Pages

Friday, October 24, 2025

भो-रम-देव

‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ कहे जाने वाले भोरमदेव में शब्दों के साथ भटक रहा हूं। यह भटकना, रास्ता भूलना नहीं, रास्ते की तलाश भी नहीं, बल्कि मनमौजी विचरण है। भोरमदेव, शब्द पर बहुत सी बातें कही-लिखी गई हैं, भोरमदेव, बरमदेव है, ब्रह्म, बूढ़ादेव, बड़ादेव, इतने मत-मतांतर कि भरम होने लगे। अलेक्जेंडर कनिंघम 1881-82 में गजेटियर के हवाले से कहते हैं- The Great Temple of Boram Deo or Buram Deo। छत्तीसगढ़ में भिर्रा या भिरहा (Chloroxylon swietenia) कहे जाने वाले पेड़ को पड़ोसी पश्चिमी ओडिशा में ‘भोरम‘ कहा जाता है, इससे कोई रिश्ता बने न बने, शाब्दिक ही सही, मेल बनता है। भोरम के करीब का छत्तीसगढ़ी शब्द है, भोरहा यानी भ्रम, संदेह या भूल। शायद इसी भूल-भटक में राह सूझे, इसलिए फिलहाल इसे यहीं छोड़कर, उसके आसपास, अगल-बगल। कुछ नादान तोड़-फोड़ करनी हो तो ‘भो!रम देव‘, ‘भोर-म-देव‘, हे देव, भोर होते ही तुझमें मेरा मन रमा रहे।
भोरमदेव मंदिर
भोरमदेव, स्मारक का नाम है न कि गांव का। इस स्मारक के साथ मड़वा महल और छेरकी महल भी हैं, गांव हैं- छपरी और चौंरा। इनमें छपरी का छापर, छावनी या छप्पर नहीं, बल्कि सलोनी मिट्टी से से आया होगा। चौंरा का संदर्भ फणिनागवंशी शासक रामचंद्र के मड़वा महल शिलालेख, विक्रम संवत 1406 में है, जहां चतुरापुर या चवरापुर का उल्लेख है। ‘चंवरा‘ शब्द यज्ञ वेदी के लिए तैयार की गई चौकोर समतल भूमि, ‘चत्वरक‘ तद्भव रूप चउंक-चांतर से आता है। सती चौरा या माता चौंरा जेसे शब्दों में इस शब्द का आशय छोटा मंदिर या देवस्थान, निहित है। चौरा का ताल्लुक अब कबीरपंथी मान्यताओं से भी जुड़ गया है। एक गांव लाटा है, जिसे लाटा-बूटा या लता-नार से संबंधित माना जाना है, मगर यह भी ध्यान रहे कि लाटा, गुफा, सुरंगनुमा, संकरे-बंद घिरे स्थान का- जहां लेट कर, सरक कर, रेंग कर जाना पड़े, का भी पर्यायवाची होता है। भोरम और हरम शब्द आसपास हैं, पास ही गांव है ‘हरमो‘, ईंटों वाली महलनुमा संरचना ‘सतखंडा हवेली‘ के कारण यह गांव चर्चित है। इसे कुछ ‘हरम‘ से जोड़ कर देखते हैं तो दूसरी ओर एक आस्था ‘महाप्रभु वल्लभाचार्य‘ से जुड़ी है, जिससे संबद्ध कर हरमो को ‘हरि-नू‘, गुजराती ‘हरि का‘ भी मानने वाले हैं। इतिहास में काल-निर्धारण की दृष्टि से यह क्षेत्र फणिनाग, कलचुरि वंशजों, मंडला के गोंड़ तथा मराठों से जुड़ता है। इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में योद्धा स्मारक और सती स्मारक प्रतिमाएं शक्ति संतुलन के लिए होने वाले युद्धों का प्रमाण हैं।
सतखंडा हवेली, हरमो 

यह कछारी जमीन वाला इलाका है। जंगल-पहाड़ नदी-नाले और बांध-तालाब से बची रेतीली जगह- कछार, जिस पर छोटी और कंटीली झाड़ियों वाली वनस्पति, कछार में टिकने के लिए जड़ें मजबूत होनी चाहिए। कछार, धान के लिए उपयुक्त नहीं, लेकिन धान से ही तो काम नहीं चलता। जलधाराओं के नजदीक और पानी उतर जाने पर पाल कछार और उससे दूर पटपर कछार। यहां एक और कछार है- सरकी कछार, इस नाम की कई शास्त्रीय व्याख्या होती है, यह भी माना जाता है कि छेरकी ही सरकी बन गया, संभव है, क्योंकि स-द, छ-स होता रहता है, ज्यों रायपुर के पास का गांव छेरीखेड़ी-सेरीखेड़ी। सरकी का जोड़ सरकना है यानी रेंगना या खिसकना, छत्तीसगढ़ी का सलगना- पेट के बल सरक-सरक कर चलना, सरीसृप की तरह। मगर यह भी संभव जान पड़ता है कि यह सरकी-चटाई या टाट (ज्यों टाट-पैबंद या टाटीबंद) यानि समतल-पटपर का समानार्थी है मगर ‘दादर‘ से कुछ अलग।

संकरी नदी पर दुरदुरी आता है, जो तुरतुरिया, खरखरा, सुरसुरी की तरह पानी के बहाव से होने वाली ध्वनि से बना शब्द है। मगर यह सोचने का रास्ता दिखाता है कि जलधारा का बहाव कैसा है, स्थान पथरीला, रेतीला, चौड़ा-संकरा, छोटा-लंबा, कम-अधिक ऊँचाई वाला, धाराओं में बंटा हुआ या अन्य कुछ। जिस तरह का नाम है, यानि नामानुरूप ही ध्वनि सबको सुनाई देती है या इस पर सुनने वाले और आंचलिक भाषा का भी प्रभाव होता है। जलधाराओं की बात हो तो गंगा का स्मरण होता ही है और गंगा के लिए कहा जाता है- ‘गं गं गच्छति गंगा‘।

बजरहा यादव जी ठेठवार मिले, मैं पूछता हूं- देसहा, कनौजिया, कोसरिया, झेरिया, बरगाह, महतो? मुस्कुरा कर छोटा सा ‘पॉज‘ देते मेरे इस ‘ज्ञान‘ को ध्वस्त करते हुए गर्व से बताते हैं-दुधकौंरा। दुधकौंरा सुनकर पहले तो रायपुर का मठ, दूधाधारी-दुग्धआहारी याद आया फिर ठेठवारों के ‘कौंराई‘ का। मैं भी हार मानने को तैयार नहीं, कभी पाली-कटघोरा की ओर किसी कौंराई ठेठवार से मिला था, कौंराई से तुक जमाने की कोशिश करता हूं, वे टस से मस नहीं होते। मड़वा महल में बैठे हैं, आसपास छेरी चराते हैं। अब इन दोनों महलों मड़वा और छेरकी की ओर ध्यान जाता है। महल, पत्थरों वाली पक्की इमारत के कारण नाम पड़ा होगा और मड़वा, इस मंदिर के साथ जुड़ी रोचक बात कि मंदिर के सामने का स्तंभयुक्त मंडप, शादी के मड़वा जैसा है साथ ही इस स्मारक का एक नाम ‘दूल्हादेव’ मंदिर प्रचलित रहा है। इस मंदिर की बाहिरी दीवार पर जंघा में विभिन्न मिथुन मूर्तियां हैं, कुछ अजूबी भी। गर्भगृह के सामने से बाईं ओर परिक्रमा शुरू करें तो, काम-कला वाली मिथुन प्रतिमाओं का ‘अजीबपन‘ बढ़ता जाता है और आखिरी पहुंचते तक शिशु को जन्म देती नारी प्रतिमा है। मिथुन प्रतिमाओं के कारण ‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ के नाम से इसकी ख्याति रही, खजुराहो काम-कला वाली मिथुन मूर्तियों का पर्याय बन गया। मंडपयुक्त संरचना, मड़वा वाले इस महल की मूर्तिकला से यह मान लिया गया है कि इस मंदिर की दीवार पर विवाह उपरांत गृहस्थ जीवन के काम पुरुषार्थ के लिए ‘कामसूत्र‘ का शिल्पांकन किया गया है, जो नर-नारी समागम-संसर्ग से संतानोत्पत्ति करते वंशवृद्धि के ज्ञान देने वाली मूर्तियों में जीवंत प्रशिक्षण वाली पाठशाला जैसा है। कहा जाता है, यहां भाई-बहन का साथ जाने का निषेध है, मगर ऐसा अब तक नहीं सुना कि विवाह के बाद इस मंदिर के दर्शन और परिक्रमा करने का नियम है।
पश्चिमाभिमुख मडवा महल मंदिर
दक्षिणी जंघा पर प्रतिमाएं

कछार और छेरकी या छेरी यानि बकरी-बकरे को जोड़ कर सोचने का प्रयास करता हूं। छेरकी महल के लिए कहा जाता है कि छेरी चराते हुए, बरसात हो जाने पर बकरी चराने वाले चरवार इस मंदिर में शरण लिया करते थे, संभव है मगर लगता है कि इस कछारी इलाके में गोपालक भी बड़ी तादाद में बकरा-बकरी पालन करते हैं इसलिए छेरी-चरवार हैं। फिर बात आती है कि क्या कछार और छेरी का रिश्ता शब्द ‘छ-र‘ से आगे भी कुछ है। गोवंश और अजवंश के एक खास अंतर की ओर ध्यान जाता है। अजवंश की उपरी और निचली, दोनों दंतपंक्तियां होती हैं, जबकि गोवंश की उपरी दंतपंक्ति नहीं होती, इसलिए दोनों की चराई में अंतर होता है। संभव है कि सामान्य मैदानी घास-पात गोवंश के चरने भरण-पोषण के लिए अधिक उपयुक्त होता हो और कछारी भूमि की वनस्पति अजवंश, बकरे, घोड़े और हिरण परिवार के जीवों के लिए। इस क्षेत्र में देसी बकरे ही पाले जाते हैं जो बौनी-नीची झाड़ियों और घास वाली चराई क्षेत्र में graze करते हैं लंबे और लटके कान वाले जमनापारी बकरे, जो graze के बजाय browse करते हैं, ऐसे चराई क्षेत्र के लिए अनुकूल साबित नहीं होते। ‘हरिन छपरा‘ गांव भी दूर नहीं है। उल्लेखनीय कि यहां नाम छेरी-छेरकी है, इसी तरह सरगुजा में प्राचीन मंदिर ‘छेरकी नहीं छेरका‘ हैं। खैर! अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र न हो तो उस पर बहुत बातें करना अपनी जांघ उघाड़ने जैसा है, फिर भी इतना तो मुंह मारा ही जा सकता है।
छेरकी महल मंदिर


यहां एक परत और है, छेरकी महल के आसपास लीलाबाई यादव जी मिल जाया करती थीं और पूछने पर धाराप्रवाह कहानी सुनाती थीं- ‘देवांसू राजा बिना महल के राखय छेरिया, त छेरकिन कहिस, अतका तोर छेरी-बेड़ी ला चराएं देव, फेर एको ठन महल नई बनाये। अभी हमर देवता-देवता के पहर हावय कोई समय मनखे के पहर आहि, त देखे-घुमे ल आही अइसे कहि के। त कस छेरकिन, महूं त एके झन हावंव, कइसे महल बनावंव कथे। चल त एकक कनि तोर छेरिया चराहूं, एकक कनि महल बनान लगहूं। त छेरी चरात-चरात छेरकिन अउ देहंसू राजा बनाय हे एला। बन लिस त भीतरी म दे छेरिया ओल्हियाय हे। त आघू छेरी के लेड़ी रहय इंहा, भीतरी म। ए मडवा महल, भोरमदेव कस भुईयां म गड्ढा रहिसे। त फर्रस जठ गे, माटी पर गे, छेरी लेड़ी मूंदा गे। अब पर्री परया अचानक भकरीन-भकरीन आथे, बकरा ओइले सहिं, तेखर सेती छेरकी महल आय एहर। अउ, भोरम राजा हर न भरमे-भरम में बने हे।‘

मैदानी छत्तीसगढ़ के गांवों में गुड़ बनाने के लिए सामुदायिक गन्ने की पैदावार, सामुदायिक रूप से बरछा में ली जाती थी। बरछा, तालाब के नीचे की भूमि होती थी। अब भोरमदेव, कवर्धा क्षेत्र की एक पहचान शक्कर कारखाना और गन्ना उपजाने वाले इलाके की भी है। यहां संकरी नदी है। छत्तीसगढ़ में सांकर, संकरी जैसी संज्ञाधारी कई-एक हैं, जिनमें ओड़ार संकरी, संकरी-भंइसा, संकरी-कोल्हिया जैसे ग्राम नाम और संकरी नदी को इन सब के साथ जोड़ कर देखना होगा। संकरी, वर्णसंकर है? सांकर यानी संकल-जंजीर है? संकरा यानी कम चौड़ा है? छत्तीसगढ़ी में कहा जाता है- ‘अलकर सांकर‘। संकरी नदी के करीब का एक नाम चैतुरगढ़-कटघोरा-कोरबा वाली शंकरखोला की जटाशंकरी-अहिरन। इस तरह संकरी, शिव-शंकर के पास भी है। और क्या इसका शर्करा-शक्कर से जुड़ा होना संभव है। पुराने अभिलेखों में शर्करापद्रक, शर्करापाटक, शर्करामार्गीय, गुड़शर्कराग्राम जैसे स्थान-क्षेत्र नाम आते हैं, ये नाम क्या शक्कर से संबंधित हैं या नदी के रेत-कण को महिमामंडित किया गया है- बुझौवल तो है ही, ‘बालू जैसी किरकिरी, उजल जैसी धूप, ऐसी मीठी कुछ नहीं, जैसी मीठी चुप।‘

जेन अभ्यास होता है, जिसमें सारे विचार ‘मू‘ के अव्यक्त में पहुंचकर मौन हो जाते हैं, ‘चुप‘।

Monday, October 20, 2025

छत्तीसगढ़ ऐसा भी

छत्तीसगढ़ी, हलबी, भतरी, गोंड़ी, कुड़ुख, सादरी, सरगुजिया आदि भाषी हम, इन भाषा-विभाषाओं में हो रहे लेखन से जुड़े होते हैं, छत्तीसगढ़ पर हिंदी और अंग्रेजी में हो रहे लेखन से भी परिचित होते रहते हैं मगर हमारा ध्यान इस ओर कम जाता है कि छत्तीसगढ़ से जुड़े अन्य भाषा-भाषी, अपनी भाषा में छत्तीसगढ़ को किस तरह देखते हैं, उसे अपनी भाषा में किस तरह अभिव्यक्त करते हैं। इस दृष्टि से मेरी जानकारी में (छत्तीसगढ़ के) असमी, उड़िया, बांग्ला और मराठी भाषी मुख्य हैं।

पिछले कुछ समय में ऐसी एक मराठी और दो बांग्ला पुस्तक देखने को मिली। मराठी पुस्तक डॉ. नीलिमा थत्ते-केळकर की 2023 में प्रकाशित ‘आमचो छत्तीसगढ़‘ है। बांग्ला पुस्तकों में एक नारायण सेनगुप्ता की 2008 में प्रकाशित ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ है और दूसरी रंजन रॉय की 2020 में प्रकाशित ‘छत्तिशगड़ेर चालचित्र‘ है।


‘आमचो छत्तीसगढ़‘ की लेखक ने पाठकों को संबोधित कर बताया है कि-


शीर्षक पढ़कर शायद लगे कि मैंने गलती से ‘आमचा‘ की जगह ‘आमचो‘ लिख दिया है। लेकिन ऐसा नहीं है। छत्तीसगढ़ी में यही कहते हैं। यह राज्य हमारा सबसे नज़दीकी पड़ोसी होने के बावजूद, हम इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते। इसका एहसास मुझे दो साल पहले हुआ। जब यात्रा तय हुई, तो मैंने नियमित अध्ययन करके काफ़ी जानकारी इकट्ठा की। फिर, अपनी यात्राओं के दौरान, इस अनजान क्षेत्र ने मुझे इतना अनूठा और समृद्ध अनुभव दिया कि इसे और लोगों के साथ साझा करने का मन हुआ। मैंने फ़ेसबुक और विपुलश्री पत्रिका में लेखों की एक श्रृंखला के ज़रिए ऐसा करने की कोशिश की। फिर भी, मुझे लगा कि ज्यादा लोगों तक पहुँचने की ज़रूरत है। तो अब, यह किताब शुरू होती है।

इस राज्य में क्या नहीं है? गुफाओं में मानव निवास के समय का इतिहास, खुदाई में मिले प्राचीन अवशेष, पहाड़ियों और घाटियों से बहती नदियाँ-झरने जैसी भौगोलिक विशेषताएँ, हरे-भरे धान के खेतों और मनमोहक वृक्षों से सजी यहाँ की प्रकृति, उससे जुड़े आदिवासी, उनके गोदना, उनके नृत्य, उनकी विचित्र अवधारणाएँ, मिट्टी और धातु की विशेष कला, मंदिर, मूर्तियाँ, मंदिरों से जुड़ी प्राचीन कथाएँ, रामायण-मेघदूत जैसे काव्यों से जुड़े सूत्र और इढ़र, चीला, फरा जैसे प्रामाणिक स्थानीय व्यंजन, और भी बहुत कुछ! रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़, सरगुजा, दुर्ग, राजनांदगाँव, बस्तर यहाँ के प्रमुख जिले हैं।

कवर्धा ज़िले का भोरमदेव मंदिर छत्तीसगढ़ का खजुराहो है और चित्रकूट जलप्रपात छोटा नियाग्रा। मैनपाट यहाँ का शिमला है और राजिम यहाँ का प्रयाग! आप इस छत्तीसगढ़ के बारे में ज़रूर जानना चाहेंगे।

मैंने स्कूल में एक शपथ ली थी। उसमें एक वाक्य था, ‘मुझे अपने देश की समृद्ध और विविध परंपराओं पर गर्व है।‘ इस वाक्य का सही अर्थ समझने के लिए मैं इधर-उधर भटकने लगी। असम, अरुणाचल, ओडिशा, बिहार, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक की यात्रा ने मुझे बहुत कुछ दिया। अब इसमें छत्तीसगढ़ भी जुड़ गया है।

यद्यपि मैंने समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए लेख और लेखों की श्रृंखला लिखी है, लेकिन पुस्तक लिखने का यह मेरा पहला प्रयास है।

यह कोई जानकारीपूर्ण पुस्तिका नहीं है। यह पर्यटन पर लिखी अन्य पुस्तकों की तरह संरचित नहीं है, न ही यह परिपूर्ण होने का दावा करती है। मैं बस आपको छत्तीसगढ़ वैसा दिखाना चाहती हूँ जैसा मैंने उसे देखा। मैंने इस पुस्तक का कोई मूल्य निर्धारित नहीं किया है। क्योंकि मैं वहाँ देखी गई प्रकृति, कला और लोगों के जीवन का मूल्यांकन कैसे कर सकती हूँ? मैं बस यही चाहती हूँ कि आप भी इन सबका उतना ही आनंद लें जितना मैंने लिया।

दूसरे संस्करण के अवसर पर - मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं किताब लिखूँगी। लेकिन मैंने लिखी और प्रकाशित भी कर दी! इतना ही नहीं, पहली किताब का दूसरा संस्करण भी सिर्फ़ डेढ़ महीने में आने वाला है। पाठकों की ज़बरदस्त प्रतिक्रिया देखकर मुझे बहुत खुशी हो रही है।

पहले संस्करण की कीमत स्वैच्छिक रखी गई थी और एकत्रित सारी धनराशि बस्तर क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों को भेज दी गई थी।

पाठकों की विशेष माँग पर अब यह दूसरा संस्करण रियायती मूल्य पर लाया गया है। इसमें छत्तीसगढ़ का मानचित्र देवनागरी लिपि में भी दिया गया है। इस संस्करण की बिक्री से प्राप्त राशि का उपयोग भी पूर्ववत ही किया जाएगा।

इस पुस्तक के छत्तीस स्थल-स्मारक आदि शीर्षकों में भोरमदेव, ताला, मदकू, मल्हार, सिरपुर, राजिम, चित्रित शैलाश्रय, केशकाल, कोंडागांव, बस्तर, बारसूर, रायपुर, रामगढ़, चंदखुरी, मैनपाट और अमरकंटक आदि हैं।

बांग्ला पुस्तकों में पहली ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ में लेखक के परिचय में बताया गया है कि उनका जन्म 1933 में हुआ। पाँच दशकों से अधिक समय से साहित्य सेवा में संलग्न हैं। 12 प्रकाशित पुस्तकें हैं तथा पाँच पत्रिकाओं व छह संस्मरणों का संपादन किया है। दिल्ली के चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट द्वारा बाल साहित्य में पुरस्कृत तथा विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हैं। उन्होंने स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य किया। वर्तमान में, वे छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी के मुख्य सलाहकार हैं।

पुस्तक में लेखक ने बताया है कि-

‘छत्तीसगढ़ की इस धरती पर 38 वर्ष का लंबा समय बीत चुका है। मुझे छत्तीसगढ़ के आकाश, वायु, लोगों, लोक उत्सवों, साहित्य और समाज को बहुत करीब से देखने का अवसर मिला है। उसी का प्रतिबिम्ब ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ है। श्री सिंह बनर्जी (सिद्धार्थ नाम सार्थक) और उनकी पत्नी पी.के. गांगुली, बंबई के ‘आनंद संगबाद‘ समाचार पत्र के मेरे प्रिय दो प्रमुख, दुनिया भर के बंगालियों को एक मंच पर लाने और रिश्तेदारों के साथ बैठकें करने के प्रयास में बंगाल, आउटर बंगाल और विश्व बंगाल का भ्रमण कर रहे हैं। इन बैठकों के दौरान, एक दिन उन्होंने हमारे निवास पर एक सुखद शाम बिताई। इसकी पहल ‘छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी‘ द्वारा की गई थी। बिलासपुर की लगभग सभी बंगाली संस्थाओं के प्रतिनिधि उपस्थित थे। आनंद संगबाद के प्रतिनिधियों ने इसे एक सूत्र में पिरोया। विदाई के समय, उन्होंने उस स्मृति को अपने हृदय में जीवित रखने के लिए एक पांडुलिपि भेजने का अनुरोध किया था। वह पांडुलिपि है ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘। ... छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी के मुखपत्र ’मातृभाषा‘ के सुयोग्य संपादक और बिलासपुर शाखा के अध्यक्ष डॉ. चंद्रशेखर बनर्जी ने इस पुस्तक के लेखन में विविध प्रकार से योगदान दिया है। ... उनके सच्चे सहयोग के बिना, मेरे लिए अपने रुग्ण शरीर में कुछ दुर्लभ जानकारी एकत्रित करना संभव नहीं होता। ... मेरे मित्र भास्कर देव रॉय ने जानकारी और तस्वीरें एकत्रित करके मेरी विभिन्न प्रकार से मदद की है - मैं उनका आभारी हूँ।‘

पुस्तक में छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थल, छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य और लोकगीत, कथक नृत्य और छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ के विवाह रीति रिवाज, विभिन्न व्यवसायों में छत्तीसगढ़ की महिलाएँ, बस्तर जिले का प्रसिद्ध दशहरा उत्सव, स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ की भूमिका, स्वतंत्रता आंदोलन में बिलासपुर का अतिरिक्त योगदान, छत्तीसगढ़ और बंगाली साहित्य जैसे शीर्षक हैं।

दूसरी बांग्ला पुस्तक ‘छत्तिशगड़ेर चालचित्र‘ के लेखक परिचय में बताया गया है कि उनका जन्म 1950 में कोलकाता में हुआ। ग्रामीण बैंक में अपनी नौकरी के दौरान उन्हें तीन दशकों तक छत्तीसगढ़ के ग्रामीण और आदिवासी जीवन को करीब से देखने का अवसर मिला। उन्हें साहित्य, अर्थशास्त्र, राजनीति और दर्शन पर किताबें पढ़ना और बातचीत करना पसंद है। उनकी विशेष रुचि ‘मौखिक इतिहास‘ में है। कुछ अन्य प्रकाशनों के अतिरिक्त ‘चरणदास चोर-तीन छत्तीसगढ़ी परीकथाएँ हैं। यह पुस्तक ग्रामीण छत्तीसगढ़ के लोक जीवन, भावनाओं, प्रेम और जाति की कहानी है।

पुस्तक का भाग 1: जलरंग और भाग 2: जाति की कहानी है, जिसमें लेखक के संस्मरण हैं। परिशिष्ट में भौगोलिक और राजनीतिक पहचान, पौराणिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, छत्तीसगढ़ के प्रमुख बंगाली और छत्तीसगढ़ का लोक जीवन है। यह पुस्तक मेरे लिए खास, क्योंकि पुस्तक का ‘उत्सर्ग‘ यानी समर्पण है- ‘डॉ. राहुल सिंह, एक प्रसिद्ध इतिहासकार, पुरातत्वविद् और लोक कला विशेषज्ञ‘

टीप - संभव है कि अपनी भाषाई समझ की सीमा के कारण कुछ अशुद्धियां, त्रुटियां हों। सुझाव मिलने पर यथा-आवश्यक संशोधन कर लिया जावेगा।

Sunday, October 19, 2025

ठाकुरबाड़ी

गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर का कुटुंब वृत्तांत है, अनिमेष मुखर्जी की ‘ठाकुरबाड़ी‘ इस किताब का पता लगने और हाथ में आने के बाद पन्ना खोलते हुए जैसा सोच रहा था, किताब वहीं से शुरू हुई, लगा कि लेखक ने माइंड रीड कर लिया है, वस्तुतः, यही समकालिक-विस्तार है। खुलासा यह कि मैं अपने बंगाली परिचितों के लिए सोचा-कहा करता हूं कि वे टैगोर, बोस, विवेकानंद और सत्यजित रे के लिए इतने आब्सेसिव क्यों हो जाते हैं, मेरी ऐसी सोच के पीछे यह होता है कि हम भी उन्हें कम नहीं मानते भाई। तो इस किताब ‘शुरू होने के पहले‘ की शुरुआत है- ‘यार तुम बंगाली लोग टैगोर को लेकर इतना ऑब्सेसिव क्यों होते हो? अगर आप एक बंगाली है, तो संभव है आपने यह सवाल कई बार सुना हो। अगर आप बंगाली नहीं हैं, कि संभव है कई बार आपका मन हुआ हो यह सवाल पूछने का।‘

पूरी किताब एक रोचक शोध-पत्र है, ऐसी कि हर पैरा में सूक्ति या उक्ति या कोई चौंका सकने वाली ऐसी रोचक जानकारी, जो संभव है कि आपको रही हो मगर पक्का स्रोत पता न होने के कारण मन में स्मृति में अधकचरी की तरह दर्ज हो। शुरू में ही बात आती है कि टैगोर ने किसानों के लिए माइक्रो-फ़ाइनेंस क्रेडिट सिस्टम की शुरुआत। जिसका उद्देश्य किसानों को साहूकारों के चक्र से बचाना था। लगभग 150 साल बाद इसी कॉन्सेप्ट को आधार बनाकर मोहम्मद यूनुस ने अर्थशास्त्र का नोबेल जीता। यूनुस ने कहीं ज़िक्र तक नहीं किया कि वे जिस विचार के लिए पुरस्कार ले रहे हैं, उसका मौलिक विचार उनका राष्ट्रगान लिखने वाले कवि का है। ... कर्जा लेने वाले ज्यादातर किसान मुसलमान थे और साहूकार हिंदू। कहा गया कि गुरुदेव हिंदुओं का हित मारकर मुसलमानों का भला कर रहे हैं। विडंबना यहीं ख़त्म नहीं होती, बंगाल में वामपंथ बुद्धिजीविता के नाम पर खूब फला-फूला। इन वामपंथियों ने अपने सबसे बड़े बुद्धिजीवी प्रतीक को हमेशा, ज़मींदार और ग़रीबों का दुश्मन दिखाकर प्रचारित किया।

‘घ्राणेन अर्ध भोजनम्‘ से जाति-धर्म च्युत होता राढ़ी, कुशारी, पीराली, ठाकुर, टैगोर परिवार ऐसी सामाजिक जकड़बंदियों से मुक्त हो कर किस तरह सकारात्मक आधुनिकता की ओर बढ़ता है, जिसमें जोड़साँको और ठाकुरबाड़ी है तो इसके समानांतर पाथुरियाघाट भी है, और चोरबागान जैसी छोटी शाखाएं भी, ढेर सारी करनी और कुछ-कुछ करम-गति भी है, यह सब विस्तार और बारीकी से जानना रोचक है। इसी परिवार की विधवा महिला रामप्रिया अदालत गईं, यही विवाद ठाकुर परिवार के बंटवारे का कारण बना और माना जाता है कि विधवा के संपत्ति हक का अदालत तक पहुंचा यह पहला मामला है।

पत्नी मृणालिनी के अलावा, दिगंबरी देवी, इंदिरा देवी, ऐना-अन्नपूर्णा-नलिनी, विक्टोरिया की दुखियारी-नारी कथा-व्यथा के चटखारे के बीच सामान्यतः यह नहीं उभर पाता कि इसी परंपरा में सरला देवी चौधरानी हैं, महात्मा गांधी और विवेकानंद, दोनों जिनके प्रशंसक थे। गांधी ने उन्हें स्प्रिचुअल वाइफ कहा, खादी के लिए मॉडलिंग कराया और विवेकानंद उन्हें साथ विदेश लेकर जाना चाहते थे। यही सरला अपने बेटे की शादी इंदिरा (गांधी) से कराना चाहती थीं। इसी क्रम में शिवसुंदरी देवी टैगोर, स्वर्णकुमारी, कादंबरी, नीपोमयी देवी, प्रज्ञासुंदरी देवी, सुनयनी और ज्ञानदा यानी ज्ञाननंदिनी देवी टैगोर भी हैं। तब साड़ी को परंपराओं के विरुद्ध और अश्लील मानने वाले समाज में ज्ञानदा के छद्मनाम से विज्ञापन छपा, जिसमें बताया गया था कि आधुनिक महिला के साड़ी पहनने का तरीका क्या है, जो ब्लाउज़, शमीज़, पेटीकोट, ब्रोच और जूतों के साथ साड़ी पहनती हैं। ज्ञानदा ने ही अंग्रेज़ी तारीख के हिसाब से जन्मदिन मनाने की शुरुआत की, जिसमें केक कटता था और हैप्पी बर्थ डे विश किया जाता था। सिनेमा और थियेटर में टैगोर परिवार की तमाम बहुएँ खुल कर काम करती थीं।

पुस्तक का खंड 2 ‘कोलकाता से अलीनगर‘ में क्लाइव और पलासी की बात में पाठक यों डूब जाता है कि टैगोर से ध्यान हट जाता है, इसे लेखन का बहकना मान लें, जैसा लेखक खुद मानते हैं, तो भी यह बहकाव बाहोशोहवास है। बुनी हुई हवा कहलाने वाला ढाका का मलमल, जगत सेठों की रईसी, घसीटी बेगम, सिराजुद्दौला की बेगम लुत्फ़-उन-निसा, जिसके लिए प्लासी के नशे में चूर जाफ़र और उसके बेटे ने प्रस्ताव भिजवाया कि बाप-बेटे किसी एक से शादी कर लो, मुर्शिदाबाद में ‘नमकहराम ड्योढ़ी‘ कहलाने वाली जाफ़र खान की इमारत, 1610 में दुर्गा पूजा का आरंभ, भारत की पहली न्यायिक हत्या मानी गई महाराजा नंदकुमार की फांसी। यह खंड कहावत पर समाप्त होता है कि- ‘प्लासी के बाद नवाबों को धोखा मिला, क्लाइव को पैसा और जनता को अकाल मिला।

सूचना/सूक्ति की तरह आए कुछ वाक्य- ‘भारतीय जाति व्यवस्था उससे कहीं ज़्यादा जटिल है, जितनी सोशल मीडिया पर दिखती है।‘ ... ‘भारतीय ज़मींदारों और बाबुओं की संपत्ति उसी पैसे पर टिकी हुई थी जो भारत में नील की खेती में बुने हुए शोषण और चीन को अफ़ीम की लत लगवाकर आ रहा था।‘ ... ‘जो पैसे का बंदरबाँट ईस्ट इंडिया कंपनी ने किया उसे मैनेज करने में पढ़े-लिखे बंगाली काम आए और इन बंगाली बाबुओं ने भी इस प्रक्रिया में काफ़ी पैसा कमाया। यह बंगाली पहले मुखुज्यो, बाणिज्यो और चाटुज्यो से मुखोपाद्धाय, बंदोपाध्याय और चट्टोपाध्याय बने और फिर मुखर्जी, बनर्जी और चटर्जी बन गए।‘ ... ‘राजनीति जब इतिहास का इस्तेमाल करती है, तो कई बार पुराने खलनायकों को नायक बना देती है। फिर शताब्दी भर बाद लोग बहस करते रहते हैं कि फ़लाँ, नायक था या खलनायक।‘ ... ‘माना जाता है कि अंग्रेज़ों ने भारतीय क्लर्क्स के लिए बाबू शब्द इसलिए इस्तेमाल करना शुरू किया, क्योंकि यह नकलची बंदरों ‘बबून‘ से मिलता-जुलता था।‘ ... ‘उस ज़माने में राजा राम मोहन राय समेत कई प्रगतिशील विद्वान काले जादू और तंत्र-मंत्र में यकीन रखते थे और इस पर शोध करते थे।‘ ... ‘बेचारा हर समय खोया-खोया और उदास रहता था। रह-रहकर दर्द भरी आहें भरता और दारू में दवा की तलाश करता। ज़माने को पता है कि ऐसे लक्षण दुनिया भर में एक ही बीमारी के होते हैं। लोगों ने फौजी से पूछा कि दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है। तो उसने बताया कि उसके अपने देश में उसे किसी कन्या से प्रेम था।‘ ... मेरी और अधिक पसंद की बातें हैं, जिन्हें किताब में ही सिमटे रहने दे रहा हूं।

टैगोर और उनके परिवार पर न जाने कितना विपुल उपलब्ध है, मुझ जैसे गैर-बंगला पाठक के लिए भी हिंदी और अंग्रेजी में ढेरों सामग्री है, जिसमें डूबें तो लगता है कि इसके बाद भी क्या पढ़ना रह जाएगा। आप ऐसा सोचते हों या इन सबसे कोई नाता न हो तब भी यह पुस्तक पठनीय है। टैगोर जानकारों को भी लगेगा कि ऐसी कोई बात नहीं जो कुछ अलग/बेहतर न कही जा सके, अल्टीमेट कुछ भी नहीं। सब कुछ होना बचा रहेगा ... की तरह। यह किस तरह चौंकाने वाली जानकारी है कि टैगोर ने बॉर्नविटा, गोदरेज साबुन, लिपटन चाय जैसे उत्पादों के लिए न सिर्फ मॉडलिंग की, उनके लिए कॉपी भी लिखी।

टैगोर ने बुढ़ापे में नंदलाल बसु से कहा था कि उन्होंने अपने जीवन में जितने भी चित्र बनाए, उनमें कादंबरी की आँखे बनाने की ही कोशिश की। ... उनका प्रसिद्ध गीत है, ‘खैला भाँगार खैला खेलबी आए।‘ यानी आओ खेल ख़त्म कर देने का खेल खेलते हैं।

लेखक ने अपनी मंशा जाहिर की है कि ‘कुछ किस्से चुने जाएं, उनकी तथ्यात्मकता को बरकरार रखते हुए, उन्हें क़िस्सागोई के अंदाज़ में सुनाया जाए ... तीस सेकंड की रील वाले दौर में ढेर सारी जानकारी बोझिल न लगने लगे‘, अपने इरादे पर कायम रहते, इसे बखूबी निभाया है, कर दिखाया है। रोचक बनाए रखने के लिए विश्वसनीय प्रामाणिकता से समझौता नहीं किया है। कुल जमा, किताब मुझे ‘अच्छी लगी‘ कहना काफी नहीं होगा यह कहना जरुरी है कि किताब ‘अच्छी है‘। किताब से प्रभावित हूं, अतिशयोक्ति हो सकती है, यह भी संभव है कि असर कुछ समय बाद कम हो जाए, लेकिन पूरी जिम्मेदारी से अनुशंसा कर सकता हूं कि सुरुचिसंपन्न पाठक किताब के लिए ‘पैसा वसूल‘ जैसी चालू बात नहीं कह सकेगा। हां! किताब का अनुवाद, हो सकता है टैगोर पर हिंदी से बंगला होने के कारण खुले मन से स्वीकार न हो, मगर अंगरेजी अनुवाद का सवागत, शायद मूल हिंदी से अधिक होगा।

Friday, October 17, 2025

धानी छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है, खास कर मध्य छत्तीसगढ़, जहां धान उपज का रकबा और पैदावार अधिक है, वहीं इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर में 23000 से अधिक प्रकार के धान बीजों का संग्रह है। इसके साथ दो बातें जोड़ कर देखना जरूरी है कि फसल-चक्र परिवर्तन और मिलेट्स पर भी जोर दिया जाता है, जो आवश्यक है तथा यह भी कि भोजन में कार्बोहाइड्रेट प्रतिशत सीमित रखना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। 

इस बीच छत्तीसगढ़ में 15 नवंबर 2025 से 31 जनवरी 2026 तक धान खरीदी के कुल 2739 केंद्रों के माध्यम से 3100/ प्रति क्विंटल की दर से प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीदी निर्धारित है। याद आया कि हमने 1965-66 में 'बालभारती' कक्षा-3 में पाठ पढ़ा था-

पाठ 28

धान की खेती


आज रायपुर शहर में किसानों की बड़ी भीड़ थी। सभी बहुत खुश दिखाई देते थे। जिलाध्यक्ष की कचहरी के सामने एक मंडप बनाया गया था। सुन्दर बंदनवारों और झंडियों से मंडप खूब सजाया गया था। मंडप में सभा का प्रबन्ध किया गया था, वहाँ प्रमुख अधिकारी और नेतागण इकट्ठे हुए थे। वहाँ आये हर व्यक्ति की जबान पर धमतरी के किसनसिंह का नाम था, क्योंकि आज का यह उत्सव उन्हीं के सम्मान के लिए हो रहा था। 

परन्तु किसनसिंह का यह सम्मान किसलिए? उन्होंने ऐसा क्या काम किया है? 

इसका कारण यह था कि किसनसिंह ने अपने खेत में सबसे अधिक धान पैदा की थी। छत्तीसगढ़ की मुख्य फसल धान है। अच्छी बरसात होने पर धान के पौधों को रोपने के पन्द्रह-बीस दिनों बाद सभी ओर हरी-हरी धान लहलहाने लगती है। पौष माह में कटाई के बाद धान की फसल तैयार हो जाती है। साधारणतः एक एकड़ जमीन में दस बारह मन धान पैदा होती है। परन्तु किसनसिंह ने अपनी एक एकड़ जमीन में पच्चीस मन धान पैदा की। सारे किसानों को किसनसिंह की इस सफलता पर बड़ी खुशी हो रही थी। वे जानते हैं कि अपने खेतों में अधिक से अधिक अनाज पैदा करना सबसे बड़ी देश-सेवा है। इससे देश में संपत्ति बढ़ेगी और जनता को खूब अनाज मिलेगा। दूसरे देशों के सामने हमें हाथ नहीं फैलाना होगा। इसलिए किसनसिंह ने जो कार्य कर दिखाया है, उसका महत्व बहुत अधिक है और इसीलिए आज उनका सम्मान किया जा रहा है।

सभा का समय होने पर जिलाध्यक्ष के साथ किसनसिंह मंडप में आये। उन्हें मंडप में आता देखकर सब लोग खड़े हो गये। वे मंच पर जाकर बैठ गये। फिर जिलाध्यक्ष ने अपना भाषण शुरू किया- 

‘‘किसान भाइयों! आप सभी जानते हैं कि हम लोग यहाँ श्री किसनसिंह का सम्मान करने के लिए इकट्ठे हुए है। देश में धान की फसल बढ़ाने के लिए सरकार ने अभी-अभी एक नया तरीका बताया है। अपने जिले में भी इस साल बहुत से किसानों ने यही तरीका अपनाया है। इससे उन्हें बहुत लाभ भी हुआ है। जहाँ पहले एक एकड़ जमीन में दस या बारह मन धान पैदा होती थी, वहाँ इस तरीके से बीस-बीस मन तक धान पैदा हुई है। कुछ किसानों ने तो बाईस मन तक धान पैदा की है, परन्तु किसनसिंह इन सबसे आगे बढ़ गये हैं। उन्होंने एक एकड़ जमीन में पच्चीस मन धान पैदा की है। आप सबकी ओर से मैं उनको बधाई देता हूं और उन्हें सरकार को ओर से एक हजार एक रुपये इनाम के रूप में भेंट करता हूँ।‘‘

इसके बाद जिलाध्यक्ष ने किससिंह को फूलों की माला पहनाई और रुपयों की थैली भेंट की। सभा में आये हुए सब लोगों ने तालियाँ बजाईं। तालियों की गड़गड़ाहट समाप्त होने पर किसनसिंह ने अपना भाषण शुरू किया- 

‘‘जिलाध्यक्ष महोदय और किसान भाइयो! आप लोगों ने मेरा जो सम्मान किया, उसके लिए मैं आप सबको बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। देश की संपत्ति बढ़ाना हमारा कर्त्तव्य है। इसके लिए जो कुछ भी हम कर सकें, वही हमारी सबसे बड़ी देश-सेवा होगी। अब मैं धान की फसल तैयार करने के नये तरीके के बारे में दो-चार बातें कहूँगा। पहली बात है, बीज का चुनाव। बीज अच्छा हो तो फल भी अच्छा होता है। धान की अच्छी फसल के लिए ठोस बीज चाहिए। ठोस बीजों का चुनना बहुत सरल है। बीजों को नमक के पानी में डाल दो। जो बीज हलका होगा, वह ऊपर तैर आयेगा। जो बीज नीचे बैठ जाये उसे ठोस समझना चाहिये। इन चुने हुए बीजों में कीड़े मारने वाली दवा लगा देना चाहिये और फिर उन्हें बोना चाहिये। ऐसा करने से फसल को कीड़ा नहीं लगता। 

पौधा लगाने के लिए क्यारियाँ ऊँची होनी चाहिये। उनमें गोबर और राख की खाद डालना चाहिये। जिस स्थान पर ऐसी खाद डाली जाती है, वहाँ पौधे ऊँचे और घने होते हैं। जिस जमीन में इन पौधों को रोपा जाये, उसमें भी खाद देना चाहिये। इसके लिए सड़ी पत्तियां, खली और हड्डियों का चूरा बहुत लाभदायक होता है। 

‘‘पौधों को एक सीधी कतार में रोपना चाहिये और दो पौधों के बीच साधारणतः आठ या दस अंगुल की जगह छोड़ देनी चाहिये। इससे पौधों को बढ़ने के लिए काफी जगह मिलती है। उन्हें धूप, प्रकाश और गरमी भी मिलती है। एक कतार में और थोड़ी-थोड़ी दूर पौधा रोपने से निदाई अच्छी तरह हो सकती है। धान की बाढ़ अच्छी होती है। उसमें अधिक अंकुर फूटते हैं, अच्छी बालें लगती हैं और खूब धान होती है। 

मैंने शुरू से ही बड़ी देखभाल की इसीलिए मैं इतनी धान पैदा कर सका और आपके सम्मान के योग्य ठहरा। मैं आपको इसके लिए बार-बार धन्यवाद देता हूँ।‘‘ 

ऐसा कहते हुए किसनसिंह ने दोनों हाथ जोड़े, और अपना भाषण समाप्त किया। एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट हुई। जिलाध्यक्ष महोदय से कहा-अब राष्ट्र-गीत गाया जायेगा। यह सुनकर सब लोग अपने-अपने स्थान पर चुपचाप खड़े हो गये। राष्ट्रगीत के बाद सभा समाप्त हो गई।

Monday, September 22, 2025

प्रतिभू स्मृति कथा

आखिरी पन्नों पर ‘कोरे पन्ने‘ बार-बार आता है, जो किताब के शीर्षक ‘स्मृतिशेष कथा अशेष‘ के उपयुक्त है। पहले दो पर्व पीठिका की तरह, तृतीय पर्व दंगोें, विभाजन, विस्थापन-पलायन, शरणार्थी-तनाव का है और चौथा प्रभावित पूरे समुदाय के खोना-पावना वाला, उसके वापस पटरी पर आने वाला। पुस्तक ‘पूर्वी बंगाल के विस्थापित हिन्दुओं की औपन्यासिक गाथा‘ है, जिसमें हिंदू-मुस्लिम दंगा प्रसंगों के साथ विभाजन की गाथा है, स्वाभाविक ही कई अंश संवेदनशील हैं, मगर पूर्वाग्रह न हों तो बेहद संतुलित। लेखक ने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है कि हिन्दू-मुस्लिम अंतर्संबंधों तथा अंतर्विरोधों को उकेरने का कारण वैमनस्यता फैलाने वाले तत्वों की पड़ताल का है। जाति-धर्म के उन्माद में भाषा का कारक किस तरह प्रभावी हो सकता है, यहां उभारा नहीं गया है, मगर महसूस किया जा सकता है।

कथा-सूत्र के लिए पात्र ‘जतीन बाबू (लेखक स्वयं?) की डायरी‘ वाला उपयुक्त तरीका अपनाया गया है। जो अपने दीर्घ अनुभवों को कलमबद्ध करने को लालायित हैं, किसी और के लिए नहीं, आने वाली पीढ़ियों को विगत से सबक लेने के लिए, डायरी लिखते हैं, जिसमें आत्मावलोकन है और स्वचिंतन भी। एक अंश जहां लगता है कि लेखक अपने भाव सीधे अभिव्यक्त कर रहा है- ‘बंगालियों द्वारा, खासकर पूर्वी बंगाल से विस्थापित बंगालियों द्वारा, ऐसी कोई तिथि या दिन स्वस्फूर्त हो नहीं तय की गई, जो समर्पित हो कष्ट और अमानुषिक यातना की उन यादों को। यह पूरे बंग समाज के लिए गंभीर आत्मचिंतन का विषय है कि क्यों वेदना के करुण देशराग को गाने का कोई मुहूर्त, कोई तिथि नहीं है। उस देशराग को, जिसने न केवल पूरे बंगाल को वरन निखिल विश्व के बंगालियों को और पूरे देश को प्रभावित किया?‘

पुस्तक में बताया गया है कि- बनर्जी, मुखर्जी, चटर्जी और गांगुली के पूर्वज मूलतः उत्तर प्रदेश के कान्यकुब्ज ब्राह्मण उपाध्याय थे। बारहवीं सदी में सेन वंश के तत्कालीन राजा ने काशी से जिन कुछ विद्वानों को वैदिक कर्मकांड हेतु स्थायी रूप से बंगाल बुलाया था, उन्हें जिन ग्रामों में बसाया गया उनसे उनकी पहचान हुई। इस तरह वन्ध्य ग्राम के उपाध्याय हुये वंद्योपाध्याय अर्थात बानुज्जे अर्थात बनर्जी और चट्ट ग्राम के उपाध्याय हुये चट्टोपाध्याय अर्थात चाटुज्जे अर्थात चटर्जी। बनर्जी, मुखर्जी, चटर्जी तथा गांगुली इन चारों को ही कुलीन ब्राह्मण कहा गया (पेज-69)। अनिमेष मुखर्जी अपनी पुस्तक ‘ठाकुरबाड़ी‘ में लिखते हैं कि ‘... यह बंगाली पहले मुखुज्यो, बाणिज्यो और चाटुज्यो से मुखोपाद्धाय, बंदोपाध्याय और चट्टोपाध्याय बने फिर मुखर्जी, बनर्जी और चटर्जी बन गए। वैसे बता दें खुद को मुखोपाध्याय, बंदोपाध्याय और चट्टोपाध्याय कहने का उद्देश्य अपने आपको विद्वान दिखाना होता था‘ (पेज-11)। इस संबंध में कहीं (संभवतः प्रभात रंजन सरकार के लेखन में) पढ़ा था कि ‘बाद में प्रश्नोत्तर के झमेले से बचने के लिए उन्हीं के उत्तरपुरुषों ने लिखना शुरू किया- ष्मेरा नाम श्री... वन्द्योपाध्याय है अर्थात् में वंन्द्यघटी गाँव का पंडित हूँष्। उसी प्रकार वर्द्धमान के चाटुति गाँव से चट्टोपाध्याय, बाँकुड़ा जिले के श्मुखोटीश् गाँव से मुखोपाध्याय, वर्द्धमान जिले में गंगोरी/गांगुली गाँव से गंगोपाध्याय, वीरभूम के श्गड़गड़ीश् गाँव से गड़गड़ी, श्पर्कटीश् (पाकुड़) से पाकड़ाशी, मानभूम (पुरुलिया) के घोषली गाँव से घोषाल, हुगली के दीर्घाड़ी से दोर्घाड्गी, पतितुण्ड गाँव से पतितुण्डी। यह तो प्रारंभिक दिनों की बात। कालक्रम में ये ही पदवियाँ जातिवाचक और जातिद्योतक बन गयीं। अंततः इन पदवियों के कारण विभिन्न प्रकार की भेदबुद्धि पैदा हो गयी। पदवी के सम्बन्ध में वर्त्तमान समाज में क्या करना उचित है इसे विचारशील लोगों के लिए चिन्तन करके देखने की जरूरत है।‘

पुस्तक का एक रोचक उद्धरण- ... वहीं मछली को भोजन का अनिवार्य भाग बनाने वाले ब्राह्मण तथा गैर ब्राह्मण समस्त हिन्दू बंगालियों के लिए बकरे का मांस केवल देवी समक्ष दिये गए बलि के प्रसाद के रूप में ही यदा-कदा अनुमत था। इस मांस को भी बिना प्याज-लहसुन के श्निरामिषश् तरीके से पकाने का विधान था। ’निरामिष‘ माने शाकाहारी और ’सामिष’ याने मांसाहारी भोजन। स्वादलोलुप जमींदारों की बिगड़ी पीढ़ियों व उन्हें अनुसरण करने वालों के साथ ही अँग्रेजी तालीम याफ्ता युवकों ने हालाँकि इसका भरपूर उल्लंघन करना आरंभ कर दिया था, पर मुर्गी तब भी कठोरता के साथ हिन्दू रसोई से दूर ही रखी गई थी। मुर्गी व उसके अंडे मुसलमानी आहार थे, अंडों के शौकीन हिन्दुओं के लिए बतख के अंडे अनुमत थे। स्वाभाविक रूप से उन दिनों मुर्गियाँ केवल मुसलमानों के द्वारा पाली व खाई जाती थीं। किसी मुसलमान के घर पाली गई मुर्गी का उड़कर या दाना चुगते हुये भटक कर किसी हिन्दू के घर की ओर चले आना बड़े विवाद का कारण बन जाता था। (पेज-111) 

पुस्तक के एक संवाद है, ‘पुटी तो छोटी मछली को कहते हैं‘ (पेज-92)। इस शब्द की चर्चा प्रभात रंजन सरकार की पुस्तक वर्णविचित्रा में इस पंकार है- ‘शफरी/सफरी - ‘शफरी‘ शब्द का अर्थ है पोंठी मछली। शफरी या पोंठी मछली की बंगाल में 11 प्रजातियां हैं ... वर्तमान में क्षुद्राकृति पोंठी को कोई कोई तीती पोंठी कहा करते हैं ... गंभीरजलसंवारी रोहितादि न विकारी। गण्डूषजलमात्रेण शफरी फरफरायते।। ... बंगला भाषा में ‘शफरी‘ शब्द का अपर अर्थ ‘विदेशागत‘ अर्थात् विदेश से सफर करके जो आया है।‘ (पेज-154)। मेरी जानकारी में यह शब्द संस्कृत के ‘प्रोष्ठी‘ से आया है और प्रोष्ठी के लिए अनुमान होता है कि ओंठ के उपरी भाग का आकार।

ऐसा उपन्यास तब निकल कर आता है, जब लेखक को पाठक का ध्यान तो हो, मगर साहित्यिक प्रतिष्ठा पाने का दबाव न हो। प्रतिभू, कहानियां, उपन्यास से इतर लेखन भी करते रहे हैं, मगर अपनी लेखकीय सहजता पर कायम हैं, जो मुझ जैसे पाठक को उनके लेखन के प्रति आकर्षित करता है। प्रतिभू स्वयं को साहित्यकार नहीं मानते, बैंकिग पेशे से जुड़े रहे, पेशेवर लेखक-साहित्यकार होते तो मुझे लगता है कि कथा-क्रम का विकास करते हुए सूत्र के लिए प्रेम-कहानी का ताना-बाना लेते। उन्होंने ऐसा नहीं किया है, जबकि हरिप्रिया-पीयूष के साथ यह प्रेम-प्रसंग में यह संभावना थी। निहायत घरू-पारिवारिक माहौल के दैनंदिन जीवन की आशा-आकांक्षा और कुछ आशंकाओं को आधार बनाया है। लगता है यह स्वाभाविक है और यह इसी तरह आए, अलग से कोई पाठक-प्रलोभन न हो, गैर-पेशेवर होने के कारण आसानी से हो पाया है।

Sunday, September 14, 2025

रामायामालोक

लंबे लेख की योजना है, जिसका अंश यहां है।

सीय राममय सब जग जानी। करउं प्रनाम जोरि जुग पानी।

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।

पहले राम के याम-आयाम को लोक-आलोक में देख लें। ‘लोक‘ का अर्थ ‘फोक‘ जैसा सीमित नहीं, व्यापक रूप से यह ‘लौकिक‘ दृश्यमान जगत का पर्याय है, जिससे अवलोकन बनता है और आंचलिक भाषाओं, जैसे भोजपुरी में लउक-दिख रहा है। छत्तीसगढ़ी में यदा-कदा इस्तेमाल होता है, लउकत-गरजत, यानि बादल का गरजना और बिजली की चमक। यह इसलिए कि अंधेरी रात में बिजली चमकती है तो सारा दृश्य क्षण भर के लिए प्रकाशमान हो जाता है, ‘लउक‘ जाता है। छत्तीसगढ़ी में ऐसा ही एक अन्य प्रयोग है- ‘लोखन-लोकन या लउकन ले बाहिर‘, यह ऐसी बात के लिए कहा जाता है, जो प्रत्यक्ष न किया जा सके, इसलिए अजीब, अनहोनी, अविश्वसनीय के आशय में भी प्रयुक्त होता है। अंगरेजी का ‘लुक‘ भी इसी मूल से आता है और त्रिलोचन, राजीवलोचन का ‘लोचन‘ तो है ही। 

बांग्ला कृत्तिवास रामायण और निराला के ‘राम की शक्तिपूजा‘ का स्मरण करते चलें, जिसके आरंभ में राम-राजीवनयन और रावण-लोहितलोचन कहे गए हैं। और उत्कर्ष में राम याद करते हैं ‘कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन‘ और अपना एक नयन देकर एक सौ आठ में एक कम पड़ रहे नीलकमल की पूर्ति करने को उद्यत होते हैं। यहां शास्त्रीय संदर्भ की ओर ध्यान जाता है- पुरुषों को सप्त-पद्मांग माना जाता है, एक मुख, दो आंखें, दो हाथ और दो पांव, मगर नारायण विशिष्ट ‘अष्ट-पद्मांग‘ हैं, जिनकी नाभि, सृजन-पद्म है। इसी कविता में उल्लेखनीय पद है ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन‘, यहां ऐसा जान पड़ता है कि पूजा के लिए आंख बंद कर, आंतरिक शक्तियों का स्मरण और उन्हें जागृत करने का संकेत है, कि आंखें बंद करने, खो देने, न रहने पर दृश्यमान लौकिक जगत के व्यापार से मुक्त अंतःकरण उन्मुख होना है, जिससे शक्ति की मौलिक कल्पना संभव होगी।

कृत्तिवास रामायण, तमिल कम्बन रामायण और तुलसी मानस, आंचलिक भाषाओं में रचित सोलहवीं सदी की लगभग समकालीन रचनाएं हैं, इस संदर्भ में माधव कंदली के असमी रामायण को याद कर लेना चाहिए, जिसे आधुनिक आर्य-भाषाओं का प्रथम काव्य माना गया। यों अब विष्णुदास के ‘रामायनकथा‘, रचनाकाल संवत 1499, सन 1442 ई. को हिंदी की पहली रामायण माना जा रहा है। माधव कंदली ने सीता का नख-शिख वर्णन, रीतिकालीन नायिकाओं की तरह या कालिदास के कुमारसंभव की पार्वती से प्रभावित जैसा है, जो श्रद्धा-भक्ति भाव को आहत करने वाला हो सकता है। इसी तरह 14 वीं सदी ई. की कुम्हारिन मानी जाने वाली महिला कवि मोल्ल की तेलुगु ‘मोल्लरामायण‘ में नारीदेह के अंगों के वर्णन में तुलसी वाली मर्यादा का संकोच नही है। तुलसी इसके लिए अनूठा प्रयोग करते हैं, जहां वे पशु-पक्षी-वृक्षों, जिनसे नारी अंगों की उपमा दी जाती है, कहते हैं- ‘सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू।।’

कवि माधव स्वयं को ‘अहर्निशि चिंता राम राम‘ करने वाले और अपने बारे में कहते हैं- ‘कविराज कंदली आमा के से बूलिकय, कविलो हो सब जन बोधे। रामायण सुपयार श्री महामानिक्य थे, वाराहराजाय अनुरोधे।‘ यों स्पष्ट है- मुझे कविराज कंदली बुलाते हैं। मैं सब लोगों के बोध का कवि हूं, वाराह राजा महामाणिक्य के अनुरोध पर सु-पयार छंद में रामायण रच रहा हूं। असम अंचल के वाराही राजाओं में दो के नाम ‘माणिक्य‘ मिलते हैं, दोनों का काल चौदहवीं सदी होने के कारण माधव के असमी रामायण का काल भी सहज यही निर्धारित किया जा सकता है, कुछ विद्वानों ने असमी रामायण का रचना काल पंद्रहवीं शताब्दी माना है। माधव के नाम के साथ ‘कंदली‘ उपाधि जान पड़ती है, कंदल करने वाला कंदली हुआ जिसका अर्थ ‘वाद करने वाला‘ या ‘काव्य-शास्त्र चर्चा करने वाला‘। 

लोक के ठेठपन वाले इस छत्तीसगढ़ी बुझौवल के साथ रामकथा के प्रति जिज्ञासा पैदा की जाती है- घर निकलत तोर ददा मर गे, अधमरा हो गे तोर भाई जी, आधा बीच म तोर नारी के चोरी, काम बिगाड़े तोर दाई जी। 

लोक-दृष्टि और राम को वाल्मीकि ने जोड़ा है कि- ‘यश्च रामं न पश्यत्तु यं च रामो न पश्यति। निन्दितः सर्वलोकेषु स्वात्माप्येनं विगर्हते।। कुछ-कुछ ‘राम को न देखा तो ..., राम ने न देखा तो क्या देखा‘ जैसा।

दूसरा शब्द ‘राम‘, जिसकी विस्तार से चर्चा कामिल बुल्के ने की है और इसका रोचक शास्त्रीय निरूपण कुबेरनाथ राय ने किया है। यहां संक्षेप में, ‘राम‘ शब्द ऋग्वेद में एक राजा के व्यक्ति नाम की तरह आया है, उसे दुःशीम पृथवान और वेन नामक राजाओं की तरह प्रशंसनीय दानवीर बताया गया है, इसे करपात्री जी ने रामायण के ही राम माना है। तथा इक्ष्वाकु उल्लेख इस प्रकार है- ‘यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान् मराय्येधते‘, अर्थात् जिसकी सेवा में धनवान और प्रतापवान इक्ष्वाकु की वृद्धि होती है। इस संज्ञा वाले अन्य पात्र वैदिक-पौराणिक साहित्य में भी हैं।

भद्रो भद्रया सचमानः आगात, स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्। 
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन, रूशर्द्भिर्वर्णेरभि राममस्थात्।। (ऋग्वेद 10-3-3)
इस एक वैदिक ऋचा में संपूर्ण रामकथा संक्षेप में आ जाती है, ऐसी व्याख्या भी प्रचलित है- भजनीय रामभद्र, भजनीय सीता द्वारा सेवित होते हुए उनके साथ वन में आए। सीता को चुराने के लिए राम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति में रावण आया। वह सीता को चुरा कर ले गया। राम द्वारा रावण के मारे जाने पर अग्नि देवता राम की पत्नी सीता के साथ राम के सामने तेज के साथ उपस्थित हुए और असली सीता को उन्हें सौंप दिया। 

‘राम‘ शब्द विभिन्न एशियाई भाषाओं में है, अधिकतर सकारात्मक आशय वाला। वैदिक साहित्य के ‘राम‘ का शाब्दिक अर्थ रम्य, रमणीय या सुखद जैसा है। राम का एक अर्थ सुखद -आदर्श पुत्र भी माना गया है। श्रीरामरहस्योपनिषद के अंतिम पांचवे अध्याय में हनुमान ‘राम‘ शब्द की व्याख्या करते हुए यह भी कहते हैं- ‘अग्नीषोमात्मकं रूपं रामबीजे प्रतिष्ठितम् ... रामबीज-रां में अग्नि-सोम विश्वरूप प्रतिष्ठित है। पातंजल महाभाष्य के कथन को इससे जोड़ कर देखा जा सकता है- ‘एकः शब्दः सम्यगधीत्यः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुम् भवति‘- सम्यक रीति से ज्ञात तथा सुप्रयुक्त एक शब्द भी इस लोक और स्वर्ग में कामधेनु जैसा है। इस रामबीज शब्द या एकाक्षर मंत्र रां को रांड्ा, जिसका उच्चारण रांगा-रंगा हो जाता है, से भी जोड़ा जाता है। इसी से रंज या गुस्से में लाल होना निकलता है या ‘जियो मेरे लाल‘ या लल्ला, जहां लाल का अर्थ पुत्र है और दूसरी तरह छत्तीसगढ़ी का लाल के लिए समानार्थी शब्द ‘रंगहा‘, जहां रंग का मतलब ही लाल है। संभव है कि यह खून के रंग के कारण समानार्थी हुआ हो, जैसे अपने पुत्र-पुत्री वंशजों को ‘अपना खून‘ कहा जाता है। ‘लालमुनियां‘ चिड़िया के नर-मादा भिन्न होते हैं, नर का रंग लाल होता है और आकार-प्रकार में वैसी ही मगर मादा के रंग में लाली नहीं होती, माना जाता है कि लाल-नर (प्रिय बेटा) और मुनियां (प्यारी बिटिया) को मिला कर इस लोकप्रिय ‘केज बर्ड‘ को नाम दिया गया है।

कहा जाता है कि मानस की प्रत्येक चौपाई में ‘र‘ अथवा ‘म‘ आता है इतना ही नहीं प्रत्येक पंक्ति-अर्धाली में भी ‘र‘, ‘म‘, ‘स‘ अथवा ‘त‘ अवश्य है। ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक ‘द माडर्न वर्नाकुलर लिट्रेचर आफ हिंदूस्तान‘ का पांचवा अध्याय गोसाँईँ तुलसी दास से आरंभ होता है, जिसमें एक पाद टिप्पणी में वे लिखते हैं कि गया जिले के दाउदनगर के बाबू जवाहिर मल्ल ने उन्हें जानकारी दी कि वे एक ऐसे वृद्ध को जानते थे, जिनके पूर्वजों को स्वयं तुलसीदास ने बताया था कि उन्होंने अपनी कविता की ऐसी कोई पंक्ति नहीं लिखी, जिसमें ‘र‘ या ‘म‘ न हो। ग्रियर्सन टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि यदि सचमुच ऐसा हो तो यह संदिग्ध अंशों के असल होने के परीक्षण के लिए महत्वपूर्ण है। मगर क्या सचमुच तुलसी ने ऐसा सप्रयास किया? ऐसा तो नहीं कि यह इसलिए संभव हुआ कि र-म-स-त वर्णमाला के ऐसे चार अक्षर हैं, जिनका उपयोग सबसे अधिक और हर आम-खास लेखन में होता है।

प्रसंगवश, स्वामी करपात्री जी महाराज ने अपने विशाल ग्रंथ ‘रामायणमीमांसा‘ में महाभारत-रामोपाख्यान को रामायण का स्रोत नहीं, रामायण को ही रामोपाख्यान का स्रोत मानते हैं साथ ही पाठ-भेद आदि की समीक्षा करते हुए बौद्ध-जैन रामचरित, भदंत आनंद कौसल्यायन और बुल्के सहित डॉ. वेबर, डॉ. याकोबी, डॉ. हाप्किन्स, डॉ. वान नेगलैन जैसे विदेशी अध्येताओं की प्रखर आलोचना करते हैं। असहमत होने पर ‘यह सब अटकलपच्चू भिड़ंत भिड़ाना मात्र है‘ कहते हुए धज्ज्यिां उड़ते हैं। करपात्री जी की पुस्तक ‘रामायणमीमांसा‘ का दूसरा अध्याय ‘कामिल बुल्के की रामकथा‘ है, जिसका आरंभ इस प्रकार है- ‘वास्तव में ईसाइयत फैलाने की दृष्टि से ही श्रीबुल्के ने रामकथा लिखी है‘। करपात्री जी को पढ़ते हुए स्पष्ट होता है कि रामकथा-आस्था की जिन विसंगतियों को रेखांकित करने के लिए भिन्न स्रोत-संदर्भ का आधार लिया जाता है, उन विसंगतियों, विरोधाभास को अन्य संदर्भों का आधार लेते, टीका करते उन्हें तार्किक रूप से औचित्यपूर्ण भी ठहराया जा सकता है। बहरहाल, विभिन्न रामकथाओं का उल्लेख, उन पर विस्तृत समीक्षात्मक विवरण और टिप्पणी के लिए यह ‘रामायणमीमांसा‘ और फादर कामिल बुल्के की ‘रामकथा‘ विशेष महत्व के हैं। 

सब जग सीयराम मय है, यहां सीता-राम के विवाह-संयोग को युग-संधि प्रसंग की तरह देखा जा सकता है। मानव सभ्यता के क्रम में खाद्य-संग्राहक आखेटजीवी काल को त्रेतायुग और कृषिजीवी गोपालक काल का जोड़ द्वापर के साथ बिठाया जाता है। त्रेता के धनुर्धारी राम (परशुधारी एक अन्य परशु‘राम‘), शिकारी हैं और सीता, कृषि-कर्म, हल जोतने से उत्पन्न हैं, द्वापर के गोपालक कृष्ण और हलधर एक अन्य बल‘राम‘ से जुड़ती हुई, यों भी सीता के पिता विदेहराज जनक, सीरध्वज हैं यानि जिनके ध्वज पर सीर-हल हो, मानों वह कृषक समाज के झंडाबरदार हों। 

गौरी-पूजन के लिए फुलवारी में आई जनकतनया की विशिष्ट ‘शुभदृष्टि‘ का नाजुक प्रसंग है- ‘सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे।। रामकथा का बालकांड मांगलिक है ही, वैवाहिक-मंगल, रामकथा का अनूठा नाटकीय-तत्व युक्त प्रसंग भी यही है। इसकी महत्ता ‘सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं। तिन्ह कहूं सदा उछाहु मंगलायतनु राम जसु।।‘ के कारण भी गाई-सुनी जाती है। तुलसी ने मानस में एक अन्य ‘लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई।।‘ मांगलिक अवसर शिव-पार्वती विवाह का भी बनाया है। उनका मन इतने से नहीं भरा, उन्होंने अलग से ‘पार्वतीमंगल‘ और जानकी मंगल‘ भी रचा। इसके अलावा उनकी एक रचना ‘रामलला नहछू‘ है। यों नहछू विवाह संस्कार के अलावा यज्ञोपवीत के अवसर पर भी होता है। और कवितावली का मांगलिक पद- ‘दूलह श्री रघुनाथ बने, दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीं‘। 

अब वाल्मीकि रामायण का पैंसठवें और उससे आगे के सर्ग देखना रोचक होगा, जहां विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ यज्ञ में आए हैं। विश्वामित्र जनक से कहते हैं कि दशरथ के ये दोनों पुत्र आपके यहां रखे धनुष को देखना चाहते हैं। ये दोनों धनुष के दर्शन मात्र से संतुष्ट हो कर अपनी राजधानी लौट जाएंगे। जनक धनुष और अयोनिजा सीता का वृत्तांत सुनाते हुए कहते हैं कि मैंने यह निश्चय किया है कि जो इस धनुष को चढ़ा देगा, उसी से सीता का ब्याह करूंगा। यदि श्रीराम इस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा दें तो सीता को इनके हाथ में दे दूंगा। धनुष लाया गया और राम ने उसे उठा कर सहज प्रत्यंचा चढ़ा दी। धनुष को कान तक खींचते ही वह बीच से टूट गया। तब जनक ने अपनी पुत्री, श्रीराम को समर्पित करना तय किया। विश्वामित्र की अनुमति से दशरथ को लिवाने भेज दिया गया। दशरथ को बताया गया कि विश्वामित्र के साथ घूमते-फिरते आए आपके पुत्र राम ने अपने पराक्रम से सीता को जीत लिया है। दशरथ के मिथिला पहुंचने पर यज्ञ यमाप्ति के बाद विवाह का शुभ कार्य सम्पन्न होना निश्चित हुआ। वसिष्ठ इक्ष्वाकु वंश का और जनक अपने कुल का परिचय देते हैं। तदंतर सीता को राम के लिए और उर्मिला को लक्ष्मण के लिए समर्पित करते हैं। जनक के छोटे भाई कुशध्वज की दोनों कन्याओं का विवाह भरत और शत्रुघ्न के साथ तय हो जाता है। सारी तैयारी के बाद सीता को ला कर अग्नि के समक्ष (पहली बार) राम के आगे बिठाया जाता है, पाणिग्रहण होता है। चारों भाइयों का विवाह होता है और वे अपनी-अपनी पत्नियों के साथ जनवासे चले जाते हैं। यहां इस तरह सारा कुछ संपन्न हो जाने के बाद परशुराम आते हैं। 

देखते चलें कि अध्यात्म रामायण का छठां सर्ग धनुर्भंग और विवाह का है, जिसमें विश्वामित्र, राम और लक्ष्मण को जनक की मिथिलापुरी में यज्ञोत्सव दिखाने ले जाते हैं। विदेह नगर में पहुंच कर जनक से कहते हैं कि तुम्हारे यहां शंकर का धनुष देखने आए हैं। इस पर जनक अपनी ओर से बात जोड़ते हैं कि राम धनुष उठा कर, उसे चढ़ा देंगे तो अपनी क्न्या सीता उनसे विवाह दूंगा। राम ने आसानी से धनंष को थाम कर उसे चढ़ा कर खींचा और तोड़ डाला तब सीता मंद-मंद मुसकाती जयमाल राम को पहना कर प्रसन्न हुईं। फिर दशरथ को विवाहोत्सव के लिए बुलावा जाता है। राम-सीता के विवाह के साथ अपनी औरसी कन्या उर्मिला लक्ष्मण को तथा अपने भाई की पुत्रियां मांडवी और श्रुतकीर्ति क्रमशः भरत और शत्रुघ्न को ब्याह दीं।

आनंद रामायण, सार कांड के तीसरे सर्ग में विवाह प्रसंग कुछ इस तरह आता है- अहल्या उद्धार के बाद गंगा पार कर राम मिथिलापुरी की ओर बढ़े। वहां बड़ी संख्या में निमंत्रित राजा और अनामंत्रित रावण भी पहुंचा। विश्वामित्र के शिष्य ने एकांत में ले जा कर राजा जनक को संदेश सुनाया कि वे अपने दशरथ के दो पुत्रों को साथ लेकर आए हैं, ये सीता तथा उर्मिला का पाणिग्रहण करेंगे और धनुष रामचंद्र जी तोडेंगे, जब तक धनुष भंग न हो, तब तक यह किसी से न बताइएगा। जनक ने विश्वामित्र से अनजान की तरह दोनों बालकों का परिचय पूछा। राम-लक्ष्मण का स्वागत देख कर राजाओं को संदेह होने लगा कि सीता-परिणय पूर्वनिर्धारित तो नहीं! धनुष आता है, राजाओं के असफल होने के बाद रावण की बारी आती है, रावण धनुष तो उठा ही नहीं पाता, उल्टे धनुष उसकी छाती पर गिर जाता है, मुकुट दूर जा गिरता है इतना ही नहीं धोती खुल जाती है और उसके पहने हुए वस्त्रों में मल-मूत्र निकल जाता है। तब राम आगे आए और आसानी से धनुष उठा कर डोरी चढ़ा दी, और धनुष के तीन टुकड़े हो गए। इस बीच सीता प्रार्थना करती है कि राम धनुष चढ़ाने में समर्थ हों और मुनिवृत्ति धारण कर राम की अनुगामिनी बन कर उनके साथ चौदह वर्ष तक वन में भ्रमण करूं। सीता हथिनी पर सवार हो कर आती हैं, नेत्र कटाक्ष से राम को देखती हुई हथिनी से उतर कर लज्जापूर्वक नवरत्नों का हार अपने हाथों से राम के गले में डालती हैं।

आनंद रामायण जन्मकांड के आठवें सर्ग में सीता पृथ्वी में समाने लगती हैं, राम पहले तो पृथ्वी से निवेदन करते हुए कहते हैं- ‘जानकी तव कन्येयं श्वश्रूस्तवं मेऽधुना त्विह। कन्यादानं कुरु मुदा त्वया पूर्वं कृतं न हि‘ सीता आपकी कन्या है, इस नाते आप मेरी सास हैं। आपने विवाह के समय कन्यादान नहीं किया था, सो अब कर दीजिए। पृथ्वी राम की बात अनसुना करती हैं, इस पर राम क्रुद्ध होते हैं, धनुष पर बाण चढ़ाने लगते हैं, तब पृथ्वी स्वयं सीता को उठा कर राम की गोद में बिठा देती हैं। 

डोंगरे जी महाराज की रामकथा और उनके वचनों में ऐसी तल्लीनता होती है कि वाल्मीकि-तुलसी परंपरा से अभिन्न हो जाते हैं, श्रद्धालु उन्हें ‘अर्वाचीन शुक‘ के समान मानते हैं। उनके ‘तत्त्वार्थ रामायण‘ में आया प्रसंग विशिष्ट मनभावन है- विश्वामित्र, राम को मांगने आए हैं, दशरथ अपनी आंखों के इस तारे को अपने से दूर होने की सोच भी नहीं सकते। इस पर वशिष्ठ दशरथ को समझाते हुए कहते हैं कि कल ही राम का जन्माक्षर देखते मुझे विश्वास हुआ कि इसी वर्ष राम के लग्न का योग है और लगता है विश्वामित्र राम के लग्न के लिए ही आए हैं। दशरथ यह कहते हुए सहमत होते हैं कि राम में वैराग्य जागृत हुआ है, उसे कुछ समझाइये। यहीं योगवासिष्ठ की भूमिका बनती है। मगर डोंगरे जी की कथा में आगे धनुषभंग के बाद सीता, राम को विजयमाला अर्पण करने आती हैं, राम सोचते हैं, सीता बहुत सुंदर हैं, इससे क्या? मां आज्ञा दें तो ही मैं लग्न करूं। साथ ही लक्ष्मण का भी विवाह करने को कहते हैं। ... विश्वामित्र के निश्चित किए अनुसार लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का भी लग्न क्रमशः उर्मिला, मांडवी और श्रुतिकीर्ति के साथ निश्चित हुआ। कन्यादान-पाणिग्रहण पर राम को ‘प्रतिगृह्णामि‘ कहने को कहा जाता है, राम वैसा ही कहते हैं किंतु लक्ष्मण को ‘प्रतिगृह्णामि‘ बोलने को कहा जाता है तो उन्हें मौज सूझती है, वे सोचते हैं कि मंगलाष्टक हो गया है, कन्या का हाथ मेरे हाथ में आ गया है, क्यों न थोड़ा हठ करूं, और कहते हैं कि प्रतिगृह्णामि तो ब्राह्मण बोलते हैं, जो दान लिया करते हैं, हम क्षत्रिय दान लेते नहीं, दान दिया करते हैं ‘प्रतिगृह्यताम‘ बोला करते हैं। उन्हें समझाया जाता है कि तुम्हारे बड़े भाई ने भी तो प्रतिगृह्णामि कहा है। इस पर लक्ष्मण कहते हैं कि वे तो भोले हैं, उन्हें जैसा कहा गया उन्होंने किया। बात अड़ गई वशिष्ठ के मनाने पर भी लक्ष्मण राजी नहीं हुए। तब विश्वामित्र ने उन्हें समझाया कि चाहे मंगलाष्टक हो गया हो, प्रतिगृह्णामि नहीं बोलोगे तब तक लग्न पक्की नहीं मानी जाएगी, तब कहीं जा कर लक्ष्मण मानते हैं। विवाह के दौरान हास-परिहास होता है। जनकपुरी की एक स्त्री बोलती है कि अयोध्या की स्त्रियां तो जबरदस्त हैं, खीर खाती हैं और बालक को जन्म देती हैं। राम आनंद लेते हैं, मगर लक्ष्मण को बात बरदाश्त नहीं होती, खीझ कर जवाब देते हैं कि जनकपुर का तो ऐसा भी रिवाज है, यहां की स्त्रियां ऐसी करामाती हैं कि इनके यहां धरती फटने से ही छोकरियां जन्मती हैं।

छत्तीसगढ़ के कवि शुकलाल प्रसाद पांडेय (1885-1951) की रचना है ‘मैथिली मंगल‘। उन्होंने सरल भाव से व्यक्त किया है कि जबलपुर के राजा गोकुलदास के यहां विवाह का कल्पनातीत वृहद आयोजन देख कर उनके मन में आया कि राम-सीता का विवाह कितना दिव्य रहा होगा और उसे किस तरह से शब्दों में, काव्य में उतारा जा सकता है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ की ही एक अन्य उल्लेखनीय और मनोरम रचना गिरधारीलाल रायकवार जी रचित हल्बी नाटक ‘सीता बिहा नाट‘ है। इस नाटक के संदर्भ में 1998 में मध्यप्रदेश के जनसंपर्क विभाग से प्रकाशित (तत्कालीन मंत्री हमारे गृह जिले के डॉ. चरणदास महंत) डॉ. हीरालाल शुक्ल संपादित-संयोजित हल्बी, माड़िया और मुरिया रामकथा के तीन भारी-भरकम खंडों का उल्लेख आवश्यक है, जिनमें गिरधारीलाल जी की यह रचना शामिल है। हमारी संस्कृति में जन्म-मृत्यु के अनिवार्य संस्कार के अलावा विवाह ही सबसे मांगलिक और शास्त्रीय आधार वाला संस्कार है, उल्लेखनीय कि ‘विवाह सूक्त‘ वैदिक ग्रंथों के ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में अपनी विशिष्टताओं सहित शामिल है। एक अन्य उल्लेख, छत्तीसगढ़ सम्मिलित मध्यप्रदेश के दौरान भोपाल में 1970 में ‘रामचरित मानस चतुश्शताब्दी समारोह समिति’ का गठन किया गया। इस समिति के संस्थापक हमारे गृहग्राम अकलतरा निवासी पं. रामभरोसे शुक्ल के मानस-मर्मज्ञ पुत्र पं. गोरेलाल शुक्ल जी (आईएएस) थे। समिति के मानस भवन से ‘तुलसी मानस भारती (मासिक)‘ पत्रिका का प्रकाशन पं. शुक्ल के प्रधान संपादकत्व में आरंभ हुआ।

इस क्रम में छत्तीसगढ़ के राम-साहित्य साधकों का स्मरण आवश्यक है, उन बहुतेरों में से कुछेक-

इस क्रम में बिलासपुर निवासी महामहोपाध्याय जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ अल्प-चर्चित राम-रसिक हैं। उन्होंने तुलसी रामायण का अनुशीलन करते हुए महत्वपूर्ण मीमांसक कृतियों का प्रणयन किया, जो नवपंचामृत रामायण (1896), ‘तुम्हीं तो हो‘ का पहला भाग ‘रामाष्टक‘ (1914), श्रीतुलसी तत्वप्रकाश, रामायण प्रश्नोत्तरमाला सहित (1931), श्रीरामायण वर्णावली (1936), श्रीतुलसी भावप्रकाश (1937) हैं। ‘भानु‘ हिंदी छंदशास्त्र और काव्यशास्त्र के आरंभिक आचार्य हैं साथ ही गणित के भी अधिकारी विद्वान। मैनपुरी निवासी मुंशी सुखदेवलाल की टीका में मानस की संख्यात्मकता से अनुप्रेरित भानु जी का ध्यान इसके आगे अन्य पक्षें पर भी गया। संख्या नव और पांच का संबंध भी दिखा, वही नवपंचामृत रामायण में विवेचित है। अन्य कृतियां नाम से स्पष्ट हैं, किंतु इनमें विषय की मीमांसा और प्रस्तुति अनूठी है। (डॉ. सुशील त्रिवेदी ने विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के शिव सहाय पाठक के निर्देशन में आचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ पर शोध कार्य किया है। यहां उल्लिखित कृतियों की मूल प्रति उनके अनुग्रह से देखने का सुयोग बना।)

डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, मानस में रामकथा (1952), भारतीय संस्कृति को गोस्वामी तुलसीदास का योगदान (चार व्याख्यानों का संग्रह 1953), मानस-माधुरी (1958), खंड काव्य राम-राज्य (1960, पाठ्य संस्करण 1972), तुलसी-दर्शन (1938-39 में डी. लिट्. के लिए हिंदी में प्रस्तुत प्रथम शोध-प्रबंध, सातवां संस्करण 1967 में प्रकाशित) जैसी पुस्तकों के लेखक हैं। डॉ. मिश्र की नातिन सुश्री आभा तिवारी की 2021 में प्रकाशित पुस्तक ‘डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र‘ में जानकारी दी गई है कि 1911 के लुइजि पियो टैसीटोरी और 1918 के जे.एन. कार्पेन्टर के बाद बलदेव प्रसाद मिश्र का तुलसीमानस पर तीसरा, हिन्दी में लिखा प्रथम शोध प्रबंध ‘तुलसी दर्शन मीमांसा‘ 1938 में नागपुर विश्वविद्यालय की डी.लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ था। बलदेव प्रसाद मिश्र पुस्तक ‘मानस में रामकथा‘ (1952) में कहते हैं- ‘पिता का आदेश मानकर एक राजकुमार वन को जाते हैं। उनकी साध्वी सुकुमारी पत्नी भी उनका साथ देती है। वहां एक प्रभुता-मदान्ध सत्ताधीश उस साध्वी बाला को हर ले जाता है जिसकी प्रतिक्रिया में वे राजकुमार वन्यों की सहानुभूति प्राप्त करते और उनकी सहायता से ऐसे प्रबल प्रतिस्पर्धी को भी परास्त करके पत्नी को उन्मुक्त करते और आदेश पूर्ण होने पर पिता के राज्य का उपभोग करते हैं। यही रामायण की मूलकथा है।‘

डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र अभिनन्दन-ग्रन्थ का प्रकाशन 1963 में हुआ था, जिसमें ‘डाक्टर साहब की कृतियों पर कुछ सम्मतियां‘ शीर्षक अंतर्गत डा. राजेन्द्रप्रसाद की सम्मति में, जो मानस माधुरी की भूमिका 26.8.58 के रूप में है, कहा गया है कि ‘मैंने रामायण की कथा ही नहीं उसकी विद्वत्तापूर्ण व्याख्या भी उनके मुख द्वारा सुनी ... और उससे प्रभावित हुआ हूं ...। महावीर प्रसाद द्विवेदी की सम्मति के अंश इस प्रकार हैं- ‘बलदेव प्रसादाय शास्त्रज्ञाय महात्मने, सादरं बुधवर्याय भूयो भूयो नमोस्तुते। ... ‘तुलसी-दर्शन‘ की कापी आपने क्या भेजी मुझे संजीवनी का दान दे डाला। ... मैं मुग्ध हो गया। आप धन्य हैं। ऐसी पुस्तक लिखी जैसी तुलसी पर आज तक किसी ने न लिखी और न ही आशा है कि आगे कोई लिखेगा। ... आपने इस विषय में जो विद्वता प्रदर्शित की है वह दुर्लभ है। ... भैया मिश्रजी, मैं रामायण का भक्त हूँ ... मुझे मेरे मन की पुस्तक लिखकर भेजी, धन्यवाद। भगवान आपका कल्याण करें‘ (22.9.38)। रामचंद्र शुक्ल की सम्मति है- (तुलसी दर्शन में)‘मिश्रजी ने बड़ी पूर्णता के साथ विषय का प्रतिपादन किया है। उन्होंने वैदिक, पौराणिक और भक्ति-साहित्य के विशाल भण्डार से सामग्री संकलित करके बड़े विवेक के साथ उसका उपयोग किया है। उनका शोध-प्रबंध महान अध्यवसाय और व्यापक अध्ययन का परिणाम है।‘ (परीक्षक के रूप में विश्वविद्यालय को भेजी गई रिपोर्ट-18.7.38), मगर यह कुछ पढ़ते-लिखते मन में सवाल अटका रह जाता है कि इसका मूल स्रोत/दस्तावेज, सुरक्षित और कहीं उपलब्ध हैं?

रायपुर में नृतत्वशास्त्र के प्राध्यापक रहे डॉ. ठाकोरलाल भाणाभाई नायक ने जनजातीय समुदाय में प्रचलित रामकथाओं का सर्वेक्षण कर प्रकाशित कराया था, जिसमें अगरिया जनजाति में प्रचलित रामकथा तथा ‘भिलोदी रामायण‘ की चर्चा है। डॉ. नायक के संपादन में आदिमजाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्था, छिन्दवाड़ा से 1964 में छत्तीसगढ़ से जुड़े मंडला अंचल में परधानों की गीतकथा ‘रामायनी‘ का प्रकाशन हुआ था।

हरि ठाकुर ने ‘छत्तीसगढ़ में रामकथा का विकास‘ शीर्षक लेख द्वारा इस विषय का विस्तार से परिचय दिया था। उनकी 1990 की डायरी में 47 रामकथा-साहित्य की सूची है, जो महाकवि नारायण के रामाभ्युदय महाकाव्य से आरंभ होती है, मगर क्रमांक में आरंभिक 10 इस प्रकार हैं- 1 राम प्रताप-महाकवि गोपाल, 2 तास रामायण-ठाकुर भोला सिंह बघेल, 3 छत्तीसगढ़ी रामचरितनाटक- उदयराम, 4 मैथिली मंगल-शुकलाल प्रसाद पाण्डेय, 5 कोशल किशोर-डा. बलदेव प्रसाद मिश्र, 6 छत्तीसगढ़ी रामायण-पं. सुन्दरलाल शर्मा, 7 वैदेही-विछोह- कपिलनाथ कश्यप, 8 राम विवाह- टीकाराम स्वर्णकार, 9 राम केंवट संवाद-पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र 10 राम बनवास- श्यामलाल चतुर्वेदी (पूरी सूची अन्यत्र उपलब्ध है)।

मुकुटधर पांडेय ने छत्तीसगढ़ी का सामर्थ्य प्रमाणित किया है कालिदास के ‘मेघदूत‘ का छत्तीसगढ़ी अनुवाद कर। इसके अलावा उन्होंने मानस के उत्तरकांड का भी छत्तीसगढ़ी अनुवाद किया है। हेमनाथ यदु ने किष्किंधाकांड का छत्तीसगढ़ी अनुवाद किया। 1992-93 में ‘छत्तीसगढ़ी सरगुजिया गीत नृत्य रामायण‘ प्रकाशित हुई, जिसके संगृहिता लेखक समर बहादुर सिंह देव हैं। पुस्तक की पहली प्रति तत्कालीन राष्ट्पति शंकरदयाल शर्मा जी को प्रेषित की गई थी, जिसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने इस संग्रह को महत्वपूर्ण मानते हुए इसकी प्रशंसा की थी। अंबिकापुर के ही रामप्यारे ‘रसिक‘ की पुस्तिका सरगुजिहा रामायण है।

इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पश्चात डॉ. मन्नूलाल यदु जी ने रामकथा पर कई छोटी-बड़ी पुस्तकों का प्रकाशन कराया। श्री प्रहलाद विशाल वैष्णव ‘अचिन्त‘ का तीन भागों में ‘रमाएन‘ क्रमशः 2013, 2015 तथा 2016 में प्रकाशित हुआ है, पुस्तक के शीर्षक के साथ जिसे ‘श्रीराम कहानी छत्तीसगढ़ी पद‘ कहा गया है। मेरी जानकारी में आए दो अन्य ग्रंथों का उल्लेख- रामसिंह ठाकुर द्वारा रामचरित मानस का हल्बी पद्यानुवाद और हमारे गृह-ग्राम निवासी गुलाबचंद देवांगन का ‘छत्तीसगढ़ी रमायेन‘। यह क्रम लंबा है, इसे यहां विराम देते हुए आगे बढ़ते हैं।

राम के वन-गमन से जुड़े दो रोचक प्रसंग हैं जिसमें पहला, भास के ‘प्रतिमा‘ नाटक का है। भास के इस नाटक की विलक्षण नाटकीयता बार-बार चमत्कृत करती है। नाटक के आरंभ में राम के राज्याभिषेक की तैयारी हो रही है ‘सामयिक अभिनय‘ दिखाने की तैयारी हो रही है। सीता की सेविका संयोगवश अशोकपत्र के बजाय वल्कल वस्त्र ले आती है। सीता पहले तो उसे लौटाने को कहती हैं, मगर उनकी इच्छा वल्कल धारण कर देखने की हो जाती है। तभी राज्याभिषेक के लिए बज रहे बाजों की आवाज अचानक थम जाती है और पात्र चेटी कहती है कि मैंने ऐसा सुना है कि राजकुमार का तिलक कर महाराजा वन में चले जायेंगे। इधर महाराजा ने राम का राज्याभिषेक स्थगित कर वन के लिए विदा कर दिया। अब राम सीता से मिलने आते हैं, दासी कहती है राजकुमार आ रहे हैं, आपने वल्कल नहीं उतारा! राम और सीता के बीच वार्तालाप होता है और राम कहते हैं मेरी अर्द्धांगिनी होकर तुमने पहले ही वल्कल पहन लिया, तो समझो मैंने भी पहन लिया। दूसरा रोचक प्रसंग सोलहवीं शताब्दी की रचना ‘अध्यात्म रामायण‘ का है, जिसमें राम द्वारा सीता को छोड़ कर वन गमन जाने की बात पर सीता का तर्क, आपने बहुत-से ब्राह्मणों के मुख से बहुत-सी रामायणें सुनी होंगी, बताइये, इनमें से किसी में भी क्या सीता के बिना रामजी वन को गये हैं? (प्रसंगवश राम वनगमन पथ पर अकादमिक-शोध दृष्टि से आरंभिक लेख एफ.इ. पार्जिटर का है, जो ‘द जर्नल ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड‘, अप्रैल 1894 अंक में पेज 231-264 पर प्रकाशित हुआ था।)

राम के राज्याभिषेक और वनवास के बीच मंथरा-कैकेयी के आने के पहले ही वाल्मीकि के राजा दशरथ केकय नरेश और मिथिलापति को राज्याभिषेक के लिए नहीं बुलवाते। यह भी कहते हैं कि जब तक भरत इस नगर से बाहर अपने मामा के यहां हैं, इसी बीच राज्याभिषेक हो जाना उचित प्रतीत होता है। राम लक्ष्मण से कहते हैं तुम मेरे साथ इस पृथ्वी के राज्य शासन करो, तुम मेरे द्वितीय अंतरात्मा हो, यह राजलक्ष्मी तुम्हीं को प्राप्त हो रही है। इधर तुलसी के राम ‘भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। कहते हुए भरत को याद करते हैं। यह भी कहते हैं- हम सब भाई एक साथ जन्मे, खाना-सोना, खेल-कूद, संस्कार साथ-साथ हुए ‘बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।’ पर सब भाइयों को छोड़ कर राज्याभिषेक एक बड़े का ही हो रहा है। दशरथ की मृत्यु के बाद राम से मिलने गए भरत बचपन के ‘हारेहुं खेल जितावहिं मोही‘ याद कर रहे हैं, मानों इसी तरह उन्हें राजगद्दी मिली है। यहां एक अन्य उल्लेख प्रासंगिक होगा। रामकथा में शत्रुघ्न की चर्चा कम होती है। उत्तरकांड के बासठवें-तिरसठवें सर्ग में मधु-कैटभ वाले मधु के पुत्र लवणासुर के वध का काम भरत अपने जिम्मे लेने को तैयार होते हैं, इस पर मझले भैया तो बहुत सारा कार्य कर चुके हैं कहते हुए शत्रुघ्न यह काम अपने हिस्से लेना चाहते हैं। राम उन्हें इसकी स्वीकृति देते हुए मधु के नगर में राजा के पद पर अभिषिक्त करने की बात कहते हैं। इस पर शत्रुघ्न से कहलाया गया है कि बड़े भाइयों के रहते हुए छोटे का अभिषेक कैसे किया जा सकता है?

राज्याभिषेक के बजाय वनवास की खबर पा कर कौसल्या सोच रही हैं ‘लिखत सुधाकर गा लिखि राहू‘ और राम से कही गई उनकी बात बहुत बारीक और खास है- ‘जौं केवल पितु आयसु ताता ...‘, केवल पिता की आज्ञा हो तो माता को बड़ी जान कर वन मत जाना, किंतु पिता-माता दोनों कहें तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों अयोध्या समान है। मगर खुलासा यह भी कहती हैं कि बड़ी रानी होकर भी छोटी सौतों से अप्रिय वचन सुनना पड़ेगा, तुम्हारे निकट रहने पर भी मैं उनसे तिरस्कृत रही हूं और बेहद मारक- ‘पति की ओर से मुझे सदा अत्यंत तिरस्कार अथवा कड़ी फटकार ही मिली है, कभी प्यार और सम्मान प्राप्त नहीं हुआ है। मैं कैकेयी की दासियों के बराबर अथवा उनसे भी गयी-बीती समझी जाती हूं।‘ कौसल्या शायद कैकेयी और सुमित्रा के अलावा ‘त्रयः शतश्तार्धा हि ददर्शावेक्ष्यं मातरः‘ उन साढ़े तीन सौ सौतों के बारे में सोच रही हैं, राम वन-गमन के पूर्व जिनकी ओर दृष्टिपात करते हैं।

रामकथाओं के अंदर शामिल ऐसी राम-कथा, अध्यात्म रामायण में ही नहीं, अन्यत्र भी है। वाल्मीकि रामायण के बालकांड के चौथे सर्ग में ही राजकुमार कुशीलव- कुश और लव, दोनों भाइयों को ‘काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायाश्चरितं महत्। पौलत्स्यवधमित्येवं चकार चरितव्रतः।। सीता चरित युक्त संपूर्ण रामायण नामक महाकाव्य, जिसका एक नाम पौलस्त्यवध है, का अध्ययन कराया। और फिर उत्तरकांड, तिरानबेवें सर्ग में पात्र-रूप में स्वयं वाल्मीकि द्वारा कुशीलव- कुश और लव को ‘कृत्स्नं रामायणं काव्यं गायतां परया मुदा‘ संपूर्ण रामायण-काव्य का गान करने के लिए कहने-गायन करने का उल्लेख आता है। मगर इसके पहले इकहत्त्रवें सर्ग में शत्रुघ्न अयोध्या जाते हुए रास्ते में वाल्मीकि आश्रम में रुकते हैं, वहां उन्हें रामचरित सुनने को मिला, जो पहले ही काव्यबद्ध कर लिया गया था। ... उस काव्य के सभी अक्षर एवं वाक्य सच्ची घटना का प्रतिपादन करते थे और पहले जो वृत्तांत घटित हो चुके थे, उनका यथार्थ परिचय दे रहे थे। साथ ही हरिवंशपुराण में बताया गया है वाल्मीकि के पहले रामकथा का गायन सूतों, चारण-कुशीलवों द्वारा किया जाता था और विष्णुपर्व में यदुवंशियों द्वारा ‘रामायणं महाकाव्यमुद्दिश्य नाटकं कृतम्‘ रामायण का नाटक खेलने का उल्लेख है। मानस रामकथा, शिव-पार्वती संवाद या प्रश्नोत्तर, जिज्ञासा-समाधान है। देवताओं में शिव बड़े किस्सागो हैं। सबसे पुरानी लौकिक कथा ‘वृहत्कथा’ भी शिव द्वारा पार्वती को सुनाए गए किस्से है। यहां स्पष्ट होता है कि पार्वती रामकथा के किसी संस्करण से पूर्व-परिचित हैं, लेकिन उनके मन में कई जिज्ञासा-शंका है, जिसे दूर करने के लिए वे शिव जी से, उन शंकाओं के समाधानकारक रूप में रामकथा सुनना चाहती हैं।

कालिदास के रघुवंश, चौदहवें सर्ग में राज्य पाकर राम भवन में सीता सहित निवास कर रहे हैं, जहां वनवास काल के चित्र टंगे हैं, वे गर्भवती सीता से उनकी इच्छा पूछते हैं। सीता गंगा तटवर्ती तपोवनों को देखना चाहती हैं ... जहां उनकी तपस्वी कन्याएं सखियां रहती हैं और कुशा की झाड़ियां चारों ओर फैली हैं। इस पर राम कहते हैं, तुम्हें उस तपोवन में अवश्य भेजूंगा। यहीं गुप्तचर भद्र जनता द्वारा रावण के घर रही सीता को स्वीकार कर लिए जाने को अनुचित मानने की बात कहता है। प्रसंगवश राधावल्लभ त्रिपाठी ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि इसी प्रसंग में बन्धु शब्द का विशिष्ट प्रयोग है- तैंतीसवें श्लोक में ‘वैदेहिबन्धोः हृदयं विदद्रे- वैदेही-बन्धु राम का हृदय फट गया।‘ कालिदास ने ऐसा ही प्रयोग अन्यत्र मेघदूत के पूर्वमेध के छठें श्लोक में है, जहां यक्ष, यक्षिणी ‘बन्धु‘ का प्रयोग करता है- ‘विधिवशात् दूरबन्धुः- भाग्यवश जिसका बंधु (प्रियजन) दूर है। रवींद्रनाथ टैगोर अपने पत्रों में संबोधन ‘भाई‘ का प्रयोग करते थे, अपनी पत्नी के लिए भी- ‘भाई छुटि‘।

कालिदास के परवर्ती भवभूति के ‘उत्तररामचरित‘ का अंश उल्लेखनीय है, जिसके आरंभ में ही लक्ष्मण, राम से कहते हैं- ‘अर्जुनेन चित्रकरेणास्मदुप-दिष्ठमार्यस्य चरितमस्यां वीथ्यामभिलिखितम्। तत् पश्यत्वार्यः। ’ - अर्जुन चित्रकार ने हमारे आदेशानुसार आपके चरित्र को इस चित्रमय श्रेणी में चित्रित किया है। अतः आप इसे देखें। राम चित्रवीथि में जाने से पहले पूछ लेते हैं कि चरित्र कहां तक चित्रित किया गया है?, आगे वीथि में लक्ष्मण, सीता को चित्रों से परिचित कराते हैं। मांगलिक कृत्य कर विवाह के लिए दीक्षित चारों भाइयों का चित्र देख कर सीता कह पड़ती हैं- ‘ऐसा लग रहा है कि उसी स्थान एवं उसी समय में हूं।‘ आगे बढ़ते सीता-वियोग प्रसंग आते राम लक्ष्मण को टोकते हैं और लक्ष्मण कहते हैं ‘(गर्भवती) आर्या भी थक गई हैं, इसलिए निवेदन करता हूं कि विश्राम करें। यहीं नाटकीय पेंच आता है, सीता कहती हैं ‘मुझे लगता है कि फिर स्निग्ध और निस्तब्ध वनवीथियों में विहार करके पवित्र, स्वच्छ और शीतल जलवाली भगवती में स्नान करूं। और नाटक का अगला संवाद राम का है- ‘वत्स, अभी ही गुरुजनों का संदेश मिला है कि गर्भवती सीता की अभिलाषा शीघ्र पूर्ण होनी चाहिए। अतः अबाध गति वाला रथ उपस्थित करो।

उत्तररामचरित की चर्चा में नाटक के पांचवें अंक में राम पर व्यंग्यात्मक आक्षेप से कटाक्ष का उल्लेख होता ही है, जिसमें पात्र लव से कहलाया गया है- ‘वृद्धास्ते(वन्द्याः) न विचारणीयचरितास्तिष्ठन्तु किं(हुं) वर्ण्यते ... वे (राम) वृद्ध गुरुजन हैं, अतः उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए, उनके लिए क्या कहें, सुन्द-पत्नी का (ताड़का-स्त्री पर शास्त्र-निषिद्ध प्रहार) वध कर देने पर भी निर्दोष कीर्ति वाले वे लोक में महान ही हैं। खर से युद्ध में तीन पग पीछे हटाए (वस्तुतः सन्निकट होने से बाण में तीव्रता नहीं आती, इसलिए पीछे हट कर संधान किया था) थे, इंद्र-पुत्र (वाली) के वध में जिस कौशल (ताल वृक्षों के ओट में छुप कर वार) का प्रयोग किया, उससे तो सभी परिचित हैं। परवर्ती टीकाकारों में इस अंश का खंडन-मंडन होता रहा है। इतना ही नहीं नाटक के पहले अंक में सीता निर्वासन का फैसला करने को मजबूर, व्यथित राम स्वयं के लिए ‘अतिवीभत्सकर्मानृशंसोऽस्मि, छद्मना परिददामि, अपूर्वकर्मचण्डालमयि‘ तक पहुंच जाते हैं।

वापस उत्तररामचरित, जहां चित्रवीथि है और प्रसंगवश, कालिदास के पूर्ववर्ती भास के प्रतिमा नाटक के तृतीय अंक में भरत, पिता दशरथ की मृत्यु से अनभिज्ञ अयोध्या लौट रहे हैं और नगर प्रवेश के पहले देवकुलिकाओं की प्रतिमा से परिचित होते हैं, जिनमें क्रमशः दिलीप, रघु, अज की प्रतिमा है, आगे बढ़ने से भरत घबरा कर पूछते हैं ‘क्या जीवितों की भी प्रतिमा स्थापित की जाती है?, जवाब मिलता है, ‘नहीं, केवल मृतकों की।‘ यह सुन कर भरत जाने की बात कहते हैं, मगर देवकुलिक कहता है- ‘ठहरो, जिन्होंने स्त्री शुल्क के लिए अपने राज्य और प्राण सब कुछ त्याग दिए, उन महाराज दशरथ की प्रतिमा के विषय में आप क्यों नहीं जानना चाहते।‘ यह सुनते ही आशंकित भरत मूर्च्छित हो जाते हैं। काव्य रघुवंशम् और नाटक के इन दो उद्धरणों की नाटकीयता है कि राम के वन-गमन में सीता का अनजाने वल्कल धारण करना और गर्भवती सीता का वनवीथियों में विहार की दोहद-साध से उनका निर्वासन परोक्ष ही सही, उत्तरदायित्व स्वयं सीता पर है।

कालिदास के रघुवंश का आरंभ सदाचारी राजा दिलीप और उनकी पत्नी सुदक्षिणा की संतान-कामना से होता है और समापन दिलीप-राम के उन्तीसवीं पीढ़ी वंशज दुराचारी अग्निवर्ण के संतानोत्पत्ति प्रसंग से होता है, यहां अनूठापन है कि अग्निवर्ण की मृत्यु के बाद मंत्रियों ने उसकी पत्नी को गर्भ धारण किए देखकर उसे राजगद्दी पर बिठा दिया। मान लें कि ऐसा गर्भस्थ शिशु को राजसिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में अनुमान करते किया गया हो, किंतु यह निश्चय कि गर्भस्थ शिशु पुत्र ही होगा, पुत्री नहीं, जो उत्तराधिकार प्राप्त करे, साथ ही किसी महिला के राज्याभिषिक्त होने का यह प्रसंग विशिष्ट है। स्त्री के राज्याभिषिक्त होने का उल्लेख वाल्मीकि करते हैं, जहां वसिष्ठ कैकेयी को फटकारते हुए यह भी कहते हैं कि देवी सीता वन में नहीं जाएंगी, राम के वन जाने पर उनके लिए निर्धारित राजसिंहासन पर सीता बैठेंगी।

वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड के तिहत्तरवें सर्ग में शंबूक वध प्रसंग में ‘अप्राप्तयौवनं बालं पंचवर्षसहस्रकम्‘ आया है, यानि पांच हजार वर्ष का बालक, जिसे यौवन प्राप्त नहीं हुआ है‘ चौंकाता है। मगर इसकी व्याख्या में बताया जाता है कि वर्ष का अर्थ यहां दिन समझना चाहिए। इस प्रकार बालक की आयु होगी तेरह वर्ष साढ़े आठ माह। बालकांड के प्रथम सर्ग में रामचंद्र दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च’ इस प्रकार ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करने का उल्लेख आता है, इन वर्षों को दिन मानने पर अवधि लगभग साढ़े तीस वर्ष होगी और इसमें राज्याभिषेक के समय उनकी आयु के इकतालीस वर्ष जोड़ दें तो राम की आयु साढ़े इकहत्तर वर्ष बनती है। यहां उल्लेखनीय कि युद्धकांड के अंतिम एक सौ अट्ठाइसवें सर्ग में ‘‘राज्यं दशसहस्राणि प्राप्य वर्षाणि राघवः‘ आता है यानि राघव ने राज्य पा कर दस सहस्र वर्षों तक राज्य किया, यहां टीकाकार दस को ग्यारह बोधक मान लेते हैं।

ऐसे कई प्रसंग आते हैं, जहां ठिठकना होता है, उनमें से एक वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड के नवें सर्ग में सीता का कथन है- दूसरों के प्राणों की हिंसारूप जो यह तीसरा भयंकर दोष है, उसे लोग मोहवश बिना वैर-विरोध के भी किया करते हैं। वही दोष आपके सामने भी उपस्थित है ... मैं आपको उस प्राचीन घटना की याद दिलाती हूं तथा यह शिक्षा भी देती हूं कि आपको धनुष लेकर किसी तरह बिना वैर के ही दण्डकारण्यवासी राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिए। युद्धकांड के एक सौ सोलहवें सर्ग में सीता के संभवतः सबसे कठोर वचन, राम के लिए कहती हैं- पहले ‘जैसे कोई निम्न श्रेणी का पुरुष निम्न कोटि की ही स्त्री से न कहने योग्य बातें भी कह डालता है, उसी तरह आप भी मुझसे कह रहे हैं और ‘‘लघुनेव मनुष्येण ... (ओछे मनुष्यों की भांति- गीताप्रेस के अनुवाद में) कह पड़ती हैं। इसी तरह तुलसी लंका कांड-110 में चौंकाते हैं यह कह कर- ‘आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी।।‘ - तदंतर सदा के स्वार्थी देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे हैं मानों बड़े परमार्थी हों। और फिर दोहावली 349 में यह कह कर- ‘बलि मिस देखे देवता, कर मिस मानव देव। मुए मार सुबिचार हत, स्वारथ साधन एव।।‘ - बलिदान के बहाने देवताओं को और राज्य-कर (दण्ड) के बहाने राजाओं को देख लिया। दोनों ही स्वार्थ साधने वाले विचार शून्य और मरे को मारने वाले हैं।

वाल्मीकि रामायण के अन्य कई प्रसंग बहुत रोचक और विशिष्ट है। सुंदरकांड के तीसवें सर्ग में हनुमान-सीता के बीच वार्तालाप का प्रसंग, चूंकि उनका आपस में परिचय नहीं होता, हनुमान सोचते हैं कि वानर होकर भी मैं संस्कृत वाणी का प्रयोग करूंगा तो सीता मुझे छद्मवेशधारी रावण समझ लेंगी, ऐसी दशा में मुझे अयोध्या के आसपास की साधारण जनता वाली सार्थक भाषा का प्रयोग करना चाहिए, फिर भी मेरे वानर-रूप मुख से मानवोचित भाषा सुन कर वे भयभीत हो जाएंगी, अंततः बहुत सोच-विचार कर हनुमान ने रास्ता निकाल लिया। कहन के ढंग का एक नमूना अयोध्याकांड के चौंवालीसवें सर्ग में है- ‘सूर्यस्यापि भवेत् सूर्यो ह्यग्नेरग्नि प्रभोः प्रभु ...‘ राम सूर्य के भी सूर्य, अग्नि के भी अग्नि, प्रभु के भी प्रभु, लक्ष्मी की भी उत्तम लक्ष्मी और क्षमा की भी क्षमा हैं। वे देवताओं के देवता और भूतों के भी उत्तम भूत हैं। वैसा ही एक और कहन युद्धकांड के एक सौ सातवें सर्ग में है- ‘गगनं गगनाकारं सागरसागरोपमः ...‘ गगन गगन जैसा और सागर सागर की तरह वैसे ही राम और रावण के बीच युद्ध, राम-रावण युद्ध जैसा ही है। उत्तरकांड के बहुचर्चित और विवादित शंबूक वध प्रसंग में इस अजीबपन की ओर कम ध्यान दिया गया है कि धनुर्धारी राम ने ‘भाषतस्यस्य शूद्रस्य खड्गं सुरुचिाप्रभम् ..., संभवतः यहीं एकमात्र बार तलवार का इस्तेमाल किया है।

रामकथा साहित्य के कुछ अन्य ग्रंथों के रोचक अंशों को देखते चलें- 

केरल के महाकवि शक्तिभद्र का काल नवीं सदी स्वीकृत है। उनका संस्कृत नाटक आश्चर्यचूडामणि दक्षिण देश का सर्वप्रथम नाटक माना गया है। कहा जाता है कि यह नाटक आग में जल कर नष्ट हो गया था, किंतु शंकराचार्य ने अपनी स्मृति से समग्र पुनः लिखवा दिया। व्यक्ति की अक्षर-रूप पहचान उसके हस्ताक्षर से होती है। इसके पहले उसकी पहचान वस्तु-रूप मुद्रिका-अंगूठी से होती थी, प्राचीन साहित्य और लोककथाओं और परंपरा में यह स्थापित है। इसी का नाटकीय निरूपण आश्चर्यचूडामणि में है। नाटक के आरंभ में नटी दक्षिण दिशा से आए ‘आश्चर्यचूडामणि‘ नाटकरूप काव्यबंध जान कर आश्चर्य करती है। इससे जान पड़ता है कि यह दक्षिण का आरंभिक नाटक है और लोकप्रिय हो कर उत्तर में भी इसका प्रदर्शन होता था नाटक का आरंभ रामकथा के अरण्यकांड से होता है, जहां लक्ष्मण तपोवन में निवास के लिए पर्णकुटी बना रहे हैं।

नाटक में खर-दूषण वध के उपरांत ऋषिगण लक्ष्मण को कवच, राम के लिए अंगूठी और सीता के लिए चूडामणि देते हैं। रश्मि-समूह से व्याप्त यही मणि, ‘आश्चर्य चूडामणि‘ है और राम द्वारा धारण की गई अंगूठी अद्भुत है, जिससे माया-छल का भेद पा कर मूल ज्ञात हो जाता है, मायावी राक्षस तुरंत अपने स्वरूप में आ जाते हैं। सीताहरण के लिए सारथि, लक्ष्मण का रूप में है, शूर्पणखा, सीता का रूप धरती है और रावण राम का रूप धरता है और सीता को अपने रथ में बिठाकर हरण कर ले जाने लगता है। इस दौरान राम के साथ सीता रूप धरी शूर्पणखा और राम रूप धरे रावण और उनके प्रति शंकाजनित भ्रम में उलझाव है। सीता के चूडा-केश स्पर्श करते ही अपने वास्तविक रूप में आ जाता है। ऐसी रोचक नाटकीय परिस्थितियां नाटक में बनती हैं। मूल कथा अनुरूप ही अशोक वाटिका में मुद्रिका-चूडामणि विनिमय में हनुमान माध्यम बनते हैं। नाटक के अंतिम चरण में पुष्पक विमान पर सवार होते सीता रावण-माया का स्मरण कर आशंकित होती हैं, तब राम अंगूठी दिखा कर उन्हें आश्वस्त करते हैं।

‘नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि’ कह कर तुलसी ने छूट ली है अन्यत्र-लोक से लेने या मौलिक रचने की। ऐसी छूट लेते कुछ प्रसंग, जैसा मैंने किसी कथा वाचक से सुना है- लंका विजय के बाद सबको विदा करते हुए हनुमान की बारी आने का है। रामचंद्र जी हनुमान के प्रति शायद सर्वाधिक ‘थैंकफुल‘ हैं। वे अपनी भावना हनुमान से व्यक्त करने के लिए सोचते हुए ठहर जाते हैं। बहुत बारीक बात आती है, रामचंद्र जी कहना चाहते हैं कि मुझ पर आए संकट में जिस तरह तुम सहायक बने वैसा तो और कोई हो नहीं सकता। राम के लिए हनुमान ‘तुम मम भरत सम भाई’ और ‘तुम मम प्रिय लछिमन ते दूना‘ हैं ही। मगर उन्हें यह भी लगा कि प्रत्युपकार सोचने में निहित होता है, उपकारी पर विपत्ति आएगी ‘मय्येव जीर्णता यातु यत् त्वयोपकृतं ..., यह ठीक नहीं, इसलिए राम काष्ठ मौन, निःशब्द हैं।

सीता रसोई से जुड़ी दो कथाएं, जिनका संदर्भ मेरी जानकारी में किसी ग्रंथ में नहीं, इन्हें मैंने लोक में प्रचलित सुना है। पहली, जिसमें कहा जाता है कि रामभक्तों को कटहल नहीं खाना चाहिए, क्योंकि भगवान राम ने स्वयं अपने भक्तों को इसे खाने से मना किया है। हुआ यों कि रामचंद्र को सदल-बल ससुराल में भोज का न्योता मिला। भोज में सारी ऋक्ष-सेना को तो जाना ही था। रामचंद्र जी को चिंता हुई कि पंगत में बैठे बंदर किस तरह पंगत-अनुशासन का पालन करते हुए भोजन करेंगे। हनुमान से मशविरा हुआ और नेता जामवंत को जिम्मा सौपा गया। जामवंत ने वानर-यूथ को समझाया कि पंगत में मेरी ओर नजर रखना, जैसा मैं करूं, तुम सब भी वैसा ही, अनुकरण करना। पंगत बैठी, भोज आरंभ हुआ। अनुशासनबद्ध बंदर कसमसाते रहे, भोजन स्वादिष्ट मगर उसमें उन्हें कोई आनंद नहीं, खाने से अधिक ध्यान जामवंत पर। भोज में कटहल की सब्जी परोसी गई थी। जामवंत कटहल के बीज से गिरी खाने के लिए उसे बीच से दो भाग करते हैं और गिरी निकालने के लिए बीज को नीचे से दबाते हैं, यहीं गड़बड़ हो जाती है, गिरी का टुकड़ा उछल जाता है, इस चूक को संभालने के लिए जामवंत गिरी के उछले टुकड़े को लपकने की कोशिश करते हैं, जो और भारी चूक साबित होती है। सारे बंदरों को लगता है कि कटहल की गिरी को इसी तरह खाना है, बस उछल-कूद शुरू और सारी पंगत, सारा भोज मटियामेट। ससुराल में जगहंसाई हो जाती है। और फिर रामचंद्र जी का अपने भक्तों के लिए फरमान जारी ...

दूसरी कहानी पाक-पारंगत सीता जी की, जिसमें सारे ऋषि-मुनियों को भोज पर आमंत्रित किया गया है। पाकशाला की सारी जिम्मेदारी स्वयं सीता जी ने अपने पर ले रखी है। तरह-तरह के सुस्वादु व्यंजन। पंगत बैठती है, सारे आगंतुक एक-एक व्यंजन का स्वाद लेकर भोज का आनंद लेने लगे। सभी ‘आइटम‘ एक से बढ़ कर एक। एक अपवाद थे, जिन्होंने परोसा गया सारा भोजन-व्यंजन एक साथ मिला दिया था, ‘सड्ड-गबड्डा‘ और ‘जेंव‘ रहे थे। जिन्होंने देखा, भृकुटि तन गई, ऐसे सुस्वादु व्यंजनों के साथ ऐसी जाहिलाना हरकत! हालत आ गई कि उनसे पूछ लिया गया कि आप ऐसा गड़बड़ क्यों कर रहे हैं?, ऐसे में व्यंजनों के स्वाद का क्या ही पता लगेगा, सारी रसोई का अपमान है यह। उन्होंने कहा- मैं पूरा स्वाद लेकर खा रहा हूं, दरअसल दाल में शायद चुटकी भर नमक कम है। सब लोग हैरान। बात सीता जी तक पहुंची। सीता ने उन ऋषि को आ कर प्रणाम किया और बताया कि मेरी रसोई की सच्ची परीक्षा इन्होंने ही की है, वास्तव में दाल बनाते हुए नमक कम पड़ गया था, जब तक नमक आता, तब तब पंगत बैठने लगी तो जितना नमक था, एक चुटकी कम, उतना ही डालकर दाल बनी और परोस दी गई।

टीकाकारों ने लोक-मन को समझने की कोशिश की होगी? पता नहीं। कटहल-निषेध और नमक-अल्पता पर तुक्का भिड़ाने की कोशिश की जा सकती है, क्यों न दूर की कौड़ी हो। अधिकतर तो कली, कली से फूल और फिर फल आता है, पर एक गुलाब है, जो फूलता है, मगर उसके फल का पता नहीं लगता। वहीं गूलर और बेल की तरह कटहल के फूलों का ठीक पता नहीं लगता, सीधे फल दिखता है, वह भी तने पर और कई बार जड़ से जुड़ा। तो क्या रामजी की समझाइश है कि सीधे फल की आशा से बचो, फूलो तब फलो, ज्यों फलो-फूलो का आशीर्वचन। या किसी कल्पनाशील रामभक्त के प्रत्यक्ष अनुभव, भोगे हुए यथार्थ को ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं‘ ..., के भरोसे राम के नाम पर गढ़ दिया। या कि भोजन का षटरस संतुलन वही है, जब वह समरस हो। तब लगता है कि गांधी के अस्वाद में शायद समरसता का रामरस होता था।

एक बार कुंभकर्ण ने रावण से पूछा- तुम माया द्वारा राम का वेश धारण करके क्यों नहीं सीता को छलपूर्वक भोगते हो? रावण का उत्तर था- क्या करूं, रामरूप धारण करने पर, मेरी वासना ही शांत हो जाती है, सारी कामतृषा ही समाहित हो जाती है। अब इस युग में तो रूप धरने की भी जरूरत नहीं, ‘कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।‘ 

इसी तरह हरि अनंत, हरि कथा अनंता ..., राम चरित सत कोटि अपारा ... और ‘यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च यावत् तिष्ठति मेदिनी। यावच्च मत्कथा लोके ... जब तक चन्द्रमा और सूर्य रहेंगे, जब तक पृथ्वी रहेगी, संसार में यह कथा प्रचलित रहेगी...‘ 

तो फिर इसी तरह सीता की रसोई हो न हो, षटरस-समरस हो न हो, रामनाम रस पीजै मनवा ... 

000 

ध्यान जाता है कि वाल्मीकि रामायण या तुलसी मानस के मूल! तक पहुंच कैसे हो और पहुंच भी गए तो अपने समझ की सीमा है। पता लगता है कि वाल्मीकि रामायण के मुख्य तीन- दाक्षिणात्य, गौड़ीय और पश्चिमोत्तरीय (एक अन्य बंबई का देवनागरी संस्करण) पाठ हैं, जिनके आधार पर गीता प्रेस वाला सर्वसुलभ संस्करण तैयार किया गया है। चित्रमय पांडुलिपि-प्रति वाला रामचरितमानस अब 2024 में यूनेस्को के ‘मेमोरी ऑफ वर्ल्ड एशिया-पैसिफिक, रीजनल रजिस्टर‘ में शामिल की खबर के साथ जिज्ञासा होती है कि वह कौन सा संस्करण है, सर्व-मान्य या कोई विशिष्ट पाठ वाला। यों, गीता प्रेस गोरखपुर से छपे मानस का संस्करण मानक की तरह स्थापित है, मगर यहां तक पहुंचने की यात्रा का अनुमान मानस की विभिन्न प्रतियों-स्रोतों और उनका चयन, पाठालोचन को देखने से पता लगता है। तुलसी स्वयं अपना स्रोत ‘नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि‘ के साथ ‘मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत‘ बताते हैं। 

विभिन्न स्रोतों की जानकारी के लिए एक प्रमुख, हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा 1949 में प्रकाशित, मूर्धन्य पाठालोचक माताप्रसाद गुप्त सम्पादित ‘राम चरित मानस का पाठ‘ (तुलसी ग्रन्थावली, भाग 1, खण्ड 2) पुस्तक है। पुस्तक की प्रस्तावना में सम्पादक ने भारत कला भवन काशी, श्री शंभुनाथ चौबे, श्री कमलाकर द्विवेदी, काशी नरेश महाराज श्री विभूतिनारायण सिंह, श्रावण कुंज के महंत श्री जनक किशोरी शरण, राजापुर के श्री मुन्नीलाल उपाध्याय, मिर्ज़ापुर के श्री हरिदास दलाल, बहोरिकपुर के श्री धनंजय शर्मा, और मुँगरा बादशाहपुर की हिंदू सभा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है, जिन्होंने अपनी प्रतियों के उपयोग की सुविधा उन्हें दी। साथ ही पुस्तक के आरंभ में अन्य महत्वपूर्ण विभिन्न प्रतियों की परिचयात्मक सूची दी है, जिनके अधार पर मानस का ‘मूल-शुद्ध‘ पाठ तैयार करने का उद्यम हुआ। अब नयी खोज और तथ्यों के साथ 2019 में ‘रामचरित मानस की पांडुलिपियां, ज्ञात-अज्ञात तथ्य‘, उदय शंकर दुबे और डॉ. विजय नाथ मिश्र की पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिससे इस विषय पर और प्रकाश पड़ता है। 

क़ामिल बुल्के की ‘रामकथा-साहित्य की तालिका‘ में पौराणिक ग्रंथों को छोड़कर भी 1700 ई. तक के शताधिक रामकथाओं की कालक्रमवार सूची है। ए.के. रामानुजन का लेख ‘थ्री हंड्रेड रामायंस ...’, वस्तुतः शोध-निबंध है, पाठ्यक्रम में होने से इसकी पहुंच विद्यार्थी और अध्येता तक थी, 2011 में इस पर हुआ विवाद उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा, नतीजा कि इसके बाद यह आम पाठकों तक मूल और अनुवाद सहित, सहज पहुंच गया। तुलसी कहते हैं- रामकथा कै मिति जग नाहीं ... ... रामायन सत कोटि अपारा। इस विवरण के पीछे मंशा यह है कि किसी शब्द-पद को ले कर भावुक या उत्तेजित हो जाना ठीक नहीं। इन ग्रंथों से इतिहास, भूगोल और समाज की झलक मिलती है, किंतु उन्हें इन विषयों का पाठ्य-पुस्तक नहीं मान लेना चाहिए। जो इन ग्रंथों में निहित काव्य, भक्ति और अध्यात्म का रस ले सके, बुद्धिभेद से भावअभेद तक पहुंच सके, वही इनका सत्पात्र पाठक हो सकता है। 

राम का नाम लिख दो, 
कैसा भी पत्थर तैर जाता है, 
पार लग जाता है, 
जैसे मेरी यह चौपदी। 

इस लेख को तैयार करने में असमी, तेलुगु रामायण जैसे कुछ ग्रंथों के अलावा सभी संदर्भ प्राथमिक स्रोतों, मूल ग्रंथों से लिए गए हैं।

Saturday, September 6, 2025

टैगोर का छल

रवीन्द्रनाथ टैगोर (ठाकुर/ठाकूर या पूर्वज ‘कुशारी‘) का जन्म 6 मई 1861 को, उनकी पत्नी भवतारिणी उर्फ मृणालिनी देवी (विवाह पश्चात नाम) का जन्म 1 मार्च 1874 को, विवाह 9 दिसंबर 1883 को हुआ। उनकी संतानों क्रमशः मधुरिलता-बेला, रथीन्द्रनाथ-रथी, रेणुका-रानी, मीरा-अतासी तथा शमीन्द्रनाथ-शमी (बंगाली परंपरा का भालो-डाक नाम) का जन्म 1886 से 1896 के बीच हुआ, इसके बाद मृणालिनी देवी अस्वस्थ होती रही, 22 दिसंबर 1901 को ब्रह्म विद्यालय (शांति निकेतन स्कूल) की स्थापना के बाद गंभीर रूप से अस्वस्थ हुईं और 23 नवंबर 1902 को उनकी मृत्यु हुई। 1902 से 1907 के बीच पत्नी मृणालिनी के अलावा पुत्री रेणुका, पिता देवेन्द्रनाथ, छोटे पुत्र शमीन्द्रनाथ की तथा इसके बाद 1918 में बड़ी पुत्री मधुरिलता की मृत्यु हुई।

मृणालिनी की मृत्यु के अगले दिनों में पत्नी की याद में टैगोर ने लगभग प्रतिदिन कविताएं लिखीं, इन 27 कविताओं का संग्रह मोहितचन्द्र सेन के सम्पादकत्व में, रवीन्द्र काव्यग्रन्थ के छठे भाग में और ‘स्मरण‘ शीर्षक से स्वतंत्र काव्यग्रन्थ के रूप में मृणालिनी की मृत्यु के बारह वर्ष बाद 1914 में प्रकाशित हुईं। इस क्रम में टैगोर का अन्य संग्रह ‘पलातका‘ 1918 में प्रकाशित हुआ, लगभग 146 पंक्तियों, 11 पैरा और 830 शब्दों की लंबी, संग्रह की चौथी कविता ‘फाँकि‘ है। इस कविता में पात्र बीनू की अस्वस्थता, उसके साथ ‘मैं‘ की रेलयात्रा और बिलासपुर रेल्वे स्टेशन, झामरु कुली की पत्नी हिन्दुस्तानी लड़की रुक्मिनी का उल्लेख है। कविता में ‘बिलासपुर स्टेशन‘ नाम तीन बार इस तरह आता है। कविता ‘फाँकि‘ लगभग 45 साल पहले इन पंक्तियों- ‘बिलासपुर स्टेशन से बदलनी है गाड़ी, जल्दी उतरना पड़ा, मुसाफिरखाने में पड़ेगा छः घंटे ठहरना‘ के साथ चर्चा में आई।

26 दिसंबर 1983 को ए.के. बैनर्जी मंडल रेल प्रबंधक, बिलासपुर के पद पर आए। वे साहित्य में रुचि रखने वाले और प्रसिद्ध फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी के दामाद थे। बिलासपुर पदस्थापना के साथ उन्हें टैगोर की कविता ‘फाँकि‘ याद आई और उन्होंने बिलासपुर रेल्वे स्टेशन के मुख्य प्रवेश के बाईं ओर प्लेटफार्म 1 पर, वीआइपी वेटिंग लाउंज के साथ कविता की इन पंक्तियों को रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्र के साथ खास फलक बनवा कर समारोह पूर्वक स्थापित किया। यह आकर्षण का कारण बना और इसकी चर्चा बिलासपुर और खासकर पेंड्रा में होने लगी, जिसमें टैगोर के बिलासपुर होते पेंड्रा जाने, वहां पत्नी का इलाज, पेंड्रा में ही उनकी पत्नी की मृत्यु और उसके बाद अकेले वापस लौटने की बात होने लगी, जिसका आधार यह कविता थी। कविता में आए नाम बीनू को टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी और ‘मैं‘ को साहित्यिक अभिव्यक्ति के पात्र प्रथम पुरुष के बजाय टैगोर स्वयं के साथ निर्मित और घटित स्थिति मान लिया गया।


वेब पर मीडिया के विभिन्न यूट्यूब रिपोर्ट/स्टोरी तथा महीनों पेंड्रा में इलाज और इस दौरान रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी-बीनू का देहांत हो गया ... इसी सैनेटोरियम में रविंद्रनाथ की पत्नी के शरीर को मिट्टी दी गई और समाधि बनाई गई ... जैसी ढेरों खबरें मिल जाती हैं। अब बिलासपुर स्टेशन पर पूरी बांग्ला कविता हिंदी और अंग्रेजी अनुवाद सहित लगाई गई है, जिस पर अंकित है- ‘यह कविता कविगुरु श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा सन 1918 में बिलासपुर स्टेशन के प्रतीक्षालय में लिखी गई।

और फिर 10.12.2012 को रवीन्द्रनाथ ठाकुर का 5 रुपये का डाक टिकट, बिलासापेक्स, विशेष आवरण सहित जारी हुआ, जिसमें अंकित है- ‘रविन्द्र नाथ टैगोर एवं उनकी धर्म पत्नी श्रीमती मृणालिनी देवी सन् 1900 में अपनी एक यात्रा के दौरान बिलासपुर स्टेशन के प्रतीक्षालय में छः घंटा रुके। उन्होंने इसका वर्णन अपनी एक कविता में किया है।‘ एक कविता में किया है।‘ जिला अस्पताल सैनेटोरियम परिसर परिसर में रविन्द्र नाथ टैगोर वाटिका, संग्रहालय निर्माण एवं गुरुदेव की मूर्ति का अनावरण, दिनांक 07.05.2023 को होने का शिलान्यास शिलापट्ट लगा है और जुलाई 2023 में परिसर के बरगद के पेड़ को काटने का विरोध हुआ कि टैगोर इस पेड़ के नीचे बैठते थे।

कविता के रचना काल, स्थान और बिलासपुर यात्रा के वर्ष की विसंगतियों के बावजूद यह बात चल पड़ी। मगर इसके पहले 2008 में ही ऐसा माना जाने लगा था, इसी साल रमेश अनुपम संपादित ‘जल भीतर इक बृच्छा उपजै‘ पुस्तक का पहला संस्करण आया, जिसकी तीसरी आवृत्ति, 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हो चुकी है। पुस्तक के प्रवासी खंड में रवींद्रनाथ टैगोर की कविता फॉकि (बांग्ला), उत्पल बॅनर्जी के हिंदी अनुवाद ‘छलाना‘ (न कि छलना या छलावा) सहित प्रकाशित है, साथ ही लंबी पाद-टिप्पणी है, जिसमें बताया गया है कि कविगुरु मृणालिनी देवी को लेकर छत्तीसगढ़ आये। छत्तीसगढ़ का पेंड्रारोड उस समय क्षय रोग चिकित्सा के लिए संपूर्ण एशिया में विख्यात था।‘ ... उस जमाने में (सन 1901) में ... वे पेंड्रारोड में दो महीने तक रुके ... मृणालिनी देवी मात्र तेईस वर्ष की अल्पायु में कविगुरु को अकेले छोड़कर अनंत में विलीन हो गईं। पेंड्रारोड का विश्वविख्यात टी.बी. सैनेटोरियम तथा यहां की जलवायु भी मृणालिनी देवी को मृत्यु के चंगुल से नहीं बचा सका।

यहां भी पेंड्रा यात्रा-प्रवास का वर्ष 1901, तथा ‘मृणालिनी देवी मात्र तेईस वर्ष की अल्पायु‘ जैसी विसंगति है। मगर इन सबके बीच यह मान लेना कि बीनू, रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी का नाम हैं (जो किसी स्रोत से पुष्ट नहीं होता), ‘फाँकि‘ कविता का ‘मैं‘ स्वयं कवि है और यह संस्मरणात्मक, आत्मकथ्यात्मक अभिव्यक्ति है, के औचित्य पर विचार करने के लिए टैगोर से संबंधित अधिकृत और विश्वसनीय स्रोतों को देख लेना आवश्यक है, ऐसे स्रोतों में आए संबंधित कुछ उल्लेख आगे दिए जा रहे हैं-

रवीन्द्रनाथ टैगोर के पुत्र रथीन्द्रनाथ टैगोर की पुस्तक ‘ऑन द एजेस ऑफ टाइम‘ के विश्व-भारती द्वारा प्रकाशित जून, 1981 के द्वितीय संस्करण, पेज-52 पर मृणालिनी देवी को शांति निकेतन से इलाज के लिए कलकत्ता लाने, डॉक्टरों द्वारा आशा छोड़ देने के साथ मां मृणालिनी देवी की मृत्यु के दौरान सभी पांच संतानों का वहां होने का उल्लेख है।

कृष्ण कृपलानी (टैगोर की तीसरी बेटी मीरादेवी की बेटी नंदिता के पति) की बहु-प्रशंसित ‘रबीन्द्रनाथ टैगोर, ए बॉयोग्राफी‘ 1980 का संस्करण विश्व-भारती कलकत्ता ने प्रकाशित किया है। पेज 201 पर उल्लेख है कि शांति निकेतन में नया निवास मिलने के कुछ माह बाद ही मृणालिनी देवी गंभीर रूप से बीमार हुईं और उन्हें कलकत्ता लाया गया, जहां 23 नवंबर 1902 को उनकी मृत्यु हो गई।

विश्व भारती द्वारा प्रकाशित रवीन्द्रनाथ टैगोर के पत्र-व्यवहार के प्रथम खंड (तीसरा संस्करण बंगाब्द 1400 यानि 1993-94) में मृणालिनी देवी को लिखे पत्र हैं, इस पुस्तक के अंत में मृणालिनी देवी के जीवन की प्रमुख तिथियां-घटना दी गई हैं, जिसके अनुसार उन्हें 12 सितम्बर 1902 इलाज के लिए कलकत्ता लाया गया। 23 नवम्बर 1902 जोरासांको महर्षि भवन में निधन हो गया।

1998 में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा राष्ट्रीय जीवनचरित श्रृंखला में कृष्ण कृपलानी की पुस्तक का अनुवाद रणजीत साहा प्रकाशित ‘रवीन्द्रनाथ ठाकुर एक जीवनी‘ में पेज 116-117 पर ‘शांतिनिकेतन में, अपना नया घर पाने के कुछ ही दिनों के अंदर रवीन्द्रनाथ की पत्नी मृणालिनी देवी गंभीर रूप से बीमार पड़ीं । उन्हें कलकत्ता ले जाया गया और जहां 23 नवंबर 1902 को उनका निधन हो गया। ... ‘किसी पेशेवर नर्स को बहाल न कर उन्होंने लगातार दो महीने तक रात और दिन उनकी सेवा की। उन दिनों बिजली के पंखे नहीं हुआ करते थे और उनके समकालीन साक्ष्यकारों ने इस बात को दर्ज करते हुए बताया है कि हर घड़ी कैसे उनके सिरहाने उपस्थित रवीन्द्रनाथ हाथ में पंखा लिए हुए लगातार धीरे धीरे झलते रहे थे। जिस रात को उनका निधन हुआ, वे पूरी रात अपनी छत की बारादरी के ऊपर नीचे घूमते रहे और उन्होंने सबसे कह रखा था कि उन्हें कोई परेशान न करे।‘

रंजन बंद्योपाध्याय की पुस्तक ‘आमि रवि ठाकुरेर बोउ‘ का शुभ्रा उपाध्याय द्वारा किया हिंदी अनुवाद ‘मैं रवीन्द्रनाथ की पत्नी‘ (मृणालिनी की गोपन आत्मकथा) प्रकाशित हुई है। पुस्तक के परिचय (2013) में स्पष्ट किया गया था- ‘मृणालिनी अपनी गोपन आत्मकथा में क्या लिखतीं? इस उपन्यास में वही सोचने की कोशिश की गई है।‘ मगर इस पुस्तक का ‘उपसंहार‘ उल्लेखनीय है, जिसमें बताया गया है कि मृणालिनी देवी को चिकित्सा के लिए 12 सितंबर 1902 को कलकत्ता ला कर जोड़ासाँको में रवीन्द्रनाथ की लालबाड़ी के दूसरे तल पर एक कमरे में रखा गया। ... मृणालिनी की स्थिति 17 नवंबर को आशंकाजनक हो गई। 23 नवंबर, 1902 को जोड़ासाँको की बाड़ी में मृणालिनी के जीवन का अवसान हुआ। दो महीने ग्यारह दिन उन्हें कलकत्ता में मृत्युशैया की यंत्रणा भोगनी पड़ी।

विकीपीडिया तथा द स्कॉटिश सेंटर आफ टैगोर स्टडीज के वेबपेज के अनुसार- मृणालिनी देवी 1902 मध्य में बीमार पड़ गईं, जबकि परिवार शांतिनिकेतन में एक साथ रहता था। इसके बाद, वे और रवींद्रनाथ 12 सितंबर को शांतिनिकेतन से कलकत्ता चले गए। डॉक्टर उनकी बीमारी का निदान करने में विफल रहे और 23 नवंबर की रात को 29 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। उनके बेटे रथिंद्रनाथ ने बाद में अनुमान लगाया कि उनकी मां को एपेंडिसाइटिस था।

रामानंद चटर्जी द्वारा संपादित रवीन्द्रनाथ टैगोर के सत्तरवें जन्मदिन पर 1931 में प्रकाशित ‘द गोल्डन बुक आफ टैगोर‘ में ‘ए टैगोर क्रानिकल: 1861-1931‘ में मृणालिनी देवी से विवाह और उनकी मृत्यु का उल्लेख है, मगर मृत्यु का स्थान नहीं दिया गया है। इसी तरह 1961 में सत्यजित राय ने फिल्म्स डिवीजन के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर पर 51 मिनट का वृत्तचित्र बनाया है, जिसमें उनके विवाह तथा पत्नी की मृत्यु का उल्लेख है, स्थान का नहीं। इन स्रोतों में मृत्यु के स्थान का उल्लेख न होने का कारण यही हो सकता है कि मृणालिनी देवी की मृत्यु उनके मूल स्थान के अलावा कहीं अन्य नहीं हुई थी। यों 'साक्ष्य का अभाव अनुपस्थिति का साक्ष्य नहीं माना जाता' फिर भी उल्लेखनीय है कि माधवराव सप्रे ने पेंड्रा से जनवरी 1900 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ पत्रिका निकालना शुरू किया, यह पत्रिका दिसंबर 1902 तक निकलती रही। टैगोर के पेंड्रा की अवधि भी 1902 के अंतिम कुछ माह माना जाता है, ऐसे में सप्रे जी की पत्रिका में इसका कोई उल्लेख न होना प्रासंगिक तथ्य है।

इस तारतम्य में पेंड्रा रेल लाइन और सैनेटोरियम संबंधी तथ्यों की पड़ताल प्रासंगिक होगी, इनमें-

1910 के बिलासपुर जिला गजेटियर पेज 336 पंडरीबन या पेंड्रा, जमींदारी में सैनेटोरियम का उल्लेख नहीं है, मगर पेज 248 पर मेडिकल शीर्षक के अंतर्गत पेंड्रा अस्पताल में पुरुष एवं महिला के लिए दो-दो बिस्तर वाले अस्पताल की जानकारी है। पेज 69 पर क्षयरोग का उल्लेख है, मगर सैनेटोरियम का नहीं, जबकि मुंगेली और चांपा के कुष्ठ आश्रम का उल्लेख है। पेज 338 पर उल्लेख है कि एक जोगी और उसके दो विशाल सर्पों ने ‘खोडरी टनल‘ काटने पर आपत्ति की और उनके शापवश बड़ी संख्या में मजदूर रोगग्रस्त हो कर मर गए।

1923 के ‘बिलासपुर वैभव‘ पेज 73 पर व्यापार के अंतर्गत उल्लेख है कि ‘सन् 1891 में जबसे कटनी लाइन खुली है ...‘ पेज 105 पर पेंडरा शीर्षक के अंतर्गत उल्लेख है कि गौरेला और पेंडरा के बीच मिस लांगडन का क्षयरोगाश्रम है। पुनः पेज 136 पर ‘पेंडरा जमींदारी का जलवायु शीतल है। इसे बिलासपुर जिले की पंचमढ़ी समझिये। गौरेला और पेंडराके बीच मिस लांगडनका क्षयरोगाश्रम देखने योग्य है।‘

1978 के बिलासपुर जिला गजेटियर में पेज 244 बिलासपुर रायपुर सेक्शन 1881 में, बिलासपुर रायगढ़ सेक्शन 1890 में, बिलासपुर बीरसिंहपुर सेक्शन 1861 में (!) आरंभ होने का उल्लेख है। साथ ही पेज 519 पर क्रिश्चियन मिशन द्वारा संचालित तथा मध्यप्रदेश सरकार और प्रादेशिक रेड क्रास सोसाइटी से सहायता प्राप्त सैनेटोरियम तथा टी.बी. के इलाज के लिए माकूल जलवायु का उल्लेख है।

राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम के वेबपेज की जानकारी के अनुसार देश का पहला ओपन एयर सैनेटोरियम अजमेर के पास तिलुआनिया (तिलौनिया) में 1906 में स्थापित हुआ। ऐसी स्थिति में पेंड्रा में आबोहवा बदलने के लिए मरीजों का आना संभव है मगर उपरोक्त उद्धरणों के आधार पर निष्कर्ष आसानी से निकालता है कि सैनेटोरियम 1910 से 1923 के बीच (वस्तुतः 1916) बना।

कटनी रेलखंड पर गाड़ी परिचालन 1891 में आरंभ होने की जानकारी मिलती है, मगर इसके साथ दुविधा रह जाती है कि रेलवे रिकार्ड्स में 1907 में पहले-पहल भनवारटंक टनेल डाउन का निर्माण हुआ तथा इस खंड में रेल लाइन के दोहरीकरण का कार्य 1960-65 के बीच हुआ और भनवारटंक टनेल अप यानि इस लाइन पर नये दूसरे बोगदा का निर्माण 1965-66 में होना, पता चलता है। ऐसी स्थिति में 1907 के पहले बिलासपुर से पेंड्रा का रेल लाइन संपर्क कैसे संभव हुआ होगा?

अंततः ‘फाँकि‘ कविता की पहली पंक्ति ‘बिनुर बयस तेइश तखन‘ यानि नाम बीनू और उसकी उम्र तेइस कहा गया है, यह दोनों ही बातें टैगोर की पत्नी मृणालिनी से मेल नहीं खातीं, क्योंकि भवतारिणी उर्फ मृणालिनी का अन्य नाम बीनू था ऐसा पुष्ट नहीं होता (अन्य संबोधन ‘छोटो बोउ‘, ‘छूटी‘ या ‘छुटि‘ जैसा पत्रों में संबोधन है) और इस समय यानि 1902 में मृणालिनी (जन्म 1874, कहीं 1872/1876 मिलता है) की उम्र 23 वर्ष भी नहीं बैठती। पत्नी के निधन की कविताएं ‘स्मरण‘ में हैं और ‘फाँकि‘ कविता 1918 में प्रकाशित संग्रह ‘पलातका‘ में शामिल है, और इस कविता की रचना तिथि न होने से इसे 1918 या उसके कुछ पहले की रचना मानना उचित होगा। प्रसंगवश, टैगोर अपने पत्रों में बहुधा ‘भाई‘ संबोधन का प्रयोग करते थे, अपनी पत्नी के लिए भी- ‘भाई छुटि‘। संभवतः यह कालिदास का प्रभाव था- जहां रघुवंश में ‘वैदेहिबन्धोः हृदयं विदद्रे- वैदेही-बन्धु राम का हृदय फट गया।‘ प्रयोग है और ऐसा ही अन्यत्र मेघदूत में यक्ष, यक्षिणी के लिए करता है- ‘विधिवशात् दूरबन्धुः- भाग्यवश जिसका बंधु (प्रियजन) दूर है।

संजुक्ता दासगुप्ता, टैगोर साहित्य की गंभीर अध्येता और अंगरेजी अनुवादक हैं। उनकी पुस्तक ‘इन मेमोरियम स्मरण एंड पलातका‘ 2020 में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई है, जिसमें मृणालिनी देवी की याद में टैगोर द्वारा लिखी ‘स्मरण‘ की 27 कविताएं का तथा ‘पलातका‘ की 15 कविताओं का अंगरेजी अनुवाद है। पलातका की कुछ अन्य कविताओं सहित फांकी के लिए अनुवादक की टिप्पणी प्रासंगिक और मारक है, जिसमें वे कहती हैं कि ‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह संस्था आजीवन कठोर कारावास की तरह प्रतीत होती है जहाँ घरेलू श्रम और प्रजनन श्रम को आश्रित महिलाओं के वांछित लक्ष्य और मिशन के रूप में महिमामंडित किया जाता है। मुक्ति, चिरादिनेर दागा, फांकी, निष्कृति, कालो मेये, हारिये जाओ जैसी कविताएँ लैंगिक मुद्दों के प्रति मुखर अभिव्यक्ति हैं।‘

कविता में बिलासपुर स्टेशन का नाम है, मगर वहां से गाड़ी बदल कर आगे जाने की बात के साथ पेंड्रा का नाम नहीं आया है। 1902 में पेंड्रा में अस्पताल जरूर था, जैसा कि 1909-10 के गजेटियर से पता लगता है। साथ ही देश का पहला सैनेटोरियम तिलुआनिया (तिलौनिया) में 1906 स्थापित होने का तथ्य असंदिग्ध है। ‘द इंडियन मेडिकल गजट, जुलाई 1945, पेज 369 से निश्चित जानकारी मिल जाती है कि पेंड्रा सैनेटोरियम स्थापना वर्ष 1916 है, यह पेंड्रा के लोगों की स्मृति में स्थायी रूप से दर्ज साधू बाबू अर्थात् मन्म्थनाथ बैनर्जी के साथ जुड़ा है, वे कलकत्ता, प्रेसिडेंसी कॉलेज से दर्शनशास्त्र में उपाधिधारी थे और पढ़ाई में सुभाषचंद्र बोस से एक कक्षा आगे होना बताया करते थे। टीबी के इलाज के लिए 1917 में सैनेटोरियम लाए गए बताए जाते हैं और फिर स्वस्थ हो कर पूरा जीवन यहां बिताया। साधू बाबू की मृत्यु 8 अगस्त 1982 को हुई। 16 जुलाई 1954 को शिलान्यास हुआ पेशेन्ट्स रिक्रिएशन हॉल अब उनके नाम पर साधू हॉल नाम से जाना जाता है।

पेंड्रा निवासी एक अन्य बुद्धिजीवी डॉ. प्रणब कुमार बैनर्जी लगभग 25 वर्ष की उम्र में 1961 में यहां आए, 2018 में उनकी मृत्यु हुई। वे साधू बाबू से नियमित संपर्क में रहे थे, उन्होंने ही अविवाहित रहे साधू बाबू को मुखाग्नि दी थी। डॉ. प्रणब जी से व्यक्तिगत संपर्क के दौरान मैंने टैगोर के पेंड्रा प्रवास के बारे में जिज्ञासा की थी, उन्होंने स्वयं अपनी तथा साधू बाबू से होने वाली उनकी चर्चाओं में ऐसी किसी बात को अपुष्ट माना था, अब पुनः डॉ. प्रणब के पुत्र प्रतिभू जी ने भी बताया कि ऐसी कोई बात अपने पिता से उन्होंने नहीं सुनी।

कटनी रेलखंड पर 1891 में रेल परिचालन की जानकारी मिलती है साथ ही बिलासपुर बीरसिंहपुर सेक्शन, जिसके बीच बोगदा और पेंड्रारोड स्टेशन है, 1861 (!) में आरंभ होने का उल्लेख मिलता है किंतु बोगदा निर्माण 1907 में होने का तथ्य, विसंगतियों के कारण पहले पेंड्रा-बिलासपुर के रेल से से जुड़ा होना स्पष्ट नहीं होता और संदेह का कारण बनता है।

इस तरह टैगोर का पत्नी के इलाज के लिए 1902 में पेंड्रा आना और यहां उनकी पत्नी की मृत्यु की बात, मात्र एक काव्य रचना के आधार पर स्वीकार किया जाना उचित प्रतीत नहीं होता और विशेषकर तब, जब सारे प्रामाणिक स्रोतों में इसके विपरीत तथ्य हैं। यों यह रचना विवरण-मूलक है किंतु ‘मैं‘ बीनू के साथ, बिलासपुर स्टेशन पर गाड़ी बदल कर कहां जा रहा है या वापसी में ‘मैं‘ के अकेले होने का कारण, बीनू को कहीं छोड़ आना है या बीनू की मृत्यु? यह कुछ कविता में नहीं आता, इसलिए भी इसे आत्मकथ्यात्मक यात्रा-विवरण मानना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता और जैसा कहा जाता है- ‘साहित्य का ‘मैं‘ सदैव बहुवचन ही होता है।‘ इस कविता के ‘मैं‘ को भी इसी तरह देखना चाहिए। 

मेरा अनुमान है कि किसी व्यक्ति ने बिलासपुर हो कर आगे जाने की ‘फाँकि‘ कविता से मिलती-जुलती अपनी रामकहानी टैगोर को सुनाई होगी, उसकी पीड़ा को अपने अनुभवों के साथ जोड़ कर टैगोर ने इस कविता को रचा होगा, जिसमें ‘मैं‘ के कारण इसे स्वयं उनका संस्मरण मान कर, पत्नी के इलाज के लिए स्वयं उनके बिलासपुर होते पेंड्रा आने और यहां पत्नी के निधन की बात प्रचलित हो गई, जो पूरी तरह काव्यात्मक अभिव्यक्ति मानी जानी चाहिए, क्योंकि तथ्यों से मेल नहीं खाती।

प्रसंगवश-

0 कविता ‘फाँकि‘ में बिलासपुर का नाम आया है। यों छत्तीसगढ़ में ही एकाधिक बिलासपुर हैं, अन्य प्रदेशों के इस स्थान-नाम में हिमांचल का जिला मुख्यालय बिलासपुर प्रमुख है, मगर पुराना जंक्शन वाला रेल्वे स्टेशन होने के कारण छत्तीसगढ़ का यही बिलासपुर होना निश्चित किया जा सकता है। इसके साथ कविता में रुक्मिणी के चले जाने के संदर्भ में तीन अन्य स्थान-नाम ‘दार्जिलिंग, खसरुबाग और आराकान‘ आए हैं। उसका यह प्रवास संभवतः मजदूरी के लिए हुआ। बिलासपुर अंचल से श्रमिक पुराने समय से प्रवास पर ‘कमाने-खाने‘ जाते रहे हैं, उनमें कुछ लौट कर आ जाते हैं और बड़ी संख्या है, जो प्रवास के बाद वहीं टिक जाते हैं। इस क्षेत्र से कालीमाटी अर्थात जमशेदपुर, जहां अब सोनारी में छत्तीसगढ़ियों की बड़ी बस्ती है, ‘कोइलारी-कलकत्ता के अलावा कंवरू-कौरूं यानि असम प्रवास होता रहा है। संभव है उस दौर में अधिकतर प्रवास कविता में आए तीनों स्थान-नामों में होता रहा होगा।

0 कविता ‘फाँकि‘ में रुक्मिनी को ‘हिन्दूस्तानि मेये’ कहा गया है। जैसा बांग्ला-जन द्वारा गैर-बांग्ला भारतीय के लिए सामान्यतः इस्तेमाल किया जाता है, जो सहज प्रवाह में यहां भी आया है। बिलासपुर स्टेशन पर लगे अनुवाद में ‘हिन्दुस्तानी लड़की‘, संजुक्ता दासगुप्ता के अंगरेजी अनुवाद में ‘हिन्दुस्तानी गर्ल‘ है, मगर उत्पल बॅनर्जी ने इसका ‘गैर बंगाली लड़की‘ किया है। इस पर विचार करें- गैर बंगाली यानि जो पूर्व-पश्चिम बंगाल निवासी या बांग्लाभाषी न हो, होगा। यों हिंदुस्तानी का अर्थ बंगाल से इतर हिंदुस्तान निवासी ध्वनित होता है किंतु हिंदुस्तानीभाषी अर्थ नहीं निकलेगा, क्योंकि ‘बंगाल से इतर ‘हिंदुस्तान‘ में हिंदुस्तानी के अलावा अन्य भाषा-भाषी भी निवास करते हैं। इस संदर्भ में कुबेरनाथ राय के निबंध ‘धुरीमन बनाम परिधिमन‘ का एक अंश उद्धृत करना प्रासंगिक होगा- ‘बंकिम ने ‘वन्देमातरम्‘ में केवल सप्तकोटि बंगालियों की बंगमाता को ही गरिमा से अभिषिक्त किया। जब इस गीत का अखिल भारतीय उपयोग होने लगा तो ‘सप्त‘ को बदल कर ‘त्रिंशकोटि-कण्ठ-निनाद-कराले‘ कर दिया गया।‘

0 इस कविता में एक पंक्ति है- ‘बिनुर येन नतुन करे शुभदृष्टि हल नतुन लोके‘- बीनू शादी के बाद ससुराल से पहली बार रेल यात्रा पर निकली है, पति से कभी-कभार मुलाकातें, दबी-घुटी हंसी और बातें ही हो पाती थीं, अब उन्मुक्त माहौल और मानों ‘शुभदृष्टि‘, यानि वह ‘दृश्य‘ जिसमें नववधू विवाह के अवसर पर पान के पत्तों से चेहरा ढकी होती है, फेरों के बाद पहली बार पत्ते हटा कर, अपने होने वाले पति को पहली बार देखती है। ‘शुभदृष्टि- इस कविता में आई बांग्ला संस्कृति का नाजुक संवेदनापूर्ण मर्मस्पर्शी अर्थपूर्ण शब्द-प्रयोग।

0 ‘स्मरण‘ की दो कविताओं का हिंदी अनुवाद-

जीवित रहते उसने मुझे
जो कुछ दिया,
उसका बदला चुकाऊँगा, लेकिन
अभी समय नहीं है।
उसके लिए रात सुबह हो गई है,
हे प्रभु, तूने आज उसे ले लिया है।
मैंने उसे तेरे चरणों में,
कृतज्ञतापूर्वक भेंट किया है।
मैंने उसके साथ जो भी बुरा किया है,
जो भी गलतियाँ की हैं,
उसकी क्षमा मैं आपसे माँगता हूँ,
आपके चरणों में डालता हूँ।
जो कुछ उसे नहीं दिया गया,
जो कुछ मैं उसे देना चाहता हूँ,
उसे आज प्रेम के हार के रूप में
आपकी पूजा की थाली में रखता हूँ।
- - -
एक दिन इसी दुनिया में,
तुम एक नवविवाहिता के रूप में मेरे पास आईं,
अपना काँपता हुआ हाथ मेरे हाथों में रख दिया। 
क्या यह भाग्य का खेल था, क्या यह संयोग था?
यह कोई क्षणिक घटना नहीं है,
यह अनादि काल से चली आ रही योजना है।
दोनों के मिलन से भर जाऊँगा मैं,
युगों-युगों से इसी आशा में हूँ मैं।
मेरी आत्मा का कितना हिस्सा तुमने लिया है,
कितना दिया है इस जीवन धारा को?
कितने दिन, कितनी रातें, कितनी शर्म, कितनी हानि, कितनी जय-पराजय
मैं लिखता रहा हूँ,
मेरे थके हुए साथी क्या करेंगे,
सिवाय मेरे अपने शब्दों के!

0 सस्ता साहित्य मंडल द्वारा इन्द्र नाथ चौधुरी के प्रधान संपादकत्व में 2013 में प्रकाशित रवींद्रनाथ टैगोर रचनावली का खण्ड-42, ‘मेरी आत्मकथा‘ है, जिसमें मुख्यतः टैगोर के जीवन के आरंभिक वर्षों की विदेश यात्रा व प्रवास तथा साहित्यिक गतिविधियों का उल्लेख है। इसमें पेज 209-210 पर ‘स्त्री‘ कह कर अपनी पत्नी से संबंधित रोचक जिक्र आया है- एक तरुण, जो कहता है कि आपकी स्त्री पूर्वजन्म की मेरी माता है, ऐसा मुझे स्वप्न में दिखाई पड़ा है ... इतना ही नहीं कुछ दिनों बाद ‘एक लड़की का (मेरी स्त्री के पूर्व जन्म की लड़की का) एक पत्र मिला ...।‘ इस संदर्भ में उल्लेखनीय कि पता लगता है टैगोर प्लेन्चिट से मृत आत्माओं का आह्वान किया करते थे।

000
शब्द-कौतुक

0 बांग्ला पलातका, जैसा मिलता-जुलता मराठी शब्द पळपुटा है, जिसका अर्थ वैसा ही है और छत्तीसगढ़ी का पल्ला भागना, पल्ला तान देना वही अर्थ देता है, इससे लगता है कि शब्द का मूल एक ही होगा।

0 1910 के बिलासपुर गजेटियर में पेंड्रा के साथ ‘पंडरीबन‘ नाम आया है, यह रोचक संकेत का आधार है। सामान्यतः पेंड्रा या पेन्डरा, पिंडारियों से संबंधित शब्द माना जाता है, यह उपयुक्त नहीं जान पड़ता। पंडरीबन शब्द का बन स्पष्टतः वन, वृक्ष-बहुलता का शब्द है और पंडरी को रायपुर के पंडरीतलई, पेंडरवा, पेंड्री, पंर्री, पांडातराई, पंडरीपानी जैसे शब्दों के साथ समझने के प्रयास में इसका अर्थ सफेद (पांडुर) या स्वच्छ-उजला निकलेगा। छत्तीसगढ़ से संबंधित ‘गोरे‘ फादर लोर या वेरियर एल्विन को और अन्य विदेशी पादरियों आदि को पंडरा साहब कहा जाता रहा है। इस आधार पर संभव है कि इस क्षेत्र में सफेदी लिए तना-छाल वाले वृक्ष- धौंरा, केकट या कउहा की अधिकता रही हो, यों कुरलू या कुल्लू, कुसुम, अकोल, मुढ़ी, कलमी, सिरसा, करही, परसा, सेमल, खम्हार, पीपल, पपरेल का तना भी सफेदी लिए होता है, मगर जंगली नही और झुंड में नहीं होता। पंडरा, चूने का संकेत भी देता है, जिसके लिए छत्तीसगढ़ी में सामान्यतः धौंरा (धवल) शब्द है, जिससे धौंराभांठा, धवलपुर, धौरपुर जैसे स्थान-नाम बनते हैं। पंडरभट्ठा स्थान-नाम स्पष्ट ही चूना पत्थर का खदान है। पेंड्रा से चूना निर्यात की जानकारी भी मिलती है, यह दूर की कौड़ी मानी जा सकती है फिर भी ... और इसी तरह गौरेला को गौ-रेला, यानि गायों की पंक्ति-झुंड या रेला बताया जाता है तो इसे गौर (वर्ण), चूने या सफेदी से जोड़ कर भी देखा जा सकता है।

0 इसी क्रम में भनवारटंक, का भनवार बहुत अजनबी शब्द है, और हिंदी में उच्चारित होने वाला टंक अंगरेजी में ‘टी-ओ-एन-के‘ लिखा जाता है। संभावना बनती है कि यह भंवर यानि बड़ी मधुमक्खी से आया हो और अंगरेजी स्पेलिंग के कारण इस तरह बदल गया हो। खोडरी, स्पष्ट ही खड्ड, खोड़रा, अर्थात गड्ढा का अर्थ देता है और खोंगसरा, जैसा एक अन्य स्थान -नाम खोंगापानी है, इसमें सरा-पानी, स्पष्ट है और खोंग का आशय व्यवधान-रुकावट या गहराई के लिए है।

टीप- इस मसौदे को तैयार करने में उपरोक्त उल्लेखित के अतिरिक्त रायपुर, भिलाई के महानुभावों और कोलकाता, विश्वभारती से संबंधित लोगों से संपर्क किया गया। विश्वभारती, शांति निकेतन द्वारा मार्च 2019 में "Rabindranath Tagore and Travel" कान्फ्रेंस का आयोजन किया गया था, संयोजक प्रो. सोमदत्ता मंडल और उनके सहयोगी डॉ. सौरव दासठाकुर थे, टैगोर की संभावित बिलासपुर यात्रा के बारे में इनसे जानकारी लेने का प्रयास किया साथ ही विश्वभारती के ही श्री राहुल सिंह, सुश्री सुर्हिता बसु से भी मेल-दूरभाष पर संपर्क किया। वहां के प्रो. अमित सेन ने सहयोग करते हुए टैगोर की जीवनी और यात्राओं के विशेषज्ञों से जानकारी जुटा कर अवगत कराने का आश्वासन दिया है। इन सबके पीछे मेरा प्रयास है कि टैगोर के बिलासपुर आने का कोई भी संकेत मिल पाता है अथवा नहीं, या ऐसी संभावना का पता करने का प्रयास जिसके कारण उनकी कविता में बिलासपुर का नाम आया है। साथ ही इससे संबंधित आपत्ति, आलोचना, संदेह पैदा करने और स्थानीय तथ्यों की जानकारी-सामग्री जुटाने में रायपुर, बिलासपुर और पेंड्रा से जुड़े बुद्धिजीवियों, मीडिया-परिचितों से सहयोग मिला। 

इस पोस्ट का मुख्य अंश 31 अगस्त को ‘द वायर‘ हिंदी में इस प्रकार पेश हुआ था। साथ ही नीचे इस पोस्ट से संबंधित फेसबुक की 29 अगस्त तथा 1 सितंबर की मेरी तथा 30 अगस्त की रमेश अनुपम जी की बातें- 

रमेश जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय और सौहार्दपूर्ण संबंध है। उनका शिष्ट-शालीन व्यक्तित्व, अकादमिक अध्यवसाय की गहराई और समझ सुस्थापित है। फिर ऐसी बातें, जिसमें मुद्दे के बजाय व्यक्तिगत आक्षेप है, यद्यपि उन्होंने अपनी पोस्ट में किसी का नामोल्लेख नही है, इसलिए संभव है कि वह किसी अन्य के लिए की गई टिप्पणी हो, लोगों ने उसकी ओर ध्यान दिलाया, देख कर लगा कि वह टिप्पणी किसी अन्य के लिए हो तो समान रुप से मेरे प्रति भी की गई संभव है। शायद उन्होंने तात्कालिक उत्तेजना और भावावेश में आ कर लिखा है, यह भी संभव है कि उनका फेसबुक अकाउंट हैक कर उसका दुरुपयोग हम दोनों के बीच मनमुटाव पैदा करने के लिए किया गया हो। दोहराव, मगर प्रासंगिक होने के कारण यहां आवश्यक है अतएव-

अकादमिक शोध-अध्ययन, तथ्यों और उपलब्ध-प्राप्त अधिकतम संभव सूचनाओं का पूरी पारदर्शिता के साथ इस्तेमाल कर निष्कर्ष निकालना होता है, न कि सही-गलत फैसला करना या साबित करना।

किसी गंभीर व्यक्ति की पोस्ट की उपेक्षा, उसे नजरअंदाज करना, उसके अपमान जैसा है यह मानते, उनकी बातों से असहमति के बावजूद पूरा सम्मान देते बतर्ज गांधी ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है‘ के इस्तेमाल की धृष्टता करते हुए कह सकता हूं कि ‘मेरा लेख ही उनकी बातों का जवाब है।‘

पोस्ट पर यह टिप्पणी आई है। मनीष दत्त जी अब हैं नहीं।
सतीश जायसवाल जी अब भी सक्रिय हैं,
टिप्पणी में आई बात- पुष्टि/खारिज कर सकते हैं।