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Wednesday, February 9, 2022

घर पड़ोस देश - राजेन्द्र मिश्र

डॉ. राजेन्द्र मिश्र
17.9.1937 - 23.1.2022
सन 1980, शासकीय दूधाधारी वैष्णव संस्कृत महाविद्यालय, रायपुर। डॉ. राजेन्द्र मिश्र सर हिंदी के प्राध्यापक थे और मैं पुरातत्व का विद्यार्थी। किसी प्रसंग में डॉ. निगम सर ने परिचय कराया, मानों रुचि अनुकूल व्यक्ति के सुपुर्द कर रहे हों। उन दिनों सर अपने व्यक्तित्व के चकाचौंध सहित आते तो हिन्दी के कम अंग्रेजी विभाग के अधिक लगते। कक्षाओं से कहीं अधिक समय चर्चाओं के लिए देते और कोई भी छात्र, जिसे साहित्य में रुचि हो, उसे बराबरी का अवसर देते हुए बात करने को हमेशा तैयार रहते। अच्छा साहित्य पढ़ने का संस्कार डालने के उनके निरन्तर उद्यम में उनका व्यक्तित्व और वक्तृत्व प्रभावी होता। बातों-बातों में खुद साथ पुस्तकालय ले जाते, अपने नाम से पुस्तक ले कर देने में उन्हें हिचक न होती।

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद संस्कृति विभाग की गतिविधियों में मार्गदर्शन के लिए तैयार रहते। डॉ. कल्याण चक्रवर्ती, डॉ. इंदिरा मिश्र, प्रदीप पंत जी और राकेश चतुर्वेदी जी जैसे अधिकारी साहित्यिक आयोजनों के लिए उनसे अवश्य परामर्श करते। मुझे व्यक्तिगत स्तर पर भी उनका मार्गदर्शन और स्नेह मिलता रहता। सन 2013, किसी प्रसंग में मैंने उन्हें एक पत्र लिखा और उनके हाथ में सौंपा, कुछ बातें फोन पर हो चुकी थीं, उन्होंने कहा, पढ़ कर सुनाओ। मैंने लिखा था- लिखना-पढ़ना तो सीख ही लिया था काम भर, लेकिन जिन गुरुओं से संदेह, सवाल और जिज्ञासा के स्वभाव को बल मिला, सिखाया, उनमें आप भी हैं। इस भूमिका पर कहना यह है कि ... ... ... नाम देखा, डॉ. राजेन्द्र मिश्र। आपकी समझ पर कैसे संदेह कर सकता हूं, लेकिन आपके माध्यम से पढ़ने की जो थोड़ी समझ बनी थी, उस पर संदेह हुआ, बावजूद कि यह आपकी नसीहतों पर भी संदेह माना जा सकता है। ... सुनते रहे, खुश हुए, आशीर्वाद दिया, मानों मेरा दीक्षांत हो गया। सन 2015, एक दिन फोन कर ‘जरूरी काम से‘ घर बुलाया और पुस्तक ‘घर पड़ोस देश‘ दी। लिखा- ‘प्रिय राहुल के लिए- सप्रीत‘ और हस्ताक्षर। जरूरी काम का इंतजार करते, विदा लेने का समय होने लगा, तो मैंने पूछ लिया, आपने कुछ काम के लिए कहा था, उन्होंने कहा, यही, किताब तुम्हें देनी थी। पुस्तक पर हस्ताक्षर करते हुए उन्हें तारीख डालने की याद दिलाया, तो मुस्कुराए, कुछ देर रुककर बोले- साथ रखना, जब समय मिले पढ़ते रहना। ... कुछ स्मृतियां कालातीत होती हैं।

पुस्तक के मुखपृष्ठ पर ‘घर पड़ोस देश‘ शीर्षक के साथ राजेन्द्र मिश्र छपा देख कर अनुमान होने लगता है कि पुस्तक खुलते ही आगे साहित्य बिरादरी या साहित्य समाज विद्यमान होगा, पुस्तक पलटते ही भरोसा हो जाता है कि यह प्रकाशक ‘सूर्य प्रकाशन मन्दिर‘ उज्ज्वल-पवित्र और मुद्रक के नाम अनुरूप, ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्‘ होगी। अंदर इसे ‘(संस्मरण संचयन)‘ कहा गया है। पढ़ते हुए यह ‘चुनी हुई रचनाएं‘ या षष्ठिपूर्ति का खंड बन जाता है।

किसी सजग, संवेदनशील का जीवन भी वही होता है, जैसा अन्य किसी का, लेकिन उसके जीवन में बीतता-घटता कुछ अलग ढंग से दर्ज होता रहता है, यह ढंग शायद थोड़ा अलग होता है देखने का और लिखें तो शायद कुछ कहने का, इसलिए। राजेन्द्र मिश्र जी को पिछले 40 साल से सुनता-पढ़ता रहा हूं। बार-बार पढ़ना कभी तो मनोरंजक होने के कारण, लेकिन यह इसलिए कि हर बार नया लगता है, मानों मेरी समझ को अलग-अलग ढंग से टटोल रहा हो, सक्रिय कर रहा हो, आचार्यवत्।

25 साल की उम्र से आरंभ गृहस्थ-जीवन में घर जुड़ कर घर-गिरस्ती बनती है। यह घर, कभी पड़ोस में तो कभी दूर-देश, एक और घर की रचना है। मजेदार कि कई बार अपने ही घर में, एक और घर के बीज पड़ जाते हैं, तब स्वाभाविक ही एक पड़ोस भी बनने लगता है। जब लेखा-जोखा, खाता-बही, जमा-नामे, पावती-देनदारी बनती है तो कभी बैंलेंस शीट का सब बराबर हो गया हिसाब लगता है तो कभी लगता है कि हासिल आया शून्य, ऐसा शून्य जो आसानी से हासिल होता है।

पुस्तक पढ़ते हुए ध्यान गया कि लेख आरंभ करने की राहुल सांकृत्यायन या पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की शैली मुझे बहुत अच्छी लगती है, सीखने लायक, किस सहजता से पाठक को विषय प्रवेश कराया जाए। पता भी नहीं चलता कि बातों-बातों में कब भूमिका से गहन विषय में पहुंच गए हैं। इस पुस्तक में ध्यान गया कि लेख को पूरा किस खास अंदाज से किया जाता है। कुछ नमूने देखिए- ‘कविता को पांडुलिपि में पढ़ने और फिर उसे प्रकाशित पुस्तक में पढ़ने का अनुभव, मुझे लगता है, एक-सा नहीं हो सकता।‘ डॉम मोरैस पर नोट को उन्हीं की टिप्पणी के साथ पूरा किया था कि ‘आदिवासी नृत्य और संगीत में परंपरा इतनी है कि वह मिटाई नहीं जा सकती सिवाय उन लोगों के जो उसे सुरक्षित रखना चाहते हैं।

पुस्तक से बाहर, सर ने कभी टोका था, ये ‘मौलिक संस्कृति‘ क्या हुआ!, संस्कार हुआ वही तो संस्कृत हुआ, संस्कृति हुआ, फिर मौलिक क्या। मुलाकातों में शब्द-चर्चा जरूर होती, बताते थे- अज्ञेय के शब्द विमोचन नही लोकार्पण, पूर्वग्रह न कि पूर्वाग्रह। अशोक बाजपेयी द्वारा प्रचलित पड़ताल, सरोकार, उत्कट और शायद विमर्श के ‘देश‘ से ‘घर-पड़ोस‘ में लौट आते हैं, मां को याद करते हैं पपीता नहीं अरमपपई, के साथ फिर ऐसे गढ़े आधुनिक शब्दों की चर्चा होती है। फिर जो सिर्फ छत्तीसगढ़ी में हैं, मगन मन याद करते- ‘लपक-झपक आवत होही मोर अलबेला, खिरकी ले झांकय त एक डांग बेरा‘। ‘दसमत‘ पर उन्होंने अपने खास अंदाज में टिप्पणी की थी। छत्तीसगढ़ी का ढिंढोरा उन्होंने कभी नहीं पीटा, लेकिन शब्दों के उस मर्म तक सहज पहुंच जाना और बात की बात में ऐसे मुकाम तक पहुंचा देना, जो उनके साथ बिना शायद संभव होता।

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के दौर में द्विमासिक ‘रचना‘ का विशेष अंक, नवंबर-दिसंबर 2000 प्रकाशित हुआ था, वे इस अंक के अतिथि संपादक थे। सम्पादकीय ‘रचना का जनपथ: जनपथ की रचना‘ में उन्होंने लिखा- ‘हम उम्मीद व्यक्त करते हैं कि छत्तीसगढ़ की राजसत्ता एवं वैचारिक पहल के साथ यहां के सांस्कृतिक जीवन और उसे, संभव बनाने वाले संस्कृति कर्मियों से एक सम्मानजनक संवाद बनाए रखने का उद्यम करेगी।‘ ऐसी पहल करने से वे स्वयं कभी नहीं चूके। रचना के इस अंक के आमुख-लेख के लिए उन्होंने मेरे ‘छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़िया‘ का चयन किया था।

लगभग 25 बरस पहले ताला देवरानी मंदिर पर की तस्वीर,
जिसमें मिश्र सर के साथ सुश्री वीणा वर्मा, विनोद जी,
बिलासपुर के तत्कालीन आयुक्त श्री मदन मोहन उपाध्याय
और अशोक जी दिखाई पड़ रहे हैं, नामवर जी पिछड़े हुए बातें सुन रहे थे।

विनोद कुमार शुक्ल जी, यों उनके करीब थे ही, लगभग पड़ोसी भी थे। मिलने जाने पर, पहुंचते-निकलते हमेशा पूछ लेते, विनोद जी के यहां गए?, विनोद जी के यहां जाओगे? सर और विनोद जी पढ़ने-लिखने, सार्थक बातचीत का हाल, शहर की ऐसी खबरें, पूछते रहते थे, इसी क्रम में मैंने उनसे ‘नुक्कड़‘ चलने का प्रस्ताव रखा। अगस्त 2018, विनोद जी और सर शाम 6 बजे समय नियत कर, ‘कुछ देर‘ के लिए मेरे साथ निकलने को तैयार हो गए और नुक्कड़ की छत पर रात साढ़े नौ बजे तक हम सबके साथ बैठ कर बातें करते रहे थे।
‘नुक्कड़‘ में
गौरव गिरिजा शुक्ला, तरुण गोस्वामी और प्रियंक पटेल के साथ

मेरी पुस्तक पर ठीक साल भर पहले सर का आशीर्वाद ‘नवभारत‘ समाचार पत्र के रविवारीय में 24 जनवरी 2021 को प्रकाशित हुआ था। सर के अवसान की सूचना मिली, महीना भी नहीं बीता था, आलोक जी और सौरभ के साथ उनके निवास पर गया था। अपनी पुस्तक ’छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध‘ को याद करते ‘विनय पत्रिका‘ में रम गए थे। इस साल 2022 में इसी तारीख को उनके अवसान के अगले दिन निर्देश पालन करते ‘छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध‘ की दो प्रतियां, यशस्वी और अनन्या को सौंप कर आया। 

पुस्तक समीक्षा 
विधाओं का अतिक्रमण 

कृति- एक थे फूफा 
लेखक- राहुल कुमार सिंह 
समीक्षक- राजेन्द्र मिश्र 

गति के साथ स्थिति को संभव बनाने वाली यह पुस्तक साहित्य की परिचित विधाओं का अतिक्रमण करती है. यह न तो सुगठित कहानी है और न कोई उपन्यास. भारतीय आख्यान-शिल्प की तरह इसमें भी एक केन्द्रीय चरित्र है, शेष सभी चरित्र भी किसी न किसी तरह उससे जुड़े हुए हैं. अनाम पात्र इस दुनिया में कुछ रूपक भी हैं, जो वस्तुपरक यथार्थ को व्यंजना बहुल बनाते हैं. 

-दो- 
‘बाजन लागे अनंद बधाई, धरती में गड़ा सोना, जागते रहो का लैंडलार्ड, खाता न बही फूफा सही, तोते का पिंजरा में जीव, माई के पेट म, पच्चिस पिला‘ आदि आख्यान के भीतर रचे उपशीर्षक हैं, जो अपने विस्तार में फूफा की परिकल्पना को उचित ब्यौरों के साथ प्रस्तुत करते हैं. फूफा के जीवन जीने का अपना तर्क है. सौंदर्य उपभोग्य है इस तथ्य को अच्छी तरह जानते हैं. जाहिर है इससे संबंधों में एक तरह से सहज नहीं हो पाते. बाबू के साथ भी उनका सम्बंध तनाव भरा है. 

-तीन- ‘संभव है इसका कारण, फूफा की अपनी रामकहानी हो, जिसके कई अध्याय हैं. ये अध्याय वर्ग-प्रकरण हैं तो कहीं कांड जैसे. इस गाथा के बाहर अवांतर, प्रसंग, क्षेपक कथाएं भी है.‘ इस आख्यान में फूफा का एक स्वतंत्र व्यक्तित्व भी है और प्रतीक पात्र के रूप में उसे अपने वर्ग की चिंता, लगाव, द्वन्द और दुविधा को व्यक्त करने वाला प्रतिनिधि चरित्र भी कहा जा सकता है. दोनों ही स्तरों को एक साथ साधना चुनौती भरा काम हो सकता है.

-चार- लिखित शब्द की शक्ति से आप सुन सकें, अनुभव कर सकें और सबसे पहले देख सकें. उसका लक्ष्य केवल ऐन्द्रिय बोध को परिभाषित करना नहीं है. समग्रता आवृत्ति परक न होकर गति परक है. ‘एक थे फूफा‘ की संरचना सगतिक है. वैभव प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में रेखाचित्र हैं. कामना करता हूं कि इस पुस्तक को अधिक से अधिक पाठक मिले.

‘घर पड़ोस देश‘ पढ़ते नोट्स लेता रहा, कुछ लिखता रहा, गुनता भी रहा, सर ने कभी समझाया था, लिखने-छपने में जल्दबाजी ठीक नहीं, समाचार तो लिखना नहीं है, सर नहीं हैं, उनकी सीख का संबल है ... 

उनके लेखन में बात पूरी करने का अनूठा तरीका याद आ रहा है, ‘‘यह सच है कि सभी साक्षात्कार अधूरे होते हैं, लेकिन क्या ईमानदारी से उद्वेलित ‘अधूरे साक्षात्कार‘ भी मनुष्य और रचना के भरे-पूरे आख्यान नहीं होते?‘‘ और विसंगतियों पर सर की मुस्कुराहट याद करते हुए मैं खुद भी मुस्कुराना चाहता हूं, उन्होंने लिखा है- ‘ग़ालिब मुस्कुराते हुए रोना खूब जानते हैं।‘

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