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Saturday, July 16, 2022

लपका

मौका दिखा कि मन लपका। ‘खजुराहो का लपका‘ पढ़ते हुए सरसरी तौर पर तो यही लगता है कि इतनी सी बात को रंग-रोगन कर पेश किया गया है। मगर सहज प्रवाह वाली यह कहानी पाठक के मन में धीरे-धीरे उतरते हुए, खुलती और खिलती है।

नायिका का आग्रह, कुछ अलग नजरिए से खजुराहो देखने का है, उसका उद्देश्य भी सामान्य पर्यटक का नहीं है। इस बहाने सचमुच खजुराहो को कुछ अलग ढंग से देखा गया है। वार्तालाप, विवरण, कथा-कथन और घटना-क्रम सब कुछ सहज, मगर ताजगी भरा और कई मायनों में अलग-सा भी। स्केच-बुक ले कर चलने वाली नायिका कहानी में क्या रंग भर रही है, आसानी से समझा नहीं जा सकता।

खजुराहो ने उस पूरे अंचल की सोच को प्रभावित किया है। छोटी सी बस्ती में कैरियर की नई संभावनाएं और जीवन के अनूठे आयाम जोड़े हैं, मगर जीवन की मौलिकता बार-बार उभरती है। शास्त्र और लोक, देस-परदेस, जीवन-व्यापार और फक्कड़ी यहां आपस में गुंथे हुए हैं और उनका समानांतर निर्वाह होता चलता है। उदात्त प्रेम के गहरे भाव व मानवीय संवेदना को गोप-हेमवती, सजन-प्रभा की कथा से उभारा गया है और उसे जीवंत किया गया है, उपन्यास के पात्रों के चार-पांच प्रेम-प्रसंगों के माध्यम से।

खजुराहो पर ऐसा उपन्यास तभी संभव है, जब रचनाकार मौटे तौर पर ही सही, बहुत करीब से उस स्थल के भूगोल और इतिहास, शिल्प-स्थापत्य, शास्त्र-पुराण इन सभी से आत्मीय रूप से परिचित हो, जुड़ा रहा हो साथ ही उसे इस पूरे परिवेश के ऐसे तत्व और कारक दिख रहे हों, जिसे न कोई पर्यटक देख पाता, न अध्येता, न वहां का व्यवसायी और न बाशिन्दा। लेखक की सफलता कि जहां स्थानीय भाषा है, वहां परंपरा, भाव और सोच भी उसके अनुकूल है। इसके लिए आवश्यक है कि लेखक वहां के जीवन में घुल-मिल जाए और तटस्थ भी बना रहे।

समृद्ध खजुराहो वीरान रहा और अब विश्व विरासत के नक्शे में हैं। लेखक आगाह करता है कि वहां इसके बावजूद लपक कर पा जाने का सार्थक कुछ भी नहीं है, हजार साल का इतिहास, जिसमें कई हजार सालों की परंपरा मूर्त हुई है, जिसमें धर्म-अध्यात्म-दर्शन की गहनता है, मानों एक ठहरा हुआ घनीभूत समय। यों उघड़ा हुआ, साथ ही परत-दर-परत भी, पूरी कहानी बुनते लेखक ने किस सावधानी से इसका निर्वाह किया है, यह भी पढ़ते हुए या सिर्फ पढ़कर नहीं, बल्कि ठहर कर ही झलकना, झिलमिलाना शुरू होता है, मानों कोई पार्श्व संगीत देर तक मन में भीना-भीना गूंजता रहे। इसलिए यह खजुराहो ही नहीं, किसी पर्यटन स्थल या अन्य कहीं भी होने वाले आकस्मिक बदलाव से फास्ट फारवर्ड हुए जीवन का दस्तावेज है।

किसी पत्रकार के लिए अपने नियमित काम के दौरान समाज को ठहर कर देखने का अवसर कम ही होता है, अक्सर उसने सीमित समय में जितना कुछ देखा-समझा, उसे अधिकतम विश्वसनीय बना कर प्रस्तुत करने का दबाव उस पर होता है, यथातथ्य मगर असरदार। लेकिन इससे कम समय में अधिक भांप लेने का अभ्यास भी बन जाता है। इस पुस्तक का पत्रकार-लेखक, अपनी भू-जल जानकारियों को समाज के दैनंदिन संदर्भों से जोड़ कर सक्रिय हो, उसे समय की बाध्यता न हो और वह रचे, जिसमें उसका मन रमे, तब ऐसी कृति साकार होती है।

इस कृति पर फीचर फिल्म की तैयारी की सूचना पुस्तक पर दी गई है। कहानी में पूरी संभावना है, वार्तालाप और दृश्यों का विवरण सहज-विश्वसनीय है, जो फिल्मकार के लिए काम आसान करेगी, किंतु तरल प्रसंगें के बहाव और नजाकत को पकड़ना, सहेजना चुनौती होगी।

पुस्तक के लेखक सुनील चतुर्वेदी, सामाजिक संस्था ‘विभावरी‘ से जुड़े हैं। जल संवर्धन और संरक्षण पर उनकी पुस्तकें ‘पानी दे गुड़धानी दे‘ और ‘रुको बूंद‘ है। उपन्यास ‘कालीचाट‘, जिस पर इसी नाम से फीचर फिल्म बनी, के लेखक के रूप में अधिक जाने गए। इस पुस्तक की कमियों, जो मुख्यतः मामूली अशुद्धियां हैं, की ओर लेखक का ध्यान है और पढ़ने के प्रवाह में बाधा नहीं होती, इसलिए उनका उल्लेख यहां अनावश्यक होगा। पुस्तक के स्केच अवश्य उल्लेखनीय हैं।

प्रसंगवश -

‘विभावरी‘ के साथ सोनल की ‘कोशिशों की डायरी‘ पुस्तक का उल्लेख
प्रासंगिक ही नहीं, आवश्यक भी लगा। इसी प्रकाशक NeoLit से आई यह डायरी,
विभावरी के एक पक्ष का लेखा-जोखा है।
ऐसा संस्मरण, जिसमें समाया ‘मैं‘ हावी न हो, तब जब रचनाकार स्वयं पात्र भी हो।
ताजगी और सहज सच का सौंदर्य है इसमें।
साथ ही सामाजिक बदलाव के लिए समय-सापेक्ष काम करते हुए
सोच किस तरह उदात्त, समयातीत हो जाती है,
स्थायी प्रभाव डालने वाली, जिसका उदाहरण है यह कृति।


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