्य कला के विकास में मध्यप्रदेश का योगदान विशिष्ट रहा है। यहां की संगीत-नाट्य परम्परा अत्यन्त प्राचीन एवं समृद्धिशाली रही है। महाकवि कालिदास, भवभूति, धनंजय आदि ने इस कला को समृद्धि के शिखर पर पहुंचाया है। कवि कालिदास के पूर्व के आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में रंगशालाओं तथा प्रेक्षागृहों का जो वर्णन किया है, वह आज भी सरगुजा के रामगढ़ पर्वत पर सुरक्षित है और यह विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं एकमात्र नाट्यशाला के रूप में प्रसिद्ध है। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र रूपकों (नाटकों) के शास्त्रीय अध्ययन का सर्वप्रथम ग्रन्थ माना जाता है जिसमें कहा गया कि ऋग्वेद से शब्द, यजुर्वेद से अभिनय, सामवेद से गान तथा अथर्ववेद से रस लेकर ब्रह्मा ने ललित-कलात्मक ‘नाट्य वेद‘ की सृष्टि की। इस तरह नृत्य, नाट्य एवं संगीत एक दूसरे से मिले-जुले हैं। नाट्य कला का मूल स्रोत ऋग्वेद ही है। इस आधार पर कहा जाता है कि रंगमंच को अभिनय कला से सम्बद्ध करने का श्रेय भारत को ही है। रामायण, महाभारत, अष्टाध्यायी, कामसूत्र, पतंजलि महाभाष्य आदि ग्रन्थों के आधार पर भी इसकी पुष्टि होती है कि भारतीय वांङमय से ही नाट्य कला का जन्म हुआ है। पाश्चात्य विद्वानों ने इस कला के उन्नयन का श्रेय यूनान को दिया है तथा नाच को नाटक का पूर्व रूप माना है। उन्होंने संस्कृत के नट तथा नाटक शब्द को नट् धातु से उद्भूत कहा है। किन्तु नाटककार धनंजय ने अभिनय के द्वारा रस-सृष्टि को ही नाट्य कहा है। उनकी दृष्टि में अभिनय द्वारा भाव-प्रदर्शन, नृत्य, ताल एवं लय के साथ हस्त-पाद संचालन नृत्य है। इस तरह नाट्य कला विशुद्ध रूप से भारतीय संस्कृति की धरोहर है। सरगुजा के रामगढ़ पर्वत की गुफायें नाट्यशाला के रूप में व्यवहत हुई हैं।

मध्यप्रदेश के पूर्वी अंचल में दक्षिण-पश्चिम की ओर अंबिकापुर से लगभग ५० किलोमीटर दूर बिलासपुर मार्ग में उदयपुर ग्राम के निकट स्थित रामगढ़ पर्वत प्राकृतिक वन-सुषमा से सम्पन्न रामायण एवं महाभारत कालीन स्मृतियों का ही धनी नहीं है वरन् मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थलों में सबसे अधिक प्राचीन है। यह स्थान सुन्दर मनोहारी वनों एवं पहाड़ियों से घिरा हुआ है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई ३२०२ फुट तथा धरातल से २००० फुट है। रामगढ़ की पहाड़ी पर स्थित प्राचीन मंदिर, गुफाओं एवं भित्ति चित्रों से प्राचीन एवं वैभवपूर्ण भारतीय संस्कृति का आभास मिलता है। यूं पहाड़ी पर अनेक मंदिरों के खण्डहर, गुफायें तथा अनेक दर्शनीय मूर्तियां हैं किन्तु सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण हैं, पहाड़ी के शिखर पर स्थित ‘सीता बोंगरा‘ और ‘जोगीमारा गुफा‘। इन गुफा तक पहुँचने के लिए १८० फुट लम्बी एक पथरीली, विशाल, प्राकृतिक सुरंग पार करनी पड़ती है यह सुरंग इतनी ऊंची है कि हाथी भी इसमें बड़ी सरलता से प्रवेश कर सकता है। संभवतः इसी से इसे ‘हाथीखोह‘ या ‘हाथीपोल‘ कहा गया है। इसी सुरंग के ऊपर सीताबोंगरा और जोगीमारा की अद्वितीय कलात्मक गुफायें हैं। ये गुफायें पहाड़ी के उत्तरी भाग और पश्चिमी ढलान पर स्थित उत्तर से दक्षिण तक फैली हैं। उत्तरी गुफा ‘सीता बोंगरा‘ के नाम से जानी जाती है और दक्षिणी गुफा ‘जोगीमारा‘ गुफा कहलाती है। कहा जाता है कि भगवान राम ने अपने वनवास काल के समय इसी रामगढ़ पर्वत पर निवास किया था तथा सीता जी ने जिस गुफा में आश्रय लिया था, वह ‘सीता बोंगरा‘ के नाम से प्रसिद्ध हुई। बाद में यही गुफायें रंगशाला के रूप में कला प्रेमियों का स्थल बनीं। कर्नल औसले ने सन् १८४८ में तथा जर्मन विद्वान डा. ब्लाख ने सन् १९०४ में सर्वप्रथम इन गुफाओं के संबंध में महत्वपूर्ण प्रकाश डाला। इस तरह इन विद्वानों के द्वारा ही सरगुजा की इस विश्व प्रसिद्ध लोक नाट्य परम्परा के प्राचीन इतिहास का एक गौरवमय पृष्ठ सबके सम्मुख आया।

सीताबोंगरा: सबसे प्राचीन रंगशाला

“सीताबोंगरा“ एशिया की ही नहीं वरन् विश्व की सबसे प्राचीन एकमात्र रंगशाला है। इसकी बनावट नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध रचयिता भरत मुनि द्वारा वर्णित नाट्य मण्डप जैसी है। कुछ विद्वानों के अनुसार सीताबोंगरा का निर्माण मौर्यकालीन लोमश ऋषि-गुफा के पूर्व का है। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की रचना के पूर्व यह सहज ही यह अनुमान किया जा सकता है कि पहले पर्वत-गुफाओं में ही नाटक खेले जाते थे। इसके आधार पर ही भरत मुनि ने अपने ग्रन्थ में गुफाकृति वाले नाट्य मण्डप की व्यवस्था दी। यही नहीं नाट्यशास्त्र में मण्डप के बाह्य तथा आंतरिक भित्ति पर कलात्मक अलंकरण तथा भित्ति लेख का जो वर्णन मिलता है, उसे देखते हुये सीताबोंगरा तथा जोगीमारा की गुफायें भारतीय रंगमंच के सबसे प्राचीन उदाहरण कहे जा सकते हैं।

सीताबोंगरा की यह गुफा पत्थरों में ही गैलरीनुमा काटकर बनाई गई है। यह ४४ फुट लंबी और १५ फुट चौड़ी है। दीवालें सीधी हैं तथा प्रवेशद्वार गोलाकार है। इस द्वार की ऊंचाई ६ फुट है जो भीतर की ओर केवल ४ फुट रह जाती है। मुख्य द्वार के सम्मुख शिला निर्मित चन्द्राकार सोपान सदृश्य संयोजित पीठें हैं जो कि बाहर की ओर हैं। इन पर बैठकर दर्शकगण नाटकीय दृश्यों, संगीत, नृत्य आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनन्द लिया करते थे। इन पीठों पर लगभग ५० व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था थी। प्रवेश द्वार के समीप ही भूमि कोनों की पीठों की उपेक्षा कुछ निचाई पर है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें दो छिद्र हैं जिन्हें प्रवेश द्वार के निकट फर्श को काटकर बनाया गया है। इनका उपयोग खम्भे गाड़कर पर्दे लगाने के लिए किया जाता था। नाट्य मण्डप में इस तरह के पर्दा या तिरस्कारिणी की व्यवस्था अत्यन्त प्राचीन है। शीत या वर्षां ऋतु से बचने के लिये दर्शकगण अन्दर चौड़ी पीठों पर बैठ जाया करते थे और पर्दे के बगल में खड़े होकर कलाकार अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे। इस रंगशाला की तुलना यूनानी ऐंफो-थियेटर से की जाती है।

डा. कटारे के अभिमत से यह रंगशाला मुख्यतः नाट्य और नृत्य के लिये उपयोग में लाई जाती थी और इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति के इतिहास में इसे अद्वितीय तथा अति प्राचीन समझना चाहिए। प्राचीन काल में भारत में गुफाओं का उपयोग नृत्यशाला के लिए किया जाता था। ऐसी कुछ गुफायें मिली हैं जिनमें पीठों की व्यवस्था से यह कहा जा सकता है कि ये नृत्य एवं नाट्य के लिए उपयोग में लाई जाती थीं। प्राचीन लोग ‘शोभिका‘ (गुहा सुन्दरी) का संबंध उनसे मानते हैं जो नृत्य और हैं नाट्य के लिए थीं। संभवतः आज के अशिक्षित आदिवासी अपने लोक नृत्यों द्वारा इसी हजारों वर्ष पुरानी लोक अभिनय की परम्परा को ही दोहराते हैं और अपना मनोरंजन करते हैं। सरगुजा ऐसे ही लोक नृत्यों की भूमि है।

नाट्यकला के विद्वानों की राय में महाकवि भवभूति का ‘‘उत्तर रामचरित‘‘ नाटक इसी सीताबोंगरा नाट्यशाला में यशोवर्मन के काल में अभिनीत किया गया था। पाली भाषा में उत्कीर्ण लेखों के अनुसार काशी के कलाकार देवदीन ने इस नाटक में भाग लिया था और उनके साथ नाट्यशाला की देवदासी सुतनुका ने अभिनय किया था।

सीताबोंगरा के प्रवेश द्वार के उत्तरी हिस्से पर गुफा की छत के ठीक नीचे मगधी भाषा में ३ फुट ८ इंच लम्बी दो पंक्तियाँ उत्कीर्णं हैं जिनके अक्षरों का आकार प्रकार ढाई इंच है। वे अब अस्पष्ट हैं:-
आदिपयति हृदय। सभावगरू कवयो ये रातयं........ दुले वसंतिया। हासावानुभूते। कुदस्पी तं एवं अलगेति।

इन पंक्तियों का आशय यह है- ‘हृदय को आलोकित करते हैं। स्वभाव से महान ऐसे कविगण रात्रि में ...... वासंती दूर है। हास्य और संगीत से प्रेरित। चमेली के पुष्पों की मोटी माला को ही आलिंगन करता है।‘

इससे यह स्पष्ट है कि यह गुफा सांसारिकता से पृथक साधु-संतों की तपोस्थली ही नहीं थी वरन् यह एक कलात्मक एवं सांस्कृतिक आयोजनों का स्थान था जहां कविता का सस्वर पाठ होता था, प्रेम गीत गाये जाते थे तथा नाटकों का अभिनय किया जाता था। इसका संबंध किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय से न होकर मानवीय गुणों एवं अनुभूतियों से था सीताबोंगरा की यह रंगशाला ग्रीक थियेटर के आकार की बनी होने के कारण ही कतिपय विद्वान भारतीय नाट्य कला पर ग्रीक नाट्य कला का प्रभाव मानते हैं। किन्तु अनेक पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों का यह अभिमत है कि यह कला विशुद्ध रूप से भारतीय परिवेश में ही अम्युदित हुई है तथा विकसित हुई है। असित कुमार हलधर का यह मत है कि प्राचीन भारतीय प्रेक्षागृह का एकमात्र यही उदाहरण उपलब्ध है।

जोगीमारा गुफा: नृत्यांगनाओं का विश्राम कक्ष 

‘सीताबोंगरा‘ के निकट ही ‘जोगीमारा‘ गुफा है जो ३० फुट लंबी और १५ फुट चौड़ी है। गुफा का द्वार पूर्व की ओर है। भारत की चित्रकला में इसे ‘वरूण का मंदिर‘ कहा गया है। यहाँ सुतनुका देवदासी रहती थी जो वरूण देव को समर्पित थी। कहा जाता है कि सुतनुका देवदासी ने सीताबोंगरा नृत्यशाला में नृत्य करने वाली नृत्यांगनाओं के लिये विश्राम कक्ष के रूप में इसे बनवाया था। सुतनुका जितनी सुन्दर थी, उतनी ही संगीत, नृत्य एवं अभिनय कला में दक्ष थी। यह सुतनुका देवदासी एक प्रेम-कथा की नायिका कही गई है। गुफा की उत्तरी भित्ति पर ये पांच पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं:-
पहली पंक्ति - शुतनुक नाम
दूसरी पंक्ति - देवदार्शक्यि।
तीसरी पंक्ति - शुतनुक नम। देवदार्शक्यि।
चौथी पंक्ति - तं कमयिथ वलन शेये।
पांचवीं पंक्ति - देवदिने नम। लुपदखे।

इन पंक्तियों का आशय है- सुतनुका नाम की देवदासी (के विषय में) सुतनुका नाम की देवदासी उसे प्रेमासिक्त किया। मूर्खतावश ( बनारस निवासी) श्रेष्ठ देवदीन नाम के रूपदक्ष ने।

इस संबंध में आचार्य कृष्णदत्त वाजपेयी का मत है कि लेखों से ध्वनि निकलती है कि सुतनुका नाम की नर्तकी थी जिसके लिए देवदासी तथा रूपदर्शिका इन दो शब्दों का प्रयोग किया गया है इसके प्रेमी का नाम देवदत्त था। संभवतः इसी देवदत्त के द्वारा गुफाओं में उक्त लेख अंकित कराये गये ताकि उस स्थान पर उसकी नाट्य प्रिया सुतनुका का नाम अजर-अमर हो जाये।

इस पृष्ठभूमि मे सुतनुका तथा देवदत्त (देवदीन) की एक प्रणय-कथा उभरती है जिसका नायक है देवदीन जो रंगशाला का रूपदक्ष था और नायिका सर्वांग सुन्दरी सुतनुका देवदासी थी। इस श्रेष्ठ रूपदक्ष देवदीन ने देवदासी को प्रेम-आसक्त करने का मूर्खतापूर्ण कार्य किया। देवदीन रंगीन चित्रकारी में पटु था। उसका कार्य सुतनुका तथा नाटक के अन्य पात्रों को नृत्य एवं नाट्य कला के अनुरूप रूप देकर सज्जित करना था। देवदीन ने सुननुका की रूपश्री पर मोहित होकर उसे अपने प्रेमपाश में आबद्ध कर लिया। सुन्दर, सुडौल, कलामयी, सरल हृदया सुतनुका देवदीन की चेष्टाओं में उलझ गई। नाट्यशाला के अधिकारियों ने उनकी इस प्रणय लीला का विरोध किया और भविष्य में लोगों को सचेत करने के लिए इस प्रणयकथा को गुफा की भित्ति पर अंकित करवा दिया। सीताबोंगरा की भित्ति पर जो अभिलेख उत्कीर्ण है, उससे यह भी स्पष्ट होता है कि सुतनुका के वियोग में व्यथित देवदीन ने अपने प्रेम को स्थायित्व देने के लिए उद्गार स्वरूप इसे अंकित किया था।

‘जोगीमारा‘ गुफा में भारतीय भित्ति चित्रों के सबसे प्राचीन नमूने अंकित हैं। भित्ति चित्रों के अधिकांश भाग मिट गए हैं और सदियों की नमी ने भी उन्हें काफी हद तक प्रभावित किया है। कला की दृष्टि से यद्यपि ये श्रेष्ठ नहीं कहे जा सकते फिर भी उनकी प्राचीनता के संबंध में संदेह नहीं किया जा सकता। इन चित्रों को पृष्ठभूमि धार्मिक है। भारत में शिलाखण्डों को काट कर चैत्य विहार तथा मंदिर बनाने की प्रथा थी और उनकी भित्तियों पर पलस्तर लगाकर चूने जैसे पदार्थों से चिकना कर जो चित्र बनाये जाते थे, उन्हीं के अनुरूप यह जोगीमारा गुफा है। विद्वानों ने इसकी चित्रकारी ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की मानी है। ये भित्ति चित्र अजन्ता तथा एलोरा के गुफा मन्दिरों की भाँति हैं जो यहां के पुरातन सांस्कृतिक सम्पन्नता का प्रतीक हैं। डा. हीरालाल ने इन भित्ति चित्रों को बौद्ध धर्म से संबंधित कहा है तथा रायकृष्णदास की राय में ये जैन धर्म से सम्बद्ध हैं जिन्हें कलिंग नरेश खारवेल ने बनवाया था।

‘जोगीमारा‘ गुफा कवि कुलगुरू कालिदास से भी संबंधित कही जाती है। उनके ‘मेघदूत‘ का यक्ष इसी जोगीमारा गुफा में निर्वासित था जहां से उसने अपनी प्रिया को प्रेम का पावन सन्देश दिया था। यहां के अप्रितम प्राकृतिक वन-सौन्दर्य एवं जल-कुण्ड का वर्णन कालिदास ने अपने ‘मेघदूत‘ में किया है। यहीं पर सघन सुशीतल छायादार वृक्ष हैं तथा सीताजी द्वारा पवित्र किया गया जल-कुण्ड है। यही वह स्थान है जहां श्रीरामजी ने सीताजी सहित अपने वनवास काल में विश्राम किया था।

रामगढ़ की इन गुफाओं में उत्कीर्ण शिलालेखों से ‘मेघदूत‘ के कथानक की पर्याप्त सादृश्यता है। एक ओर वसंत के पूनम की खिली मादक रात्रि, गायन, वादन एवं नाट्य का मनोरंजक सम्मेलन, विरह कातर प्रेमी अपनी प्रिया के अभाव में चमेली की मादक गंध वाली माला में ही अपनी प्रिया की समीपता का अनुभव करता है और दूसरी ओर ‘मेघदूत‘ में कजरारे बादल, शीतल मंद बयार से उद्वेलित विरह कातर प्रेमी, प्रिया की स्मृति में सन्तप्त रहता है। उक्त शिलालेख कवि कालिदास के पूर्व का होने में कारण सम्भावित है कि कवि ने इसी से अपने ‘मेघदूत‘ के कथानक की प्रेरणा ग्रहण की हो। इस तरह स्पष्ट है कि रामगढ़ पहाड़ी पर स्थित ‘सीताबोंगरा‘ और ‘जोगीमारा‘ की ये गुफायें सरगुजा के वन-बीहड़ अंचल में आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व सांस्कृतिक आयोजनों, संगीत, नृत्य, नाटक एवं कविता-पाठ के द्वारा यहां के जन-मानस का मनोरंजन करती रही हैं तथा दर-दर के कलाप्रेमियों के आकर्षण का केन्द्र रही हैं। उस समय भी यहाँ के निवासी इतने सुसंस्कृत एवं कलाप्रिय थे कि अपनी कलाप्रियता की स्पष्ट छाप यहाँ के जन-मानस पर सदैव के लिए अंकित कर गये हैं।

डॉ. कुन्तल गोयल का परिचय एवं चित्र उनके एक अन्य लेख के साथ इस लिंक पर है।

Friday, July 1, 2022

नेताजी

2004 में श्याम बेनेगल की फिल्म ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस: द फारगाटेन हीरो‘ आई। फिल्म में नेताजी के विवाहित होने पा कुछ शोधकर्ताओं ने आपत्ति की थी। उनका कहना था कि 23 जनवरी 1939 में चीन जाने के लिए वीसा आवेदन में नेताजी ने अपनी वैवाहिक स्थिति ‘अविवाहित‘ दर्शाई है। नेताजी की हवाई दुर्घटना में मौत भी संदिग्ध मानी गई है। सितंबर 1985 में फैजाबाद के गुमनामी बाबा के मौत के बाद उनके सामानों में नेताजी संबंधी सामग्री से भी रहस्यों की उधेड़-बुन होती रही। इस सबके साथ नेताजी का चमत्कारी व्यक्तित्व किसी महाकाव्यीय नायक की तरह है, जिसकी निरंतर व्याख्या होती रहती है।

प्रभा खेतान फाउंडेशन के माध्यम से अन्य शहरों की तरह रायपुर में भी स्तरीय साहित्यिक-वैचारिक आयोजन होते रहे हैं, जिनमें ‘आखर‘ और ‘कलम‘ जैसा ही लेखक से मुलाकात और पाठक-श्रोताओं से रूबरू संवाद का कार्यक्रम ‘द राइट सर्किल‘ है, जिसका सुरुचिपूर्ण और व्यवस्थित संयोजन महिलाओं के समूह ‘अहसास‘, रायपुर द्वारा किया जाता है। इसी कड़ी में 30 जून को मिशन नेताजी वाले शोधार्थी-लेखक चंद्रचूड़ घोष आमंत्रित थे। ‘अहसास‘ समूह की सर्व सुश्री आंचल गरचा, सृष्टि त्रिवेदी, कीर्ति कृदत्त तथा उनके सहयोगियों ने इस महत्वपूर्ण सत्र को पूरी गरिमा के साथ अंजाम दिया। आमंत्रित लेखक के साथ बातचीत का जिम्मा समूह की वरिष्ठ सदस्य गांधीवादी शिक्षाविद विदुषी सुश्री कल्पना चौधरी का था।


पूरा सत्र, सुघड़, करीने से, कुशल समय-प्रबंधन और समय-सीमा में अधिकतम संभव निष्पत्तियों के कारण यादगार रहा। चंद्रचूड़ जी की विद्वता और नेताजी के तथ्यात्मक इतिहास को उजागर करने का उद्यम झलकता रहा। प्रश्नोत्तर सत्र के दौरान सुभाष चंद्र बोस की पुत्री अनीता से नेताजी संबंधी जानकारी पूछी जाने पर अनीता द्वारा प्रश्नों के प्रति उपेक्षा-उदासीनता के लिए चंद्रचूड़ जी का स्पष्टीकरण उल्लेखनीय था। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह वैसी ही बात होगी कि राहुल गांधी से राजीव गांधी या इंदिरा गांधी की मृत्यु से जुड़ी बातों की तहकीकात की जाए।

नेताजी संबंधी किसी भी जिज्ञासा, शंकाओं के समाधान के लिए डॉ. ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह मुझे सदैव सहज उपलब्ध रहे हैं। नेताजी के प्रसंगों के साथ स्वाधीनता संग्राम, कांग्रेस, नौरोजी, गांधी, नेहरू, जिन्ना के न सिर्फ इतिहास, बल्कि उस दौरान की घटना और परिस्थितियों को संपूर्ण परिप्रेक्ष्य के साथ, उनसे जानना अनूठा अनुभव होता है। इसी क्रम में मध्यकालीन इतिहास के भी रोचक और कम चर्चित किंतु विशिष्ट पक्षों पर उनकी बातें पाठ्य पुस्तकों में मिलना संभव नहीं। फिल्म, हिंदी साहित्य और पौराणिक आख्यान भी उन्हें प्रिय हैं और संदर्भ, उदाहरण के लिए इस्तेमाल किए जाते रहते हैं। पिछले दिनों उत्तरप्रदेश चुनावों के पहले योगी आदित्यनाथ पर उनका लेख, समकालीन या निकट-भूत को वस्तुगत शोध दृष्टि से देखते हुए भविष्य की संभावनाओं को समझने का अनूठा नमूना है। बोस-गांधी मतभेद और मतांतर पर उनका एक लेख यहां है। डॉ. प्रसाद ने 1989 में प्रो. एस.पी. सिंह के निर्देशन में सुभाष चंद्र बोस पर शोध किया है। उनके शोध का शीर्षक ‘भारत के स्वाधीनता संग्राम में सुभाष चंद्र बोस की भूमिका‘ (मूल अंगरेजी में) था, इस कार्य में डॉ. प्रसाद को प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. बिपनचंद्र से भी मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था। नेताजी, भारतीय इतिहास और क्षेत्रीय इतिहास के रोचक और महत्वपूर्ण पक्षों पर डॉ. प्रसाद यदा-कदा लिखते रहते हैं। पिछले दिनों गांधी पर लिखे उनके लेखों की श्रृंखला फेसबुक पर आई, जो संभवतः प्रकाशित भी होगी।

सुभाष चंद्र बोस पर डॉ. प्रसाद का एक लेख ‘सुभाष बोस, एमिली और अनिता‘ दैनिक हरिभूमि समाचार पत्र में 29 जनवरी 2006 को प्रकाशित हुआ था। वह लेख यहां यथावत प्रस्तुत-


सुभाष चन्द्र बोस आईसीएस से त्यागपत्र देने के उपरांत अपनी संपूर्ण ऊर्जा और समर्पण के साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुये थे। गांधीवादी कांग्रेस की अहिंसात्मक जन आधारित राजनीति के बावजूद उनकी राजनीतिक विचारधारा तथा कार्यप्रणाली पर बंगाल की सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधियों का भरपूर प्रभाव पड़ा। इस परिवेश में उनके राजनैतिक विचार और कार्यों में राष्ट्रवाद की उग्रतम अभिव्यक्ति हुई। सविनय आंदोलन के दौरान कारावास की सजा भुगतते गंभीर तौर पर अस्वस्थ हुए तो चिकित्सा हेतु यूरोप जाना पड़ा। वियना और बैंडगेस्टीन में स्वास्थ्य लाभ करते हुए उन्होंने महसूस किया कि उनकी गतिविधियों पर खुफिया पुलिस के द्वारा निगरानी रखी जा रही है। आस्ट्रिया से बाहर अन्य देशों की यात्रा के दौरान भी उन पर निगरानी रखी जाती थी क्योंकि ब्रिटिश सरकार उन्हें अपना सर्वाधिक खतरनाक शत्रु मानती थी।

1934 में लंदन के प्रकाशक लॉरेंस विशार्ट ने उन्हें भारतीय राजनैतिक आंदोलन पर पुस्तक लिखने का प्रस्ताव दिया। करार के अनुसार पुस्तक उसी वर्ष पूर्ण की जानी थी। त्वरित लेखन हेतु सुभाष जी ने निजी सचिव रखने का फैसला किया। आस्ट्रिया में रह रहे डा. माथुर ने आस्ट्रिया परिवार की लड़की सुश्री एमिली शेंकल की अनुशंसा की। उनके पिता पशु चिकित्सक थे तथा दादा जी चमड़े के व्यवसाय से संबद्ध थे। उनका जन्म 26 दिसंबर 1910 को हुआ था। पूरा परिवार कैथोलिक मतावलंबी था। अंग्रेजी व्याकरण में एमिली ने प्रशंसा योग्य प्रवीणता प्राप्त की। शार्टहैंड में भी उन्होंने दक्षता हासिल की। 1930 में एमिली की स्कूली शिक्षा पूरी हो गयी तथा धर्म हेतु आजीवन व्रत का विचार छोड़ दिया। वे नौकरी की तलाश कर रही थीं। इसी समय डा. माथुर ने सुभाष चन्द्र बोस के निजी सचिव हेतु उनकी अनुशंसा की। सुभाष बोस को निजी सचिव इस प्रकार का चाहिये था, जो उनके विचार और कार्यों के बारे में सूचनाओं की गोपनीयता बनाये रख सके, क्योंकि ब्रिटिश खुफिया सेवा द्वारा उन पर सतत निगरानी रखी जा रही थी। एमिली इस मापदंड पर खरी उतर रही थीं।

पुस्तक लेखन में बोस स्वयं लिखते तो एमिली पांडुलिपि की टाइप प्रति तैयार करती या फिर बोस बोलते जाते और एमिली शार्टहैंड में नोट्स लेकर टाइप करतीं। सुभाष पहले तो होटल में रह रहे थे परन्तु जल्दी ही उन्होंने घर किराये पर ले लिया। सुभाष बोस के भतीजे अशोक नाथ बोस जर्मनी में पढ़ रहे थे। अवकाश होने पर वे भी आ जाते। चुनिंदा मौकों पर नेता जी स्वयं भोजन बनाते और अशोक के अनुसार वे भारतीय व्यंजन बहुत स्वादिष्ट बनाते थे। घर इस मामले में भी सुरक्षित था कि खुफिया विभाग के लोग होटल की तरह यहां निगरानी नहीं रख सकते थे। 1934 के अंत तक पुस्तक पूरी होने के उपरांत गाल ब्लैडर का आपरेशन होना था पुस्तक की प्रूफ चेकिंग करते-करते पिता को गंभीर रुग्णता की सूचना मिली तो तत्काल भारत लौटे। उन दिनों हवाई जहाज केवल दिन को ही उड़ा करते थे। यात्रा में समय अधिक लगता था करांची हवाई अड्डे पर पहुंचते ही मालूम हुआ कि उनके पिता का स्वर्गवास हो चुका है। कलकत्ते से श्राद्ध के बाद पुनः यूरोप लौटे। क्योंकि अभी उनके गाल ब्लैडर का आपरेशन होना था। उन्होंने एकमात्र नाम सुश्री एमिली शेंकल का लिखा था। संभवतः यह पुस्तक लेखन में की गयी सहायता के कारण कम और उस दौरान उनसे भावनात्मक लगाव का परिचायक अधिक था। 1935-36 के दौरान एमिली से उनकी घनिष्ठता बढ़ती गयी परंतु भारत की आजादी भी दृष्टि से ओझल नहीं हुई थी। बाद में गांधी नेहरू और कांग्रेस के दबाव में उन्हें रिहा किया गया। गांधी जी उन्हें 1938 के कांग्रेस सत्र के लिये अध्यक्ष नियुक्त किया तथा स्वास्थ्य लाभ के लिये यूरोप जाने की सलाह दी। क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर कार्य करने के लिये उन्हें अपने आप को फिट रखना था। इस संक्षिप्त यूरोपीय प्रवास में एमिली नेता जी के साथ रहीं। अब तक एमिली के साथ उनका स्नेह संबंध अत्यंत प्रगाढ़ हो चुका था।

1934 से 42 के आठ वर्षों की अवधि में दोनों के बीच उपजे अंतरंग तथा भावुक संबंधों का पता उनके बीच हुये पत्राचार से चलता है। आज कम से कम 180 पत्र उपलब्ध हैं जिनमें से अधिकांश सिगार के पुराने डब्बे में मिले थे। यह डब्बा 1980 में खोला गया था तथा 1993 में एमिली बोस ने इन पत्र को सार्वजनिक किये जाने की अनुमति दी। 1942 के उपरांत भी नेता जी ने एमिली को पत्र लिखना जारी रखा था। दक्षिण पूर्वी एशिया के विभिन्न हिस्सों से लिखे पत्र एमिली के वियना वाले घर में रखे थे। वियना पर मित्र राष्ट्रों की विजय के उपरांत ब्रिटिश अधिकारियों ने उनके घर की तलाशी ली और इस दौरान जब्त किये कागजातों में ये पत्र भी शामिल हो गये, आज ये पत्र अनुपलब्ध हैं। भारत से बर्लिन पहुंचने पर नेता जी ने एमिली के नाम पत्र लिखा तथा तार भी भेजा। एमिली के परिवार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ नहीं थी। पिता की मृत्यु के उपरान्त परिवार में मां और बहन ही शेष बची थीं। आजीविका के लिये वे नौकरी कर रही थी। नेता जी ने उन्हें पुनः निजी सचिव के तौर पर रखने की अभिलाषा जाहिर की। पत्र में उन्होंने गुजारिश की थी कि व्यस्त और गोपनीय कार्यक्रम के कारण वे वियना आने में असमर्थ हैं सो एमिली हो बर्लिन आ जायें। जर्मन विदेश सेवा के अधिकारियों के मार्फत भी संदेश भेजा गया। एमिल मिलने आयी और इस बार दोनों ने विवाह कर लिया। 26 दिसंबर 1942 के दिन नवविवाहित दंपत्ति के घर पुत्री का जन्म हुआ। नेता जी इटालियन क्रांतिकारी गैरीबाल्डी को अपना आदर्श मानते थे और उनकी पुत्री एनीटा के नाम पर अपनी पुत्री का नामकरण अनीता किया। पत्नी और पुत्री के साथ वे अधिक समय नहीं बिता पाए क्योंकि दक्षिण पूर्वी एशिया में आजाद हिन्द फौज और सरकार के गठन हेतु उन्हें बर्लिन से जापान जाना पड़ा। एमिली और अनिता के प्रति पिता और पति के रूप में सुभाष बोस अपने आपको जिम्मेदारी से भागते महसूस कर रहे थे। अनिश्चितता की स्थिति में 8 फरवरी 1943 को अपने घनिष्ठ अग्रज और संरक्षक शरत बोस के नाम बंगला में पत्र लिखकर उन्होंने पत्नी को दिया जो जरूरत पड़ने पर उपयोग किया जाना था। पत्र इस प्रकार था,

मेरे प्रिय भाई,

आज मैं फिर से एक बार खतरे की राह पर निकल रहा हूं घर की तरफ। मुझे शायद मंजिल नहीं भी मिल पाए। अगर मुझे किसी खतरे का सामना करना पड़ता है, तो मैं इस जीवन में आगे अपनी खबर नहीं दे पाऊंगा। इसीलिए मैं यह पत्र यहां छोड़ रहा है। जो सही समय पर आप को मिलेगा। मैंने यहां विवाह कर लिया है और मेरी एक बेटी है। मेरी अनुपस्थिति में मेरी पत्नी और पुत्री को वही प्यार दें जो आपने मुझे जीवनभर दिया है। मेरी अंतिम प्रार्थना है कि मेरी पत्नी और पुत्री मेरे अधूरे कार्य को पूरा करें।
-आपका सुभाष

सुभाष के इस पत्र को अपनी थाती बना कर एमिली वियना में रह रही थीं। 1945 के अगस्त महीने तक मित्र राष्ट्रों की जीत हो चुकी थी। शाम का समय था। लगभग तीन साल की हो रही अनिता बेडरूम में सोयी थी और एमिली रसोईघर में ऊन के गोले डब्बे में रख रही थीं। तभी रेडियो पर संध्याकालीन समाचार आया कि वायुयान दुर्घटना में सुभाष चंद्र बोस गई है। सुभाष बोस ने उन्हें पहले एक बार लिखा था,

‘हो सकता है मैं फिर कभी नहीं मिल पाऊं पर मेरा विश्वास करो कि तुम हमेशा मेरे हृदय में, विचारों में और स्वप्न में रहोगी। अगर भाग्य मुझे तुमसे इस जीवन में जुदा कर देता है तो मैं तुम्हें अगले जन्म में मिलूंगा... मेरे देवदूत, मुझे स्नेह करने के लिए और स्नेह करना सिखाने के लिए धन्यवाद‘ एमिली किचेन से चुपचाप निकलीं और बेडरूम गयीं जहां अनिता अनिष्ट से बेखबर सो रही थी। वे बिस्तर के बगल से फर्श पर धीमे से बैठीं और बरबस रुलाई फूट पड़ी।
-डॉ. ब्रज किशोर प्र. सिंह