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Friday, December 30, 2011

व्‍यक्तित्‍व रहस्‍य

बीसेक साल पहले मेरे इर्द-गिर्द जिन पुस्तकों की चर्चा होती, वे थीं- 
# Dr. Eric Berne की Transactional Analysis in Psychotherapy, Games People Play और What Do You Say After You Say Hello?
# Muriel James, Dorothy Jongeward की Born To Win 
# Thomas A Harris की I'm OK, You're OK और 
# AB Harris, TA Harris की Staying OK 
# Claude Steiner की Scripts People Live आदि। 
इनमें से कुछ सुनी, देखी, उल्टी-पल्टी, कुछ पढ़ी भी, इससे जो नई बात समझ में आई, तब लिख लिया, यह वही निजी नोट है, इसलिए इसमें प्रवाह और स्पष्टता का अभाव हो सकता है, लेकिन इस विषय से परिचितों के लिए सहज पठनीय होगा और अन्‍य को यह पढ़ कर, इस क्षेत्र में रुचि हो सकती है।

व्‍यक्तित्‍व के रहस्‍य को समझने और उसे सुलझाने का वैज्ञानिक तरीका, टीए-ट्रान्‍जैक्‍शनल एनालिसिस या संव्‍यवहार विश्‍लेषण, मानव के जन्म से उसकी विकासशील आयु को आधार बनाकर व्यवहार को पढ़ने का प्रयास करता है। व्‍यक्ति के आयुगत विकास वर्गीकरण में 1. उसका स्वाभाविक निश्छल बचपन, 2. अनन्य शैतानी भरा बचपन, फिर 3. पारिवारिक अनुशासन में अभिभावकों के निर्देशों का पालन करता हुआ बचपन होता है। इस क्रम में पुनः 4. तर्कशील, व्‍यावहारिक, समझदार वयस्क और फिर 5. अभिभावकों के अनुकरण से सीखा उन्हीं जैसा अनुभवजन्‍य व्यवहार तथा अंततः 6. दयाशील पालनकर्ता अभिभावक, देखी जाती हैं।

1. Natural Child (NC) - प्‍यारा, स्‍नेहमय, मनोवेगशील, इंद्रियलोलुप, सुखभोगी, अ-गोपन, जिज्ञासु, भीरु, आत्‍म-केन्द्रित, आत्‍म-आसक्‍त, असंयमी, आक्रामक, विद्रोही।
2. Little Professor (LP) - अन्‍तर्दृष्टि-सहजबुद्धिवान, मौलिक, रचनाशील, चतुर-चालाक।
3. Adapted Child (AC) - आज्ञापालक, प्रत्‍याहारी, विलंबकारी-टालू।
4. Adult (A) - यथार्थवादी, वस्‍तुनिष्‍ठ, तर्क-युक्ति-विवेकपूर्ण, हिसाबी, व्‍यवस्थित, संयत, स्‍वावलम्‍बी।
5. Prejudicial Parent (PP) - अनुभवी, नियंत्रक, संस्कार-आग्रही।
6. Nurturing Parent (NP) - हमदर्द, दयावान, संरक्षक, पालक-पोषक।

डॉ. एरिक बर्न द्वारा विकसित इस ढांचे के प्राथमिक संरचनात्‍मक विश्‍लेषण में व्‍यक्तित्‍व का 1, 2 व 3 Child (C)- शिशु // 4 Adult (A)- वयस्‍क // 5 व 6 Parent (P)- पालक होता है, जिनकी व्‍यवहार-शैली संक्षेप में शिशु- महसूसा-felt // वयस्‍क- सोचा-thought // पालक- सीखा-taught कही जाती है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण सहायक हो सकता है- शिशु का कथन होगा- ''मुझे भूख/नींद लगी है'', वयस्‍क का ''मेरे/हमारे खाने का/सोने का समय हो गया'', तो पालक कुछ इस तरह कहेगा- ''हमें खाना खा लेना/सो जाना चाहिए।'' चाहें तो कभी बैठे-ठाले स्‍वयं पर आजमाएं, घटाकर देखें।

उक्त सभी व्यवहार, जन्म से नहीं तो लगभग बोलना सीखने से लेकर जीवन्त-पर्यन्त, प्रत्येक आयु दशाओं में देखे जा सकते हैं, यानि बच्‍चे में वयस्‍क और पालक भाव तो बुढ़ापे के साथ बाल-भाव का व्‍यवहार सहज संभव हुआ करता है। इन्हीं भावों की कमी-अधिकता और संतुलन से मानव का व्यवहार, उसकी अस्मिता-स्‍व निर्धारित करता है। मानव व्‍यवहार का इनमें से कोई गुण अच्‍छा या बुरा नहीं, बल्कि इनका संतुलन अच्‍छा और असंतुलन बुरा होता है इसलिए व्यवहार के माध्‍यम से व्यक्तित्व की असंतुलित स्थिति की पहचान कर, उसका विश्लेषण टीए है, जो विश्लेषण के पश्चात्‌ संतुलन का दिग्दर्शन करने तक, पृष्ठभूमि व प्रक्रिया में विज्ञान सम्मत और सुलझा होने के साथ-साथ संवेदनशील और सकारात्मक भी है। जैसा कि इसमें स्‍पष्‍ट किया जाता है- ''समय होता है आक्रामक होने का, समय होता है निष्क्रिय होने का, साथ रहने का/अकेले रहने का, झगड़ने का/प्रेम करने का, काम का/खेलने का/आराम का, रोने का/हंसने का, मुकाबला करने का/पीछे हटने का, बोलने का/शांत रहने का, शीघ्रता का/रुकने का।''

फ्रायडवादी मनोविज्ञान का इड, इगो, सुपर इगो (अहम्, इदम्, परम अहम्) तथा डेल कार्नेगी, स्वेट मार्डेन से शिव खेड़ा तक, व्यवहार विज्ञानियों के बीच (यहां मनोविज्ञान की पाठ्‌य पुस्तकें हैं और मनोहर श्याम जोशी का उपन्‍यास कुरु कुरु स्वाहा भी) विकसित टीए इन दोनों में सामंजस्य स्थापित करते हुए इन्हें सैद्धांतिक स्पष्टता प्रदान कर, इसके व्यावहारिक, अनुप्रयुक्त और क्रियात्मक पक्ष के विकास से अपनी उपयोगिता के क्षेत्र में असीमित विस्तार पा लेता है। वह क्षेत्र जहां हम हैं, हमारा समाज है और जिसमें पागलखाने हैं, इसमें एक ओर से मनोचिकित्सकों की कड़ी जुड़ी तो दूसरी ओर समाजसुधारक जैसे वर्ग के लोग सक्रिय हुए, इन्हें अभिन्न करने के लिए, या इसे एक ही श्रृंखला की कड़ियां दिखाने के लिए मानव जाति को परामर्शदाता-Counselors की जरूरत थी, इस महती उत्तरदायित्व को पूरा करने हेतु व्यापक और गहन टीए की वैज्ञानिक अवधारणा का स्वरूप बना है।

ऐसा नहीं कि परामर्शदाता की जरूरत, बीच की कड़ी की आवश्यकता का आभास पहले नहीं था। व्‍यक्ति के संचित, क्रियमाण और प्रारब्‍ध के निरूपण का प्रयास सदैव किया जाता रहा है। आदिम समाज से आज तक, मनुष्य ने जादू-टोना, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, षोडशोपचार-कर्मकाण्‍ड, ज्योतिष-सामुद्रिक, मुखाकृति-हस्तलिपि और बॉडी लैंग्‍वेज जैसे कितने रास्ते खोजे, जो कमोबेश परामर्शदाता की आवश्यकता पूर्ति का माध्यम बने हैं। इन्‍हें प्रश्‍नातीत प्रभावी और लाभकारी मानें तो भी इनकी विधि या प्रक्रिया में तार्किक व्‍याख्‍यापूर्ण वैज्ञानिक स्‍पष्‍टता का अभाव ही रहा। इन उपयोगी किन्‍तु उलझे/अस्‍पष्‍ट तरीकों की व्याख्‍या बदल-बदल कर आवश्यकतानुसार कर ली जाती रही। ऐसा नहीं कि टीए में उलझाव नहीं है, पर वह उलझाव अज्ञान, अंधविश्वास या कमसमझी का नतीजा नहीं, बल्कि मानव प्रकृति और व्यवहार की जटिलता के कारण है, यानि मानव व्यवहार को दो-दूनी चार जैसा स्पष्ट न तो समझा जा सकता और न ही समझाया जा सकता, किन्तु इसे टीए की मदद से इतना स्पष्ट किया जा सकता है जो एक-दूसरे को लगभग एक जैसा समझ में आ सके।

यूं तो टीए की उपयोगिता और अनुप्रयोग का क्षेत्र अधिकतर कल-कारखाने, कार्यालय अथवा सार्वजनिक संस्थानों के प्रबंधन से जुड़ा है, क्योंकि मानव-संसाधनों को विकसित करने का तीव्र आग्रह यहीं होता है, किन्तु परामर्शदाता के रूप में टीए की आवश्यकता पूरे समाज और समाज की प्रत्येक इकाई को है, और टीए की पृष्ठभूमि में वह विस्तार और गहराई एक साथ महसूस की जा सकती है जो ऐसे धार्मिक ग्रंथों में, जिनमें मानव के जीवन-मूल्यों, नीति और सिद्धांतों को लगभग काल-निरपेक्ष स्थितियों में व्याख्‍यायित कर धर्म के व्यावहारिक पक्षों का प्रणयन होता है, फलस्वरूप टीए में वैज्ञानिक तटस्थता के साथ नैतिक और संवेदनशील मर्यादा का अतिक्रमण भी नहीं होता।

कहा जाता है कि जो टीए की थोड़ी-बहुत भाषा सीख लेते हैं वे कभी बच्‍चों को मिल गए नए खिलौने की तरह इसका खिलवाड़ करने लगते हैं तो कभी अपना ज्ञान बघारते हुए अपने आसपास के लोगों का विश्‍लेषण शुरू कर देते हैं और कई बार दूसरों से इसकी भाषा का उपयोग कर, परोक्षतः उनकी कमियों का अहसास कराते हुए नीचा दिखाने और प्रभावित करने का भी प्रयास करते हैं, जो उचित नहीं है (मंत्रों के नौसिखुआ के लिए निषेध की तरह?)। टीए की भाषा और जानकारी का सकारात्‍मक उपयोग स्‍वयं की जागरूकता और परिवर्तन तथा दूसरों की ऐसी ही मदद के लिए किया जा सकता है। सचेत प्रयास रहा कि इस नोट को पोस्‍ट बनाते हुए उक्‍त नैतिकता का पालन हो।

ऊपर, ''कुरु कुरु स्वाहा'' का जिक्र है, इसके नायक में इड, इगो, सुपर इगो या शिशु, वयस्‍क, पालक संयोग का मजेदार चित्रण है, जिन्‍होंने न पढ़ा हो उन्‍हें स्‍पष्‍ट करने के लिए और जो पढ़ चुके हों उन्‍हें स्‍मरण कराने के लिए यह अंश-
''मैं साहब, मैं ही नहीं हूं। इस काया में, जिसे मनोहर श्‍याम जोशी वल्‍द प्रेमवल्‍लभ जोशी मरहूम, मौजा गल्‍ली अल्‍मोड़ा, हाल मुकाम दिल्‍ली कहा जाता है, दो और जमूरे घुसे हुए है। एक हैं जोशी जी। ... इस थ्री-बेड डॉर्मेटरी में मेरे पहले साथी। दूसरे हैं, मनोहर।'' फिर यह भी कहा गया है- ''इसमें वर्णित सभी स्थितियां, सभी पात्र सर्वथा कपोल-कल्पित हैं। और सबसे अधिक कल्पित है वह पात्र जिसका जिक्र इसमें मनोहर श्‍याम जोशी संज्ञा और 'मैं' सर्वनाम से किया गया है।''

Friday, December 23, 2011

देवारी मंत्र

मंत्रः अवलोकन-विवरण

सरगुजा जिले के कुसमी अंचल में देवारी (ओझा, बइगा, गुनिया, सिरहा) यानि इलाज, झाड़-फूंक सिखाने के पारम्परिक केन्द्र हैं। इन केन्द्रों के प्रति आस्था और सम्मान किसी वेदपाठशाला जैसा ही होता है। ऐसा एक केन्द्र डीपाडीह ग्राम के उरांव टोली में संचालित था, जिससे जुड़े लोग बताते कि प्रशिक्षण लगभग छः माह में पूरा किया जा सकता है, किन्तु आमतौर पर एक वर्ष का समय लगता है। मंत्रों को अच्छी तरह समझ लेने, फिर ध्यान लगा कर सीखने में प्रशिक्षण का प्रारंभिक ज्ञान कम समय में भी कराया जा सकता है।

प्रशिक्षण पूरा होने पर नागपंचमी/अमावस्‍या को दीक्षान्त होता है और फिर गुरु की अनुमति पाकर ही मंत्रों का उपयोग किया जा सकता है। जर-बुखार ठीक करने के लिए किसी का बुलावा आने पर प्रशिक्षित व्यक्ति को अनिवार्यतः फूंकने जाना होता है, और इसलिए बुलावा देने के पहले पास-पड़ोस से पता कर लिया जाता है कि देवार को/उसके घर कोई अड़चन-समस्‍या तो नहीं है। दूसरी तरफ, पहल पीडि़त पक्ष की ओर से होना चाहिए, यानि बिना औपचारिक बुलावा के पहुंचकर मंत्रों का प्रयोग असरदार नहीं होता। गुरुओं की सहमति से उनके शिष्यों ने प्रशिक्षण और मंत्रों के बारे में बताया, उन्होंने सचेत किया कि बिना गुरु के इन मंत्रों का अभ्यास, गंभीर परेशानी में डाल सकता है (आगे पढ़ने वाले भी इस बात का ध्यान रखें)-

प्रशिक्षण का आरंभ धाम बांधने से होता है। इसके लिए बेंत की छड़ी, लोहड़गी यानि लोहे की छड़ी, आंकुस यानि अंकुश, त्रिशूल, शंख, कुल्हाड़ी, लोहे का हथियार- गुरुद, सिंगी आदि की जरुरत होती है। प्रशिक्षण के दौरान बगई का कोड़ा बनाया जाता है, जिससे गुरु प्रतिदिन चेले को एक-एक कोड़ा मारते हैं और धाम बांधने के मंत्रों से अभ्यास आरंभ कराते हैं।

धाम बांधनी का मंत्र-
पूरब के पूरब बांधौं, पच्छिम के पच्छिम बांधौं, उत्तर के उत्तर बांधौं, दक्खिन के दक्खिन बांधौं, पिरथी चलै पिरथी बांधौं, अकास चलै अकास बांधौं, पताल चलै पताल बांधौं, दाहिना चलै दाहिना बांधौं, बायां चलै बायां बांधौं, आगे चलै आगे बांधौं, पीछे चलै पीछे बांधौं, माये धीये डाइन चलै, डाइन बांधौं, बाप बेटा ओझा चलै, ओझा बांधौं, हमर बांधल गुरु क बचन, हमर बांधल, बारहों बरस, तेरहो जुग रहि जाय।

बांधनी के बाद गुरु मंत्र का अभ्यास किया जाता है-
गुरु मंत्र- गुरु गुरु बूढ़ा गुरु, जन्तर गुरु, माधो गुरु, दइगन गुरु, सीधा गुरु, अंधा गुरु, आइद गुरु, बइद गुरु, औलाद गुरु, मवलाद गुरु, केंवटा गुरु, महला गुरु, डोमा गुरु, बछरवा गुरु, चनरमा, सुरुज नराएन के लागे दुहाई।
गुरु क मान, गुरु क तान, गुरु क पांव, पंयरी, जहां बइठे, गुरु-गुरुआइन, तार-तरवाईर, छांई करे, गुरु देयाल, उदुरमा, पान-फूल, पगास, नया पाठ, करो मसान, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ, जतन के लगे दोहाई।

इसके पश्चात्‌ मुख्‍यतः दो प्रकार के मंत्रों का अभ्यास किया जाता है। मंत्रविद्ध करने के अर्थ में बांधनी के मंत्र और बुरी शक्तियों को दूर करने के लिए हांकनी के मंत्र। इन दोनों प्रकार के मंत्रों के उदाहरण निम्न हैं-

बांधनी मंत्र- घोट-घोट, बज्जर घोट, फुलकारी, लागे तारी, ससान लय, मसान गेलय, देखे गेलय, भैरव पाठ, नाइनी काठ, दूर भैल, लई इवों, बज्जर खेलों। भाज-भाज, भाजत पुर, दूत-भूत करो कपास, साइठ सरसों, सोरों धान, हथे गुन, मसान छई, देखे गेलें, भैरो पाठ, नाइनी काठ, दूर भयल।
बज्जर बज्जर, बज्जर बांधौं, रिंगी-चिंगी, सात क्यारी, चंडी चेला, सेकर पीछे लाप लीता, देखाल भूत, बंधाल हावै, कौन-कौन बैमान, चकरल, लिलोरी, ठिठौरी, मानुस देवा, बाल पुकरिया, पोको दरहा, करो मसान, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ जतन के लगे दोहाई।
छोट मोट भेरवा, जमीन जाय, जगहा जाय, असामुनी जाय, इन्द्रन बेटी, गोहारी जाय, इन्द्रन बेटी, मयर पूत, फोरो गाल, ढउरा ढेड़ी, उड़ि जाबे डैना तोड़ों, रिंग जाबे गोड़ तोड़ों, उलट देखबे आइंख फोरों, पलट देखबे कपार फोरों, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ जतन के लगे दोहाई। पुरुब के पुरुबइया, पच्छिम के सोंखा, नौ सौ कोरवा, दस सौ बिरहर के लागे हांक।

हांकनी मंत्र- कलकत्ता के काली मांई, लोहरदग्गा के लोहरा-लोहराइन, बदला के मुड़ा-मुड़ाइन, कसमार के घींरू टांगर, पांच पूत, पांचो पंडा के लागे दोहाई।
ठुनुक-ठुनुक करे बीर, हथ कटारी हाथे काटी, टूटे एरंडी, बादी भूत के टूटे हाड़, जै मुठ मारौं तोर गुरु लवा-तीतर, मोर गुरु छेरछा बादी, उड़ि जाबे डैना तोड़ों, बइठ जाबे डांडा तोड़ों, रिंग जाबे गोड़ तोड़ों, केकर बले, गुरु क बले, गुरु के साधल, तीन सौ साइठ जतन के लगे दोहाई।
ओटोम दरहा, पोटोम दरहा, ठूठा दरहा, लंगडा दरहा, अंधा दरहा, खोरा दरहा, रूप दरहा के लागे परनाम।
उसुम तुसुम, भास मुद्‌दुम, तोन झोन तोर नोन, गरहाई लागल ठाढ़, चैंतिस बांधे के बन्धे, गुरु बन्धे, गुरु क बचन हम बांधे, बारहों चेला, हमर बांधल, बारों बीस, तेरों जुग रहि जाय, कभी हमर बचन न छूटे, भगत गुरु के लागे दोहाई।

गुन काटौं, काटौं गुन के रेखा, चढ़ल खाटी, उतरल जाय, पानी पथ बिलास करै, धर लाएं, लुटु-पुटु, धर लाएं, अपन कान, छड़न बादी, उड़लही बान, सायगुन बान, खैरा अपन गुन बान, राइख के का करै, तार काटे, तरगुन काटे, राम काटे, लखन काटे, धरम काटे, धरमात काटे, बानी चक्कर बान काटे।
झम-झम झमलई, सात समुंदर, सोरो धार, हाड़ खाए, मांस गलाए, नहीं माने, पाप-दोख, भूत-बैताल, धारा झौंटा, पीठ में लाठी, डंडे रस्सी, गल्ला फांसी, गोड़ में बेड़ी, हाथ में जंजीर, मुंह में तब्बा लगाइके, मनाइ के, समझाइ के, बुझाइ के, सुझाइ के, ए भूत के लइ बाहर कर, संकर गुरु के लागे परनाम।

परा-परा ठुठी पीपर, आवथीक, जाथीक, जम जाल, हिरा जाल, रेंगा जाल, केंवटा बीरा, जाले मारी, ले चली, ओकासी, ढेंकासी, आलो सुनी, पालो सुनी, डगर भुला, कंपनी, जंपनी, दे तो हरदी गुन्डा, धोआ चाउर, हमर चिन्ता, आवथीक, जाथीक, ठाढ़ कर देथव, सिद्ध गुरु के लागे परनाम।
जाय फार दादी बाजे, जाग डुमुर बाजथीक, लीली घुरी कारी नाचै, आप को बंडा ठेठेर, बिरजा धर लोचनी सम्पताल गेलाएं, डाकिन डुबाइतो, भंवरा बतास, नगफिन्नी, मछिन्दर गुरु के लागे परनाम।
उल्टा सरसों, पंदरों राई, मारौं सरसों टूटे बान, काली देबी कलकल करे, रकत मांस भोजन करे, नहीं माने पाप-दोख धारा झौंटा, पीठे लाठी, डंडे रस्सी, गल्ला फांसी, गोड़ में बेड़ी हाथ में धारा जंजीर लगाई के ए भूत बाहर कर।
छोट काली, बड़ काली हांक जाय, डांक जाय, कंवरू जाय, पटना जाय, असाम जाय, नहीं माने पाप-दोख, मनइ के, बुझइ के, लइ बाहर कर। पेराउ के झलक डाइर, मलक डाइर, सेन्धो रानी, बेन्धो रानी, दिया रानी, भुकु रानी, कजर रानी, चरक रानी, डिंडा रानी लागे परनाम।

इसी प्रकार के ढेरों मंत्रों के साथ सुमरनी गीत भी होते हैं। वाचिक परम्परा के मंत्र ज्यादातर साफ उचारे नहीं जाते, मन में दुहराए जाते हैं या बुदबुदाए जाते हैं, इन्हें शब्दशः लिखने के प्रयास में उच्चारण फर्क के कारण अशुद्धि स्वाभाविक है, इसलिए सब देव-गुरुओं से माफी-बिनती, दोहाई-परनाम।

देवारी बिद्‌या के गुरु जिरकू बबा, नगमतिया गुरु घन्नू बबा और बइदकी बिद्‌या वाले बइजनाथ बबा, इन तीनों का संरक्षण हम सबको 1988 से 1990 के दौरान सरगुजा प्रवास में मिलता रहा। डीपाडीह के ही लाली सेठ, कासी-दुधनाथ साव, रामबिरिछ, प्रेमसाय, करमी के सुखन पटेल, जसवंतपुर के जगत मुन्नी भगत मुन्नी (यानि स्वयं को भक्त और मुनि कहने वाले जगतराम कंवर) और इसी गांव के निवासी सांसद, प्रखर नेता लरंग साय जी, अंबिकापुर के टीएस बाबा जी,... सब के सब न सिर्फ हमारे काम में दिलचस्पी लेते, बल्कि संबल होते। उरांव टोली और बस्ती तो पूरी लगभग साथ ही होती दिन भर। पुराने टीलों में सांपों का डेरा होता, दिन में हाथियों का, शाम ढलने पर भालुओं का आतंक अक्सर बना रहता और इस देवस्थान के चारों ओर भटकती दृश्य-अदृश्य शक्तियां (जैसा लोग बताते) हमें सदा घेरे रहतीं, लेकिन हम इस पर्यावरण से लाभान्वित, स्वस्थ्य और बेहतर (निसंदेह सुरक्षित) वापस लौटते।

टीलों को खोदते हुए पुराने मंदिर अनावृत्त हुए, मूर्तियां जैसी हजार-हजार साल पहले तब रही होंगी हमें वैसी की वैसी भी मिलीं। मुझे हमेशा लगता है कि उन मंदिर-मूर्तियों की तरह ही ऊपर लिए नाम और कई चेहरे जो अब गड्‌ड-मड्‌ड हैं, आज भी वैसे ही होंगे, काल-निरपेक्ष। ज्यादातर चेहरे अब साफ याद नहीं, इसलिए जानता हूं कि मेरे विश्वास की रक्षा हो जाएगी और सारे लोग मुझे जस के तस मिलेंगे, हमलोगों के लिए अपना अकारण स्नेह-संरक्षण यथावत्‌ परोसते।

मंत्रः विश्‍लेषण-व्‍याख्‍या

तथ्य, आंकड़े और सूचना जुटाना, वैज्ञानिक अध्ययन प्रक्रिया की आरंभिक आवश्यकता होती है, जिन्हें छांट कर, वर्गीकृत कर, क्रमवार जमाने के प्रयास में निष्कर्ष स्वतः उभरने लगते हैं। गणित जैसे प्राकृतिक विज्ञानों में भी निष्कर्षों में संशोधन-परिवर्धन संभव होता है, अपवाद भी निष्कर्ष-नियम का हिस्सा बन जाता है बल्कि यह तक कहा जाता है कि अपवाद ही नियमों को पुष्ट करते हैं। सामाजिक विज्ञानों में प्राथमिक निष्कर्षों के साथ अन्य कारक/दृष्टिकोण से और कभी समय के साथ, नई जानकारियों से यानि निवेश, और प्रक्रिया में फर्क आने से निर्गत परिमार्जित होता रहता है और कई बार फैसले उलट भी जाते हैं।

यह जानकारी इसी दृष्टि से संकलित और यहां प्रस्तुत है। प्राथमिक निष्कर्ष बस इतना कि वैदिक ऋचाओं जैसे ही प्रतिष्ठित इन मंत्रों में प्रकृति, परिवेश, आस्था के आलंबन और केन्द्र व्यापक रूप में शामिल हैं। स्वाभाविक ही ऐसा प्रयोग मात्र अनुकरण कर किया जाना, जोखिम का हो सकता है। इनके पाठ-अभ्यास-प्रयोग में शायद इसीलिए वैदिक मंत्रों की तरह निषेध भी हैं। यह उस परिवेश की जीवन पद्धति का अनिवार्य हिस्सा माना जा सकता है और अपने अंचल की परम्पराओं को जानने और उनमें संस्कारित होने के लिए उक्त मंत्रों के साथ प्रशिक्षित-दीक्षित होना उपयोगी जान पड़ता है।

पिछड़े कहे जाने वाले क्षेत्र से जादू-टोना, तंत्र-मंत्र से जुड़ी आकस्मिक घटनाओं की खबरें मिलती हैं, लेकिन कथित उन्‍नत-सभ्‍य समाज में व्याप्त कर्मकाण्ड और दुर्घटनाओं की तुलना में, गंभीरता और संख्‍या दोनों दृष्टि से यह नगण्य है। समाज को गायत्री मंत्र, हनुमान चालीसा, सुंदरकांड का पाठ, सत्‍यनारायण की कथा और महामृत्‍युंजय जाप से जैसा संबल मिलता है, दूरस्थ और अंदरूनी हिस्सों में संभवतः इन आदिम मंत्रों का वैसा ही प्रयोग दैनंदिन समस्याओं की उपचार विधि (काउंसिलिंग-हीलिंग सिस्टम) के रूप में होता है, जिसमें सार्वजनिक स्तर पर अव्याख्‍यायित तौर-तरीकों के अनुभव-सिद्ध परामर्श और जड़ी-बूटी, औषधियां भी हैं। स्वाभाविक है कि दीर्घ संचित इस ज्ञान को बिना समझे अंधविश्वास मान कर, संदिग्ध/खारिज करना स्वयं एक तरह का अंधविश्वास होगा। इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल और केरल इंस्टीट्‌यूट फार रिसर्च, ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट आफ शेड्‌यूल्ड कास्ट्‌स एंड शेड्‌यूल्ड ट्राइब्स, कोझीकोड़ (कालीकट) जैसी संस्थाएं, इसे उपयुक्त सम्मान दिया जाना आवश्यक मान कर, इस दिशा में सक्रिय हैं।

पांच-एक साल पहले कहीं सुना- ''नम म्‍योहो रेन्‍गे क्‍यो''। साल भर से यह रायपुर में भी सुनाई पड़ने लगा है। इस बीच सुपर माडल मिरांडा केर, निचिरेन बौद्ध धर्म अपना कर खबर बनीं। पता चला कि यह बौद्ध धर्म के जापानी गुरु निचिरेन दैशोनिन द्वारा प्रवर्तित स्‍वरूप वाली प्रार्थना है और अब सोका गक्‍कई या सोका गाकी संगठन के माध्‍यम से क्रियाशील है। यह मंत्र मूल भारतीय बौद्ध धर्म के सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र (अंग्रेजी में प्रचलित लोटस सूत्र) से आया कहा जाता है। संभवतः मूल प्राकृत भाषा (मागधी-पाली प्रभावयुक्‍त) के संस्‍कृत रूप को चीनी में अनुवाद किया गया, जो बरास्‍ते जापान वापस यहां आया है। इतनी भाषाओं, लिपियों, लोगों और समय से गुजरने के बाद भी यह मंत्र असर दिखा रहा है, जबकि इसके ठीक उच्‍चारण के लिए भी पर्याप्‍त अभ्‍यास जरूरी है और मंत्र का अर्थ पूछने पर तो मंत्र-साधकों की परीक्षा ही हो जाती है।

मैं सोच में पड़ा कि असरदार-प्रभावी क्‍या होता है? शब्‍द, शब्‍दों के अर्थ और उनसे बनने वाले भाव? उनका उच्‍चारण, उच्‍चारण से उत्‍पन्‍न होने वाली ध्‍वनि? मंत्र-द्रष्‍टा और साधक की परस्‍परता, समूह/समष्टि-बोध या और कुछ?... असर होता भी है या नहीं? यदि नहीं तो ऐसे मंत्र कायम क्‍यों हैं? क्‍या प्रभावी, मंत्र नहीं हमारी आस्‍था है? 'अनमिल आखर अरथ न जापू...', शायद अपरा से परा हो जाने की प्‍लुति में छुपा है यह रहस्‍य? ऐसे प्रश्‍नों का उत्‍तर बारम्‍बार तलाशा गया होगा, लेकिन यह ऐसी राह है जिसकी तलाश ''मंत्रः व्‍याख्‍या/निष्‍कर्ष'' स्‍वयं के जिम्‍मे ही संभव हो सकती है।

उदय प्रकाश की पंक्तियां याद आती हैं-
इतिहास जिस तरह विलीन हो जाता है किसी समुदाय की मिथक-गाथा में
विज्ञान किसी ओझा के टोने में
तमाम औषधियाँ आदमी के असंख्य रोगों से हार कर अंत में
जैसे लौट जाती हैं किसी आदिम-स्पर्श या मंत्र में।

संबंधित पोस्‍ट - डीपाडीह और टांगीनाथ

Friday, December 16, 2011

टांगीनाथ

''मोर मन बसि गइल
चल चली सरगुजा के राजि हो''

उड़ान भरने वाले बताते हैं कि सरगुजा का हिस्सा, मध्य भारत का सुंदरतम हवाई दृश्य है और आरंभिक परिचय में ही कहावत सुनने मिल जाती है- ''मत मरो मत माहुर खाओ, चले चलो सरगुजा जाओ'' यानि हालात मरने जैसे बदतर हैं, जहर खाने की नौबत आ गई है, तो सरगुजा चले जाओ। आशय यह कि जहर खाने और मरने की बात क्यों, सरगुजा जा कर जीवन मिल जाएगा, लेकिन इसकी अन्य व्याख्‍या है कि मरना हो तो जहर खाने की जरूरत नहीं, सरगुजा चले जाओ काम तमाम हो जाएगा, ''जहर खाय न माहुर खाय, मरे के होय तो सरगुजा जाये।''

खिड़की के शीशे से पार आसमान और क्षितिज देखते, टेलीविजन से होते हुए मोबाइल फोन की स्क्रीन पर सिमटती दुनिया को मुट्ठी में कर लेने का दौर है, तब इस जमीनी हकीकत का अनुमान मुश्किल हो सकता है कि अंबिकापुर से राजपुर-रामानुजगंज की ओर बढ़ते ही जैसे नजारे होते हैं उनके लिए आंखों के 180 अंश का फैलाव भी कम पड़े, अकल्पनीय दृश्य विस्तार, व्यापक अबाधित क्षितिज रेखा से दृष्टि-सीमा का अनूठा रोमांच होने लगता है। मौसम खरीफ का हो तो जटगी और उसके बाद राई-सरसों के पीले फूल के साथ अमारी-लकरा भाजी के पौधों की लाली से बनी रंगत शब्दों-चित्रों से बयां नहीं हो सकती और फिर बीच-बीच में पवित्र शाल-कुंज, सरना की घनी हरियाली...
प्राकृतिक-भौगोलिक दृष्टि से सरगुजा, मोटे तौर पर पूर्व रियासतों कोरिया-बैकुण्ठपुर, चांगभखार-भरतपुर, सरगुजा-अम्बिकापुर और जशपुर या वर्तमान संभाग सरगुजा का क्षेत्र है। यह अंचल पठारी भौगोलिक विशिष्टता पाटों- मुख्‍यतः सामरीपाट, जोंकापाट, जमीरापाट, लहसुनपाट, मैनपाट, पंडरापाट, जरंगपाट, और कुछ अन्‍य तेंदूपाट, छुरीपाट, बलादरपाट, अखरापाट, सोनपाट, लंगड़ापाट, गरदनपाट, महनईपाट, सुलेसापाट, मरगीपाट, बनगांवपाट, बैगुनपाट, लाटापाट, हरीपाट से भी जाना जाता है। ढोढ़ी जलस्रोत और खासकर कोरिया जिले में धरातल तक छलकता भूमिगत प्रचुर जल है तो तातापानी जैसा गरम पानी का स्रोत और सामरी पाट का उल्टा पानी जैसा दृष्टि भ्रम है। कोयला और बाक्साइट जैसे खनिज और वन्य जीवन-वन्य उत्पादों से भी यह भूभाग जाना गया है।

जनजातीय समाज, जिसमें सभ्यता के विकासक्रम की आखेटजीवी, खाद्य-संग्राहक, कृषक, गो-पालक से लेकर सभ्य होते समूहों में प्रभुत्व के लिए टकराव की स्मृति और झलक एक साथ यहां स्पष्ट है। रियासती दौर, 'टाना बाबा टाना, टाना, टोन, टाना' वाले ताना भगत, इसाई मिशनरी, कबीरपंथी, तिब्बती, गहिरा गुरू, राजमोहिनी देवी और एमसीसी जैसी धाराओं के समानान्तर सरगुजा में हाथियों की आमद-रफ्त व प्रकृति के असमंजस को माइक पांडे ने 'द लास्‍ट माइग्रेशन' ग्रीन आस्‍कर पुरस्‍कृत फिल्‍म में, मिशनरी गतिविधियों को तेजिन्‍दर ने 'काला पादरी' उपन्‍यास में, अकाल और जीवन विसंगतियों को पी साईंनाथ ने 'एव्रीबडी लव्‍स अ गुड ड्राउट' रपटों के संग्रह पुस्‍तक में तो याज्ञवल्‍क्‍य जी ने एक रपट में यहां और समग्र रूप में समर बहादुर सिंह जी, डा. कुंतल गोयल, डा. बजरंग बहादुर सिंह ने लेख/पुस्‍तकों में दर्ज किया है।

इस अंचल की सांस्कृतिक अस्मिता, समष्टि में सोच और घटनाओं को स्मृति में संजोए, झीने आवरण की पहली तह के नीचे अब भी वैसी की वैसी महसूस की जा सकती है, मानों उसमें हजारों साल घनीभूत हों। बस जरूरत होती है खुले गहरे कानों की, फिर आसानी से आस-पास के कथा-स्रोत सक्रिय हो कर उन्मुख हो जाते हैं, सहज बह कर उसी ओर आने लगते हैं।

उत्तर दिशा में बहता बर्फ से ठंडे पानी वाला पुल्लिंग नद कन्हर, बायें पाट से आ कर मिलती गुनगुनी-सी सूर्या (सुरिया) और कुछ आगे चल कर गम्हारडीह में बायें ही डोंड़की नाला और दायें पाट पर गलफुला (माना जाता है कि इस नदी का पानी लगातार पीते रहने वालों का 'घेंघा' रोग से गला फूल जाता है) का संगम। इनके बीच कन्हर के दायें तट पर शंकरगढ़-कुसमी के बीच बसा डीपाडीह।

सन 1988 में यहीं, ठंड में अलाव पर जुटे, जसवंतपुर निवासी कोरवा समाज के मंत्री श्री जगदीशराम, तथा श्री थौलाराम, कोषाध्यक्ष, दिहारी द्वारा देर रात तक सुनाई गई कहानी, जिसमें बताया गया कि कोल्हिन सोती में बारह रुप वाला देवी का पुत्र पछिमहा देव, बैल का रूप धरकर, जशपुर की उरांव लड़की को छिपा दिया फिर लखनपुर जाकर 700 तालाब खुदवाया फिर ब्राह्मणी पुत्र टांगीनाथ ने उसका पीछा किया तो वह भागकर सक्ती होकर कुदरगढ़ पहुंचा, वहां बूढ़ी माई ने उसकी रक्षा की। पछिमहा देव ने दियागढ़, अर्जुनगढ़, रामगढ़ आदि देव स्थानों को सांवत राजा सहित आना-जाना किया, लेकिन कन्हर से पूर्व न जाने की कसम के कारण रुक गया।

पछिमहा देव और टांगीनाथ की कथा कुसमी क्षेत्र, छत्तीसगढ़ सहित महुआडांड-नेतरहाट क्षेत्र, झारखंड में तीन-चार प्रकार से सुनाई जाती है, जिनमें पछिमहा देव को टांगीनाथ का पीछा करते हुए जशपुर या सक्ती की सीमा तक पहुंचने का जिक्र आता है। पछिमहा देव को इसी क्षेत्र में विवाहित या यहां की स्त्री से संबंधित किया जाता है। पछिमहा देव और टांगीनाथ की पहले मित्रता बाद में अनबन बताई जाती है। पछिमहा देव को सांवत राजा द्वारा सहयोग देना और फलस्वरूप टांगीनाथ द्वारा सांवत राजा को नष्ट करना तब पछिमहा देव का विभिन्न देवी-देवताओं की शरण में जाकर सहयोग की याचना और अंततः नदी के किनारे लखनपुर में पछिमहा देव का प्रवास तथा नदी (रेन?) पार न करने की कसम दिये जाने से कथा समाप्त होती है।

सांवत राजा या सम्मत राजा छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्व सरगुजा अंचल में स्थित ग्राम डीपाडीह के प्राचीन स्मारक-स्थल का नाम है। यह पारम्‍परिक पवित्र शाल वृक्ष-कुंज, सामत-सरना कहा जाता है। सांवत राजा के रूप में परशुधर शिव की प्रतिमा दिखाई जाती है, प्रतिमा में वस्तुतः शिव, परशु पर दाहिना पैर रखकर खड़े प्रदर्शित थे, किन्तु वर्तमान में दाहिने पैर का निचला भाग टूटा होने से माना जाता है कि टांगीनाथ ने इस सांवत राजा के पैर काट दिए हैं और टांगी यहीं छूट गई है।

परशु-टांगी धारण की सामान्‍य मुद्रा, उसे कंधे पर वहन कि‍या जाना है, आज भी सरगुजा और बस्‍तर के अन्‍दरूनी हिस्‍सों में प्रचलन है। लेकिन यहां परशु आयुध, विजयी मुद्रा शिव की इस भंगिमा में 'फुट-रेस्‍ट' है (हिंस्र शक्तियों पर विजय का प्रतीक?) सामत राजा के सेनापति- सतमहला का मोती बरहियां कंवर और झगराखांड़ बरगाह ने टांगीनाथ से बदला लेने का प्रयास किया। (सतमहला के पुजारी रवतिया जाति के हैं) रेन पार न करने की कसम, किसी संधि-प्रस्ताव का परिणाम है?

टांगीनाथ (परशुराम या शिव का कोई रूप, किसी स्थानीय प्राचीन शासक या जनजाति समूह के नायक की स्मृति?) नामक ईंटों के प्राचीन शैव मंदिर युक्त पहाड़ी पर स्थित स्थल, ग्राम-मंझगांव, थाना-डुमरी, तहसील-चैनपुर, जिला-गुमला, झारखण्ड में हैं। यहां के श्री विश्वनाथ बैगा ने भी इसी तरह की कहानी बताई। इस कहानी में त्रिपुरी कलचुरियों के किसी आक्रमण की स्मृति है? त्रिपुरी (जबलपुर) जो डीपाडीह से सीधी रेखा में पश्चिम में है (पछिमहा देव) या परवर्ती काल के सामन्त शासकों, अंगरेजों, जनजातीय कबीलों या सामंत और कोरवाओं से संघर्ष की स्मृति है? ऐतिहासिक विवरणों के आधार पर कथा-क्षेत्र के पूर्व-पश्चिम, पलामू-छोटा नागपुर और बघेलखंड की 18-19 वीं सदी की घटनाओं का स्‍मृति-प्रभाव भी संभव जान पड़ता है।

धनुष-बाण, कोरवाओं की जाति-उत्पत्ति कथा के साथ उनसे सम्बद्ध है। अंगरेज दस्तावेजों से पता चलता है कि टंगियाधारी कोरवा और कोरकू जनजाति का अहीर गो-पालकों के साथ तनाव बना रहता। ताना भगत आंदोलन में कुसमी क्षेत्र के जन-नायक भाइयों लांगुल-बिंगुल के लिए भी बस्तर के आदिवासियों की तरह प्रसिद्ध है कि वे बंदूक पर मंत्र मारते देते थे, जिससे नली से गोली की जगह पानी निकलता था (क्या यह पानी लाल होता, यानि लहू के धार के लिए कहा जाता होगा?) इंडियन इंस्टीट्‌यूट आफ एडवांस स्टडी, शिमला में टांगीनाथ पर हुई केस स्टडी पुस्तकाकार प्रकाशित है।

इसी बातचीत में प्रसंग आ जाने पर, मैं अकेला श्रोता रह गया हूं, टांगीनाथ के साथ सामत राजा से मिलते-जुलते नाम समती और सामथ याद आ रहे हैं, जनजातीय वर्गों के एक्का, दुग्गा, तिग्गा और बारा उपनामों में अटक-भटक रहा हूं। किस्सा सुन रहे लोग बिना अटके-ठिठके इस अंचल के देवी-देवताओं का नाम कथावाचक के साथ उचारने लगते हैं-

डीपाडीह में सामत राजा रानी, काटेसर पाठ, चैनपुर में अंधारी जोड़ा नगेरा, हर्री में गरदन पाठ, चलगली में महामईया, सरमा में सागर, अयारी में धनुक पाठ, रानी छोड़ी, खुड़िया रानी में मावली माता, कुसमी में जोन्जो दरहा, सिरकोट में भलुवारी चण्डी, बरवये, मझगांव में टांगीनाथ, जशपुर में गाजीसिंग करिया, मरगा में भैंसासुर, कलकत्ता में काली माई, कुदरगढ़ में सारासोरो, सनमुठ में दरहा दरहाईन, गम्हारडीह में घिरिया पाठ, साधु सन्यासी, जोरी में जारंग पाठ और ''गांवन-गांवन करे पयान, चहुं दिस करे रे सथान, भले हो घमसान'' वाले दाऊ घमसान या घमसेन देव। जबकि पहाड़ी कोरवाओं के देवकुल में खुड़िया रानी, सतबहिनी, चरदेवा-धन चुराने वाला देव, खुंटदेव, परम डाकिनी, दानोमारी, दाहा डाकिन, दरहा-दुष्ट शक्तियों से बचाव करने वाला, हरसंघारिन, धनदनियां, अन्नदनियां, महदनिया, सुइआ बइमत, धरती माई, रक्सेल, डीहवा, सोखा चांदी गौरेया, बालकुंवर आदि नाम गिनाए जाते हैं।

अलग-थलग अपने को बेगाना महसूस करता मैं, मन ही मन तैंतीस कोटि का सुमिरन करते, सबके साथ शामिल रहने की योजना बना लेता हूं, सूची पूरी होते ही जोड़ता हूं..., अब इसमें हम सब का स्वर समवेत है, ''... की जै हो।''

संबंधित पोस्‍ट - डीपाडीह और देवारी मंत्र

सरगुजा में रुचि हो तो वी. बाल, ए. कनिंघम, जे. फारसिथ, एमएम दादीमास्‍टर की रिपोर्ट्स और देवकुमार मिश्र की पुस्‍तक 'सोन के पानी का रंग' देखना उपयोगी होगा।

Sunday, December 11, 2011

योग-सम्मोहन एकत्व

सम्मोहन- शक्तिशाली, मोहक और भेदक संकेत है। सम्मोहन- दृढ़ता, अधिकार और विश्वास से की गई प्रार्थना है। सम्मोहन- आश्चर्यजनक, जादुई क्षमता वाला मंत्र है और सम्मोहन- दृढ़ संकल्प और आज्ञा के साथ दिया हुआ आशीर्वाद है। बिलासपुर निवासी ओ.के. श्रीधरन की पिछले दिनों प्रकाशित पुस्तक- ''योग और सम्मोहन'', एकत्व की राह'' का उपरोक्त उद्धरण अनायास सम्मोहन के प्रति सात्विक आकर्षण पैदा करता है और वह भी विशेषकर इसलिए कि इसमें सम्मोहन के साथ योग के एकत्व की राह निरूपित है।

भारतीय धर्मशास्त्र के तंत्र, मंत्र, वामाचार जैसे शब्दों में सम्मोहन भी एक ऐसा शब्द है, जिसके प्रति सामान्यतः भय, आतंक और संदेह अधिक किन्तु आस्था और अध्यात्म की प्रतिक्रिया कम होती है और सम्मोहन को गफलत पैदा करने वाला जादू, वह भी काला जादू मान लिया जाता है। इस परिवेश और संदर्भ में पुस्तक का विशेष महत्व है।

अंगरेजी में लिखी मूल पुस्तक का यह हिन्दी अनुवाद सुप्रिया भारतीयन ने किया है, जिसे भारतीय विद्याओं की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित संस्था 'भारतीय विद्या भवन' ने सु. रामकृष्णन् के प्रधान संपादकत्व में भवन्स बुक युनिवर्सिटी के अंतर्गत प्रकाशित किया है। पुस्तक के मुख्यतः दो खंड हैं- पहला, 'योग' सर्वांगीण विकास के लिए और दूसरा, योग और सम्मोहन, दोनों खंडों की विषय-वस्तु, खंडों के शीर्षक से स्पष्ट है। पुस्तक के तीसरे खंड, 'दर्पण' के अंतर्गत परिशिष्ट दो हिस्सों में संक्षिप्त गद्य और कविताएं हैं, जो निःसंदेह गहन चिंतन के दौरान लब्ध भावदशा के विचार-स्फुलिंग हैं।

प्रथम खंड में योग-दर्शन और उद्देश्य की सारगर्भित प्रस्तुति के साथ सभी प्रमुख आसनों, बन्ध, प्राणायाम और ध्यान का सचित्र निरूपण किया गया है। इस स्वरूप के कारण यह खंड योग में सामान्य रुचि और जिज्ञासा रखने वालों के साथ-साथ, वैचारिक पृष्ठभूमि को समझ कर आसनों का अभ्यास करने वालों और योग के गंभीर साधकों के लिए एक समान रुचिकर और उपयोगी है।

द्वितीय खंड के आरंभ में ही लेखक ने योग और सम्मोहन को स्पष्ट किया है- ''गहन एकाग्रता की चरम स्थिति अर्थात् 'ध्यान' और सम्मोहन दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं क्योंकि दोनों में ही एकाग्रता की गहन स्थिति प्राप्त कर वाह्य जगत से ध्यान हटाकर चेतना की एक विशेष परिवर्तित स्थिति प्राप्त की जाती है।'' संस्मरणात्मक शैली में लेखक ने अपने बचपन, अपनी साधना, अनुभव और अविश्वसनीय लगने वाली घटनाओं का विवरण दिया है। कुन्ञकुट्टी का फिर से जीवित हो जाना, पोन्नम्मा की मूर्छा, भारती कुट्टी का सदमा और सम्मोहन के रोचक प्रयोगों जैसी स्थानीय और केरल में घटित घटनाओं में पात्र, स्थान आदि की स्पष्ट जानकारी होने से विश्वसनीयता में संदेह की संभावना नहीं रह जाती, किन्तु घटनाओं की वस्तुस्थिति और विवरण लेखक स्वयं के दृष्टिकोण से हैं। इस दृष्टि से अविश्वसनीय चमत्कारों का एक पक्ष यदि मानवता के लिए किसी विद्या या विधा-विशेष का कल्याणकारी पक्ष है तो इसके दूसरे नाजुक पक्ष, अंधविश्वास से पैदा होने वाले खतरों और सामाजिक बुराइयों को नजर-अन्दाज नहीं किया जा सकता।

'दर्पण' खंड के कुछ महत्वपूर्ण उद्धरणों का उल्लेख यहां समीचीन होगा। माया और भ्रम का अंतर स्पष्ट करते हुए कहा गया है- 'सत्य का अस्तित्व केवल हमारी कल्पना और विचारों में है क्योंकि यह तथ्यों के अनुरूप होने की एक विशेषता मात्र है।' 'मानवीय बनो' शीर्षक के अंतर्गत समग्रता और एकत्व के लिए 'मानव को एकाग्रता की उस चरम स्थिति को प्राप्त करना पड़ता है-जहां वह प्रकृति से एकाकार करता है।' कथन प्रभावशाली है।

इसी खंड के परिशिष्ट - 2 की सात कविताएं, काव्य गुणों से पूर्ण और गहन होते हुए भी सहज निःसृत लगती हैं, अनुमान होता है कि ये रचनाएं श्रीधरन की प्रौढ़ साधना के दौरान उपलब्ध अनुभूतियां हैं, जहां उनका साधक मन, सृजनशील कवि मन से स्वाभाविक एकत्व में अक्सर ही कविता की लय पा लेता है।

अनूदित होने के बावजूद भी, पूरी पुस्तक में विषय अथवा भाषा प्रवाह में व्यवधान नहीं खटकता, जो अनुवादिका के दोनों भाषाओं पर अधिकार और विवेच्य क्षेत्र में उसकी पकड़ का परिचायक है, लेखक की पुत्री होने के नाते लेखक-मन को समझना भी उनके लिए आसान हुआ होगा। पुस्तक की छपाई सुरुचिपूर्ण और विषय तथा प्रकाशक की प्रतिष्ठा के अनुकूल है। मेरी जानकारी में भारतीय विद्या भवन से प्रकाशित बिलासपुर निवासी किसी व्यक्ति की यह प्रथम पुस्तक है। आशा है हिन्दी पाठक जगत इस कृति का स्वागत करेगा और लाभान्वित होगा।

सन 2002 में प्रकाशित इस पुस्‍तक पर मेरी संभवतः अप्रकाशित टिप्‍पणी, संकलित कर रखने की दृष्टि से यहां लगाई गई है, इसलिए टिप्‍पणियां अपेक्षित नहीं हैं।

Thursday, December 1, 2011

स्‍वाधीनता

बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल
जन्‍म 1891     निधन 1956

सन 1919 में प्रकाशित पुस्‍तक का अंश

हालैंड की स्वाधीनता का इतिहास

ठाकुर छेदीलाल एम.ए. (आक्सफोर्ड)
बैरिस्टर-एट-ला 
(परमात्‍मने नमः)

बीसवीं सदी स्वतंत्रता की सदी है। संसार के जिस हिस्से पर ध्यान दिया जाये, चारों ओर से स्वतंत्रता ही की आवाज आती है। यहां तक कि वर्तमान विश्वव्यापी समर भी स्वतंत्रता ही के नाम पर प्रत्येक देश में मान पा रहा है। भारत वर्ष भी स्वतंत्रता के इस भारी नाद में अपना क्षीण स्वर अलाप रहा है। यद्यपि इस विश्व में भिन्न-भिन्न जातियां, भिन्न भिन्न राष्ट्र निर्माण कर, अपने ही स्वार्थ साधन मे सदैव तत्पर रहती हैं, तथापि ईश्वर ने इस संसार का निर्माण इस ढंग से किया है कि एक का प्रभाव दूसरे पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। इस वर्तमान समर में कई राष्ट्र सम्मिलित नही हैं, तिस पर भी उन्हें इसके बुरे परिणामों को अवश्य भोगना पड़ता है। इसी तरह प्रत्येक राष्ट्र में होने वाले राजनैतिक आंदोलन से तथा साहित्य की उन्नति से दूसरे राष्ट्र लाभ उठा सकते हैं। यथार्थ में पूछा जाये तो इतिहास के पढ़ने से यही लाभ है। बीते हुए युग का हाल पढ़ने से हम अतीत युग में अपना प्रवेश कराते हैं, जिससे हमारा ज्ञान-क्षेत्र विस्तीर्ण होता है और भविष्य में हमें किस तरह कार्य करना चाहिए, इसकी शिक्षा मिलती है। भारतवर्ष में यह जो स्वराज्य का आंदोलन चल रहा है, इस देश के लिए बिल्कुल नई बात है। इसमें संदेह नही कि प्राचीन भारत में प्रजातंत्र राज्य भी थे। परंतु प्रधानता अनियंत्रित शासन-पद्धति की ही थी। इस कारण केवल भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास के ही अध्ययन से इस नये मार्ग के पथिक को कुछ सहायता नहीं मिलती, जिससे उसे पश्चिम की ओर सहायता के लिए झांकना अनिवार्य हो जाता है। यूरोप में कई राष्ट्रों ने कई प्रकार से आभ्यान्तरिक स्वातंत्र्य तथा राष्ट्रीय स्वातंत्र्य प्राप्त किया है। किंतु हिन्दी साहित्य में इनका वर्णन न होने से इस भाषा भाषी को इससे कोई लाभ नहीं होता।

आजकल हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न चारों ओर से किया जा रहा है, जिनके प्रधान नेता श्रद्धास्पद, स्वनामधन्य कर्मवीर महात्मा गांधी हैं। इतने बड़े सेवक को पाकर हिंदी सचमुच कृतार्थ हो गई है, और आशा है कि अब इसके वेग को कोई रोकने में समर्थ न होगा और यह अपने लक्ष्य सिद्धि में शीघ्र ही सफलीभूत होगी। यद्यपि कई क्षुद्र व्यक्तियों ने जिनका नाम लिखना अनावश्‍यक है, हिंदी भाषा की निंदा करते-करते गांधी महात्मा पर भी संकीर्णता तथा पक्षपात का दोष आरोपण किया है, तथापि इनका प्रयत्न इस आंदोलन को रोकने में असमर्थ है। इनमें से कई महात्माओं ने अंग्रेजी की इतनी प्रशंसा की है कि उसे करीब-करीब यूरोप के सब भाषाओं से बढ़कर बना दिया है, उदाहरणार्थ एक महाशय लिखते हैं-
“English is of special value as being the key to a vast field of knowledge and as being the means of likewise of communicating to the whole of the civilised world anything of intellectual value that India may have to communicate.”

इन महात्मा को शायद यह मालूम नहीं है कि यूरोप में सिवाय इंग्लैंड के और किसी देश में सैकड़ा पीछे एक आदमी भी अंग्रेजी नहीं जानता। वहां पर फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं ही की प्रधानता है। इनसे पूछा जाय क्या मेटरलिंक ने अपने विख्यात नाटकों को अंग्रेजी में लिखा था? क्या कान्ट ने अपना तत्व विज्ञान, डास्टोएवेस्की ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास, गोगोल तथा टर्जनीव ने अपने उपन्यास, टालस्टाय ने अपनी तत्व विज्ञान संबंधी पुस्तकें, शापेनहार, हीगेल तथा स्पिनोजा ने अपने विचार अंग्रेजी में व्यक्त किये थे? क्या विक्टर ह्यूगो, ब्रू, इब्सेन ने अपनी पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित कराई थी? हां, हम भारतवासियों को जो संसार में अंग्रेजी ही को अपनी अज्ञानतावश सर्वश्रेष्ठ तथा विश्‍वव्यापी मान बैठे हैं, उपरोक्त प्रतिभाशाली लेखकों को ज्ञान अंग्रेजी ही द्वारा हुआ। किंतु इतना स्मरण रखना चाहिए कि इन सब महात्माओं की पुस्तकों की उत्तमता को देखकर अंग्रेजी ने अपनी साहित्य की कमी पूरा करने के लिए इनको अपनी भाषा में अनुवाद किया। किंतु अंग्रेजी में अनुवाद होने के पूर्व ही इन्होंने संसार में ख्याति पा ली थी। क्या रविन्द्र बाबू की गीतांजलि, बंगाली भाषा से फ्रेंच में अनुवादित की जाती तो संसार में प्रसिद्ध न होती? यदि अंग्रेजों को यह मालूम हो जाये कि भारतवासी अपने उत्कर्ष विचार अपनी ही भाषा में व्यक्त करेंगे, तो निश्‍चय ही वे हमारी भाषा को पढ़ेंगे और उत्तम ग्रंथों का अनुवाद अपनी भाषा में स्वयं करेंगे। क्या जगदीश बाबू के प्रसिद्ध अविष्कार, अपनी भाषा में लिखे जाने पर दूसरे लोग ग्रहण न करते? क्या फ्रेंच में इनके सिद्धांतों का अनुवाद नहीं हुआ होगा? अस्तु।

हिंदी का मुखोज्वल करना हमारे हाथ है, और यदि हम चाहें तो अपने मौलिक लेखों द्वारा इस भाषा को इतने ऊंचे पद पर चढ़ा सकते हैं, कि पश्चिमी विद्वान इसे अवश्‍य अध्ययन करें। तुलसीदास की रोचकता ने, कबीर की सार-गर्भिता ने तथा सूरदास के पद-लालित्य ने कई विदेशियों को हिन्दी पढ़ने पर विवश किया। इसी तरह यदि केवल हम इधर-उधर की पुस्तकों का अनुवाद करने ही को अपना इति कर्तव्य न समझें, और अपने ऊंचे विचार इसी भाषा में व्यक्त करें तो क्या नहीं हो सकता। हिन्दी में यूरोपीय इतिहास संबंधी कोई पुस्तक नहीं है। हां, इंडियन प्रेस ने इतिहास-माला निकालना प्रारंभ किया है, जिसमें पांच छः पुस्तकें निकल चुकी है। निस्संदेह यह प्रयत्न अच्छा है। किंतु इन पुस्तकों को, कोई इतिहास नहीं कह सकता। यदि हम इनको सन् संवत की सूचियां कहें तो भी अतिशयोक्ति न होगी। इस कमी को पूर्ण करने के लिए हम लोगों ने यह 'स्वातंत्र्य सोपान सीरीज' निकालना निश्चय किया है। इसमें केवल उन्हीं देशों के इतिहासों का समावेश रहेगा, जिन्होंने राष्ट्रीय तथा आभ्यान्तरिक स्वातंत्र्य प्राप्त की है और इनमें केवल उन्हीं ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख रहेगा, जिनका संबंध एतद्देशीय राष्ट्रीय स्वाधीनता से रहा हो।

विषय बड़ा गहन है और हमारी योग्यता बहुत कम है। आश्‍चर्य नहीं कि पग-पग पर हम लोग चूकेंगे। किंतु वर्तमान काल में ऐसी पुस्तकों की उपयोगिता का विचार कर, और हिंदी में उनका अभाव देखकर हम लोग अपनी अयोग्यता को जानते हुए भी इस कार्य में बद्ध-परिकर हुए हैं। इस सोपान सीरीज में निम्नलिखित देशों की स्वाधीनता प्राप्त करने की विधि का वर्णन रहेगा।
अर्थात्
(१) हालैंड, (२) इंग्लैंड, (३) अमेरिका, (४) फ्रांस, (५) इटली, (६) टर्की, (७) ईरान, (८) पोर्तगाल और, (९) रूस।
भाषा संबंधी त्रुटियों का होना तो हमारी अयोग्यता-वश अनिवार्य ही है। फिर भी सहृदय पाठकों से हमारा निवेदन है कि इन त्रुटियों का विचार न करके, इस सीरीज को अपनाकर, हमें उत्साहित करेंगे। उदार पाठकों से प्रार्थना है कि जो त्रुटियां, भाषा तथा विषय-संबंधी उन्हें इस 'स्वातंत्र्य सोपान सीरीज' में मिले, उनसे हमें सूचित करें, जिसे हम सहर्ष और धन्यवाद सहित स्वीकार करेंगे।
- संपादक

भूमिका

यूरोप के इतिहास में सोलहवीं सदी तथा सत्रहवीं सदी धार्मिक मारकाट के लिए प्रसिद्ध है। एक भारतीय को जिसका ध्येय सदा से धार्मिक स्वतंत्रता ही रहा है, धार्मिक विषय में मारकाट बड़ा विचित्र मालूम होता है। हिंदू धर्म के छत्र-छाया में बौद्ध, जैन, चार्वक, नास्तिक आदि सब मतों ने एक सा मान पाया है और किसी को धार्मिक विश्वास के कारण किसी तरह का कष्ट नहीं उठाना पड़ा। धार्मिक विषय में स्वाधीनता एक हिंदू को बहुत आवश्यक तथा साधारण ज्ञात होती है। इसलिए यूरोप के इतिहास में, धर्म के नाम से मनुष्यों पर पाशविक अत्याचार का किया जाना, उसके मन को डांवाडोल कर देता है। यूरोप की सोलहवीं और सत्रहवीं सदी के इतिहास में यदि कोई रत्न चमकता हुआ उसे दिखता है तो वह छोटे हालैंड का अपने बलिष्ठ शत्रु स्पेन के साथ अपनी स्वतंत्रता लाभार्थ अस्सी साल की लड़ाई है। स्पेन का यूरोप में उस समय बड़ा दबदबा था। धन, जन आदि सब बातों में दूसरे यूरोपीय देश स्पेन का महत्व स्वीकार करते थे। इंग्लैंड, फ्रांस प्रभृति देश भी स्पेन के आगे सिर झुकाते थे। ऐसे स्पेन से एक तुच्छ हालैंड का, जिसकी जनसंख्या हिन्दुस्तान के किसी छोटे प्रांत के चौथाई से भी कम है, अस्सी साल तक अपूर्व पराक्रम से लड़ना तथा अंत में स्पेन ही द्वारा अपनी स्वतंत्रता कबूल करा लेना, एक भारतीय को थर्रा देता है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जो अधिकारी वर्ग को सदैव सब कुछ मानता आया है, जिसके हृदय में स्वाधीनता का लेशमात्र भी भास नहीं है, वह स्‍वतंत्रता के लिए हालैंड के इस आत्मोत्सर्ग का क्या आदर कर सकता है? यद्यपि उसका हृदय अंधकार से पूर्ण है तथापि डच लोगों का अपूर्व साहस उसके हृदय में ऐसी ज्योति उत्पन्न कर देता है कि स्वयं गिरे हुए होने पर भी हालैंड के उन वीरों के कार्य को, जिन्होंने अपने देश के लिए अपने धन, प्राण सब सहर्ष अर्पण कर दिए, प्रेम और आदर दृष्टि से देखता है। स्पेन के घोर अत्याचार तथा उद्दण्डता, मौनी विलियम के असीम देशप्रेम, साहस तथा आत्म त्याग, वार्नवेल्ट की राजनैतिक कुशलता, नासो के विलियम का रण पांडित्य, जान डी विट् का यूरोपीय राष्ट्र संगठन में अपूर्व ज्ञान तथा प्रत्येक डच का स्वाधीनता के लिए सहर्ष प्राण अर्पण करना, यही प्रथम सोपान के मुख्य विषय है। किस प्रकार इस छोटे से हालैंड ने स्वतंत्रता प्राप्त की, यह भारतवर्ष सरीखे आलसी तथा लकीर के फकीर देश के लिए अनुकरणीय है।

इस पुस्तक का मुख्य अभिप्राय उन्हीं बातों से हैं, जिनसे डच लोगों को स्वाधीनता दिलाने में सहायता मिली। इस कारण सोलहवीं सदी से हमारा प्रकरण प्रारंभ होगा। यथार्थ में डच लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई स्पेन के द्वितीय फिलिप के राज्य काल से आरंभ की। इस कारण हमारा इतिहास द्वितीय फिलिप के समय से ही आरंभ किया जायेगा। जिन महाशयों को इसके पूर्व का हाल जानने की उत्सुकता है उन्हें केम्ब्रिज मिडिवियल हिस्ट्री, हिस्टोरियन्स हिस्ट्री आफ दी वर्ल्‍ड और माटले की डच रिपब्लिक प्रथम भाग की प्रस्तावना देखना चाहिए।

इस पुस्तक में हमने समकालीन लेखों तथा पत्रों से कुछ अवतरण दिया है। हिंदी में इनका अच्छा अनुवाद न हो सकने के कारण अंगेरजी अनुवाद दे दिए गए हैं।
- ठाकुर छेदीलाल

स्‍वाधीनता संग्राम के दौरान वैचारिक स्‍तर पर अस्मिता और स्‍वतंत्रता की भावना जागृत करने वाले उपाय भी किए जाते रहे। गणेशोत्‍सव, धार्मिक प्रवचन, यज्ञ-अनुष्‍ठान, लीला-नाटक मंचन, इतिहास लेखन-प्रकाशन, भाषाई आग्रह जैसे अहिंसक तौर-तरीके अपनाए जाते। अकलतरा के ठाकुर छेदीलाल बैरिस्‍टर ने ऐसे सभी अस्‍त्र आजमाए। बैरिस्‍टरी की पढ़ाई के बाद, वकालत और शिक्षण के साथ 1919 से 1933 के बीच (उनके जेल जाने से व्‍यवधान भी होता रहा) दो-ढाई हजार की आबादी वाले कस्‍बे अकलतरा में रामलीला का आयोजन करते रहे। उनके साथ इस काम में अकलतरा के दो और विलायत-पलट, लोगों को निःशुल्‍क चिकित्‍सा सेवा देते एफआरसीएस, उनके अनुज डा. चन्‍द्रभान सिंह और रायल इकानामिक सोसायटी से जुड़े, पूरी गोंडवाना पट्टी और बस्‍तर के बीहड़ सुदूर अंचल में शोध-सक्रिय, जनजातीय समुदाय में अलख जगाते, उनके भतीजे डा. इन्‍द्रजीत सिंह अनुगामी होते।