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Sunday, July 2, 2023

लाल साहब डॉ. इन्द्रजीत सिंह

04 फरवरी 2007 को लाल साहब डॉ. इन्द्रजीत सिंह की 101 वीं जयंती समारोह के अवसर पर डॉ. इन्द्रजीत सिंह स्मृति न्यास, अकलतरा, जिला-जांजगीर-चांपा, छत्तीसगढ़ द्वारा फोल्डर वितरित किया गया, जिसका लेख उदय प्रताप सिंह जी चंदेल ने तैयार किया था। अकलतरा उच्चतर माध्यमिक शाला, जो अब राजेन्द्र कुमार सिंह उच्चतर माध्यमिक शाला है, के प्राचार्य होने के नाते उस दौर में ‘प्रिसिपल साहब‘ उनके नाम का पर्याय था। शालेय पत्रिका ‘सलिला‘ में प्रतिवर्ष उनकी ‘प्राचार्य की लेखनी से - उ. सि. चंदेल‘ हम सबकी प्रेरणा का स्रोत होता था। स्कूल के बाद वे हमारे कोसा वाले कक्का थे।

बहुमुखी प्रतिभा और प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी इन्द्रजीत सिंह जी का जन्म अकलतरा के सुप्रसिद्ध सिसौदिया परिवार में 5 फरवरी 1906 को हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा और बाल्यकाल पिता राजा मनमोहन सिंह और माता श्रीमती कीर्तिबाई की स्नेह छाया में अकलतरा में हुई। माता-पिता के प्यार-दुलार में पले-बढ़े इकलौते पुत्र होने के कारण किशोर वय में ही आप परिणय सूत्र में बंध गए। 15 जनवरी 1920 को आपका विवाह ग्राम ठठारी के प्रतिष्ठित परिवार के श्री जबर सिंह की पुत्री शान्ती देवी से हो गया। आपकी ऊंचाई 6 फीट से अधिक, काया चुस्त और सुदर्शन थी।

1924 में आपने बिलासपुर से मैट्रिक की परीक्षा पास की। आगे की शिक्षा के लिए इलाहाबाद गए और फिर कलकत्ता जाकर प्रतिष्ठित रिपन कॉलेज में प्रवेश लिया। बंगाल हॉस्टल में रहते हुए 1931-32 में छात्रावास के अध्यक्ष रहे। स्नातक परीक्षा 1934 में पास की। कलकत्ता रहते हुए आपने बांग्ला के साथ संस्कृत और लैटिन भाषाएं सीखीं। इन शास्त्रीय भाषाओं पर आपको अच्छा अधिकार था, जो आपके शोध-लेखन में परिलक्षित होता है। छत्तीसगढ़ जनजातीय-लोक संस्कृति और आर्थिक व्यवस्थापन, आपकी विशेष रुचि का क्षेत्र था। कलकत्ता और फिर लखनऊ में अध्ययन करते हुए आपकी रुचि को मानों दिशा मिल गई। यही क्षेत्र आपकी उच्च शिक्षा का विषय बना।

लखनऊ विश्वविद्यालय से आपने अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की और 1936 में वकालत की परीक्षा पास की। आगे पढ़ाई जारी रखते हुए ‘गोंड़ जनजाति के आर्थिक जीवन‘ को अपने शोध का विषय और गोंड़वाना पट्टी को, जिसके केन्द्र में ‘बस्तर’ था, अध्ययन क्षेत्र बनाया। आपका यह शोध कार्य देश के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. राधाकमल मुकर्जी व भारतीय मानव विज्ञान के पितामह डॉ. डी. एन. मजूमदार के मार्गदर्शन और सहयोग से पूर्ण हुआ तथा आपका शोध ‘द गोंडवाना एण्ड द गोंड्स‘ 1944 में प्रकाशित हुआ। गहरे और व्यापक शोध के निष्कर्ष अनुसार ‘जनजातीय समुदाय के उत्थान और विकास का कार्य ऐसे लोगों के हाथों होना चाहिए, जो उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक व्यवस्था को पूरी सहानुभूति सहित समझ सकें।‘

अपने प्रकाशन के समय से ही यह पुस्तक दक्षिण एशियाई मानविकी संदर्भ ग्रंथों में बस्तर-छत्तीसगढ़ तथा जनजातीय समाज के अध्ययन की दृष्टि से अत्यावश्यक महत्वपूर्ण ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है। शोध कार्य के दौरान क्षेत्र भ्रमण में अधिकतर फोटोग्राफी भी स्वयं करते थे। ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया‘ पत्रिका में इस ग्रन्थ की समीक्षा पूरे महत्व के साथ प्रकाशित हुई थी। चालीस के दशक में बस्तर अंचल में किया गया क्षेत्रीय कार्य न सिर्फ किसी छत्तीसगढ़ी, बल्कि किसी भारतीय द्वारा किया गया सबसे व्यापक कार्य माना गया है। इस दुरूह और महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपको इग्लैण्ड की ‘रॉयल सोसाइटी‘ ने इकॉनॉमिक्स में ‘फेलोशिप‘ प्रदान किया।

वॉलीबाल, फुटबाल, हॉकी व टेनिस आपके पसंदीदा खेल थे। अवकाश के दिनों में अकलतरा में रहने के दौरान आप नियमित खेलों का अभ्यास करते थे, यही कारण था कि उस जमाने से अकलतरा जैसे कस्बे में खेल का माहौल रहा। आपका निशाना अचूक था और वन तथा वन्य प्राणियों के व्यवहार की सूक्ष्म समझ थी। हिंसक जंगली जानवरों के आतंक से छुटकारा पाने के लिए पीड़ित ग्रामवासी शिकार के लिए आपको आमंत्रित करते रहते। आपने दर्जनों बाघ, तेन्दुआ, भालू, मगर जैसे खूंखार जानवरों का शिकार किया।

राजनैतिक क्षेत्र में भी आप छात्र जीवन से ही सक्रिय थे। श्री रफी अहमद किदवई, श्री उमाशंकर दीक्षित आदि आपके सहपाठी थे। 1931 में लोकल काउंसिल के चुनाव में प्रत्याशी पिता राजा मनमोहन सिंह मुख्य संचालक रहे, इस चुनाव में राजा साहब लैण्ड होल्डर्स चुनाव क्षेत्र से विजयी हुए। चुनाव के दौरान दाऊ कल्याण सिंह से सहयोग मिला और यह आपसी सौहार्द सदैव बना रहा। कांग्रेस की तत्कालीन युवा पीढ़ी के संपर्क में आए और कांग्रेस सदस्यता ग्रहण की। 1936 के लखनऊ अधिवेशन में आप तथा श्री भुवन भास्कर सिंह, युवा सदस्य के रूप में शामिल हुए और 28 मार्च 1936 को पं. नेहरू ने महात्मा गांधी से आपकी 15 मिनट की अंतरंग मुलाकात कराई, यही वह पल था जहां वे गांधी जी से गहरे रूप से प्रभावित हुए फलस्वरूप सविनय अवज्ञा आंदोलन में विदेशी कपड़ा जलवा कर खादी का वितरण कराया। सक्रिय राजनीति में भाग लेते हुए आप डॉ. ज्वालाप्रसाद, ठाकुर प्यारेलाल सिंह व डॉ. खूबचन्द बघेल के सम्पर्क में आए। आप राजनीतिक और निजी संबंधों में सदैव तालमेल रखते थे। ‘हमारे छेदीलाल बैरिस्टर‘ पुस्तक में उल्लेख है कि- रिश्ते में बैरिस्टर साहब के भतीजे लाल साहब 1937 के चुनाव में उनके प्रतिद्वन्द्वी थे, लेकिन बैरिस्टर साहब जब जेल में थे, तब वे बराबर घर आते, सबका कुशल-क्षेम पूछते, वक्त-बेवक्त दवा आदि देकर सहायता करते।

आपके शोध के दौरान ही पिता राजा मनमोहन सिंह का देहावसान 1942 में हो गया। पैतृक सम्पत्ति की देखरेख के साथ ही सार्वजनिक जीवन में आपकी गतिविधियां बढ़ती गईं। मालगुजारी के वन क्षेत्र का व्यवस्थापन में आपकी विशेष रुचि थी। 1943 में एस. बी. आर. कॉलेज, बिलासपुर के संस्थापक उपाध्यक्ष बने। आगे चलकर अकलतरा में हाई स्कूल और बिलासपुर में क्षत्रिय छात्रावास की स्थापना के लिए सक्रिय रहे। आपके प्रयासों से 1950 में छत्तीसगढ़ अंचल में प्रथम विशाल क्षत्रिय महासभा का आयोजन हुआ। छत्तीसगढ़ के सहकारिता आंदोलन में आपका योगदान अविस्मरणीय है। आप बिलासपुर ‘सेन्ट्रल को-ऑपरेटिव बैंक‘ के आजीवन संचालक रहे। आपकी प्रेरणा और मार्गदर्शन से अकलतरा में बैंक की शाखा खुली, जिसके आप आजीवन अध्यक्ष रहे। ‘मल्टी-परपज सोसाइटी‘, अनंत आश्रम, मुलमुला के संस्थापक सचिव रहे। उच्च प्रतिष्ठा, कानून की डिग्री और न्यायप्रियता के कारण ‘ऑनरेरी मजिस्ट्रेट‘ मनोनीत होकर, कार्य करते हुए आपने पद की गरिमा बढ़ाई।

1947-48 में आपने इंग्लैण्ड सहित कई यूरोपीय देशों की यात्रा कर अनुभव का विशाल भण्डार साथ लाये। आपकी प्रतिभा और अनुभव को देखते हुए श्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा ने आपको जांजगीर जनपद सभा का अध्यक्ष मनोनीत किया, इस पद पर आप आजीवन निर्विवाद बने रहे। यह कुशल प्रबंधन का परिणाम था कि आपकी मृत्यु के समय लोक कल्याणकारी कार्यों में अग्रणी रहने के बावजूद जनपद सभा, जांजगीर की जमा राशि लगभग दो लाख रूपये थी और यह मध्यप्रान्त की सुदृढ़ सभा थी। कृषि संबंधी जानकारी और प्रशासनिक योग्यता को देखते हुए 1949 में प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर खानखोजे की अध्यक्षता में गठित ‘एग्रीकल्चरल पॉलिसी कमेटी‘ के आप सदस्य मनोनीत हुए और इसे सार्थक बनाया। आल इण्डिया रेडियो, नागपुर से कृषि, आंचलिक और जनजातीय विषयों पर आपकी वार्ताएं प्रसारित होती थीं।

छत्तीसगढ़ की पहचान, दिशा और अस्मिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी सदैव महसूस करते रहे। कलकत्ता और लखनऊ प्रवास के दौरान अंग्रेजी अखबार ‘हितवाद‘ का नागपुर संस्करण डाक से मंगाकर पढ़ते तथा समकालीन, आंचलिक घटनाक्रम पर बराबर नजर रखते। छत्तीसगढ़ी में बातचीत करने में आप गर्व अनुभव करते थे। आपने सहृदयतावश छात्र जीवन में भी गुप्त रूप से छात्रों की पढ़ाई के लिए आर्थिक मदद पहुंचाई। जिसे आश्वासन दिया, उसे सदैव पूरा ही किया। स्पष्टवादी किन्तु सौम्य और संतुलित व्यवहार का ही प्रभाव था कि आपके निकट आये व्यक्ति सदैव आपके होकर रहे। आपके पुत्रों ने 1954 से आपकी स्मृति में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रतिवर्ष मानव शास्त्र में सर्वाधिक अंक पाने वाले छात्र के लिए स्वर्ण पदक की व्यवस्था की है।

आपके पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह, सत्येन्द्र कुमार सिंह तथा डॉ. बसंत कुमार सिंह ने अपने-अपने कार्य क्षेत्र में सक्रिय रह कर ख्याति अर्जित की। वर्तमान में पुत्री बीना देवी का निवास नरियरा में है और कनिष्ठ पुत्र धीरेन्द्र कुमार सिंह सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं।

धार्मिक और सामाजिक गतिविधियां आपके जीवन और कर्म के प्रमुख बिन्दु थे। प्रत्येक मंगलवार को व्रत और बरगवां के हनुमान जी की पूजा, आपका अटूट नियम रहा। अंचल के अनुष्ठानों में आपका योगदान अपूर्व रहता था। सांकर, कुटीघाट आदि स्थानों में आयोजित यज्ञों के प्रमुख व्यवस्थापक रहे। विक्रम संवत् 2000 समाप्त होने के उपलक्ष्य में रतनपुर में नियोजित श्री विष्णु महायज्ञ की स्थायी में समिति के आप उपाध्यक्ष थे। आपके साथ अन्य उपाध्यक्ष पं. सखाराम पंत, सेठ मोतीचंद, पं. सदाशिव रामकृष्ण शेंडे, श्री होरीलाल गुप्त तथा पं. बापूसाहब शास्त्री थे। शिवरीनारायण मंदिर और मठ से आपका सम्पर्क बराबर बना रहा, जिसका आधार मंदिर परिसर में स्थित पारिवारिक राम-जानकी मंदिर था। मठ के लिए परिवार द्वारा धर्मशाला बनवाकर अर्पित की गई। महंत लालदास जी और व्यवस्थापक श्री कौशल प्रसाद तिवारी को मठ-मंदिर की सभी गतिविधियों के लिए उदार और सक्रिय सहयोग दिया करते थे।

कार्य की व्यस्तता और लोक दायित्वों के प्रति गहरे समर्पण ने आपको शरीर के प्रति विरक्त बना दिया, इससे 1950 में हृदय रोग से पीड़ित हो गए। डाक्टरों द्वारा में विश्राम की सलाह के बावजूद निरन्तर जनकल्याण कार्यों में लगे रहे और प्रथम आम चुनाव के समय जिले का व्यापक दौरा किया। आपका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया और 26 जनवरी 1952 को बिलासपुर ‘ऑफिसर्स क्लब‘ में अंतिम सांस ली। लाल साहब की पुण्य स्मृति को सादर नमन्।

पुनश्च-

इस लेख के साथ ‘पूरक जानकारी‘ के रूप में हस्तलिखित मसौदा ‘अतिरिक्त जानकारी जिसे उक्त लेख यथास्थान समाहित किया जावे’ टीप सहित मिला है, जो इस प्रकार है-

वे जितने लोकप्रिय- किसान, मजदूर, छोटे व्यापारी आदि में थे, उतने ही लोकप्रिय अधिकारियों और व्यवसायियों के बीच भी थे। जिले के कलेक्टर, पुलिस कप्तान और अन्य बड़े अफसरों से भी उनके नजदीकी संबंध थे। उस समय के जिलाधीश श्री एम. एस. चौधरी (जो आगे चल पुराने म.प्र. के मुख्य सचिव हो कर अवकाश ग्रहण किये) श्री पी.जी. घाटे, पुलिस कप्तान (जो आगे चल कर महाराष्ट्र से आइ. जी., पुलिस हो कर अवकाश ग्रहण किये), बिलासपुर थे। प्रसिद्ध ठेकेदार श्री चुन्नीलाल मेहता, नगर के प्रसिद्ध व्यवसायी सेठ बच्छराज बजाजआदि से उनके पारिवारिक संबंध रहे। सक्ती के राजा बहादुर लीलाधर सिंह और सारंगढ़ नरेश राजा जवाहिर सिंह तथा रायगढ़ नरेश राजा चक्रधर सिंह आदि, कई जमींदार (पंडरिया, कन्तेली, कोरबा आदि) उनके अभिन्न मित्रों में थे।

उनके इसी प्रतिभा, योग्यता और मिलनसारिता के कारण उन्हें बिलासपुर ऑफिसर्स क्लब की आजीवन सदस्यता प्रदान की गई थी, जो उस समय एक दुर्लभ और प्रतिष्ठापूर्ण बात थी। बिलासपुर शहर और जिले के इने गिने लोगों को यह गौरवपूर्ण सदस्यता प्राप्त थी।

वे बहुत अच्छे शिकारी भी थे। उनका निशाना अचूक हुआ करता था। परंतु यह उनका शौक था। उसे व्यवसाय नहीं बनाया वरन इसे लोक सेवा का माध्यम माना। उस समय बलौदा के आसपास घने जंगल हुआ करते थे। यहां सरकारी रिजर्व फारेस्ट हुआ करते थे। जैसे दल्हा, पहरिया, सोंठी, कटरा और आसपास की पहाड़ियां की पहाड़ियां भी जंगलों से आच्छादित रहते थे, जहां जंगली जानवर, शेर तेंदुआ, चीता, भालू, सुअर, हिरण आदि आदि काफी संख्या में रहते थे। ये जानवर कई बार जंगल के बीच के गांव आकर जान माल का नुकसान करते थे। पालतू जानवर और फसल का नुकसान आम करते या कभी-कभी ये खूंखार जानवर शेर, चीता, भालू आदि जन-धन की हानि उतारू हो जाते थे। ऐसे अवसर पर गांव वाले सम्मानपूर्वक उन्हें आमंत्रित कर ले जाते थे और वे वहां कैम्प कर खूंखार जानवरों के भय से उन्हें मुक्ति दिलाते थे। उनके रहते आसपास के जंगली गांव के लोग अपने को सुरक्षित पाते थे। कई बार सरकार की ओर से भी इन्हें खूंखार जानवरों के शिकार के लिए भेजा जाता था। इसी कारण बलौदा इलाके के अधिकांश बड़े गांवों के प्रमुख लोगों से मित्रता थी और कई लोगों से पारिवारिक संबंध थे।
(इसी तारतम्य में वैन इंजेन एंड वैन इंजेन का हवाला, जिसने घर में रखे जानवरों को सुरक्षित रखने के लिए तैयार किया है।)

उच्च शिक्षा और संस्कारित शिक्षा उनकी प्रथम प्राथमिकता थी और यही कारण रहा जब उनके ज्येष्ठ पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह (आगे चल कर कुमार साहब के नाम से प्रसिद्ध हुये) बिलासपुर के प्रसिद्ध गव्हर्नमेंट हाई स्कूल से मेट्रिक पास किए तो उन्हें एनी बेसेंट कॉलेज, बनारस भेजा गया। उच्च शिक्षा के लिए साथ ही साथ उन्होंने इलाके के शिक्षानुरागी लोगों को अपने परिचितों को भी उच्च शिक्षा के लिए बनारस भेजने के लिए प्रेरित किया। तदनुसार अकलतरा के कई प्रतिष्ठित परिवारों के लड़के तो गए ही, जिले के प्रसिद्ध मालगुजार श्री सुधाराम जी साव ने भी अपने पुत्रों को उच्च शिक्षा के लिये बनारस भेजा। यही नहीं सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह ने भी इनकी प्रेरणा से अपने कई नजदीकी लोगों को इनके माध्यम से बनारस पढ़ने के लिये भेजा।

वे सही मायने में अर्थशास्त्री थे। वे केवल एम.ए. अर्थशास्त्र कर अर्थशास्त्र के शास्त्रीय ज्ञाता मात्र नहीं थे वरन उस ज्ञान को आपने व्यावहारिक जामा भी पहनाया था। वे अपने घरू आर्थिक स्थिति को चुस्त दुरुस्त तो किये ही, कई परिवारों को आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद और मार्गदर्शन दिया। क्षेत्र के अच्छे अच्छे व्यापारी, ठेकेदार, बड़े किसान इनके मार्गदर्शन से लाभान्वित हुये थे। बम्बई, कलकत्ता की कई व्यावसायिक घरानों में इनकी अच्छी पकड़ थी।

जनपद सभा, जांजगीर के प्रथम अध्यक्ष तो थे ही। जनपद सभा वित्त समिति के अध्यक्ष भी थे। इन दोनों जिम्मेदारियों का निर्वहन आपने इतने लगन, निष्ठा और ईमानदारी से निर्वहन किया कि उस समय पूरे मध्यप्रदेश में जांजगीर जनपद सभा सबसे व्यवस्थित और मालदार, धनी संस्था थी। उनके निधन (1952) के समय जनपद सभा के खाते में 2 लाख रुपए जमा थे।

जीवन के अंतिम दिन तक भी वे समाज हित की सोचते रहे थे जिस दिन निधन हुआ उसी दिन सुबह की गाड़ी से सक्ती गये थे। उद्देश्य था राजा साहब सक्ती लीलाधर सिंह से मिल कर प्रेस खोलना, जहां से जन साधारण के लिये अखबार निकाला जा सके। हमेशा की भांति अकलतरा से डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्र, खास मित्र उनके साथ हो लिये थे। उन्हें शाम की गाड़ी से बिलासपुर लौटना था। जैसे इनकी सक्ती यात्रा और लौटने की जानकारी शहर (अकलतरा) में मिली, शाम को ट्रेन के समय अकलतरा रेल्वे स्टेशन में सैकड़ों कार्यकर्ता और शुभचिंतकों की भीड़ लग गई। जैसे गाड़ी सक्ती से आ कर प्लेटफार्म में रुकी, नारों से पूरा स्टेशन गूंज गया। लोगों की भीड़ देख कर उन्हें गाड़ी से उतरना पड़ा, सब लोगों से मिले। श्री सम्मत सिंह और ज्येष्ठ पुत्र राजेन्द्र कुमार सिंह से अलग अलग कुछ मंत्रणा की और अगले दिन बिलासपुर से लौटने की बात कह फिर गाड़ी में सवार हो गये। इन्हीं सब कारणों से उस दिन पैसिंजर गाड़ी भी करीब 10 मिनट प्लेटफार्म में खड़ी रही। उस दिन की भीड़ में लेखक लेखक भी वहीं मौजूद था, परंतु वहां उपस्थित लोगों को क्या मालूम था कि यह उनका अंतिम दर्शन था।

रात्रि के करीब 8-9 बजे बिलासपुर से टेलीफोन पर डाकखाने में (क्योंकि उस समय घरों में टेलीफोन की व्यवस्था नहीं थी) सूचना आई कि आफिसर्स क्लब में उन्हें दिल का दौरा आया। उस समय सिविल सर्जन डॉ. काले? भी उपस्थित थे पर उन्हें बचाया नहीं जा सका, उनका पार्थिव शरीर ठा. छेदीलाल बैरिस्टर के बिलासपुर स्थित बंगले में लाया जा रहा है। यह समाचार जंगल की आग की तरह पूरे अकलतरा शहर में फैल गया। जैसे ही मध्य रात्रि के बाद उनके मृत शरीर को अकलतरा लाया गया, सैकड़ों की संख्या में महिला पुरुष बच्चे उनके घर और उसके आसपास जमा थे। तिल रखने की जगह नहीं थी। जैसे तैसे उनके निष्प्राण शरीर को मोटर से उतारा गया। इसी दिन अंतिम विदा तथा क्षेत्र के सारे लोग अंतिम दर्शन व विदाई के लिए एकत्र हुये। और मृतक आत्मा को अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित की।

यहां आई जानकारियों और तथ्यों के मिलान के लिए पोस्ट अकलतरा के सितारे, लाल साहब और लाल साहब पुनः भी देख लेना चाहिए।

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