Pages

Friday, July 22, 2011

सूचना समर

सूचना का महत्व सदैव रहा है, किन्तु सूचना और सूचक की भूमिका ने जैसा रुख पिछले दशकों में अख्तियार कर लिया है, उसे सूचना समर कहा जाना ही उपयुक्त लगता है। सूचकों द्वारा बरते जा रहे शब्दों में यह पूरी तरह से साफ-साफ दिखाई पड़ता है। सद्‌भावना विकसित और स्थापित करने के उद्देश्य से आयोजित खेल की खबरों में पहले तो पहलवानी अखाड़े के मुहावरे इस्‍तेमाल होते रहे- दूसरे दल, विरोधी को पछाड़ा जाता, पटखनी दी जाती, चारों खाने चित्‍त कर धूल चटाया जाता। अब खेल-खबरों में दुश्‍मन को दांत खट्टे कर मजा तो चखाया ही जाता है, टांग और कमर तोड़ते हुए फतह भी होती है, रौंदकर मटियामेट किया जाता है, भारत और श्रीलंका के मैच राम-रावण युद्ध बन जाता है। इस दौर में संजय द्विवेदी का संकलन 'इस सूचना समर में' मीडिया की नब्ज पर रखी वह उंगली है, जो पाठक को सहज ही बीमार का हाल बता देती है। संकलन की सभी 66 टिप्पणियां, मूलतः 5-6 वर्षों में अलग-अलग लिखी गई सूचना की आवश्यकता-पूर्ति के लिए की गई रचनाएं हैं।
इस समर के और दो पहलुओं का उल्लेख प्रासंगिक होगा। कबीर कहते थे- 'तू कहता कागज की लेखी, मैं कहता आंखन की देखी'। ताल-ठोंक, ठेठ लहजे में कही गई बात अब उलटबांसी लगती है। कुछ वर्षों पूर्व समाचार के रूप में पढ़े और सुने जाने वाले शब्दों को विश्वसनीय बनाने के लिए तथ्य-सूचना एकत्र कर खबर गढ़ी जाती थी लेकिन अब, जब खबरों के दृश्य माध्यम का चलन बढ़ गया है, 'आंखन देखी' के लिए फाइल चित्र भी सहज-सच्चे बन जाते हैं या किसी घटना के दौरान संयोगवश विसंगत कोई दृश्य मिल जाने पर वह समाचार को एक्सक्लूसिव बना देता है और ऐसे दृश्य से बहुधा घटना की अविश्वसनीय व्याख्‍या भी हो जाती है। समाचार दर्शक को इस पर विश्वास करना ही पड़ता है, 'आंखन देखी' जो है।

विचारणीय पहलू यह भी है कि आतंक, हिंसा और दंगा क्षेत्रों से सनसनीखेज खबरें ही आती हैं, सौहार्द-प्रसंग नहीं, अगर आए तो समाचार का वैसा दर्जा उन्हें नहीं मिल पाता क्‍योंकि वह समाचार नहीं, साफ्ट स्टोरी है। रिपोर्टर भी क्या करे, कंपनी ने उसे खर्च कर मौके पर इसलिए तो भेजा नहीं है कि वह दंगा क्षेत्र से अमन का पैगाम ले कर आए, वह तो आया है अधिक से अधिक क्रूर और वीभत्स, उन्माद और हिंसा के जीवंत दृश्य के फुटेज इकट्ठा करने। अन्ततः, रोमांचक नजारों के साथ सनसनीखेज खबरें, साम्प्रदायिक खतरनाक स्थितियों सहित आशंकापूर्ण भविष्य की झांकी गढ़ डालती हैं और ऐसे परिणाम लाती हैं, जो लक्षित कतई नहीं होता।

पुस्तक के दो खण्डों में 'राजनीति' और 'लोग' हैं। 'राजनीति' में, तत्कालीन राजनैतिक स्थितियों और दलों पर न सिर्फ बेलाग टिप्पणी है, बल्कि सटीक विश्लेषण भी किया गया है। यह विश्लेषण अखबारी होते हुए भी तत्कालीन परिस्थितियों से उपजी प्रतिक्रिया का 'हॉट केक' नहीं है, इसलिए समय बीत जाने पर भी प्रासंगिक और पठनीय है। 'लोग' खण्ड विशेष उल्लेखनीय है, जिसमें राजनीतिज्ञों के साथ-साथ, सामाजिक सरोकार रखने वाले अन्य चरित्रों का भी चित्रण है। व्यक्तित्वों में सुभाषचंद्र बोस और राममनोहर लोहिया से लेकर निर्मल वर्मा और अरूंधती राय सहित टी.एन. शेषन और राष्ट्रीय प्रमुख नेताओं को एक साथ रखना अपने आप में उल्लेखनीय है। इन सभी व्यक्तित्वों के मूल्यांकन का आधार मुख्‍यतः उनकी कथनी नहीं, बल्कि उनकी करनी को बनाया गया है इसलिए यह न्यायोचित हो जाता है, विशेषकर इसलिए भी, जब उनके मानवीय सकारात्मक पक्षों पर अधिक बल देते हुए उस पर गंभीरता से विचार किया गया हो।

'राजनीति' खण्ड के कुछ शीर्षकों का उल्लेख आवश्यक है, जो आकर्षक तो हैं ही अर्थवत्ता और रचना की गहराई का आभास कराने में भी समर्थ हैं। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण बिन्दु है जहां संजय की लेखनी पत्रकारिता और साहित्य की रूढ़ सीमा को झुठलाती हुई, पाठक को इस भेद के मात्र आभासी होने का विश्वास दिला देती है। इस खण्ड के कुछ शीर्षक हैं- लालकिला केसरिया होगा, सोनिया को सराहौं या सराहौं सीताराम को, कौरवों ने फिर किया अभिमन्यु वध या कौन काटेगा नफरत के ये जंगल; किन्तु एक संवेदनशील पत्रकार की उकताहट 'इस फिजूल बहस से फायदा क्या है ?' जैसे शीर्षक में झलक जाती है।

कुछ शब्द और जुमलों की आवृत्ति बार-बार हुई है। अलग-अलग प्रकाशित होने पर यह रचनाकार की शैली या उसे आकर्षित करने वाले शब्द माने जाते और खटकते भी नहीं, किन्तु संकलन में पढ़ते हुए, इनका दुहराया-तिहराया जाना, बाधा डालता है। संभवतः इन रचनाओं को संकलन के लिए संपादित करने के बजाय यथावत रखे जाने से ऐसा हुआ है।

संक्षेप में 'समर' के इस माहौल में भी टकसाली शब्दों के साथ संतुलित विश्लेषण और संयत रचनात्मक दृष्टि के कारण संकलन प्रभावित करता है। राष्ट्र और राजनीति के ऐसे 'टर्निंग प्वाइन्ट', जो सूचना समर में 'बैनर' न बनें, लेकिन दूरदर्शी के लिए विचारणीय बिन्दु होते हैं और उनका महत्व भी दीर्घकालिक होता है, ऐसी सामग्री का समावेश ही इस पुस्तक को पठनीय और संग्रहणीय बनाता है।

2003 में प्रकाशित इस पुस्तक को पढ़ कर, मेरे द्वारा उसी समय लिया गया नोट, जिसमें पुस्‍तक पर कम और पुस्‍तक के बहाने मीडिया पर अपनी सोच की बात अधिक है, मेरी जानकारी में अब तक अप्रकाशित भी है, इसकी प्रति संजय जी को दी थी या नहीं, याद नहीं।

44 comments:

  1. किताब के बारे में तो पता नहीं, मगर आपके द्वरा समीक्षा अवश्य रुचिकर रही है ....मेरी व्यक्तिगत रूचि का विषय न होने पर भी पूरा पढने को मजबूर रहा ....
    आपकी कलम को सलाम !

    ReplyDelete
  2. गहन विवेचना। विचारणीय आलेख। विषय के अनेक पहलुओं को उजागर करता हुआ रोचक आलेख। पुस्तक की समीक्षा से पुस्तक पढ़ने की रुचि जगाती है।

    ReplyDelete
  3. 2003 में किताब के छपने के बाद तो हालात बहुत बदल चुके हैं. सूचना का समर जिस विप्लव में बदल गया है उसके बारे में भी कुछ कहना उपयुक्त होगा.
    चंद साल पहले जिन्हें हम कलम के सिपाही कहते थे उन्हीं को अब लोग सत्ताधीशों और धनपतियों के तलवे चाटनेवाले कहते हैं.

    ReplyDelete
  4. सूचना समर में। सही कहा है। सूचना अब तो बस निर्जीव ज्ञान को कहा जाता है। मीडिया वाली बात पूरी सही है। आपने इसे नोट किया था 2003 में और आठ साल बाद टंकण करके इसे हमें पढ़वाया, अच्छा ही लगा।

    इस विषय में मेरी रुचि अधिक नहीं तो थोड़ी तो है ही। यह बात याद आई कि हाल में देशद्रोही कप(विश्व कप) के समय राम-रावण वाली बात सच में हर जगह मीडिया चला रहा था जैसे सब के सब सीमा पर आकर युद्ध लड़ और लड़ा रहे हों।

    ReplyDelete
  5. इलेक्ट्रोनिक मीडिया के आगमन के पश्चात भी, समाचार वाचकों को न्यूज़ रीडर ही कहा जाता था.. अर्थात समाचार पढ़ना.. जस की तस.. आज भी जे. वी.रामन और सलमा सुलतान का नाम और उनकी शैली याद कर शान्ति मिलती है.. तब उद्देश्य यह था कि बात सुनाने वाले तक पहुंचानी है, रिपोर्टिंग द फैक्ट्स! आज तो हर बात को चिल्लाकर कहना सामान्य हो गया है ताकि सिर्फ उसी की बात सही, सच्ची और एक्सक्लूसिव लगे..
    हमने (सलिल और चैतन्य ने - संवेदना के स्वर पर) तो इसका विरोध कई बार, कई तरह से किया है.. इसे तो सूचना समर भी नहीं कहा जा सकता.. समर तो फिर भी उद्देश्ययुक्त होता है.. यह तो एक निरुद्देश्य, घृणित लड़ाई है.. हार का ठीकरा फोडना, खेमे में सेंध लगाना आदि मुहावरों के आयुध से सजा यह युद्ध नहीं, समर नहीं कोइ आतंकवादी हमला लगता है!!

    ReplyDelete
  6. रोचक आलेख, सूचना का महामार्ग खुलने के बाद समर बढा ही है।

    ReplyDelete
  7. सलिल चचा की बात सच है..पहले न्यूज़ रिपोर्टिंग एकदम टू द पॉइंट रहती थी, अब तो पता नहीं किस किस पॉइंट से जा मिलती है, समझ में ही नहीं आता..
    किताब के बारे में जानकार अच्छा लगा..

    ReplyDelete
  8. आजकल तो सूचनाएँ छनकर नहीं,जलजला बनकर आती हैं.सम्प्रेषण का माध्यम बहुत बदल गया है,खासकर इलेक्ट्रोनिक-मीडिया में !
    अच्छे समीक्षक भी हैं आप !

    ReplyDelete
  9. हमें समर शब्द के प्रयोग से कोई परहेज नहीं है. परन्तु इस प्रकार के घृणित समर से जरूर है. रोचक विवेचना.

    ReplyDelete
  10. मै तो आजकल दूरदर्शन पर खबरें देखना ज्यादा पसंद करता हूं कभी कभी अंग्रेजी न्यूस चैनलो का सहारा भी ले लिया जाता है । अखबार तो आज कल जैकेट पहन आने लगे हैं हिंदी अखबारो मे गंभीर विषयो पर कोई सामग्री नही होती लगता है हिंदी मीडीया अपने दर्शको को या मूर्ख समझता है या मूर्ख बनाये रखना चाहता है

    ReplyDelete
  11. हिंदी मिडिया या केवल मिडिया अपनी जिम्मेदारी को भूल गया है ऐसा तो नहीं कहना चाहिए लेकिन कुछ भटकाव तो है ही .

    ReplyDelete
  12. हिन्दी मीडिया ही क्यों इस अंग्रेजी मीडिया ने क्या किया है? चाहे जैसा भी हो दूरदर्शन ही देखने लायक है न कि सड़े हुए और सारे समाचार चैनल। दो मिनट की खबर आधा घंटा तक दिखा कर पगलाते रहते हैं सब। अखबार में आप पन्ने गिन लें तो आप देखेंगे अंग्रेजी अखबार में खेल के लिए 2-3, फिल्म-तमाशों के लिए 2-3, व्यापार के लिए 2-3 और कुल जमा 2 से 3 पन्ने खबरों के लिए। अगर ईमानदारी से पन्ने देखें यानि विज्ञापनों को छाँट कर तब एक दिन दो-तीन पन्नों का ही अखबार होता है और सब दुराचार होता है।

    अभी एक दिन मैंने एक अखबार में विज्ञाप्न गिनने शुरु किए तो 200 से 400 विज्ञापन हर दिन आ रहे होंगे।

    ReplyDelete
  13. मीडिया पर तरून विजय जी का व्याख्यान सुना था। पुस्तक पर आपकी परिचयात्मकता, मन में खोजपूर्ण विचारोत्तेजना भरती है।

    ReplyDelete
  14. एक स्त्री होकर यह बात कह रही हूँ जो कहीं से भी शोभनीय नहीं...पर फिर भी कहे बिना रहा नहीं जा रहा...

    आज भारतीय समाचार चैनल,उसमे भी हिन्दी चैनल जिस लहजे में सूचना परोसते हैं, जैसे लगता है चौक पर खड़े दलालों में होड़ लगी है अपनी वेश्या के अंग प्रत्यंग की विशेषता /सुन्दरता का ब्यौरा देते हुए ग्राहकों को केवल अपनी ही दूकान में खींचने के लिए ... मिडिया के लिए खबर एक वेश्या से अधिक नहीं,जिसे भुना वह अधिकाधिक कम सकता है और दर्शक उसकी नजर में मात्र एक चरित्रहीन उपभोक्ता है, जो जीभ लपलापाये देह ढूंढ रहा है...

    खैर ,पुस्तक तो पढी नहीं, लेकिन आपकी समीक्षा शैली बेहतरीन लगी...

    आभार.

    ReplyDelete
  15. एक स्त्री होकर यह बात कह रही हूँ जो कहीं से भी शोभनीय नहीं...पर फिर भी कहे बिना रहा नहीं जा रहा...

    आज भारतीय समाचार चैनल,उसमे भी हिन्दी चैनल जिस लहजे में सूचना परोसते हैं, जैसे लगता है चौक पर खड़े दलालों में होड़ लगी है अपनी वेश्या के अंग प्रत्यंग की विशेषता /सुन्दरता का ब्यौरा देते हुए ग्राहकों को केवल अपनी ही दूकान में खींचने के लिए ... मिडिया के लिए खबर एक वेश्या से अधिक नहीं,जिसे भुना उसे अधिकाधिक कामना है और दर्शक उसकी नजर में मात्र एक चरित्रहीन उपभोक्ता है, जो जीभ लपलापाये देह ढूंढ रहा है...

    खैर ,पुस्तक तो पढी नहीं, लेकिन आपकी समीक्षा शैली बेहतरीन लगी...

    आभार.

    ReplyDelete
  16. इस लेख ने पुस्तक पढने की रूचि जागृत कर दी है ..अच्छी समीक्षा

    ReplyDelete
  17. सूचना समर की सुरुचिपूर्ण, सरस और सार्थक समीक्षा...
    साधुवाद, सिंह साहब !

    ReplyDelete
  18. आपकी समीक्षा शैली बेहतरीन लगी...

    ReplyDelete
  19. जनता जो देखना चाहती है, बस उसी को दिखाते रहें और कुछ प्रयोग न करें तो बाजार हावी हो जायेगा।

    ReplyDelete
  20. Aaapne sach hii likhaa hai, "रिपोर्टर भी क्या करे, कंपनी ने उसे खर्च कर मौके पर इसलिए तो भेजा नहीं है कि वह दंगा क्षेत्र से अमन का पैगाम ले कर आए, वह तो आया है अधिक से अधिक क्रूर और वीभत्स, उन्माद और हिंसा के जीवंत दृश्य के फुटेज इकट्ठा करने।"

    Aapkii belaag samiikshaa is pustak ko padhane ke liye baadhy karatii hai.

    ReplyDelete
  21. पुस्तक तो पढी नही पर आपकी समीक्षा ऩे एपीचाइजर का काम किया है । वैसे मीडिया के लिये रंजना जी का दिया उदाहरण सही है ।

    ReplyDelete
  22. मार्क ट्वेन ने आइरिश भीड द्वारा एक चीनी को घेरने की खबर अपने अखबार में बडे जोश से भेजी थी और बाद में जब न छपने का कारण पूछा तो बताया गया कि वह अखबार चीनी नहीं आइरिश पढते हैं, इसलिये घटना किसी काम की खबर नहीं थी। ऐसा लगता है कि पिछले डेढ दशक में भारत में भी हालत एकदम पलट गयी है। ब्रिटेन की पत्रिका द्वारा फ़ोन हैकिंग काण्ड तो खबरनवीसों के कहीँ आगे तक पहुँचने की कहानी कह रहा है। बहरहाल आपका तबसरा अच्छा लगा।

    ReplyDelete
  23. सब व्योपारी बन गये हैं. धन्धा करने लगे हैं सेवक भी. लेकिन आपने समीक्षा तो वाकई बहुत अच्छी की है..

    ReplyDelete
  24. अगर समीक्षायें इतनी रुचिकर हों तो किताबों की बिक्री बढ़ जायेगी.. वाकई बहुत अच्छी लिखी है...

    ReplyDelete
  25. itna kuchh ugal diya gaya yahan ki ab main kya kahoon ya na kahoon ,soch me padh gayi, magar post jaandaar rahi .

    ReplyDelete
  26. आपकी समीक्षा पुस्‍तक की विषय वस्‍तु का आभास बखूबी कराती है। किन्‍तु 2003 से लेकर अब तक तो नदियों में बहुत पानी बह गया। शब्‍दावली ही नहीं, नीयत भी बदल गई है और 'कलम के योध्‍दा' भूमिका बदल कर 'कार्पोरेटी बिचौलिए' बन गए हैं।

    ReplyDelete
  27. आपकी समीक्षा शैली बेहतरीन लगी...

    ReplyDelete
  28. अच्छी जानकारी है .

    ReplyDelete
  29. उनके आलेख अक्सर समाचार पत्रों में देखे हैं ! अब ये तो पता नहीं कि उनमे से कितने इस पुस्तक में सम्मिलित हैं ? पर उनको पढते हुए अपनी समझ ये बनती है कि वे एक विशिष्ट सांचे (नज़रिये) के लेखक हैं :)

    ReplyDelete
  30. फिर ये हिन्दी मीडिया -हिन्दी मीडिया क्या लगा रखा है? मूल तो अंग्रेजी मीडिया है भारत में। उसे खत्म कर दो हिन्दी मीडिया खुद ठीक हो जाएगा,

    ReplyDelete
  31. समीक्षा के बहाने मीडिया का सही विवेचन। धन्यवाद।

    ReplyDelete
  32. samichha bhi ek kala hai, aapne dikha diya sunder samichh se.

    ReplyDelete
  33. पुस्तक को पढने को उत्प्रेरित करती समीक्षा!सूचना समर -अच्छी और सारवान अभिव्यक्ति है !

    ReplyDelete
  34. सटीक कसावदार समीक्षा और अखबारी लालों को आइना दिखाती हुई .आभार .

    ReplyDelete
  35. वर्तमान परिस्थितियों की बेलाग समीक्षा की है आपने सच ही अत्यंत दुखद है कि बिना मसाले की खंबरों को कोई पढना ही नहीं चाहता

    ReplyDelete
  36. bahut sundar soochna ...... samar ke dwara.....

    pranam.

    ReplyDelete
  37. राहुल जी
    किताब के बारे में जानकार अच्छा लगा
    ...समीक्षायें तो अच्छी है वाकई पर पुस्तक पढने पर ही पूरी तरह से जानकारी मिलेगी ....!

    ReplyDelete
  38. सुन्दर ,सार्थक ,सराहनीय और उत्कृष्ट आलेख बधाई भाई राहुल सिंह जी

    ReplyDelete
  39. सूचना ही आज शक्ति है,जानकारी कराने के लिए शुक्रिया.

    ReplyDelete
  40. रंजना जी की टिप्‍पणी से पूरी तरह सहमत हूँ। कुछ समाचार चैनलों बिल्‍कुल 'मनोहर कहानियां' जैसा पत्रिकाओं की तर्ज पर समाचार परोस रहे हैं। समाचार चैनलों की भरमार होने के कारण समाचारों का अकाल सा पड़ने लगा है। इसलिये कई बार समाचार 'फैब्रिकेट' भी किये जाते हैं।

    ReplyDelete
  41. बहुत ही गहन विवेचन और उल्लेखनीय आलेख...

    पुस्तक तो पता नहीं पढ़ने को मिले भी या नहीं....पर आपकी समीक्षा ने पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता बढ़ गयी है.

    ReplyDelete
  42. सरस और सार्थक समीक्षा...
    आपकी समीक्षा शैली बेहतरीन लगी...

    ReplyDelete
  43. सूचना के इस युग में सबसे अविश्नीय सूचना के माध्यम ही हो गए हैं... ऐसे में यह पुस्तक अवश्य ही पठनीय है...

    ReplyDelete
  44. ये ब्लॉग तो जानकारियों का खजाना है

    ReplyDelete