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Wednesday, December 17, 2025

लीला-लावण्य

खजुराहो-शिल्प पर आधारित काव्य ‘लीला-लावण्य‘ 140 चौपदी हैं। पुस्तक की ख्याति नहीं है, न रचयिता की प्रसिद्धि, उनका नाम ‘प्रसिद्ध चौहान‘ है। 

मेरे लिए पुस्तक की चार खास बातें- पहली-खजुराहो, दूसरी- बैकुंठपुर निवासी रचनाकार, तीसरी- सुमित्रानंदन पंत की छायावादी हिंदी में ‘दो शब्द‘, और चौथी- पुस्तक का समर्पण ‘धरा की समस्त रूपगर्विताओं को‘। 
कृति-रस का अनुमान कराने, चार चौपदियां- 

मूर्तियाँ, ज्यों शिल्प के हों पारिजातक 
शरद की यह धूप परिमल की चुनरिया, 
गल न जाए चुम्बनों की इस झड़ी में 
इसलिये पथरा गई क्या तू गुजरिया? 

वेदना की भूमिका है नयन इंगित 
फिर प्रतीक्षा तीक्ष्ण तप की सहचरी है, 
अधर रस अमरत्व का परिचय पुरातन 
द्वार परिनिर्वाण की भुजवल्लरी है. 

सजे बंदनवार आलिंगित करों के 
अधर चुम्बनरत जले ज्यों दीपमाला, 
जघन-कदली द्वार पर कुच कलश सज्जित 
रति महोत्सव है यहाँ तम का उजाला. 

प्रीति की पाती न पूरी हो सकेगी 
लेखनी की गति अचानक ठहर जाए, 
वक्ष पर जो धड़कनें लिखती रही हैं 
आज कागज पर भला कैसे समाए? 

पन्त जी के ‘दो शब्द‘ (प्रयाग 30-3-71) का एक वाक्य- ‘मिथुनों के परस्पर के स्वाभाविक आकर्षण को कला का सम्मोहन प्रदान कर तथा उसकी प्राणधारा के प्रवेग को लावण्य-लोल भाव-भंगिमाओं में अंकित कर खजुराहो के शिल्प ने जैसे अमरत्व की स्वर्णिम् पंखुरियों को जीवन की वेणी में गूंथ दिया है।‘ कृतिकार, भूमिका ‘तुम्हारे नाम‘ (पन्ना वसन्त पंचमी-71) में लिखते हैं- ‘इस संस्कृति ने संभवतः मानव-इतिहास में पहली बार मूर्त और अमूर्त को, देह और आत्मा को, संभोग और समाधि को अस्तित्व के कूलहीन आनन्द की भुजाओं में एकसाथ समेटने का उदात्त कौशल दिखलाया।‘ टीप- पुस्तक 1972 में किताब महल, इलाहाबाद से छपी है। कापीराइट ‘श्रीमती किरण चौहान, बैकुन्ठपुर, जिला सरगुजा (म.प्र.) तथा यही नाम प्रकाशक के रूप में भी है। पुस्तक में रचयिता का परिचय नही है। बैकुंठपुरवासियों से पता चला कि उनका पूरा नाम प्रसिद्ध नारायण सिंह चौहान था। परिवार के सदस्य भोपाल में रहते हैं तथा कुछ परिवारजन बैकुंठपुर में। सोच रहा हूं, छत्तीसगढ़ से जुड़े इस महत्वपूर्ण साहित्यिक की चर्चा सामान्यतः नहीं होती है, ऐसा क्यों? प्रसिद्ध जी की तस्वीर और संक्षिप्त परिचय, उनके पारिवारिक अथवा अधिकृत स्रोत से मिलने पर साझा करूंगा।

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