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Thursday, July 28, 2011

डीपाडीह

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स्मरण सन 1988 का। मार्च का महीना, ठीक धूल पंचमी के दिन डीपाडीह के लिए रवाना हुए। पृष्ठभूमि में तीन खास स्थितियां। लगभग तीन माह पहले स्वयं का विवाह, डेढ़ माह पहले डाक्टर कक्का का निधन और लगभग पांच माह से चक्रवर्ती जी का बिलासपुर प्रवास। ताला में रूद्र शिव की प्रतिमा मिली, वहां के काम से पूरी तरह उबर नहीं पाए, नये काम की शुरूआत के लिए डीपाडीह के लिए प्रस्थान हो गया।

इसके पहले सरगुजा जिले में कुछ समय के लिए रामगढ़, उदयपुर तक ही गया था, जो बिलासपुर सीमा से अधिक दूर नहीं है लेकिन इस बार लक्ष्य था, सरगुजा जिले की दूसरी सीमा पर बिहार से लगा डीपाडीह। एक दिन अम्बिकापुर, एक दिन कुसमी और फिर एक सुबह चक्रवर्ती जी काम शुरू करने की शुभकामनाओं सहित छोड़कर वापस लौट गये। मेरी स्थिति पैराशूट से अन्जान भूगोल पर कहीं टपक पड़े जैसी थी। डीपाडीह से गुजरने में ही कन्हर नदी के किनारे गांव के छोर पर बना अकेला सा कच्चा घर, जो गांव की सबसे भव्य इमारत दिखती थी, बिना मालिक और उसके इजाजत की परवाह के तय कर लिया था, आते-जाते ही काम शुरू करने के लिए मजदूर और गांव के तिराहे-बस अड्‌डे के होटल वाले द्वारा विशेष रूप से मेरे लिए किये खाने का प्रबंध हो गया।

गोदामनुमा, बिना बिजली की सुविधा वाली उस इमारत के जिम्मेदार गांव के सेठ जी थे उन्होंने सहर्ष और निशर्त चाबी मुझे सौंप दी और मामूली साफ-सफाई का इन्तजाम भी करा दिया। सुबह से गांव के अंतिम छोर के टीले, उरांव टोली से काम शुरू हुआ। काम की शुरूआत में ही अकेला होने से पूरे समय मजदूरों के साथ फिरकी बन जाना और बीच के एक घंटे के भोजन अवकाश में उरांव टोली के बच्चों के साथ आसपास के दूसरे टीलों पर घूमना और शाम को दिन ढलते-ढलते वापसी। प्रतिदिन दस-बारह किलोमीटर पैदल चलना होता था। वापस आते हुए बस्ती में खाना खाने रूकता और फिर इकट्ठे डेरे पर लौटता, इस बीच कोई सहयोगी साफ-सफाई कर चिमनी जलाकर, पीने का पानी भरकर जा चुका होता था।

बस्ती से डेरे तक का लगभग एक किलोमीटर का रास्ता आगे बढ़ते हुए सूना होता जाता, बिजली भी आधे रास्‍ते तक ही थी। होश संभालने के बाद बिना बिजली के घर में एक-दो रात तुमान में काट चुका था, यह दूसरा लेकिन लम्बा, अवधि अनिश्चितता समेत अनुभव था। अंधेरा गहराते ही बस्ती के न जाने किस कोने से मानों मेरे लिए जादुई और रहस्यात्मक स्वर लहरी और ढोल-ढमाके की आवाज पूरे परिवेश से अभिन्न, उभरने लगती थी, जैसे उजली रात की चांदनी। इसी आवाज के साथ आगे बढ़ता था। यह तो शायद देर रात तक चलता हो लेकिन डेरा पास आते-आते कन्हर के प्रवाह का पथरीला, प्राकृतिक संगीत धीरे-धीरे बढ़ते हुए हावी होता जाता और घर पर पहुंचते तक सिर्फ यही आवाज रह जाती, जो सोते तक मेरे साथ सूनापन काटते बनी रहती। कैम्प में रोजमर्रा को कुछ बदल लेना मुझे हमेशा भाता रहा, जिसमें शेविंग और मांसाहार छोड़ना मुख्‍य होता। साथ ही ऐसे प्रवास में ट्रांजिस्टर और समाचार पत्र से अपने को बचा कर रखता, मुझे बड़ी राहत मिलती कि यों बिना खबर-अखबार के दिन शुरू नहीं होता, लेकिन कैम्प से वापस आ कर आजमाने का मौका होता कि दुनिया जस की तस है।

सुबह सूर्योदय के साथ उठकर कार्य स्थल पर जाने की तैयारी शुरू होती, नदी के सूने घाट में जाकर स्नानादि, फिर कैमरा, नोटबुक, टेप सहित उरांव टोली, बीच रास्ते में बस्ती से गुजरते हुए दोपहर के खाने जैसा नाश्ता कर रात तक के लिए फारिग होकर काम पर हाजिर। फिर वही क्रम दुहराते हुए वापसी, घर पहुंच, लगभग घंटे भर फील्ड डायरी लिखकर, काम पर जाने, खाना खाने जैसी प्रयास रहित निष्ठा से सो जाता।

यही क्रम चलता रहा, शायद चार या पांच दिन, फिर एक शाम घर लौटने की और अकेले रात गुजारने की याद आई, मशीनी ढंग से चल रही स्थिति में पहली बार संवेदनायुक्त यह सोच उपजी, लेकिन तत्काल चिमनी जलाने वाले से कमरे में एक लाठी रख देने को कहकर, निजात पा लिया। अगली सुबह कुछ अलग हुई। सिर पर बाल न होने से कंघी-शीशे का और इस बहाने अपना चेहरा देखने की स्थिति नहीं थी, नदी में मुंह धोते हुए बहते पानी में अपना प्रतिबिंब देखने की कोशिश करने लगा और शायद उसमें बिना कुछ देखे, काम बन गया की तसल्ली सहित फिर आगे की दिनचर्या शुरू हो गई, शाम वापस आने पर खाना खाते हुए क्षणिक विचार आया, बगल में ग्रामीण बैंक वालों के घर में आईना देख लूं, किन्तु हाथ धोते-धोते ही विचार भी धुल गया।

अगली शाम काम से वापस लौटते हुए अजीब अनुभूतियां हुई, जो अब याद आने पर रोमांचक सिहरन होती है। लेकिन बीच में कुछ और बातें- डीपाडीह चारों तरफ दूर पास पहाड़ियों से घिरा हुआ है, शाम होते-होते पास की पहाड़ियां गहरी हरी, उससे दूर की धूमिल और सबसे दूर की पहाड़ियां काली होने लगती थीं। इस क्षेत्र में अधिकतर लोग सफेद कपड़े पहनते हैं और आगे-पीछे पंक्तिबद्ध चलते हैं। पहाड़ियों की पृष्ठभूमि में पंक्तिबद्ध लोग सिर पर, कन्धे पर सामान लिये हुए लैण्ड मार्क बनकर चमकते, सरकते दिखते थे, घर वापसी की तैयारी में। आकाश पर चिड़ियां अपने ठिकानों की ओर उड़ान भरने लगती और सूर्य पहाड़ियों में छुप जाता। उस शाम मुझे लगने लगा कि मैं इस प्राकृतिक दृश्य से अभिन्न हूं, और इस विशाल दृश्य में समा कर खोता जा रहा हूं, अपने शरीर का और ठीक उस समय शायद अपने विचार क्रम का भी भान नहीं हो रहा था, पता नहीं कितनी देर, दो मिनट, तीन मिनट या पांच मिनट, अचानक सामने बिलासपुर से आया दफ्तर का एक कर्मचारी दिखा, जो अपने साथ ढेर सारी सरकारी, निजी डाक और भी कई जानकारियां लेकर आया था।

अगले दिन से ही मैंने जो अब तक गांव में कुछ भी न देखा-समझा था, सभी कुछ पहचाना सा लगने लगा। गांव के लोग, गलियां, घर, आने-जाने वाली बसें, बच्चे और मंदिरों के टीले सभी से अपनापन महसूस हुआ। बाद में तो गांव के भांजे-दामादों और समधियान को भी जानने लगा। वापस आने पर जब मित्रों से चर्चा हुई तो उन्होंने पहले डायरी लिख डालने को कहा और मुझमें अचानक उमड़े बागवानी-वनस्पति, पशु-पक्षी और प्रकृति प्रेम को इस घटना से जोड़ा, मित्रों ने अनुसार वह ऐसा बिन्दु था जहां या तो पूरी स्थितियों से स्थायी विराग हो सकता था या यह दूसरी स्थिति जिसमें सब कुछ आत्मीय और घनिष्ठ बन जाए। ... लिखने के क्रम में कई बात छूटी और विचार प्रवाह टूटा, फिर भी ...

बाद में स्वयं भी मैं काफी दिनों तक उधेड़बुन में पड़ा रहा। लगा कि मौन विकसित करके इस दुर्लभ स्थिति को शायद महसूस किया जा सके जो मुझे अनायास मिली। अपना अस्तित्व और 'मैं' की अस्मिता थोथे और निरर्थक संदर्भों से जुड़कर बनती है और निर्जीव वस्तुएं, घर की सीढ़ियों और फर्नीचर की जमावट में हम आंख मूंदकर चल सकते हैं उनसे अपनी अस्मिता अनुभूति के लिए। लेकिन सभी सुलभ संदर्भ- आपकी जानी-पहचानी जगह, जाने-पहचाने लोग, आपसी बातचीत-सम्भाषण, आपके जाने हुए या आपको जानने वाले सन्दर्भ, और उसमें सहायक खुद अपना चेहरा शीशे में देखना न हो सके तो हमारा मजबूत लेकिन नकली सन्दर्भ-अस्तित्व भरभराकर गिर सकता है, और वह बिन्दु अपनी पहचान करने का अवसर देता है तो व्यक्तित्व में स्थायी परिवर्तन ला सकता है।

डीपाडीह, सरगुजा 1988 से 1990 तक के तीन साल का जैसे पता-ठिकाना ही हो गया था। वहां हजार-एक साल की परतें उघारते हुए, उसे मन ही मन महसूस करते हुए हासिल, सामत सरना का टीला जिस रूप में उभरा-

बीतते दिनों के साथ धूमिल पड़ने के बजाय स्‍मृतियों में जिसके रंग और चटक होते जाते हैं-

सभ्‍य और सामाजिक आचरण के मूल में आदिम मन ही सक्रिय होता है।

तब तक मैं थोरो के 'वाल्‍डन' का नाम भी ठीक से नहीं जानता था, पढ़ा तो अब भी नहीं है।

संबंधित पोस्‍ट - टांगीनाथ

32 comments:

  1. दिल से लिखा गया संस्मरण।

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  2. बहुत रोचक संस्मरण है।

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  3. डीपाडीह की कहानी आपकी जुबानी सुनी तो थी परन्तु पूरी नहीं क्योंकि उन दिनों मैं जबलपुर में पदस्थ था. आज तो एक एक शब्द को आत्मीयता से पढ़ा और महसूस किया की किन परिस्थितियों में उन टीलों का उद्धार हुआ और कितनों का त्याग उससे जुड़ा है.

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  4. काश मेरे दिल की हुई होती ...
    तो मैं आपका सहयोगी होता और यकीन मानिये आप अकेलापन महसूस नहीं करते !
    आपकी यह स्मृतियाँ और खोजें दिल लुभा लेती हैं ! कुछ इनका इतिहास भी बताते तो आनंद और आता !
    हार्दिक आभार !

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  5. रोचक संस्मरण है।

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  6. बढ़िया लगी पोस्ट-रोचकता लिए हुए.

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  7. औघड़ बाबा बरोबर लगिस गा बूता हां।
    कार्य के प्रति पुर्ण समर्पण दिखाई देता है।

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  8. लीजिए! ऑंख मूँदकर आपका कहा मान लिया। नयनाभिराम चित्रोंवाली इस रोचक पोस्‍ट पर कोई टिप्‍पणी नहीं कर रहा हूँ।

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  9. "मैं" की हवा तभी निकलती है जब किसी भी स्वांतसुखाय समाज में यूं जाना होता है...

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  10. स्मृतियाँ, वह भी जहाँ लग कर कार्य किया हो।

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  11. कुसमी में मेरी पहली पोस्टिंग थी - 82-84 तक रहा था. डीपाडीह से एरिया चालू होता था. वहाँ नदी किनारे ढेरों पुरानी मूर्तियाँ देखा करते थे. उस क्षेत्र में वास्तव में अजीब अनुभूतियाँ होती थीं.
    अब तो वहाँ एक बार जरूर फिर से जाना चाहूंगा.

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  12. ये जो अनकही बातें हैं इन्हें बतियाने की आकांक्षा से पुरा संपदा विवरणों का एक वृहद संकलन निर्मित होगा।

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  13. संस्मरण को मन तक पहुंचाने के लिए शुक्रिया।

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  14. itni purani baat phir yaad aane ki koi khas vajah.........

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  15. आपको हरियाली अमावस्या की ढेर सारी बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं .

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  16. DEEPADEEH KI FEELINGS KAFEE DEEP HAIN.

    DEEH KE SAKSHAT VARNAN SE DAH HOTA HAI KI MAIN AISA KAB LIKH PAAUNGA

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  17. डीपाडीह की फीलिग्स काफी डीप हैं.
    डाह होता है कि मैं ऐसा कब लिख पाऊंगा

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  18. waaj Ji kya khub likhahai aapne, nahut sunder sansmaran .badhai

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  19. संस्मरणों को भी इतनी रोचकता के साथ लिखा जा सकता है सोचने भी कम से कम मेरे जैसे के लिए तो मुस्किल ही है बहुत ही रोचक संस्मरण लगता है आप अभी भी दीपडिः में ही बैठे है

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  20. This comment has been removed by the author.

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  21. शब्दों के माध्यम से चित्र को जीवंत करने की अद्भुत कला दिखाई है इस संस्मरण में आपने ! डीपाडीह को जानना हुआ आपकी कलम से ,जाना कब होता है,पता नहीं !

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  22. सभ्‍य और सामाजिक आचरण के मूल में आदिम मन ही सक्रिय होता है।
    Great observation !
    राहुलजी, बहुत अच्छा लगा डीपाडीह आकर,
    मैं इस प्रकार के एकान्त में बहुत रहा हूँ,
    इसलिये समझ सकता हूँ कि वास्तव में
    वहाँ जो कुछ पाया जाता है, तथाकथित
    इस’ सभ्य’ समाज में हम न सिर्फ़ उसे,
    बल्कि उसे महसूस करने की क्षमता तक
    ’खो’ देते हैं । सादर,

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  23. सच है.. इस पोस्ट पर टिप्पणी की ही नहीं जा सकती!!

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  24. स्मृतियाँ .. खोजें .. लाजवाब ..
    - डा.जेएसबी नायडू (रायपुर)

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  25. सरगुजा से मेरी भी बहुत सी यादें जुडी हैं, डीपाडीह के नज़दीक शंकरगढ़ में ग्रामीण बैंक के उदघाटन के दिन मैं वहाँ था. पिताजी श्री नारायण प्रसाद दुबे तब सरगुजा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के अध्यक्ष थे. तब के वहाँ के विधायक, पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. श्री लरंग साय को शंकरगढ़ शाखा का उदघाटन करना था, उन्हें लाने के लिए जब बैंक की गाड़ी उनके घर जा रही थी तब मैं भी उस पर सवार हो गया. उनके यहाँ पहुंचे तो देखा वो स्वयं अपने खेत में हल चला रहे थे. अपना काम पूरा करके ही वो उदघाटन के लिए निकले.
    पुनश्च:- पहले मैंने ग्रामीण बैंक की डीपाडीह शाखा लिख दिया था. बाद में जब डैडी से चर्चा हुई तो उन्होंने याद दिलाया कि ये किस्सा शंकरगढ़ शाखा का है. उनके समय डीपाडीह शाखा नहीं थी. सो क्षमा के साथ संशोधन.

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  26. पुरातन इतिहास और उन दिनों को समेटे एक उपन्यास या लघु-उपन्यास की संभावना कतई अनपेक्षित नहीं है। बेहद रोचक होगा। बन पड़े या छपे तो कृपया ब्लॉग पर सूचित करने का कष्ट करें।

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  27. bahut interesting laga padhkar, jaise saamne baithkar aap kahani suna rahe hon...

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  28. डीपाडीह की मूर्तिकला दर्शनीय है..काफी देर हो गई ,मुझे पहुंचने जबकि नाम और शोहरत अरसे से सुना था.. आपके कार्यों और लगन को केयरटेकर जगदीश याद करते थकता नहीं.

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  29. dynasty please, I can't read Hindi.

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  30. very anxious to visit after COVID goes away.

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