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Friday, November 26, 2010

छत्तीसगढ़ की कथा-कहानी

दो पुस्तिकाओं 'छत्तीसगढ़ की लोक कथाएं' तथा 'छत्तीसगढ़ की लोक कहानियां' का जिक्र है। मैंने जिन प्रतियों को देखा, वे हैं-

प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तिका में, तिथि सितम्बर 1992 तथा आईएसबीएन : 81-230-0004-9 अंकित है। 28 पृष्ठों की पुस्तिका में 7 कहानियां हैं। प्रकाशकीय वक्तव्य है कि ''...भारत के विभिन्न प्रांतों की लोक कथाएं प्रकाशित करने के साथ-साथ विश्व की लोक कथाएं भी प्रकाशित की हैं। इसी क्रम में 'छत्तीसगढ़ की लोक कथाएं' प्रस्तुत हैं। इसके लेखक हैं श्री गोपाल चन्द्र अग्रवाल।''

पुस्तिका के शीर्षक से अनुमान तो यही होता है कि संकलित कहानियां छत्तीसगढ़ में प्रचलित, सुनी-सुनाई जाने वाली लोक कथाएं हैं। प्रकाशकीय में लोक कथाओं को संग्रहीत और प्रकाशित करने का भी उल्‍लेख है, लेकिन छत्तीसगढ़ की लोक कथाएं, शीर्षक वाली पुस्तिका की इस प्रस्तुति में यही प्रक्रिया अपनाई गई है, ऐसा स्‍पष्‍ट नहीं है। बरबस ध्‍यान जाता है कि यहां श्री गोपाल चन्द्र अग्रवाल को सम्पादक या संकलनकर्ता नहीं बल्कि 'लेखक' बताया गया है। 'लोक कथाएं, पारम्परिक होती हैं, इनका ज्ञात-निश्चित कोई एक लेखक नहीं होता' इस स्थापना को स्वीकार कर लेने पर बात गड्‌ड- मड्‌ड होने लगती है।

आगे बढ़े- डायमंड बुक्स, नई दिल्ली से प्रकाशित 'छत्तीसगढ़ की कहानियां' पुस्तिका में संस्करण 2006 तथा आईएसबीएन : 81-288-1290-4 अंकित है। 24 पृष्ठों की इस पुस्तिका में 5 कहानियां हैं। लेखक के स्थान पर अर्पणा आनंद का नाम है।

इस पुस्तिका की 'होशियार चूहा' और 'लालची बंदर' शीर्षक सहित पूरी कहानी 'छत्तीसगढ़ की लोक कथाएं' की हैं। 'लालची बंदर' के एक-दो वाक्य छत्तीसगढ़ी के हैं और एक हिस्सा छत्तीसगढ़ की 'हांथी-कोल्हिया-महादेव' वाली लोक कथा के 'मएन के डोकरी' (जैसे मैडम तुसाद संग्रहालय में मूर्त कलाकृतियां), प्रसंग से मेल खाता है। 'छत्तीसगढ़ की लोक कथाएं' में 'सात भाइयों की एक बहन' कहानी के दो छोटे पद्य-खंड छत्तीसगढ़ी के हैं।

इस विवरण और टीप के साथ स्वीकारोक्ति कि मैं जन्मना और मनसा छत्तीसगढ़ी, शायद रुचि के कारण लेकिन आकस्मिक ही दोनों पुस्तिकाएं देख पाया। इनमें से किसी भी कहानी को इस अंचल की कहानी के रूप में नहीं सुना है और उपरोक्त के अलावा दोनों पुस्तिकाओं का कोई हिस्सा मेरे परिचित छत्तीसगढ़ से मेल नहीं खाता। काफी खंगालने के बाद भी श्री गोपाल चन्द्र अग्रवाल अथवा अर्पणा आनंद का नाम, छत्तीसगढ़ की कथा-कहानी के परिप्रेक्ष्य में कहीं और नहीं तलाश सका। इन दोनों ने किसी पूर्व संकलनों को आधार बनाया है या सामग्री का संकलन स्वयं (कब और कहां ?) किया है, यह भी पता नहीं चलता। फिर भी कैसे कह दूं कि ये छत्तीसगढ़ की कहानियां नहीं है, लेकिन यह कैसे मानूं कि ये छत्तीसगढ़ की कथा-कहानी है।

पुनश्‍चः 

किसी हितैषी ने फोन पर कहा, इस बार कोई टीप, तफसील नहीं, कहां रह गया पुछल्‍ला सो ये है तुर्रा। छत्‍तीसगढ़ी कहानियां आमतौर पर शुरू होती हैं-
कथा कहंव मैं कंथली
जरै पेट के अंतली
खाड़ खड़ाखड़ रुख
मछरी मरय पियासन
मंगर चढ़य रुख
चार गोड़ के मिरगा मरय
कोई खाता न पीता
और पूरी होती हैं, इस तरह- 
दार भात चुर गे, मोर किस्‍सा पुर गे।

Tuesday, November 16, 2010

माधवराव सप्रे

माधवराव सप्रे 
19.06.1871-23.04.1926
'एक टोकरी भर मिट्टी' हिन्दी की पहली मौलिक कहानी मान्य किए जाने से हिन्दी साहित्य में पं. माधवराव सप्रे का विशिष्ट स्थान बन गया, लेकिन इसके चलते वर्तमान पीढ़ी में सप्रे जी की पहचान 'हिन्दी की पहली कहानी वाले' के रूप में सीमित हो गई, इसके लिए यह पीढ़ी नहीं, परिस्थितियां जिम्मेदार हैं, क्योंकि सप्रे जी की रचनाएं कुछ शोधार्थियों और खास लोगों की पहुंच तक सिमट गई थी।

पिछले दिनों देवी प्रसाद वर्मा 'बच्‍चू जांजगीरी' (फोन-07715060769) द्वारा संपादित, 'माधवराव सप्रे, चुनी हुई रचनाएं' प्रकाशित हुई, इसलिए यह उपयुक्त अवसर है कि सप्रे जी की रचनाओं के माध्यम से उस व्यक्ति का पुनरावलोकन हो, ताकि आजादी के दीवाने इस कलमकार की जाने-अनजाने सीमित हो गई पहचान से अलग, उनकी वृहत्तर प्रतिभा का आकलन कर, उससे प्रेरणा ली जा सके।

साढ़े तीन सौ पृष्ठ के इस ग्रंथ के मुख्‍य चार खंड हैं, जिनमें दो में सप्रे जी की पुस्तकें- 'स्वदेशी आन्दोलन और बायकॉट' तथा 'जीवन संग्राम में विजय प्राप्ति के कुछ उपाय' हैं, शेष दो ऐतिहासिक समालोचना और कहानियां हैं, जैसा शीर्षक से स्पष्ट है, ये सप्रे जी के कृतित्व की चुनी हुई रचनाएं हैं, किंतु यह सार्थक चयन, सप्रे जी के सृजन संसार और उनके व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करने में सक्षम है, विद्यानिवास मिश्र द्वारा लिखी भूमिका के साथ-साथ सम्पादक ने सप्रे जी की जीवनी भी प्रस्तुत की है।

द्वितीय खंड में जीवन संग्राम...., आत्म विकास और चरित्र निर्माण की प्रेरक पुस्तक है। पुस्तक का निहित लक्ष्य, स्वतंत्रता संग्राम में विजय प्राप्ति के लिए पूरी पीढ़ी को तैयार करने का झलकता है। प्रथम तीन अध्यायों के बाद, स्वावलंबन अध्याय का आरंभ, मानस की प्रसिद्ध पंक्ति 'पराधीन सपनेहुं सुख नाही' से किया गया है। पूरी पुस्तक में आदर्श, सच्चरित्रता, नैतिकता, राष्ट्रीयता और विनम्र दृढ़ता की सीख, सप्रे जी के व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित कर उनकी लेखकीय सिद्धहस्तता को भी उजागर करती है। एक अन्‍य उल्‍लेख - उन्होंने फरवरी 1901 में 'ढोरों का इलाज' पुस्तक के लिए लिखा कि ''जो कुछ हमने इस पुस्तक के विषय में लिखा है, सो क्या है! महाशय, वह ठीक समालोचना नहीं है। आप चाहें तो उसे एक प्रकार का विज्ञापन कह सकते हैं।'' ऐसी पारदर्शी साहसिकता का नमूना पत्रकारिता में मिल सकता है, विश्वास नहीं होता।

ग्रंथ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण खंड 'स्वदेशी आन्दोलन और बायकॉट' है। लगभग पूरी सदी के बाद भी इस पुस्तक की प्रासंगिकता और प्रभाव कम नहीं है, किसी समाज के प्रति उपनिवेशवादी दुरभिसंधिपूर्ण महिमामंडन और खोखले नारे प्रचारित कर किस प्रकार उसे दमन का साधन बनाया जाता है, यह सप्रे जी ने 'भारत एक कृषि प्रधान देश है' नारे में देखा है, जिस महिमामंडन को धीरे से फतवे जैसा इस्तेमाल कर इस देश के परम्परागत शिल्प, तकनीक, कला और व्यवसाय को नष्ट किया गया (आज भी छत्तीसगढ़ को 'धान का कटोरा' स्थापित कर दिए जाने जैसी स्थितियों से यह खतरा बना हुआ है) यही स्थिति जुलाहे-बुनकरों के साथ है, जिनकी तत्कालीन समस्याओं से निर्मित स्थिति के कारण यह 'बायकॉट' लिखी गई, लेखन का अद्‌भुत कौशल भी इस रचना में दिखता है, आज भी रोमांच पैदा कर देने वाली शैली की एक विशेषता यह भी है, कि स्वदेशी और बायकॉट को लेकर लिखे पचास पृष्ठों में दुहराव की वजह से नीरस एकरसता नहीं बल्कि उद्‌देश्य के प्रति दृढ़ता बढ़ती जाती है। सप्रे जी की इस रचना में उनके व्यक्तित्व में गांधीवादी संयत जिद, आत्म अनुशासन की कठोरता के साथ संतुलित उत्तेजना कितनी तीक्ष्ण हो सकती है, महसूस किया जा सकता है।

सप्रे जी के व्यक्तित्व का सामाजिक सरोकार इतना गहरा है कि वे घोषणा करते हैं ''मुझे मोक्ष प्यारा नहीं, मैं फिर से जन्म लूंगा'' पुस्तक पढ़ते-पढ़ते सप्रे जी के जीवन्त और उष्म स्पन्दन का एहसास होने लगता है। ऐसी प्रासंगिक कृति का लगातार प्रचलन में न रहने का अफसोस है, तो इस स्वागतेय प्रकाशन की उपलब्धता ही स्वयं में रोमांचकारी है।

टीप :

मार्च 1999 में श्री रमेश नैयर जी (फोन-9425202336) दैनिक भास्कर, रायपुर के अपने कार्यालय में बता रहे थे- जनवरी 1900 में छत्तीसगढ़ के पेन्ड्रारोड से प्रकाशित होने वाली हिंदी मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' के बारे में। पं. माधवराव सप्रे जी की इस पत्रिका के अप्रैल 1901 के अंक में 'एक टोकरी भर मिट्‌टी' छपी थी, पत्रिका का मुद्रण रायपुर के कय्यूमी प्रेस, जो आज भी कायम है, से आरंभ हुआ। इस पत्रिका और कहानी के साथ नैयर जी ने बायकॉट की चर्चा की। मैंने कहा कि बायकॉट का नाम ही सुनने-पढ़ने को मिलता है, पुस्तक तो मिलती नहीं, इस पर उन्‍होंने तपाक से यह किताब निकाल कर न सिर्फ दिखाई, पढ़ने को भी दे दी। वापस लौटाते हुए छोटा सा नोट उन्हें सौंपा, जो उस दौरान दैनिक भास्कर और नवभारत समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ। लगभग जस का तस यहां पोस्ट बना कर बिना दिन-वार का ध्यान किए लगा रहा हूं। यह मान कर कि नित्य स्मरणीय सप्रे जी की चर्चा के लिए तिथि-प्रसंग आवश्यक नहीं।

इस बीच पं. माधवराव सप्रे साहित्य-शोध केन्द्र, रायपुर (फोन-9329102086 / 9826458234) के प्रयासों से सप्रे साहित्य पुनः प्रकाशित हो रहा है, लेकिन इसमें कितनों की रुचि है, कौन पढ़ रहा है, मालूम नहीं ? कभी लगता है कि 'दांत हे त चना नइ, चना हे त दांत नइ।

Friday, November 12, 2010

नाग पंचमी

कक्षा-4, पाठ-18

सूरज के आते भोर हुआ, लाठी लेझिम का शोर हुआ।
यह नागपंचमी झम्मक-झम,यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम।
मल्लों की जब टोली निकली, यह चर्चा फैली गली-गली।
दंगल हो रहा अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

सुन समाचार दुनिया धाई, थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का, यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में, लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए,अटपट चलते उद्भट आए
उतरेंगे आज अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

वे गौर सलोने रंग लिये, अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से, मूछों पर ताव जमाते से।
मस्ती का मान घटाते-से अलबेले भाव जगाते-से।
वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष, वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष।
जब मांसपेशियां बल खातीं, तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

तालें ठोकीं, हुंकार उठी अजगर जैसी फुंकार उठी।
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल दो बबर शेर जुट गए सबल।
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था भिड़ता बांके से बांका था ।
यों बल से बल था टकराता था लगता दांव, उखड़ जाता।
जब मारा कलाजंघ कस कर सब दंग, कि वह निकला बच कर। 
बगली उसने मारी डट कर, वह साफ बचा तिरछा कट कर।
दो उतरे मल्ल अखाड़े में चंदन चाचा के बाड़े में॥

यह कुश्ती एक अजब रंग की, यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर, ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर, वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी, बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

पहलवान, कक्षा-3, पाठ-17

इधर उधर जहां कहीं, दिखी जगह चले वहीं।
कमीज को उतार कर, पचास दंड मारकर।
अजी उठे अजब शान है, अरे ये पहलवान है।

सफ़ेद लाल या हरा, लंगोट कस झुके ज़रा
अजब की आन बान है, अरे ये पहलवान हैं

कक्षा-4, पाठ-25 (आखिरी पाठ)

लल्ला तू बाहर जा न कहीं
तू खेल यहीं रमना न कहीं
डायन लख पाएगी
लाड़ले नजर लग जाएगी
अम्मां ये नभ के तारे हैं
किस मां के राजदुलारे हैं
ये बिल्कुल खड़े उघारे हैं
क्या इनको नजर नहीं लगती
बेटा डायन है क्रूर बहुत
लेकिन तारे हैं दूर बहुत
सो इनको नजर नहीं लगती।

कक्षा-4, पाठ-14

मैं अभी गया था जबलपुर, सब जिसे जानते दूर-दूर।
इस जबलपुर से कुछ हटकर, है भेड़ाघाट बना सुंदर।
नर्मदा जहां गिरती अपार, वह जगह कहाती धुंआधार।
कल कल छल छल, यूं धुंआधार में बहता जल।

तफसील :

पुरानी पोस्ट देखते-दुहराते लगा कि नागपंचमी और बालभारती पर एक बार लौटा जाए। मेरी पोस्ट बालभारती पर टिप्पणी करते हुए रवि रतलामी जी ने 'नागपंचमी' का जिक्र किया था। अतुल शर्मा जी की टिप्पणी में और आगे बढ़ने का संदेश था, उन्होंने नागपंचमी शीर्षक से स्वयं भी पोस्ट लिखी है, जिसमें नागपंचमी कविता संबंधी, विष्णु बैरागी जी और यूनुस जी का लिंक भी दिया है। इस सिलसिले को यहां आगे बढ़ा रहा हूं। पहलवान वाली एक कविता भी लगा रहा हूं, जो कई बार नागपंचमी के साथ गड्‌ड- मड्‌ड होती है।

हां ! बताता चलूं कि बालभारती पोस्ट से ऐसी प्रतिष्ठा बनी कि फोन आते रहे और लोग अपनी याद ताजा करते रहे। इस बीच एक परिचित को जबलपुर जाना था और शायद कुछ भाषण देना था। देर रात फोन आया, जबलपुर कविता ... जल्दी...। मैंने एकाध पंक्तियां, जो याद थीं, दुहराईं। उन्होंने कहा और भेड़ाघाट ..., तब मैंने उनसे वक्त लिया और दूसरे दिन फोन कर उनकी फरमाइश पूरी की। इस सब के साथ लल्ला कविता वाला एक और प्रिय पाठ याद आया, इसलिए वह भी यहां है।

रवीन्‍द्र सिसौदिया
अब आएं राज की बात पर। आपका परिचय कराऊं रवीन्द्र सिसौदिया जी से, जिनकी याददाश्त के बदौलत यह पोस्ट बनी है। वैसे मुझे अपनी स्मृति पर भी भरोसा कम नहीं, लेकिन वह उस माशूका जैसी है, जो साथ कम और दगा ज्यादा देती है, फिर भी होती प्रिय है।

मैं बात कर रहा था राज की। अगर आपको नौबत आए 'फोन अ फ्रेन्ड ...' ये करोड़पति बीच में आ ही जाता है, आजकल। धन्य हैं केबीसी और फेसबुक, जिन्होंने सब रिश्ते समेट कर पूरी दुनिया को मैत्री के सूत्र में बांधने का मानों जिम्मा ले रखा है। केबीसी की महिला प्रतिभागी के फ्रेन्ड, उनके ससुर को फोन किया जाता है या फेसबुक, जिस पर 8 साल का भतीजा सवाल कर रहा है, मुझे उसकी मैत्री, फ्रेन्डशिप स्वीकार है। यह रिश्ते को घोलने का आग्रह है या संपर्क सूत्र जोड़ने का, उस बच्चे से तो पूछ नहीं सकता। वैसे चाचा, ताऊ, मामा, फूफा, अपरिचित (जिसे बन्दा न कह सकें) सब 'अंकल' में पहले ही घुल चुके हैं, अब भाई-भतीजे घुलकर, पीढ़ियां फ्रेन्ड बन जाएं, उनमें मैत्री स्थापित हो जाए तो हर्ज क्या, लेकिन इस भाईचारा और जनरेशन गैप में घाल-मेल न हो, बस। (क्या करें, वय वानप्रस्थ दृष्टि वाली मेरी पीढ़ी, चिंता करने के लिए कोई न कोई मुद्‌दा खोज ही लेती है।)

बार-बार पटरी बदलते अब आ गया टर्मिनल, बस आखिरी पंक्ति। आपको ऐसी किसी जानकारी की जरूरत आन पड़े तो आजमा कर देखें बिना गूगलिंग हमारे गंवई गूगल सर्च, रवीन्द्र सिसौदिया जी को, रिश्ते में पितामह, इस फ्रेन्ड का फोन नं. +919406393377 है।

पुनश्च-
आशुतोष वर्मा जी ने जानकारी दी है कि जबलपुर के कवि, नर्मदा प्रसाद खरे (उनके नानाजी) ने 1950 के दशक मे यह कविता लिखी थी। इस कविता को सबसे पहले 1960 के दशक में मध्यप्रदेश की प्राथमिक शिक्षा के लिए कक्षा 4 की बाल भारती में शामिल किया गया था। 

Monday, November 8, 2010

रेलगाड़ी

आगरा स्‍टेशन। पिछले दिनों उत्‍कल एक्‍सप्रेस से सफर में विदेशी नजारा देख रहे थे और फोटू पर फोटू खींचे या उतारे जा रहे थे। हम उड़न तश्‍तरी की तरह (लेकिन हाइवे पर नहीं पलेटफारम पर) नजारे का नजारा देख रहे थे। माजरा कुछ समझ में नहीं आ रहा था हमारे। हम सोच रहे थे कि किस देश के अनाड़ी हैं, क्‍या इनके देश में रेलगाड़ी नहीं होती। फिर लगा सोचना समझना बाद में घर पहुंचकर कर लेंगे, अभी तो अनुकरण पद्धति अपनाते हुए हम भी चमका दें, अपना भी तो है, भारी-भरकम न सही, मोबाइल वाला। घर आकर भूल गए कि कब क्‍या जमा कर लिया है। मोबाइल की गैलरी में फोटो देखते हुए समझ में नहीं आया तो स्‍क्रीन पर बड़ा करके देखा। पहले फोटू में तो भजिया-पकौड़ी का मिरची और केचप सहित कुछ मामला दिखा। कैद की तरह सलाखों से हाथ बाहर निकल रहे हैं। ये खिड़की ... ओह ... शीशा निकल गया है, तो अब टॉयलेट काम का तो रहा नहीं, चलो, लोगों ने बेकार नहीं छोड़ा, काम में ले लिया, अपने लिए जगह बना ली।

दूसरे चित्र में भी कुछ यही चल रहा है, लेकिन यहां बंदूक वाले खाकी वरदी की भी दखल है, याद आया वह भी कुछ लेन-देन कर रहा था, शायद भजिया या कुछ और पता नहीं, लेकिन फोटो में दाहिने खाकी वरदी में उसके जिस सहयोगी की झलक है, वह पहले भोक्‍ता को टकटकी लगाए दृष्‍टा की तरह सारे कार्य-व्‍यापार पर नजर रखे है। 'द्वा सुपर्णा ... ' चलिए, चलिए बहुत हो गया, आपको आंखों देखी बताने के चक्‍कर में हमारी ट्रेन न छूट जाए। लेकिन ये फिरंगी बेकार में कैमरा क्‍यों चमकाते हैं जी, आप ही बताइये।

इसी सफर के एक फेरे में हमराही थे, कोलकाता मुख्‍यालय वाले 'भारत सेवाश्रम संघ' के 80 पार कर चुके स्‍वामी जी। बच्‍चों सी कोमल-चपलता लेकिन सजग, मोबाइल पर फोन सुनते, भक्‍तों सहित सहयात्रियों का लगातार ख्‍याल रखते हुए। रेलगाड़ी के एसी डिब्‍बे में उनके असबाब में हाथ-पंखा, बाने के साथ उनका अभिन्‍न हिस्‍सा लगता था, आप भी देखिए फोटू में ऐसा लगता है क्‍या।

पुछल्‍लाः

पत्रकारनुमा एक ब्‍लॉगर मित्र का कहना था कि क्‍या गरिष्‍ठ पोस्‍ट लगाते रहते हो, कुछ तो हो पढ़ने लायक। फिर उदारतापूर्वक उन्‍होंने समझाया कि ''कहीं जाते-आते हो, राह चलते मोबाइल का कैमरा चटकाते रहो, घर पर आराम से बैठ कर सब फाटुओं को देखो, एक से एक बढि़या पोस्‍ट बनेगी। अरे हमारे साथी तो इस टेकनीक से एक्‍सक्‍लूसिव खबरें बना लेते हैं, पोस्‍ट क्‍या चीज है।'' मित्र, निरपेक्ष किस्‍म के सर्व-शुभचिंतक हैं, उन पर भरोसा भी है, इसलिए उनके सुझाव और टेकनीक का पालन करते हुए यह पोस्‍ट-जैसा तैयार किया है। हे मित्र ! यह आपको समर्पित करते हुए निवेदन कि आपके निर्देशनुमा सुझाव का उचित पालन हुआ हो तो टिप्‍पणी में आकर कृपया इसे स्‍वीकार करें।

(रश्मि रविजा जी का मेल है 14 नवम्‍बर, बाल दिवस के लिए संस्‍मरण लिख भेजने का, इसीसे शायद वह भी सध जाए।)