Pages

Wednesday, February 2, 2022

छत्तीसगढ़ी - अनेकता में एकता के सूत्र

डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा
‘रचना‘ द्विमासिक पत्रिका का अंक-27, नवंबर-दिसंबर 2000 में प्रकाशित हुआ। छत्तीसगढ़ राज्य गठन काल के इस अंक के अतिथि संपादक डॉ. राजेन्द्र मिश्र थे। अंक में प्रख्यात भाषाविज्ञानी डॉ. रमेश चंद्र मेहरोत्रा का ‘छत्तीसगढ़ी बोली‘ शीर्षक लेख है। इस लेख के चयनित अंश यहां प्रस्तुत हैं- 

छत्तीसगढ़ी पर ग्रियर्सन के सर्वेक्षण (लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, 1904, 1968) का ऐतिहासिक महत्व तो है, पर उन के सहायकों की सीमाओं के कारण उस की प्रामाणिकता पर प्रायः उँगलियाँ उठती रही हैं। यों भी उस कार्य को इस दिशा में पर्याप्त विस्तृत शोधपरक आयाम जुड़ जाने के कारण बासी कहना कोई अपराध नहीं होगा। विस्तृत कार्य-सूची अगले पैरों में दी जाएगी; पहले छत्तीसगढ़ी के अंतर्गत बोली-रूपों के वर्ग-बंधन की दृष्टि से केवल दो कार्यों की तुलना द्रष्टव्य है। भालचंद्र राव तैलंग ने सन् 1966 ई. के अपने ग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ी, हलबी, भतरी बोलियों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन‘ में ग्रियर्सन का ही अनुसरण किया है, जो इस प्रकार है - (1) छत्तीसगढ़ी (अथवा खलटाही अथवा लरिया), (2) सरगुजिया, (3) सदरी-कोरबा, (4) बैगानी, (5) बिंझवारी, (6) कलंगा, (7) भूलिया, परंतु नरेंद्रदेव वर्मा ने इस में संशोधन कर के सन् 1979 ई. में अपने ग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास‘ में विश्लेषण को आगे बढ़ाया है। उन्होंने छत्तीसगढ़ी के अंतर्गत दो भाषिक-भेद रायपुरी और बिलासपुरी (पार्थक्य की भौगोलिक विभाजक रेखा शिवनाथ नदी को स्वीकार करने के साथ) स्थापित करते हुए खलटाही और लरिया की अलग-अलग निजता सिद्ध की है तथा हलबी (या बस्तरी) को सूची में बढ़ा दिया है। उन्होंने सन् 1961 ई. के जनगणना-प्रतिवेदन में छत्तीसगढ़ी के अंतर्गत दी गई सोलह मातृभाषाओं का वर्ग-बंधन अपने द्वारा प्रदत्त बोली-रूपों के साथ निम्नानुसार किया है - खलटाही, लरिया, सरगुजिया, बैगानी, बिंझवारी और भूलिया पृथक-पृथक; बिलासपुरी का अंतर्भाव छत्तीसगढ़ी में; काँकेरी का समाहार हलबी (या बस्तरी) में; एवं देवार बोली, सतनामी, गोरो, गौरिया, नागवंशी, पंडो, पनकी और धमदी जातिनामाधारित और स्थाननामाधारित मातृभाषाओं का समावेश अपने-अपने क्षेत्र में प्रचलित प्रमुख बोली-रूपों में। 

छत्तीसगढ़ी पर प्रकाशित भाषिक कार्यों में से आगे की पंक्तियों में केवल समूची पुस्तकों या उन के खंडों में प्रस्तुत कार्यों का कालानुक्रमशः उल्लेख किया जा रहा है - 

‘छत्तीसगढ़ी बोली का व्याकरण‘, हीरालाल काव्योपाध्याय (अनु.) ‘ए ग्रामर ऑफ छत्तीसगढ़ी डायलॅक्ट‘, जीए ग्रियर्सन (1890) (मूल ग्रंथ अनुपलब्ध)। 
‘ए ग्रामर ऑफ छत्तीसगढ़ी डायलॅक्ट ऑफ हिंदी‘, लोचन प्रसाद पांडेय (1921)। 
‘लिस्ट ऑफ मोस्ट कॉमन छत्तीसगढ़ी वर्ड्स एण्ड डिक्शनरी‘, ई डब्ल्यू मेनजेल (1939)। 
‘छत्तीसगढ़ी, हलबी, भतरी बोलियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘, भालचंद्र राव तैलंग (1966)। 
‘छत्तीसगढ़ी बोली, व्याकरण और कोश‘, कांति कुमार (1969)। 
‘छत्तीसगढ़ी का भाषाशास्त्रीय अध्ययन‘, शंकर शेष (1973)। 
‘छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास‘, नरेंद्रदेव वर्मा (1979)। 
‘छत्तीसगढ़ी-लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘, मन्नूलाल यदु (1979)। 
‘छत्तीसगढ़ी शब्दकोश‘, (सं.) रमेश चंद्र महरोत्रा एवं अन्य (1982)। 
‘छत्तीसगढ़ी और खड़ी बोली के व्याकरणों का तुलनात्मक अध्ययन‘, साधना जैन (1986)। 
‘छत्तीसगढ़ी-मुहावरा-कोश‘, (सं.) रमेश चंद्र मेहरोत्रा एवं अन्य (1991)। 
‘छत्तीसगढ़ी की व्याकरणिक कोटियाँ‘, (सं.) चित्त रंजन कर (1993)। 
‘संकल्प: छत्तीसगढ़ी भाषा विशेषांक‘ (अतिथि सं.) विनय कुमार पाठक (1994)। 
‘छत्तीसगढ़ी में उपसर्ग‘, नरेंद्र कुमार सौदर्शन (1996)। 
‘हिंदी की पूर्वी बोलियाँ‘ (‘छत्तीसगढ़ी‘, रमेश चंद्र मेहरोत्रा) हरियाणा साहित्य अकादमी, चंडीगढ़ (प्रकाश्य)। 

छत्तीसगढ़ी के वर्णनात्मक-संरचनात्मक, संवहनात्मक, ऐतिहासिक, तुलनात्मक, व्यतिरेकी, शब्दवैज्ञानिक, नामवैज्ञानिक, बोलीभौगोलिक, समाज-भाषावैज्ञानिक, अर्थवैज्ञानिक और लोकभाषिक आदि विविध पक्षों पर हुए पी-एच.डी. तथा डी.लिट्. स्तरीय शोधकार्यों की अल्पाधिक प्रकाशित-अप्रकाशित सामग्री का संकेतात्मक विवरण इस प्रकार है-
 
‘रायपुर जिले की जनभाषा रायपुरी‘, शीतला प्रसाद वाजपेयी (1968) 
‘छत्तीसगढ़ी-स्वनों और रूपों का उद्विकास‘, नरेंद्रदेव वर्मा (1973)। 
‘छत्तीसगढ़ी-लोकोक्तियों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘, मन्नूलाल यदु (1973); 
‘छत्तीसगढ़ के कृषक-जीवन की शब्दावली‘, पालेश्वर प्रसाद शर्मा (1973)। 
‘मध्यप्रदेश में आर्यभाषा-परिवार की बोलियाँ‘, प्रेम नारायण दुबे (1974)। 
‘द लिंग्विस्टिक स्टडी और नेम्स इन दी डिस्ट्रक्टस ऑफ रायपुर एंड दुर्ग‘, एन.एस. साहू (1975)। 
‘छत्तीसगढ़ी-प्रहेलिकाएँ एवं तदाघृत संस्कृति‘, बिहारी लाल साहू (1975)। 
मुरिया और उस पर छत्तीसगढ़ी का प्रभाव‘, तारा शुक्ला (1976)। 
‘छत्तीसगढ़ी-मुहावरों और कहावतों का सांस्कृतिक अनुशीलन‘, चंद्रवली मिश्र (1976)। 
‘छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त परिनिष्ठित हिंदी और इतर भाषाओं के शब्दों में अर्थ-परिवर्तन‘, विनय कुमार पाठक (1978)। 
‘छत्तीसगढ़ी और उड़िया में साम्य और वैषम्य तथा छत्तीसगढ़ी में उड़िया-तत्व‘, ध्रुव कुमार वर्मा (1978)। ‘छत्तीसगढ़ी के अभिलेखों का नामवैज्ञानिक अनुशीलन‘, चित्त रंजन कर (1982)। 
‘छत्तीसगढ़ी में व्यवहृत रिश्ते-नातों से संबंधित शब्दावली का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘, सतीश जैन (1983)। 
‘छत्तीसगढ़ी के क्षेत्रीय एवं वर्गगत प्रभेदों के वाचकों की भाषावैज्ञानिक प्रतिष्ठापना‘, व्यास नारायण दुबे (1983)। 
‘छत्तीसगढ़ी-व्यक्तिनामों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘ (डी.लिट.), विनय कुमार पाठक (1985)। 
‘मानक हिंदी और छत्तीसगढ़ी के समान शब्दों का अर्थवैज्ञानिक अध्ययन‘, शैल शर्मा (1988)। 
‘छत्तीसगढ़ी-क्रियाओं की व्याकरणिकता‘, रामानुज शर्मा (1994)। 
‘मानक हिंदी तथा छत्तीसगढ़ी के भेदक तत्वों का अर्थपरक अध्ययन‘, नरेंद्र कुमार सौदर्शन (1995)। 
‘मानक छत्तीसगढ़ी का अर्थपरक अध्ययन‘, पूनम वर्मा (1995)। 
‘अकाउस्टिक डिस्टिंक्टिव फीचर्स ऑफ छत्तीसगढ़ी सॅगमैंटल्स‘ (डी.लिट्.), ए.एस. झाडगाँवकर (1996)। 

छत्तीसगढ़ी की भौगोलिक व्यापकता और प्रयोक्तागत बहुलता के साथ इस के अंतर्गत बहुत-से नाम-रूप सम्मिलित होते गए हैं, जो अलग-अलग उपक्षेत्रों (प्रयोग के स्थानों) के नाम अथवा उन्हें प्रयुक्त करने वाली जातियों के नाम पर आधारित हैं। जनगणना प्रतिवेदनों में छत्तीसगढ़ी के साथ परिगणित मातृभाषाओं की संख्या का और क्षेत्र में प्रचलित अन्य विविध अभिधानों की संख्या का छत्तीसगढ़ी बोली की भाषा विज्ञान-सम्मत उपबोलियों की संख्या के साथ सीधा-टेढ़ा कोई ताल-मेल नहीं बैठता। प्राप्त हुए कुल ‘नामरूप‘ अधिकांश के संक्षिप्त परिचय के साथ इस प्रकार हैं (इन्हें ‘उपबोलियों‘ में निबद्ध बाद में प्रस्तुत किया जाएगा) - 

1. (केंद्रीय-क्षेत्रीय) छत्तीसगढ़ी - इस का प्रयोग पूर्वी सीमांत को छोड़ कर रायपुर और महासमुंद ज़िलों, बिलासपुर और जांजगीर-चांपा ज़िलों के दक्षिणी भाग, दुर्ग और धमतरी ज़िलों, राजनांदगाँव और कवर्धा ज़िलों के पूर्वी भाग, रायगढ़ जिले के पश्चिमी भाग, तथा काँकेर जिले में होता है। ग्रियर्सन ने छत्तीसगढ़ी, खलटाही और खरिया को एक ही माना था। 
2. खलटाही या खलताही या खलवाटी - इस का प्रयोग बिलासपुर, कवर्धा और राजनांदगाँव जिलों के पश्चिमी भागों, मंडला के पूर्वी सीमांत तथा बालाघाट के पूर्वी भाग में होता है। बालाघाट जिले और मैकल पर्वत के लोग छत्तीसगढ़ी को खलौटी या खुलौटी और यहाँ की बोली को खलवाटी बोलते रहे हैं। यह नाम जनगणना-प्रतिवेदन में नहीं है। संभवतः मातृभाषियों ने अपने को सीधे छत्तीसगढ़ी-भाषी बताया होगा। 
3. लरिया या लड़िया - इस रूप का प्रयोग रायपुर और महासमुंद जिलों के उड़िया प्रदेश में प्रविष्ट हुए और होते हुए भागों और संबलपुर के आस-पास होता है। उड़िया-क्षेत्र के लोग छत्तीसगढ़ी को लरिया-प्रदेश और यहाँ की बोली को लरिया नाम से संबोधित करते हैं। 
4. कलंगा - उड़िया से प्रभावित यह रूप रायपुर जिले के पूर्वी सीमांत पर और उड़िसा की सीमा पर पटना में कुछ कबीलों द्वारा व्यवहत किया जाता रहा है। ग्रियर्सन ने इसे छत्तीसगढ़ी की उपबोली कहा था, पर सेंसस में इस का नाम नहीं आया है। कुछ लोग इसे उड़िया के अंतर्गत रखते हैं। 
5. कलंजिया - इस की स्थिति कलंगा के समान है। 
6. कवर्धाई - कुछ लोगों के लिए कवर्धा जिले में बोली जानेवाली छत्तीसगढ़ी कवर्धाई है। 
7. काँकेरी - इस का प्रयोग काँकेर जिले में होता है। छत्तीसगढ़ी का यह रूप हलबी से तथा उड़िया की बोली भतरी से संपर्कित है। 
8. खैरागढ़ी - खैरागढ़ की छत्तीसगढ़ी को कुछ लोग खैरागढ़ी कहते हैं। 
9. गोरो - छत्तीसगढ़ी का यह रूप असम पहुँचे हुए छत्तीसगढ़ी लोगों के द्वारा प्रयुक्त होता है। सेंसस-अधिकारियों ने इसे बोलने वालों की स्लिपों की छान-बीन में यह पाया कि इस के प्रयोक्ता बैगा थे। इस दृष्टि से यह छत्तीसगढ़ी के बैगानी कहे जानेवाले रूप के निकट हुआ। इस पर असमिया का थोड़ा-मोड़ा प्रभाव पड़ जाना स्वाभाविक है। 
10. गौरिया - यह रूप पश्चिम बंगाल में मिला। सेंसस के समय इस के प्रयोक्ताओं में से कुछ ने कोष्ठकों में स्वयं को छत्तीसगढ़ी-भाषी लिखा था। 
11.जशपुरी - यह नाम छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्व में स्थित जशपुर जिले की छत्तीसगढ़ी के लिए प्रयुक्त मिलता है। 
12. डंगचगहा या डंगचगही या नटी - यह छत्तीसगढ़ी बोलने वाले मध्यक्षेत्र के यायावर नटों की मातृभाषा का नाम है। 
13. देवार बोली या देवरिया - इस का प्रयोग प्रमुखतः रायपुर, महासमुंद और धमतरी जिलों में देवार जाति द्वारा होता है।
14. धमदी या धमधी - धमदा नामक स्थान दुर्ग जिले में है। धमदी नाम के प्रयोक्ता महाराष्ट्र में बसे हुए वे छत्तीसगढ़ी-भाषी हैं, जिन्हें स्थानीय सूचनाओं के आधार पर सेंसस वालों ने छत्तीसगढ़ीभाषी सिद्ध किया है। 
15. नांदगाही - ‘कहने वाले लोग‘ राजनांदगाँव ज़िले की छत्तीसगढ़ी को नाँदगाही कहने में खुशी महसूस करते हैं। 
16. नागवंशी - इस के बहुत ही कम मातृभाषी हैं, जो सरगुजा ज़िले और रायगढ़ जिले में रहते हुए स्थानीय पूछताछ के उत्तर में स्वयं को छत्तीसगढ़ी-भाषी स्वीकार करते हैं। 
17. पंडो - यह रूप भी मुख्यतः सरगुजा और रायगढ़ में प्रयुक्त होता है। इस के कुछ प्रयोक्ता उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ कर सतना में बस गए हैं।
18. पनकी - इस का प्रयोग-स्थल बस्तर है। 
19. पारधी - इस नाम के साथ छत्तीसगढ़ी के प्रयोक्ता छत्तीसगढ़ के केंद्रीय क्षेत्र में मिलते हैं। 
20. बहेलिया - दुर्ग, राजनांदगाँव, रायपुर, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा और कोरबा में इधर-उधर छितरी हुई बहेलिया जाति द्वारा व्यवहृत छत्तीसगढ़ी का नाम बहेलिया चलता है। 
21. बिंझवारी या बिंझवाली - इस नाम-रूप का प्रयोग मुख्यतः रायपुर, महासमुंद और रायगढ़ ज़िलों के पूर्वी भागों में तथा उड़ीसा के पटना में बिंझवार, भूमियाँ और भुजिया जातियों द्वारा व्यवहृत छत्तीसगढ़ी के लिए होता है। 
22. बिलासपुरी - इस के भाषी मध्यप्रदेश के बाहर असम, पश्चिम बंगाल और बिहार में भी रहते हैं (देखिए ऊपर क्रमांक 9. गोरो और क्रमांक 10. गौरिया), जो कभी बिलासपुर जिले से वहाँ गए थे।) 
23. बैगानी - छत्तीसगढ़ी की प्राचीन बैगा जनजाति के लोगों के द्वारा प्रयुक्त इस रूप पर गोंडी-शब्दावली तथा बुंदेली के व्याकरण का प्रभाव है। इस के प्रयोक्ता रायपुर और बिलासपुर जिलों से पश्चिम की ओर बढ़ते हुए कवर्धा जिले और बालाघाट तक फैले हैं। 
24. भूलिया उड़िया से प्रभावित इस रूप का प्रयोग रायगढ़ जिले के दक्षिण (सारंगढ़) से उड़ीसा के पटना और आगे सोनपुर तक के जुलाहों द्वारा होता है। इसे कुछ लोग उड़िया के साथ रखते हैं (देखिए ऊपर क्रमांक 4. कलंगा)। सरईपाली इन भाषाओं के लिए प्रमुख प्रवेशद्वार है। 
25. मरारी - यह पश्चिम में बालाघाट की ओर मरार जाति के साथ जुड़ी है। इसे सेंसस में दक्षिणी बघेलखंडी माना गया है। 
26. रतनपुरी - यह बिलासपुर जिले की ऐतिहासिक नगरी रतनपुर के नाम पर संबोधित है। 
27. रायपुरी - रायपुर जिले में व्यवहत छत्तीसगढ़ी के लिए यह नाम कुछ लोगों के द्वारा बिलासपुरी के सादृश्य रख लिया (ऊपर संकेतित पी-एच.डी. शोधग्रंथ ‘रायपुर जिले की जनभाषा रायपुरी‘ द्रष्टव्य)। इस शब्द का प्रयोग सेंसस में नहीं हुआ है। 
28. शिकारी - इस की स्थिति बहेलिया के समान है (देखिए ऊपर क्रमांक 21.) 
29. सतनामी - यह रूप बिलासपुर, जांजगीर-चाँपा, कोरबा, रायपुर, महासमुंद, धमतरी और दुर्ग जिलों में छितरी हुई, स्वयं को उच्च सामाजिक वर्ग का माननेवाली, सतनामी जाति के द्वारा प्रयुक्त होता है। 
30. सदरी-कोरबा - ग्रियर्सन द्वारा छत्तीसगढ़ी के अंतर्गत मान्य यह रूप जशपुर जिले की कोरबा जाति के द्वारा व्यवहत होता है और यह सरगुजिया के पर्याप्त समान है। इस के भाषी कोरबा जिले में और रायगढ़ जिले के उत्तरी भाग में भी हैं। सेंसस में यह नाम नहीं मिलता, पर अन्य अर्थों में (अन्य भाषा-रूपों के संदर्भ में) सदरी भी मिलता है और अलग कोरबा भी। उस में सदरी का नाम सदान भी देते हुए, उसे बिहारी की एक मातृभाषा स्वीकार किया गया है सदान लोग बिहार और मध्यप्रदेश के छोटा नागपुर पठार के निवासी हैं। सदरी या सद्री या साद्री या सदान या सदानी या टिक्कूबाज़ी को कुछ लोग भोजपुरी के अंतर्गत रखते हैं तथा इस के दक्षिणी रूप को नागपुरी या नगपुरिया कहते हैं। पुस्तकों में यह लिखा मिलता है कि सदरी या नगपुरिया भोजपुरी और छत्तीरसगढ़ी का मिश्रित रूप है (अवधी के छुटपुट प्रभाव के साथ)। सेंसस में अलबत्ता कोरवा है (कोरबा नहीं), जो एकदम भिन्न खेरवारी के साथ है। 
31. सरगुजिया या सुरगुजिया या सुरगुजिहा - छत्तीसगढ़ी के इस रूप पर भोजपुरी के अलावा बघेली का और आग्नेय-परिवार की उराँव का भी कुछ प्रभाव है। ऊपर क्रमांक 30. में संकेत किया गया है कि सदरी-कोरबा इस से पर्याप्त समानता रखती है। इस का प्रयोग सरगुजा कोरिया, जशपुर ज़िलों में और रायगढ़ जिले के उत्तरी भाग में होता है। 
32. हलबी - कुछ लोग इस नाम का प्रयोग बस्तर के संभ्रांत कुल की छत्तीसगढ़ी के लिए करते हैं। कुछ लोग इसे काँकेरी के पर्याय के रूप में प्रयुक्त करते हैं। बस्तर जिले में प्रयुक्त होने वाला यह भाषा-रूप नीचे लिखे गए इस के उपरूपों सहित सेंसस और कुछ लोगों द्वारा मराठी के अंतर्गत रखा गया है। इस के लगभग सब भाषी केंद्रीय छत्तीसगढ़ी या मानक हिंदी या गोंडी की किसी बोली पर अतिरिक्त अधिकार रखते हैं। आगे हलबी से संबद्ध उपरूपों के नामों की सूची और यथा-आवश्यक टिप्पणियाँ दी गई हैं। 
33. अदकुरी या अडकुरी। 
34. चंदारी या चंडारी। 
35. जोगी - संख्या समाप्त प्राय है। 
36. धाकड़ - (सेंसस में नहीं है) 
37. नाहरी। 
38. महरी या मेहरी या मुहारी। 
39. मिरगानी। 
40. बस्तरी या बस्तरिया - कुछ लोग इसे हलबी का एक उपरूप न मान कर पूरी हलबी के लिए प्रयुक्त करते हैं। 
41. कमारी - इसे रसेल और हीरालाल ने छत्तीसगढ़ी में माना है। 

उपर्युक्त बोली-रूपों में से स्थान के आधार पर नामकरण के उदाहरण काँकेरी, जशपुरी, नांदगाही, बिलासपुरी, रायपुरी, बस्तरी और स्वयं छत्तीसगढ़ी आदि हैं तथा जाति के आधार पर नामकरण के उदाहरण कमारी, नटी, बहेलिया, बिंझवारी, बैगानी, मरारी, सतनामी और हलबी आदि हैं। 

यदि छत्तीसगढ़ी से जुड़े सभी स्थान-नामों और जाति-नामों को रद्द करके विविध मतों को मथने के बाद छत्तीसगढ़ी बोली के भाषिक प्रमुख रूप गिनाए जाएँ, तो उस के केवल ये पाँच रूप ठहरते हैं - केंद्रीय, पश्चिमी, उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी। छोटे-मोटे भीतरी भेदों के बावजूद ये पाँच आधार-उपबोलियाँ पर्याप्त हैं। भले ही इन्हें स्थान-विशेष या जाति-विशेष के साथ आत्मीय भाव से जोड़ना सुखद और व्यवहारोपयोगी कार्यान्वयन है। लेख में संकेतित कुल 41 नाम-रूपों की उपबोलियों से संलग्नता इस प्रकार है- 

1. केंद्रीय छत्तीसगढ़ी (मानक हिन्दी से इतर बाह्य प्रभावों की सघनता से मुक्त) - कवर्धाई, काँकेरी, खैरागढ़ी, गोरो, गौरिया, केंद्र-क्षेत्रीय छत्तीसगढ़ी (ऊपर क्रमांक 1. में उल्लिखित रूप), डंगचगहा, देवार बोली, धमदी, नांदगाही, पारधी, बहेलिया, बिलासपुरी, बैगानी, रतनपुरी, रायपुरी, शिकारी, सतनामी। (कुल 18; इन में अगुआ - केंद्र-क्षेत्रीय छत्तीसगढ़ी।) 
2. पश्चिमी छत्तीसगढ़ी (बुंदेली और मराठी के तत्वों से संवलित) - कमारी, खलटाही, पनकी, मरारी। (कुल 4; इन में अगुआ - खलटाही।) 
3. उत्तरी छत्तीसगढ़ी (बघेली, भोजपुरी और उराँव के तत्वों से संवलित) - पंडो, सदरी, कोरबा, जशपुरी, सरगुजिया, नागवंशी। (कुल 5; इन में अगुआ - सरगुजिया।) 
4. पूर्वी छत्तीसगढ़ी (उड़िया के तत्वों से संवलित) - कलंगा, कलंजिया, बिंझवारी, भूलिया, लरिया। (कुल 6; इन में अगुआ - लरिया) 
5. दक्षिणी छत्तीसगढ़ी (पश्चिम से मराठी, पूर्व से उड़िया और दक्षिण से गोंडी के तत्वों से संवलित) - अदकुरी, चंदारी, जोगी, धाकड़, नाहरी, बस्तरी, महरी, मिरगानी, हलबी। (कुल 9; इन में अगुआ - हलबी।)

1 comment:

  1. पहिली घांव मा अटक गेंव, दुसरइया मा भटक गेंव. काल तिसरइया घांव तोर बासंती कामना ह कोजनी कतिहां पटकही!!

    ReplyDelete