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Sunday, August 28, 2022

सार्वजनिक निजता

दरार, की-होल या फांक से झांक लेना, कान लगा कर आहट लेना, चोरी-चोरी का अपना सुख होता है। निषिद्ध के प्रति उत्सुकता, उसका इंद्रिय-आस्वाद, मानवीय स्वभाव है। इस घिसी-पिटी बात के साथ, एक ताजे और बीच-बीच में उभरते विवाद पर कुछ बातें। फिनलैंड की युवा स्त्री प्रधानमंत्री चर्चा में हैं, कोलकाता के सेंट जेवियर्स की युवा असिस्टेंट प्रोफेसर की घटना भी याद की गई है, और रणवीर सिंह का न्यूड फोटो-शूट। मामला निजता और सार्वजनिक छवि-प्रस्तुति का है। इस पर नारी-विमर्श से अलग भी कुछ सोचने का प्रयास।

इस पर जहां से बात शुरू हुई है, वह पहली बात नर-नारी संदर्भ निरपेक्ष है। दूसरी बात कि नारी-देह के प्रति आकर्षण अधिक होता है, बाजार, विज्ञापन, मीडिया, फिल्मों में वह परोसा भी अधिक जाता हैै साथ ही नारी वैसी लोलुप नहीं होती, जितना पुरुष और होती भी हो तो यह प्रकट नहीं होता। तीसरी कि निसंदेह निजता पर सबका अपना हक होता है, होना चाहिए, उस पर सेंध मारना अनैतिक है, मगर स्थितियां अलग-अलग हो सकती है। व्यक्ति (स्त्री या पुरुष) अपने निजी क्षणों को स्वयं सार्वजनिक करे या दूसरों द्वारा सार्वजनिक करने दे, उसे आपत्ति न हो। व्यक्ति के निजी क्षणों को उसकी सहमति के बिना सार्वजनिक किया जाए, और उसे फर्क न पड़े, वह खुश हो या आहत-नाराज हो। एक तरफ पत्र, डायरी का सार्वजनिक किया जाना और आत्मकथा के प्रसंगों के संदर्भ तो इसके साथ अनजान बन चतुराई से ‘लीक‘ भी विचारणीय है।

आउट-फिट पर ध्यान दें तो डिजाइनर ड्रेस, स्लीव-लेस, हाइ हिल, लिपस्टिक, ब्यूटी पार्लर के मामले में सामान्यतः स्त्रियां, पुरुषों से अलग होती हैं। लड़का से लड़की बनी एक ट्रांसजेंडर से पूछने पर कि ऐसा क्या और क्यों जरूरी हो गया था, उसने बताया कि मुझे बात-बात पर शर्म आती थी, मन होता था चूड़ी-बिंदी करूं, बाल बढ़ा लूं, सज-संवर कर रहूं। तो क्या लड़के और लड़की की सोच में मुख्य फर्क यही है। मान लिया जा सकता है कि उन्हें सिंगार-पटार या कहें दिखावा? अधिक पसंद होता है। 
सौंदर्य-प्रतियोगिताओं के आयोजन से माना जा सकता है कि
सुंदरता का कारक महिलाओं के लिए मुख्य है।
उल्लेखनीय, प्रासंगिक और अनुकरणीय खबर-
मिस इंग्लैंड के 94 वर्ष के इतिहास में पहली बार
मेलिसा राउफ ने बिना मेकअप के हिस्सा लिया है।
वे कहती हैं-
"I never felt I met beauty standards. I have recently accepted that I am beautiful in my own skin and that's why I decided to compete with no makeup."
(अब तक तो प्रतियोगिता मेक अप की होती थी।)


अन्य, विशेषकर जिससे लगाव हो, ऐसे पुरुष का सुख और संतुष्टि, नारी के लिए प्राथमिक होती है, ऐसा सामान्यतः देखने में आता है। सबल सक्षम समाज की आत्म निर्भर नारी में इसका उदाहरण प्रभा खेतान में दिखता है। पुस्तक ‘नागरसर्वस्वम्‘ की भूमिका में डा. रामसागर त्रिपाठी कहते हैं- ‘उसने स्त्री में लोकातीत लज्जा की भावना भर दी और उससे पुरुष विरत न हो जाए इसके लिए पुरुष को औद्धत्य और दर्प प्रदान कर दिया।‘ स्त्री और पुरुष की मर्यादा और मानकों पर चर्चा करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण उद्धरण आवश्यक होगा- ‘कहते हैं सभ्यता का आरम्भ स्त्री ने किया था। वह प्रकृति के नियमों से मजबूर थी; पुरुष की भाँति वह उच्छृंखल शिकारी की भाँति नहीं रह सकती थी। झोंपड़ी उसने बनायी थी, अग्नि-संरक्षण का आविष्कार उसने किया था, कृषि का आरम्भ उसने किया था; पुरुष निरर्गल था; स्त्री सुशृंखल। पुरुष का पौरुष प्रतिद्वन्दी के पछाड़ने में व्यक्त होता था, स्त्री का स्त्रीत्व प्रतिवेशिनी की सहायता में। एक प्रतिद्वन्द्विता में बढ़ा, दूसरा सहयोगिता में। स्त्री पुरुष को गृह की ओर खींचने का प्रयत्न करती रही, पुरुष बन्धन तोड़कर भागने का प्रयत्न करता रहा। ... पुरुष ने बड़े-बड़े धर्मसम्प्रदाय खड़े किये- भागने के लिए। स्त्री ने सब चूर्ण-विचूर्ण कर दिया- माया से । पुरुष का सबकुछ प्रकट था, स्त्री का सबकुछ रहस्यावृत। पुरुष जब उसकी ओर आकर्षित हुआ तब उसे गलत समझकर, जब उससे भागा तब भी गलत समझकर। उसे स्त्री को गलत समझने में मजा आता रहा, अपनी भूल को सुधारने की उसने कभी कोशिश ही नहीं की। इसीलिए वह बराबर हारता रहा। स्त्री ने उसे कभी गलत नहीं समझा। वह अपनी सच्ची परिस्थिति को छिपाये रही। वह अन्त तक रहस्य बनी रही। ... रहस्य बनी रहने में उसे भी कुछ आनन्द मिलता था। इसीलिए जीतती भी रही और कष्ट भी पाती रही।‘

हम उसी समाज से अपेक्षाएं रखते हैं, जिससे हमें अक्सर शिकायत बनी रहती है। समाज से अपनी पसंद और सुविधानुसार छूट नहीं ली जा सकती। समाज से अपेक्षाएं हैं तो उसी समाज की अपेक्षाओं के अनुकूल, समाज की इकाई को आचरण भी करना होगा। और यह वस्तुनिष्ठ, मशीनी नहीं होगा, परिवर्तनशील भी होगा। निसंदेह इस पर राय भिन्न होगी, संदर्भों के साथ, व्यक्तियों के साथ। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि सार्वजनिक जिम्मेदारी वाले व्यक्ति के साथ सीमाएं अलग होंगी, लेकिन इसकी न तो कोई आचार-संहिता संभव है, न ऐसा कोई निर्विवाद कानून। वात्स्यायन का शास्त्रीय अध्ययन, कालिदास का उत्कृष्ट साहित्य, खजुराहो की प्रतिमाएं, शिवलिंग, दिगंबर जैन साधु, नागा बाबा से ले कर सेंसर-बोर्ड, सभी को साथ रख कर स्वयं विचार करें कि किस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं, क्या ऐसी व्यवस्था दे सकते हैं, जो निर्विवाद न हो, लेकिन तार्किक और औचित्यपूर्ण हो।

सुनी-सुनाई। उच्च पद पर आसीन एक युवा महिला अधिकारी सोशल मीडिया पर अपनी आकर्षक तथा पति के साथ अंतरंग तस्वीरें लगाया करती थीं, ढेरों लाइक और कमेंट आते, वॉव, ब्यूटीफुल और कुछ इससे भी आगे, मगर तब तक मामला वर्चुअल होता। महिला अधिकारी का उत्साह बना रहा। किसी दिन उनके ‘चुगलखोर‘ स्टाफ ने बहुत संभाल कर बात कही, किसी और का नाम लेते, जिससे उसकी चर्चा हुई थी, इस सावधानी सहित कि मैडम खुश होंगी, तो शाबासी मिलेगी और बिगड़ गई तो अगले के मत्थे। मैडम को बताया कि अमुक मुझसे कह रहा था कि मैडम एक से एक फोटो लगाती हैं, मस्त, जोरदार। कुछ ठहर कर जोड़ना चाहता था, मुझे भी। मगर अब मामला वर्चुअल नहीं रहा, गाज गिरते देर नहीं लगी। मैडम फोटो अब भी लगाती हैं, कुछ अलग तरह की, लाइक-कमेंट भी कम हो गए, पता नहीं क्या सोचती होंगी। चिलमन से लगे छुपते-सामने आते जैसा कुछ या कि ‘अंदाज़ अपना देखते हैं आइने में वो, और ये भी देखते हैं कोई देखता न हो।‘

बहरहाल, किसी संदर्भ-विशेष से अलग कभी इस पर सोच बनी थी कि ‘परदा, संदेह का पहला कारण, तो पारदर्शिता, विश्वसनीयता की बुनियादी शर्त‘ और हम सब सीसीटीवी की निगरानी में तो रहते ही हैं, दूसरों की नजर में बने रहना, ऐसी सोच कि कोई हमें देख रहा है, सुन रहा है, हमारी अंतरात्मा या उपर वाला ‘बिग बॉस‘, आचरण की शुचिता के लिए सहायक हो सकता है। वैसे भरोसे की बुनियाद में अक्सर ‘संदेह‘ होता है फिर संदेह से बचना क्यों? ऐतराज क्या? स्थापनाएं, साखी-प्रमाणों से बल पाती हैं या क्रि संदेह और अपवाद से।

आगे और कुछ पढ़ना चाहें तो ‘यौन-चर्चाःडर्टी पोस्ट‘ पर नजर डाल सकते हैं।

Saturday, August 27, 2022

घर का पता

लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि
आपके घर का पता आप खुद नहीं जानते,
लोग आपको बताते हैं
क्योंकि 
आप तो अपने घर को जानते हैं
न कि घर का पता
इसलिए बिना किसी पहचान के
अपने घर पहुंच जाते हैं।
लोग बताते हैं कि आपका घर कहां है,
वह किस तरह से आपके घर पहुंचते हैं,
उसे पहचानते हैं।
कोई पेड़, कोई भवन या कोई दुकान,
क्या पहचान, आपके घर का पता बनता है,
इसलिए मुझे लगता है कि
आप अपने घर का पता नहीं जानते,
आप के घर का पता लोग आपको बताते हैं।
विनोद कुमार शुक्ल घर का पता बताते हैं,
‘सफेद चम्पे के फूल वाला घर‘,
तो लगता है
कोई कविता सुनाने जा रहे हैं
और कह पड़ेंगे-
‘हर बार घर लौट कर आने के लिए ...‘

गली का आखिरी मकान है यह
या मान लें पहला
इसे पहला या आखिरी ही होना चाहिए
यह गली बंद नहीं है
धर्मवीर भारती वाला ‘बंद गली का आखिरी मकान‘ नहीं,
न ही राजेन्द्र यादव के ‘हंस‘ दफ्तर की तरह
गली खुली हुई है दोनों ओर
बाएं और दाएं

बिना नाम-पट्टिका घर
अब आम, मौलश्री और सप्तपर्णी
चिड़िया और गिलहरी और ...
हरियाली, जीवन शाश्वत
सफेद चम्पा,
घर की पहचान, पता बताने के लिए?
या हर बार घर पहचान,
लौट लौट आने के लिए।

पिछले दिनों जया जादवानी जी से उनके घर और अपने घर के साथ किसी तीसरे पते की बात हुई, जहां हम दोनों को पहुंचना था। इस दौरान विनोद जी के घर जाने की बात भी मेरे मन में थी। याद आया फरवरी 2020 में आशुतोष भारद्वाज ने ‘संडे एक्सप्रेस मैगजीन‘ के लिए विनोद जी पर कवर स्टोरी की थी, उसकी शुरुआत इसी तरह पता पूछने-बताने से होती है। विनोद जी के घर तक पहुंचा, वहां नाम-पट्टिका नहीं है, अब सफेद चंपा भी नहीं। विनोद जी के पुत्र शाश्वत ने बताया कि गली का नंबर बदला है, घर वहीं है, ‘घर पर किसी का नाम नहीं लिखा है। अंदर एक आम का पेड़ है। बाहर एक ओर मौलश्री के दो पेड़ और दूसरी ओर सप्तपर्णी के दो पेड़ हैं। इन सब में बहुत से पक्षी, गिलहरी रहते हैं। हम सब इनके साथ रहते हैं। यही घर की पहचान है।‘

एक गद्य कविता-
बात करीब बीस साल पुरानी है। 
एक भूले से मगर प्रतिष्ठित साहित्यकार को 
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद याद कर, 
पत्र भेजा गया। 
पता अनुमान से लिखा गया था। 
पत्र उन्हें मिल गया, 
उनका जवाब आया, जिसमें दो खास बात थी। 
पहली कि उनके लेटर हेड पर 
शहर के नाम के साथ अब भी म.प्र. था, 
मगर दूसरी बात कि 
उन्हें जिस पते पर पत्र भेजा गया था, 
उस पर अपनी खिन्नता प्रकट करते लिखा था- 
‘पता, जिस पर डाकिया पत्र पहुंचा जाया करता है‘ 
मेरे साथी ने कहा कि साहित्यकार भी अजीब होते हैं, 
सीधी सी बात, सीधे नहीं कहते। 
ऐसा लगता है कि पता, पत्र पाने का ही है, 
उनके निवास का नहीं, रहते कहीं और हैं। 
मुझे साहित्य(कारों) का प्रतिपक्ष बने रहने से, 
अपनी जगह उचित लगती है 
बल्कि यों भी प्रतिपक्ष बने रहना। 
मगर यहां मैंने उन साहित्यकार का पक्ष लिया कि 
इसमें गड़बड़ क्या है, हम भी तो ‘डाक का पता‘ लिखते हैं, 
इसका भी मतलब निकाला जा सकता है कि 
यह डाक का पता है, निवास का नहीं। 
तब मित्र ने तर्क दिया, मगर यह रूढ़ हो गया हैै। 
मैंने आगे कुछ न कह कर संवाद विराम किया। 
याद करने लगा कि पहले पत्र में लिखने का चलन था- 
मु.पो. यानि मुकाम और पोस्ट। 
इसी तरह कुछ अधिक बारीक लोग 
हाल मुकाम और खास मुकाम, बताते थे 
यानि वर्तमान पता और स्थायी पता। 
बहरहाल, पता बताने और खोजने की अधिक सावधानी, 
प्रकारांतर से खुद की तलाश होने लगती है, 
पता वही रहता है, हम ही खोए रहते हैं, 
कभी पता बताते, कभी तलाशते।

Sunday, August 21, 2022

हमारे संविधान पुरुष और हिंदी

पिछली पोस्ट में ‘संविधान सभा में छत्तीसगढ़ के सदस्य‘ की जानकारी है। यहां संबंधित अन्य जानकारियां प्रस्तुत हैं।

संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भारत का संविधान पारित किए जाने के अवसर पर अपने भाषण में अनुवादकों का उल्लेख करते हुए, माननीय श्री जी.एस. गुप्त (घनश्याम सिंह गुप्त) की अध्यक्षता वाली अनुवाद समिति का विशेष रूप से उल्लेख किया था कि उनके द्वारा संविधान में प्रयुक्त अंग्रेजी के समानार्थी हिंदी शब्द तलाशने का कठिन कार्य किया गया है। जानकारी मिलती है कि 1947 में ही घनश्याम सिंह गुप्त की अध्यक्षता में संविधान के हिंदी अनुवाद के लिए समिति गठित की गई थी। पुनरीक्षण के लिए 15 मार्च 1949 को विशेषज्ञ समिति की नियुक्ति हुई थी, जिसमें श्री राहुल सांकृत्यायन, श्री सुनीति कुमार चटर्जी, श्री एम. सत्यनारायण, श्री जयचन्द्र विद्यालंकार तथा श्री दांते जैसे देश के विभिन्न प्रांतों के जानकार थे।

संविधान सभा की बैठकों के दौरान घनश्याम सिंह गुप्त ने 9 नवंबर 1948 को ‘हिंदुस्तानी‘ भाषा पर विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि सरल हिंदुस्तानी जैसी कोई चीज नहीं थी, उर्दू, उर्दू और हिंदी हिंदी थी। उन्होंने गणित से संबंधित उर्दू और हिंदी के शब्दों के उदाहरण भी दिए। भाषा पर उनके वक्तव्यों के अलावा एक अन्य उल्लेखनीय प्रसंग 24 मई 1949 का है, जिसमें गुप्तजी ने सभा की बैठक में 11 मिनट विलंब होने के कारण समयनिष्ठता पर सवाल किया था। इस सवाल पर अध्यक्ष महोदय ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए बताया कि वे स्वयं पिछले बीस मिनट से अपने कक्ष में प्रतीक्षा कर रहे थे। और आशा व्यक्त की कि कल से हम सदैव ठीक समय पर यहां होंगे।

संविधान के उर्दू और हिंदुस्तानी अनुवाद के संबंध में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा घनश्याम सिंह गुप्त को, उनके 23-6-48 के पत्र के संदर्भ में 29 जून 1948 को लिखे गए पत्र की जानकारी मिलती है। इसी तरह घनश्याम सिंह गुप्त द्वारा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी को 25 अगस्त 1951 को लिखे पत्र की जानकारी मिलती है, जिसमें उन्होंने सरदारजी के चले जाने और पं. जवाहरलालजी और टंडनजी के विवाद का उल्लेख किया है। 

घनश्याम सिंह गुप्त द्वारा बहैसियत स्पीकर, सी.पी. एंड बरार लेजिसलेटिव असेंबली, नागपुर, (दिनांक, 7 अक्टूबर 1948) ‘कांस्टीट्यूशनल टर्म्स‘ की पुस्तिका प्रकाशित कराई गई थी। पुस्तिका के आरंभ में अंग्रेजी में ‘फोरवर्ड‘ है साथ ही हिंदी में ‘प्राक्कथन‘, जो यहां प्रस्तुत है।

जो माला हम प्रकाशित कर रहे हैं उसकी यह तीसरी कड़ी है. वास्तव में यह तो, हिन्दी संविधान के प्रारूप की, तथा कुछ अन्य संवैधानिक शब्दों की शब्दावली ही है. अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय बनाने के लिये हमारा मुख्य आधार संस्कृत है. संस्कृत को आधार बनाने का कारण मैंने पहिले पुष्ण के प्राक्कथन में दिया है और उसको मैं यहां दुहराना नहीं चाहता. परन्तु मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि सर्वोच्च राष्ट्रीयता की मांग यही है कि हमारे शब्द जिनकी कोई पारिभाषिक स्थिति है, संस्कृत के आधार से ही बनें. यही भारतीय भाषाओं की एकता का मार्ग है. यदि वाक्य रचना की नहीं तो कम से कम शब्द रचना की ही सही. और विशिष्ट विषयों में तो शब्दावली एक बहुत बड़ी चीज होती है. इससे विपरीत का मार्ग एकता का बाधक और अव्यवस्था लाने वाला है. कोई भी अनुमान कर सकता है कि यदि जिसे अंग्रेजी में ‘हारबरिंग‘ (यथा हारबरिंग एन अफेडर) कहते हैं उस विचार को व्यक्त करने के लिये बंगाल की विधान सभा के अधिनियम (एक्ट) में ‘आश्रय‘ और केन्द्र की विधान सभा (संसद्) अधिनियम में “पनाह” हो तो क्या अवस्था होगी. एक और उदाहरण लीजिये ‘ट्रान्सपोर्टेशन फार लाइफ‘ के भाव को सूचित करने के लिये यदि बंगाल अधिनियम में “यावज्जीवन द्वीपान्तर प्रेरण‘ हो और केन्द्रीय अधिनियम में ‘हब्स दवाम बउबूरे दर्याय शोर‘ हो तो कैसा गोलमाल होगा. हजारों शब्द की तरह ये दोनों शब्द हमारे दंडविधान के साधारण शब्द है. और दंडविधान संवर्ती सूची (कांकरंट लिस्ट) में होने के कारण, केन्द्र और प्रान्तों दोनों का विषय है. जब तक अंग्रेजी राज्य था या यों कहिये जब तक विधान की अधिकृत भाषा अंग्रेजी थी और बंगला या हिन्दी दंड संग्रह, अंग्रेजी दंड संग्रह का केवल साधारण अनुवाद था, तब तक तो बात दूसरी थी. क्योंकि कानूनी विवाद के प्रसंग में मूल अंग्रेजी ही प्रमाण मानी जाती रही. परंतु जब हमें अपने मूल अधिनियम ही हिन्दी व बंगला में बनाने होंगे तब तो यह अनिवार्य हो जाता है कि हमारी शब्दावली एक ही हो. विभिन्न शब्दावली का जो बुरा परिणाम होगा उसका अनुमान करना कठिन है. 

यदि हम अपनी ‘हिन्दुस्तानी‘ को ‘बंगाली‘, ‘मराठी‘ आदि के गले में जबरदस्ती उतारना नहीं चाहते हैं तब तो हमारी सब भाषाओं के लिये (अथवा अधिक से अधिक भाषाओं के लिये) समान शब्दावली का आधार संस्कृत ही हो सकता है. 

एक और बात हमें स्मरण रखना है. एक ही विचार को बताने के लिये संस्कृतजन्य शब्द भी एक से अधिक हो सकते हैं. कोई किसी एक शब्द को पसन्द करता है, कोई दूसरे को. कोई ‘मिनिस्टर‘ के लिये ‘मंत्री‘ और ‘सेक्रेटरी‘ के लिये ‘सचिव‘ कहना चाहेगा तो दूसरा ‘मिनिस्टर‘ के लिये ‘सचिव‘ और ‘सेक्रेटरी‘ के लिये ‘मंत्री‘ कहना चाहेगा. इससे भी अव्यवस्था हो सकती है. जिसे हमें हटाना होगा. वह समय शीघ्र आ रहा है जब कि हमें अपने सारे प्रयत्नों का, अखिल भारतीय आधार पर, समन्वय करना ही होगा.

इस शब्दावली के लिये डॉ. रघुवीर को कृतज्ञता प्रगट किये बिना मैं इस अपने प्राक्कथन को समाप्त नहीं कर सकता. उन्होंने अंग्रेजी में एक सुन्दर छोटी भूमिका लिखी है. उसके लिये भी वे धन्यवाद के पात्र हैं. मेरी विधान सभा के कार्य कर्ताओं ने भी, विशेषकर श्री बेनीमाधव जी कोकस ने इस कार्य में सहायता दी है. भारतीय संविधान के प्रारूप से और शब्द निर्माण में जो हमारे कई प्रकार के प्रयत्न हुए जिनके परिणामस्वरूप कई जगहों में हमने टिप्पणी की थी, उन सब से शब्दों की श्रृंखला बनाने का जो कार्य उनने किया उस के लिये धन्यवाद के पात्र हैं. 

इसी प्रकार एक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय वक्तव्य पं. रविशंकर शुक्ल का है, जो 13 सितंबर 1949 को संविधान सभा में दिया गया था। पं. शुक्ल ने ‘हिंदी राजभाषा: उसका दायित्व‘ विषय पर विचार प्रकट करते हुए शिक्षा का माध्यम, प्रांत और भाषा का व्यवहार, न्यायालयों में अंग्रेजी, अंग्रेजी प्रावधान, आयरलैंड का उदाहरण, अंकों का प्रश्न, शब्दों का प्रयोग, राष्ट्रभाषा सबकी सहमति से, भाषा का निर्माण जनता द्वारा, जैसे बिंदुओं पर ध्यान आकृष्ट कराया था, जिसका आरंभिक और अंतिम अंश इस प्रकार है- 

अभी हमने, सदन के अनेक प्रमुख सम्माननीय सदस्यों के भाषण सुने। अपने देश के ऐसे प्रख्यात व्यक्तियों का विरोध करने में कभी कभी परेशानी होती है किंतु राष्ट्रों के इतिहास में ऐसे अवसर आते हैं जबकि अपनी बात कह देने के अतिरिक्त, हमारे पास अन्य कोई विकल्प नहीं बचता। मैं केवल विरोध के लिये विरोध नहीं कर रहा हूं। इस ऐतिहासिक अवसर पर मैं अपना मत प्रस्तुत करने के लिये उपस्थित हुआ हूं। 

इस प्रश्न के संबंध में दो दृष्टिकोण हैं। एक दृष्टि उनकी है जो यह चाहते हैं कि इस देश में अंग्रेजी भाषा, जितने अधिक समय और जितनी दूरी तक संभव हो, जारी रहे; और दूसरा दृष्टिकोण उनका है जो चाहते हैं कि जितनी जल्दी संभव हो अंग्रेजी के स्थान पर एक भारतीय भाषा का उपयोग हो। माननीय श्री गोपालस्वामी आयंगार द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव पर हम इन दो दृष्टिकोणों से विचार करते हैं। मेरे द्वारा प्रस्तुत समस्त संशोधन, द्वितीय दृष्टिकोण से ही प्रस्तुत किये गये हैं। यदि मैं यह पाता कि अध्याय १४-अ में समावेष्टित अनुच्छेद इस प्रकार के हैं जो हमारे उद्देश्य को क्षति नहीं पहुंचाते हैं, तो मैं यहां बोलने के लिये कभी नहीं आता। यह ठीक है कि हमने हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि को एक उच्चासन पर प्रतिष्ठित कर दिया है। अंकों के संबंध में, मैं बाद में बोलूंगा। इतना कहने के बाद मैं इस अध्याय के प्रवर्ती भाग पर आता हूं ... 
... ... ... 

इस सदन के हम सब सदस्य जो कांग्रेस के भी सदस्य हैं, कांग्रेस का ही अनुसरण करते आये हैं। कांग्रेस ने निर्णय किया है कि हमें १५ वर्ष की अवधि से आगे जाने की आवश्यकता नहीं है। अतः हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि पन्द्रह वर्षों के बाद क्या होगा। हम अब पीढियों के लिये प्रावधान न करें और उन्हें किसी बन्धन में न बांधें। वर्षों बाद जब हमारे प्रतिनिधि मिलेंगे तब वे निर्णय करेंगे कि उन्हें क्या करना चाहिये। जहां तक हमारा सम्बन्ध है हम पन्द्रह वर्षों के लिये निर्णय करते हैं। कांग्रेस ने हिन्दी के अधिकाधिक प्रयोग का आदेश दिया है और मेरे द्वारा प्रस्तुत संशोधनों से इसे सम्भव बनाया जा सकता है तथा पन्द्रह वर्षों के अन्दर ही हम इसे कर सकते हैं। मेरा प्रस्ताव है कि दस वर्षों के अन्दर हम आयोगों और समितियों का सारा कार्य समाप्त कर दें। संसद इस बात का निर्णय करेगी कि पन्द्रह वर्षों की अवधि के अन्दर ही किन साधनों और उपायों से हिन्दी को अपनाया जा सकता है। कांग्रेस कार्य समिति के प्रस्ताव की भाषा के ठीक-ठीक अनुरूप ही मैंने अपने संशोधनों का निर्माण किया है तथा आशा है कि सदन उन्हें स्वीकार करेगा। जहां तक कांग्रेस कार्यकारिणी के प्रस्ताव का सम्बन्ध है मैं नहीं समझता कि ‘हिन्दुस्तानी‘ शब्द का उसमें प्रयोग किया गया है। उसमें कहा गया है कि देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी भाषा ही हमारी शासकीय हो।’ 

पुनः दुहरा दूं कि संविधान और छत्तीसगढ़ संबंधी दोनों पोस्ट, मेरे स्वयं की जिज्ञासा-पूर्ति के दौरान गत वर्षों में प्राप्त जानकारियों का संयोजन है, जिसमें आए तथ्यों के प्रति यथासंभव सावधानी बरती गई है। इस संबंध में अन्य जानकारी किसी अधिकृत स्रोत से उपलब्ध होने पर, यहां प्रस्तुत जानकारी में संशोधन/परिवर्धन कर दिया जावेगा।

Saturday, August 20, 2022

संविधान सभा में छत्तीसगढ़ के सदस्य

यहां प्रस्तुत जानकारी, मुख्यतः इंटरनेट पर उपलब्ध अधिकृत या विश्वसनीय स्रोतों से ली गई है। साथ ही अल्पज्ञात प्रकाशित सामग्री तथा स्वयं द्वारा एकत्र जानकारियों का समन्वय किया गया है। यथासंभव तथ्यों का परीक्षण स्वयं किया गया है। भारत शासन द्वारा सन 2000 में पुनर्मुद्रित कराई गई भारतीय संविधान की प्रति, पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर के पं. सुन्दरलाल शर्मा ग्रंथागार में उपलब्ध है, सदस्यों के हस्ताक्षर के लिए स्वयं अवलोकन कर इसे आधार बनाया गया है। अन्य जानकारी किसी अधिकृत स्रोत से उपलब्ध होने पर, यहां प्रस्तुत जानकारी में संशोधन/परिवर्धन कर दिया जावेगा।

इंटरनेट पर उपलब्ध कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया - वाल्युम 1 में सोमवार, 9 दिसंबर 1946 की पहली बैठक में रजिस्टर में हस्ताक्षर के लिए नामों में मद्रास 43, बाम्बे से 19, बंगाल से 26, युनाइटेड प्राविंस से 42, पंजाब से 12, बिहार से 30, सी.पी. एंड बरार के 14, असम के 7, नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्राविंस से 2, उड़ीसा से 9, सिंध से 1, दिल्ली से 1, अजमेर-मेरवारा से 1, कुर्ग से 1, इस प्रकार कुल 208 नामों का उल्लेख है, जिसमें सी.पी. एंड बरार के 14 नामों में सरल क्रमांक 1 पर पं. रवि शंकर शुक्ल, 6 पर ठाकुर छेदीलाल, एम.एल.ए., 10 पर गुरु अगमदास अगरमनदास, एम.एल.ए. का नाम छत्तीसगढ़ के सदस्यों का आया है। कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया - वाल्युम 4 में सोमवार, 14 जुलाई 1947 की बैठक में रजिस्टर में हस्ताक्षर के लिए नामों में इस्टर्न स्टेट्स से राय साहब रघुराज सिंह का नाम आया है।

विकिपीडिया के ‘भारतीय संविधान सभा‘ पेज पर मध्यप्रांत और बरार [संपादित करें] के अंतर्गत दर्ज सदस्य नामों में से छत्तीसगढ़ के नाम, गुरु अगमदास, बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल, पं किशोरी मोहन त्रिपाठी, घनश्याम सिंह गुप्ता, रविशंकर शुक्ल, रामप्रसाद पोटाई, इस प्रकार कुल छह नाम हैं।

विकिपीडिया के कान्स्टीट्युएंट असेंबली ऑफ इंडिया पेज पर सेंट्रल प्राविंसेस एंड बरार के 19 नाम हैं, जिनमें ठाकुर छेदीलाल, घनश्याम सिंह गुप्ता, रविशंकर शुक्ल के अतिरिक्त अंबिका चरण शुक्ल (क्रम 1 पर) तथा गनपतराव दानी (क्रम 19 पर) नाम मिलता है, जो छत्तीसगढ़ से संबंधित हैं, उक्त दोनों नामों की पुष्टि अन्य स्रोतों से नहीं हुई है।

जानकारी मिलती है कि पुनर्गठित संविधान सभा के 299 सदस्यों की बैठक 31 दिसंबर 1947 को हुई, जिन सदस्यों की 2 वर्ष 11 माह, 18 दिन में कुल 114 दिन बैठक के बाद 24 जनवरी 1950 को हस्ताक्षर कर संविधान को मान्यता दी गई। संविधान सभा के सदस्यों के हस्ताक्षर संविधान की प्रति में पेज 222 पर आठवीं अनुसूची के बाद पेज 231 तक दस पृष्ठों पर हैं। पेज 222 पर 17, 223 पर 30, 224 पर 34, 225 पर 34, 226 पर 34, 227 पर 32, 228 पर 30, 229 पर 34, 230 पर 34, 231 पर 5, इस प्रकार कुल 284? हस्ताक्षर हैं। हस्ताक्षरों के संबंध में ध्यान देने योग्य-

0 कुछ सदस्यों ने दो लिपियों में हस्ताक्षर किए हैं।
0 हस्ताक्षर के साथ कोष्ठक में नाम भी लिखा है।
0 मैसूर के एच.आर. गुरुवरेड्डी का हस्ताक्षर पेज 226 पर तथा पेज 229 पर, इस प्रकार एक ही व्यक्ति का एक जैसा ही दो हस्ताक्षर, कोष्ठक में नाम सहित आया है।
0 पेज 229 पर दो हस्ताक्षर के नीचे दिनांक 24.1.1950 भी अंकित है।
0 राजेन्द्र प्रसाद का हस्ताक्षर जिस स्थान पर है, उसे देख कर लगता है कि अंतिम प्रारूप हस्ताक्षर के लिए सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू को प्रस्तुत किया गया और जैसा कायदा है, लेख और हस्ताक्षर के बीच खाली स्थान न छोड़ते हुए, उन्होंने अपने हस्ताक्षर किए हैं। अतएव राजेन्द्र प्रसाद द्वारा जगह बनाते जवाहरलाल नेहरू के उपर तिरछे हस्ताक्षर किया गया।
0 संविधान सभा की बैठकों के प्रतिवेदन से जानकारी मिलती है कि 24 जनवरी 1950 को संविधान की प्रति पर हस्ताक्षर के लिए अध्यक्ष द्वारा सदस्यों से आग्रह किया जाता है कि वे एक-एक कर आएं और प्रतियों पर हस्ताक्षर करें। सदस्यगण जिस क्रम में बैठे हैं, उसी क्रम में उन्हें पुकारा जाएगा प्रधानमंत्री को पब्लिक ड्यूटी में जाना है इसलिए हस्ताक्षर के लिए उनसे पहले आग्रह किया गया।
0 ग्रंथागार वाली जिस प्रति का मैंने अवलोकन किया है उसमें कुल 231 पेज में, पेज 228 तथा पेज 229 दो-दो बार हैं, इससे संभव है कि इस संस्करण में मुद्रित किसी प्रति में उक्त दो पेज कम हों।

छत्तीसगढ़ के सदस्यों में, पेज 227 पर रविशंकर शुक्ल और ठाकुर छेदीलाल के हस्ताक्षर 228 पर घनश्याम सिंह गुप्त के हस्ताक्षर (नागरी में), 229 पर रामप्रसाद पोटाई और 230 पर के.एम. त्रिपाठी के हस्ताक्षर (रोमन में) हैं, इस प्रकार कुल पांच व्यक्तियों के हस्ताक्षर हैं। लोक सभा की साइट पर नवंबर 1949 की स्थिति में संविधान सभा के सदस्यों की प्रदेशवार सूची में सेंट्रल प्राविंसेस एंड बरार के 17 नामों में छत्तीसगढ़ के ठाकुर छेदीलाल (क्रम 5 पर), घनश्याम सिंह गुप्त (क्रम 10 पर), रवि शंकर शुक्ल (क्रम 13 पर) तथा सेंट्रल प्राविंसेस स्टेट्स के तीन नामों में छत्तीसगढ़ के किशोरीमोहन त्रिपाठी (क्रम 2 पर) तथा रामप्रसाद पोटई (क्रम 3 पर) हैं। इस प्रकार पुष्टि होती है कि उक्त पांच संविधान सभा के नियमित तथा हस्ताक्षर की तिथि तक सदस्य रहे।


उक्त संविधान पुरुषों के यों अन्य फोटो भी उपलब्ध होते हैं, किंतु यहां उनकी फोटो आगे आए समूह चित्र से निकाली गई है। उक्त समूह चित्र में घनश्याम सिंह गुप्त की पहचान मेरे द्वारा निश्चित नहीं कर पाने के कारण उनकी अन्य तस्वीर ली गई है। फोटो के नीचे हस्ताक्षर संविधान की प्रति में किए गए हस्ताक्षर से लिए गए हैं।

यहां आए छत्तीसगढ़ के नामों में मुख्यमंत्री रहे रविशंकर शुक्ल, अकलतरा के बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल, दुर्ग के घनश्याम सिंह गुप्त, कांकेर के रामप्रसाद पोटई, रायगढ़ के के.एम. त्रिपाठी यानि किशोरी मोहन त्रिपाठी और सतनामी गुरु अगमदास अगरमनदास, उनका परिवार सामान्यतः जाना जाता है। रघुराज सिंह (Ragho Raj Singh), सरगुजा स्टेट के दीवान रहे तथा बाद में राजकुमार कॉलेज, रायपुर में प्रिंसिपल रहे, उनका परिवार अब रायपुर निवासी है।

सामने से पहली की पंक्ति-59 सदस्य, दूसरी पंक्ति-59, तीसरी पंक्ति-58, चौथी पंक्ति-54 तथा सबसे पीछे पांचवीं पंक्ति में 48, इस प्रकार कुल 278 व्यक्ति हैं। चित्र में पं. रविशंकर शुक्ल पहली पंक्ति में बायें से दाएं गणना में क्रम 39 पर, इसी तरह ठाकुर छेदीलाल दूसरी पंक्ति में क्रम 40 पर, किशोरी मोहन त्रिपाठी तीसरी पंक्ति में क्रम 7 पर और रामप्रसाद पोटई इसी तीसरी पंक्ति में क्रम 34 पर हैं। जैसा कि उपर उल्लेख है इस तस्वीर में घनश्याम सिंह गुप्त की पहचान निश्चित नहीं हो सकी है।

संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भारत का संविधान पारित किए जाने के अवसर पर अपने भाषण में अनुवादकों का उल्लेख करते हुए कहा था माननीय श्री जी.एस. गुप्त की अध्यक्षता वाली अनुवाद समिति के द्वारा संविधान में प्रयुक्त अंग्रेजी के समानार्थी हिंदी शब्द तलाशने का कठिन कार्य किया गया है।

संबंधित अन्य जानकारी की प्रस्तुति ‘हमारे संविधान पुरुष और हिंदी‘ शीर्षक से अगली पोस्ट पर।

दैनिक सांध्य छत्तीसगढ़ में प्रकाशित


Sunday, August 14, 2022

वीर नारायण सिंह - क्रांति और भ्रांति

ए.ई. नेल्सन संपादित 1909 के रायपुर गजेटियर के इतिहास खंड में सोनाखान, जो बिलासपुर से रायपुर जिले में स्थानांतरित किया गया था, के जमींदार नारायण सिंह और उनकी गिरफ्तारी का ब्यौरा है, जो सी.बी.एल. स्मिथ, स्थानापन्न असिस्टेंट कमिश्नर के पत्र क्रमांक 657, दिनांक 9 दिसंबर 1857 पर आधारित है। स्मिथ ने यह पत्र रायपुर के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट सी. इलियट को लिखा था।

शंभूदयाल गुरु, हरि ठाकुर और प्रभुलाल मिश्र जैसे विद्वानों ने मूल स्रोतों के आधार पर वीर नारायण सिंह से संबंधित इतिहास लेखन किया। सोनाखान के इस परिवार का माखन साव परिवार, कसडोल के मिश्र परिवार तथा पड़ोसी जमींदारियों के साथ विवाद की जानकारी मिलती है। 1835 की घटना का उल्लेख मिलता है, जिसमें नारायण सिंह पर कसडोल के देवनाथ मिश्र की हत्या का आरोप लगा था। प्रसंगवश हरि ठाकुर का खंड काव्य ‘शहीद वीर नारायण सिंह‘ उल्लेखनीय है, जिसका सन 2014 संस्करण, छत्तीसगढ़ राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी, रायपुर द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसी क्रम में हरि ठाकुर की परंपरा के संवाहक उनके सुयोग्य पुत्र ने ‘1857 सोनाखान‘ की रचना की है, जो इसी वर्ष 2022 में ‘हरि ठाकुर स्मारक संस्थान‘ से प्रकाशित हुई है। खंड काव्य के उक्त संस्करण की भूमिका डॉ. बलदेव ने लिखी है, जिसमें उन्हें संबोधित रामविलास शर्मा के 23.2.90 के पत्र का उल्लेख है। इसमें कहा गया है कि ‘मेरी जानकारी में सन सत्तावन पर हिन्दी में खण्डकाव्य नहीं लिखा गया है।‘


उक्त खंड काव्य का आरंभ होता है, ‘ये महानदी के घाटी। ये छत्तिसगढ़ के माटी‘। यह पद आचार्य डॉ. रमेंन्द्रनाथ मिश्र का न सिर्फ तकिया कलाम जैसा हो गया, उन्होंने वीर नारायण सिंह संबंधी विभिन्न प्रकाशन कराए। सन 1998 में मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी ने उनके द्वारा संपादित ‘वीर नारायण सिंह‘ का प्रकाशन किया। एक अन्य पुस्तिका 10 मई 2008 को संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ शासन के सौजन्य से प्रकाशित हुई, जिसके संपादक आचार्य रमेंद्र नाथ मिश्र,और लेखक डॉ. श्रीमती सुनीत मिश्र हैं। पुस्तिका का शीर्षक ‘छत्तीसगढ़ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम-1857‘, ‘सोनाखान के जमींदार क्रांतिवीर नारायण सिंह‘ है। इस बीच डॉ. रमेन्द्र नाथ मिश्र, डॉ. श्रीमती सुनीत मिश्र की पुस्तिका ‘छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह‘ का प्रकाशन तथा इसी शीर्षक से पुनर्प्रकाशन हुआ, जिसमें लेखक का नाम नहीं है। इतिहासकार आचार्य रमेन्द्रनाथ मिश्र द्वारा तैयार की गई, किंतु ‘छत्तीसगढ़ जनसंपर्क‘ द्वारा मुद्रित कराई गई इतिहास संबंधी इन पुस्तिकाओं में प्रकाशन तिथि/वर्ष का उल्लेख नहीं है। पुस्तिकाओं में मुख्यमंत्री अजीत जोगी का संदेश है तथा मंत्री माधव सिंह ध्रुव के संदेश में ‘नवनिर्मित छत्तीसगढ़‘ उल्लेख है, इससे अनुमान होता है कि उक्त पुस्तिकाओं का प्रकाशन सन 2000 में हुआ है।


पुस्तिका के मुखपृष्ठ में अंकित है- ‘रायपुर का जयस्तंभ जहां पर वीर नारायण सिंह को फांसी पर लटकाया गया।‘ बैक कवर पर बताया गया है कि ‘सम्प्रति वीर नारायण सिंह का कोई चित्र उपलब्ध नहीं है, रायपुर जेल, संबलपुर, नागपुर, भोपाल, दिल्ली एवं सोनाखान में उनके परिजनों से भी जानकारी ली गई किंतु कोई अधिकृत चित्र उपलब्ध नहीं हो सका। उनके पारिवारिक जनों से प्राप्त जानकारियों के आधार पर चित्र बनाया गया जो कल्पित है, परन्तु वर्णित व्यक्तित्व के अनुरूप है।‘ साथ ही परिकल्पना- डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र और चित्रांकन- अरूण काठोटे का नामोल्लेख है। जबकि 10 मई 2008 को प्रकाशित पुस्तिका के मुखपृष्ठ पर तलवारधारी घुड़सवार का चित्र है, जिसमें आवरण: अजय देशकर, नामोल्लेख है।

इस तारतम्य में शहीद वीर नारायण सिंह की फांसी, फांसी-स्थल, चित्र आदि के बारे में पूछ-परख होती रहती है और बार-बार कई भ्रामक जानकारियां आती रहती हैं। इसलिए यहां कुछ मुख्य तथ्यों और दस्तावेजों को सार्वजनिक किया जा रहा है। माना जाता है कि शहीद वीर नारायण सिंह, गुरु बाबा घासीदास और पं. सुंदरलाल शर्मा की चर्चा 1980 के बाद अधिक होने लगी। पी. साईनाथ की सोनाखान मौके की, टाइम्स ऑफ इंडिया में 1997 में प्रकाशित रपट भी खासी चर्चा में रही थी।

वीर नारायण सिंह से संबंधित तथ्यों का परीक्षण करते हुए प्राप्त दस्तावेजों, चित्रों की प्रति और इस संबंध में मेरी टिप्पणी-

मध्यप्रदेश अभिलेखागार में वीर नारायण सिंह से संबंधित
कम से कम तीन महत्वपूर्ण दस्तावेज होने की जानकारी मिलती है।


वीर नारायण सिंह की गिरफ्तारी
(मिलान/पुष्टि के लिए साथ मूल की प्रति भी लगाई गई है।)


फांसी आदेश की प्रति और यथासंभव पाठ


फांसी की जानकारी वाले पत्र की प्रति 
और यथासंभव पाठ


डाक टिकट, जिसके कारण भ्रम की स्थिति बनी।
बताया जाता है कि विज्ञप्ति जारी कर
डाक-तार विभाग ने इस भूल पर खेद जताया था।
यदि ऐसा नहीं हुआ था, तो ससंकोच कि
अभी तक क्यों नहीं? पहल करने की आवश्यकता है।
और यह भी नहीं तो इस भूल को दुहराने से तो बचें।

सोनाखान के शहीद वीर नारायण सिंह की तस्वीर,
जिसे राजस्थान के ठाकुर नारायण सिंह की तस्वीर में मामूली फेर-बदल कर बनाया गया है।
वर्तमान में यही तस्वीर स्वीकृत-मान्य है, जबकि वीर नारायण सिंह के वंशजों की तस्वीर के आधार पर
अब साफ्टवेयर की सहायता से तस्वीर तैयार कराया जाना चाहिए।

पुराने सर्किट हाउस, वर्तमान राजभवन का चौक,
जहां वीर नारायण सिंह के स्मारक स्वरूप कलाकृति कर लोकार्पण,
तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी ने किया था।
फांसी का स्थान डीकेएस भवन के पीछे
जेल-बैरक भवन के आसपास का कोई स्थान रहा होगा
किंतु अब सामान्यतः वह स्थान आजादी के बाद स्थापित
जय स्तंभ चौक को मान लिया जाता है।
 
डीकेएस अस्पताल के पीछे,
वर्तमान स्वास्थ्य विभाग के कार्यालय से संलग्न भवन,
पुराना जेलखाना, जहां वीर नारायण सिंह कैद रहे होंगे।





लेखक और प्रकाशन वर्ष उल्लेख रहित, सूचना तथा प्रकाशन संचालनालय, भोपाल द्वारा प्रकाशित पुस्तिका का मुखपृष्ठ, जिस पर रमेंन्द्रनाथ मिश्र जी के हस्ताक्षर के साथ तिथि 24.12.83? है। इस पुस्तिका में उल्लेख है कि ‘दिनांक 10 दिसम्बर 1957 को नारायण सिंह को रायपुर के एक प्रमुख चौराहे पर लाया गया, वहां सेना और भारी जनता के सामने क्रान्ति वीर को तोप के गोले से उड़ा दिया गया। वीर नारायण सिंह ने जहां शहादत पाई थी, रायपुर के उस स्थान को आज जय स्तंभ चौक कहते हैं।साथ के अखबार की कतरन में डा. रमेंद्रनाथ मिश्र के हवाले से उल्लेख आया है कि ‘फांसी की सजा के बाद 6 दिन तक शव को फंदे पर ही लटकाए रखा।‘, मगर इस बात का अन्यत्र कोई अधिकृत स्रोत मुझे प्राप्त नहीं हुआ है।

राजवर्द्धिनी संगीता की पुस्तक ‘क्रांति वीर नारायण सिंह‘, सन 2014 में आई। पुस्तक पर ‘संस्कृति विभाग‘ छत्तीसगढ़ शासन के सहयोग से प्रकाशित, छपा है। लेखिका ने मार्गदर्शन के लिए डॉ. र(ा?)मेन्द्रनाथ मिश्रा का शुक्रिया किया है। इस पुस्तक में उल्लेख है- ‘दिनांक 09 दिसम्बर 1857 को इलियट ने रायपुर स्थित तीसरी भारतीय पदाति सेना के कमांडर को सूचित किया कि नारायण सिंह को अगले दिन उषाकाल में फांसी पर लटकाया जाएगा। अतः इलियट ने निवेदन किया कि कमांडर इस कार्यवाही को देखने और जरूरत पर व्यवस्था बनाए रखने के लिए उनकी कमांड में जो रेजीमेंट है उसको जेल के निकट परेड कराये।‘ (पेज-131) तथा ‘आखिरी सांस लेने वाले नारायण सिंह को पकड़कर फांसी के फन्दे तक लाया गया और जबरदस्ती उनको फांसी पर लटकाया गया।‘ (पेज-133)

इस पुस्तक में असंगत जानकारी वाला हस्तलिखित लेखी प्रकाशित है (पेज-156-157), जिसका मजमून शब्दशः पत्र के चित्र के नीचे दिया जा रहा है। साथ ही अगले पेज पर वंशावली दी गई है, जिसके अनुसार पिता-पुत्र क्रम इस प्रकार है-
रामराय - नारायण सिंह - गोविन्द सिंह - भगवान सिंह - बैजल सिंह - रजपाल सिंह - कंवल सिंह - राजेन्द्र सिंह।

मैं दिवान राजेन्द्र सिंह प्रपौत्र स्व शहिद वीर नारायण सिंह अपने पूर्वजों से किंवदन्ती के अनुसार प्रमाणित करता हूं कि -
स्व. शहीद वीर नारायण सिंह को फांसी के पहले अन्तीम इच्छा पुछा गया- विर नारायण सिंह ने अपना राजकिय पोषाक मांगा एवं सिर से लेकर पैर तक दिखने वाला दर्पण की मांग की .

पस्चात् अपने हाथों, शिशा तोड़कर अपना गला काट लिया- जिनके मृत्यूपरान्त फांसी में लटका कर तोप से उड़ाया गया।

श्री रामराय पहले टूड्रा में रहते थे-

माखन द्वारा- (अनाज बंटवाने सम्बन्ध में) विर नारायण सिंह का पुतला एवं जिराबाई का पुतला बनाकर रोज सुबह शाम मारा जाता रहा जब इस घटना का पता चला तो नारायण सिंह द्वारा माखन परिवार का सफाया किया गया.

महाराज साय को मारने गोविन्द सिंह के साथ सम्बलपुर से कुछ सैनिक आये थे। जो वापसी में रास्ता भूल जाने के कारण देवरी वालों द्वारा उनकी देवी र्भे बली चढ़ा दिय गया -

वीर नारायण सिंह जी को ठाकुर-महाराज से सम्बोधित किया जाता था एवं गोविन्द सिंह को- बाबु की उपाधि से सम्बोधित करते थे।

अतः उपरोक्त कथन मैंने अपने पूर्वजों के मुंह से सुना था जो कि मेरी जानकारी में सत्य एवं सही है।

इस लेखी में आदमकद दर्पण में स्वयं की राजकीय (पागा, पिछौरी, पनही वाली) छवि देखना और शीशा तोड़कर गला काट लेना तथ्य नहीं माना जा सकता, मगर इसका आशय प्रतीत होता है कि शीशे को तोड़ कर उसमें बनी अपनी छवि को खंडित करते स्वयं के अस्तित्व को भी उसी तरह बिखर कर नष्ट हो जाने देना है। इस ‘कथन‘ को पूर्वजों के मुंह से सुना बताया गया है। निसंदेह कोई परिवार अपने पितृपुरुषों के स्मरण में उनके प्रति सम्मान और वंश-गौरव का ध्यान अधिक रखता है न कि दस्तावेजी इतिहास का। इस दृष्टि से यह भी इतिहास के उस पार्श्व को प्रकाशित करता है जिससे रासो-प्रशस्ति-स्तुति साहित्य रचा जाता है, अतः मेरे लिए यह इतिहास पूरक, एक कविता की तरह पढ़ा जाने वाला अभिकथन है।

इस बीच प्रधानमंत्री-युवा पुस्तकमाला में बलौदा बाजार निवासी इंदु वर्मा की पुस्तक ‘सोनाखान के सपूत शहीद वीर नारायण सिंह‘ आई है। युवा लेखक का प्रयास, विशेषकर पुस्तक की संदर्भ सूची उल्लेखनीय है। पुस्तक के पेज 66-67 पर वीर नारायण सिंह की फांसी के स्थल के संबंध में इतिहासकारों के दो मत की चर्चा है, मगर फांसी आदेश का चित्र देवनागरी-हिंदी में है, यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह मूल आदेश का अनुवाद है। कुछ अन्य बिंदु जिन पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है, वीर नारायण सिंह के डाक टिकट को छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा 1987 में जारी किया गया बताया है, जबकि डाक टिकट भारत सरकार जारी करती है और तब छत्तीसगढ़ पृथक राज्य भी नहीं था। इसी तरह पेज 24 पर माखनलाल बनिए का गोदाम कसडोल में बताया जाना भ्रामक है।

छत्तीसगढ़ के इतिहास से संबंधित ऐसे कई तथ्य हैं, जो उपेक्षित हैं, नजर-अंदाज हैं या सुविधापूर्ण व्याख्या के साथ, भ्रामक रूप में धड़ल्ले से प्रचलित हैं। आवश्यकता है कि अपने इतिहास के गौरवशाली पन्नों को तथ्य, मूल-प्राथमिक स्रोत और आधार के सहारे सार्वजनिक और स्थापित किया जाय। इतिहास संशोधन के लिए अपने पसंद का इतिहास नहीं, बल्कि प्रयास कर तथ्यात्मक जानकारियों वाला विश्वसनीय इतिहास तैयार करना आवश्यक होता है।

प्रसंगवश, वीर नारायण सिंह वाले माखन साव की जानकारी सामान्यतः नाममात्र को मिलती है। माखन साव कहां के निवासी थे, उनकी धान की कोठी कहां थी, उनका परिवार-वंशज अब कहां है? आदि की चर्चा नहीं होती। इसे इतिहास अध्ययन की दृष्टि से एकांगी माना जाएगा। वीर नारायण सिंह की शहादत का सम्मान और महत्व उन जानकारियों के सामने आने से कम नहीं हो जाता। इसके बावजूद माखन को लगभग सभी लेखन में जमाखोर बनिया बताते हुए अनावश्यक ही खलनायक की तरह उभारा गया है। इस प्रसंग में स्पष्ट करना आवश्यक है कि चर्चित धान की कोठी (ढाबा) ग्राम हसुवा में थी, जो माखन साव के भाई गोपाल साव की देखरेख में थी। माखन साव, शिवरीनारायण का प्रतिष्ठित समाजसेवी, साहित्यप्रेमी परिवार रहा है, जिसका उल्लेख पं. शुकलाल पांडेय की कविता में आया है साथ ही ठाकुर जगमोहन सिंह ने ‘सज्जनाष्टक‘ में उन्हें शामिल किया है। इस केशरवानी परिवार के एक कुल दीपक डॉ अश्विनी केशरवानी का कथन यहां उद्धरण योग्य है- ‘जमाखोर वास्तव में माखन कौन थे, उसे अंधकार में रखकर प्राध्यापकों ने शोध कार्य किया है जो किसी भी मायने में उचित नहीं है।‘ माखन साव से संबंधित विस्तृत जानकारी ‘माखन वंश‘ में उपलब्ध है। 

पुनश्च-

इस पोस्ट पर सुधिजन की टिप्पणियां आईं, जिसमें पीयूष कुमार ने ध्यान आकृष्ट कराया कि इंटरनेट पर वीर नारायण सिंह के नाम पर किस तरह की जानकारियां हैं- 
स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर हम किस प्रकार का ‘भारत माता मंदिर‘ संग्रहालय बनाने जा रहे हैं! इस भ्रामक और आपत्तिजनक सामग्री पर मेरी टिप्पणी।

Thursday, August 11, 2022

समय के सवाल

किस चक्की का पिसा आटा? वाला सवाल, समय के साथ अधिक प्रासंगिक होने लगा है, जब ‘शक्तिवर्धक‘ पैकेटबंद ने हर आम-खास की रसोई में अपनी जगह पक्की कर ली है। आटा, सब्जी, फल, दूध जैसे सभी खाद्य-पदार्थ को खराब होने से बचाए रखने के क्रम में वह कीड़ों के खाने लायक सुरक्षित नहीं रह जाता, हमें खुशी-खुशी अपने लिए उपयुक्त लगता है। जबकि रोजमर्रा के खाद्य पदार्थों में नमक के सिवा सभी कुछ जैविक या जैव-उत्पाद हैं, और इसलिए खाद्य होने की उसकी आयु और स्थिति की सीमा है, इसमें परिवर्तन-प्रासेस, जिसमें स्थानांतरण, हस्तांतरण, परिवहन शामिल, जितना सीमित हो, उतना बेहतर। यह खाने-पीने की शुद्ध-स्वास्थ्यकर सामग्री से ले कर स्वावलंबन तक के लिए सहायक है।

प्रसंगवश, ‘धर्मो रक्षति रक्षितः‘ के तर्ज पर ‘जीवो रक्षति रक्षितः’ कहा जाता है, जिसका सामान्य अर्थ होगा- अन्योन्याश्रय या जीवों की रक्षा करने पर, रक्षित जीव, रक्षक की रक्षा करते हैं। खाद्य के रूप में जीव भोजन बन कर हमारी जीव-रक्षा करते हैं मगर उन्हें भोज्य बनाने के लिए, हमेें अच्छी तरह अधिकतर उनका जीव हरना पड़ता है। साथ ही ध्यान रहे कि सिर्फ मानवता के लिए नहीं, बल्कि अपनी जीवन-रक्षा के लिए भी जीव-रक्षा आवश्यक है। 

भोजन के लिए, उगाना, संग्रहण-भंडारण, कूटना-पीसना और पकाने (सरलतम, भूनना, सेंकना, उबालना) में लगने वाला समय और तरीका स्वावलंबन और स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त, पर्यावरण के अनुकूल था। अब चावल- पालिश्ड से फोर्टिफाइड होने लगा, दाल सुंदर चमकदार पालिश्ड मिलेगा, तेल रिफाइंड, दूध पाश्चराइज्ड, पानी प्यूरीफाइड फिल्टर्ड, और नमक आयोडाइज्ड। सभी, मूल्य और प्रक्रिया संवर्धित। फास्ट फूड दौर के बाद भविष्य कि ‘व्यस्त और सावधान‘ पीढ़ी को रोटी-चावल के बदले कैप्सूल का विकल्प मिल जाए, तो वह उसे राजी-खुशी स्वीकार करने को तैयार होगी।

पुस्तक ‘समय के सवाल‘ समाज के साफ माथे पर गहराती चिंता की लकीरें हैं। यहां भावुक पर्यावरणीय चिंता नहीं हैं, बल्कि तथ्यपूर्ण वैचारिक स्थितियों को रेखांकित किया गया है, जो हम सभी की नजरों के सामने, मगर नजरअंदाज-से हैं। समस्याओं के प्रकटन-विवेचन के साथ-साथ उसके व्यावहारिक निदान की ओर भी ध्यान दिलाया गया है। पुस्तक में हमारी सांस्कृतिक जीवन पद्धति में प्रकृति से सामंजस्य बनाते पर्यावरण के साथ दोस्ताना के बदलते जाने को जिस शिद्दत के साथ अनुपम मिश्र ने दर्ज किया था, माथे पर उभरी वे लकीरें लगातार गहराती जा रही हैं, और समाज ऐसी हर समस्या का तात्कालिक निदान पा कर निश्चिंत-सा है, जबकि सबको खबर है कि कहां, क्या और क्यों गड़बड़ हो रही है। बाजार ने उसे ‘मैं हूं ना‘ समझाते, ‘आश्वस्त‘ कर रखा है। ऐसी हर स्थिति पर सबसे सजग नजर और चुस्त तैयारी बाजार की है। ऐसे मुद्दों की यह पुस्तक, ‘पर्यावरण, धरती, शहरीकरण, खेती, जंगल और जल है तो कल है‘, शीर्षकों के छह भाग में 53 लेखों का संग्रह है।

भाग-1 ‘पर्यावरण‘ और भाग-2 ‘धरती‘ में कोयला बनाम परमाणु उर्जा तथा यूरेनियम के खनन, प्रसंस्करण और परीक्षण या विस्फोट से जुड़ी त्रासदी और जीव-जंतु और वनस्पतियों की तस्करी की ओर तथ्यों सहित ध्यान दिलाया है। साफ शब्दों में आगाह किया गया है- ‘ध्यान रहे, हर बात में अदालतों व कानून की दुहाई देने का अर्थ यह है कि हमारे सरकारी महकमे और सामाजिक व्यवस्था जीर्ण-शीर्ण होती जा रही है और अब हर बात डंडे के जोर से मनवाने का दौर आ गया है। इससे कानून तो बच सकता है, लेकिन पर्यावरण नहीं।‘

ग्लोबल वार्मिंग के तकनीकी पक्षों को आसान रूप में स्पष्ट किया गया है। पत्तों, खर-पतवार को जलाना, नष्ट करने की समस्या का भयावह रूप है वहीं पुस्तक में हिसाब निकाल कर दिखाया गया है कि रात्रिकालीन एक क्रिकेट मैच के आयोजन में लगने वाली बिजली की खपत, एक गांव के 200 दिन के बिजली खपत के बराबर होगा। खदान, बंजर-कृषि भूमि, मरुस्थल, ग्लेशियर, बर्फीले इलाकों को भी शामिल करते हुए बीहड़ में बदलती जमीन को आंकड़ों से स्पष्ट किया गया है कि गत 30 वर्षों के दौरान इसमें 36 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।

भाग- 3 व 4 में ‘शहरीकरण‘ और ‘खेती‘ शीषकों के अंतर्गत दिखाया गया है कि एक तरफ महानगर हैं तो उसके साथ अनियोजित शहरी विकास भी। दिल्ली के भिखारियों के बारे में दिल्ली वालों को भी शायद ही पता हो, कि यहां ‘एक लाख से अधिक लोगों का ‘‘पेशा‘‘ भीख मांगना है। और कई अनधिकृत बस्तियों में बच्चों को भीख मांगने का बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता है। यहीं विकलांग, दुधमुंहे बच्चे, कुष्ठरोगी आदि विशेष मांग पर ‘सप्लाई‘ किए जाते हैं।‘ इसी तरह महानगरीय अपसंस्कृति की देन- अपराध की विवेचना है। जल-निकास, भराव और नदी-तालाबों की स्थिति के साथ एक तरफ जानलेवा जाम है तो दूसरी और फ्लाईओवर से उपजी समस्याएं हैं। सफाई के संकल्प और हकीकत में कचरे और उसके निपटान के चिंताजनक हालात का विवरण है। रेल लाइन के किनारे का कचरा, ई-कचरा और स्वच्छ भारत अभियान की भी विवेचना है। जैसा कि कहा गया है- ‘कचरे को कम करना, निबटान का प्रबंधन आदि के लिए दीर्घकालीन योजना और शिक्षा उतनी ही जरूरी है, जितनी बिजली, पानी और स्वास्थ्य के बारे में सोचना।‘

चाय बागानों से जूट, दाल, कपास की खेती की समस्याएं हैं वहीं भविष्य का सपना देखते, अपनी सुविधा का सामान जुटाते, प्लास्टिक, ई-कचरा, यूज एंड थ्रो, डिस्पोजेबल या नये-पुराने मॉडल का बदलाव, की सच्चाई कि यह कुछ और आगे के भविष्य का कचरा भी है, की ओर ध्यान शायद जाता है। सारा दोष प्लास्टिक-पॉलीथिन के सिर मढ़ते हुए, यह नजरअंदाज हो जाता है कि इससे इतर वस्तुएं भी उत्पादन की प्रक्रिया पूरी होते तक पर्यावरण के लिए कितनी प्रतिकूल हैं। पुस्तक में चौंकाने और चितिंत करने वाला आंकड़ा है कि बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली करीब 200 कंपनियां और 1200 बॉटलिंग प्लांट अवैध हैं। बोतलबंद पानी की खपत दो अरब लीटर पार कर गया है।

भाग-5, जंगल में वन और वन्य प्राणियों मुख्यतः असम में गैंडा, देश के विभिन्न राज्यों में हाथी, शुतुरमुर्ग के पालन और विक्रय, शिकार और संरक्षण की विसंगतियों का चित्रण है। कहा गया है- भूमंडलीकरण के दौर में पुरानी कहावत के जायज, ‘प्यार और जंग‘ में अब ‘व्यापार‘ भी जुड़ गया है। सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों की हकीकत, ‘सफेद हाथी‘ बन गया सोन चिरैया प्रोजेक्ट, ग्वालियर के घाटीगांव और करेरा-शिवपुरी इलाके के गांवों को उजाड़ कर चिड़िया को बसाने का शिगूफा छोड़ा जा रहा है और वह भी तब, जब चिड़िया फुर्र हो चुकी है। सन 1993 में इस अभ्यारण्य क्षेत्र में 5 पक्षी देखे गए, उसके बाद कई साल संख्या शून्य रही, लेकिन सरकारी खर्च होता रहा।

अंतिम भाग-6 ‘जल है तो कल है‘ में जहरीला होते भूजल के विभिन्न मामले, फ्लोराइडग्रस्तता, जल स्रोतों नदी-नालों के प्रभावित होने के बाद ‘सभ्यता‘ की चपेट में आ रहा समुद्र, दिल्ली के पास यमुना में समाहित होने वाली नदी हिंडन, जो लालच और लापरवाही के चलते ‘हिडन‘ बन गई है, का विवरण है। बताया गया है केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक भारत की कुल 445 नदियों में से आधी नदियों का पानी पीने योग्य नहीं है। प्रमुख नदियों गंगा, यमुना और कावेरी के प्रदूषण और अन्य समस्याओं का उल्लेख विशेष रूप से किया गया है।

प्रकृति निर्भर आखेटजीवी-खाद्य संग्राहक यायावर, समय के साथ आत्मनिर्भर, स्वावलंबी गोप-कृषक हुआ। सभ्यता की यह इकाई मानव, औद्योगिक विकास से गुजरते हुए एआई दौर में आ कर वह कर्ता-निमित्त के बाद मैन पावर या मानव-संसाधन, बेजान पुर्जा बनता जा रहा है। जैसा कहा जाता है कि ‘गुलामी की कसौटी कठिन श्रम नहीं या किसी की आज्ञा पालन नहीं। गुलामी की कसौटी है अपने को गैर के हाथों में मशीन बनाकर सिपुर्द कर देने में।‘ हरबर्ट मारक्यूज के जुमले के सहारे- ‘भौतिक समृद्धि के नर्क‘ में छलांग लगाने को उद्यत सभ्यता के वर्तमान में, उसके भविष्य की साफ तस्वीर झलक रही है।

समाज का बड़ा तबका, यहां तक सक्षम जिम्मेदार ओहदाधारियों की मानसिकता भी ‘रोज कमाओ, रोज खाओ’ जैसी गरीबी रेखा के नीचे वाली हो गई है। मानों पूरी सभ्यता ‘एक लालटेन के सहारे‘ सरक रही है, उसे बस अगला कदम दिखता है, लेकिन यह नहीं कि आगे खड्ड, जहां से लौटना संभव नहीं होगा, कितना करीब आ गया है। प्रकृति अपने घाव खुद भरती है, किंतु घाव जो उसके अपने नहीं, ‘सभ्यता‘ ने दिए हैं और बहुत गहरे हैं, शायद वह भी भर जाएं, मगर उसके लिए जितना समय लगेगा, तब तक बहुत देर हो चुकी रहेगी, यों सभ्यता ने इन घावों को अपने हाल पर भी नहीं छोड़ा है, किसी 'झोला छाप डाक्टर वाली समझ और योग्यता' के साथ उसे रोजाना छेड़ने को उत्सुक और जाने-अनजाने उद्यत है। भगवान सिंह के शब्दों में- ‘सचाई यह है कि हमने बहुत बड़ी कीमत देकर बहुत कम पाया है। जिन सुविधाओं पर हमें गर्व है, उनकी यह कीमत कि नदियॉं गंदी हो जाएँ, धरती के नीचे का जल जहरीला हो जाए, अंतरिक्ष कलुषित हो जाए, मोनो ऑक्साइड से ओजोन मंडल फट जाए, और अब तक के ज्ञात ब्रह्मांड की सबसे विलक्षण और सुंदर धरती नरकलोक में बदलती चली जाए।‘

सन 2018 में प्रकाशित इस पुस्तक के समर्पण में ‘जल-जंगल-जमीन‘ के साथ जन और जानवर को भी जोड़ा गया है। लेखक पंकज चतुर्वेदी अपने स्वाभाविक और स्थायी सत्यान्वेषी पत्रकार-तेवर के साथ हैं, मगर जिम्मेदार नागरिक की तरह उपायों की चर्चा भी करते चलते हैं। इस दौर में जब प्रत्येक सत्य-विचार और वक्तव्य, दलगत पक्ष-प्रतिपक्ष से अधिक, समर्थक-विरोधी, राजनीतिक-सापेक्ष होने लगा है, तब नेता, अफसर, व्यापारी और हरेक जिम्मेदार को कटघरे में खड़ा करना उल्लेखनीय है, खासकर इसलिए भी कि इसका प्रकाशन भारत सरकार के ‘वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग‘ और ‘मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी‘ द्वारा किया गया है।