Pages

Tuesday, November 1, 2022

छत्तीसगढ़ के बाइस बछर

छत्तीसगढ़ के राज्य बनना, प्रशासनिक अउ राजनैतिक घटना आय, मगर संस्कृति के हिसाब से छत्तीसगढ़ के अपन पहिचान बहुत पुराना आय। हमर आज के छत्तीसगढ़ के कई रूप, कई आकार अउ नक्शा रहे हे। घटत-बढ़त बदलत रहे हे। दक्षिण कोसल, चेदि देश के साथ जुड़े रहे हे ते इलाका आज के बस्तर आय, याने दक्षिणी छत्तीसगढ़। ए इलाका दंडकारण्य आय, महाकान्तार कहे गए हे। राम भगवान के बनवास होए या राजा नल के किस्सा, ए इलाका के नाम आत रहे हे।

इतिहास म समुद्रगुप्त दक्षिणापथ अभियान म निकलथे, त सब ले पहिली राज्य कोसल के राजा महेन्द्र ल जीतथे, फेर महाकान्तार के व्याघ्रराज ल। फेर आगू तेलंगाना, आंध्र होत धुर दक्षिण निकल जाथे। महाभारत म भी ऋषभतीर्थ के नाम आथे, जे आज के गुंजी-दमउदहरा आय। उत्तरी सरगुजा अंचल, एक तरफ बघेलखंड से जुड़े रहे हे साथ ही मिर्जापुर इलाका से। जशपुर, रामनुजगंज अउ उदयपुर याने धरमजयगढ़ झारखंड-छोटा नागपुर से जुड़े रहे हे। इतिहास अउ भूगोल के साथ छत्तीसगढ़ के इतिहास अउ संस्कृति के संदर्भ म भी एकर ध्यान रखना जरूरी होथे।

छत्तीसगढ़ नाम, बीच के मैदानी हिस्सा, धान के कटोरा अउ कलचुरि-मराठा काल के पहिचान आय, जे ल छत्तीसगढ़ ‘गढ़‘ माने छत्तीसगढ़ किला मान लिए जाथे, जबकि बहुत साफ चर्चा मिलथे कि शिवनाथ नदी के उत्तर म अठारह अउ दक्षिण म अठारह, जे ल मोटा-माटी कहे जा सकथे, बिलासपुर राज अउ रायपुर राज। पुराना छत्तीसगढ़ म देशी रियासत के अलावा अइ दू जिला रहे हे।

राज्य से बाहिर के लोग मन बर, छत्तीसगढ़ माने बस्तर या भिलाई रहे हे। धान के कटोरा, मैदानी छत्तीसगढ़ के प्रमुखता हमेशा से रहे हे, मगर ए कारण से सरगुजा के पहिचान, लग रहे हे। छत्तीसगढ़ के बात करत हुए अक्सर सब कुछ मैदानी छत्तीसगढ़ म सिमट जाथे, बस्तर-सरगुजा पिछड़ जाथे, अउ विकास प्राधिकरण बनाए के जरूरत समझ म आथे।

छत्तीसगढ़ राज्य बनिस त यहां संस्कृति, पुरातत्व, अभिलेखागार, राजभाषा के साथ पर्यटन ल भी जोड़ के संचालनालय बनाए गइस। मध्यप्रदेश म संस्कृति के लगभग सब काम, परिषद, अकादमी अउ पीठ के माध्यम से होत रहिस। ओ कर से भी पहिली के स्थिति सुरता कर लेना चाहिए कि रायपुर म देश के सब ले पुराना संग्रहालय मन म से एक है। सीपी बरार-मध्यप्रदेश म पुरातत्व के काम पहिली, सामान्य प्रशासन, फेर शिक्षा अउ कुछ समय बर लोक निर्माण विभाग म रहे हे। संग्रहालय के मुख्य काम रायपुर से होत रहिस अउ सिरपुर खुदाई के दौरान यहां विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी के भी कार्यालय रहिस।


राज्य के बंटवारा म तय होइस कि जे परिषद, अकादमी, पीठ के जिहां मुख्यालय हे, ते ओ राज्य के बांहटा म, उहें रइही। त छत्तीसगढ़ के बांहटा म सिर्फ बख्शी सृजन पीठ आइस। अउ संस्कृति के कुछ अधिकारी कर्मचारी, जे मन बाद म वापस मध्यप्रदेश चले गइन। फेर बात आइस नीति के, त देश भर के कला-संस्कृति के विशेषज्ञ आमंत्रित होइन अउ उन सबके राय के निचोड़ आइस, ते आधार म तय होइस, कहे गइस- ‘राज्य की कोई विशेष या औपचारिक नीति के स्थान पर परंपराओं एवं मान्यताओं का समावेश एवं उनका पोषण संवर्धन करना है।‘ ए ल नीति के बजाय संकल्प भी कहे गइस।

संस्कृति बर ए क्षेत्र के लोग मन ही असली अगुवा होथे, सरकार ल ओ मन के अनुसार चलना होथे। छत्तीसगढ़ म धीरे-धीरे संस्कृति के मुख्य काम मंचीय आयोजन हो गे। बेहिसाब कार्यक्रम, कलाकार मन के मानदेय म देरी अउ कटौती। भाषा म जादा ध्यान छत्तीसगढ़ी अउ, ओ कर संविधान के आठवीं अनुसूची म शामिल कराना रहिस। हलबी, गोंड़ी, भतरी, कुडुख, सरगुजिहा, सादरी, पंडो बर कम ध्यान दिए गइस। राजभाषा, बोलचाल की भाषा, सरकारी कामकाज की भाषा, पढ़ाई की भाषा, मानक भाषा बर विद्वान मन सोचत-लिखत-पढ़त हावयं। हकीकत आय कि छत्तीसगढ़ी मंच-माइक अउ भाषण म बाढ़त जात हे, फेर आपसी बोलचाल, खोर-गली, घर-घर म नंदावत जात हे। 

संस्कृति के संरक्षण अउ प्रोत्साहन बर राज्य म पं. सुंदरलाल शर्मा, चक्रधर, दाउ मंदराजी, के साथ कला-संस्कृति के क्षेत्र म सम्मान-पुरस्कार बर विभूति मन के नाम जुड़त जात हे, देवदास बंजारे, किशोर साहू, लक्ष्मण मस्तुरिया, हबीब तनवीर, खुमान साव। जे ल सम्मान मिलथे, ते निर्णायक मंडल म आ जाथे, मगर अइसे भी होथे कि जे निर्णायक मंडल म हे, तेही बाद म पुरस्कार पा जाथे, सम्मान-पुरस्कार संग विवादित होना तो स्वाभाविक आय, मगर ए कर स्थापना म क्षेत्र के बजाय विभूति मन के नाम आधार होथे, तओ एक क्षेत्र के व्यक्ति कई क्षेत्र म पुरस्कार बर पात्र हो जाथे, एके व्यक्ति ल दू बार सम्मान मिल जाथे, तओ लगथे कि हमर राज्य म प्रतिभा के कमी हे का? अउ कहूं नइ रहिन, नइ मिलिन? किशोर साहू के नाम म दू ठन सम्मान हे, जे म के एक दस लाख रुपिया वाला आय, जबकि राज्य सम्मान मन 2-2 लाख रुपिया के आयं, अउ पं लखनलाल शर्मा के नाम से दिए जाने वाला पुरस्कार के पात्रता पुलिस विभाग तक सीमित हे, नागरिक सम्मान नो हय, अउ राशि भी मात्र पचीस हजार रुपिया हे।

छत्तीसगढ़ म पारंपरिक तिहार, खान-पान, पारंपरिक खेलकूद उपर ध्यान दिए जात हे, तीजा-पोरा, हरेली, नवाखाई हमर पहिचान आय। हमर राज्य म माटी तिहार, पंडुम हे त सरना, गंगा दशहरा भी हे। कहूं के दशहरा देवी पूजा आय त कहूं गढ़ जीतना, अउ कहूं रावण के मूर्ति अउ पूजा भी होथे। हमन ल अपन राज्य के ए बारामिंझरा, रिगी-चिंगी विविधता के आनंद लेत रहना हे, अइ हमर असली पहिचान आय, थाती ए, धरोहर आय।

संस्कृति बर परिषद के गठन किए गए हे, जे कर माध्यम से गतिविधि चलत हे। योजना आयोग के अंतर्गत भी कई समिति, उपसमिति, वर्किंग ग्रुप बने हे। बइठक भी होत हे। ध्यान रहना चाहिए कि संस्कृति-पुरातत्व के क्षेत्र म नया सोचे, करे से जादा जरूरी होथे, चले आत हे, ते व्यवस्था हर नियमित हे, ओ म कोई बड़चन तो नइ आत हे, याने ए म रख-रखाव के जरूरत अधिक होथे। कुछ समय पहिली संस्कृति बर अलग संचालनायल के मंजूरी होए हे। ए कर जरूरत बहुत समय से रहिस। का बर कि पुरातत्व के काम पिछड़ जात रहिस, सब अधिकारी-कर्मचार संस्कृति के काम म लगे रहंय। ते कारण पुरातत्व के काम मानदेय, मानद, प्रतिनियुक्ति से चलत रहे हे। अब संस्कृति बर नया रायपुर म जगह भी ठउका लिए गए हे, त जरूरी हे कि जल्दी से जल्दी संस्कृति बर अलग अधिकारी के नियुक्ति हो जाय, नइ त साना-घटा चलत रइही, सरकार जे सोच के ए निर्णय लेहे हे ते कार्यरूप म नइ आही।

कहूं मौका म श्रीकांत वर्मा जी, श्रीमती इंदिरा गांधी से पूछिन- ‘क्या आप मानती हैं कि समाज को लेखक या कि बुद्धिजीवीनेतृत्व प्रदान करता है, राजनेता नहीं? त ओ जवाब दिहिन- ‘जिस नेतृत्व की चर्चा मैं कर रही हूं वह समाज को राजनेता नहीं दे सकता। राजनेता की दिलचस्पी बहुत तात्कालिक और व्यावहारिक प्रकृति के सवालों में होती है, जबकि लेखक-बुद्धिजीवी ज्यादा गहरे प्रश्नों से साक्षात्कार करता है। उसकी चिंता का क्षेत्र मनुष्य और उसका समाज तथा उसकी नियति होती है। सांस्कृतिक समाज अउ राजनीति या सरकार के आपसी संबंध, कोन कहां, का बर, कतका जरूरी आय, साफ ढंग से कहे गए हे, ए ध्यान रखे वाला बात आय। अउ ए आधार म जरूरी होथे कि दुनों पक्ष एक-दूसर के महत्व ल समझय-मानय अउ सम्मान दय।

कला, संगीत, साहित्य, पुरातत्व के क्षेत्र म सुनइया, देखइया के पसंद, लोकप्रियता के महत्व हे, लेकिन ओ कर मुख्य होना ठीक नो हय, का बर संस्कृति तो जीवन के अंग आय, ओ हर प्रदर्शन तक, अउ ओकरे बर सीमित हो जाही, ते ल ठीक नइ माने जा सकय। संस्कृति म प्रगति, विकास अउ निर्माण अलग तरह से होथे, ओ हर दरअसल परिवर्तन होथे, हमर जीवन के परिस्थिति के अनुसार, धीरे-धीरे, कि पता नइ लगय, सहजता से बदल जाथे। समय के साथ बहुत अकन बात अउ चीज के छूटना जरूरी हो जाथे अउ समय के साथ नया के जुड़ना भी ओतके जरूरी हो जाथे। संस्कृति बर लोग अगुवा रहंय अउ जहां तक हो सकय सरकार ए काम बर ओ कर अनुसार ही चलय, त सबके कल्याण होही।

द सूत्र‘ वाले याज्ञवल्क्य जी की जिद का मैं सम्मान करता हूं, इसके बदले वे मेरी मनाहियों को बरदाश्त करते रहते हैं। पिछले हफ्ते कुछ दिन का समय देते हुए उन्होंने ऐसा कुछ लिखने को कहा। मैंने कहा कि इतना समय हो तो यह संभव न हो सकेगा। यदि फोन रखते ही इसी काम में जुट जाउं तभी संभव हो सकेगा। फिर पुरौनी आया कि छत्तीसगढ़ी में होना चाहिए, शब्द-सीमा भी। वे मेरी मनाही का मान रखते हैं, इसलिए जवाबी, उनकी जिद पूरी करना कठिन हुआ, पर जैसे-तैसे पूरी कर सका, लगभग वही उनकी सहमति से यहां प्रस्तुत।

No comments:

Post a Comment