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Wednesday, October 26, 2022

पुनः खरौद

खरौद, पुनः खरौद और शिवरीनारायण। उन्नीस सौ अस्सी आदि दशक के दौरान इन दोनों स्थानों पर बार-बार जाते हुए, नोट्स लेता रहा था, वह सब मिला-जुला कर एक विस्तृत लेखनुमा शोधपत्र की तैयारी थी। अब जो, जितना, जैसा था, उनमें से दूसरा, ‘पुनः खरौद‘ प्रस्तुत-

घुमक्कड़राम की डायरी

मंदिरों के कस्बे - खरौद में

बिलासपुर-शिवरीनारायण मार्ग पर शिवरीनारायण से तीन किलोमीटर पहले बाईं ओर सड़क व्यपवर्तन है। यह पक्की सड़क ढाई किलोमीटर दूर तक चली जाती है। इस सड़क पर चलते हुए, खरौद कस्बे को पार करते हुए खरौद के एक छोर, मिसिर तालाब तक पहुंचा जा सकता है, यहीं तालाब के किनारे सड़क के बाईं ओर पत्थर की ऊंची चहारदीवारी दिखलाई पड़ती है इसके अंदर है प्रसिद्ध लक्ष्मणेश्वर मंदिर, जो इस क्षेत्र के पांच प्राचीन और प्रसिद्ध शिवलिंग मंदिरों में से एक है; अन्य है- फिंगेश्वर के फिंगेश्वर, राजिम के कुलेश्वर, सिरपुर के गंधेश्वर और रतनपुर के बूढ़ा महादेव (बेगलर रिपोर्ट 1873-74)।

यह स्थान और इसका निकटवर्ती क्षेत्र दंतकथाओं में रामकथा के पात्रों और स्थानों नामों से संबंधित किया जाता है खरौद के साथ एक रोचक दंतकथा भी प्रचलित है, जिसमें इस स्थान का नाम रावण के भाइयों, खर और दूषण से व्युत्पन्न माना जाता है। प्राचीन स्मारक उसके अवशेष और तत्संबंधी जिज्ञासा विभिन्न दन्तकथाओं को जन्म देते हैं, एक दत्तकथा लक्ष्मणेश्वर मंदिर के निर्माण के साथ भी जुड़ी है, जिसमें बताया जाता है कि लक्ष्मण के क्षयरोग की मनौती के फलस्वरूप, उन्होंने इस मंदिर का निर्माण कराया। इसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि जिस प्रकार राम ने रामेश्वरम स्थापित किया, उसी तरह लक्ष्मण ने यहां लक्ष्मणेश्वर स्थापित किया था।

यह मंदिर लगभग 12 फुट ऊंचे चबूतरे पर निर्मित है चबूतरे से इसकी प्राचीन का अनुमान होता है किन्तु मंदिर अपनी बाहिरी संरचना से सर्वथा नवीन जान पड़ता है। पूर्वाभिमुख इस मंदिर तक पहुंचने के लिए पूर्व की ओर सीढ़ियां हैं। चबूतरे पर पहुंच कर स्पष्ट अनुमान होता है मंदिर और उसकी चतुर्दिक रचनाएं पुनर्संरचित हैं और इन्हीं पुनर्संरचनाओं के आधार पर मंदिर के पंचायतन होने का भी अनुमान होता है। पंचायतन अर्थात ऐसा मंदिर, जिसमें मुख्य मंदिर के चारों किनारों पर चार उप-मंदिर हों। मंदिर की दशा अब ऐसी है, जिससे प्राचीन या वास्तविक मंदिर के रूप का क्षीण अनुमान ही हो पाता है। उप-मंदिरों, जो संख्या तीन हैं, में विभिन्न मूर्तियां बाद में लाकर जड़ी गई हैं। इनमें एक जैन मूर्ति पटल, कुछ अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां तथा उपासक की एक रोचक मूर्ति है। उपासक की मूर्ति के नीचे पादपीठ पर मूर्तिलेख है, जिसमें व्यक्ति नाम ‘दामोदर‘ स्पष्ट पढ़ा जा सकता है। बताया जाता है कि ये प्रतिमाएं किसी व्यक्ति को गढ़ के अंदर खुदाई करते हुई प्राप्त हुई थीं।

मंदिर के अंदर जाने पर मंडप की बाईं दीवार पर सूचना की दृष्टि से महत्वपूर्ण अभिलेख है जिस पर 933 चेदि संवत (सन 1182) अंकित है, जिसमें कलचुरि नरेश रत्नदेव तृतीय और उसके प्रधानमंत्री गंगाधर का उल्लेख है। मंडप की दाहिनी दीवार पर भी अभिलिखित प्रस्तर खण्ड जड़े हैं, जिसकी लिखावट अस्पष्ट है। कहा जाता है कि गोरा साहबों को मंदिर के खजाने का पता न मालूम हो जाए इस उद्देश्य से छेनी का प्रहार कर उसे अस्पष्ट कर दिया गया, किन्तु उसमें पाण्डुवंशी दो राजाओं इन्द्रबल और ईशानदेव का नाम पढ़ लिया गया है, जो लगभग छठीं-सातवीं शताब्दी के नृपति माने जाते हैं।

मंदिर में गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर दोनों पार्श्वों में दो मूर्तियां हैं, जो अपने वाहनों मकर व कच्छप से गंगा और यमुना के रूप में पहचानी जा सकती है। मंदिर का गर्भगृह अष्टकोणीय है, जिसमें अष्टकोणीय लिंग स्थापित है, किन्तु इसका रूप छिद्रयुक्त है, जिससे पानी भरा रहता है। इसे लिंग के रूप में पहचाना जा सकना कठिन है। कहा जाता है कियह लिंग लक्षरंध्रयुक्त है, लगभग 75 सेंटीमीटर व्यास वाले इस लिंग व छिद्रों को अनन्त बताया जाता है। ये छिद्र प्राकृतिक परिवर्तन के फल जान पड़ते हैं।

मंदिर अब तक पूजित है, महाशिवरात्रि को आराधक ‘लाख चाऊर‘ अर्थात एक लाख चावल के अक्षत दाने चढ़ाते हैं। महाशिवरात्रि के दिन ही सुहागन स्त्रियां परिक्रमा करते हुए अपने सुहाग की परीक्षा भी करती हैं। इसके लिए वे, गर्भगृह की पश्चिमी दीवार के देवकोष्ट-आले में कंकड़ फेंकती है, जिसकी कंकड़ आले में रुक जाता है, वह स्त्री अखंड सुहागवती मानी जाती है। मंदिर में गणेश, उमामहेश्वर, गरुड़ तथा राजा रानी की मूर्तियां भी हैं, जो 11-12 शताब्दी की प्रतीत होती हैं। मंदिर का निर्माण काल पुरातत्व विभाग की सूचना के अनुसार 8 वीं शताब्दी है।

इस विस्तृत कस्बे के अन्य छोर पर भैरवाइन डबरी है, जिसके किनारे एक मंदिर है, यह मंदिर, एक मूर्ति को सुरक्षित करने हेतु ग्रामवासियों द्वारा कुछ वर्षों पूर्व ही बनवाया गया है। मूर्ति ग्रामवासियों द्वारा भैरव बाबा के रूप में पूजित है। खड़ी हुई- स्थानक यह प्रतिमा, दिगम्बर है, और अजानबाहु है, मूर्ति के ऊपर छत्र है, जिसमें दो हाथी अभिषेक करते दिखाए गए हैं। सिर के पीछे पद्मपत्र-सदृश प्रभामण्डल है, मानवाकार यह प्रतिमा संभवतः किसी जैन मुनि या तीर्थंकर की है।

इसके बाद मैं इन्दल देव मंदिर की ओर प्रस्थान करता हूं, संभव है यह नाम इन्द्रबलदेव से व्युत्पन्न हो। यह मंदिर भी कस्बेके एक छोर पर स्थित है और पश्चिमाभिमुख है, ईटों के इस मंदिर की रचना अत्यंत आकर्षक दिखाई देती है, यह मंदिर भी एक ऊंचे चबूतरे पर निर्मित है। इसके प्रवेश द्वार का अलंकरण नयनाभिराम है। पार्श्वों पर लगभग पूरे द्वार के आकार की गंगा-यमुना को सुदर मूर्तियां हैं। प्रवेश द्वार के उपर नाग-कन्याएँ व नाग-पुरुष हैं। दो नागकन्याएं हाथ जोड़े, उपासना की मुद्रा में हैं, साथ ही ब्रह्मा, शिव-पार्वती और गरुड़ारूढ़ विष्णु हैं। गर्भगृह में कोई मूर्ति स्थापित नहीं है, किंतु संभवतः यह मंदिर शिव को समर्पित रहा होगा। गभगृह से शिखर की अंदरी बनावट, जो स्तूप कोणाकार है, स्पष्ट होती है। मंदिर की परिक्रमा करते हुए ईंटों पर बारीक उकेरन का काम दिखलाई पड़ता है। चैत्यगवाक्ष बनाए गए हैं, और कुछ आकृतियां ही स्पष्ट हो पाती हैं, जिसमें एक लम्बोदर गणेश की व कुछ अन्य गजारोही व अश्वारोही मानव आकृतियां हैं। 

कस्बे के लगभग प्रारंभ में ही सौंराई मंदिर है, मैं पुनः उसी ओर वापिस होता हूं। रास्ते में दाहिनी ओर एक गली में मेरी निगाह जाती है, और मैं ठिठक जाता हूं। पत्थर पर उकेरे सिंदूर लगे तीन सर्प-युग्म दिखाई पड़ते हैं। पास पहुंचने पर यह ज्ञात होता है कि यह महामाई मंदिर है। मंदिर का दरवाजा बंद है, फलस्वरूप में अंदर प्रविष्ट नहीं हो पाता, किन्तु बाहर ही मुझे कुछ रुचिकर पाषाण-खंड दिखाई दे जाते हैं। इनमें से एक, किसी स्तंभ का खंड है, जिस पर अत्यंत बारीक अलंकरण है, कुछ अन्य मूर्तियां हैं, जो मानव-वक्ष और आसन प्रतीत हो रही हैं। 

पुनः, सौंराई मंदिर की ओर अग्रसर होता हूं। यह भी ईंटों से निर्मित मंदिर है, और सौंराई देवी के रूप में पूजित है। मंदिर के सामने कुछ सुंदर किंतु खंडित मूर्तियाँ छोटे से खुले मंडप में रखी हुई हैं। मंदिर के अंदर प्रविष्ट होने पर स्तंभयुक्त मंडप दिखलाई पड़ता है। संभवतः इन स्तंभों की संख्या सोलह रही होगी। इनमें से मात्र तीन स्तंभ ही प्राचीन जान पड़ते हैं। स्तंभों पर नारी मूर्तियाँ तथा धनुर्धारी, जो द्वारपाल जान पड़ते हैं, लगी हैं। एक मूर्ति के पादपीठ के नीचे कुबेर व कौबेरी स्पष्ट पहचान में आ रहे हैं। प्रवेश द्वार के उपर आकर्षक अंकन है जिसमें गरूड़ को दोनों हाथों से सर्प पकड़े दिखाया गया है। गरुड़ के पंख स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, और अनुमान होता है कि मंदिर विष्णु या विष्णु परिवार के किसी देवता का रहा होगा। गर्भगृह की मूर्ति को आवरण पहना दिया गया है, जिससे अब उसकी पहचान कर पाना कठिन है। मंदिर के बाहर एक आकर्षक मूर्ति अर्धनारीश्वर की है। मंदिर की बाहिरी दीवार पर इन्दलदेव की भांति ही उकेरन रहा होगा पर वर्तमान में अलंकारण की बारीकियां स्पष्ट नहीं हैं। 

कई टीले हैं और कुछ घरों में मूर्तियां हैं, जो चबूतरे में स्थापित कर ली गई हैं, पुरातत्व की दृष्टि से यह कस्बा सम्पन्न तो है ही किन्तु यदि इन टीलों की खुदाई हो और कस्बे में बिखरी विभिन्न मूर्तियों का विधिवत अध्ययन हो तो संभव है। इस क्षेत्र के प्राचीन इतिहास पर और भी प्रकाश पड़ेगा। 

इस कस्बे के अपने सहयोगी शेखर जी से मैं विदा लेता हूं और अपने सहयात्री रवीन्द्र जी के साथ खरौद की स्मृति लिए वापस लौट आता हूं।

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