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Thursday, July 6, 2023

मल्हार का खजाना

नवभारत, बिलासपुर के फीचर पेज ‘इंद्रधनुष‘ पर ‘पुरातत्व‘ के अंतर्गत 11 अक्टूबर 1988 को प्रकाशित

प्राचीन सिक्कों में छिपी है वैभव गाथा
- पी. एन. सुब्रमणियन

मल्हार पुराने इतिहास और संबंधित सामग्री में दिलचस्पी लेने वालों के ‘मल्हार‘ का भौगोलिक परिचय अधिक जरूरी नहीं है क्योंकि यह स्थान न केवल छत्तीसगढ़ वरन् पूरे देश में इतिहासचेता लोगों में लगभग ५० वर्षों से बराबर चर्चा में रहा है। ईस्वी पूर्व की आठवीं सदी से प्रारंभ हो रही ढ़ाई हजार वर्षों से भी अधिक काल के इतिहास प्रमाण का निरंतर सिलसिला स्मारक, मूर्ति, मिट्टी के बर्तन, मनके, दैनिक जीवन में उपयोग की विभिन्न सामग्री और इतिहास के पक्के- अभिलेख व सिक्कों के रूप में पूरी समृद्धि और विविधता सहित, मानो यहाँ इकट्ठी हैं। इसलिए दक्षिण कोशल की प्राचीन राजधानी हेतु मल्हार का ही अनुमान होता है और यह स्थान व्यापारिक एवं धार्मिक गतिविधियों का विख्यात केन्द्र तो अवश्य रहा है। 

वैसे तो मल्हार की पुरातात्विक सामाग्रियां चर्चा में रही है, किन्तु ऐसी चर्चाओं का प्रतिशत, प्राप्तियों की तुलना में नगण्य है, यही कारण है कि स्थल में समय समय पर आनेवाले पुरातत्व के मेहमानों का ऐसा स्वागत किया है कि वे स्तम्भित रह गये हैं। सर्वश्री वि. श्री. वाकणकर, के. डी. बाजपेयी ये सभी यहाँ के अप्रत्याशित उपहार से अभिभूत हुए हैं। ऐसे भी विद्वानों और तथाकथित इतिहास प्रेमियों की कमी नहीं है जिन्होंने मल्हार की सामाग्रियों का दोहन व्यक्तिगत संग्रह कर मिथ्याभिमान करने से अधिक उपयोगी नहीं समझा और शायद ऐसे इतिहास प्रेमी उन ग्रामीण किसानों से कहीं अधिक दोषी हैं, जिन्हें ये सामाग्री खेती-बाड़ी के काम के दौरान या मकान के लिए मिट्टी खोदते हुए या बरसात के कटाव में प्राप्त होती है तथा जिनकी जागरूकता सीमित है। वे बस यह जानते है कि व्यक्तिगत परिचय वाले इतिहास प्रेमी इसे पाकर खुश होंगे और यदि पुलिस या शासन को इसकी सूचना मिली तो हम जेल में डाल दिये जायेंगे। चूंकि अधिकांश प्राप्त सामाग्री किसी व्यवस्थित तकनीकी उत्खनन का नहीं बल्कि इन्हीं ग्रामीणों की ‘चान्स डिस्कवरी‘ का फल होता है, अतः यह या तो प्रकाश में ही नहीं आ पाता या सार्थक हाथों में नहीं पड़ता। इसी तरह की सामग्री विशेषकर सिक्के मुझे मल्हार के ठाकुर गुलाब सिंह एवं श्री कृष्ण कुमार पाण्डेय के सौजन्य से देखने को मिले या प्राप्त हुए और इन सिक्कों में से कुछ ऐसे निकल आये जो स्वयं में विशिष्ट श्रेणी के हैं ही, इनके माध्यम से तत्कालीन क्षेत्रीय इतिहास पर भी नया प्रकाश पड़ सकता है, इसी दृष्टि से उन कुछ विशिष्ट सिक्कों की चर्चा विषय का विशेषज्ञ न होने पर भी करना आवश्यक जान पड़ने लगा। 

इन सिक्कों में सबसे पहले कुछ आहत (Punch Marked coins) सिक्के हैं। इस प्रकार के सिक्के भारत में विनियम हेतु प्रयुक्त माध्यम ‘मुद्रा‘ का आदि स्वरूप है। इतिहास में वस्तु विनिमय की स्थिति के बाद ‘गौ‘ माध्यम से लेनदेन होता था। आवश्यकता और उपयोगिता के औचित्य से धातु पिण्डों को मानक और सुविधाजनक माना गया है और इनका प्रचलन बढ़ता ही गया। इस प्रकार अर्थशास्त्रीय दृष्टि से आहत सिक्के ही प्रथमतः प्रचलित हुए, जिन्हें ‘मुद्रा‘ की परिभाषिक संज्ञा के अनुक्रम में आरंभिक स्थान दिया जा सकता है। आहत सिक्के लगभग २७०० वर्ष पूर्व प्रचलन में आये और परवर्ती अन्य प्रकारों के साथ करीब १००० वर्ष तक प्रचलित रहे। सामान्यतः आहत सिक्कों के निर्माण में एक निश्चित वजन के चाँदी के टुकड़े पट्टी में से काटकर या ढालकर तैयार किये जाते थे जिन्हें आघात कर चिन्हांकित कर लिया जाता था। 

मल्हार से प्राप्त चांदी के दो आहत सिक्के अपने में विशिष्ट प्रकार के हैं। ये सिक्के ४ पण अर्थात ८ रत्ती (आज के संदर्भ में २५ पैसे) मूल्य के हैं। तत्कालीन मुद्रा प्रणाली में मानक कर्षापण था। आज के रूपये जैसा, जिसका वजन ३२ रत्ती होता था। एक कर्षापण सोलह पणों में विभाजित था। यह व्यवस्था ठीक रूपया आना की भांति से थी, अर्थात जहाँ १६ आने का १ रूपया होता था उसी तरह १६ पणों का कर्षापण। मुद्रा शास्त्रीय अध्ययन इतिहास में विशेषज्ञों ने हजारों आहत मुद्राओं के वजन, उन पर दृष्टिगोचर चिन्ह कृतियों का सूक्ष्म परीक्षण कर, वर्गीकरण तथा उसके आधार पर निर्माण तकनीक, मुद्रा मानक, प्रचलन क्षेत्र आदि का निष्कर्ष निकाला। 

आहत सिक्कों के चलन के क्षेत्र की पहचान का मुख्य आधार उन पर अंकित चिन्ह ही है। इस दृष्टि से मल्हार के क्षेत्र में ‘४‘ चिन्हांकित सिक्कों का प्रचलन रहा होगा, क्योंकि विवेच्य दोनों आहत सिक्कों पर यह चिन्ह अंकित है, किन्तु इन चिन्हों के कारण ये सिक्के भारतीय आहत सिक्कों के वर्गीकरण में एक अलग श्रेणी में रखे जा सकते हैं क्योंकि अब तक ज्ञात आहत, सिक्कों पर इस प्रकार के चिन्हों का कोई उल्लेख नहीं हुआ है, साथ ही कर्षापण मूल्यमान के सिक्के भी भारतीय मुद्राशास्त्र में अल्पज्ञात है। इसीलिए इन्हें विशिष्ट प्रकार के सिक्के माना गया है, निश्चय ही यह चिन्ह इस क्षेत्र के आहत सिक्कों की अलग श्रेणी निर्धारित करता है। इसके साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि यही चिन्ह मल्हार के विभिन्न राजवंशों के अलग-अलग काल के भिन्न-भिन्न सिक्कों पर उपयोग होता रहा है। 

इन सिक्कों का मल्हार में पाया जाना, इनके विशिष्ट प्रचलन क्षेत्र का आभास तो कराता ही है साथ ही मल्हार के प्राचीन सुविकसित अंतर्देशीय व्यावसायिक केन्द्र होने की पुष्टि भी करता है। एक अन्य रोचक एवं प्रासंगिक साम्य यह भी है कि बौद्ध साहित्य में लगभग २५०० वर्ष पूर्व श्रावस्ती के श्रेष्ठि अनाथपिंडक द्वारा कुमार जेत के जेतवन नामक आम्रवन को बुद्ध के एक दिवसीय प्रवास हेतु क्रय करने का उल्लेख है। कुमार जेत आम्रवन बेचने को तैयार नहीं थे किन्तु अनाथपिंडकं द्वारा मुहमांगे मूल्य का प्रस्ताव रखा गया। पूरे वनक्षेत्र को सिक्कों (निश्चय ही तत्कालीन प्रचलित आहत सिक्के) से ढंक कर मूल्य दिये जाने की लगभग असंभव शर्त रखी, जिसे अनाथपिंडक ने सहर्ष स्वीकार कर गाडियों से सिक्के मंगवाकर वनक्षेत्र में फैलाना आरंभ कर दिया। मल्हार के सिक्कों के संदर्भ में यह कथा मात्र संयोग की सीमा से अधिक रोचक हो जाता है क्योकि मल्हार का निकटवर्ती ग्राम जैतपुर है। स्थल पर बौद्ध धर्म के अवशेष तो विद्यमान हैं ही, साथ ही सिक्के भी विपुल संख्या में प्राप्त होते हैं।

मल्हार से प्राप्त एक मिश्रधातु का सिक्का भारत पर विदेशी आक्रमणों के आरंभिक काल अर्थात २३०० साल पहले की याद दिलाता है। जब भारत पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ, इस काल भारतीय इतिहास का कुछ भाग ‘इण्डो-ग्रीक काल‘ के रूप में जाना जाता है।

संदर्भित सिक्के पर महान यूनानी योद्धा (सिकंदर) की मुख्यकृति अंकित है। लेखांकित सिक्के का लेख अस्पष्ट होने के बावजूद यह सिक्का यूनानियों का मल्हार तक संबंध इंगित करता है। सिक्के पर दो छिद्र बने है जो संभवतः बाद में किसी व्यक्ति द्वारा धारण करने के प्रयोजन से किये जान पड़ते है।

कुछ अन्य महत्वपूर्ण सिक्के मल्हार से मिले हैं जो अधिकतर सीसे के हैं। इन सिक्कों पर गज चिन्ह के साथ साथ ब्राह्मी लिपि का लेख ‘राञो मघसिरिस’ ‘मघ‘ अंकित है। इस प्रकार के सिक्कों की बहुलता को देखते हुए ऐसा लगता है कि मल्हार में दूसरी/तीसरी सदी में मघ वंश का शासन रहा होगा। यहाँ यह बताना समुचित होगा कि मघवंश का शासन कौसाँबी दूसरी/तीसरी सदी में (इलाहाबाद के पास वर्तमान कोसम), रीवां और बांधवगढ़ में वहाँ से प्राप्त सिक्कों का अध्ययन प्रसिद्ध मुद्राशास्त्री श्री अजयमित्र शास्त्री द्वारा किया गया था। उन पर एक ग्रंथ ‘कौसाँबी होर्ड आफ मघ कॉयन्स‘ भी प्रकाशित हुई है। हमारे पुराणों में उल्लेख है कि मघ वंश का शासन दक्षिण कोसल में रहा परन्तु पुरातात्विक प्रमाणों के अभाव में श्री शास्त्री ने अपने निष्कर्षों में यह कहा है कि संभवतः दक्षिण कोसल की उत्तरी सीमा बांधवगढ़ तक रही होगी और इसी कारण मघ वंश के दक्षिण कोसल पर आधिपत्य का उल्लेख आ गया होगा। बड़ी मात्रा में मल्हार से प्राप्त हो रहे ‘मघ‘ सिक्कों से अब न केवल इस वंश के दक्षिण कोसल से उद्भव का पौराणिक उल्लेख प्रमाणित होता है, वरन् इस बात की संभावना भी बनती है कि मध वंश मूलतः मल्हार से अंकुरित होकर कौसाम्बी की ओर बढ़ा हो। लिखावट की शैली से यह तथ्य आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है।

जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, बांधवगढ़, रीवां और कौसांबी मे मघ शासकों के शिलालेख पाये गये हैं परन्तु मल्हार में उनका न पाया जाना, सिक्कों के आधार पर उपरोक्त निष्कर्षाें को प्रभावित नहीं करते। शिलालेखों का अपने ही गृहनगर में उत्कीर्ण किया जाना किसी भी शासक के लिए अनिवार्य नहीं हुआ करता वह उनका उपयोग नये विजित क्षेत्रों में अपने अधिकार को जताने के लिये करता है। यह भी हो सकता है कि मल्हार में मघों के शिलालेख रहें हों और बाद के शासकों द्वारा नष्ट कर दिये गये हों अथवा संयोगवश अब तक प्राप्त न हो सके हों।

अंत में मल्हार से प्राप्त कुछ अन्य सिक्कों का संक्षिप्त उल्लेख किया जाना आवश्यक है जो लगभग ‘मघ‘ सिक्कों के ही समकालीन है। इन सिक्कों पर चिन्ह भी मघ सिक्कों से मिलते जुलते हैं किन्तु लेख अलग-अलग हैं। राजा और श्री के प्राकृत रूप ‘रा´ो‘ तथा ‘सिरिस‘ के सामान्य उपयोग के अतिरिक्त शासक का नाम ‘चंद‘, ‘भालीगस‘, ‘अचड‘, ‘धमगस‘, ‘सालुकस‘ आदि प्राप्त होते हैं। बड़ी संख्या में ऐसे सिक्के मिलते हैं, जिनका आकार मसूर के दाने से अधिक है। मुद्राशास्त्रियों द्वारा इनका परीक्षण तथा विस्तृत विवेचन कर भारतीय इतिहास के उन चार सौ वर्षों (ईसापूर्व और पश्चात के दो दो सौ वर्ष) की स्थितियों को प्रकाशित करने का प्रयास किया जाना चाहिए जिसका अधिकांश ‘अधंकार युग‘ माना जाता है। साथ ही साथ मल्हार में यदि पुरातत्वीय उत्खनन किन्हीं कारणों से संभव न हो तो कम से कम संग्रह हेतु शासकीय प्रयास विभागीय तौर पर कराये जाने का उपाय आवश्यक है अन्यथा भारतीय इतिहास के न जाने कितने धरोहर अनजान रह जायेंगे और इतिहास के कितने ही पक्षों के उजागर हो सकने संभावना स्रोत सूख जायेंगे।
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प्राचीन मुद्राओं और उनके अध्ययन पर कुछ बातें। अजयमित्र शास्त्री जी के अलावा डॉ. सुस्मिता बोस मजुमदार ने इन सिक्कों पर गंभीर शोध किया है। रुचि लेने वाले संग्राहकों और अध्येताओं में रोहिणी कुमार बाजपेयी जी, राजेश तिवारी जी भी रहे। 

इस प्रकाशित मसौदे के लेखक, मूलतः केरल के, जिनकी स्कूली शिक्षा जगदलपुर में हुई, अपना नाम पा.ना. सुब्रमणियन लिखते हैं, मलयालम, दक्षिण भारतीय अन्य भाषाओं के साथ हल्बी, छत्तीसगढ़ी और अंगरेजी पर अधिकार है, भारतीय स्टेट बैंक में स्केल-5 अधिकारी रहे, हिंदी पखवाड़ा और उसके बाद भी अपनी मेज पर लिखा रखते ‘मुझे अंगरेजी नहीं आती‘। ‘बिलासपुर-रायपुर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक‘, जिसका मुख्यालय बिलासपुर में होता था, में महाप्रबंधक पद पर रहे हैं।

कुछ और स्मृतियां। इस बैंक के साथ इसके शुरुआती दिनों को याद किया जाना आवश्यक है। सिक्कों-मुद्रा के साथ बैंक का रिश्ता तो होता ही है।अनोखी सूझ और दृष्टि के व्यक्ति इतिहास-पुरातत्व सजग एच.एम. शारदा जी हैं, जिन्होंने तब इस बैंक की शाखाएं खोलने के लिए युक्ति अपनाई, वह बेमिसाल थी। उनका सोचना था कि जिन गांवों में पुरातात्विक अवशेष प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जो ग्राम महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है, निश्चय ही वह आर्थिक गतिविधियों का केंद्र रहा होगा, इसलिए ग्रामीण बैंक की शाखाएं ऐसे ही गांवों में होनी चाहिए। यह उनकी इतिहास-पुरातत्व रुचि के अनुकूल था और हम पुरातत्व अधिकारियों के लिए अमूल्य मददगार। तब, यानि 1985-90 के दौरान ग्रामीण बैंक में रामू महराज यानि रामप्रसाद शुक्ला जी, रंजन राय जी, परमानंद जी, महेशचंद्र पंत जी, विवेक जोगलेकर जी, उदय कुमार जी जैसे गुणी लोग रहे हैं।

वापस सुब्रमणियन जी पर। उनकी रुचि, सजगता और अध्ययन का प्रमाण यह लेख तो है ही। गोदान के प्रसंग वाले अभिलेख स्थल ऋषभतीर्थ-गुजी यानि दमउदहरा में बैंक की ओर से शिलालेख के परिचय वाला पट्ट लगवाया था। हमारा कार्यालय सीमित संसाधनों और स्टाफ वाला होता था, मगर ग्रामीण बैंक की शाखाएं दूरस्थ-दुर्गम अंचल में होने के कारण हमारी भागदौड़ भी कई बार सीमित हो जाती थी मगर बेहद महत्व की सूचनाएं, जानकारियां और कई बार कार्यवाही में मदद ग्रामीण बैंक के अधिकारियों के माध्यम से हो जाया करती थी।

सुब्रमणियन जी  का ब्लॉग मल्हार Malhar गंभीर मगर रोचक रहा है और मेरी ब्लॉग यात्रा का पहला कदम उन्हीं के सहारे उठा था। हां, सुब्रमणियन जी संबंधी एक खास बात और, वे अमृता-प्रीतम के पिता हैं। जी हां, उनकी पुत्री का नाम अमृता और पुत्र प्रीतम नामधारी हैं।सुब्रमणियन जी ने पुराने सिक्कों का संभवतः अपना सारा संग्रह देश के महत्वपूर्ण प्राचीन मुद्रा अध्ययन केंद्र आंजनेरी, नासिक को भेंट स्वरूप सौंप दिया है।

5 comments:

  1. इस पोस्ट के लिए हृदय तल से आभारी हूं

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  2. सुब्रह्मण्यम सर बौद्धिक रूप से अभी भी इतनी सक्रिय है जानकर बहुल अच्छा लगा। आप एक उत्तम और कुशल शिक्षक भी है।
    स्टेट बैंक ट्रेनिंग सेन्टर मे आपकी भुमिका हम सब के लिये आदर्श मार्गदर्शक जैसा रहा। प्रणाम।

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  3. मल्हार पर आधारित आदरणीय श्री सुब्रमणियन सर जी और आपका यह महत्वपूर्ण आलेख हमारे लिए अनमोल धरोहर है। मेरी जानकारी के अनुसार कृष्णा भैया ने कुछ सिक्के सुब्रमणियन सर जी को दिये थे। जिसके पीछे एक कहानी छुपी हुई है। ऐसे मघ शासकों में से मघ सिरिस और अवधसिरिस के दो सिक्के मुझे मल्हार में मिला है। यहाँ और भी बहुत कुछ है, परन्तु जैसा कि आदरणीय सुब्रमणियन सर जी ने अपना दर्द बयान किया है , शासन और और विभाग की मल्हार के प्रति उपेक्षा के कारण वह दिन दूर नहीं जब मल्हार अपना पहचान ही खो देगा। इसके लिए आप जैसे विद्वान और कर्मठ व्यक्ति के राज्यसभा में जाकर मल्हार के वैभव को विश्वस्तर पर पहचान दिलाने की आवश्यकता है। आपका सादर चरणस्पर्श

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  4. अति महत्वपूर्ण सर काफी रोचक जानकारी प्राप्त हुई

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  5. Bahut rochak likha hai aapne ,malhar ke "m" nishaan Wale sikko par Shri shubramaniyam ka blog dekha tha maine

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