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Friday, December 30, 2011

व्‍यक्तित्‍व रहस्‍य

बीसेक साल पहले मेरे इर्द-गिर्द जिन पुस्तकों की चर्चा होती, वे थीं- 
# Dr. Eric Berne की Transactional Analysis in Psychotherapy, Games People Play और What Do You Say After You Say Hello?
# Muriel James, Dorothy Jongeward की Born To Win 
# Thomas A Harris की I'm OK, You're OK और 
# AB Harris, TA Harris की Staying OK 
# Claude Steiner की Scripts People Live आदि। 
इनमें से कुछ सुनी, देखी, उल्टी-पल्टी, कुछ पढ़ी भी, इससे जो नई बात समझ में आई, तब लिख लिया, यह वही निजी नोट है, इसलिए इसमें प्रवाह और स्पष्टता का अभाव हो सकता है, लेकिन इस विषय से परिचितों के लिए सहज पठनीय होगा और अन्‍य को यह पढ़ कर, इस क्षेत्र में रुचि हो सकती है।

व्‍यक्तित्‍व के रहस्‍य को समझने और उसे सुलझाने का वैज्ञानिक तरीका, टीए-ट्रान्‍जैक्‍शनल एनालिसिस या संव्‍यवहार विश्‍लेषण, मानव के जन्म से उसकी विकासशील आयु को आधार बनाकर व्यवहार को पढ़ने का प्रयास करता है। व्‍यक्ति के आयुगत विकास वर्गीकरण में 1. उसका स्वाभाविक निश्छल बचपन, 2. अनन्य शैतानी भरा बचपन, फिर 3. पारिवारिक अनुशासन में अभिभावकों के निर्देशों का पालन करता हुआ बचपन होता है। इस क्रम में पुनः 4. तर्कशील, व्‍यावहारिक, समझदार वयस्क और फिर 5. अभिभावकों के अनुकरण से सीखा उन्हीं जैसा अनुभवजन्‍य व्यवहार तथा अंततः 6. दयाशील पालनकर्ता अभिभावक, देखी जाती हैं।

1. Natural Child (NC) - प्‍यारा, स्‍नेहमय, मनोवेगशील, इंद्रियलोलुप, सुखभोगी, अ-गोपन, जिज्ञासु, भीरु, आत्‍म-केन्द्रित, आत्‍म-आसक्‍त, असंयमी, आक्रामक, विद्रोही।
2. Little Professor (LP) - अन्‍तर्दृष्टि-सहजबुद्धिवान, मौलिक, रचनाशील, चतुर-चालाक।
3. Adapted Child (AC) - आज्ञापालक, प्रत्‍याहारी, विलंबकारी-टालू।
4. Adult (A) - यथार्थवादी, वस्‍तुनिष्‍ठ, तर्क-युक्ति-विवेकपूर्ण, हिसाबी, व्‍यवस्थित, संयत, स्‍वावलम्‍बी।
5. Prejudicial Parent (PP) - अनुभवी, नियंत्रक, संस्कार-आग्रही।
6. Nurturing Parent (NP) - हमदर्द, दयावान, संरक्षक, पालक-पोषक।

डॉ. एरिक बर्न द्वारा विकसित इस ढांचे के प्राथमिक संरचनात्‍मक विश्‍लेषण में व्‍यक्तित्‍व का 1, 2 व 3 Child (C)- शिशु // 4 Adult (A)- वयस्‍क // 5 व 6 Parent (P)- पालक होता है, जिनकी व्‍यवहार-शैली संक्षेप में शिशु- महसूसा-felt // वयस्‍क- सोचा-thought // पालक- सीखा-taught कही जाती है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण सहायक हो सकता है- शिशु का कथन होगा- ''मुझे भूख/नींद लगी है'', वयस्‍क का ''मेरे/हमारे खाने का/सोने का समय हो गया'', तो पालक कुछ इस तरह कहेगा- ''हमें खाना खा लेना/सो जाना चाहिए।'' चाहें तो कभी बैठे-ठाले स्‍वयं पर आजमाएं, घटाकर देखें।

उक्त सभी व्यवहार, जन्म से नहीं तो लगभग बोलना सीखने से लेकर जीवन्त-पर्यन्त, प्रत्येक आयु दशाओं में देखे जा सकते हैं, यानि बच्‍चे में वयस्‍क और पालक भाव तो बुढ़ापे के साथ बाल-भाव का व्‍यवहार सहज संभव हुआ करता है। इन्हीं भावों की कमी-अधिकता और संतुलन से मानव का व्यवहार, उसकी अस्मिता-स्‍व निर्धारित करता है। मानव व्‍यवहार का इनमें से कोई गुण अच्‍छा या बुरा नहीं, बल्कि इनका संतुलन अच्‍छा और असंतुलन बुरा होता है इसलिए व्यवहार के माध्‍यम से व्यक्तित्व की असंतुलित स्थिति की पहचान कर, उसका विश्लेषण टीए है, जो विश्लेषण के पश्चात्‌ संतुलन का दिग्दर्शन करने तक, पृष्ठभूमि व प्रक्रिया में विज्ञान सम्मत और सुलझा होने के साथ-साथ संवेदनशील और सकारात्मक भी है। जैसा कि इसमें स्‍पष्‍ट किया जाता है- ''समय होता है आक्रामक होने का, समय होता है निष्क्रिय होने का, साथ रहने का/अकेले रहने का, झगड़ने का/प्रेम करने का, काम का/खेलने का/आराम का, रोने का/हंसने का, मुकाबला करने का/पीछे हटने का, बोलने का/शांत रहने का, शीघ्रता का/रुकने का।''

फ्रायडवादी मनोविज्ञान का इड, इगो, सुपर इगो (अहम्, इदम्, परम अहम्) तथा डेल कार्नेगी, स्वेट मार्डेन से शिव खेड़ा तक, व्यवहार विज्ञानियों के बीच (यहां मनोविज्ञान की पाठ्‌य पुस्तकें हैं और मनोहर श्याम जोशी का उपन्‍यास कुरु कुरु स्वाहा भी) विकसित टीए इन दोनों में सामंजस्य स्थापित करते हुए इन्हें सैद्धांतिक स्पष्टता प्रदान कर, इसके व्यावहारिक, अनुप्रयुक्त और क्रियात्मक पक्ष के विकास से अपनी उपयोगिता के क्षेत्र में असीमित विस्तार पा लेता है। वह क्षेत्र जहां हम हैं, हमारा समाज है और जिसमें पागलखाने हैं, इसमें एक ओर से मनोचिकित्सकों की कड़ी जुड़ी तो दूसरी ओर समाजसुधारक जैसे वर्ग के लोग सक्रिय हुए, इन्हें अभिन्न करने के लिए, या इसे एक ही श्रृंखला की कड़ियां दिखाने के लिए मानव जाति को परामर्शदाता-Counselors की जरूरत थी, इस महती उत्तरदायित्व को पूरा करने हेतु व्यापक और गहन टीए की वैज्ञानिक अवधारणा का स्वरूप बना है।

ऐसा नहीं कि परामर्शदाता की जरूरत, बीच की कड़ी की आवश्यकता का आभास पहले नहीं था। व्‍यक्ति के संचित, क्रियमाण और प्रारब्‍ध के निरूपण का प्रयास सदैव किया जाता रहा है। आदिम समाज से आज तक, मनुष्य ने जादू-टोना, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, षोडशोपचार-कर्मकाण्‍ड, ज्योतिष-सामुद्रिक, मुखाकृति-हस्तलिपि और बॉडी लैंग्‍वेज जैसे कितने रास्ते खोजे, जो कमोबेश परामर्शदाता की आवश्यकता पूर्ति का माध्यम बने हैं। इन्‍हें प्रश्‍नातीत प्रभावी और लाभकारी मानें तो भी इनकी विधि या प्रक्रिया में तार्किक व्‍याख्‍यापूर्ण वैज्ञानिक स्‍पष्‍टता का अभाव ही रहा। इन उपयोगी किन्‍तु उलझे/अस्‍पष्‍ट तरीकों की व्याख्‍या बदल-बदल कर आवश्यकतानुसार कर ली जाती रही। ऐसा नहीं कि टीए में उलझाव नहीं है, पर वह उलझाव अज्ञान, अंधविश्वास या कमसमझी का नतीजा नहीं, बल्कि मानव प्रकृति और व्यवहार की जटिलता के कारण है, यानि मानव व्यवहार को दो-दूनी चार जैसा स्पष्ट न तो समझा जा सकता और न ही समझाया जा सकता, किन्तु इसे टीए की मदद से इतना स्पष्ट किया जा सकता है जो एक-दूसरे को लगभग एक जैसा समझ में आ सके।

यूं तो टीए की उपयोगिता और अनुप्रयोग का क्षेत्र अधिकतर कल-कारखाने, कार्यालय अथवा सार्वजनिक संस्थानों के प्रबंधन से जुड़ा है, क्योंकि मानव-संसाधनों को विकसित करने का तीव्र आग्रह यहीं होता है, किन्तु परामर्शदाता के रूप में टीए की आवश्यकता पूरे समाज और समाज की प्रत्येक इकाई को है, और टीए की पृष्ठभूमि में वह विस्तार और गहराई एक साथ महसूस की जा सकती है जो ऐसे धार्मिक ग्रंथों में, जिनमें मानव के जीवन-मूल्यों, नीति और सिद्धांतों को लगभग काल-निरपेक्ष स्थितियों में व्याख्‍यायित कर धर्म के व्यावहारिक पक्षों का प्रणयन होता है, फलस्वरूप टीए में वैज्ञानिक तटस्थता के साथ नैतिक और संवेदनशील मर्यादा का अतिक्रमण भी नहीं होता।

कहा जाता है कि जो टीए की थोड़ी-बहुत भाषा सीख लेते हैं वे कभी बच्‍चों को मिल गए नए खिलौने की तरह इसका खिलवाड़ करने लगते हैं तो कभी अपना ज्ञान बघारते हुए अपने आसपास के लोगों का विश्‍लेषण शुरू कर देते हैं और कई बार दूसरों से इसकी भाषा का उपयोग कर, परोक्षतः उनकी कमियों का अहसास कराते हुए नीचा दिखाने और प्रभावित करने का भी प्रयास करते हैं, जो उचित नहीं है (मंत्रों के नौसिखुआ के लिए निषेध की तरह?)। टीए की भाषा और जानकारी का सकारात्‍मक उपयोग स्‍वयं की जागरूकता और परिवर्तन तथा दूसरों की ऐसी ही मदद के लिए किया जा सकता है। सचेत प्रयास रहा कि इस नोट को पोस्‍ट बनाते हुए उक्‍त नैतिकता का पालन हो।

ऊपर, ''कुरु कुरु स्वाहा'' का जिक्र है, इसके नायक में इड, इगो, सुपर इगो या शिशु, वयस्‍क, पालक संयोग का मजेदार चित्रण है, जिन्‍होंने न पढ़ा हो उन्‍हें स्‍पष्‍ट करने के लिए और जो पढ़ चुके हों उन्‍हें स्‍मरण कराने के लिए यह अंश-
''मैं साहब, मैं ही नहीं हूं। इस काया में, जिसे मनोहर श्‍याम जोशी वल्‍द प्रेमवल्‍लभ जोशी मरहूम, मौजा गल्‍ली अल्‍मोड़ा, हाल मुकाम दिल्‍ली कहा जाता है, दो और जमूरे घुसे हुए है। एक हैं जोशी जी। ... इस थ्री-बेड डॉर्मेटरी में मेरे पहले साथी। दूसरे हैं, मनोहर।'' फिर यह भी कहा गया है- ''इसमें वर्णित सभी स्थितियां, सभी पात्र सर्वथा कपोल-कल्पित हैं। और सबसे अधिक कल्पित है वह पात्र जिसका जिक्र इसमें मनोहर श्‍याम जोशी संज्ञा और 'मैं' सर्वनाम से किया गया है।''

Friday, December 23, 2011

देवारी मंत्र

मंत्रः अवलोकन-विवरण

सरगुजा जिले के कुसमी अंचल में देवारी (ओझा, बइगा, गुनिया, सिरहा) यानि इलाज, झाड़-फूंक सिखाने के पारम्परिक केन्द्र हैं। इन केन्द्रों के प्रति आस्था और सम्मान किसी वेदपाठशाला जैसा ही होता है। ऐसा एक केन्द्र डीपाडीह ग्राम के उरांव टोली में संचालित था, जिससे जुड़े लोग बताते कि प्रशिक्षण लगभग छः माह में पूरा किया जा सकता है, किन्तु आमतौर पर एक वर्ष का समय लगता है। मंत्रों को अच्छी तरह समझ लेने, फिर ध्यान लगा कर सीखने में प्रशिक्षण का प्रारंभिक ज्ञान कम समय में भी कराया जा सकता है।

प्रशिक्षण पूरा होने पर नागपंचमी/अमावस्‍या को दीक्षान्त होता है और फिर गुरु की अनुमति पाकर ही मंत्रों का उपयोग किया जा सकता है। जर-बुखार ठीक करने के लिए किसी का बुलावा आने पर प्रशिक्षित व्यक्ति को अनिवार्यतः फूंकने जाना होता है, और इसलिए बुलावा देने के पहले पास-पड़ोस से पता कर लिया जाता है कि देवार को/उसके घर कोई अड़चन-समस्‍या तो नहीं है। दूसरी तरफ, पहल पीडि़त पक्ष की ओर से होना चाहिए, यानि बिना औपचारिक बुलावा के पहुंचकर मंत्रों का प्रयोग असरदार नहीं होता। गुरुओं की सहमति से उनके शिष्यों ने प्रशिक्षण और मंत्रों के बारे में बताया, उन्होंने सचेत किया कि बिना गुरु के इन मंत्रों का अभ्यास, गंभीर परेशानी में डाल सकता है (आगे पढ़ने वाले भी इस बात का ध्यान रखें)-

प्रशिक्षण का आरंभ धाम बांधने से होता है। इसके लिए बेंत की छड़ी, लोहड़गी यानि लोहे की छड़ी, आंकुस यानि अंकुश, त्रिशूल, शंख, कुल्हाड़ी, लोहे का हथियार- गुरुद, सिंगी आदि की जरुरत होती है। प्रशिक्षण के दौरान बगई का कोड़ा बनाया जाता है, जिससे गुरु प्रतिदिन चेले को एक-एक कोड़ा मारते हैं और धाम बांधने के मंत्रों से अभ्यास आरंभ कराते हैं।

धाम बांधनी का मंत्र-
पूरब के पूरब बांधौं, पच्छिम के पच्छिम बांधौं, उत्तर के उत्तर बांधौं, दक्खिन के दक्खिन बांधौं, पिरथी चलै पिरथी बांधौं, अकास चलै अकास बांधौं, पताल चलै पताल बांधौं, दाहिना चलै दाहिना बांधौं, बायां चलै बायां बांधौं, आगे चलै आगे बांधौं, पीछे चलै पीछे बांधौं, माये धीये डाइन चलै, डाइन बांधौं, बाप बेटा ओझा चलै, ओझा बांधौं, हमर बांधल गुरु क बचन, हमर बांधल, बारहों बरस, तेरहो जुग रहि जाय।

बांधनी के बाद गुरु मंत्र का अभ्यास किया जाता है-
गुरु मंत्र- गुरु गुरु बूढ़ा गुरु, जन्तर गुरु, माधो गुरु, दइगन गुरु, सीधा गुरु, अंधा गुरु, आइद गुरु, बइद गुरु, औलाद गुरु, मवलाद गुरु, केंवटा गुरु, महला गुरु, डोमा गुरु, बछरवा गुरु, चनरमा, सुरुज नराएन के लागे दुहाई।
गुरु क मान, गुरु क तान, गुरु क पांव, पंयरी, जहां बइठे, गुरु-गुरुआइन, तार-तरवाईर, छांई करे, गुरु देयाल, उदुरमा, पान-फूल, पगास, नया पाठ, करो मसान, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ, जतन के लगे दोहाई।

इसके पश्चात्‌ मुख्‍यतः दो प्रकार के मंत्रों का अभ्यास किया जाता है। मंत्रविद्ध करने के अर्थ में बांधनी के मंत्र और बुरी शक्तियों को दूर करने के लिए हांकनी के मंत्र। इन दोनों प्रकार के मंत्रों के उदाहरण निम्न हैं-

बांधनी मंत्र- घोट-घोट, बज्जर घोट, फुलकारी, लागे तारी, ससान लय, मसान गेलय, देखे गेलय, भैरव पाठ, नाइनी काठ, दूर भैल, लई इवों, बज्जर खेलों। भाज-भाज, भाजत पुर, दूत-भूत करो कपास, साइठ सरसों, सोरों धान, हथे गुन, मसान छई, देखे गेलें, भैरो पाठ, नाइनी काठ, दूर भयल।
बज्जर बज्जर, बज्जर बांधौं, रिंगी-चिंगी, सात क्यारी, चंडी चेला, सेकर पीछे लाप लीता, देखाल भूत, बंधाल हावै, कौन-कौन बैमान, चकरल, लिलोरी, ठिठौरी, मानुस देवा, बाल पुकरिया, पोको दरहा, करो मसान, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ जतन के लगे दोहाई।
छोट मोट भेरवा, जमीन जाय, जगहा जाय, असामुनी जाय, इन्द्रन बेटी, गोहारी जाय, इन्द्रन बेटी, मयर पूत, फोरो गाल, ढउरा ढेड़ी, उड़ि जाबे डैना तोड़ों, रिंग जाबे गोड़ तोड़ों, उलट देखबे आइंख फोरों, पलट देखबे कपार फोरों, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ जतन के लगे दोहाई। पुरुब के पुरुबइया, पच्छिम के सोंखा, नौ सौ कोरवा, दस सौ बिरहर के लागे हांक।

हांकनी मंत्र- कलकत्ता के काली मांई, लोहरदग्गा के लोहरा-लोहराइन, बदला के मुड़ा-मुड़ाइन, कसमार के घींरू टांगर, पांच पूत, पांचो पंडा के लागे दोहाई।
ठुनुक-ठुनुक करे बीर, हथ कटारी हाथे काटी, टूटे एरंडी, बादी भूत के टूटे हाड़, जै मुठ मारौं तोर गुरु लवा-तीतर, मोर गुरु छेरछा बादी, उड़ि जाबे डैना तोड़ों, बइठ जाबे डांडा तोड़ों, रिंग जाबे गोड़ तोड़ों, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ जतन के लगे दोहाई।
ओटोम दरहा, पोटोम दरहा, ठूठा दरहा, लंगडा दरहा, अंधा दरहा, खोरा दरहा, रूप दरहा के लागे परनाम।
उसुम तुसुम, भास मुद्‌दुम, तोन झोन तोर नोन, गरहाई लागल ठाढ़, चैंतिस बांधे के बन्धे, गुरु बन्धे, गुरु क बचन हम बांधे, बारहों चेला, हमर बांधल, बारों बीस, तेरों जुग रहि जाय, कभी हमर बचन न छूटे, भगत गुरु के लागे दोहाई।

गुन काटौं, काटौं गुन के रेखा, चढ़ल खाटी, उतरल जाय, पानी पथ बिलास करै, धर लाएं, लुटु-पुटु, धर लाएं, अपन कान, छड़न बादी, उड़लही बान, सायगुन बान, खैरा अपन गुन बान, राइख के का करै, तार काटे, तरगुन काटे, राम काटे, लखन काटे, धरम काटे, धरमात काटे, बानी चक्कर बान काटे।
झम-झम झमलई, सात समुंदर, सोरो धार, हाड़ खाए, मांस गलाए, नहीं माने, पाप-दोख, भूत-बैताल, धारा झौंटा, पीठ में लाठी, डंडे रस्सी, गल्ला फांसी, गोड़ में बेड़ी, हाथ में जंजीर, मुंह में तब्बा लगाइके, मनाइ के, समझाइ के, बुझाइ के, सुझाइ के, ए भूत के लइ बाहर कर, संकर गुरु के लागे परनाम।

परा-परा ठुठी पीपर, आवथीक, जाथीक, जम जाल, हिरा जाल, रेंगा जाल, केंवटा बीरा, जाले मारी, ले चली, ओकासी, ढेंकासी, आलो सुनी, पालो सुनी, डगर भुला, कंपनी, जंपनी, दे तो हरदी गुन्डा, धोआ चाउर, हमर चिन्ता, आवथीक, जाथीक, ठाढ़ कर देथव, सिद्ध गुरु के लागे परनाम।
जाय फार दादी बाजे, जाग डुमुर बाजथीक, लीली घुरी कारी नाचै, आप को बंडा ठेठेर, बिरजा धर लोचनी सम्पताल गेलाएं, डाकिन डुबाइतो, भंवरा बतास, नगफिन्नी, मछिन्दर गुरु के लागे परनाम।
उल्टा सरसों, पंदरों राई, मारौं सरसों टूटे बान, काली देबी कलकल करे, रकत मांस भोजन करे, नहीं माने पाप-दोख धारा झौंटा, पीठे लाठी, डंडे रस्सी, गल्ला फांसी, गोड़ में बेड़ी हाथ में धारा जंजीर लगाई के ए भूत बाहर कर।
छोट काली, बड़ काली हांक जाय, डांक जाय, कंवरू जाय, पटना जाय, असाम जाय, नहीं माने पाप-दोख, मनइ के, बुझइ के, लइ बाहर कर। पेराउ के झलक डाइर, मलक डाइर, सेन्धो रानी, बेन्धो रानी, दिया रानी, भुकु रानी, कजर रानी, चरक रानी, डिंडा रानी लागे परनाम।

इसी प्रकार के ढेरों मंत्रों के साथ सुमरनी गीत भी होते हैं। वाचिक परम्परा के मंत्र ज्यादातर साफ उचारे नहीं जाते, मन में दुहराए जाते हैं या बुदबुदाए जाते हैं, इन्हें शब्दशः लिखने के प्रयास में उच्चारण फर्क के कारण अशुद्धि स्वाभाविक है, इसलिए सब देव-गुरुओं से माफी-बिनती, दोहाई-परनाम।

देवारी बिद्‌या के गुरु जिरकू बबा, नगमतिया गुरु घन्नू बबा और बइदकी बिद्‌या वाले बइजनाथ बबा, इन तीनों का संरक्षण हम सबको 1988 से 1990 के दौरान सरगुजा प्रवास में मिलता रहा। डीपाडीह के ही लाली सेठ, कासी-दुधनाथ साव, रामबिरिछ, प्रेमसाय, करमी के सुखन पटेल, जसवंतपुर के जगत मुन्नी भगत मुन्नी (यानि स्वयं को भक्त और मुनि कहने वाले जगतराम कंवर) और इसी गांव के निवासी सांसद, प्रखर नेता लरंग साय जी, अंबिकापुर के टीएस बाबा जी,... सब के सब न सिर्फ हमारे काम में दिलचस्पी लेते, बल्कि संबल होते। उरांव टोली और बस्ती तो पूरी लगभग साथ ही होती दिन भर। पुराने टीलों में सांपों का डेरा होता, दिन में हाथियों का, शाम ढलने पर भालुओं का आतंक अक्सर बना रहता और इस देवस्थान के चारों ओर भटकती दृश्य-अदृश्य शक्तियां (जैसा लोग बताते) हमें सदा घेरे रहतीं, लेकिन हम इस पर्यावरण से लाभान्वित, स्वस्थ्य और बेहतर (निसंदेह सुरक्षित) वापस लौटते।

टीलों को खोदते हुए पुराने मंदिर अनावृत्त हुए, मूर्तियां जैसी हजार-हजार साल पहले तब रही होंगी हमें वैसी की वैसी भी मिलीं। मुझे हमेशा लगता है कि उन मंदिर-मूर्तियों की तरह ही ऊपर लिए नाम और कई चेहरे जो अब गड्‌ड-मड्‌ड हैं, आज भी वैसे ही होंगे, काल-निरपेक्ष। ज्यादातर चेहरे अब साफ याद नहीं, इसलिए जानता हूं कि मेरे विश्वास की रक्षा हो जाएगी और सारे लोग मुझे जस के तस मिलेंगे, हमलोगों के लिए अपना अकारण स्नेह-संरक्षण यथावत्‌ परोसते।

मंत्रः विश्‍लेषण-व्‍याख्‍या

तथ्य, आंकड़े और सूचना जुटाना, वैज्ञानिक अध्ययन प्रक्रिया की आरंभिक आवश्यकता होती है, जिन्हें छांट कर, वर्गीकृत कर, क्रमवार जमाने के प्रयास में निष्कर्ष स्वतः उभरने लगते हैं। गणित जैसे प्राकृतिक विज्ञानों में भी निष्कर्षों में संशोधन-परिवर्धन संभव होता है, अपवाद भी निष्कर्ष-नियम का हिस्सा बन जाता है बल्कि यह तक कहा जाता है कि अपवाद ही नियमों को पुष्ट करते हैं। सामाजिक विज्ञानों में प्राथमिक निष्कर्षों के साथ अन्य कारक/दृष्टिकोण से और कभी समय के साथ, नई जानकारियों से यानि निवेश, और प्रक्रिया में फर्क आने से निर्गत परिमार्जित होता रहता है और कई बार फैसले उलट भी जाते हैं।

यह जानकारी इसी दृष्टि से संकलित और यहां प्रस्तुत है। प्राथमिक निष्कर्ष बस इतना कि वैदिक ऋचाओं जैसे ही प्रतिष्ठित इन मंत्रों में प्रकृति, परिवेश, आस्था के आलंबन और केन्द्र व्यापक रूप में शामिल हैं। स्वाभाविक ही ऐसा प्रयोग मात्र अनुकरण कर किया जाना, जोखिम का हो सकता है। इनके पाठ-अभ्यास-प्रयोग में शायद इसीलिए वैदिक मंत्रों की तरह निषेध भी हैं। यह उस परिवेश की जीवन पद्धति का अनिवार्य हिस्सा माना जा सकता है और अपने अंचल की परम्पराओं को जानने और उनमें संस्कारित होने के लिए उक्त मंत्रों के साथ प्रशिक्षित-दीक्षित होना उपयोगी जान पड़ता है।

पिछड़े कहे जाने वाले क्षेत्र से जादू-टोना, तंत्र-मंत्र से जुड़ी आकस्मिक घटनाओं की खबरें मिलती हैं, लेकिन कथित उन्‍नत-सभ्‍य समाज में व्याप्त कर्मकाण्ड और दुर्घटनाओं की तुलना में, गंभीरता और संख्‍या दोनों दृष्टि से यह नगण्य है। समाज को गायत्री मंत्र, हनुमान चालीसा, सुंदरकांड का पाठ, सत्‍यनारायण की कथा और महामृत्‍युंजय जाप से जैसा संबल मिलता है, दूरस्थ और अंदरूनी हिस्सों में संभवतः इन आदिम मंत्रों का वैसा ही प्रयोग दैनंदिन समस्याओं की उपचार विधि (काउंसिलिंग-हीलिंग सिस्टम) के रूप में होता है, जिसमें सार्वजनिक स्तर पर अव्याख्‍यायित तौर-तरीकों के अनुभव-सिद्ध परामर्श और जड़ी-बूटी, औषधियां भी हैं। स्वाभाविक है कि दीर्घ संचित इस ज्ञान को बिना समझे अंधविश्वास मान कर, संदिग्ध/खारिज करना स्वयं एक तरह का अंधविश्वास होगा। इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल और केरल इंस्टीट्‌यूट फार रिसर्च, ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट आफ शेड्‌यूल्ड कास्ट्‌स एंड शेड्‌यूल्ड ट्राइब्स, कोझीकोड़ (कालीकट) जैसी संस्थाएं, इसे उपयुक्त सम्मान दिया जाना आवश्यक मान कर, इस दिशा में सक्रिय हैं।

पांच-एक साल पहले कहीं सुना- ''नम म्‍योहो रेन्‍गे क्‍यो''। साल भर से यह रायपुर में भी सुनाई पड़ने लगा है। इस बीच सुपर माडल मिरांडा केर, निचिरेन बौद्ध धर्म अपना कर खबर बनीं। पता चला कि यह बौद्ध धर्म के जापानी गुरु निचिरेन दैशोनिन द्वारा प्रवर्तित स्‍वरूप वाली प्रार्थना है और अब सोका गक्‍कई या सोका गाकी संगठन के माध्‍यम से क्रियाशील है। यह मंत्र मूल भारतीय बौद्ध धर्म के सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र (अंग्रेजी में प्रचलित लोटस सूत्र) से आया कहा जाता है। संभवतः मूल प्राकृत भाषा (मागधी-पाली प्रभावयुक्‍त) के संस्‍कृत रूप को चीनी में अनुवाद किया गया, जो बरास्‍ते जापान वापस यहां आया है। इतनी भाषाओं, लिपियों, लोगों और समय से गुजरने के बाद भी यह मंत्र असर दिखा रहा है, जबकि इसके ठीक उच्‍चारण के लिए भी पर्याप्‍त अभ्‍यास जरूरी है और मंत्र का अर्थ पूछने पर तो मंत्र-साधकों की परीक्षा ही हो जाती है।

मैं सोच में पड़ा कि असरदार-प्रभावी क्‍या होता है? शब्‍द, शब्‍दों के अर्थ और उनसे बनने वाले भाव? उनका उच्‍चारण, उच्‍चारण से उत्‍पन्‍न होने वाली ध्‍वनि? मंत्र-द्रष्‍टा और साधक की परस्‍परता, समूह/समष्टि-बोध या और कुछ?... असर होता भी है या नहीं? यदि नहीं तो ऐसे मंत्र कायम क्‍यों हैं? क्‍या प्रभावी, मंत्र नहीं हमारी आस्‍था है? 'अनमिल आखर अरथ न जापू...', शायद अपरा से परा हो जाने की प्‍लुति में छुपा है यह रहस्‍य? ऐसे प्रश्‍नों का उत्‍तर बारम्‍बार तलाशा गया होगा, लेकिन यह ऐसी राह है जिसकी तलाश ''मंत्रः व्‍याख्‍या/निष्‍कर्ष'' स्‍वयं के जिम्‍मे ही संभव हो सकती है।

उदय प्रकाश की पंक्तियां याद आती हैं-
इतिहास जिस तरह विलीन हो जाता है किसी समुदाय की मिथक-गाथा में
विज्ञान किसी ओझा के टोने में
तमाम औषधियाँ आदमी के असंख्य रोगों से हार कर अंत में
जैसे लौट जाती हैं किसी आदिम-स्पर्श या मंत्र में।

संबंधित पोस्‍ट - डीपाडीह और टांगीनाथ

Friday, December 16, 2011

टांगीनाथ

''मोर मन बसि गइल
चल चली सरगुजा के राजि हो''

उड़ान भरने वाले बताते हैं कि सरगुजा का हिस्सा, मध्य भारत का सुंदरतम हवाई दृश्य है और आरंभिक परिचय में ही कहावत सुनने मिल जाती है- ''मत मरो मत माहुर खाओ, चले चलो सरगुजा जाओ'' यानि हालात मरने जैसे बदतर हैं, जहर खाने की नौबत आ गई है, तो सरगुजा चले जाओ। आशय यह कि जहर खाने और मरने की बात क्यों, सरगुजा जा कर जीवन मिल जाएगा, लेकिन इसकी अन्य व्याख्‍या है कि मरना हो तो जहर खाने की जरूरत नहीं, सरगुजा चले जाओ काम तमाम हो जाएगा, ''जहर खाय न माहुर खाय, मरे के होय तो सरगुजा जाये।''

खिड़की के शीशे से पार आसमान और क्षितिज देखते, टेलीविजन से होते हुए मोबाइल फोन की स्क्रीन पर सिमटती दुनिया को मुट्ठी में कर लेने का दौर है, तब इस जमीनी हकीकत का अनुमान मुश्किल हो सकता है कि अंबिकापुर से राजपुर-रामानुजगंज की ओर बढ़ते ही जैसे नजारे होते हैं उनके लिए आंखों के 180 अंश का फैलाव भी कम पड़े, अकल्पनीय दृश्य विस्तार, व्यापक अबाधित क्षितिज रेखा से दृष्टि-सीमा का अनूठा रोमांच होने लगता है। मौसम खरीफ का हो तो जटगी और उसके बाद राई-सरसों के पीले फूल के साथ अमारी-लकरा भाजी के पौधों की लाली से बनी रंगत शब्दों-चित्रों से बयां नहीं हो सकती और फिर बीच-बीच में पवित्र शाल-कुंज, सरना की घनी हरियाली...
प्राकृतिक-भौगोलिक दृष्टि से सरगुजा, मोटे तौर पर पूर्व रियासतों कोरिया-बैकुण्ठपुर, चांगभखार-भरतपुर, सरगुजा-अम्बिकापुर और जशपुर या वर्तमान संभाग सरगुजा का क्षेत्र है। यह अंचल पठारी भौगोलिक विशिष्टता पाटों- मुख्‍यतः सामरीपाट, जोंकापाट, जमीरापाट, लहसुनपाट, मैनपाट, पंडरापाट, जरंगपाट, और कुछ अन्‍य तेंदूपाट, छुरीपाट, बलादरपाट, अखरापाट, सोनपाट, लंगड़ापाट, गरदनपाट, महनईपाट, सुलेसापाट, मरगीपाट, बनगांवपाट, बैगुनपाट, लाटापाट, हरीपाट से भी जाना जाता है। ढोढ़ी जलस्रोत और खासकर कोरिया जिले में धरातल तक छलकता भूमिगत प्रचुर जल है तो तातापानी जैसा गरम पानी का स्रोत और सामरी पाट का उल्टा पानी जैसा दृष्टि भ्रम है। कोयला और बाक्साइट जैसे खनिज और वन्य जीवन-वन्य उत्पादों से भी यह भूभाग जाना गया है।

जनजातीय समाज, जिसमें सभ्यता के विकासक्रम की आखेटजीवी, खाद्य-संग्राहक, कृषक, गो-पालक से लेकर सभ्य होते समूहों में प्रभुत्व के लिए टकराव की स्मृति और झलक एक साथ यहां स्पष्ट है। रियासती दौर, 'टाना बाबा टाना, टाना, टोन, टाना' वाले ताना भगत, इसाई मिशनरी, कबीरपंथी, तिब्बती, गहिरा गुरू, राजमोहिनी देवी और एमसीसी जैसी धाराओं के समानान्तर सरगुजा में हाथियों की आमद-रफ्त व प्रकृति के असमंजस को माइक पांडे ने 'द लास्‍ट माइग्रेशन' ग्रीन आस्‍कर पुरस्‍कृत फिल्‍म में, मिशनरी गतिविधियों को तेजिन्‍दर ने 'काला पादरी' उपन्‍यास में, अकाल और जीवन विसंगतियों को पी साईंनाथ ने 'एव्रीबडी लव्‍स अ गुड ड्राउट' रपटों के संग्रह पुस्‍तक में तो याज्ञवल्‍क्‍य जी ने एक रपट में यहां और समग्र रूप में समर बहादुर सिंह जी, डा. कुंतल गोयल, डा. बजरंग बहादुर सिंह ने लेख/पुस्‍तकों में दर्ज किया है।

इस अंचल की सांस्कृतिक अस्मिता, समष्टि में सोच और घटनाओं को स्मृति में संजोए, झीने आवरण की पहली तह के नीचे अब भी वैसी की वैसी महसूस की जा सकती है, मानों उसमें हजारों साल घनीभूत हों। बस जरूरत होती है खुले गहरे कानों की, फिर आसानी से आस-पास के कथा-स्रोत सक्रिय हो कर उन्मुख हो जाते हैं, सहज बह कर उसी ओर आने लगते हैं।

उत्तर दिशा में बहता बर्फ से ठंडे पानी वाला पुल्लिंग नद कन्हर, बायें पाट से आ कर मिलती गुनगुनी-सी सूर्या (सुरिया) और कुछ आगे चल कर गम्हारडीह में बायें ही डोंड़की नाला और दायें पाट पर गलफुला (माना जाता है कि इस नदी का पानी लगातार पीते रहने वालों का 'घेंघा' रोग से गला फूल जाता है) का संगम। इनके बीच कन्हर के दायें तट पर शंकरगढ़-कुसमी के बीच बसा डीपाडीह।

सन 1988 में यहीं, ठंड में अलाव पर जुटे, जसवंतपुर निवासी कोरवा समाज के मंत्री श्री जगदीशराम, तथा श्री थौलाराम, कोषाध्यक्ष, दिहारी द्वारा देर रात तक सुनाई गई कहानी, जिसमें बताया गया कि कोल्हिन सोती में बारह रुप वाला देवी का पुत्र पछिमहा देव, बैल का रूप धरकर, जशपुर की उरांव लड़की को छिपा दिया फिर लखनपुर जाकर 700 तालाब खुदवाया फिर ब्राह्मणी पुत्र टांगीनाथ ने उसका पीछा किया तो वह भागकर सक्ती होकर कुदरगढ़ पहुंचा, वहां बूढ़ी माई ने उसकी रक्षा की। पछिमहा देव ने दियागढ़, अर्जुनगढ़, रामगढ़ आदि देव स्थानों को सांवत राजा सहित आना-जाना किया, लेकिन कन्हर से पूर्व न जाने की कसम के कारण रुक गया।

पछिमहा देव और टांगीनाथ की कथा कुसमी क्षेत्र, छत्तीसगढ़ सहित महुआडांड-नेतरहाट क्षेत्र, झारखंड में तीन-चार प्रकार से सुनाई जाती है, जिनमें पछिमहा देव को टांगीनाथ का पीछा करते हुए जशपुर या सक्ती की सीमा तक पहुंचने का जिक्र आता है। पछिमहा देव को इसी क्षेत्र में विवाहित या यहां की स्त्री से संबंधित किया जाता है। पछिमहा देव और टांगीनाथ की पहले मित्रता बाद में अनबन बताई जाती है। पछिमहा देव को सांवत राजा द्वारा सहयोग देना और फलस्वरूप टांगीनाथ द्वारा सांवत राजा को नष्ट करना तब पछिमहा देव का विभिन्न देवी-देवताओं की शरण में जाकर सहयोग की याचना और अंततः नदी के किनारे लखनपुर में पछिमहा देव का प्रवास तथा नदी (रेन?) पार न करने की कसम दिये जाने से कथा समाप्त होती है।

सांवत राजा या सम्मत राजा छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्व सरगुजा अंचल में स्थित ग्राम डीपाडीह के प्राचीन स्मारक-स्थल का नाम है। यह पारम्‍परिक पवित्र शाल वृक्ष-कुंज, सामत-सरना कहा जाता है। सांवत राजा के रूप में परशुधर शिव की प्रतिमा दिखाई जाती है, प्रतिमा में वस्तुतः शिव, परशु पर दाहिना पैर रखकर खड़े प्रदर्शित थे, किन्तु वर्तमान में दाहिने पैर का निचला भाग टूटा होने से माना जाता है कि टांगीनाथ ने इस सांवत राजा के पैर काट दिए हैं और टांगी यहीं छूट गई है।

परशु-टांगी धारण की सामान्‍य मुद्रा, उसे कंधे पर वहन कि‍या जाना है, आज भी सरगुजा और बस्‍तर के अन्‍दरूनी हिस्‍सों में प्रचलन है। लेकिन यहां परशु आयुध, विजयी मुद्रा शिव की इस भंगिमा में 'फुट-रेस्‍ट' है (हिंस्र शक्तियों पर विजय का प्रतीक?) सामत राजा के सेनापति- सतमहला का मोती बरहियां कंवर और झगराखांड़ बरगाह ने टांगीनाथ से बदला लेने का प्रयास किया। (सतमहला के पुजारी रवतिया जाति के हैं) रेन पार न करने की कसम, किसी संधि-प्रस्ताव का परिणाम है?

टांगीनाथ (परशुराम या शिव का कोई रूप, किसी स्थानीय प्राचीन शासक या जनजाति समूह के नायक की स्मृति?) नामक ईंटों के प्राचीन शैव मंदिर युक्त पहाड़ी पर स्थित स्थल, ग्राम-मंझगांव, थाना-डुमरी, तहसील-चैनपुर, जिला-गुमला, झारखण्ड में हैं। यहां के श्री विश्वनाथ बैगा ने भी इसी तरह की कहानी बताई। इस कहानी में त्रिपुरी कलचुरियों के किसी आक्रमण की स्मृति है? त्रिपुरी (जबलपुर) जो डीपाडीह से सीधी रेखा में पश्चिम में है (पछिमहा देव) या परवर्ती काल के सामन्त शासकों, अंगरेजों, जनजातीय कबीलों या सामंत और कोरवाओं से संघर्ष की स्मृति है? ऐतिहासिक विवरणों के आधार पर कथा-क्षेत्र के पूर्व-पश्चिम, पलामू-छोटा नागपुर और बघेलखंड की 18-19 वीं सदी की घटनाओं का स्‍मृति-प्रभाव भी संभव जान पड़ता है।

धनुष-बाण, कोरवाओं की जाति-उत्पत्ति कथा के साथ उनसे सम्बद्ध है। अंगरेज दस्तावेजों से पता चलता है कि टंगियाधारी कोरवा और कोरकू जनजाति का अहीर गो-पालकों के साथ तनाव बना रहता। ताना भगत आंदोलन में कुसमी क्षेत्र के जन-नायक भाइयों लांगुल-बिंगुल के लिए भी बस्तर के आदिवासियों की तरह प्रसिद्ध है कि वे बंदूक पर मंत्र मारते देते थे, जिससे नली से गोली की जगह पानी निकलता था (क्या यह पानी लाल होता, यानि लहू के धार के लिए कहा जाता होगा?) इंडियन इंस्टीट्‌यूट आफ एडवांस स्टडी, शिमला में टांगीनाथ पर हुई केस स्टडी पुस्तकाकार प्रकाशित है।

इसी बातचीत में प्रसंग आ जाने पर, मैं अकेला श्रोता रह गया हूं, टांगीनाथ के साथ सामत राजा से मिलते-जुलते नाम समती और सामथ याद आ रहे हैं, जनजातीय वर्गों के एक्का, दुग्गा, तिग्गा और बारा उपनामों में अटक-भटक रहा हूं। किस्सा सुन रहे लोग बिना अटके-ठिठके इस अंचल के देवी-देवताओं का नाम कथावाचक के साथ उचारने लगते हैं-

डीपाडीह में सामत राजा रानी, काटेसर पाठ, चैनपुर में अंधारी जोड़ा नगेरा, हर्री में गरदन पाठ, चलगली में महामईया, सरमा में सागर, अयारी में धनुक पाठ, रानी छोड़ी, खुड़िया रानी में मावली माता, कुसमी में जोन्जो दरहा, सिरकोट में भलुवारी चण्डी, बरवये, मझगांव में टांगीनाथ, जशपुर में गाजीसिंग करिया, मरगा में भैंसासुर, कलकत्ता में काली माई, कुदरगढ़ में सारासोरो, सनमुठ में दरहा दरहाईन, गम्हारडीह में घिरिया पाठ, साधु सन्यासी, जोरी में जारंग पाठ और ''गांवन-गांवन करे पयान, चहुं दिस करे रे सथान, भले हो घमसान'' वाले दाऊ घमसान या घमसेन देव। जबकि पहाड़ी कोरवाओं के देवकुल में खुड़िया रानी, सतबहिनी, चरदेवा-धन चुराने वाला देव, खुंटदेव, परम डाकिनी, दानोमारी, दाहा डाकिन, दरहा-दुष्ट शक्तियों से बचाव करने वाला, हरसंघारिन, धनदनियां, अन्नदनियां, महदनिया, सुइआ बइमत, धरती माई, रक्सेल, डीहवा, सोखा चांदी गौरेया, बालकुंवर आदि नाम गिनाए जाते हैं।

अलग-थलग अपने को बेगाना महसूस करता मैं, मन ही मन तैंतीस कोटि का सुमिरन करते, सबके साथ शामिल रहने की योजना बना लेता हूं, सूची पूरी होते ही जोड़ता हूं..., अब इसमें हम सब का स्वर समवेत है, ''... की जै हो।''

संबंधित पोस्‍ट - डीपाडीह और देवारी मंत्र

सरगुजा में रुचि हो तो वी. बाल, ए. कनिंघम, जे. फारसिथ, एमएम दादीमास्‍टर की रिपोर्ट्स और देवकुमार मिश्र की पुस्‍तक 'सोन के पानी का रंग' देखना उपयोगी होगा।

Sunday, December 11, 2011

योग-सम्मोहन एकत्व

सम्मोहन- शक्तिशाली, मोहक और भेदक संकेत है। सम्मोहन- दृढ़ता, अधिकार और विश्वास से की गई प्रार्थना है। सम्मोहन- आश्चर्यजनक, जादुई क्षमता वाला मंत्र है और सम्मोहन- दृढ़ संकल्प और आज्ञा के साथ दिया हुआ आशीर्वाद है। बिलासपुर निवासी ओ.के. श्रीधरन की पिछले दिनों प्रकाशित पुस्तक- ''योग और सम्मोहन'', एकत्व की राह'' का उपरोक्त उद्धरण अनायास सम्मोहन के प्रति सात्विक आकर्षण पैदा करता है और वह भी विशेषकर इसलिए कि इसमें सम्मोहन के साथ योग के एकत्व की राह निरूपित है।

भारतीय धर्मशास्त्र के तंत्र, मंत्र, वामाचार जैसे शब्दों में सम्मोहन भी एक ऐसा शब्द है, जिसके प्रति सामान्यतः भय, आतंक और संदेह अधिक किन्तु आस्था और अध्यात्म की प्रतिक्रिया कम होती है और सम्मोहन को गफलत पैदा करने वाला जादू, वह भी काला जादू मान लिया जाता है। इस परिवेश और संदर्भ में पुस्तक का विशेष महत्व है।

अंगरेजी में लिखी मूल पुस्तक का यह हिन्दी अनुवाद सुप्रिया भारतीयन ने किया है, जिसे भारतीय विद्याओं की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित संस्था 'भारतीय विद्या भवन' ने सु. रामकृष्णन् के प्रधान संपादकत्व में भवन्स बुक युनिवर्सिटी के अंतर्गत प्रकाशित किया है। पुस्तक के मुख्यतः दो खंड हैं- पहला, 'योग' सर्वांगीण विकास के लिए और दूसरा, योग और सम्मोहन, दोनों खंडों की विषय-वस्तु, खंडों के शीर्षक से स्पष्ट है। पुस्तक के तीसरे खंड, 'दर्पण' के अंतर्गत परिशिष्ट दो हिस्सों में संक्षिप्त गद्य और कविताएं हैं, जो निःसंदेह गहन चिंतन के दौरान लब्ध भावदशा के विचार-स्फुलिंग हैं।

प्रथम खंड में योग-दर्शन और उद्देश्य की सारगर्भित प्रस्तुति के साथ सभी प्रमुख आसनों, बन्ध, प्राणायाम और ध्यान का सचित्र निरूपण किया गया है। इस स्वरूप के कारण यह खंड योग में सामान्य रुचि और जिज्ञासा रखने वालों के साथ-साथ, वैचारिक पृष्ठभूमि को समझ कर आसनों का अभ्यास करने वालों और योग के गंभीर साधकों के लिए एक समान रुचिकर और उपयोगी है।

द्वितीय खंड के आरंभ में ही लेखक ने योग और सम्मोहन को स्पष्ट किया है- ''गहन एकाग्रता की चरम स्थिति अर्थात् 'ध्यान' और सम्मोहन दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं क्योंकि दोनों में ही एकाग्रता की गहन स्थिति प्राप्त कर वाह्य जगत से ध्यान हटाकर चेतना की एक विशेष परिवर्तित स्थिति प्राप्त की जाती है।'' संस्मरणात्मक शैली में लेखक ने अपने बचपन, अपनी साधना, अनुभव और अविश्वसनीय लगने वाली घटनाओं का विवरण दिया है। कुन्ञकुट्टी का फिर से जीवित हो जाना, पोन्नम्मा की मूर्छा, भारती कुट्टी का सदमा और सम्मोहन के रोचक प्रयोगों जैसी स्थानीय और केरल में घटित घटनाओं में पात्र, स्थान आदि की स्पष्ट जानकारी होने से विश्वसनीयता में संदेह की संभावना नहीं रह जाती, किन्तु घटनाओं की वस्तुस्थिति और विवरण लेखक स्वयं के दृष्टिकोण से हैं। इस दृष्टि से अविश्वसनीय चमत्कारों का एक पक्ष यदि मानवता के लिए किसी विद्या या विधा-विशेष का कल्याणकारी पक्ष है तो इसके दूसरे नाजुक पक्ष, अंधविश्वास से पैदा होने वाले खतरों और सामाजिक बुराइयों को नजर-अन्दाज नहीं किया जा सकता।

'दर्पण' खंड के कुछ महत्वपूर्ण उद्धरणों का उल्लेख यहां समीचीन होगा। माया और भ्रम का अंतर स्पष्ट करते हुए कहा गया है- 'सत्य का अस्तित्व केवल हमारी कल्पना और विचारों में है क्योंकि यह तथ्यों के अनुरूप होने की एक विशेषता मात्र है।' 'मानवीय बनो' शीर्षक के अंतर्गत समग्रता और एकत्व के लिए 'मानव को एकाग्रता की उस चरम स्थिति को प्राप्त करना पड़ता है-जहां वह प्रकृति से एकाकार करता है।' कथन प्रभावशाली है।

इसी खंड के परिशिष्ट - 2 की सात कविताएं, काव्य गुणों से पूर्ण और गहन होते हुए भी सहज निःसृत लगती हैं, अनुमान होता है कि ये रचनाएं श्रीधरन की प्रौढ़ साधना के दौरान उपलब्ध अनुभूतियां हैं, जहां उनका साधक मन, सृजनशील कवि मन से स्वाभाविक एकत्व में अक्सर ही कविता की लय पा लेता है।

अनूदित होने के बावजूद भी, पूरी पुस्तक में विषय अथवा भाषा प्रवाह में व्यवधान नहीं खटकता, जो अनुवादिका के दोनों भाषाओं पर अधिकार और विवेच्य क्षेत्र में उसकी पकड़ का परिचायक है, लेखक की पुत्री होने के नाते लेखक-मन को समझना भी उनके लिए आसान हुआ होगा। पुस्तक की छपाई सुरुचिपूर्ण और विषय तथा प्रकाशक की प्रतिष्ठा के अनुकूल है। मेरी जानकारी में भारतीय विद्या भवन से प्रकाशित बिलासपुर निवासी किसी व्यक्ति की यह प्रथम पुस्तक है। आशा है हिन्दी पाठक जगत इस कृति का स्वागत करेगा और लाभान्वित होगा।

सन 2002 में प्रकाशित इस पुस्‍तक पर मेरी संभवतः अप्रकाशित टिप्‍पणी, संकलित कर रखने की दृष्टि से यहां लगाई गई है, इसलिए टिप्‍पणियां अपेक्षित नहीं हैं।

Thursday, December 1, 2011

स्‍वाधीनता

बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल
जन्‍म 1891     निधन 1956

सन 1919 में प्रकाशित पुस्‍तक का अंश

हालैंड की स्वाधीनता का इतिहास

ठाकुर छेदीलाल एम.ए. (आक्सफोर्ड)
बैरिस्टर-एट-ला 
(परमात्‍मने नमः)

बीसवीं सदी स्वतंत्रता की सदी है। संसार के जिस हिस्से पर ध्यान दिया जाये, चारों ओर से स्वतंत्रता ही की आवाज आती है। यहां तक कि वर्तमान विश्वव्यापी समर भी स्वतंत्रता ही के नाम पर प्रत्येक देश में मान पा रहा है। भारत वर्ष भी स्वतंत्रता के इस भारी नाद में अपना क्षीण स्वर अलाप रहा है। यद्यपि इस विश्व में भिन्न-भिन्न जातियां, भिन्न भिन्न राष्ट्र निर्माण कर, अपने ही स्वार्थ साधन मे सदैव तत्पर रहती हैं, तथापि ईश्वर ने इस संसार का निर्माण इस ढंग से किया है कि एक का प्रभाव दूसरे पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। इस वर्तमान समर में कई राष्ट्र सम्मिलित नही हैं, तिस पर भी उन्हें इसके बुरे परिणामों को अवश्य भोगना पड़ता है। इसी तरह प्रत्येक राष्ट्र में होने वाले राजनैतिक आंदोलन से तथा साहित्य की उन्नति से दूसरे राष्ट्र लाभ उठा सकते हैं। यथार्थ में पूछा जाये तो इतिहास के पढ़ने से यही लाभ है। बीते हुए युग का हाल पढ़ने से हम अतीत युग में अपना प्रवेश कराते हैं, जिससे हमारा ज्ञान-क्षेत्र विस्तीर्ण होता है और भविष्य में हमें किस तरह कार्य करना चाहिए, इसकी शिक्षा मिलती है। भारतवर्ष में यह जो स्वराज्य का आंदोलन चल रहा है, इस देश के लिए बिल्कुल नई बात है। इसमें संदेह नही कि प्राचीन भारत में प्रजातंत्र राज्य भी थे। परंतु प्रधानता अनियंत्रित शासन-पद्धति की ही थी। इस कारण केवल भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास के ही अध्ययन से इस नये मार्ग के पथिक को कुछ सहायता नहीं मिलती, जिससे उसे पश्चिम की ओर सहायता के लिए झांकना अनिवार्य हो जाता है। यूरोप में कई राष्ट्रों ने कई प्रकार से आभ्यान्तरिक स्वातंत्र्य तथा राष्ट्रीय स्वातंत्र्य प्राप्त किया है। किंतु हिन्दी साहित्य में इनका वर्णन न होने से इस भाषा भाषी को इससे कोई लाभ नहीं होता।

आजकल हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न चारों ओर से किया जा रहा है, जिनके प्रधान नेता श्रद्धास्पद, स्वनामधन्य कर्मवीर महात्मा गांधी हैं। इतने बड़े सेवक को पाकर हिंदी सचमुच कृतार्थ हो गई है, और आशा है कि अब इसके वेग को कोई रोकने में समर्थ न होगा और यह अपने लक्ष्य सिद्धि में शीघ्र ही सफलीभूत होगी। यद्यपि कई क्षुद्र व्यक्तियों ने जिनका नाम लिखना अनावश्‍यक है, हिंदी भाषा की निंदा करते-करते गांधी महात्मा पर भी संकीर्णता तथा पक्षपात का दोष आरोपण किया है, तथापि इनका प्रयत्न इस आंदोलन को रोकने में असमर्थ है। इनमें से कई महात्माओं ने अंग्रेजी की इतनी प्रशंसा की है कि उसे करीब-करीब यूरोप के सब भाषाओं से बढ़कर बना दिया है, उदाहरणार्थ एक महाशय लिखते हैं-
“English is of special value as being the key to a vast field of knowledge and as being the means of likewise of communicating to the whole of the civilised world anything of intellectual value that India may have to communicate.”

इन महात्मा को शायद यह मालूम नहीं है कि यूरोप में सिवाय इंग्लैंड के और किसी देश में सैकड़ा पीछे एक आदमी भी अंग्रेजी नहीं जानता। वहां पर फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं ही की प्रधानता है। इनसे पूछा जाय क्या मेटरलिंक ने अपने विख्यात नाटकों को अंग्रेजी में लिखा था? क्या कान्ट ने अपना तत्व विज्ञान, डास्टोएवेस्की ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास, गोगोल तथा टर्जनीव ने अपने उपन्यास, टालस्टाय ने अपनी तत्व विज्ञान संबंधी पुस्तकें, शापेनहार, हीगेल तथा स्पिनोजा ने अपने विचार अंग्रेजी में व्यक्त किये थे? क्या विक्टर ह्यूगो, ब्रू, इब्सेन ने अपनी पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित कराई थी? हां, हम भारतवासियों को जो संसार में अंग्रेजी ही को अपनी अज्ञानतावश सर्वश्रेष्ठ तथा विश्‍वव्यापी मान बैठे हैं, उपरोक्त प्रतिभाशाली लेखकों को ज्ञान अंग्रेजी ही द्वारा हुआ। किंतु इतना स्मरण रखना चाहिए कि इन सब महात्माओं की पुस्तकों की उत्तमता को देखकर अंग्रेजी ने अपनी साहित्य की कमी पूरा करने के लिए इनको अपनी भाषा में अनुवाद किया। किंतु अंग्रेजी में अनुवाद होने के पूर्व ही इन्होंने संसार में ख्याति पा ली थी। क्या रविन्द्र बाबू की गीतांजलि, बंगाली भाषा से फ्रेंच में अनुवादित की जाती तो संसार में प्रसिद्ध न होती? यदि अंग्रेजों को यह मालूम हो जाये कि भारतवासी अपने उत्कर्ष विचार अपनी ही भाषा में व्यक्त करेंगे, तो निश्‍चय ही वे हमारी भाषा को पढ़ेंगे और उत्तम ग्रंथों का अनुवाद अपनी भाषा में स्वयं करेंगे। क्या जगदीश बाबू के प्रसिद्ध अविष्कार, अपनी भाषा में लिखे जाने पर दूसरे लोग ग्रहण न करते? क्या फ्रेंच में इनके सिद्धांतों का अनुवाद नहीं हुआ होगा? अस्तु।

हिंदी का मुखोज्वल करना हमारे हाथ है, और यदि हम चाहें तो अपने मौलिक लेखों द्वारा इस भाषा को इतने ऊंचे पद पर चढ़ा सकते हैं, कि पश्चिमी विद्वान इसे अवश्‍य अध्ययन करें। तुलसीदास की रोचकता ने, कबीर की सार-गर्भिता ने तथा सूरदास के पद-लालित्य ने कई विदेशियों को हिन्दी पढ़ने पर विवश किया। इसी तरह यदि केवल हम इधर-उधर की पुस्तकों का अनुवाद करने ही को अपना इति कर्तव्य न समझें, और अपने ऊंचे विचार इसी भाषा में व्यक्त करें तो क्या नहीं हो सकता। हिन्दी में यूरोपीय इतिहास संबंधी कोई पुस्तक नहीं है। हां, इंडियन प्रेस ने इतिहास-माला निकालना प्रारंभ किया है, जिसमें पांच छः पुस्तकें निकल चुकी है। निस्संदेह यह प्रयत्न अच्छा है। किंतु इन पुस्तकों को, कोई इतिहास नहीं कह सकता। यदि हम इनको सन् संवत की सूचियां कहें तो भी अतिशयोक्ति न होगी। इस कमी को पूर्ण करने के लिए हम लोगों ने यह 'स्वातंत्र्य सोपान सीरीज' निकालना निश्चय किया है। इसमें केवल उन्हीं देशों के इतिहासों का समावेश रहेगा, जिन्होंने राष्ट्रीय तथा आभ्यान्तरिक स्वातंत्र्य प्राप्त की है और इनमें केवल उन्हीं ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख रहेगा, जिनका संबंध एतद्देशीय राष्ट्रीय स्वाधीनता से रहा हो।

विषय बड़ा गहन है और हमारी योग्यता बहुत कम है। आश्‍चर्य नहीं कि पग-पग पर हम लोग चूकेंगे। किंतु वर्तमान काल में ऐसी पुस्तकों की उपयोगिता का विचार कर, और हिंदी में उनका अभाव देखकर हम लोग अपनी अयोग्यता को जानते हुए भी इस कार्य में बद्ध-परिकर हुए हैं। इस सोपान सीरीज में निम्नलिखित देशों की स्वाधीनता प्राप्त करने की विधि का वर्णन रहेगा।
अर्थात्
(१) हालैंड, (२) इंग्लैंड, (३) अमेरिका, (४) फ्रांस, (५) इटली, (६) टर्की, (७) ईरान, (८) पोर्तगाल और, (९) रूस।
भाषा संबंधी त्रुटियों का होना तो हमारी अयोग्यता-वश अनिवार्य ही है। फिर भी सहृदय पाठकों से हमारा निवेदन है कि इन त्रुटियों का विचार न करके, इस सीरीज को अपनाकर, हमें उत्साहित करेंगे। उदार पाठकों से प्रार्थना है कि जो त्रुटियां, भाषा तथा विषय-संबंधी उन्हें इस 'स्वातंत्र्य सोपान सीरीज' में मिले, उनसे हमें सूचित करें, जिसे हम सहर्ष और धन्यवाद सहित स्वीकार करेंगे।
- संपादक

भूमिका

यूरोप के इतिहास में सोलहवीं सदी तथा सत्रहवीं सदी धार्मिक मारकाट के लिए प्रसिद्ध है। एक भारतीय को जिसका ध्येय सदा से धार्मिक स्वतंत्रता ही रहा है, धार्मिक विषय में मारकाट बड़ा विचित्र मालूम होता है। हिंदू धर्म के छत्र-छाया में बौद्ध, जैन, चार्वक, नास्तिक आदि सब मतों ने एक सा मान पाया है और किसी को धार्मिक विश्वास के कारण किसी तरह का कष्ट नहीं उठाना पड़ा। धार्मिक विषय में स्वाधीनता एक हिंदू को बहुत आवश्यक तथा साधारण ज्ञात होती है। इसलिए यूरोप के इतिहास में, धर्म के नाम से मनुष्यों पर पाशविक अत्याचार का किया जाना, उसके मन को डांवाडोल कर देता है। यूरोप की सोलहवीं और सत्रहवीं सदी के इतिहास में यदि कोई रत्न चमकता हुआ उसे दिखता है तो वह छोटे हालैंड का अपने बलिष्ठ शत्रु स्पेन के साथ अपनी स्वतंत्रता लाभार्थ अस्सी साल की लड़ाई है। स्पेन का यूरोप में उस समय बड़ा दबदबा था। धन, जन आदि सब बातों में दूसरे यूरोपीय देश स्पेन का महत्व स्वीकार करते थे। इंग्लैंड, फ्रांस प्रभृति देश भी स्पेन के आगे सिर झुकाते थे। ऐसे स्पेन से एक तुच्छ हालैंड का, जिसकी जनसंख्या हिन्दुस्तान के किसी छोटे प्रांत के चौथाई से भी कम है, अस्सी साल तक अपूर्व पराक्रम से लड़ना तथा अंत में स्पेन ही द्वारा अपनी स्वतंत्रता कबूल करा लेना, एक भारतीय को थर्रा देता है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जो अधिकारी वर्ग को सदैव सब कुछ मानता आया है, जिसके हृदय में स्वाधीनता का लेशमात्र भी भास नहीं है, वह स्‍वतंत्रता के लिए हालैंड के इस आत्मोत्सर्ग का क्या आदर कर सकता है? यद्यपि उसका हृदय अंधकार से पूर्ण है तथापि डच लोगों का अपूर्व साहस उसके हृदय में ऐसी ज्योति उत्पन्न कर देता है कि स्वयं गिरे हुए होने पर भी हालैंड के उन वीरों के कार्य को, जिन्होंने अपने देश के लिए अपने धन, प्राण सब सहर्ष अर्पण कर दिए, प्रेम और आदर दृष्टि से देखता है। स्पेन के घोर अत्याचार तथा उद्दण्डता, मौनी विलियम के असीम देशप्रेम, साहस तथा आत्म त्याग, वार्नवेल्ट की राजनैतिक कुशलता, नासो के विलियम का रण पांडित्य, जान डी विट् का यूरोपीय राष्ट्र संगठन में अपूर्व ज्ञान तथा प्रत्येक डच का स्वाधीनता के लिए सहर्ष प्राण अर्पण करना, यही प्रथम सोपान के मुख्य विषय है। किस प्रकार इस छोटे से हालैंड ने स्वतंत्रता प्राप्त की, यह भारतवर्ष सरीखे आलसी तथा लकीर के फकीर देश के लिए अनुकरणीय है।

इस पुस्तक का मुख्य अभिप्राय उन्हीं बातों से हैं, जिनसे डच लोगों को स्वाधीनता दिलाने में सहायता मिली। इस कारण सोलहवीं सदी से हमारा प्रकरण प्रारंभ होगा। यथार्थ में डच लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई स्पेन के द्वितीय फिलिप के राज्य काल से आरंभ की। इस कारण हमारा इतिहास द्वितीय फिलिप के समय से ही आरंभ किया जायेगा। जिन महाशयों को इसके पूर्व का हाल जानने की उत्सुकता है उन्हें केम्ब्रिज मिडिवियल हिस्ट्री, हिस्टोरियन्स हिस्ट्री आफ दी वर्ल्‍ड और माटले की डच रिपब्लिक प्रथम भाग की प्रस्तावना देखना चाहिए।

इस पुस्तक में हमने समकालीन लेखों तथा पत्रों से कुछ अवतरण दिया है। हिंदी में इनका अच्छा अनुवाद न हो सकने के कारण अंगेरजी अनुवाद दे दिए गए हैं।
- ठाकुर छेदीलाल

स्‍वाधीनता संग्राम के दौरान वैचारिक स्‍तर पर अस्मिता और स्‍वतंत्रता की भावना जागृत करने वाले उपाय भी किए जाते रहे। गणेशोत्‍सव, धार्मिक प्रवचन, यज्ञ-अनुष्‍ठान, लीला-नाटक मंचन, इतिहास लेखन-प्रकाशन, भाषाई आग्रह जैसे अहिंसक तौर-तरीके अपनाए जाते। अकलतरा के ठाकुर छेदीलाल बैरिस्‍टर ने ऐसे सभी अस्‍त्र आजमाए। बैरिस्‍टरी की पढ़ाई के बाद, वकालत और शिक्षण के साथ 1919 से 1933 के बीच (उनके जेल जाने से व्‍यवधान भी होता रहा) दो-ढाई हजार की आबादी वाले कस्‍बे अकलतरा में रामलीला का आयोजन करते रहे। उनके साथ इस काम में अकलतरा के दो और विलायत-पलट, लोगों को निःशुल्‍क चिकित्‍सा सेवा देते एफआरसीएस, उनके अनुज डा. चन्‍द्रभान सिंह और रायल इकानामिक सोसायटी से जुड़े, पूरी गोंडवाना पट्टी और बस्‍तर के बीहड़ सुदूर अंचल में शोध-सक्रिय, जनजातीय समुदाय में अलख जगाते, उनके भतीजे डा. इन्‍द्रजीत सिंह अनुगामी होते।

Tuesday, November 29, 2011

इंदिरा का अहिरन

छत्‍तीसगढ़ के कोरबा जिले में बहने वाली छोटी सी नदी 'अहिरन' का नाम जटाशंकरी भी है, लेकिन फिलहाल यह पर्याय की तरह याद आ रही है इंदिरा गोस्‍वामी के लिए, जो मामोनी रायसम गोस्‍वामी के नाम से भी जानी जाती थीं। लगभग 35 साल पहले रचित उनके इस असमिया उपन्‍यास का हिन्‍दी अनुवाद 'अहिरन' 2007 में प्रकाशित हुआ।
कोई छः माह पुरानी बात है (वे लगभग इतने समय से अस्‍वस्‍थ्‍य थीं), जब इंदिरा जी के छत्‍तीसगढ़ के साथ इस रिश्‍ते को जानने के बाद मैंने प्रयास शुरू किया। अपनी सीमा में अधिकतम संभव हुआ कि उनके पिछले छत्‍तीसगढ़ प्रवास के बारे में कुछ जानकारियां मिल पाईं।
रायपुर में 14-16 अक्‍टूबर 2005 में आयोजित अखिल भारतीय कवयित्री सम्‍मेलन के छठें अधिवेशन में आई थीं। चित्र में उनके साथ मुख्‍यमंत्रीजी की पत्‍नी श्रीमती वीणा सिंह और कवयित्री-अभिनेत्री सुश्री नीलू मेघ हैं।

अहिरन पढ़ रहा हूं, अपने घर-पड़ोस की बातें हैं- चांपा, कोरबा, चारपारा, कठघोरा, हसदेव, शिवनाथ, पाली, कुदुरमाल, बिलासपुर, छत्‍तीसगढ़..., फिलहाल अधूरी है...

पढ़ा कि उनके जन्‍म पर भविष्‍यवाणी की गई थी- ''इस लड़की के सितारे इतने खराब हैं, इसे दो टुकड़े करके ब्रह्मपुत्र में फेंक दो'' और इसके बाद जीवन भर जिन चुनौतियों से मुकाबिल वे साहित्‍य, असम, राष्‍ट्र और खुद को रचती रहीं कि उनसे मिलने का मन बना कर पिछले दिनों दिल्‍ली तक गया, मुलाकात न हो सकी, फिर भी पोस्‍ट पूरी करता ही, अपनी गति से..., लेकिन सुबह-सुबह उनके निधन का समाचार मिला, सो फिलहाल इतना ही, इस अधूरी पोस्‍ट और पूरे मन के साथ उन्‍हें छत्‍तीसगढि़या श्रद्धांजलि।

संबंधित पोस्‍ट - सतीश का संसार पर अहिरन और अहिरन के साथ...

Tuesday, November 22, 2011

साहित्यगम्य इतिहास

यह पोस्‍ट, 7 से 9 मार्च 2000 को बिलासपुर में आयोजित संगोष्‍ठी के लिए साहित्‍य वाले डॉ. सरोज मिश्र जी और इतिहास वाले डॉ. ब्रजकिशोर प्रसाद जी के सुझाव पर मेरे द्वारा तैयार किया गया परचा, शुष्‍क आलेख है, जिनकी रुचि साहित्‍य एवं इतिहास विज्ञान में न हो, उनके लिए इसे पढ़ना उबाऊ और समय का अपव्‍यय हो सकता है।

''जन केन्द्रित और समग्र मानव इतिहास के लिए विभिन्न सामाजिक विज्ञानों का सहयोग और सहकार आवश्यक है। अनुशासनों से जुड़े गर्व के कारण इन विषयों के बीच का संवाद अब तक, पीटर बर्क के शब्दों में बहरों की बातचीत रहा है। इन अनुशासनों ने एक दूसरे को पूर्वाग्रह, शंका और भय की दृष्टि से देखा है। हमने उनकी सीमाओं पर विचार किया है, उपलब्धियों और संभावनाओं पर नहीं।'' प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे के इस कथन में ''इतिहास और साहित्य-इतिहास लेखन का अंतरावलंबन'' की पड़ताल में यहां इतिहास की दिशा से प्रवेश का प्रयास है।

''राजतरंगिणी'' भारतीय साहित्य का वह बिन्दु है, जहां इतिहास और साहित्य के लेखन और अंतरावलंबन की पड़ताल सुगम है। बारहवीं सदी ईस्वी में काश्मीर के शासक जयसिंह के समकालीन कल्हण की यह रचना, प्रथम इतिहास ग्रंथ मान्य है। कल्हण की यह कृति साहित्य की रचना करते हुए, इतिहास का लेखन है, इसलिए अंतरावलंबन का यह बिन्दु विचार प्रस्थान के लिए उपयुक्त है। राजतरंगिणी इतिहास की शब्दगम्य श्रेणी है। इसके अतिरिक्त वस्तुगम्य और बोधगम्य इतिहास श्रेणियां कही जा सकती हैं। वस्तुगम्य इतिहास की सीमा में पुरातात्विक वस्तुओं के रूप में उत्खननों से प्राप्त प्रमाण से लेकर जीवाश्म और पूरा भौतिक संसार है, जो प्राकृतिक इतिहास के रूप में जाना जाता है और बोधगम्य इतिहास- मूल्य, मान्यता, आचार, व्यवहार, शैली और परम्परा यानि समष्टि लोक है।

पुनः प्रस्थान बिन्दु राजतरंगिणी पर दृष्टि केन्द्रित कर विचार करें। कालक्रम में इसके पूर्व, वैदिक युग है, जिस काल का शब्दगम्य इतिहास बन पाता है, वस्तुगम्यता नगण्य है। दूसरी स्थिति अशोक के अभिलेख हैं, जहां इतिहास गढ़ते हुए, साहित्य की रचना होती चलती है। इसके पश्चात्‌ गुप्त युग है, जो अधिकतर पुराणों का रचनाकाल माना गया है। पुराणों के साथ रोचक यह है कि हिन्दू (भारतीय) धर्म-शास्त्रीय ग्रंथों के अंतिम क्रम में होने के बावजूद उन्हें पुराना और साथ ही इतिहास-पुराण सामासिक रूप में कहा गया है, इसीलिए इतिहास-साहित्य के अंतरावलंबन का यह बिन्दु महत्वपूर्ण हो जाता है। यह भी रोचक है कि एक विरोधाभासी भविष्यत्‌ पुराण का उल्लेख आता है। अन्य पुराणों की शैली से अनुमान होता है कि पुराणों में प्राचीन गाथाओं के साथ समकालीन घटनाओं का भी विवरण संग्रह है, लेकिन प्राचीन गाथाओं को अद्यतन और समकालीन घटनाओं को भविष्यवाणी के रूप में रखा गया है। इस प्रकार पुराण, न सिर्फ इतिहास-पुराण सामासिक पद के रूप में प्रयुक्त हुए हैं, बल्कि भारतीय पद्धति में इतिहास-साहित्य लेखन के संघटन को समझने का अवसर भी प्रदान करते हैं।

गुप्तकालीन स्थितियों में चौथी सदी ईस्वी में रचित हरिषेण की प्रयाग-प्रशस्ति और पांचवीं सदी ईस्वी में रचित वत्सभटि्‌ट की मन्दसौर प्रशस्ति शिलालेख, जैसी रचनाएं तत्कालीन इतिहास की स्रोत-सामग्री तो हैं ही, इनका साहित्यिक मूल्य तत्कालीन साहित्यिक कृतियों से कम नहीं हैं। इसी युग के ताम्रपत्र, जिन पर दान के विवरण के साथ दान की प्रतिष्ठा 'आचन्द्रार्क तारकाः' यानि जब तक सूरज, चांद और तारे रहें, काल अवधि तक के लिए बताई जाती है, किन्तु इतिहास के कालक्रम का ढांचा तैयार करने में समस्या तब होती है जब ऐसे अनेक ताम्रपत्रों पर तिथि किसी प्रचलित संवत्‌ के स्थान पर शासक के राज्य वर्ष की संख्‍या में अंकित की गयी है।

शब्दगम्य इतिहास में विदेशी यात्रियों के यात्रा-वृत्तांत और अन्य लिपियुक्त अवशेषों, साहित्यिक सामग्रियों का विवरण पाठ्‌य पुस्तकों में पर्याप्त है, किन्तु राजतरंगिणी के पश्चात्‌ काल के शब्दगम्य इतिहास में विवेच्य प्रयोजन हेतु अंतिम आधुनिक चरण आरंभ होता है- 15 जनवरी सन 1784 से, जब सर विलियम जोन्स ने कलकता में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की। इसके साथ इतिहास के वैज्ञानिक और व्यवस्थित लेखन के प्रयास का सूत्रपात हुआ। सन 1788 से 'एशियाटिक रिसर्चेज' शोध पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ और कुछ वर्षों बाद ही सेन्ड्राकोट्टस को चन्द्रगुप्त मौर्य से समीकृत किया गया, जोन्स का यह प्रसिद्ध शोध लेख भारतीय इतिहास को कालगत क्रम में व्यवस्थित करने का आधार बना। इसके बाद के उस दौर का भी स्मरण यहां आवश्यक है, जब राहुल सांकृत्यायन की 'वोल्गा से गंगा', रामधारी सिंह दिनकर की 'संस्कृति के चार अध्याय' और भगवतशरण उपाध्याय की 'पुरातत्व का रोमांस' जैसी पुस्तकें प्रकाशित हुई।

इतिहास लेखन की दृष्टि से कुछ विचार-कथनों का स्मरण कर लें, इससे भारतीय इतिहास-दृष्टि की न्यायसंगत समीक्षा आसान हो सकेगी। कौटिल्य ने इतिहास को पुराण, इतिवृत्त, आख्‍यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र से समन्वित माना है। नेहरू, इतिहास के साथ महाकाव्य, परम्परा और कहानी-किस्से को जोड़ते हुए मानों कौटिल्य के कथन की टीका करते हैं- दंतकथाएं, महाकाव्यों तक महदूद नहीं हैं, वे वैदिक काल तक पहुंचती हैं और अनेक रूपों और पोशाकों में संस्कृत साहित्य में आती हैं। कवि और नाटककार इनसे पूरा फायदा उठाते हैं और अपनी कथाएं और सुंदर कल्पनाएं इनके आधार पर बनाते हैं। नेहरू यह भी स्पष्ट करते हैं कि ''तारीखवार इतिहास लिखने की या घटनाओं का कोरा हाल इकट्‌ठा कर लेने की खास अहमियत नहीं रही है। जिस बात की उन्हें ज्यादा फिक्र रही है, वह यह है कि इन्सानी घटनाओं का इन्सानी आचरण पर क्या प्रभाव और असर रहा है।''

अमरीका के प्रसिद्ध विधिवेत्ता ऑलिवर वेन्डल होम्स मानो जिरह करते हैं- ''इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए क्योंकि इतिहास कारणों और पूर्ववृत्त के ऐसे सूत्रों का चयन है, जिनमें हमारी रुचि है और रुचियां पचास वर्षों में बदल जाती हैं।'' अंगरेज इतिहासकार ईएच कार अपनी प्रसिद्ध कृति ''इतिहास क्या है?'' में दिखाते हैं- ''ऐतिहासिक तथ्य मात्र वे हैं, जो इतिहासकारों द्वारा जांच के लिए छांटी गयी हैं'' वे स्पष्ट करते हैं कि लाखों लोगों के बावजूद सीजर का रूबिकन पुल पार करना महत्वपूर्ण हुआ (और मुहावरा बन गया) वे आगे कहते हैं- ''सभी ऐतिहासिक तथ्य इतिहासकारों के समसामयिक मानकों से प्रभावित हुई अभिव्यक्ति के परिणामस्वरूप हम तक आते हैं।''

भारत में इतिहास, हमारी काल चिंतन पद्धति के अनुरूप रहा है। भारतीय, बल्कि समूचा प्राच्य चिंतन, काल तथा उसके सापेक्ष वस्तुओं, घटनाओं को परिवर्तनशील वृत्तायत दृष्टि से देखता है न कि पाश्चात्य, रैखिक विकास की दृष्टि से। साथ ही हमारा सुदीर्घ, अबाध और जीवन्त क्रम, सनातन माना जाकर इतिहास के बजाय स्वाभाविक ही परम्परा में बदल सकता है। परम्परा, जिसकी सार्थकता उसके पुनर्नवा होने में है, उसमें नदी सा सातत्य है। वह प्राणवान 'भवन्ति' का स्पंदित प्रवाह है, न कि खण्डित 'अस्ति' का संवेदनारहित समूह। वस्तुतः इतिहास और परम्परा किसी तथ्य अथवा घटना के दो लगभग विपरीत, किन्तु पूरक बनकर, दोनों सार्थक दृष्टिकोण हैं। परम्परा से जुड़ा व्यक्ति उसके प्रति विषयगत हो जाता है तो, बाहरी व्यक्ति इसके प्रति रूक्ष होकर इसके कपोल-कल्पना साबित करने में जुट जाता है। इसी स्थिति में भारतीयों पर 'इतिहास-बोध' न होने का आरोप लगता है, जिसकी सफाई में कुछ कहने के बजाय भारतीय मानस में 'नियति बोध' का दर्शन पा लेना अधिक आवश्यक है, किन्तु यहीं अभिलेखन के भारतीय दृष्टिकोण का एक उल्लेख पर्याप्त होगा, वृहस्पति का कथन है-
षाण्मासिके तु सम्प्राप्ते भ्रान्तिः संजायते यतः।
धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढान्‍यतः पुरा॥
''किसी घटना के छः मास बीत जाने पर भ्रम उत्पन्न हो जाता है, इसलिए ब्रह्‌मा ने अक्षरों को बनाकर पत्रों में निबद्ध कर दिया है।''

इतिहास लेखन की यह एक विकट समस्या है कि समकालीन इतिहास, घटना के प्रभाव के प्रति तटस्थ नहीं हो पाता। इतिहास का आग्रह अधिकतर तभी तीव्र होता है, जब गौरवशाली अतीत के छीनने का आभास होने लगे। वैभव, जब मुट्‌ठी की रेत की तरह, जितना बांधकर रखने का प्रयास हो उतनी तेजी से बिखरता जाय अथवा ऐसा आग्रह भाव तब भी बन जाता है जब आसन्न भविष्य के गौरवमंडित होने की प्रबल संभावना हो, जैसे राज्याभिषेक के लिए नियत पात्र की प्रशस्ति रचना या प्रस्तावित छत्तीसगढ़ राज्य का पृथक अस्तित्व होने के पूर्व, उसे राज्य इकाई मानकर किया जाने वाला लेखन, लेकिन प्रयोजनीय होने से ऐसे दोनों अवसरों पर तैयार किया जाने वाला इतिहास लगभग सदैव सापेक्ष हो जाता है। इस तरह घटनाओं को साथ-साथ देखते चलें, आगे से देखें या पीछे से, इतिहास के लिए दृष्टि समकोण हो, अधिककोण या न्यूनकोण, वह मृगतृष्णा बनने लगता है।

इतिहास के तथ्य, तर्क-प्रमाण आश्रित होते हैं, परम्परा की तरह स्वयंसिद्ध नहीं। इसलिए इतिहास-नायकों को चारण-भाट की आवश्यकता होती है, जो उनकी सत्ता और कृतित्व के प्रमाणीकरण हेतु काव्य रच सकें, पत्थर-तांबे पर उकेर सकें लेकिन परम्परा के लोक नायकों के विशाल व्यक्तित्व की उदात्तता, जनकवि को प्रेरित और बाध्य करती है, गाथाएं गाने के लिए। इतिहास के तथ्य, तर्क-प्रमाणों से परिवर्तित हो सकते हैं, इसलिए संदेह से परे नहीं होते किन्तु लोक मन का सच, काल व समाज स्वीकृत होकर सदैव असंदिग्ध होता है। इसलिए जिस समाज के जड़ों की गहराई और व्यापकता परम्परा-पोषित जनजीवन में व्याप्त है, वह आंधी तूफान सहता, पतझड़ के बाद बसंत में फिर उमगने लगता है।

इतिहास लेखन में समस्या तब अधिक गंभीर होती है, जब किसी स्रोत-सामग्री का नाम लेना उसके जान लेने की एकमात्र बुनियादी शर्त बन जाती है। इतिहासकार अपना दायित्व वस्तु-घटनाओं के वर्गीकरण और उसकी सांख्यिकीय जमावट तक अपने को सीमित कर लेता है, वह इतिहास को परिवर्तन के बजाय, इकहरे क्रमिक विकास की दृष्टि से देखता है। भारतीय स्थापत्य के इतिहास का उदाहरण इसे अच्छी तरह स्पष्ट करता है। हम पाते हैं कि यहां आरम्भ में हड़प्पा सभ्यता में निर्माण हेतु ईंट प्रयुक्त हुए, वैदिक युग का स्थापत्य घास-फूस, लकड़ी और पत्थर की कुम्भियों का था, मौर्य युग में ढूह (स्तूप) और स्तम्भ तथा काष्ठ वास्तु की तरह रेलिंग बनने लगी, फिर अचानक संरचनात्मक के स्थान पर शिलोत्खात (लेण और गुहा) वास्तु का दौर आता है, संयोगवश लगभग यही काल भारतीय इतिहास का अंधकार युग कहा जाता है, फिर गुप्त युग में क्रमशः सीधे-सपाट संरचनात्मक वास्तु का पुनः आरंभ होता है, इसके बाद देश के कुछ हिस्सों, विशेषकर छत्तीसगढ़ में फिर ईंटों का प्रचलन हो गया और इसी प्रकार परिवर्तन अब तक होते रहे हैं। अब यदि इसे विकास क्रम में जमाने का प्रयास करें तो कुछ तथ्यों को छोड़कर आगे बढ़ना होगा या फिर कुछ मनगढ़ंत सम्मिलित करना विवशता होगी।

इस प्रकार पाश्चात्य पद्धति ने हमारी इतिहास दृष्टि को जागृत करने में सहायता की, जिसके माध्यम से हम मंदिरों का, मूर्तियों का, सिक्कों का, लिपियों का, बोली-भाषाओं का और साहित्य के इतिहास का ढांचा तैयार कर सके, किन्तु शायद इसी ने समग्रता के इतिहास से जो परम्परा से सम्बद्ध होकर मानव का, उसकी संस्कृति का, इतिहास हो सकता था, दूर कर दिया। यह विवेचन अंगरेजों को उत्तरदायी ठहराने के लिए नहीं, अपने स्वाभाविक वर्तमान का आकलन करने के लिए है।

निष्कर्ष यह कि हमारे व्यक्तित्व के ढांचे में, चेतना के स्तर पर समष्टि सूत्रों से हम सृष्टि में प्रकृति के सहोदर हैं, लोक-जन हमारे अग्रज हैं, वे ही हमारे मूल से वर्तमान को जोड़ने का परिचय-माध्यम हो सकते हैं, सूत्र बन सकते हैं। आज हम जहां हैं, वहां होने की तार्किकता, अपने आदि से कार्य-कारण संबंध तलाश कर, उसमें छूटे स्थानों को पूरी आस्था सहित लोक और जन से पूरित कर, यानि चेतना के स्तर पर अपने इतिहास से अपने वर्तमान का सातत्य पाकर हम वास्तविक अर्थों में मनुज कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। यह विश्लेषण आश्रित शब्दगम्य इतिहास मात्र से संभव नहीं, इसके लिए वस्तुगम्य इतिहास की व्याख्‍या और बोधगम्य इतिहास सम्पदा को साहित्य का सम्मान देते हुए, तैयार किया गया इतिहास ही सार्थक होगा।

Saturday, November 12, 2011

ईडियट के बहाने

भेद-भाव की अपनी समस्‍याएं हैं तो समानता के भी अलग संकट हैं, ऐसी किसी वजह से ''एक सिर बराबर एक मत (वोट)'', बीसवीं सदी का सबसे खतरनाक अविष्कार कहा गया होगा। 'थ्री ईडियट्‌स' फिल्म की प्रशंसा से अलग कुछ कहना शायद इसीलिए जल्दी संभव नहीं हुआ। उग्र प्रजातंत्र के माहौल में अपनी राय प्रकट करने के पहले कोई पक्ष बहुमत बन चुका हो तो सावधानी जरूरी है। लेकिन यहां राय, अल्पमत में रहकर विशेषाधिकार पा लेने या धारा के विरुद्ध खड़े होने जैसी क्रांतिकारिता के कारण नहीं है और यह वाद-विवाद प्रतियोगिता भी तो नहीं, जिसमें अपनी बात 'मैं इस सदन की राय के विपक्ष में कहने खड़ा हुआ हूं' इस जुमले की तरह रस्‍मी हो।

आप कभी-कभार और मुख्‍यतः अत्यधिक अनुशंसा के कारण फिल्में देखने जाते हों तो वापस आकर फिल्म की आलोचना का साहस जुटाना कठिन हो जाता है, क्योंकि ऐसा करने पर आप अनुशंसकों के आलोचक बनते हैं फिर निर्माता-निर्देशक ने तो आपको आमंत्रित किया नहीं था, आपने खुद चलकर, समय लगाकर, खर्च कर फिल्म देखी इसलिए फिल्म देखने का अपना निर्णय ईडियॉटिक मानने के बजाय, दुमकटी लोमड़ी बनकर हां में हां मिलाना अधिक सुविधाजनक और समझदारी भरा जान पड़ता है।

यह फिल्म पसंद न आने में मैंने अपने संस्कार और रूढ़ मन को टटोलना शुरू किया। सत्तरादि दशक के आरंभ में हम माध्यमिक शाला की पढ़ाई आठवीं कक्षा पास कर लेते तो उच्चतर शाला की नवीं कक्षा में प्रवेश के लिए जाते, बिना ताम-झाम और तैयारी के। पढ़े-लिखे, जागरूक अभिभावकों को भी खबर नहीं होती थी। सब गुरुजी तय कर देते। साठ फीसदी तक अंक वाले छात्रों का नाम नवीं 'अ' में पचास तक 'ब' में और उसके नीचे 'स' में। अ का मतलब होता, गणित विषय, इन्जीनियर, ब का मतलब बायोलाजी (उच्चारण होता बैलाजी) यानि डाक्टर बनेगा और बचे-खुचों के लिए स, माना जाता कि आगे पढ़ना तो है ही सो स यानि कला की पढ़ाई और क्या बनेगा के सवाल पर जवाब होता- अफसर न हुआ तो काला कोट पहनेगा, तो कभी भूगोल की प्रायोगिक कक्षा की याद दिला कर कहा जाता जमीन की पैमाइश तो कर ही लेगा। इस अ, ब, स में परिवर्तन कभी-कभार ही होता।

नवीं 'ब' में भरती हुई लेकिन डॉक्टर बनने के लक्षण और योग्यता मेरे परीक्षा परिणामों में नहीं दिखी। अपनी क्षमताओं का 'तत्‍वज्ञान' मुझे तो काफी हद तक हो ही चला था, इससे एक तरफ परीक्षा प्रणाली पर मेरा विश्‍वास बना रह गया और दूसरी ओर स्नातक बनने के लिए बीएस-सी से बीए करने लगा। विषय चुनने की बात आई, तो इस बात पर दृढ़ रहा कि मेरी पढ़ाई का विषय भाषा-साहित्य या गणित नहीं होगा, क्‍योंकि ये दोनों विषय मुझे आरंभ से और अब भी उतने ही पसंद हैं। मुझे लगता, बल्कि दृढ़ मान्यता रही कि पढ़ाई के लिए विषय के रूप में इनका चयन कर लेने पर इनमें मेरी रुचि बनी नहीं रह पाएगी, इन विषयों की स्‍वाभाविक समझ और उनके प्रति मौलिक सोच बची न रह पाएगी, इन्‍हें प्रशिक्षित रूढ़ ढंग से देखना शुरू कर दूंगा और ये दोनों विषय तो यों भी पढ़ लूंगा फिर और कुछ क्यों न आजमाया जाए।

बाद में मेरी पढ़ाई और स्नातकोत्तर डिग्री प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व की हुई, बावजूद इसके कि विगत में रुचि होने पर भी इतिहास मेरे सख्‍त नापसंद का विषय था। विषय चयन करने की बात पर मैंने इतिहास के लिए अपनी अरुचि प्रकट की तो मुझसे इसका कारण पूछा गया। मैंने बताया कि तिथि-सन रटना न मुझे पसंद है न मुझसे हो सकता। तब बताया गया कि पुरातत्व ऐसा इतिहास है, जिसमें सन का रट्‌टा नहीं है। सदी से और कभी सदियों और सहस्राब्दी से भी काम चल जाता है फिर तो कुछ पता किए बिना यह चयन करने में कोई असमंजस नहीं रहा।

स्‍नातकोत्‍तर परीक्षा के प्रश्‍न-पत्रों के अंतराल में परीक्षा की पढ़ाई के साथ 'चांद का मुंह टेढ़ा है', 'कुरु कुरु स्‍वाहा' और 'प्‍लेग' पढ़ा। इस परीक्षाफल में मुझे प्रथम स्‍थान और फलस्‍वरूप स्‍वर्ण पदक प्राप्‍त हुआ। इस बार परीक्षा प्रणाली के प्रति विश्‍वास(?) बना कि मैं इस खेल के नियम कुछ-कुछ समझने लगा हूं, बस इतना ही और इसके बावजूद अव्‍वल आने की न चाहत बनी न आदत। वैसे भी अव्‍वल होते रहने के भाव के साथ कभी छल-छद्म का सहारा और सूक्ष्‍म हिंसा तो लगभग सदैव जुड़ी होती है।
अंततः संयोग यह भी बना कि निजी तौर पर अपरिग्रहवादी मैंने संग्रहालय विज्ञान में पत्रोपाधि ली। इस चाहे-अनचाहे अनिश्चित सिलसिले का सिला, शासकीय सेवा के अपने काम में पुरातत्व-इतिहास के साथ भ्रमण, दूरस्थ अंचलों में लंबी अवधि तक कैम्प, लोककला और संस्कृति से जुड़ाव का रुचि-अनुकूल अवसर मिलता रहा है।

थ्री ईडियट्‌स का नायक बीएड नहीं है, बाल मनोविज्ञानी भी नहीं, उद्यमी भी नहीं लेकिन स्कूल चला रहा है, व्यवसायी नहीं पर अविष्कार कर उसे पेटेंट करा रहा है। आइआइटीयन चेतन भगत युवा लेखक और विचारक हैं। दो-तीन आइआइटीयन को मैं जानता हूं, जिनमें से एक ने डिग्री पूरी कर सन्यास ले लिया, कोई रेडियो जॉकी बन गया या उनमें से कुछ और इसी तरह का भलता कुछ काम करने लगे और यों अपरिचित और काम के नए क्षेत्र में सफल भी हैं। देकार्त विधिस्नातक थे, सैनिक बने, गणित करने लगे और दार्शनिक के रूप में जाने गए। लियोनार्डो दा विंची, बैरिस्‍टर गांधी और आइसीएस बोस ... न जाने कितने उदाहरण हैं। पढ़ाई के विषय और रुचि में तादात्म्य, रोजगार-जीवन यापन की शुरुआत, बीच में बदलाव और कई बार उसके समानान्तर कार्य को रुचि के अनुकूल बना लेना या पसंद का काम, मुआफिक संभावना खोज लेना भी आवश्यक कौशल है।

'तारे जमीं पर' की याद करते चलें, जो मुझे कुछ बेहतर फिल्‍म लगी, बावजूद इसके कि डिस्लैक्सिया और बच्चों में छिपी नैसर्गिक प्रतिभा और उसके उजागर होने को गड्‌ड-मड्‌ड कर दिया गया है, मध्यान्तर तक नायक नहीं आता, लेकिन आता है तो फिर नायक, नायक ही है और ईशान भी अंततः फर्स्ट आता है, तभी जाकर फिल्म और शायद फिल्मकार की मुराद पूरी होती है।

थ्री ईडियट्‌स की कामेडी चर्चा में रही और पसंद की गई लेकिन यहां भी व्यापक मान्यता और स्वीकृति पा लेने के बाद इसे सहज आसानी से भोंडा की हद तक सुरुचिरहित कहना कठिन हो रहा है। फिल्म के हास्य की आलोचना की कठोरता कम करने के लिए यह कहा जा सकता है कि शालीनता और मर्यादा में हास्य की गुंजाइश कम होती है। अब तो 'दबंग' और 'डेल्ही बेली' भी हैं, जिसके भोंडेपन को जीवन और सामाजिक व्यवहार की स्वाभाविकता के तर्क में रंगा जा सकता है। इस फिल्म की कामेडी ऐसी है कि अपनी दिनचर्या में सभ्य नागरिक को इन बातों या स्थितियों का सामना करना पड़े तो वह असहज हो जाता है, लेकिन यहां...। सभ्य और नागरिक शब्द क्रमशः सभा और नगर से बने हैं और इसी तरह भदेस, गवांरु, देहाती शब्द देसी-गवंई से बने हैं लेकिन फूहड़ और अश्लील के लिए रूढ़ हो गए हैं। इसे संदर्भ के साथ आप जोड़ लें। मैं तो यही कहूंगा कि लोकप्रिय हो जाने के कारण, लोगों (बच्चे-बच्चे) की जबान पर चढ़ जाने के कारण भोंडे और फूहड़ को सुरुचिपूर्ण की स्वीकृति नहीं मिल जाती।

निष्कर्ष इतना कि कुछ अच्छे सीक्वेंस, संवाद, दृश्य-गीत के बावजूद मैं इसे बतौर अच्‍छी फिल्म स्‍वीकार नहीं कर पाया। बहरहाल, इस ईडियट के बहाने आमिर खान ने अपनी बाक्‍स आफिस समझ जरूर साबित की है।

Friday, November 4, 2011

तकनीक

आदि मानव ने सभ्यता के आरंभ में तकनीक विकसित कर अपने दो सबसे बड़े मित्रों को साधा। कुल्हाड़ी, भाले की नोक और तीरों के सिरे बनाने के लिए चकमक पत्थर से पहचान बनी क्योंकि यह लोहे की तरह सख्‍त होता है और पतली तीखी धार बनाने के लिए इसे घिसा भी जा सकता है। दूसरी तकनीक विकसित हुई, आग पैदा करने की। आग या तो कमान-बरमे से मथ कर पैदा की जाती थी या चकमक को लौह-मासिक पत्थरों पर रगड़कर। मानवजाति के निएंडरथल लोग, जो पृथ्वी पर लगभग सत्तर हजार साल बिताकर, अब से तीस हजार साल पहले पूर्णतया लुप्त हो गए, तकनीकी विकास की इस स्थिति को प्राप्त कर चुके थे।

लगभग दस हजार साल पहले हमारे पूर्वजों- होमो सेपियंस ने पाषाण उपकरण और आग पैदा करने से आगे बढ़कर कृषि तकनीक विकसित कर ली, जिससे गुफावासी मानव, बद्‌दू जीवन बिताने के साथ-साथ तलहटी, उपजाऊ मैदान और नदियों के किनारे बसने लगा। पत्थर की कुदालों और नुकीली लकड़ियों से जमीन को पोला कर अनाज बोया जाता और लकड़ी या हड्डियों में चकमक फंसाकर बनाए हंसिए से फसल काट ली जाती। उसने अनाज पीसने की विधि भी विकसित कर ली थी। कृषि के साथ पशुपालन भी आरंभ हुआ। वृक्षों की छाल के बाद ऊन, चमड़े आदि की सहज प्राप्ति से वस्त्र निर्माण की तकनीक विकसित होने लगी। वस्त्रों के प्राचीनतम उपलब्ध प्रमाणों में लगभग सात हजार साल पुराना लिनन का टुकड़ा मिस्र से ज्ञात हुआ है।

नवपाषाण काल के ही दौरान, यही कोई पांच-छः हजार साल पहले तकनीकी विकास में 'पहिया' जुड़ जाने से मानव सभ्यता की गति तीव्र हो गई। चाक पर मिट्‌टी के बर्तन बनने लगे और रथ-गाड़ियां बन जाने से यातायात सुगम हो गया। अब से कोई पांच हजार साल पहले, ताम्र युग आते-आते सुमेर लोगों ने चमड़े के टायर, तांबे की कील वाले पहियों की रीम विकसित कर ली। इसके पश्चात् धातुओं का प्रयोग और उनके मिश्रण से मिश्र धातु की तकनीक जान लेना महत्वपूर्ण बिंदु साबित हुआ।

इस आरंभिक तकनीकी विकास से मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसे केन्द्र रच गए, जिनके अवशेष भी कुतूहल पैदा करते हैं। मिस्र में 150 मीटर ऊंचा और करीब ढाई-ढाई टन भारी 23 लाख शिलाखंडों का महान पिरामिड खड़ा किया गया, वह भी पहियों का ज्ञान न होने के बावजूद। स्वाभाविक है कि ईस्वी पूर्व 2600 के आसपास बने इन पिरामिडों की तकनीक की सांगोपांग जानकारी के लिए इस बीसवीं सदी में पिरामिड अध्ययन समितियां बनी लेकिन इनके शोध से तत्कालीन तकनीकी ज्ञान की जितनी जिज्ञासाओं का उत्तर मिलता है, उतने ही नए रहस्य गहराने लगते हैं।

मिस्री खगोल विशारदों ने ही अपनी जीवन-रेखा नील नदी के बाढ़ का हिसाब रखने के लिए पंचांग बनाया। वर्ष, माह, दिन और घंटों का गणित समझने की शुरूआत हुई। असीरिया के निनवे में सत्ताइस सौ साल पहले जल प्रदाय के लिए पांच लाख टन पत्थरों का इस्तेमाल कर 275 मीटर लंबी नहर बनाई गई थी। पत्थर और डामर-अलकतरा के मोट से ऐसी व्यवस्था की गई थी कि उस पर पानी का कोई असर नहीं होता था। बेबीलोन में अड़तीस सौ साल पहले सिंचाई के लिए नहरें खुदवाई गईं। पारसी राज्य में ढाई हजार साल पहले सड़कों का जाल बिछा था। सुसा से सारडिस जाने वाले राजमार्ग की लंबाई 2500 किलोमीटर थी। राजकीय संदेशवाहक इस सड़क को एक सप्ताह में पार कर लेते थे। यहां चमकीले टाइल्स पर बने चित्र आज भी धूमिल नहीं पड़े हैं। लगभग दो हजार साल पहले यहूदी विद्रोह को कुचलने के लिए रोमनों ने येरूशलम को घेर कर दीवार तोड़ने वाले इंजन चालू कर दिए, लगातार तीन सप्ताह लकड़ी के भारी यंत्रों से चलाए गए गोल पत्थरों के आघात से दीवारों पर बड़े-बड़े छेद बन गए थे।

चीन की 2400 किलोमीटर लंबी, प्राचीन दीवार (आमतौर पर 10000 ली यानि 5000 किलोमीटर बताई जाती है) पृथ्वी पर मानव निर्मित, अंतरिक्ष से दिखने वाली एकमात्र संरचना कही जाती है। इसके साथ लेखन कला के माध्यम के लिए कागज बनाने की तकनीक यहीं विकसित मानी जाती है। प्राचीन चीन के तकनीकी कौशल का अल्पज्ञात पक्ष है कि यहां ईस्वी पूर्व आठवीं सदी से भूकंपों का ठीक-ठीक विवरण रखा जाने लगा था और ईस्वी पूर्व दूसरी सदी में भूकंप लेखी यंत्र का अविष्कार कर लिया गया था। समुद्री द्वीप क्रीट में साढ़े तीन-चार हजार साल पहले विकसित मिनोअन सभ्यता के छः एकड़ क्षेत्र में फैले राजमहल के भग्नावशेष मिले, जिसमें जल-आपूर्ति और निकास की तकनीक दंग कर देने वाली है। यूनान के माइसिनी ही संभवतः कभी ब्रिटेन पहुंचे और साढ़े तीन हजार साल पहले यूरोप के प्रागैतिहासिक स्मारकों में सबसे महान गिने जाने वाले स्टोनहेंज का निर्माण किया। यारसीनियनों के साथ ट्रोजन ने भी तकनीक इतिहास रचा और फिनीशियन भी कम साबित नहीं हुए हैं, जिनकी समुद्र यात्रा का तकनीकी ज्ञान अत्यंत विकसित था।

यूनान ने दो-ढ़ाई हजार साल पहले धर्म-दर्शन के क्षेत्र में विकास किया ही, वैज्ञानिक सोच और तकनीक का विकास भी यहां कम न था। विशाल नौकाएं, एपिडारस की पहाड़ियों में पन्द्रह हजार दर्शक क्षमता वाले प्रेक्षागृह और पारसियों को जीतने के लिए टापू पर बसे शहर टायर तक पहुंचने के लिए लंबे पुल तथा उसके बाद शहर के बाहर दीवारों के पार देखने के लिए 50 मीटर ऊंची लकड़ी की दीवार बनाई। रोमनों का लगभग दो हजार साल पुराना कैलेंडर, विशाल नौका, नीरो का 50 हेक्टेयर क्षेत्र में बना 1600 मीटर लंबे कक्ष वाला प्रासाद और पचास हजार दर्शक क्षमता वाला कोलोसियम, रोमन नहर व नालियां, तकनीकी विकास के आश्चर्यजनक उदाहरण हैं। प्राचीन अमरीकी माया, एज्टेक और इन्का सभ्यताओं तथा घाना, सुडान, कांगो जैसी प्राचीन अफ्रीकी सभ्यता के अवशेषों में भी उनके तकनीकी ज्ञान और कौशल के चिह्न परिलक्षित होते हैं।

भारत प्रायद्वीप में आदिमानव के अनेकानेक केन्द्रों के साथ करीब सात-आठ हजार साल पुरानी मिहरगढ़ की सभ्यता प्रकाश में आई है, जिसमें सभ्यता के साथ तकनीकी विकास के कई महत्वपूर्ण सोपान उजागर हुए हैं। लगभग पांच हजार साल पहले कृषक समुदाय के अस्तित्व सहित तकनीकी ज्ञान के अवशेष बलूचिस्तान से ज्ञात हैं। इसके बाद साढ़े चार हजार साल पुरानी हड़प्पा की सभ्यता उद्‌घाटित हुई, जिन्हें कांसे- मिश्र धातु की तकनीक के अलावा सिंचाई, सड़क, जल-निकास, पकी ईटों, मिट्‌टी के बर्तन, क्षेत्रफल और आयतन के नाप का गणितीय ज्ञान था। यद्यपि हड़प्पाकालीन लिपि को निर्विवाद पढ़ा नहीं जा सका है, तथापि लिपि का पर्याप्त उपयोग यहां हुआ।

वैदिक काल में तीन-साढ़े तीन हजार साल पुराने ग्रंथों से तकनीकी विकास के साहित्यिक प्रमाण मिलते हैं, जब खगोल, गणित, चिकित्सा और धातु विज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त तकनीकी विकास कर लिया गया था। वैदिक काल में चीन, अरब और यूनान से तकनीकी और वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान की जानकारी भी मिलती है। प्राचीन भारत में गणित की विभिन्न शाखाओं अंकगणित, रेखागणित, बीजगणित और खगोल ज्योतिष उन्नत थी। ब्रह्मगुप्त, वराहमिहिर और आर्यभट्ट जैसे गणितज्ञ अपने समकालीन ज्ञान से बहुत आगे थे, जिनसे भारत प्रायद्वीप में तकनीकी विकास को गति मिली।

काल-गणना पद्धति और ग्रह-नक्षत्रों का ज्ञान भी विकसित तकनीक का द्योतक है। तत्वों और अणुओं का ज्ञान, रसायन की कीमियागिरी तथा नाप-तौल और समय-माप के लिए न्यूनतम और वृहत्तम इकाई तय की गई। धात्विक तकनीकी विकास का उदाहरण मिहरौली लौह स्तंभ, आश्चर्य और जिज्ञासा का केन्द्र है। भारतीय स्थापत्य, चाहे वह शिलोत्खात हो या संरचनात्मक, अपने आप में तकनीकी कौशल की मिसाल है। भारतीय मंदिरों की विभिन्न स्थापत्य शैलियों, सौन्दर्य सिद्धांत के स्थापित मानदण्डों के साथ संरचनात्मक और स्वरूपात्मक नियम पर खरे हैं, इसलिए ये धर्म-अध्यात्मिक गहराई के साथ-साथ तकनीकी और अभियांत्रिकी कौशल की ऊंचाई का अनोखा संतुलित तालमेल प्रस्तुत करते हैं।

छत्तीसगढ़ में पाषाणयुगीन उपकरण रायगढ़ जिले के सिंघनपुर, कबरा पहाड़, टेरम, दुर्ग जिले के अरजुनी तथा बस्तर जिले से प्राप्त हुए हैं। ताम्रयुगीन उपकरणों का संग्रह छत्तीसगढ़ के संलग्न बालाघाट जिले के गुंगेरिया से मिला है। लौह युग के विभिन्न महाश्‍मीय स्‍मारक-स्थल दुर्ग जिले के करकाभाट, करहीभदर, धनोरा, मुजगहन, चिरचारी तथा धमतरी के लीलर, अरोद आदि से ज्ञात हैं। आद्य-ऐतिहासिक काल में मल्हार से भवन निर्माण के अवशेष ज्ञात हैं और छत्तीसगढ़ के मिट्‌टी के परकोटे वाले गढ़ भी इसी युग के होने की संभावना है। तत्कालीन मृदभाण्ड भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

ऐतिहासिक युग के चट्‌टान, शिला व काष्ठ स्तंभ पर उत्कीर्ण लेख तथा प्राचीन विशिष्‍ट ठप्‍पांकित तकनीक सहित अन्‍य सिक्के किरारी, रामगढ़, गुंजी, मल्हार, ठठारी, तारापुर आदि स्थानों से मिले हैं। सिरपुर, सलखन, आरला, फुसेरा और हरदी से प्राप्त धातु प्रतिमाएं भी विशेष उल्लेखनीय हैं। आरंभिक स्थापत्य संरचनाएं, पाषाण तथा ईंटों से निर्मित हैं जिनके उदाहरण ताला, मल्हार, राजिम, नारायणपुर, सिरपुर, आरंग, सिहावा, खल्लारी, तुमान, रतनपुर, जांजगीर, पाली, शिवरीनारायण, डीपाडीह, महेशपुर, देवबलौदा, भोरमदेव, नारायणपाल, बारसूर और भैरमगढ़ आदि में विद्यमान हैं।

भारतीय तकनीकी ज्ञान का अनुमान प्राचीन साहित्यिक स्रोतों की सूचियों से स्पष्ट होता है-

अग्निकर्म- आग पैदा करना
जलवाय्वग्निसंयोगनिरोधैः क्रिया- जल-वायु-अग्नि का संयोग, पृथक करना, नियंत्रण
छेद्यम्‌- भिन्न-भिन्न आकृतियां काट कर बनाना
मणिभूमिका कर्म- गच में मणि बिठाना
अनेकरूपाविर्भावकृतिज्ञानम्‌- पत्थर, लकड़ी पर आकृतियां बनाना
स्वर्णादीनान्तु यथार्थ्यविज्ञानम्‌- स्वर्ण परीक्षण
कृत्रिमस्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानम्‌- नकली सोना, रत्न आदि बनाना
रत्नानां वेधादिसदसज्ज्ञानम्‌- रत्नों की परीक्षा, उन्हें काटना, छेदना
मणिरागः- कीमती पत्थरों को रंगना
स्वर्णाद्यलंकारकृतिः- सोने आदि का गहना बनाना
लेपादिसत्कृतिः- मुलम्मा, पानी चढ़ाना
तक्षकर्माणि- सोने चांदी के गहनों और बर्तन पर काम
रूपम्‌- लकड़ी, सोना आदि में आकृति बनाना
धातुवादः- धातु शोधन व मिश्रण
पाषाणधात्वादिदृतिभस्मकरणम्‌- पत्थर, धातु गलाना तथा भस्म बनाना
धात्वोषधीनां संयोगाक्रियाज्ञानम्‌- धातु व औषध के संयोग से रसायन तैयार करना
चित्रयोगा- विचित्र औषधियों के प्रयोग की जानकारी
शल्यगूढ़ाहृतौ सिराघ्रणव्यधे ज्ञानम्‌- शरीर में चुभे बाण आदि को निकालना
दशनवसनागरागः- शरीर, कपड़े और दांतों पर रंग चढ़ाना
वस्त्रराग- कपड़ा रंगना
सूचीवानकर्माणि- सीना, पिरोना, जाली बुनना
मृत्तिकाकाष्ठपाषाणधातुमाण्डादिसत्क्रिया- मिट्‌टी, लकड़ी, पत्थर के बर्तन बनाना
पटि्‌टकावेत्रवानविकल्पाः- बेंत और बांस से वस्तुएं बनाना
तक्षणम्‌- बढ़ईगिरी/ वास्तुविद्या- आवास निर्माण कला
नौकारथादियानानां कृतिज्ञानम्‌- नौका, रथ आदि वाहन बनाना
जतुयन्त्रम्‌- लाख के यंत्र बनाना
घट्‌याद्यनेकयन्त्राणां वाद्यानां कृतिः- वाद्ययंत्र तथा पवनचक्की जैसी मशीन बनाना
मधूच्छ्रिष्टकृतम- मोम का काम
गंधयुक्ति- पदार्थों के मिश्रण से सुगंधि तैयार करना
वेणुतृणादिपात्राणां कृतिज्ञानम्‌- बांस, नरकुल आदि से बर्तन बनाना
काचपात्रादिकरणविज्ञानम्‌- शीशे का बर्तन बनाना
लोहाभिसारशस्त्रास्त्रकृतिज्ञानम्‌- धातु का हथियार बनाना
वृक्षायुर्वेदयोगाः- वृक्ष चिकित्सा और उसे इच्छानुसार छोटा-बड़ा (बोनसाई?) करना
वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिकृतिः- बागवानी
जलानां संसेचनं संहरणम्- जल लाना, सींचना
सीराद्याकर्षणे ज्ञानम्‌- जोतना आदि खेती का काम।

तकनीक पर सिंहावलोकन न्याय द्वारा दृष्टिपात करने से आगे का मार्ग सुगम होकर प्रशस्त हो सकेगा।

टीप
डाटा स्‍पेक, बिलासपुर द्वारा रोटरी क्‍लब आफ बिलासपुर मिडटाउन के सहयोग से नवंबर 97 में आयोजित तकनीक व्‍यापार मेला के अवसर पर स्‍मारिका के लिए लेख की बात डा. डीएस बल जी से हुई, उनके नम्र आग्रह का बल, जिसने झेला हो वही जान सकता है। मैंने नसीहत याद की- किसी विषय की जानकारी न हो और जानना चाहें तो उस पर एक लेख लिख डालें। डा. बल से हुई चर्चा के तारतम्‍य में ऐसा ही कुछ किया और जो बन पड़ा, मसौदा उन्‍हें सौंप दिया, बाद में पता चला कि वह 'कल से आज तक' शीर्षक से स्‍मारिका में शामिल किया गया है।

उल्‍लेखनीय है कि प्राचीन ग्रंथों में 64 कलाओं की सूची के लिए वात्‍स्‍यायन कामसूत्र चर्चित है, किंतु ऐसी सूची ललित विस्‍तार, शुक्रनीतिसार, प्रबन्‍धकोश जैसे ग्रंथों में भी है। यह भी कि सन 1911 में अडयार, मद्रास से प्रकाशित ए वेंकटसुब्‍बैया द्वारा तैयार कला सूची को प्रामाणिक अध्‍ययन माना जाता है। साथ ही हजारी प्रसाद द्विवेदी की 'प्राचीन भारत के कलात्‍मक विनोद' इस विषय की अनूठी पुस्‍तक है। विभिन्‍न स्रोतों से कुछ कलाओं के नाम यहां उदाहरणस्‍वरूप एकत्र हैं, जिनसे अनुमान होता है कि ये मात्र कला के नहीं, बल्कि हस्तशिल्प, अभ्यास के साथ तकनीकी कौशल के भी उदाहरण हैं।

अपने ब्‍लाग का शीर्षक और उसके साथ का वाक्‍य, ''सिंहावलोकन - आगे बढ़ते हुए पूर्व कृत पर वय वानप्रस्‍थ दृष्टि'', बड़ी मशक्‍कत के बाद तय किया था, लेकिन इस लेख की अंतिम पंक्ति चौंकाने वाली थी, क्‍योंकि कभी पहले सिंहावलोकन शब्‍द का प्रयोग मैंने इस तरह किया है मुझे कतई याद न था।

(इस पोस्‍ट का आरंभिक भाग समाचार पत्र 'जनसत्‍ता', नई दिल्‍ली के समांतर स्‍तंभ में 17 नवंबर 2011 को प्रकाशित)

Sunday, October 30, 2011

हमला-हादसा

18 अक्टूबर की शाम लखनऊ में घटित, अरविंद केजरीवाल वाली घटना के बाद समाचारों में हमला और हादसा शब्द बार-बार आने लगा।
घटना, हमला और हादसा न कही जाए तो समाचारों की दुनिया सूनी होने लगती है शायद, क्योंकि बात चप्पल-जूते चलने तक हो तो यह कोई समाचार हुआ, वह तो कहीं भी, कभी भी हो जाता है।
अखबारों में यह खबर मुखपृष्ठ पर प्रमुखता से छापी गई थी, लेकिन (गनीमत रही कि) एक अखबार जो हमला-हादसा शब्द से बच रहा था, वह 'चप्पल चला दी' और 'चप्पल फेंक कर मारी' तक सीमित रहा, किन्‍तु इस अखबार में खबर एक कालम में सिमट गई है।

खबरों में बताया गया है कि अन्ना ने इसे लोकतंत्र पर हमला कहा है। यह भी कि श्री केजरीवाल पर हमले के बाद जितेंद्र की इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्यों ने जम कर पिटाई की। बाद में श्री केजरीवाल ने हमलावर को माफ भी कर दिया।
इस संदर्भ में कुछ सवाल हैं-
? हमला, हादसा और हमलावर शब्द का इस्तेमाल,
? घटना को लोकतंत्र पर हमला कहा जाना,
? इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्यों द्वारा जितेंद्र की जम कर पिटाई,
? पीटने वाले सचमुच इंडिया अगेंस्ट करप्शन के सदस्य थे,
? ऐसी जम कर पिटाई भी 'हमला' कही जा सकती है,
? जितेंद्र की पिटाई पर वक्‍तव्‍य/कार्रवाई।

ऐसा हर ''हमला-हादसा'' मेरी दृष्टि में असहमति-योग्‍य है।

इस बीच यह भी खबर है कि 6 नवम्‍बर 2001 को नागपुर में अरविंद केजरीवाल का भाषण हुआ और इस मौके पर 'घंटानाद' संस्‍था के कार्यकर्ताओं द्वारा विरोध किए जाने पर उनके कार्यकर्ताओं ने विरोधियों की जम कर पिटाई की है।
(समाचार पत्र 'आज की जनधारा', रायपुर के ब्‍लॉगकोना स्‍तंभ में 27 नवंबर 2011 को प्रकाशित)

Sunday, October 16, 2011

नाम का दाम

उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से 1978 में प्रकाशित, हिन्दी समिति प्रभाग ग्रन्थमाला-249 है ''उपनाम : एक अध्ययन'' लेखक हैं, डॉ. शिवनारायण खन्ना। लेखक ने बताया है कि ''व्यंग्य लेख 'कमल, कामिनी और कलकत्ता' शीर्षक से 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में प्रकाशनार्थ भेजा, जो 12 अप्रैल 1959 के अंक में प्रकाशित हुआ। लगभग तभी से मैं उपनामों तथा प्रच्छन्न नामों का संकलन करता रहा हूं। इस ग्रंथ में उपनामधारी लगभग 2650 साहित्यकारों के 3000 से अधिक उपनाम तथा प्रच्छन्न नाम हैं। ... उपनाम, उपनाम रखने के उद्देश्‍य, उपनाम के आधार, प्रकार तथा विशेषताओं का विवेचन इस ग्रंथ में किया गया है।''

पुस्‍तक में उपनामों संबंधी जो नाम (शब्‍द) गिनाए गए हैं, वे हैं- अपर नाम, अन्‍य नाम, अवास्‍तविक नाम और इसी तरह नाम जोड़ते चलें- असत्‍य, आंशिक, आधा, उपाधि, कल्पित, कार्य, काल्‍पनिक, काव्‍य, कृतक, कृत्रिम, गुप्‍त, गुह्य, गोपन, गौण, घरेलू, छद्म, छोटा, तूलिका, दिखावटी, दुलार का, दूसरा, नकली, नीति, धारित, परिवर्तित, पुकारने का, प्रचलित, प्रच्‍छन्‍न, प्रिय, प्रसिद्ध, बचपन का, बनावटी, भावनात्‍मक, मुंहबोला, लघु, लाक्षणिक, लेखनी, व्‍यंग्‍य, व्‍यवसाय, शिक्षा, संकेत, सम्‍पादकीय और साहित्‍य नाम के साथ इस सूची में छाप (मुहर, चिह्न, निशान), तखल्‍लुस, पदवी भी है।

पुस्‍तक में उपनामों की चर्चा शुरू होती है- बाल्‍मीकि, व्‍यास, चाणक्‍य और कालिदास के क्रम से। लेकिन मुझे याद आ रहे हैं पंडिज्‍जी, यानि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, जिन्‍होंने व्‍योमकेश शास्‍त्री, प्रचंड, रंजन, द्विरद, राधामाधव शाक पार्थिव, अभिनव तुकाराम नामों से लेखन किया और जिनकी रचनाएं चारुचन्‍द्र का लेखा- 'चारुचन्‍द्रलेख' है और है 'बाणभट्ट की आत्‍मकथा', इससे भी आगे 'अनामदास का पोथा', मानों उनका कुछ नहीं। और याद आते हैं छत्‍तीसगढि़या मुक्तिबोध, जो गजानन माधव के बिना ही अधिक जाने जाते हैं।

मुक्तिबोध कुछ अन्‍य यौगन्‍धरायण, अवन्‍तीलाल गुप्‍ता तथा विंध्‍येश्‍वरी प्रसाद, (छद्म) नामों से भी लिखते थे। मुक्तिबोध रचनावली प्रकाशित हुई, तब छान-बीन करता रहा। उनके कुछ ऐसे लेख जो मेरे पास थे, रचनावली में शामिल न पाकर बेचैनी हुई, पर बात वहीं रह गई। फिर अवसर बना, मुक्तिबोध जी के सुपुत्र दिवाकर जी से मैंने इसका जिक्र किया, उन्‍होंने तुरंत भाई सा‍हब रमेश जी को संदेश दिया और बताया कि मुक्तिबोध जी की ऐसी रचनाओं को प्रकाशित करने की तैयारी है। राजकमल प्रकाशन ने यह पुस्‍तक 2009 में छापी 'जब प्रश्‍नचिह्न बौखला उठे' शीर्षक से। पुस्‍तक की प्रस्‍तावना 'मेरी ओर से' में रमेश गजानन मुक्तिबोध जी ने उल्‍लेख किया है- ''बिलासपुर के राहुल सिंह ने अपने निजी संग्रह से 'सारथी' के कुछ-एक अंक उपलब्‍ध कराए जिनमें निबन्‍ध प्रकाशित थे। उनके सद्भाव के लिए मैं हृदय से आभारी हूं।'' मुझे इस प्रसंग में लेकिन, मुक्तिबोध की कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्‍य' वाली राहत हुई।

देखिए पुस्तक चर्चा में आत्‍मश्‍लाघा आने लगी और वह बात रह गई, जिसके लिए पोस्ट लिखने की सोचा। तो हुआ यूं कि पिछले माह एक छोटा सा पुस्तक मेला लगा। पुस्तकों से हमारा रिश्ता काफी समय से जरा नरम-गरम सा हो चला है। चाहे पुस्तक खरीदना हो या पढ़ना। व्यवस्थित रख सकने की चिंता होती है और समय पर किताब न मिले तो चिड़चिड़ाहट। नजर, वय का साथ निभा रही है, बारीक अक्षरों से मुक्ति मिल गई है और चश्मा कहीं भूला-छूटा रह जाता है, शायद चर्म चक्षु से अधिक मन की आंखें खोलने का दैवीय निर्देश है, कब तक रहें कागज की लेखी, अपरा के चक्‍कर में। पुराने पढ़े-पढ़ाए से जमा के ब्‍याज पर अब का काम चल ही जा रहा है, लेकिन सूदखोरी का धर्म निभाते हुए तगादे की तरह भटक लेते हैं, फिर आदत भी तो जाते-जाते जाती है। पुस्तक मेले में पहुंच गए एटीएम, कुछ फुटकर रकम और अपने इस आत्मविश्वास सहित जेब में हाथ डाले कि पुस्तकें लेनी तो हैं नहीं।

समाज को प्रतिबिंबित करती, ब्लाग पर पसरी, महरिन की गैरहाजिरी और सड़क पर छेड़खानी, ऐसे बिगड़ते रिश्‍ते जो बने ही नहीं थे, पंचायतीय और मुन्सीपाल्टीय-वार्ड स्‍तरीय आफतों से ले कर अन्ना, भ्रष्टाचार, देश का पैसा विदेशों में, टाटा-बाटा के शाब्दिक जूतम-पैजार में अलविदा टाइप 'घनघोर संकट' वाली पोस्‍टों के साथ ढेर साथी हैं जो यहां अपनी चिंता और दुख बांटते समाज की तस्‍वीर बदलने में निरंतर जुटे हैं जी-जान से। मनोहर श्याम जोशी के शब्‍दों के सहारे कहना चाहूं तो त्रासद होते हास्य और हास्यास्पद बन जाने वाले त्रास के बीच छोटे-छोटे सुख मुझसे टकराते रहते हैं इसलिए लगा कि पुस्‍तक मेला की किताब के बहाने 'महंगाई डायन' और 'हाय पेट्रोल' के दौर में एक अच्छी खबर क्‍यों न बांट ली जाय।

इस सजिल्द 562+14 पृष्ठ की किताब का मूल्य है, उन्नीस रुपये। मेला छूट (या फुटकर की समस्‍या) के कारण मुझसे लिए गए पन्द्रह रुपये और हां, बारीक हिसाब करूं तो मेले में प्रवेश के पांच रुपये। फिर तो ले ही आया अच्‍छे अच्‍छों पर बीस पड़ने वाली उन्‍नीस की यह किताब, चश्मा मिल गया है, पढ़ने के बाद यह पुस्तक भी अपनी जगह पा ही लेगी। कुल जमा बात इतनी, उपनाम की इस पुस्तक का दाम तो बस नाम का हुआ।
(समाचार पत्र 'आज की जनधारा', रायपुर के ब्‍लॉगकोना स्‍तंभ में 27 नवंबर 2011 को प्रकाशित)