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Wednesday, October 19, 2022

धर्मधरा रायपुर

छत्तीसगढ़ के उत्तर में चांगदेवी, कुदरगढ़िन, महामाया, खुड़ियारानी हैं, पश्चिम में बमलेश्वरी, पूर्व में चंद्रहासिनी और दक्षिण में दंतेश्वरी। शैव पूजा-उपासना केंद्र अनेक हैं तथा मध्य छत्तीसगढ़ में राजिम का राजीवलोचन मंदिर, बिलासपुर अंचल का शिवरीनारायण मठ और रायपुर का दूधाधारी मठ, वैष्णव परंपरा के महत्वपूर्ण केंद्र हैं।

इस परिप्रेक्ष्य में महंत श्रीवैष्णवदासजी, महंत श्रीलक्ष्मीनारायणदासजी तथा महंत श्रीरामचरणदासजी, रायपुर के साक्षात्कार की यह जानकारी बहुत पहले यथास्मृति डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर जी के माध्यम से आई थी। इसमें मेरे द्वारा वर्तनी आदि का आंशिक संशोधन मात्र किया गया है, इससे अधिक इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है, न ही मेरे द्वारा इसके तथ्यों का परीक्षण किया गया है। मेरी जानकारी में यह कहीं प्रकाशित नहीं है तथा महत्व की है, अतएव यहां प्रस्तुत-

साक्षात्कार - महंत श्रीवैष्णवदासजी, 14.10.1984,श्रीदूधाधारी मठ, रायपुर

# श्रीदूधाधारी मठ - (रामानंदी सम्प्रदाय)

रायपुर के वर्तमान मंदिरों में श्रीदूधाधारीमठ निश्चित रूप से प्राचीनतम है। ‘दूधाधारी मठ’ की स्थापना विक्रम संवत् 1610 ई. में हुई। मध्यप्रदेश में रामानंदी सम्प्रदाय के पांच मठ हैं। इनमें से एक श्रीदूधाधारी मठ है। इसकी स्थापना श्रीगरीबदासजी के शिष्य श्रीबलभद्रदासजी (श्रीदूधाधारी) द्वारा की गई। इसके वर्तमान महंत राजेश्रीवैष्णवदासजी हैं।

‘सी.पी.बगट’ के अनुसार छत्तीसगढ़ के इस अंचल को धार्मिकता से ओतप्रोत करने का विचार राजस्थान के जोधपुर के पास ‘झीथड़ा’ नाम स्थान पर हुआ। ‘संतकुवरजी महाराज’ ने अपने शिष्य श्रीगरीबदासजी और उनके शिष्य श्रीबलभद्रदासजी जो बाद में श्रीदूधाधारीजी के नाम से सुविख्यात हुए, को आज्ञा दी कि जहां लोग हरिपद विमुख है तथा बाहर से आने वाले धर्म प्रचारक उनमें ही समाहित हो जाते हैं। वहां के लोगों को ज्ञान-भक्ति का उपदेश देकर, उनके विवेक को जागृत करो और उन्हें सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति आस्थावान बनाओ। गुरु आज्ञा को शिरोधार्य करके संत श्रीगरीबदास एवं उनके शिष्य श्रीदूधाधारी महाराज ने पुष्कर, मथुरा, अयोध्या, वाराणसी, प्रयाग, वैनगंगा नदी के किनारे भंडारा जिले के पौनी नामक स्थान को अपना वास्तव्य बनाया और गुरु-शिष्य दोनों ने मिलकर जनता की विभिन्न प्रकार से सेवा करते हुए वहां के वातावरण को भगवतमय कर दिया। गुरु और शिष्य दोनों को हनुमान जी का इष्ट था उनके आशीष से उन्होंने पौनी में रहते हुए कुछ ऐसे कार्य किए जिनसे न केवल सामान्य जनता अपितु राजे-महाराजे और उच्च अधिकारी उनके शिष्य बन गये।

एक दिन उन्होंने ‘श्रीदूधाधारी बलभद्रदासजी’ को आदेशित किया कि तुम सब तरह से योग्य हो और हमारी गुरू की इच्छा को पूरी करो। ‘श्रीदूधाधारीजी’ उनके इस वाणी को सुनकर तत्काल छत्तीसगढ़ के लिए रवाना हुए। गोंदिया, डोंगरगढ़ होते हुए बलौदा बाजार तहसील में स्थित ‘तुरतुरिया’ नाम वनस्थली में पहुंचे और वाल्मीकि आश्रम को अपना निवास स्थान बताया। कंकपुर नरेश जो कुष्ठ से पीड़ित थे और जीवन से निराश होकर मरण के अभिलाषी थे, स्वामीजी से मिले उनके द्वारा बताई गई विधि से कुष्ठ मुक्त हुए। उन्होंने इस सिद्ध संत की चर्चा रायपुर के तत्कालीन नरेश सोमदत्त सिंहदेव से किया जो संतानहीन थे। सपत्निक अपने हितेषियों के साथ तुरतुरिया पहुंच स्वामी जी की पूजा अर्चना कर अपने कष्ट का निवेदन किया। श्रीदूधाधारी जी के आशीष से राजा पुत्रवान हुए उन्होंने स्वामीजी से रायपुर में रहने का अनुरोध किया। पहले अस्वीकार कर बाद में राजा का अनुरोध स्वीकार कर रायपुर पधारे।

आज जिस स्थान पर किले का अवशेष दिखाई देता है और जहां दूधाधारी मठ हैं उसके चारों ओर घनघोर जंगल था। जिस समय श्रीदूधाधारीजी इस स्थान पर आये यह बात सन् 1650 के बाद की है। पूर्व में अपने काका श्रीरामानुजदासजी के विश्राम स्थली को अपना कार्यस्थ बनाया। संवत् 1973 कार्तिक सुदी एकादशी को 153 वर्ष की आयु में परम पद को प्राप्त हुए। इनकी परंपराओं का अनुसरण करते हुए इनके पश्चात् श्रीसीतारामदासजी, श्रीसरयूदासजी, श्रीरामचरणदासजी, श्रीलक्ष्मणदासजी, श्रीबजरंगदासजी एवं श्रीवैष्णवदासजी, इस मठ के मठाधीश हुए हैं।

मंदिर के विकास में श्रीरामचरणदासजी ने भी कार्य किया। श्री रामजी के मंदिर का निर्माण इनके द्वारा ही कराया गया। यह मंदिर पुरी के ‘जगन्नाथ मंदिर’ की शैली में निर्मित कराया गया। यह ऊंचा शिखरदार है, इसकी भीतरी बनावट और परिक्रमा में बने 24 अवतारों का मंगल विग्रह निश्चय ही दर्शनीय है। यह दक्षिणात्य प्रथानुसार निर्मित है। मंदिर को वर्तमान बाह्य स्वरूप में पहुंचाने का श्रेय महाराज श्रीबजरंगदासजी को है। श्रीदूधाधारीजी द्वारा बालाजी और लक्ष्मणजी के मंदिर का निर्माण कराया गया। इस मंदिर के सामने संकटमोचन पवनसुत हनुमानजी के पावन स्वरूप की स्थापना हुई। हनुमानजी यहीं से प्रगट हुए हैं उन्होंने बाल रूप रवि को भक्षण किया था। दूधाधारी मंदिर के अंदर गर्भगृह में रामायण कथा का चित्र, गजमोक्ष, धेनुका-वध, वकासुरवध का अति सुन्दर चित्रण है। रामचंद्रजी के मंदिर में सफेद रंग का ध्वज तथा हनुमानजी के मंदिर में लाल रंग का ध्वज लगा हुआ है। प्रमुख मंदिर के चारों तरफ बुर्ज है। मंदिर के अधीन भगवान के नाम पर 20 गांव की जमीन है। मंदिर में 75 विद्यार्थी रहते हैं। दूधाधारी बाबा की समाधि के पास 2 बड़े नीम के वृक्ष हैं किंवदन्ती है कि ये वृक्ष दूधाधारी बाबा दातौन फेंकने पर हुए थे।

इस मठ के द्वारा केवल धर्म का प्रचार नहीं हुआ अपितु उसने संपूर्ण मध्य भारत को धर्ममय बना दिया। रायपुर नगर के वातावरण में आज भी ‘धारयते स धर्मः’ की अनुगूंज गोपाल मंदिर प्रभृति मंदिरों की निर्मिति के साथ सुनने को मिल रही है।

साक्षात्कार - महंत श्री लक्ष्मीनारायणदासजी, 13.10.1984,श्रीजैतूसाव मठ, रायपुर

# श्रीजैतूसाव मठ

जैतूसाव नाम एक श्रेष्ठि द्वारा इस मठ का निर्माण सन् 1877 में उमाबाई द्वारा कराया गया। यह मठ श्री सम्प्रदाय परम्परा से सम्बद्ध है। मंदिर का निर्माण जलकी के पत्थर से हुआ है। 

मुख्य मंदिर के गर्भगृह में राम, जानकी व लक्ष्मणजी की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। मुख्य मंदिर के प्रवेश द्वार पर द्वारपाल जय-विजय की प्रतिमा है। प्रवेश द्वार के चौखट पर ऊपर शेषशायी विष्णु विराजमान हैं तथा सबसे ऊपर सप्तर्षि की मूर्तियां बनी हुई है। प्रवेश द्वार के चौखट पर तीन ओर नाग कन्याओं की प्रतिमाएं बनी हुई है। जैतू साव मठ के प्रथम पुजारी महंत श्रीबिहारीदासजी हुए। वर्तमान में महंत श्रीलक्ष्मीनारायणदासजी हैं। ये सन् 1908 में महंत बने जिनके उत्तराधिकारी महंत श्रीरामभूषणदासजी हैं।

# मच्छी तालाब मंदिर (निम्बार्क सम्प्रदाय)

मंदिर के पुजारी व महंत, पास के तालाब की मछलियां मारने नहीं देते थे। अतः इस तालाब का नाम मच्छी तालाब तथा उससे संलग्न इस मंदिर का नाम मच्छी तालाब मंदिर पड़ा। यह मंदिर निम्बार्क सम्प्रदाय का है। मुख्य मंदिर के गर्भगृह में राधा-कृष्ण की मूर्ति है। निम्बार्क मत के परमोपास्य तथा परमाराध्य युगल स्वरूप श्री राधा-कृष्ण हैं। युगल मूर्ति के प्रतीक सर्वेश्वर शालिग्राम की प्रमुख रूप से सेवा का यहां विधान है।

मंदिर में अभी तक 4 महंत हुए हैं। श्रीनरसिंहदासजी प्रथम महंत थे। उसके पश्चात् उनके उत्तराधिकारी क्रमशः श्रीपूरनदासजी एवं श्रीसुदर्शनदासजी हुए। वर्तमान में श्रीदयालदासजी महंत हैं। हनुमान मंदिर से संलग्न 25 एकड़ जमीन भगवान के नाम है। मंदिर के ऊपर लाल रंग का झंडा लगा हुआ है क्योंकि यह मंदिर बजरंगबली के नाम का मंदिर है। 

# सुहागा मंदिर (निम्बार्क सम्प्रदाय)

1935 में इस मंदिर की प्रतिष्ठा श्री मनोहरलाल तिवारी की धर्मपत्नी सुहागाबाई द्वारा हुई। जिनके नाम पर इस मंदिर का नाम पड़ा। मुख्य मंदिर के गर्भगृह में राधा-कृष्ण की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। कृष्ण की प्रतिमा काले रंग की है। प्रवेश द्वार के दायीं ओर द्वारपाल जय तथा बांयी ओर द्वारपाल विजय की मूर्ति है। मंदिर में कुल 16 स्तंभ लग हुए हैं जिनमें 8 स्तंभ बीच में तथा 8 स्तंभ दीवारों से लगे हुए हैं।

मंदिर में प्रवेश करते ही जगमोहन, हाल की दीवारों पर बायीं ओर दत्तात्रेय भगवान उसके ऊपरी दीवार पर पूतना तथा दत्तात्रय भगवान के बायीं ओर परशुराम, शेषशायी श्री विष्णु लक्ष्मी तथा शिव परिवार के खूबसूरत रंगीन चित्र अलंकारिक दृश्यों से पूर्ण चित्रित किये गये हैं। द्वारपाल विजय के बायीं ओर की दीवार पर क्रमशः कालिया-दमन, श्रीरामदरबार, गजेन्द्र-मोक्ष का अति सुन्दर चित्रण है। उन चित्रों से संबंधित दोहे दीवारों पर लिखे हुए हैं। मंदिर के सामने गरूड़जी की मूर्ति है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार के चौखट पर गणेशजी की प्रतिमा है। मंदिर के अंदर प्रवेश करने के लिए 4 द्वार बनाये गये हैं। 2 दरवाजे पीछे की ओर से एक दरवाजा मंदिर के बायीं ओर तथा एक मुख्य द्वार है। मंदिर के बाहरी ओर पीछे दीवार पर बायें कोने में वामन अवतार बीच में नृसिंह अवतार तथा दाहिनी तरफ वाराह अतवार की प्रतिमा है। मंदिर के चारों तरफ लगे फर्श में से बायीं ओर मगर की आकृति बनी हुई है जिससे मंदिर के भीतर का जल बाहर निकलने की सुविधा है। मंदिर के ध्वज का रंग सफेद है तथा मंदिर के तीन तरफ ऊपर में त्रिशूल टंगे हुए हैं। मंदिर के सामने दाहिनी ओर एक छोटा सा मंदिर हनुमानजी का है। हनुमान मंदिर के दाहिने बाजू छोटा सा शिव मंदिर है जिसमें शिवलिंग के पीछे गणेशजी की फोटो व सामने नंदी की फोटो व उनकी दाहिनी ओर पीछे हटकर कीर्तिमुख की प्रतिमा है।

मंदिर में सुहागाबाई के रहते ही प्रथम महंत श्रीरामचरणदासजी हुए जिनके उत्तराधिकारी महंत श्रीमधुसूदनदासजी हैं। मंदिर की महंत परम्परा रामानंदी है।

साक्षात्कार - महंत श्रीरामचरणदासजी, 17.10.1984, सुहागा मंदिर, रायपुर

# नागरीदास मंदिर (निम्बार्क सम्प्रदाय)

लगभग 200 वर्ष पूर्व निम्बार्क परम्परा के संतों को आश्रय देने के लिए भोंसले वंश के राजाओं द्वारा इस मंदिर की स्थापना करायी गई। गर्भगृह में राम, लक्ष्मण व सीताजी की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। प्रवेश द्वार के चौखट पर नौ ग्रह बने हुए हैं। मंदिर की तीन दिशा में भगवान वराह, पीछे नृसिंह अवतार तथा बांयी ओर वामन अवतार है। मंदिर का जगमोहन हाल 6 खंभों पर आधारित है, जगमोहन हाल के दोनों तरफ दीवार है, जिस पर 92 स्तंभ दीवार से लगे हुए हैं। यह मंदिर दक्षिण की शैली का छोटा नमूना है।

मंदिर के सामने सती मंदिर है, जिनमें मंदिर के संस्थापक मधुकरसाव की पत्नी के सती होने पर उनकी मूर्ति प्रतिष्ठित है। इन्हें सती हुए लगभग 150 वर्ष हुए। सती मंदिर के समीप उनके छोटे भाई व उनकी पत्नी का मंदिर है। जिसके पीछे हनुमानजी का तथा बायें कोने में शंकरजी की मंदिर है। इस मंदिर में अभी तक कुल 5 महंत हुए जिनके नाम क्रमशः श्रीगुलाबदास, श्रीआरतीदास, श्रीनागरीदास, श्रीराधिकादास तथा श्रीगोविन्दशरणदास हैं।

# हनुमान मंदिर, पुरानी बस्ती (निम्बार्क संप्रदाय)

यह मंदिर, जैतू साव मठ से भी अधिक प्राचीन है। प्रमुख मंदिर निम्बार्क संप्रदाय के परमाराध्य तथा परामोपास्य युगल स्वरूप श्रीराधाकृष्ण से संबंधित है। मंदिर की स्थापना लगभग 200 वर्ष पूर्व दानी परिवार द्वारा की गई थी। मुख्य मंदिर के गर्भगृह में कृष्ण के बायीं तरफ राधा तथा दायीं तरफ बलदाऊजी की प्रतिमा प्रतिष्ठित है।

# जगन्नाथ मंदिर (रामानंदी सम्प्रदाय)

इस मंदिर का निर्माण तरेंगा के मालगुजार दाऊ कल्याणसिंह द्वारा लगभग 150 वर्ष पूर्व कराया गया। मुख्य मंदिर कक्ष में बायीं तरफ जगन्नाथजी, बीच में सुभद्रा तथा दाहिनी ओर बलभद्रजी की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। मुख्य मंदिर के द्वार के दाहिनी ओर द्वारपाल जय तथा बायीं ओर द्वारपाल विजय की प्रतिमा है। बायीं ओर क्रमशः हनुमान जी व गरूड़ जी की प्रतिमा स्थापित है। मुख्य मंदिर के सामने तथा बायीं ओर हनुमानजी का मंदिर है तथा दाहिनी ओर राम, लक्ष्मण, सीताजी का मंदिर है।

# गोपाल मंदिर (वल्लभ सम्प्रदाय)

यह मंदिर मर्यादा मिश्रित पुष्टिमार्गी है। मुख्य मंदिर के गर्भगृह में सफेद संगमरमर की राधा-कृष्ण की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। मंदिर की दाहिनी दीवार पर लेख है जिसमें लिखा है कि निज मंदिर के अंदर का मारबल मूर्ति तथा प्राण प्रतिष्ठा का कार्य स्व. मूलचंद जी वागड़ी तथा उनके पौत्र स्व. रमेश कुमार बागड़ी की स्मृति में उनके परिवार द्वारा 9001/- लगाकर कराया गया। संवत 2025 मिती माघ सुदी 13 दिनांक 31.1.1969.

# गोकुलचन्द्रमा मंदिर (वल्लभ सम्प्रदाय)

यह मंदिर पुष्टिमार्गी का है, इसमें वल्लभ कुल के परिवार है। वल्लभाचार्यजी, जिनका चंपारण्य में प्रागट्य हुआ, उनके 2 पुत्र गोपीनाथजी तथा गोस्वामी श्रीविट्ठलनाथजी थे। गोपीनाथजी का वंश 2 पीढ़ी के बाद न चलने के कारण संप्रदाय के उत्तराधिकारी श्रीविट्ठलनाथजी हुए, जिनके 6 पुत्रों ने ही पुष्टि संप्रदाय को आगे बढ़ाकर उसका प्रचार किया। इस समय भारत में अकबर का शासन था। विट्ठलनाथजी के वंश में हरिरायजी खिन्नौर में रहकर पुष्टि धर्म का प्रचार किया। उनके सेवक काबुल, कान्धार, अफगानिस्तान इत्यादि में था।

हरिरायजी के सेव्य स्वरूप श्रीगोकुलचन्द्रमा जी वर्तमान में रायपुर में विराजमान है। इसके पहले ये कान्धार देश में विराजमान थे। मुगलों के उत्पात के समय उन्होंने कान्धार से सुखपाल को अपने कंधों पर उठाकर रायपुर के पुरोहित परिवार श्रीजगमनदासजी पुरोहित, किशन दास जी पुरोहित व उनके भाई श्रीगोकुलचन्द्रमाजी को बीकानेर पधराया, वहां से वे लोग व्यापार हेतु रायपुर आए और श्रीगोकुलचन्द्रमाजी के सदर बाजार स्थित घर में ही सेवा करने लगे। गुरू धर वंश परम्परा में चलते हैं।

वल्लभाचार्यजी के वंशज चतुर्थ पीठाधीश्वर श्रीदेवकीनंदन आचार्यजी, श्रीगोकुल के यहां पधारे, उन्होंने श्रीगोकुलचन्द्रमाजी को निधि (धन) स्वरूप बताकर उन्हें मंदिर में पधारने की आज्ञा दी। उसी समय प्रथम पीठाधेश्वर ‘नरसिंगलालजी आचार्य’ रायपुर पधारे। उन्हें भगवत् आज्ञा हुई कि चंपारण्य में श्रीमहाप्रभुजी का प्रागट्य हुआ था, उस बैठक का प्रागट्य करो। उन्हें आज्ञा हुई थी कि नदी से कुछ दूरी पर घनघोर नव में जहां वे वल्लभाचार्यजी का ज्ञान करेंगे, वहां उन्हें श्रीमहाप्रभुजी के झारी बंटा, जनेऊ और कंछी जीव उर्पना प्राप्त होंगे। तदानुसार चंपारण्य में पधारकर श्रीनरसिंगलालजी ने उस स्थान की खोज की। रात्रि में उन्हें स्वप्न द्वारा अग्नि स्वरूप श्रीवल्लभाचार्यजी के दर्शन हुए और जिस स्थान पर उपरोक्त वस्तुएं थी, वह स्थान उन्हें स्वप्न में दिखा। दूसरे दिन प्रातः काल उन्होंने उस स्थान की खुदाई करवाई। 17 फीट खोदने के बाद भोजपत्र पर रखी उपरोक्त वस्तुएं उन्हें प्राप्त हुई। इस प्रकार 125 वर्ष या 150 वर्ष पूर्व चंपारण्य की बैठक का प्रागट्य हुआ। पुरोहित परिसर के लोग श्री नरसिंहलालजी के सेवक थे अतः देवकीनंदन आचार्यजी ने श्रीगोकुलचन्द्रमाजी को श्री नरसिंहलालजी के यहां पधराने की आज्ञा दी क्योंकि चंपारण्य की बैठक उन्हीं द्वारा प्रगट हुई थी। गोस्वामी बालकों व श्रद्धालु वैष्णवों के आने जाने, ठहरने की उत्तम व्यवस्था हो सके, यह विचार कर श्रीगोकुलचन्द्रमाजी की हवेली श्री नरसिंहलालजी को पुरोहित परिवार द्वारा संपूर्ण वैभव के साथ श्रीठाकुरजी सहित समर्पित की गई।
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