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Tuesday, May 30, 2023

लाल साहब पुनः

शब्दों के अर्थ की ठीक समझ के लिए शब्दकोश से बाहर, आगे जाना होता है। भौतिक जगत के लिए जीव-वस्तुओं के साथ शब्दों का मेल-जोड़ बिठाना होता है तो मानवीय गुणों के लिए उसे व्यक्तियों के साथ जोड़ कर समझ बनती है। अपने बचपन की याद करते हुए मुझे लगता है कि पांडित्य, सदाचार और अनुशासन जैसे शब्द, पं. रामभरोसे शुक्ल जी और उनके परिवार के गोरेलाल जी, मुरारीलाल जी, मदनलाल जी, वेंकटेश जी के साथ मेरे लिए सार्थक होते हैं। डॉ. मदनलाल शुक्ला जी के साथ अन्यान्य कारणों से मेरा संपर्क उनके जीवन काल में बना रहा, उनका पिछला लेख और यह, उनके लिए मेरी श्रद्धांजलि भी है।
पं. रामभरोसे शुक्ल जी परिवार


अकलतरा वाले ठाकुर डॉ. इंद्रजीत सिंह (लाल साहब) का शतीय जन्म दिवस आज 

डॉ. इंद्रजीत सिंह: अद्भुत व्यक्ति, अद्वितीय व्यक्तित्व

■डॉ. मदनलाल शुक्ला 

स्वर्गीय ठाकुर डा. इंद्रजीत सिंह का जन्म 5 फरवरी 1906 बिलासपुर जिले के जांजगीर तहसील में स्थित ग्राम अकलतरा में हुआ था. उनके स्वर्गीय पिताजी राजा मनमोहन सिंह पच्चीस गांव के मालगुजार थे. उन दिनों मालगुजारों के निवास स्थान को ‘बखरी‘ कहते थे. गांव में दो बखरी थे- बड़ी बखरी, छोटी बखरी. ये दोनों परिवार इलाके में अपने जनकल्याण कार्यों के लिये प्रसिद्ध थे. उनकी ‘बखरी‘ बड़ी बखरी कहलाती थी. डा. इंद्रजीत सिंह की शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुयी थी. विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री लेने के उपरान्त इंद्रजीत सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय चले गये. वहां एन्थ्रोपालाजी के विभागाध्यक्ष डा. मजूमदार के मार्गदर्शन में इनने तत्कालीन छत्तीसगढ़ के बैगाओं, आदिवासियों की जीवन शैली, रहन सहन को अपना विषय बनाकर पी एच डी. की उपाधि प्राप्त की. 
दैनिक ‘नवभारत‘, 5 दिसंबर 2006, मंगलवार, संपादकीय पृष्ठ की कतरन 

उनके व्यक्तित्व कृतित्व तथा उपलब्धियों का वर्णन निम्नानुसार है. 

उनका दैहिक व्यक्तित्व आकर्षक था. मृदुभाषी एवं सहृदयता के धनी ठाकुर साहेब पूरे क्षेत्र में अत्यंत लोकप्रिय थे. वे लाल साहेब के नाम से अपने परिवार जनों तथा जरुरतमंदों में जाने जाते थे. वे सहायता करने में इतने प्रवीण थे कि आम लोग उन्हें गरीबों का मसीहा कहते थे. स्वभाव से शालीन संवेदनशील तथा अहंकार विहीन व्यक्ति थे. उनकी व्यवहार कुशलता प्रसिद्ध थी. उनके चार पुत्र रत्न राजेंद्र कुमार (बड़े बाबू), संत कुमार, बसंत कुमार तथा धीरेंद्र कुमार एवं एक बहन बीना सिंह. इन चार भाइयों में से पहले तीन की मृत्यु हो चुकी है. अभी धीरेंद्र कुमार पूरे परिवार का भार सम्हाले हुए हैं. स्वर्गीय राजेंद्र कुमार के सुपुत्र भूतपूर्व डा. राकेश सिंह भूतपूर्व विधायक थे. अब वे अकलतरा में प्रेक्टिस करते हैं. लाल साहिब के मृदुभाषी होने का पारिवारिक गुण सब भाईयों में था. डा. राकेश भी सगाजसेवा और जन कल्याण के काम में लगे रहते हैं. धीरेंद्र कुमार सिंह बिलासपुर में रहते हैं तथा अपने स्व. पिता के नाम से ‘ठाकुर इंद्रजीत सिंह काम्पलेक्स‘ उच्च न्यायालय के सामने बनवाया है. उसमें शहर के वरिष्ठ अधिवक्तागण रह रहे है. स्व. संत कुमार सिंह के सुपुत्र राहुल सिंह उम्र 45 वर्ष स्थानीय पुरातत्व विभाग उप संचालक के पद पर कार्यरत है. 

मदनलाल शुक्ल जी के सुपुत्र
विनय शुक्ला जी
हमारे विभागीय संचालक रहे,
उनके हस्ताक्षर से जारी
मेरे परिचय पत्र की तस्वीर
स्व. लाल साहेब की आज भी उनके तीन प्रमुख उपलब्धियों के लिये स्मरण किया जाता है. प्रसिद्ध शिकारी, प्रथम श्रेणी के स्पोर्ट्समेन, तथा पर्यटन प्रेमी. अकलतरा गांव से तीन मील पर ‘कटघरी‘ गांव में उनके द्वारा एक बहुत बड़ा बगीचा बनवाया था. जिसमें देश के सभी प्रसिद्ध प्रकार के आम के वृक्ष लगे हुये हैं, दशहरी, चौसा, लंगड़ा आदि. अपने समय में लाल साहब उस बगीचे में ही अतिथिजनों का स्वागत करते थे. मनोरंजन के तौर पर कार-मिकेनिजम में वे माहिर थे, उस समय जर्मनी से मंगाया गया ‘हंसा‘ कार वे रखते थे तथा लोगों को उसमें बैठाकर क्षेत्र के रमणीय स्थानों पर ले जाते थे. पच्चीस गांव के मालगुजार होने के नाते वे ग्रामीण भाईयों को प्रेम करते थे, न्यायप्रिय थे तथा उनके पूरे इलाके में संतोष व्याप्त था. अकलतरा शहर के प्रसिद्ध हरिकीर्तनकर्ता पं. स्वर्गीय रामभरोसे शुक्ल से अत्यंत प्रभावित थे. उनके हरिकीर्तन सुनने के लिये हर जगह पहुंच जाते थे. श्रद्धा आस्था और निष्ठा के प्रेमी लाल साहिब सदैव स्मरण किये जायेंगे. 

लाल साहिब के गुण ग्राह्यता भी अपने किस्म की एक ही थी. स्व. पं. गोरेलाल शुक्ल पुत्र रामभरोसे शुक्ल ने सन् 1941 में नागपुर विश्वविद्यालय से बी.ए. आनर्स (अंग्रेजी) की डिग्री प्रथम श्रेणी में ली तथा उनकी प्रतिभा कितनी तीक्ष्ण थी कि एक वर्ष के ही अंदर वे असिस्टेंट प्रोफेसर अंग्रेजी हो गये. स्व. लाल साहिब इस अपूर्व सफलता से प्रभावित होकर गोरेलाल जी को स्वयं शाबासी देने आये थे तथा उनके सम्मान में उन्होंने एक भोज का भी आयोजन किया. हमारा शुक्ल परिवार सदैव उनका आभार मानेगा तथा शहर के पुराने लोग भी उनकी विशेषता को बताते रहते हैं. वैभव और शालीनता का अदभुत समन्वय. 

स्व. लाल साहिब राजनीति से दूर ही रहते थे. लेकिन संयोग की बात है कि सन् 1947 में हमारा देश स्वतंत्र हुआ. सन् 1950-51 में संविधान पारित हुआ और सन् 1952 में विधायिका के लिये प्रथम चुनाव ठा. लाल साहिब अकलतरा क्षेत्र के विधायक का चुनाव लड़े किंतु दुर्भाग्यवश वे उस चुनाव में पराजित हुये. इस पराजय को लाल साहिब बर्दाश्त नहीं कर पाये और सन् 52 में उनका 46 वर्ष में निधन हो गया. विनम्र श्रद्धांजलि. से.नि. सिविल 

सर्जन, पी- 38 क्रांति नगर, बिलासपुर.

Monday, May 29, 2023

लाल साहब

इंद्रजीत सिंह मेमोरियल ट्रस्ट, अकलतरा, जिला-जांजगीर चांपा की ‘स्मारिका‘ में प्रकाशित डॉ. मदन लाल शुक्ल का लेख यहां प्रस्तुत है, उनका एक अन्य लेख नवभारत समाचार पत्र में भी प्रकाशित हुआ था। 


लाल साहब को विनम्र श्रद्धांजली 

पाँच दिसम्बर 2006 को अकलतरा में रा. कु. सिंह उ.मा.शाला के सभाभवन में लाल साहब के जन्म शती समारोह का आयोजन हुआ। डॉ. इन्द्रजीत सिंह के कनिष्ठ पुत्र धीरेन्द्र कुमार के प्रयास स्वरुप यह आयोजन अत्यंत सफल रहा। आपस में सबका मेल जोल हुआ। अकलतरा गांव के सभी पुराने प्रबुद्ध वर्ग के लोग तथा डॉ. साहब के परिवार के उनके सभी बंधु बांधव उपस्थित हुये। समारोह की विशेषता यह थी कि छत्तीसगढ़ समाज के समस्त महिलाएँ भी उत्साह पूर्वक वहां पधारी तथा अनेक महिलाओं ने स्व. डॉ. साहब के व्यक्तित्व की प्रशंसा भी की तथा उन्हें उस जमाने के श्रेष्ठ मालगुजारों में गिनाया। मैं सन् 1933 में क्षेत्रीय मेरिट छात्रवृत्ति पाकर हाईस्कूल बिलासपुर चला गया था, सन् 1940 में प्रथम श्रेणी में मेट्रीकुलेशन की परीक्षा पास की। मेरी उम्र 18 वर्ष थी तब तक लाल साहब कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होकर आ गये थे तथा उन्हें पी.एच.डी. की उपाधि भी मिल चुकी थी। समारोह के दिन उनके जीवन की उपलब्धियों को लेकर एक संक्षिप्त विवरणिका भी वितरित की गयी थी, जिसमें उनके जीवन की समस्त सफलताओं का उल्लेख है। वह छोटी पुस्तक स्वयं में सम्पूर्ण है। 


मेरी मान्यता के अनुसार लाल साहब एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे अपने जमाने के प्रसिद्ध फुटबाल तथा टेनिस, व्हालीबाल के खिलाड़ी थे। इसीलिए अच्छे खिलाड़ियों से मिलकर वे बहुत प्रसन्न रहते थे। अक्सर ग्रीष्मकालीन अवकाश में जब हम सब सायंकाल खेल के मैदान में मिलते थे तो वे कहा करते थे कि मदनलाल न केवल प्रथम श्रेणी के विद्यार्थी है परन्तु अच्छे खिलाड़ी भी है, जो प्रायः नही होता। उनकी गुणग्राह्यता के कई उदाहरण है - सन् 1936 में मेरे अग्रज स्व. प्रोफेसर गोरेलाल शुक्ल ने मैट्रिक में पूरे प्रांत भर में हिन्दी विषय में विशिष्ट योग्यता प्राप्त थी। तत्कालीन कामता प्रसाद गुरु व्याकरणाचार्य ने गोरेलाल को पत्र लिखकर उन्हें शुभकामनाएं दी थी। लाल साहब को जब हमारे पिता जी ने यह पत्र दिखाया वे प्रसन्न हो गये और कहा कि गोरेलाल जी का भविष्य उज्जवल है। 1941 में गोरेलाल जी नागपुर विश्वविद्यालय के बी.ए. आनर्स अंग्रेजी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। एक वर्ष के अंदर प्रोफेसर आफ अंग्रेजी नियुक्त हुये। इस समाचार को सुनते ही लाल साहब हमारे घर पधारे तथा हमारे पिता जी से कहा कि गोरेलाल जी ने पूरे गांव को गौरवान्वित किया है। लाल साहब ने हम सबों को भोज भी दिया। लाल साहब जितने वैभवशाली थे उतने ही सहृदय तथा संवेदनशील भी थे। वे करुणा व दया के कायल थे। लाल साहब हमारे पिता जी पंडित रामभरोसे शुक्ल से भी प्रभावित थे। उनका हरिकीर्तन सुनने वे प्रायः पहुँच जाते थे। कहा करते थे कि शुक्ल जी का परिवार अनुकरणीय है। बड़ा लड़का प्रोफेसर है तथा दूसरा शीघ्र डॉ. होने वाला है। हम सब लोगों के लिये दुःख का विषय यह रहा कि मात्र 46 वर्ष की उम्र में सन् 51 में उनका निधन हुआ। वे एक व्यक्ति नही थे वरन स्वयं में संस्था स्वरुप थे। उनके द्वारा संचालित कई जनकल्याण के कार्य अभी भी उस इलाके में चल रहे है। बड़ी श्रद्धा से उन्हें याद किया जाता है। 

लाल साहब शिकार के बहुत शौकीन थे। बड़े शिकार करने में उन्हें बहुत आनंद मिलता था। उनकी बैठक कमरा शेर, चीता, हिरण के खाल तथा सींग से सुसज्जित है। 

पर्यटन प्रेमी इतने थे कि पूरे देश एवं विदेश का भ्रमण उन्होंने कर लिया था। एक बार शिमला में ग्रीष्म ऋतु व्यतीत करने के बाद जब वे आये तो उनने वहां के फूलों के बगीचे की तारीफ की। तत्कालीन वायसराय ने अपने भवन के सामने वह अद्भुत बगीचा बनवाया था देश विदेश के सभी प्रकार के फूलों के पौधे वहां अभी भी देखे जा सकते है। वहीं से लौटने के बाद उनके अपने गांव ‘कटघरी‘ में फलों का बगीचा लगाया जिसमें सब तरह के आम, केला, संतरा पाइनेपल तथा बीज रहित खरवानी के पपीते के वृक्ष भी लगे थे। उनके यहां जो भी अतिथि आते थे- उन्हें वे फलों का बगीचा दिखाने जरुर ले जाया करते थे। वह एक बहुत ही आकर्षक ‘पिकनिक स्पॉट‘ था। 

उनकी दिनचर्या में प्रमुख हिस्सा था शाम को डॉ. ज्वाला प्रसाद मिश्रा के यहां बैठक जिसमें पं. रामभरोसे शुक्ल, श्री गजानंद प्रसाद गौरहा, मेऊ वाले तथा श्री कौशल प्रसाद तिवारी, शिवरीनारायण वाले रहते थे। उस बैठक में कभी कभी श्री पं. राधेश्याम वकील, लिमहा वाले भी आया करते थे। श्री राधेश्याम जी, विशेषर सिंह जी आदि कभी कभी संगीत की गोष्ठी किया करते थे। 

कहा जाता है कि जिसे तलवार नही जीत सकती उसे मधुर वाणी जीत लेती है। लाल साहब इस कथन की पुष्टि के प्रतीक थे। मीठी बोली, सरल, शालीन स्वभाव तथा विनम्रता उनके व्यक्तित्व के विशेष आकर्षण थे। 

ब्राम्हणों के प्रति श्रद्धा, धर्म में आस्था और निष्ठा के प्रेमी लाल साहब सदैव सबके हृदय में विराजित रहेंगे। विशेषकर अपने वृहद परिवार के सदस्यों के बीच। उनके इलाके में जितने भी किसान थे वे सदैव उनका गुणगान करते थे। उनकी निष्पक्षता, निर्भयता तथा न्यायप्रियता के सभी कायल थे। 

ईश्वर से प्रार्थना है कि उनके कनिष्ठ पुत्र धीरेन्द्र कुमार भी अपने पूज्य पिताजी के पद चिन्ह पर चलते हुए अपने पूज्य पिताजी का पितृ ऋण चुकाते रहेंगे। 

डॉ. मदन लाल शुक्ल, 
एम.बी.बी.एस., एम.एस. 
सेवा निवृत्त सिविल सर्जन 
क्रांतिनगर, बिलासपुर

Sunday, May 28, 2023

फायर

दैनिक ‘नवभारत‘, 12-01-99 की कतरन -

समलैंगिकता के बहाने महिलाओं की समस्याओं से मुंह मोड़ा जा रहा 

फायर पर एक सार्थक चर्चा 


बिलासपुर. ‘‘फिल्म ‘फायर‘ जानलेवा एकांत और महिलाओं के मनवोचित अधिकारों का प्रश्न उठाती है. उस से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये. अपने अपने ढंग से जीने की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको है, उसे कोई दूसरा अपने विचार और आस्थाओं के बंधन में बांधने की कोशिश न करें. जो ‘फायर‘ पर समलैंगिकता के प्रचार का आरोप लगाकर मूल प्रश्नों को खारिज करने की कोशिश करते हैं वे शायद अपनी असहायता व हार की खीझ मिटाने का प्रयास कर रहे हैं.‘‘


‘‘फायर के बहाने‘‘ परिचर्चा का प्रस्ताविक करते हुए नंदकुमार कश्यप ने कहा कि ‘‘फिल्म ‘फायर‘ ने सनसनाती परंपरा पर प्रहार किया है. इसी ने स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व और अस्मिता का सवाल खड़ा किया है. हम उसे परंपरावादी रिश्तों में नहीं बांध सकते. जिनमें विचारों को समझाने की, सहने की शक्ति नहीं होती वे जनतांत्रिक मूल्यों को नहीं मानते और मूल्य विकास में बाधक होते हैं. इस फिल्म पर अश्लीलता का आरोप लगाने वालों से उन्होंने सवाल किया कि, ‘‘स्त्री को बाजार की वस्तु बनाने वाले अश्लील विज्ञापनों और अन्य फिल्मों में दिखाये जाने वाले भौंडे देह प्रदर्शन या अश्लीलता के विरोध में तथाकथित संस्कृति के ठेकेदार क्यों नहीं खड़े होते. 

श्री प्रदीप पाटील ने अपने आलेख में ‘फायर के बहाने‘ उत्पन्न हुए अनेक प्रश्नों व समस्याओं का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया. उनका कहना था, ‘‘मनुष्य जीवन की वास्तविक समस्याओं से रूबरू होने के बजाय उस पर मोहक कल्पना के रंग भरे जाते हैं या पारलौकिकता की धुंध पैदा की जाती है. फिल्म ‘फायर‘ इसी विडंबना को सीधे यथार्थ के धरातल पर लाकर खड़े करती है. संस्कार और संस्कृति के नाम पर प्रचलित सोच पर, पुरुष दंभ पर, उसके सत्ता केंद्र पर प्रहार करती है. सांस्कृतिक घपलेबाजी को उधेड़ने वाली सवालों की लपटें कहीं पारंपरिक सामाजिक सत्ता सूत्रों को भस्म न कर दे इसी डर के कारण शायद उसका विरोध हो रहा है.‘‘ प्रो. हेमलता महेश्वर ने अपने आलेख में तथाकथित संस्कृति संरक्षकों की खबर लेते हुए कहा कि, ‘‘जब भी कोई प्रताड़ित स्वतंत्रता की बात करता है, सुविधा भोगी तबका तिलमिला जाता है. स्त्री केवल हाड़मांस का लोथड़ा नहीं है वह एक पूर्ण मानव है जिसके कुछ सपने हैं, इच्छा-आकांक्षायें हैं. अतः विकृति कहने वालों को विकृति उत्पन्न करने वाली स्थिति की समीक्षा करनी चाहिये. स्वस्थ समाज के निर्माण के लिये यह आवश्यक है.‘‘ 

चर्चा में भाग लेते हुए श्री शशांक दुबे, श्रीमती इंदिरा रॉय तथा श्री भरतचंदानी ने कहा कि, ‘‘समलैंगिकता का प्रचलन पश्चिमी देशों में है और फिल्म ‘फायर‘ में समलैंगिकता दर्शाने का उद्देश्य केवल प्रसिद्धि पाना व पैसे कमाना है‘‘ इसका सार्थक चर्चा कड़ा प्रतिवाद श्री रंजन रॉय ने कहा कि ‘‘इस फिल्म की कथावस्तु समलैंगिकता नहीं है बल्कि वह स्त्री की घुटन को उजागर करती है. पुरूष वर्चस्व की बर्बरता से मुक्ति ही वास्तव में स्त्री मुक्ति है‘‘ फिल्म के कलापक्ष, श्लील-अश्लील की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि, ‘‘कला में कुछ अरोपित हो, सार्थक न हो वह अश्लील है‘‘ 

श्रीमती जया जादवनी ने सवाल किया कि ‘‘पुरूष को क्यों आपत्ति है कि स्त्री किसे अपनाये? अहंकार आहत हुआ है. कोई आपको आईना दिखाता है तो अपको क्यों तकलीफ होती है?‘‘ आनंद मिश्रा का कहना थ कि, हमारा समाज विषमताओं का समाज है. समाज के इस यथार्थ से हम आंखे मूंद नहीं सकते. हम जो अन्याय करते हैं उसका अहसास हमें नहीं होता है.‘‘ रफीक अहमद का कहना था कि ‘‘स्त्री को पत्नी के रूप में उसके अधिकार मिलने चाहिये‘‘ डा. उर्मिला शुक्ला ने कहा कि ‘‘यदि फिल्म को समलैंगिकता नहीं जोड़ा जाता तो यह एक अच्छी फिल्म है.‘‘ 

श्रीमती स्नेह मिश्र ने सवाल किया कि ‘‘चड्डी पहन कर मोर्चा निकालना व विरोध दर्ज कराना कौन सी संस्कृति है?‘‘ श्री नंदकिशोर तिवारी का कहना था कि, ‘‘सौंदर्य आस्था से जुड़ी चीज है. इसका ध्यान रखा जाना चाहिए‘‘ श्री राहुल सिंह ने फिल्म ‘फायर‘ की कलात्मकता की चर्चा करते हुए कहा कि ‘‘इस फिल्म पर दुराग्रहपूर्वक विवाद खड़े किये जा रहे हैं. यह समलैंगिकता की नहीं बल्कि हरेक के अपने-अपने अकेलेपन से उपजी प्रतिक्रिया की फिल्म है और जहां कहीं भी प्रतिक्रिया के उद्दीपक तत्व मौजूद होते हैं तभी प्रतिक्रिया व्यक्त होती है. 

परिचर्चा के इस कार्यक्रम में काफी बड़ी संख्या में प्रबुद्धजन मौजूद थे. ‘सम्यक विचार मंच‘ के संयोजक श्री कपूर वासनिक ने ‘फायर के बहाने‘ आयोजित परिचर्चा का उद्देश्य कथन कर स्वागत किया, तथा श्री का. रा. वालदेकर ने कार्यक्रम का संचालन और आभार प्रदर्शन किया.
प्रदीप पाटिल जी ने अखबार की यह कतरन उपलब्ध करा दी है,
उनका आभार।


Saturday, May 27, 2023

मड़वा महल सतीलेख

मड़वा महल, कवर्धा फणिनाग वंश के शासकों के काल में निर्मित स्मारक हैं। भोरमदेव मंदिर, मड़वा महल तथा छेरकी महल, फणिनाग वंश के शासकों के काल के सर्वाधिक प्रसिद्ध स्मारक हैं। भोरमदेव के आसपास से अनेक प्रतिमायें, स्थापत्य खंड तथा सतीलेख भी मिले हैं। मड़वा महल का निर्माण नाग नरेश रामचन्द्र के शासनकाल में विक्रम संवत् 1406 (ईसवी 1349) में करवाया गया है। मड़वा महल से प्राप्त एक अभिलेख में इस वंश के राजाओं के वंशावली के साथ इस मंदिर के निर्माण का उल्लेख भी प्राप्त होता है। मड़वा महल के स्थापत्य अलंकरण में वाममार्गी शैवाचार्यों के तांत्रिक साधना और उपासना परंपरा की झलक दिखाई देती है। इस मंदिर के बाह्य भित्तियों में विविध मैथुन दृश्यों का अंकन हैं। गर्भगृह में शिवलिंग प्रस्थापित है। मड़वा महल के जीर्ण-शीर्ण मंडप को अनुरक्षण कार्य से यथावत स्वरूप प्रदान किया गया है। इस मंदिर के सुरक्षा के लिए दीवार निर्माण करने के लिए फरवरी 2003 में नींव खोदते समय पश्चिम दिशा में एक खंडित शिलालेख प्राप्त हुआ है। 


यह सतीलेख है तथा लगभग 3 फीट लंबा एवं 1 फीट चौड़ा है। भूरे बलुआ रंग के इस प्रस्तर लेख में कुल 7 पंक्तियां हैं। लेख का बांया बाजू टूटा हुआ है, जिससे पंक्तियां अपूर्ण हैं। साथ ही साथ इसका ऊपरी भाग भी खंडित है। इस सती लेख की जानकारी श्री जी.एल. रायकवार, पुरातत्ववेत्ता, रायपुर को प्रथमतः ज्ञात हुई थी तथा उन्होंने इसका प्रारंभिक वाचन किया है। इस लेख में संवत 1407 का अंकन है, तदनुसार यह ईसवी सन् 1349-50 है। अभिलेख में मास तथा पक्ष का उल्लेख नहीं हैं, परन्तु 11वीं तिथि और दिवस सोम (वार) उल्लेखित है। 

इस सती लेख में फणिवंश के राजा सरदा, मही (धर अथवा देव) एवं महाराज सतीम का नामोल्लेख मिलता है। लेख की अंतिम दो पंक्तियों में पितृकुल तथा पति के कुल के उद्धार के लिए राउत घाघम की पुत्री के सहगमन (सती होने) का उल्लेख है। फणिवंश के अज्ञात राजाओं के नाम तथा राउत जाति की नारी की सती होने की जानकारी के कारण यह सतीलेख विशेष महत्वपूर्ण है। तत्कालीन फणिनाग राजाओं की वंशावली तथा सामाजिक जातिगत प्रथा पर यह सतीलेख नवीन प्रकाश केन्द्रित करता है। 

यह लेख देवनागरी लिपि में है तथा भाषा अशुद्ध संस्कृत है। इस लेख का छायाचित्र मुझे श्री जी.एल. रायकवार, पुरातत्ववेत्ता, रायपुर के द्वारा उपलब्ध कराये गए हैं, जिसके आधार पर मेरे द्वारा लेख का वाचन किया गया है। 

मूल पाठ 

1. संवत 1407 वषे (वर्षे) घोरे ... ... ... 
2. 11 सोमे सौ त (-) डग्रे ... ... 
3. फणिवंस (श) राजो सरदा ... ... 
4. ते गार्य (-) राजेन महि (धर) ... 
5. पुत्रः श्री महराज सतीम ... 
6. ग ग एनं राउत घाघम पुत्र (त्री) 
7. दुई कुल उधरे (उद्धारे) सहगमन 

(इस शिलालेख का पाठ ‘उत्कीर्ण लेख‘, परिवर्धित संस्करण-2005 तथा इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ से प्रकाशित ‘कला-वैभव‘, अंक-12, 2002-03 में प्रकाशित है।)

Friday, May 26, 2023

भोरमदेव – 2006

छत्तीसगढ़ के मूर्धन्य पुराविद डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर, सन 2006 में भोरमदेव पर पुस्तिका की तैयारी कर रहे थे, इसके पूर्ण होने या प्रकाशन की जानकारी मुझे नहीं है, मगर इस क्रम में उनके द्वारा तैयार नोट का यह हिस्सा मेरे पास सुरक्षित रहा, यथावत प्रस्तुत- 


भोरमदेव महोत्सव 2006 के अवसर पर प्रकाशित विवरणिका में फणिनागवंश की उत्पत्ति पर आधारित ऐतिहासिक आख्यायिका का सांकेतिक उल्लेख प्रथम बार लिखित रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। समकालीन राजनीतिक इतिहास में फणिनाग वंष के स्थान एवं महत्व को रेखांकित करने वाले कुछ-एक सन्दर्भों का भी निर्देष विवरणिका में लेखक द्वारा प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। फणिनाग वंश के विभिन्न नरेशों के राजत्वकाल में राजधानी चउरापुर में किये गये निर्माण कार्यों का भी मात्र एक शिलालेख के आधार पर संक्षिप्त में उल्लेख है। पाठकों में सब कुछ सही-सही जानने की तीव्र उत्कण्ठा जगा रही है यह विवरणिका। सम्भवतः लेखक का यही उद्देश्य हो। राजनीतिक इतिहास के ही समान फणिनागवंशीय शासन काल के मध्य ‘‘स्थापत्य एवं शिल्प कला’’ का भी सर्वांगपूर्ण प्रकाशन अपेक्षित है। राज्य तथा देश के इतिहासकार एवं कला अध्येता इन अपेक्षाओं को पूर्ण करने के लिए सामने आयेंगे इस आशा के साथ-प्रस्तुत है यह विवरणिका ... 

भोरमदेव 

छत्तीसगढ़ के कबीरधाम (कवर्धा) जिले के मुख्यालय से उत्तर-पश्चिम दिशा में 17.6 कि.मी. की दूरी पर राजस्व ग्राम चौरा स्थित है। यह सम्पूर्ण ग्राम पुरातत्वीय महत्व के टीलों, तीन प्राचीन मन्दिरों, सतखण्डा महल नामक स्मारक के समाप्तप्राय भग्नावषेशों तथा प्राचीन दुर्ग के नष्टप्राय प्राचीन स्थापत्य अवशेष को अपने क्रोड़ में समेट गौरवशाली प्राचीन इतिहास का मूकसाक्षी बना आज भी अपनी भौतिक सत्ता बनाये हुए है। यहाँ के ऐतिहासिक वास्तुरूपों में निम्न मन्दिर विशेष उल्लेखनीय महत्व के हैं – 

(अ) मड़वा महल मन्दिर- इसका निर्माण फणिनागवंशी महाराज रामचन्द्र के शासन काल में चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था। यह मन्दिर मड़वा महल अभिलेख के अनुसार राम के उपास्य पशुपति रामेश्वर शिव को समर्पित था। 

(आ) छेरकी महल मन्दिर - फणिनागवंशी नरेश महाराज रामचन्द्र के द्वारा एक विष्णु मन्दिर के निर्माण किये जाने का उल्लेख मड़वामहल अभिलेख में हुआ है। छेरकी महल मन्दिर के प्रवेश द्वार के सिरदल पर तीन छद्म देवपीठ मूर्तांकित है। इनके मध्य में बायीं से दायीं दिशा की ओर क्रमशः अर्धपर्यंकासन में बैठे गणेश, मध्य में पद्मासन मुद्रा में बैठी दोनों हाथों पद्मपुष्प धारण की हुई श्री लक्ष्मी तथा दक्षिण में अर्धपर्यंकासन में वीणावादन करती सरस्वती का मूर्तांकान है। प्रवेश द्वार के मध्यवर्ती ललाट बिम्ब पर लक्ष्मी के मूर्ताकंन से इस मन्दिर को मूलतः विष्णु को समर्पित मन्दिर स्वीकार करना साक्ष्यसिद्ध कहा जा सकता है। 

(इ) भोरमदेव मन्दिर - चौरा में उपलब्ध ऐतिहासिक महत्व के मन्दिरों में स्थापत्य एवं शिल्प निदेशित शैलीगत वैशिष्ट्य की दृष्टि से भोरमदेव मन्दिर को चौरा के मुकुट का मूल्यवान मणि सम्बोधित किया जा सकता है। 

इस मन्दिर के महामण्डप के अन्तराल से संलग्न अर्धमण्डप के दाहिने ओर गर्भगृह की बाहरी भित्ति से सटाकर एक सम्मुखाभिमुख मूर्ति रखी हुई है। इस मूर्ति में राजपुरुष और राजमहिषी का करबद्ध मुद्रा में मूर्तांकन है। इस मूर्ति के पादपीठ पर ‘‘संवत् 840, राणक श्री गोपाल देव राज्ये’’ उत्कीर्ण है। संवत् 840 को समकालीन कोसल में प्रचलित कलचुरि संवत् की तिथि माना गया है। अर्थात् इस मन्दिर का निर्माण फणिनागवंशी महाराज श्री गोपाल देव, जो रत्नपुर के कलचुरि नरेश के अधीनस्थ सामन्त थे, द्वारा कलचुरि संवत् 840 अर्थात् ई.स. 840$248=1088-89 में किया गया। सामान्यतः इस मन्दिर को छत्तीसगढ़ का खजुराहो कहा जाता है। इस प्रकार की तुलना का प्रमुखतम कारण मन्दिर के बाह्य अंगो में बैठायी गई अथवा उकेरी गयी मूर्तियों में मैथुन मूर्तियों की उपस्थिति है। उल्लेखनीय है कि जो भी मन्दिर तांत्रिक उपासना से सम्बद्ध थे उनकी बाह्य भित्ति पर मैथुन मूर्तियाँ पाई जाती हैं। मात्र मैथुन मूर्तियों के कारण इसे खजुराहो कहना इसकी शिल्पगत वैशिष्ट्य पर पर्दा डालने जैसा है। इस मन्दिर के स्थापत्य शैली पर कोसलीय शैली के अतिरिक्त किसी बाहरी शैली का प्रभाव है तो वह है परमार मन्दिर स्थापत्य शैली। 

भोरमदेव मन्दिर से लगभग 3 मी. दूरी पर ईंटों का एक भग्न मन्दिर विद्यमान है। इस मन्दिर में विमान तथा छोट सा मुख मण्डप दो अंग है। विमान का अधिष्ठान ताराकृति वाला है। यह मन्दिर 8-9 वीं शताब्दी ई. सन की निर्मिति है। भोरमदेव मन्दिर परिसर के बाहर उत्तर दिशा में लगभग 10 मी. की दूरी पर एक विशाल तालाब विद्यमान है। मड़वामहल अभिलेख में इसे ‘‘महास्तडागः’’ कहा गया है। चौरा गाँव के पुरा स्थल के दक्षिण दिशा में संकरी नामक नदी है। मड़वा महल अभिलेख में इसे ‘‘हरिशंकरी’’ कहा गया है। इस हरिशंकरी के दक्षिण तट में स्वयम्भू हटकेश्वर शिव प्रकट हुए है। हटकेश्वर शिव फणिनागवंश के आराध्य कुल देवता थे। 

चौरा का भोरमदेव मन्दिर छत्तीसगढ़ अंचल में अपने ढंग की वास्तु योजना का एकाकी उदाहरण है। इस मन्दिर की वास्तु योजना का अनुकरण करते हुए 13 वीं 14 वीं शताब्दी में देव बलौदा के शिव मन्दिर का निर्माण फणिनागवंशी शासकों द्वारा कराया गया है। कालगत अन्तर का स्पष्ट प्रभाव वास्तु अंगों के प्रस्तुतीकरण में दिखाई पड़ता है। तांत्रिक शैवोपासना का केन्द्र होते हुए भी भोरमदेव मन्दिर की देव प्रतिमाओं में सर्व समन्वयात्मक धार्मिक प्रवृत्ति की जीवन्तता देखने में आती है। यहाँ के शिल्पों का गहन अध्ययन तत्कालीन सांस्कृतिक दशा के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण सिद्ध होता है। 

द्वादश महोत्सव

भोरमदेव महोत्सव का यह बारहवाँ वर्ष था। दिनांक 27 मार्च 2006 से दिनांक 28 मार्च 2006 को इस वर्ष दो दिवसीय महोत्सव आयोजित किया गया। छत्तीसगढ़ के महामहिम राज्यपाल माननीय के.एम. सेठ के कर कमलों द्वारा महोत्सव का विधिवत उदाघाटन किय गया। अपने उद्बोधन में महामहिम राज्यपाल ने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा पुरातत्वीय महत्व के धरोहरों का संरक्षण और उससे सम्बद्ध परम्परागत विष्वासों तथा जन आस्था के पक्षों को अनुरक्षित करते हुए उसके लोकसम्मत संवर्धन की दिशा में राज्य शासन के प्रयासों का उल्लेख करते हुए कहा कि किसी स्थान से जुड़ी परम्परागत आस्था-विश्वास को संरक्षित रखते हुए उसके सम्वर्धन की दिशा को गति प्रदान करने के लिए अध्येताओं, जिज्ञासुओं, शोधार्थियों, सुरूचि सम्पन्न पर्यटकों को इसकी ओर आकर्षित करना आवश्यक होता है। इस प्रक्रिया से स्थान विशेष के इतिहास एवं संस्कृति के बहुआयामी स्वरूप का उद्घाटन कर पाना सम्भव हो जाता है। 

उद्घाटन के पश्चात् देर रात तक सांस्कृतिक कार्यक्रम होता रहा। 

दूसरे दिन 28 मार्च को समापन समारोह के मुख्य अतिथि छत्तीसगढ़ शासन के मुख्यमंत्री माननीय रमन सिंह के मुख्य आतिथ्य में आरम्भ हुआ। माननीय मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह ने लोगों को बताया की भोरमदेव को पर्यटन केन्द्र के रूप में विकासित करने हेतु एक योजना राज्य शासन ने केन्द्र शासन को भेजा है। इस प्रस्तावित योजना पर 12 करोड़ रू. की लागत व्यय अनुमानित है। आगामी दो वर्षों में इसका परिणाम यहाँ दिखाई पड़ने लगेगा। इस अवसर पर माननीय महेन्द्र कर्मा एवं माननीय प्रेमप्रकाश पाण्डेय ने भी अपने विचार रखे। अन्त में संस्कृति, पुरातत्व एवं पर्यटन मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल ने आगामी वर्ष से महोत्सव को अधिक व्यापक बनाये जाने की बात कही। उपरान्त अतिथियों एवं उपस्थित लोगों ने अनुराधा पोडवाल के भजनों तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनन्द उठाया। 

लेखकीय 

भोरमदेव नाम स्मरण के साथ ही कबीरधाम जिला मुख्यालय कवर्धा से उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर लगभग 17.6 कि.मी. की दूरी पर हरिशंकरी (संकरी) नदी के उभय तटों पर फैले जनशून्य ग्राम चौरा की विस्तार सीमा अन्तर्गत पद्मसरोवर नामक महातडाग के दक्षिण में 30 मी. की दूरी पर स्थित ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरभारतीय नागर प्राकर की मन्दिर स्थापत्य शैली में प्रस्तर निर्मित जिस मन्दिर विशेष की ओर ध्यान केन्द्रित होता है, उसके निर्माण का श्रेय प्राचीन चउरापुर वर्तमान चौराग्राम को राजधानी बनाकर अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक पहिचान स्थापित करने वाले फणिनागवंशीय नरेशों के उत्तराधिकार क्रम में छठे क्रम पर राज्य करने वाले राजा श्री गोपालदेव को रहा है। वास्तु रूप की सर्वांगपूर्णता, विशालता, भव्यता, अलंकरणात्मक अभिकल्पों की अभिव्यंजना में गतिमयता, अभिरामता, चारूता, लयात्मकता तथा प्रतीकात्मक भावबोध, षिल्पों में निदेशित विषयगत विविधता, विराटता, समग्रता, भावाभिव्यंजना की प्रौढ़ता, सहजता, क्रमबद्धता के साथ-साथ अपरिमित सम्प्रेषणशीलता को अपने अंग-अंग में भास्वर करते इस मन्दिर का छत्तीसगढ़ के ‘प्राचीन मन्दिर स्थापत्य एवं शिल्प’ के इतिहास में अपना विषिष्ट स्थान एवं महत्व है। 

प्राचीन चउरापुर वर्तमान चौरा का राजनीतिक इतिहास के साथ-साथ समसामयिक सांस्कृतिक इतिहास के समस्त पक्षों पर महत्वपूर्ण साक्ष्यों को संरक्षित रखने वाले स्थान के रूप में अनुपेक्षणीय महत्व है। प्रस्तुत लघु विवरणिका के आरम्भ में चउरापुर को केन्द्र स्थानीय मानते हुए यहाँ के मन्दिरों, ऐतिहासिक स्मारकों के उल्लेख के साथ-साथ सम्पूर्ण परिवेश का दृश्यांकन प्रस्तुत किया गया है। यहाँ के मड़वामहल मन्दिर से प्राप्त शिलालेख में दिये गये विवरण के आधार पर फणिनागवंश के इतिहास पर प्रसंगानुरूप प्रकाश डाला गया है। विवरणिका में महोत्सव पर्व के उदघाटन तथा समापन सत्रों पर आधारित विवरण ही वर्तमान कृति के आलेखन का मुख्य प्रयोजनीय पक्ष रहा है। आशा है विवरणिका का वर्तमान प्रकाशन भावी अपेक्षाओं का पथ प्रदर्शक सिद्ध होगा। माननीय संस्कृति, पुरातत्व एवं पर्यटन मन्त्री श्री बृजमोहन अग्रवाल जी मेरे अभिन्न हैं। उनके द्वारा व्यक्त विचार एवं भावना इस लघु विवरणिका के सृजन के कारक आधार रहे हैं। अगर शरीर साथ देता रहा तो भविष्य में फणिनाग वंश और उनका काल शीर्षक से राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास पर स्वतन्त्र पुस्तक छत्तीसगढ़ को अर्पित करने की अभिलाषा है।

इस लघु विवरणिका को उसके प्रस्तुत स्वरूप देने में वैचारिक स्तर पर मुझे राज्य पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग के अधिकारी वर्ग का पूर्ण सहयोग रहा है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर उनसे प्राप्त सहयोग की भरपाई नहीं की जा सकती। मैं उन सबका ऋणी रहूंगा। कम्प्यूटर टाइपिंग से लेकर इसके प्रस्तुत रूप सज्जा को समूर्त रूप देने में सर्वश्री पी.सी. पारख, श्री तापस बसक, श्री संजय सिंह, श्री रविराज शुक्ल का उल्लेखनीय सहयोग रहा है। मैं इन्हें अपना हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता हॅू। सुधि जनों को समर्पित है मेरा यह प्रयास ... 

भवदीय 
विष्णु सिंह ठाकुर