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Sunday, February 27, 2011

मर्दुमशुमारी

उन्नीस सौ साठादि के दशक में, जब पहली दफा मेरी गिनती हुई होगी, पहले-पहल सुना- मर्दुमशुमारी। एकदम नये इस शब्द को कई दिनों दुहराता रहा। कुछ ऐसे शब्द होते हैं, खास कर जब वे आपके लिए नये हों, सिर्फ मुख-सुख के लिए बार-बार उचारने को मन करता है। बाद में जान पाया कि इसका अर्थ है- मनुष्यों की गिनती और वो भी पूरे देश के सभी लोगों की, फिर सिर्फ इतना नहीं घर-मकान भी और न जाने क्या-क्या गिन लिया जाता है।

बाद में थोड़ी और जानकारी हुई तब लगा कि यह अंगरेजों के दिमाग की उपज होगी, वे ऐसे ही काम करते हैं। हमारे देश में सौ-एक साल पहले उनके द्वारा कराया भाषा सर्वेक्षण, दुनिया का सबसे बड़ा सर्वेक्षण माना जाता है। लेकिन फिर पता लगा कि यह काम तो मुगलों के दौरान भी होता था। यह भी कि ईसा मसीह का जन्म जनगणना के दौरान हुआ और उससे भी पहले कौटिल्य ने राज-काज में मनुष्यों की गिनती को भी गिनाया है। मेरा आश्‍चर्य बढ़ता गया।

इन दिनों की बात। 2011 की इस पंद्रहवीं जनगणना में जाति आधारित गणना की चर्चा होती रही, जिससे यह समझा जा सकता है कि आंकड़े थोथे या निर्जीव नहीं होते, उनके उजागर होने की संभावना भी आशंका और विवाद पैदा कर सकती है, कैसे सत्‍य-आग्रही हैं हम। इस जनगणना में पहली बार जैवमिति (बायोमैट्रिक) जानकारी एकत्र की जा रही है, जिसका दूसरा दौर पूरा होने को है। जनगणना का एक ब्‍लॉग, रोचक है ही। इस जनगणना पर डाक टिकट भी जारी हुआ है। 

जनगणना के पहले दौर में जिस पथ-प्रदर्शक बोर्ड की मदद से मैं इसके कार्यालय का रास्ता तलाश रहा था, वहां भी जनगणना हावी था। जनगणना कार्यालय पहुंचने पर मुहल्ला मकान क्रमांक और जनगणना मकान क्रमांक, एक फ्रेम में देखना रोचक लगा।

1991 की जनगणना में हमलोग सरगुजा जिले के उदयपुर-सूरजपुर मार्ग पर 22 वें किलोमीटर पर भदवाही ग्राम में थे। इस जनगणना के विस्‍तृत प्रारूप और पूछे जाने वाले कुछ निजी किस्‍म के प्रश्‍नों पर तब खबरें गर्म होती रहती थीं। हमारे वरिष्‍ठ सहयोगी और कैम्‍प प्रभारी रायकवार जी को चिन्‍ता रहती कि हमारी गिनती कौन, कहां और कैसे करेगा। इस अभियान में गिने जाने से चूक तो नहीं जाएंगे। प्रगणक, सरकारी आदमी जान कर हमसे अपना सुख-दुख बांटते। उनलोगों ने बताया कि इस क्षेत्र में जुड़वा संतति बड़ी संख्‍या में है और प्रारूप में इसे कैसे दर्ज किया जाए, समझ में नहीं आ रहा है। खैर, तब हम सबकी गिनती हो गई, प्रगणकों की समस्‍या भी हल हो गई होगी।

इस जनगणना के दौर में स्थानीय अखबार में 5 फरवरी को छपी एक खबर देख कर याद आई जुड़वों और जनगणना की। समाचार का शीर्षक है ''जुड़वा बच्चे पैदा होने का रिकार्ड बनाया देवादा ने'' समाचार के अनुसार दुर्ग जिला मुख्‍यालय से 12 किलोमीटर दूर स्थित गांव में 13 जुड़वा हैं। समाचार की एक पंक्ति है- ''देवादा निवासी संतूलाल, झल्लूलाल और किशोरीलाल सिन्हा तीनों सगे भाई हैं। तीनों के यहां जुड़वा बच्चे हैं। जुड़वा बच्चे पैदा होने के क्या कारण है यह वे बताने की स्थिति में नहीं हैं।'' गनीमत है ये तीन सगे भाई चैनलों की हद में नहीं आए हैं, वरना जुड़वा बच्चे पैदा करने का कोई न कोई कारण उन्‍हें कैमरे के सामने सार्वजनिक करना ही पड़ता और सरपंच से पूछा जाता कि क्‍या करना पड़ा आपके गांव को यह रिकार्ड बनाने के लिए। इस सिलसिले में मालूम हुई जानकारी आपसे बांटते हुए, केरल के कोडीनीडी गांव की कुल आबादी का दस फीसदी जुड़वा बताई जाती है।

इस सब मगजमारी के पीछे मंशा सांस्कृतिक पक्षों के तलाश की थी। कॉलेज के दिनों में किताबें उलटते-पलटते कुछ संदर्भ मिले थे अब उनकी फोटोकापी पर ध्यान गया कि सांस्कृतिक सर्वेक्षण एवं अध्ययन की संदर्भ सामग्री भी तो जनगणना के खंड के रूप में प्रकाशित हुआ करती थी।

इसके लिए अब तक की खोजबीन में मालूम हुआ कि प्रत्‍येक तीस वर्षों में ऐसे अध्‍ययन हुए हैं, 1931 और 1961 का तो दस्‍तावेजी प्रमाण मिल गया, लेकिन मानविकी-संस्‍कृति के और क्‍या अध्‍ययन-प्रकाशन, कब-कब हुए, अब भी होंगे, पता न लग सका सो वापस मर्दुमशुमारी उचारते बाल-औचक हूं कि हम सभी एक-एक, बिना चूके गिन लिए जाएंगे।

Friday, February 18, 2011

ज़िंदगीनामा

शीर्षक का शब्द 'ज़िंदगीनामा' पिछले 26 बरस से दो शीर्ष महिला साहित्यकारों, दिवंगत अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती के (तिरिया हठ की तरह) कानूनी विवाद का कारण बना रहा। फैसले आने पर कृष्णा जी ने शायद सब के मन की बात को अपना शब्द दे दिया है कि फैसले पर रोया तो नहीं जा सकता और कोर्ट का मामला है सो इस पर हंसना भी मुश्किल है।

अमृता प्रीतम की पुस्तक 'हरदत्त का ज़िंदगीनामा' है और कृष्णा सोबती के जिस ज़िंदगीनामा पुस्तक को मैं याद कर पा रहा हूं, उस पर शीर्षक के साथ 'ज़िन्दा रूख' शब्द भी था। विवाद था कि ज़िंदगीनामा किसका शब्द है। अच्छा लगा कि शब्दों के लिए इतनी संजीदगी है लेकिन दूसरी तरफ यह भी सोचनीय है कि हमारे न्यायालय के मामलों की अधिकता में पूरे 26 बरस एक संख्‍या बढ़ाए रखने में यह मुकदमा भी रहा।

खबर के साथ इस मामले पर ढेरों बातें हो रही हैं, लेकिन यहां जिक्र अमृता प्रीतम की जिंदगी के कुछ सफों की। रिश्तेदारी के कारण वे छत्तीसगढ़ के बिलासपुर और इस ब्लॉग सिंहावलोकन के यूआरएल वाले अकलतरा से घनिष्‍ठ थीं। उनकी कहानी 'गांजे की कली' में तब के बिलासपुर और वर्तमान जांजगीर-चांपा जिले के झलमला, चण्डीपारा (अब पामगढ़ गांव का मुहल्ला), नरिएरा (नरियरा) गांवों का जिक्र, छत्तीसगढ़ी संवाद व गीत सहित है।

इसी तरह कहानी 'लटिया की छोकरी' का एक वाक्य है- ''बिलासपुर से उन्नीस मील दूर अक्लतरे में साबुन का कारखाना खोल दिया।'' यह साबुन कारखाना, लोगों की स्मृति में अब भी 'भाटिया सोप फैक्ट्री' के रूप में सुरक्षित है। अक्लतरे यानि अकलतरा और कहानी का लटियापारे, पास का गांव लटिया है। दोनों कहानियों के पात्र और घटनाओं की सचाई लोगों को अब भी याद हैं, लेकिन इसे अफसाना ही रहने दें।

अमृता प्रीतम की जिंदगी, ज़िंदगीनामा में नहीं, उनकी रचनाओं में रची-बसी है। यह भी संयोग है कि 'ज़िंदगीनामा' विवाद में इस शब्द के पहली बार इस्तेमाल पर खुशवंत सिंह का बयान आया। यहां स्मरण करें अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' के लिए खुद क्या बयां किया है-

''एक दिन खुशवंत सिंह ने बातों-बातों में कहा, 'तेरी जीवनी का क्या है, बस एक-आध हादसा। लिखने लगो तो रसीदी टिकट की पीठ पर लिखी जाए।'
रसीदी टिकट शायद इसलिए कहा कि बाकी टिकटों का साइज बदलता रहता है, पर रसीदी टिकट का वही छोटा-सा रहता है।
ठीक ही कहा था-जो कुछ घटा, मन की तहों में घटा, और वह सब नज्मों और नॉवेलों के हवाले हो गया। फिर बाकी क्या रहा ?
फिर भी कुछ पंक्तियां लिख रही हूं-कुछ ऐसे, जैसे जिन्दगी के लेखे-जोखे के कागजों पर एक छोटा-सा रसीदी टिकट लगा रही हूं-नज्मों और नॉवेलों के लेखे-जोखे की कच्ची रसीद को पक्की रसीद करने के लिए।''

पुनश्‍चः
अमृता जी की अकलतरा से घनिष्‍ठता के खुलासे के लिए कई संवाद-संदेश मिले। सो संक्षेप में बात इतनी कि चार भाई सर्वश्री सरदार सिंग, मानक सिंग, लाभ सिंग और अमोलक सिंग विभाजन के समय अकलतरा आए। इनमें से निःसंतान मानक सिंग, जिनके जीवन की झलक 'गांजे की कली' में है तथा अनब्‍याहे रह गए लाभ सिंग, अकलतरा से अधिक जुड़े रहे। अमोलक सिंग के पुत्र प्रीतपाल सिंग भाटिया ने बताया कि उनकी मां श्रीमती सुखवंत कौर का लालन-पालन नाना ने किया था, वही अमृता जी के पिता (हितकारी तखल्‍लुस से लिखने वाले) हैं। सुखवंत और उनकी मौसी अमृता में उम्र का कम अंतर होने से बहनापा था। प्रीतपाल जी के साहित्‍यकार पिता यानि अपने भतीजी दामाद अमोलक सिंग से वृत्‍तांत और पृष्‍ठभूमि जानकर ही अमृता जी ने ये दोनों कहानियां लिखीं। प्रासंगिक होने के नाते इतना जोड़ देना पर्याप्‍त और बाकी की कहानी, कहानी ही बनी रहे।

Tuesday, February 15, 2011

देवार

इतिहास, अपनी मान्य रूढ़ियों की सीमा के चलते निर्मम होता है। घटनाएं, उनका प्रलेखन, उनकी खोज, शोध और व्याख्‍या के पश्चात्‌ खंडन-मंडन का अनवरत सिलसिला। इस कसौटी पर जो खरा उतरता है, वही इतिहास-स्वीकृत होता है, वरना खारिज। ऐसा इतिहास, पाठ्‌यक्रम की आवश्यक शर्त पूरी कर लेता है, किन्तु इतिहास में संशोधन करते, प्रतिदिन इतिहास रचते, मानव के लिए उसकी उपयोगिता अथवा कम से कम प्रासंगिकता का सवाल जरूर बना रहता है और मजेदार कि ऐसे प्रश्न, सामान्य जिज्ञासु के जितने होते हैं, उससे कहीं अधिक खुद इतिहासकार उठाते हैं इसलिए इतिहास-दर्शन या इतिहास-शास्त्र, इतिहास अध्ययन का जरूरी हिस्सा बन जाता है।

चारण-भाटों का साहित्य, राजाश्रय पाकर इतिहास की महत्वपूर्ण स्रोत-सामग्री के रूप में उपलब्ध होता है, घुमन्तू बारोटों की पहुंच भी दरबारों में होती थी, ये सभी इतिहास के लगभग अनिवार्य घटक हैं किन्तु वंशगत इतिहास को राजसत्ता का और पुराणों को धर्मसत्ता का इतिहास माना जाता है। धर्मसत्ता और राजसत्ता जनित, इतिहास के समानान्तर और बहुधा समवाय अर्थसत्ता सम्बद्ध होकर उसे दृढ़ता प्रदान करती है पर काल की धारा, इतिहास से कहीं अधिक निर्मम है। इसीलिए एक बार इतिहास-स्वीकृत, स्‍थापित होने पर भी उसके खारिज होने की संभावना बनी रहती है। क्या भरोसा, कब काल-पात्र गाड़ा जाए और कब उखड़ जाए या खो ही जाए। नामकरण, स्मारक-फलक और कालजयी मानी जाने वाली मूर्तियों के साथ कब क्या हादसा हो जाए ? स्वाभाविक ही इस परिवेश में उपाश्रयी (सब-आल्टर्न) इतिहास की चर्चा जोर पकड़ती है।

इस संदर्भ में देवारों का उल्लेख आने पर समझा जा सकता है कि जैसे गंगा-यमुना के साथ सरस्वती की अन्तर्धारा इसे त्रिवेणी बनाकर शाश्वत पवित्रता का सम्मान दिलाती है, उसी तरह देवारों की गाथाएं घटनाओं और उसके हाल-अहवाल के दबाव से मुक्त इतिहास हैं और इन गाथाओं के कवि-गायक देवार, इतिहास की अन्तर्धारा के संवाहक हैं। धर्म, राज और अर्थ तीनों सत्ताओं की अपेक्षा से स्वतंत्र, लोक-नायकों के इतिहासकार। देवार-गाथा को इतिहास का दर्जा भले न मिल पाए, लेकिन खंडन-मंडन से परे, देवार-गीतों में ऐसा इतिहास है, जिसकी प्रासंगिकता पर कभी प्रश्न-चिन्ह नहीं लगाया जा सकता और जो देवार, इतिहास की उपाश्रयवादी विचारधारा के जनक, साधक और कर्ता हैं।

प्रमाण-लाचार और तथ्य-शुष्क पाठ्‌यक्रम-योग्य इतिहास, देवार-गीतों में विद्यमान प्रसंगों के प्रति जैसा भी बर्ताव करे, इतिहास की अन्तर्धारा के संवाहक देवारों को उसकी कोई परवाह नहीं है। मानवीय-प्रवृत्तियों और सूक्ष्म मनोभावों को घटनाओं के ताने-बाने में जिस प्रकार देवारों ने रचा है, सुरक्षित रखा है, जन-जन तक पहुंचाया है वह अंजुरी भर ही हो, लेकिन समष्टि के कल्याण के लिए है, मंगलकारी है। इस दिशा में किया गया कार्य मंगलमय ही होगा।

(जून, 2003 में प्रकाशित डॉ. सोनऊराम निर्मलकर की पुस्‍तक 'देवार की लोक गाथाएं' के आमुख के लिए लिखे गए अपने आलेख से)

पुनश्‍चः

हबीब जी के नया थियेटर से परिचितों के लिए फिदाबाई (या फीताबाई) और किस्‍मतबाई देवरनिन गायक-कलाकारों के नाम नये नहीं, लेकिन इनमें डाक्‍टर से मास्‍टर तक, चपरासी से कलेक्‍टर तक और बिस्‍कुट, फोटो, लगेज, मनीबेग, किताब, तीतुर, रहिंचुल, घोटारी जैसे भी नाम लोकप्रिय हैं। कई मायनों में अनूठी है देवारों की रंगीनी, क्‍यों न हो, कहा जाता है-

चिरई म सुंदर रे पतरेंगवा, सांप सुंदर मनिहार। राजा म सुंदर गोंड़े रे राजा, जात सुंदर रे देवार।।
और- ककनी, बनुरिया अगवारिन मन के, मोहिनी ढिला गे देवारिन मन के।

Tuesday, February 8, 2011

एग्रिगेटर

वैसे तो सोचा था कि शीर्षक रखूं 'माई ड्रीम एग्रिगेटर' फिर लगा कि छोटे शीर्षक का हिमायती बने रह कर एक शब्द से भी काम चल सकता है। शीर्षक, प्रस्थान बिंदु ही तो है। यह भी ध्यान आया कि नाम में क्या रखा है, बख्‍शी जी ने अपने प्रसिद्ध निबंध का शीर्षक दिया 'क्या लिखूं' और क्या खूब लिखा। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी के लिए किसी ने रेखांकित किया है कि उनकी कृतियां हैं- चारुचंद्र का लेखा, बाणभट्‌ट की आत्मकथा और अनामदास का पोथा, मानों उनका लिखा कुछ नहीं। अज्ञेय याद आ रहे हैं- 'लिखि कागद कोरे' पुस्तक की 'सांचि कहउं ?' भूमिका में लिखा है कि ''असल में शीर्षक देना चाहिए था 'अध सांचि कहउं मैं टांकि-टांकि कागद अध-कोरे' पर'' ... और फिर विनोद कुमार शुक्ल की 'वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह'। शीर्षक कैसे-कैसे, लंबे-छोटे।

बात पटरी पर लाने के लिए बस एक और शीर्षक याद करें, 'नवनीत'। हिन्दी डाइजेस्ट कही गई अपने दौर की श्रेष्ठ पत्रिका। इसके एक पेज पर 'अपने लेखकों से' छपता था। मैं इसे प्रत्येक अंक में पढ़ना चाहता था। देखें कि इस पत्रिका को कैसी सामग्री से परहेज था और ब्लॉग पर उपलब्ध होने वाली सामग्री से इसकी तुलना करें।



अब आएं एग्रिगेटर पर। 'माई ड्रीम एग्रिगेटर' में जिन ब्लॉग्स को शामिल करना चाहूंगा उनमें दस में एक पोस्ट को अपवाद मान कर छूट सहित, वे ऐसी न हो-

• कविता, खासकर प्रेम, पर्यावरण, इन्सानियत की नसीहत या उलाहना भरी, भ्रष्टाचार, नेता आदि वाली पोस्ट, जो लगे कि पहले पढ़ी हुई है। (वैसे भी कविता के प्रति रुचि और समझ की सीमा के बावजूद, मुझे कविता का पाठक मानते हुए, कविता पोस्टों की सूचना मेल/चैट से मिल ही जाती है)

• जिसका कहीं और दिखना संभव न हो ऐसे स्‍तर वाला घनघोर 'दुर्लभ साहित्य'।

• मैं (और मेरी पोस्ट), मेरी पत्नी, मेरे आल-औलाद, मेरा वंश-खानदान आदि चर्चा या फोटो की भरमार वाली पोस्ट।

• अखबारी समाचारों वाली, श्रद्धांजलि, बधाई, शुभकामनाएं, रायशुमारी वाली पोस्ट।

• ब्लॉग, ब्लॉगिंग, ब्लॉगर, ब्लॉगर सम्मेलन, टिप्पणी पर केन्द्रित पोस्ट।

• लिंक से दी जा सकने वाली सामग्री-जानकारी वाली और पाठ्‌य पुस्तक या सामान्य ज्ञान की पुस्तक के पन्नों जैसी पोस्ट।

• नारी, दलित, शांति-सद्‌भाव-भाईचारा आदि विमर्शवादी और 'क्या जमाना आ गया', 'कितना बदल गया इंसान' टाइप पोस्ट।

कल एक एसएमएस मिला- ''सोमवार से शुक्रवार ..... पर 11 पीएम से 01 एएम तक सुनिए अश्‍लील प्रोग्राम जो आप परिवार के साथ नहीं सुन सकते '' ..... '' सुनेंगे तभी न जागेंगे''। यदि भेजने वाले को नहीं जानता होता तो लगता कि यह चेतावनी नहीं, विज्ञापन संदेश है। अश्‍लीलता की सूचना, बालसुलभ हो या कामुक, जिज्ञासा तो पैदा करती है। ऐसी सूचना देती, चिंता प्रगट करती पोस्‍ट से भी एग्रिगेटर को मुक्‍त रखना चाहूंगा।

इस 'माई ड्रीम एग्रिगेटर' की हकीकत पर सोचना शुरू किया तो उलझ गया कि इसमें 'माई' (सिंहावलोकन ब्लॉग शामिल) होगा या नहीं, बस फिर क्या, छत्तीसगढ़ी में कहूं तो 'अया-बया भुला गे'। मन में एक क्रांतिकारी विचार आया कि एग्रिगेटर में शामिल करने की शर्तें ही ऐसी रखी जाएं, कि उसमें 'माई' जरूर हो। खुद माई-बाप हों तो कौन रोक सकता है आपको। 'अपना हाथ, जगन्नाथ'। आजमाया हुआ नुस्खा, 'रिजर्व आइडिया'।

लेकिन अभी इन्‍हीं शर्तों के साथ एग्रिगेटर के लिए लक्ष्य 50 ब्लॉग का है। अपनी एक पिछली पोस्ट पर 'सामान्यतः टिप्पणी अपेक्षित नहीं' उल्लेख किया था, किंतु यहां इसके विपरीत सभी पधारने वालों से बे-टका सवालनुमा टिप्पणी अपेक्षित है कि क्या ऐसे एग्रिगेटर के 50 का लक्ष्य-

1.पूरा होगा    2.नहीं होगा   3.नो कमेंट   4.'अन्य'

उक्त में से पहले तीन, टिप्पणी के लिए कॉपी-पेस्ट सुविधा उपलब्ध कराने की दृष्टि से है, लेकिन इसके अलावा कुछ 'अन्य' कहना चाहें, तो थोड़ी उंगलियां चलानी होंगी।

अब ऐसा एग्रिगेटर बन जाए तो हकीकत, न बने तो सपना - 'माई ड्रीम'। गोया, लगे तो तीर, न लगे तो तुक्का और एग्रिगेटर बने न बने, अपनी बला से, पोस्ट तो तैयार हो ही गई, हमारी बला से।