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Monday, July 4, 2022

रामगढ़ की रंगशाला

जानकारी मिलती है कि ‘धर्मयुग‘ साप्ताहिक पत्रिका के 23 मार्च और 30 मार्च 1969 के अंकों में कुंतल गोयल जी का लेख छपा था, जिसका शीर्षक था- ‘रामगढ़ की पहाड़ियां जिनमें एशिया की अतिप्राचीन नाट्यशाला आज भी विद्यमान है‘। यहां प्रस्तुत लेख के कुछ तथ्य और स्थापनाएं यद्यपि भिन्न हैं, फिर भी इसका महत्व स्वयं स्पष्ट है। इसी विषय पर ‘रामगढ़ की रंगशाला‘ शीर्षक से यह लेख ‘रायपुर सम्भाग लघु समाचार पत्र सम्पादक संघ‘ की, हरि ठाकुर, रमेश नय्यर, शरद कोठारी के सम्पादन में 1980 में प्रकाशित स्मारिका में छपा था, यथावत-

भारत की लोक नाट्य संस्कृति का प्रागैतिहासिक केन्द्र
रामगढ़ की रंगशाला
- डा. कुन्तल गोयल
मनीषा भवन, न्यू कालोनी, अंबिकापुर, (सरगुजा) (म. प्र.)

भारतीय नाट्य कला के विकास में मध्यप्रदेश का योगदान विशिष्ट रहा है। यहां की संगीत-नाट्य परम्परा अत्यन्त प्राचीन एवं समृद्धिशाली रही है। महाकवि कालिदास, भवभूति, धनंजय आदि ने इस कला को समृद्धि के शिखर पर पहुंचाया है। कवि कालिदास के पूर्व के आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में रंगशालाओं तथा प्रेक्षागृहों का जो वर्णन किया है, वह आज भी सरगुजा के रामगढ़ पर्वत पर सुरक्षित है और यह विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं एकमात्र नाट्यशाला के रूप में प्रसिद्ध है। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र रूपकों (नाटकों) के शास्त्रीय अध्ययन का सर्वप्रथम ग्रन्थ माना जाता है जिसमें कहा गया कि ऋग्वेद से शब्द, यजुर्वेद से अभिनय, सामवेद से गान तथा अथर्ववेद से रस लेकर ब्रह्मा ने ललित-कलात्मक ‘नाट्य वेद‘ की सृष्टि की। इस तरह नृत्य, नाट्य एवं संगीत एक दूसरे से मिले-जुले हैं। नाट्य कला का मूल स्रोत ऋग्वेद ही है। इस आधार पर कहा जाता है कि रंगमंच को अभिनय कला से सम्बद्ध करने का श्रेय भारत को ही है। रामायण, महाभारत, अष्टाध्यायी, कामसूत्र, पतंजलि महाभाष्य आदि ग्रन्थों के आधार पर भी इसकी पुष्टि होती है कि भारतीय वांङमय से ही नाट्य कला का जन्म हुआ है। पाश्चात्य विद्वानों ने इस कला के उन्नयन का श्रेय यूनान को दिया है तथा नाच को नाटक का पूर्व रूप माना है। उन्होंने संस्कृत के नट तथा नाटक शब्द को नट् धातु से उद्भूत कहा है। किन्तु नाटककार धनंजय ने अभिनय के द्वारा रस-सृष्टि को ही नाट्य कहा है। उनकी दृष्टि में अभिनय द्वारा भाव-प्रदर्शन, नृत्य, ताल एवं लय के साथ हस्त-पाद संचालन नृत्य है। इस तरह नाट्य कला विशुद्ध रूप से भारतीय संस्कृति की धरोहर है। सरगुजा के रामगढ़ पर्वत की गुफायें नाट्यशाला के रूप में व्यवहत हुई हैं।

मध्यप्रदेश के पूर्वी अंचल में दक्षिण-पश्चिम की ओर अंबिकापुर से लगभग ५० किलोमीटर दूर बिलासपुर मार्ग में उदयपुर ग्राम के निकट स्थित रामगढ़ पर्वत प्राकृतिक वन-सुषमा से सम्पन्न रामायण एवं महाभारत कालीन स्मृतियों का ही धनी नहीं है वरन् मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थलों में सबसे अधिक प्राचीन है। यह स्थान सुन्दर मनोहारी वनों एवं पहाड़ियों से घिरा हुआ है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई ३२०२ फुट तथा धरातल से २००० फुट है। रामगढ़ की पहाड़ी पर स्थित प्राचीन मंदिर, गुफाओं एवं भित्ति चित्रों से प्राचीन एवं वैभवपूर्ण भारतीय संस्कृति का आभास मिलता है। यूं पहाड़ी पर अनेक मंदिरों के खण्डहर, गुफायें तथा अनेक दर्शनीय मूर्तियां हैं किन्तु सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण हैं, पहाड़ी के शिखर पर स्थित ‘सीता बोंगरा‘ और ‘जोगीमारा गुफा‘। इन गुफा तक पहुँचने के लिए १८० फुट लम्बी एक पथरीली, विशाल, प्राकृतिक सुरंग पार करनी पड़ती है यह सुरंग इतनी ऊंची है कि हाथी भी इसमें बड़ी सरलता से प्रवेश कर सकता है। संभवतः इसी से इसे ‘हाथीखोह‘ या ‘हाथीपोल‘ कहा गया है। इसी सुरंग के ऊपर सीताबोंगरा और जोगीमारा की अद्वितीय कलात्मक गुफायें हैं। ये गुफायें पहाड़ी के उत्तरी भाग और पश्चिमी ढलान पर स्थित उत्तर से दक्षिण तक फैली हैं। उत्तरी गुफा ‘सीता बोंगरा‘ के नाम से जानी जाती है और दक्षिणी गुफा ‘जोगीमारा‘ गुफा कहलाती है। कहा जाता है कि भगवान राम ने अपने वनवास काल के समय इसी रामगढ़ पर्वत पर निवास किया था तथा सीता जी ने जिस गुफा में आश्रय लिया था, वह ‘सीता बोंगरा‘ के नाम से प्रसिद्ध हुई। बाद में यही गुफायें रंगशाला के रूप में कला प्रेमियों का स्थल बनीं। कर्नल औसले ने सन् १८४८ में तथा जर्मन विद्वान डा. ब्लाख ने सन् १९०४ में सर्वप्रथम इन गुफाओं के संबंध में महत्वपूर्ण प्रकाश डाला। इस तरह इन विद्वानों के द्वारा ही सरगुजा की इस विश्व प्रसिद्ध लोक नाट्य परम्परा के प्राचीन इतिहास का एक गौरवमय पृष्ठ सबके सम्मुख आया।

सीताबोंगरा: सबसे प्राचीन रंगशाला

“सीताबोंगरा“ एशिया की ही नहीं वरन् विश्व की सबसे प्राचीन एकमात्र रंगशाला है। इसकी बनावट नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध रचयिता भरत मुनि द्वारा वर्णित नाट्य मण्डप जैसी है। कुछ विद्वानों के अनुसार सीताबोंगरा का निर्माण मौर्यकालीन लोमश ऋषि-गुफा के पूर्व का है। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की रचना के पूर्व यह सहज ही यह अनुमान किया जा सकता है कि पहले पर्वत-गुफाओं में ही नाटक खेले जाते थे। इसके आधार पर ही भरत मुनि ने अपने ग्रन्थ में गुफाकृति वाले नाट्य मण्डप की व्यवस्था दी। यही नहीं नाट्यशास्त्र में मण्डप के बाह्य तथा आंतरिक भित्ति पर कलात्मक अलंकरण तथा भित्ति लेख का जो वर्णन मिलता है, उसे देखते हुये सीताबोंगरा तथा जोगीमारा की गुफायें भारतीय रंगमंच के सबसे प्राचीन उदाहरण कहे जा सकते हैं।

सीताबोंगरा की यह गुफा पत्थरों में ही गैलरीनुमा काटकर बनाई गई है। यह ४४ फुट लंबी और १५ फुट चौड़ी है। दीवालें सीधी हैं तथा प्रवेशद्वार गोलाकार है। इस द्वार की ऊंचाई ६ फुट है जो भीतर की ओर केवल ४ फुट रह जाती है। मुख्य द्वार के सम्मुख शिला निर्मित चन्द्राकार सोपान सदृश्य संयोजित पीठें हैं जो कि बाहर की ओर हैं। इन पर बैठकर दर्शकगण नाटकीय दृश्यों, संगीत, नृत्य आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनन्द लिया करते थे। इन पीठों पर लगभग ५० व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था थी। प्रवेश द्वार के समीप ही भूमि कोनों की पीठों की उपेक्षा कुछ निचाई पर है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें दो छिद्र हैं जिन्हें प्रवेश द्वार के निकट फर्श को काटकर बनाया गया है। इनका उपयोग खम्भे गाड़कर पर्दे लगाने के लिए किया जाता था। नाट्य मण्डप में इस तरह के पर्दा या तिरस्कारिणी की व्यवस्था अत्यन्त प्राचीन है। शीत या वर्षां ऋतु से बचने के लिये दर्शकगण अन्दर चौड़ी पीठों पर बैठ जाया करते थे और पर्दे के बगल में खड़े होकर कलाकार अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे। इस रंगशाला की तुलना यूनानी ऐंफो-थियेटर से की जाती है।

डा. कटारे के अभिमत से यह रंगशाला मुख्यतः नाट्य और नृत्य के लिये उपयोग में लाई जाती थी और इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति के इतिहास में इसे अद्वितीय तथा अति प्राचीन समझना चाहिए। प्राचीन काल में भारत में गुफाओं का उपयोग नृत्यशाला के लिए किया जाता था। ऐसी कुछ गुफायें मिली हैं जिनमें पीठों की व्यवस्था से यह कहा जा सकता है कि ये नृत्य एवं नाट्य के लिए उपयोग में लाई जाती थीं। प्राचीन लोग ‘शोभिका‘ (गुहा सुन्दरी) का संबंध उनसे मानते हैं जो नृत्य और हैं नाट्य के लिए थीं। संभवतः आज के अशिक्षित आदिवासी अपने लोक नृत्यों द्वारा इसी हजारों वर्ष पुरानी लोक अभिनय की परम्परा को ही दोहराते हैं और अपना मनोरंजन करते हैं। सरगुजा ऐसे ही लोक नृत्यों की भूमि है।

नाट्यकला के विद्वानों की राय में महाकवि भवभूति का ‘‘उत्तर रामचरित‘‘ नाटक इसी सीताबोंगरा नाट्यशाला में यशोवर्मन के काल में अभिनीत किया गया था। पाली भाषा में उत्कीर्ण लेखों के अनुसार काशी के कलाकार देवदीन ने इस नाटक में भाग लिया था और उनके साथ नाट्यशाला की देवदासी सुतनुका ने अभिनय किया था।

सीताबोंगरा के प्रवेश द्वार के उत्तरी हिस्से पर गुफा की छत के ठीक नीचे मगधी भाषा में ३ फुट ८ इंच लम्बी दो पंक्तियाँ उत्कीर्णं हैं जिनके अक्षरों का आकार प्रकार ढाई इंच है। वे अब अस्पष्ट हैं:-
आदिपयति हृदय। सभावगरू कवयो ये रातयं........ दुले वसंतिया। हासावानुभूते। कुदस्पी तं एवं अलगेति।

इन पंक्तियों का आशय यह है- ‘हृदय को आलोकित करते हैं। स्वभाव से महान ऐसे कविगण रात्रि में ...... वासंती दूर है। हास्य और संगीत से प्रेरित। चमेली के पुष्पों की मोटी माला को ही आलिंगन करता है।‘

इससे यह स्पष्ट है कि यह गुफा सांसारिकता से पृथक साधु-संतों की तपोस्थली ही नहीं थी वरन् यह एक कलात्मक एवं सांस्कृतिक आयोजनों का स्थान था जहां कविता का सस्वर पाठ होता था, प्रेम गीत गाये जाते थे तथा नाटकों का अभिनय किया जाता था। इसका संबंध किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय से न होकर मानवीय गुणों एवं अनुभूतियों से था सीताबोंगरा की यह रंगशाला ग्रीक थियेटर के आकार की बनी होने के कारण ही कतिपय विद्वान भारतीय नाट्य कला पर ग्रीक नाट्य कला का प्रभाव मानते हैं। किन्तु अनेक पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों का यह अभिमत है कि यह कला विशुद्ध रूप से भारतीय परिवेश में ही अम्युदित हुई है तथा विकसित हुई है। असित कुमार हलधर का यह मत है कि प्राचीन भारतीय प्रेक्षागृह का एकमात्र यही उदाहरण उपलब्ध है।

जोगीमारा गुफा: नृत्यांगनाओं का विश्राम कक्ष 

‘सीताबोंगरा‘ के निकट ही ‘जोगीमारा‘ गुफा है जो ३० फुट लंबी और १५ फुट चौड़ी है। गुफा का द्वार पूर्व की ओर है। भारत की चित्रकला में इसे ‘वरूण का मंदिर‘ कहा गया है। यहाँ सुतनुका देवदासी रहती थी जो वरूण देव को समर्पित थी। कहा जाता है कि सुतनुका देवदासी ने सीताबोंगरा नृत्यशाला में नृत्य करने वाली नृत्यांगनाओं के लिये विश्राम कक्ष के रूप में इसे बनवाया था। सुतनुका जितनी सुन्दर थी, उतनी ही संगीत, नृत्य एवं अभिनय कला में दक्ष थी। यह सुतनुका देवदासी एक प्रेम-कथा की नायिका कही गई है। गुफा की उत्तरी भित्ति पर ये पांच पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं:-
पहली पंक्ति - शुतनुक नाम
दूसरी पंक्ति - देवदार्शक्यि।
तीसरी पंक्ति - शुतनुक नम। देवदार्शक्यि।
चौथी पंक्ति - तं कमयिथ वलन शेये।
पांचवीं पंक्ति - देवदिने नम। लुपदखे।

इन पंक्तियों का आशय है- सुतनुका नाम की देवदासी (के विषय में) सुतनुका नाम की देवदासी उसे प्रेमासिक्त किया। मूर्खतावश ( बनारस निवासी) श्रेष्ठ देवदीन नाम के रूपदक्ष ने।

इस संबंध में आचार्य कृष्णदत्त वाजपेयी का मत है कि लेखों से ध्वनि निकलती है कि सुतनुका नाम की नर्तकी थी जिसके लिए देवदासी तथा रूपदर्शिका इन दो शब्दों का प्रयोग किया गया है इसके प्रेमी का नाम देवदत्त था। संभवतः इसी देवदत्त के द्वारा गुफाओं में उक्त लेख अंकित कराये गये ताकि उस स्थान पर उसकी नाट्य प्रिया सुतनुका का नाम अजर-अमर हो जाये।

इस पृष्ठभूमि मे सुतनुका तथा देवदत्त (देवदीन) की एक प्रणय-कथा उभरती है जिसका नायक है देवदीन जो रंगशाला का रूपदक्ष था और नायिका सर्वांग सुन्दरी सुतनुका देवदासी थी। इस श्रेष्ठ रूपदक्ष देवदीन ने देवदासी को प्रेम-आसक्त करने का मूर्खतापूर्ण कार्य किया। देवदीन रंगीन चित्रकारी में पटु था। उसका कार्य सुतनुका तथा नाटक के अन्य पात्रों को नृत्य एवं नाट्य कला के अनुरूप रूप देकर सज्जित करना था। देवदीन ने सुननुका की रूपश्री पर मोहित होकर उसे अपने प्रेमपाश में आबद्ध कर लिया। सुन्दर, सुडौल, कलामयी, सरल हृदया सुतनुका देवदीन की चेष्टाओं में उलझ गई। नाट्यशाला के अधिकारियों ने उनकी इस प्रणय लीला का विरोध किया और भविष्य में लोगों को सचेत करने के लिए इस प्रणयकथा को गुफा की भित्ति पर अंकित करवा दिया। सीताबोंगरा की भित्ति पर जो अभिलेख उत्कीर्ण है, उससे यह भी स्पष्ट होता है कि सुतनुका के वियोग में व्यथित देवदीन ने अपने प्रेम को स्थायित्व देने के लिए उद्गार स्वरूप इसे अंकित किया था।

‘जोगीमारा‘ गुफा में भारतीय भित्ति चित्रों के सबसे प्राचीन नमूने अंकित हैं। भित्ति चित्रों के अधिकांश भाग मिट गए हैं और सदियों की नमी ने भी उन्हें काफी हद तक प्रभावित किया है। कला की दृष्टि से यद्यपि ये श्रेष्ठ नहीं कहे जा सकते फिर भी उनकी प्राचीनता के संबंध में संदेह नहीं किया जा सकता। इन चित्रों को पृष्ठभूमि धार्मिक है। भारत में शिलाखण्डों को काट कर चैत्य विहार तथा मंदिर बनाने की प्रथा थी और उनकी भित्तियों पर पलस्तर लगाकर चूने जैसे पदार्थों से चिकना कर जो चित्र बनाये जाते थे, उन्हीं के अनुरूप यह जोगीमारा गुफा है। विद्वानों ने इसकी चित्रकारी ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की मानी है। ये भित्ति चित्र अजन्ता तथा एलोरा के गुफा मन्दिरों की भाँति हैं जो यहां के पुरातन सांस्कृतिक सम्पन्नता का प्रतीक हैं। डा. हीरालाल ने इन भित्ति चित्रों को बौद्ध धर्म से संबंधित कहा है तथा रायकृष्णदास की राय में ये जैन धर्म से सम्बद्ध हैं जिन्हें कलिंग नरेश खारवेल ने बनवाया था।

‘जोगीमारा‘ गुफा कवि कुलगुरू कालिदास से भी संबंधित कही जाती है। उनके ‘मेघदूत‘ का यक्ष इसी जोगीमारा गुफा में निर्वासित था जहां से उसने अपनी प्रिया को प्रेम का पावन सन्देश दिया था। यहां के अप्रितम प्राकृतिक वन-सौन्दर्य एवं जल-कुण्ड का वर्णन कालिदास ने अपने ‘मेघदूत‘ में किया है। यहीं पर सघन सुशीतल छायादार वृक्ष हैं तथा सीताजी द्वारा पवित्र किया गया जल-कुण्ड है। यही वह स्थान है जहां श्रीरामजी ने सीताजी सहित अपने वनवास काल में विश्राम किया था।

रामगढ़ की इन गुफाओं में उत्कीर्ण शिलालेखों से ‘मेघदूत‘ के कथानक की पर्याप्त सादृश्यता है। एक ओर वसंत के पूनम की खिली मादक रात्रि, गायन, वादन एवं नाट्य का मनोरंजक सम्मेलन, विरह कातर प्रेमी अपनी प्रिया के अभाव में चमेली की मादक गंध वाली माला में ही अपनी प्रिया की समीपता का अनुभव करता है और दूसरी ओर ‘मेघदूत‘ में कजरारे बादल, शीतल मंद बयार से उद्वेलित विरह कातर प्रेमी, प्रिया की स्मृति में सन्तप्त रहता है। उक्त शिलालेख कवि कालिदास के पूर्व का होने में कारण सम्भावित है कि कवि ने इसी से अपने ‘मेघदूत‘ के कथानक की प्रेरणा ग्रहण की हो। इस तरह स्पष्ट है कि रामगढ़ पहाड़ी पर स्थित ‘सीताबोंगरा‘ और ‘जोगीमारा‘ की ये गुफायें सरगुजा के वन-बीहड़ अंचल में आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व सांस्कृतिक आयोजनों, संगीत, नृत्य, नाटक एवं कविता-पाठ के द्वारा यहां के जन-मानस का मनोरंजन करती रही हैं तथा दर-दर के कलाप्रेमियों के आकर्षण का केन्द्र रही हैं। उस समय भी यहाँ के निवासी इतने सुसंस्कृत एवं कलाप्रिय थे कि अपनी कलाप्रियता की स्पष्ट छाप यहाँ के जन-मानस पर सदैव के लिए अंकित कर गये हैं।

डॉ. कुन्तल गोयल का परिचय एवं चित्र उनके एक अन्य लेख के साथ इस लिंक पर है।

1 comment:

  1. बहुत अच्छी जानकारी

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