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Tuesday, October 25, 2022

खरौद

खरौद, पुनः खरौद और शिवरीनारायण। उन्नीस सौ अस्सी आदि दशक के दौरान इन दोनों स्थानों पर बार-बार जाते हुए, नोट्स लेता रहा था, वह सब मिला-जुला कर एक विस्तृत लेखनुमा शोधपत्र की तैयारी थी। अब जो, जितना, जैसा था, उनमें से पहला, ‘खरौद‘ प्रस्तुत-

सदियों से मानव के जीवन यापन का क्षेत्र, और वह भी यदि ऐतिहासिक कला-साधना की तपोभूमि भी रहा हो, अवश्य ही सहज आकर्षण का केन्द्र होगा। वर्तमान खरौद ऐसी ही पवित्र भूमि पर बसा है और इसका आकर्षण भौगोलिक स्थिति के कारण और भी प्रबल हो जाता है। अन्य लोगों सहित मेरी भी यह धारणा है कि नदी तट का क्षेत्र व निवासी, विशेषकर यदि वह संगम क्षेत्र का हो, मनो-भौगोलिक कारणों से स्वाभाविक ही उसका विकास उदारचेता व्यक्ति के रूप में होता है। विशालता, उदात्तता और विस्तृत सोच का समावेश उसके व्यक्तित्व में सरलता से दिखाई देता है और ऐसे व्यक्तियों का कृतित्व अपनी कला-संस्कृति को अभिव्यक्त व विकसित कर, सुदीर्घं अवधि तक युग चेतना को आह्लाद और दिशा-निर्देश प्रदान करता है। इस क्षेत्र का विशिष्ट पुरातात्विक स्थल खरौद भी ऐसा ही स्थान है। 

यों तो खरौद में इतिहास की झांकी अत्यंत प्राचीन काल से मिलने लगती है। यहाँ के ध्वस्त-उजड़े गढ़ के धरातल की ही प्राप्तियों के आधार पर उस भूमि पर सभ्यता का इतिहास २६०० साल से भी अधिक पुराना माना जाता है, किन्तु व्यवस्थित उत्खनन अथवा विशिष्ट प्राप्तियों जैसे- सिक्के, ठीकरे आदि के लगभग अभाव के कारण, इसकी तिथि-सीमा निश्चित किया जाना संभव न हो सका है। परन्तु साथ ही यह भी संभावना है कि संबंधित संस्थाओं, व्यक्तियों एवं ग्रामवासियों की जागरुकता व प्रयास से निश्चय ही ऐसे प्रमाण प्रकाश में आ सकते हैं, जिससे खरौद तथा साथ ही साथ इस क्षेत्र के ऐतिहासिकता की स्पष्ट रूपरेखा निर्धारित की जा सके।

पुरातत्व की दृष्टि से खरौद के गढ़ का विशेष महत्व है। यह इस क्षेत्र के लगभग सौ गढ़ों में से एक है, जिनकी स्पष्ट विवेचना अब तक नहीं हो सकी है तथा छत्तीसगढ़ के पुरातल में जिनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण समझी जाती है। लक्ष्मणेश्वर मंदिर के निकट का विशाल भू-भाग खाई से घिरा हुआ है यद्यपि वर्तमान में यह खाई स्थान-स्थान पर टूट गई है, किन्तु खाई (परिखा) की वृत्ताकार रेखा का अनुमान अब भी स्पष्टतः होता है। गढ़ क्षेत्र में पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण, उन्नत व विस्तृत टीले हैं तथा पूरे गढ़ क्षेत्र के धरातल पर टूटे-फूटे मिट्टी के बर्तन, धातु मल व कहीं-कहीं किसी संरचना के अस्पष्ट चिन्ह देखे जा सकते हैं। लगभग इसी क्षेत्र से सागर विश्वविद्यालय के सर्वेक्षण दल को मिट्टी के बर्तन का विशिष्ट टुकड़ा प्राप्त हुआ था, जिसके आधार पर डा. श्यामकुमार पान्डेय ने इस क्षेत्र की प्राचीनता chalcolithic होने की संभावना व्यक्त की है, किन्तु ऐसे अन्य प्रभावों की अभी भी प्रतीक्षा है, जिनसे यह संभावना, निश्चय में परिवर्तित हो सके।

‘खरौद‘ शब्द की व्युत्पत्ति एवं गढ़ के अस्तित्व में घनिष्ट संबद्धता मानी जा सकती है। इस शब्द का विग्रह ‘खर+उद्‘ किया जा सकता है, यहां ‘उद‘ शब्द का विशेष महत्व है। इस क्षेत्र के विभिन्न सर्वेक्षणों तथा बन्दोबस्त-जनगणना रपटों आदि में उदश् अन्त वाले ग्राम नामों को विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है, जहाँ ‘उद‘ का तात्पर्य ‘जल‘ से है। खरौद निवासी पं. नन्हेंप्रसाद द्विवेदी ने भी लगभग यही व्युत्पत्ति सुझाई है। इस संदर्भ में इस विशेष संयोग की ओर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है कि ‘उद्‘ अन्त नाम वाले ग्रामों से अधिकांशतः मिट्टी के गढ़ों (धूलि दुर्ग) की सूचना प्राप्त होती है। सागर विश्वविद्यालय ने अपने सर्वेक्षणों के आधार पर पूर्व में इन गढ़ों को ‘आटविक‘ प्रकार के दुर्ग ठहराया था, किन्तु अब डा. पान्डेय ने स्वयं अपने मत में परिवर्तन करते हुए उन गढ़ों का ‘औद्यक दुर्ग‘ होना स्वीकार किया है। डा. पान्डेय अपने हाल के सर्वेक्षणों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इन गढ़ों की प्राचीनता २६००-२७०० साल की है, अपने मत की प्रामाणिकता हेतु उन्होंने भी गढ़ क्षेत्रों का उत्खनन आवश्यक माना है।

‘खरौद‘ की उपर्युक्त व्युत्पत्ति यदि मान्य होती है और ‘उदान्त‘ नाम वाले ग्रामों की संबद्धता ‘औद्यक दुर्गों‘ से स्वीकार कर ली जाती है, तो प्रचलित ‘खर$दूषण‘ से व्युत्पत्ति का मत स्वतः अमान्य करना होगा। वैसे भी धर्म-पुराणों पर आधारित दन्तकथाओं की तुलना में प्रत्यक्ष पुरातात्विक प्रमाण की मान्यता ही अधिक श्रेयस्कर है, किन्तु पुरातात्विक विवेचना में भी गढ़ों का शास्त्र सम्मत पूर्ण परीक्षण आवश्यक है।

खरौद गढ़ का व्यवस्थित इतिहास प्रकाश में नहीं आया है अतः यहां के मंदिरों के निर्माता शासकों व गढ़ प्रशासन की सम्बद्धता पर निश्चित टिप्पणी संभव नहीं है, किन्तु बाद के काल (लगभग अठारहवीं सदी ई.) में खरौद गढ़ के महत्व की सूचना प्राप्त होती है, जो अंग्रेजी शासन के आरंभ तक रही, जब खरौद छत्तीसगढ़ (तब छत्तीसगढ़ का मुख्यालय क्रमशः रतनपुर व बिलासपुर तथा रायपुर रहा, बाद में दो भिन्न जिला मुख्यालय बिलासपुर व रायपुर बने) का प्रमुख परगना था। तत्कालीन खरौद व अन्य प्रशासनिक ईकाइयों पर डा. प्रभुलाल मिश्र ने सविस्तार विवेचना की है। अंग्रेजी शासन के दौरान ही खरौद की प्रशासनिक इकाई के स्थान पर शिवरीनारायण तहसील मुख्यालय बनाया गया, जो सन् 1885 की बाढ़ के पश्चात् जांजगीर स्थानान्तरित हो गया।

इस प्रकार दो निकटस्थ प्राचीन धार्मिक स्थलों खरौद व शिवरीनारायण की महत्ता में महानदी की भूमिका अनुमानतः निर्णायक रही। महानदी को बहाव, प्राचीन काल में वर्तमान की अपेक्षा संभवतः बायीं ओर हटकर था अथवा बाढ़ के बहुधा प्रकोप से नदी के निकटतम स्थल शिवरीनारायण के स्थान पर खरौद धार्मिक स्थल के रूप में स्थापित हुआ और संभवतः भौगोलिक परिवर्तनों से अनुकूल स्थिति बनने पर नदी के निकटतम स्थल, शिवरीनारायण का विकास हुआ। यही कारण हो सकता है, जिसके फलस्वरूप खरौद में सातवीं-आठवीं सदी ई. के पुरावशेष बहुलता से प्राप्त होते हैं जबकि शिवरीनारायण की ज्ञात लगभग समस्त सामग्रियों की प्राचीनता दसवीं सदी ई. से अधिक नहीं। इसी संदर्भ में यह उल्लेख भी आवश्यक है कि खरौद-शिवरीनारायण, जगन्नाथ पुरी, प्राचीन तीर्थयात्रा मार्ग का महत्वपूर्ण पड़ाव था।

संगम क्षेत्र और उसकी धार्मिक महत्ता के विकास में इस स्थल का इतिहास सोमवंशी काल (लगभग सातवीं सदी ई.) से आरंभ हुआ माना जा सकता है। सोमवंशी शासकों द्वारा इस स्थान पर अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया, जिनमें से मात्र लक्ष्मणेश्वर, इन्दल देउल व शबरी ही विद्यमान हैं। खरौद के शेष स्मारक जो स्थानीय पिछली पीढ़ी की स्मृतियों में है अथवा बेग्लर की रिपोर्ट (सन् 1873-74) में उल्लिखित हैं, वर्तमान में नष्टप्राय हैं। इनमें से एक, कथित सूर्य मंदिर का उल्लेख अवश्य किया जा सकता है। इन मंदिरों को दृष्टिगत करते हुए, यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि खरौद तत्कालीन, अत्यंत विशिष्ट धार्मिक स्थल तो था ही, जो कोसली (तारकानुकृति) मंदिर स्थापत्य शैली के ईंटों के मंदिर-केन्द्र के रूप में आज भी देश का अद्वितीय केन्द्र है।

खरौद के तीन प्रमुख मंदिरों का काल अब तक सुनिश्चित नहीं हो सका है। इनमें से लक्ष्मणेश्वर मंदिर आठवीं सदी ई. का माना गया है। अन्य दो मंदिरों का काल सातवीं सदी ई. माना जाता है, किन्तु इनमें कौन सा अधिक प्राचीन है, यह निर्विवाद नहीं है। एक अमरीकी शोधकर्ता डोनाल्ड एम. स्टेडनर ने इन्दल देउल का काल ई. सन 650-660 तथा शबरी मंदिर का काल ई. सन् 700-710 निर्धारित किया है। लक्ष्मणेश्वर मंदिर के मंडप में जड़े एक सोमवंशी अभिलेख से यह सूचना प्राप्त होती है कि ईशानदेव ने लक्ष्मणदेव के मंदिर का निर्माण कराया और महामहोपाध्याय वासुदेव विष्णु मिराशी ने इस मंदिर को वर्तमान लक्ष्मणेश्वर मंदिर मानते हुए ईशानदेव की तिथि ई. सन् 540 निर्धारित की है। इस प्रकार इस मंदिर का निर्माण काल छठीं सदी ई. में पड़ता है। लक्ष्मणेश्वर मंदिर के उक्त शिलालेख में एक अन्य शासक इन्द्रबल का नाम प्राप्त हुआ है इस व्यक्ति नाम से इन्दल देडल की नाम-व्युत्पत्ति की समीक्षा भी रोचक आधार बन सकती है।

इन मंदिरों के काल निर्धारण संबंधी मतों की सूक्ष्म विवेचना भविष्य के शोध का विषय हो सकता है किन्तु यहां इतना कहना कि इन मंदिरों का निर्माण क्रम शबरी, इन्दल देऊल, लक्ष्मणेश्वर मंदिर, अधिक विश्वसनीय प्रतीत होता है।

क्रमानुसार विवरण में प्रथमतः शबरी मंदिर, जिसके संबंध में मान्यता स्वरूप शबरी और राम के जूठे बेर का प्रसंग, प्रचलित है अतः यह आदिवासी देवता से संबंधित माना जाता है किन्तु मंदिर के गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा की पहचान अत्यधिक, वस्त्र अलंकरण के कारण निश्चित नहीं हो पाती किंतु यह अनुमानतः महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा का खंड है और प्रतिमा का शीर्ष भाग ही संभवतः मंदिर के बाहर एक छोटे से छतयुक्त चबूतरे पर स्थापित है। मंदिर का प्रवेश द्वार अत्यंत आकर्षण है। नाग- युग्म अलंकरण से रचे अभिकल्प का संतुलन देखते ही बनता है। प्रवेश द्वार के बीचों बीच ललाट-बिंब पर गरुड़ की आकृति उत्कीर्ण है। ललाट-बिंब पर गरुड़ की उपस्थिति से मंदिर वास्तु के शास्त्रीय निर्देशों के अनुसार संभव है कि मंदिर मूलतः वैष्णव रहा हो। प्रवेश द्वार पर ही उपर दोनों पार्श्वों में दो नारी आकृतियां हैं, एवं द्वार पार्श्वों पर ही मूल में भी दो नारी आकृतियां है। इन आकृतियों की पहचान आसानी से नदी-देवियों, गंगा एवं यमुना के रूप में की जा सकती है। इसके पश्चात मंडप की संरचना की चर्चा में पहले पर स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मंदिर का यह भाग पुनर्संरचित है।

मंडप में अर्द्धस्तंभों पर विभिन्न प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं, जिनमें से दो प्रतिमाएं शिव गण अथवा शैव द्वारपाल के रूप में पहचानी जा सकती हैं। एक प्रतिमा सिंहवाहिनी दुर्गा की है। एक अन्य नारी प्रतिमा पादपीठ पर मकर अंकित होने के कारण गंगा के रूप में पहचानी जा सकती है। शेष तीन प्रतिमाएं, जिनमें दो पुरुष व एक नारी प्रतिमा है, की पहचान राम, लक्ष्मण व सीता के रूप में की गई है। कथित राम-लक्ष्मण की प्रतिमाओं को सूक्ष्मता से देखने पर प्रतिमाओं के वक्ष पर कवच व पैर उपानहयुक्त (जूतों से ढके) दिखाई पड़ते हैं, जिनसे संभावना प्रकट की जा सकती है कि ये प्रतिमाएं सूर्य के अनुचर या पार्श्व देवता हो सकते हैं। यदि इन प्रतिमाओं को सूर्य परिवार से संबंधित माना जाता है तो खरौद में सूर्य मंदिर की उपस्थिति तथा शबरी मंदिर का लोक प्रचलित नाम ‘सौंराई‘ जो ‘सौर‘ शब्द का अपभ्रंश हो सकता है, आदि अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इससे खरौद सौर सम्प्रदाय के एक विशिष्ट स्थल के रूप में दर्ज किया जा सकता है।

मंदिर के बाहर रखी व्याघ्रचर्मधारी अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा संतुलित और आकर्षक है। मंदिर, भू-योजना में ताराकृति तथा ईंटों से निर्मित होने के कारण भारतीय स्थापत्य कला का विशिष्ट उदाहरण माना जाता है। संदर्भवश शिवरीनारायण की दो प्रतिमाओं की विवेचना भी आवश्यक है, जो वहां मुख्य मंदिर के अन्तराल में दोनों पार्श्वों में स्थापित हैं। ये दोनों आदमकद प्रतिमाएं, विष्णु के आयुध पुरुष अर्थात शंख एवं चक्र पुरुष हैं। शिरोभाग पर शंख व चक्र का अंकन अत्यंत रोचक है। ये प्रतिमाएं शबरी मंदिर के उक्त गण या द्वारपाल प्रतिमाओं के ही समरूप है।

इन्दल देउल मंदिर की योजना भी ताराकृति है और यह मंदिर भी ईंटों से निर्मित है, किन्तु मंदिर के चारों ओर आलों (चैत्य गवाक्ष अथवा कुडु) में विभिन्न प्रतिभाएं यथा- गणेश, नरसिंह आदि अब तक स्पष्ट पहचान में आती हैं। इन्दल देउल मंदिर का चबूतरा अथवा जगती, शबरी मंदिर की तुलना में भिन्न है। शबरी मंदिर को चबूतरे की ऊंचाई कम व विस्तार अधिक है जबकि इन्दल देउल का चबूतरा अधिक ऊंचा व कम विस्तृत है। इस मंदिर में विशेष महत्व की गंगा-यमुना की प्रतिमाओं का है, जो तत्कालीन भारतीय कला में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। इन प्रतिमाओं का प्रवेशद्वार की तुलना में आकार और अलंकरण सौंदर्य, दोनों ही विशिष्ट प्रकार का है। अतः भारतीय कला की प्रामाणिक पुस्तकों में इनकी चर्चा की गई है। भारतीय मंदिर वास्तु पर स्टेला क्रैमरिश ने स्तुत्य कार्य किया है, इनकी पुस्तक ‘द हिन्दू टेम्पल्स‘ में इन प्रतिमाओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि खरौद के इन्दल देउल की गंगा यमुना प्रतिमाएं पूरे प्रवेश द्वार की ऊंचाई की हैं और उन्होंने इसे विशिष्ट माना है। भारतीय हिन्दू प्रतिमा शास्त्र पर प्रामाणिक कार्य टी.ए. गोपीनाथ राव का माना गया है। उन्होंने अपनी पुस्तक में चित्र सहित इन प्रतिमाओं का विवरण दिया है। इस पुस्तक में अधिकांश दक्षिण भारत के ही प्रतिमा उदाहरणों का समावेश किया गया है। शेष भारत के ऐसे ही अद्वितीय उदाहरणों को सम्मिलित किया गया है। नदी देवियों की इन प्रतिमाओं के पार्श्व से भित्ति बाहर की ओर निकलती है जो वर्तमान में अंशतः शेष है किन्तु इससे अनुमान होता है कि मंदिर संरचना में मंडप आदि उपांग भी थे, जो अब नष्ट हो गये हैं।

लक्ष्मणेश्वर मंदिर का मंडप भी शबरी की भांति पुनर्संरचित है, जिसमें दो प्राचीन शिलालेख जड़े हैं। गर्भगृह का हिस्सा भी परवर्ती काल में अंशतः परिवर्तित है। इसी तरह अनुमान होता है कि यह मंदिर भी मूलतः ईंटों से निर्मित संरचना है जिसे बाद के काल में प्लास्टर से ढक दिया गया है। मंदिर के गर्भगृह में अष्टकोणीय शिवलिंग मूलतः विद्यमान है किन्तु ‘लैटराइट‘ पत्थर का होने के कारण जलवायुगत प्रभाव के कारण रन्ध्रयुक्त हो गया है और इसके संग लक्षरंध्रयुक्त होने की मान्यता जन-विश्वास में प्रबल हो गई है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर अन्य दोनों मंदिरों की भांति किन्तु भिन्न प्रकार से नदी देवियों का अंकन है। यहां प्रवेशद्वार की ऊंचाई दो भागों में विभक्त है, जिसके निचले भाग पर द्वारपाल व उपरी भाग पर गंगा व यमुना को उनके वाहनों क्रमशः मकर व कच्छप पर स्थित दिखाया गया है। मंदिर के प्रवेश द्वार के समक्ष मंडप दो स्तम्भ है। इनमें से एक स्तंभ पर रामकथा के दृश्य व सर्प अलंकरण युक्त है। जबकि दूसरे स्तंभ पर शैव धर्म से संबंधित उकेरन है। यह मंदिर धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्व है।

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