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Tuesday, November 16, 2010

माधवराव सप्रे

माधवराव सप्रे 
19.06.1871-23.04.1926
'एक टोकरी भर मिट्टी' हिन्दी की पहली मौलिक कहानी मान्य किए जाने से हिन्दी साहित्य में पं. माधवराव सप्रे का विशिष्ट स्थान बन गया, लेकिन इसके चलते वर्तमान पीढ़ी में सप्रे जी की पहचान 'हिन्दी की पहली कहानी वाले' के रूप में सीमित हो गई, इसके लिए यह पीढ़ी नहीं, परिस्थितियां जिम्मेदार हैं, क्योंकि सप्रे जी की रचनाएं कुछ शोधार्थियों और खास लोगों की पहुंच तक सिमट गई थी।

पिछले दिनों देवी प्रसाद वर्मा 'बच्‍चू जांजगीरी' (फोन-07715060769) द्वारा संपादित, 'माधवराव सप्रे, चुनी हुई रचनाएं' प्रकाशित हुई, इसलिए यह उपयुक्त अवसर है कि सप्रे जी की रचनाओं के माध्यम से उस व्यक्ति का पुनरावलोकन हो, ताकि आजादी के दीवाने इस कलमकार की जाने-अनजाने सीमित हो गई पहचान से अलग, उनकी वृहत्तर प्रतिभा का आकलन कर, उससे प्रेरणा ली जा सके।

साढ़े तीन सौ पृष्ठ के इस ग्रंथ के मुख्‍य चार खंड हैं, जिनमें दो में सप्रे जी की पुस्तकें- 'स्वदेशी आन्दोलन और बायकॉट' तथा 'जीवन संग्राम में विजय प्राप्ति के कुछ उपाय' हैं, शेष दो ऐतिहासिक समालोचना और कहानियां हैं, जैसा शीर्षक से स्पष्ट है, ये सप्रे जी के कृतित्व की चुनी हुई रचनाएं हैं, किंतु यह सार्थक चयन, सप्रे जी के सृजन संसार और उनके व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करने में सक्षम है, विद्यानिवास मिश्र द्वारा लिखी भूमिका के साथ-साथ सम्पादक ने सप्रे जी की जीवनी भी प्रस्तुत की है।

द्वितीय खंड में जीवन संग्राम...., आत्म विकास और चरित्र निर्माण की प्रेरक पुस्तक है। पुस्तक का निहित लक्ष्य, स्वतंत्रता संग्राम में विजय प्राप्ति के लिए पूरी पीढ़ी को तैयार करने का झलकता है। प्रथम तीन अध्यायों के बाद, स्वावलंबन अध्याय का आरंभ, मानस की प्रसिद्ध पंक्ति 'पराधीन सपनेहुं सुख नाही' से किया गया है। पूरी पुस्तक में आदर्श, सच्चरित्रता, नैतिकता, राष्ट्रीयता और विनम्र दृढ़ता की सीख, सप्रे जी के व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित कर उनकी लेखकीय सिद्धहस्तता को भी उजागर करती है। एक अन्‍य उल्‍लेख - उन्होंने फरवरी 1901 में 'ढोरों का इलाज' पुस्तक के लिए लिखा कि ''जो कुछ हमने इस पुस्तक के विषय में लिखा है, सो क्या है! महाशय, वह ठीक समालोचना नहीं है। आप चाहें तो उसे एक प्रकार का विज्ञापन कह सकते हैं।'' ऐसी पारदर्शी साहसिकता का नमूना पत्रकारिता में मिल सकता है, विश्वास नहीं होता।

ग्रंथ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण खंड 'स्वदेशी आन्दोलन और बायकॉट' है। लगभग पूरी सदी के बाद भी इस पुस्तक की प्रासंगिकता और प्रभाव कम नहीं है, किसी समाज के प्रति उपनिवेशवादी दुरभिसंधिपूर्ण महिमामंडन और खोखले नारे प्रचारित कर किस प्रकार उसे दमन का साधन बनाया जाता है, यह सप्रे जी ने 'भारत एक कृषि प्रधान देश है' नारे में देखा है, जिस महिमामंडन को धीरे से फतवे जैसा इस्तेमाल कर इस देश के परम्परागत शिल्प, तकनीक, कला और व्यवसाय को नष्ट किया गया (आज भी छत्तीसगढ़ को 'धान का कटोरा' स्थापित कर दिए जाने जैसी स्थितियों से यह खतरा बना हुआ है) यही स्थिति जुलाहे-बुनकरों के साथ है, जिनकी तत्कालीन समस्याओं से निर्मित स्थिति के कारण यह 'बायकॉट' लिखी गई, लेखन का अद्‌भुत कौशल भी इस रचना में दिखता है, आज भी रोमांच पैदा कर देने वाली शैली की एक विशेषता यह भी है, कि स्वदेशी और बायकॉट को लेकर लिखे पचास पृष्ठों में दुहराव की वजह से नीरस एकरसता नहीं बल्कि उद्‌देश्य के प्रति दृढ़ता बढ़ती जाती है। सप्रे जी की इस रचना में उनके व्यक्तित्व में गांधीवादी संयत जिद, आत्म अनुशासन की कठोरता के साथ संतुलित उत्तेजना कितनी तीक्ष्ण हो सकती है, महसूस किया जा सकता है।

सप्रे जी के व्यक्तित्व का सामाजिक सरोकार इतना गहरा है कि वे घोषणा करते हैं ''मुझे मोक्ष प्यारा नहीं, मैं फिर से जन्म लूंगा'' पुस्तक पढ़ते-पढ़ते सप्रे जी के जीवन्त और उष्म स्पन्दन का एहसास होने लगता है। ऐसी प्रासंगिक कृति का लगातार प्रचलन में न रहने का अफसोस है, तो इस स्वागतेय प्रकाशन की उपलब्धता ही स्वयं में रोमांचकारी है।

टीप :

मार्च 1999 में श्री रमेश नैयर जी (फोन-9425202336) दैनिक भास्कर, रायपुर के अपने कार्यालय में बता रहे थे- जनवरी 1900 में छत्तीसगढ़ के पेन्ड्रारोड से प्रकाशित होने वाली हिंदी मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' के बारे में। पं. माधवराव सप्रे जी की इस पत्रिका के अप्रैल 1901 के अंक में 'एक टोकरी भर मिट्‌टी' छपी थी, पत्रिका का मुद्रण रायपुर के कय्यूमी प्रेस, जो आज भी कायम है, से आरंभ हुआ। इस पत्रिका और कहानी के साथ नैयर जी ने बायकॉट की चर्चा की। मैंने कहा कि बायकॉट का नाम ही सुनने-पढ़ने को मिलता है, पुस्तक तो मिलती नहीं, इस पर उन्‍होंने तपाक से यह किताब निकाल कर न सिर्फ दिखाई, पढ़ने को भी दे दी। वापस लौटाते हुए छोटा सा नोट उन्हें सौंपा, जो उस दौरान दैनिक भास्कर और नवभारत समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ। लगभग जस का तस यहां पोस्ट बना कर बिना दिन-वार का ध्यान किए लगा रहा हूं। यह मान कर कि नित्य स्मरणीय सप्रे जी की चर्चा के लिए तिथि-प्रसंग आवश्यक नहीं।

इस बीच पं. माधवराव सप्रे साहित्य-शोध केन्द्र, रायपुर (फोन-9329102086 / 9826458234) के प्रयासों से सप्रे साहित्य पुनः प्रकाशित हो रहा है, लेकिन इसमें कितनों की रुचि है, कौन पढ़ रहा है, मालूम नहीं ? कभी लगता है कि 'दांत हे त चना नइ, चना हे त दांत नइ।

25 comments:

  1. भोपाल में माधवराव सप्रे स्‍मृति संग्रहालय एवं पुस्‍तकालय में लगातार आना जाना होता रहा था। पर पहली बार उनकी किसी कृति से परिचय हुआ। शुक्रिया।

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  2. परिचय का आभार। पुनः जन्म लेने की जीवटता से ही जीवन सिद्ध है। मा पलायनम्।

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  4. अक्सर, पहले से ना पढी हुई पुस्तक की समालोचना पढकर टिपियाते हुए झिझक सी होती है ! समालोचक की अपनी नज़र अपना मंतव्य होता है तो फिर हम क्या कहें , का धर्म संकट ?

    हमारे दिलों में सप्रे जी की छवि और ख्याति पहले ही एक खास मकाम रखती है ! तो शेष केवल इतना रह जाता है कि सद्य प्रकाशित पुस्तक उनके जीवन और रचना कर्म के अनछुए पहलुओं को प्रकाशित कर पाये !

    फिलहाल इस पुस्तक का एक महत्व ये भी नज़र आ रहा है कि 'यश' की छुई अनछुई स्‍मृतियों को सहेज लेना भी ऐतिहासिक कार्य साबित हो सकता है !

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  5. आदरणीय सप्रे जी के विराट व्‍यक्तित्‍व की झलक को समेटे इस कृति से परिचय कराने के लिये धन्‍यवाद भईया।
    पं. माधवराव सप्रे साहित्य-शोध केन्द्र, रायपुर से इस पुस्‍तक को प्राप्‍त कर समय रहते ही, हम भी बायकाट के संबंध में सप्रे जी की दृष्टि में स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन को देखना चाहेंगें। ... नहीं तो हमें भी कहना पड़ेगा ''दांत हे त चना नइ, चना हे त दांत नइ।''

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  6. सप्रे जी के नाम से समझ पाता हूँ
    " लगभग सौ साल पहले का युग,समाज और उसका सुर.एक तरह से जड़ों की तरफ लौटना" .
    सुधि पाठकों के लिए आनंद की बात.
    रोमांच होता है जान कर कि पेंड्रा
    जैसी छोटी जगह से पत्रिका निकली जा रही थी

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  7. ‘मुझे मोक्ष प्यारा नहीं, मैं फिर से जन्म लूंगा‘- सप्रे जी का यह कथन एक साहित्यकार के रूप में समाज सेवा के प्रति उनकी निष्ठा और ललक को दर्शाता है। उनके साहित्य के प्रकाशन से वर्तमान की तीनों पीढ़ियों को लाभ होगा, ऐसी आशा करता हूं। ...आपके माध्यम से बहुत कुछ जानने का अवसर मिल रहा है...शुभकामनाएं।

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  8. बहुत ही उपयोगी जानकारी। अभी तक मैं भी माधवराव सर्पे जी को केवल हिंदी का पहला कहानीकार समझता था। लेकिन वे उससे भी कहीं आगे बढ़कर साहित्य के साथ साथ हिंदी जगत के मील के पत्थर है। इस सारगर्भित व संग्रह योग्य जानकारी के लिए बधाई।

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  9. राहुल जी, सच कहूँ तो सप्रे जी के बारे में नहीं जानता था। उस दिन आपसे बातचीत के दौरान इनकी इसी पंक्ति ’मुझे मोक्ष....’ का जिक्र किया तो सप्रे साहब के बारे में जानने की उत्कंठा भी हुई और अपने अज्ञान पर क्षोभ भी।
    सही में ऐसी विभूतियाँ नित्य-स्मरणीय होती हैं, हमारा नमन पहुंचे।

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  10. मेरे लिए तो यह सर्वथा नया और अब तक अज्ञात-अनजान विश्‍व ही है। सप्रेजी के बारे में अब तक केवल यही तालूम रहा है कि वे पत्रकारिता से जुडे हुए थे।
    आपकी यह पोस्‍ट तो न केवल संग्रहणीय हक्‍ अपितु अपने आप में एक सन्‍दर्भ है।

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  11. rahul bhai, khoob mehanat karate hain aap. chhattisgarh ke mahan logon ke baare men mahan paramparaon k baare mey duniya bhar ko batane ke liye yah achchha madhyam hai.

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  12. सुनो कहानी:पंडित माधवराव सप्रे की "एक टोकरी भर मिट्टी"
    http://podcast.hindyugm.com/2010/01/listen-tokri-bhar-mitti-by-madhavrao.html

    यहाँ से आप कहानी का mp3 डाउनलोड कर सकते हैं
    http://www.archive.org/download/EkTokriBharMitti/sapre-mitti.mp3

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  13. @ अली जी,
    जी हां, आपने सही फरमाया. वैसे किसी किताब पर लिखते हुए समीक्षा के बजाय अपनी भंगिमा रसास्‍वाद book appreciation का रखना चाहता हूं, दो कारणों से, पहला यह कि समीक्षा लिखना आता नहीं और उसका तौर-तरीका कभी सीखना भी नहीं चाहा. दूसरा, प्रयास यह होता है कि कुछ महत्‍वपूर्ण उद्धरण दिए जाएं, जिससे पढ़ने वाला अगर कृति से परिचित नहीं तो नमूने सहित खुद उसके बारे में जान कर अपनी राय बना सके. इसीलिए मेरी टिप्‍पणी या धारणा किस आधार पर है, यथासंभव संक्षेप में, स्‍पष्‍ट उल्‍लेख करना चाहता हूं. अंततः अकेले-अकेले रसास्‍वाद भोग लेने के अपराध-बोध से उबरने के लिए यह दूसरों पर जाहिर कर देना ही मेरे इन प्रयासों का मकसद होता है.

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  14. सप्रे साहब के बारे में कभी दस बारह पंक्तियां पढ़ी थीं.. आपने काफी जानकारी दी... धन्यवाद.

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  15. Sapre saheb ke bare mein purn jankari mili.Well done.

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  16. चना अऊ दांत दूनो हवय ,फेर खवईया मन के सुआद अऊ सुभाव दूनो म बहुतेच फरक आगे हे. एला बदले के उदिम आप मन असन ज्ञानी-ध्यानी मन करहीं ,त कुछु न कुछु रद्दा मिलबे करही . सप्रे जी के सुरता म सुग्घर लिखे हव. बहुतेच बहुत बधाई. आपके लिखई ह टापो-टाप चलत हवय . खूब लिखव.

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  17. ऐतिहासिक महत्त्व की जानकारी दी है आपने .बधाई .

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  18. पहली बार जाना इनके बारे में, आभार आपका !

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  19. आप का ब्लॉग पड़ कर बहुत कुछ सीखने को मिला
    धन्यवाद

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  20. एक महान साहित्यकार से परिचय कराने के लिए आभार।

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  21. छत्तीसगढ़ के धरोहर के बारे में आपने प्रेरणादायी जानकारी दी . धन्यवाद !

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  22. सप्रे जी पर केन्द्रित इस पुस्तक को हासिल कर जरूर पढ़ना चाहूंगा। उनकी कहानी इस लिंक पर पढ़ी जा सकती है-
    http://sarokaar.blogspot.com/2008/06/blog-post_17.html

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  23. काफी ज्ञान वर्धन हुआ. माधव राव सप्रे जी के बारे में तो जानता था, एक्स्वतान्त्रता संग्राम सेनानी के रूप में. उनकी रचनाओं से अनभिग्य था. वैसे साहित्य में मेरी रूचि भी नहीं थी. आभार.

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