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Friday, January 28, 2022

ताला की विलक्षण प्रतिमा

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के अवसर पर मध्यप्रदेश शासन, उच्च शिक्षा विभाग एवं मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी का समवेत उपक्रम, द्विमासिक ‘रचना‘ के अंक-27, नवंबर-दिसंबर 2000 में मुखपृष्ठ पर ताला, अमेरीकांपा, बिलासपुर की प्रसिद्ध प्राचीन प्रतिमा ‘रूद्र शिव‘ का चित्र प्रकाशित हुआ था। अंक के अतिथि संपादक डॉ. राजेन्द्र मिश्र थे। इस अंक के विभिन्न महत्वपूर्ण लेखों में एक लेख ‘ताला की विलक्षण प्रतिमा‘ मुखपृष्ठ के चित्र से संबंधित यानि ताला की इस प्रतिमा पर भी था। इसमें किसी एक मूर्ति पर एकाग्र पुस्तक ‘रिडिल ऑफ इण्डियन आइकनोग्राफी‘ का उल्लेख है, यहां प्रस्तुत लेख डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम ने लिखा है साथ ही उक्त पुस्तक के संपादक के रूप में इस प्रतिमा का परिचय भी उन्होंने पुस्तक में दिया है, जो यहां अंत में प्रस्तुत है। चित्र में दोनों प्रकाशन दृष्टवय हैं। 


सभ्यता के विकास के साथ ही मानव में कलात्मक प्रवृत्तियों का विकास भी स्पष्टतः दृष्टिगत होता है। गायन, वादन, नृत्य, संगीत के साथ-साथ अभिनय, चित्रकला और मूर्तिकला को कलात्मक प्रवृत्तियों के रूप में स्वीकृत किया जाता है। कालान्तर में कला के अन्तर्गत अनेक विषयों को सम्मिलित कर दिया गया और साहित्य में सामान्यतः 64 कलाओं का उल्लेख होने लगा। वात्स्यायन के कामसूत्र में 66 कलाओं का विवरण मिलता है। इसके अन्तर्गत ललित अथवा शिल्प कला के साथ ही दैनिक जीवन, पारम्परिक व्यवसाय आदि से सम्बन्धित विषयों को भी समाहित किया गया है।

कला के विभिन्न रूपों में मूर्तिकला का एक विशिष्ट स्थान रहा है। शिल्प शास्त्रीय परम्परा में मूर्तियों अथवा प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है। सामान्यतः प्रतिमा और मूर्ति में कोई विशेष अन्तर नहीं माना जाता। ‘प्रतिमा‘ शब्द का अर्थ, ‘प्रतिरूप‘ होता है, अर्थात किसी आकृति की प्रतिकृति को प्रतिमा कहा जा सकता है, किन्तु शास्त्रीय परम्परा में प्रतिमा को ‘अर्चा‘ से जोड़ दिया गया है। इस प्रकार प्रतिमा को किसी धार्मिक अथवा दार्शनिक सम्प्रदाय से सम्बन्धित होना आवश्यक माना जाने लगा। मूर्ति के लिए इस प्रकार की बाध्यता नहीं रही। इसीलिए प्रतिमा निर्माण में निश्चित नियमों तथा लक्षणों का पालन आवश्यक होता है, जबकि मूर्ति निर्माण में शिल्पी को अधिक स्वतंत्रता होती है।

भारतीय शिल्प में मूर्ति तथा प्रतिमा निर्माण की दीर्घकालीन परम्परा रही है। कला इतिहास के विद्वानों ने इन प्रतिमाओं की उनके लक्षणों एवं शैलियों के आधार विवेचनाएँ प्रस्तुत की हैं किन्तु कभी-कभी ऐसी विलक्षण प्रतिमाएँ प्राप्त हो जाती हैं, जो पुरातत्ववेत्ताओं और कला-इतिहासज्ञों के लिए समस्या बन जाती हैं, ऐसी ही एक प्रतिमा लगभग ग्यारह वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश के बिलासपुर जिले में प्राप्त हुई है।

बिलासपुर से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर, मनियारी नदी के तट पर, अमेरी काँपा नामक ग्राम के निकट ‘ताला‘ नामक स्थल पर दो प्राचीन भग्न मंदिर स्थित हैं, जो देवरानी-जेठानी मंदिर के नाम से प्रख्यात हैं। रायपुर-बिलासपुर मार्ग पर भोजपुरी नामक ग्राम से इसकी दूरी लगभग छह किलोमीटर है। जेठानी मंदिर अत्यन्त ध्वस्त अवस्था में है, जबकि देवरानी मंदिर अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में है। देवरानी और जेठानी मंदिर अपनी विशिष्ट कला के कारण देश-विदेश के कला प्रेमियों के लिए आकर्षण का केन्द्र हैं, मध्यप्रदेश शासन के पुरातत्व विभाग ने यहाँ समय-समय पर मलबा सफाई तथा संरक्षण का कार्य कराया है। इसी क्रम में भारतीय में प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी डॉ. के.के. चक्रवर्ती के मार्गदर्शन में इस स्थल की मलबा सफाई का कार्य, उस समय बिलासपुर में पदस्थ पुरातत्व विभाग के अधिकारी द्वय सर्वश्री जी.एल. रायकवार तथा राहुल सिंह द्वारा कराया गया, जिससे 17 जनवरी 1988 को एक विलक्षण प्रतिमा यहाँ से प्रकाश में आई।

यह विशाल प्रतिमा लगभग 9 फीट ऊँची तथा 5 टन वजनी तथा शिल्प की दृष्टि से अद्भुत है। इसमें शिल्पी ने प्रतिमा के शारीरिक-विन्यास में विभिन्न पशु-पक्षियों का संयोजन किया है। प्रतिमा के शीर्ष भाग में पगड़ीनुमा सर्प-युग्म का अंकन मिलता है। नासिका और आँखों की भौंह का निर्माण उतरते हुए छिपकली सदृश्य प्राणी से किया गया है। मूछों के अंकन में मत्स्य-युग्म प्रयुक्त है, जबकि ठुड्डी का निर्माण कर्क (केकड़ा) से किया गया है। कानों को मयूर-आकृतियाँ सदृश्य चित्रित किया गया है। सिर के दोनों पार्श्वों में फणयुक्त सर्प का चित्रण है। कंधों को मकर-मुख सदृश्य बनाया गया है, जिससे दोनों भुजाएँ निकलती हुई दिखाई देती हैं। शरीर के विभिन्न आंगों में सात-मानव-मुखों का चित्रण मिलता है। वक्ष-स्थल के दोनों ओर दो छोटे मुखों को अंकित किया गया है। उदर का निर्माण एक बड़े मुख द्वारा किया गया है। यह तीनों मुख मूछों से युक्त हैं। जंघाओं में सामने की ओर अंजलिबद्ध दो मुख तथा दोनों पार्श्वों में दो अन्य मुख अंकित हैं। दो सिंह-मुख घुटनों में प्रदर्शित किए गए हैं। उर्ध्वाकर लिंग के निर्माण के लिए मुँह निकाले कच्छप (कछुए) का प्रयोग है। घण्टा की आकृति के अण्डकोष कछुवे के पिछले पैरों से बने हैं। सर्पाे का प्रयोग उदर-पट्ट तथा कटिसूत्र के लिए किया गया है। हाथों के नाखून सर्प-मुख जैसे हैं। बायें पैर के पास भी एक सर्प का अंकन मिलता है।

इस प्रकार की प्रतिमा देश के किसी भाग से नहीं मिली है और न ही शिल्प-शास्त्रों में इसका उल्लेख मिलता है। प्रतिमा के लक्षणों के आधार पर इस सम्बन्ध में निम्नलिखित अनुमान व्यक्त किया जा सकता है:

1. यह प्रतिमा शैव परम्परा से संबंधित प्रतीत होती है। विभिन्न पशु-पक्षियों का चित्रण इसके पशुपति रूप का परिचायक कहा जा सकता है, शिव प्रतिमा के लक्षणों, यथा डमरू, त्रिशूल, नंदी आदि का यद्यपि इसमें अभाव है फिर भी सर्पों की उपस्थिति एवं उर्ध्वाकार लिंग, इसे शैव-परम्परा से सम्बद्ध करता है। 
2. यह प्रतिमा देवरानी मंदिर के प्रवेश-द्वार के निकट से प्राप्त हुई है तथा आकार-प्रकार में द्वारपाल सदृश्य दिखाई पड़ती है, अतः इसके द्वारपाल परम्परा से सम्बन्धित होने का अनुमान किया जा सकता है,
3. विशालकाय शरीर, सिर पर पगड़ी तथा उन्नत उदर के आधार पर यह यक्ष मूर्तियों के सदृश्य दिखाई पड़ती है।

कला-इतिहासकारों ने इस प्रतिमा के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करते हुए इसे लकुलीश, रूद्र-शिव, द्वादशमुख-शिव, यक्ष रूप में शिव आदि से समीकृत करने का प्रयास किया है। कुछ विद्वान इसमें तांत्रिक प्रभाव देखते हैं तथा कुछ इसमें अभिचारिक परम्परा का समावेश होने की सम्भावना व्यक्त करते हैं, इस प्रतिमा को लगभग छठवीं शताब्दी ई. के मध्य का माना जाता है। कलाशैली की दृष्टि से इस प्रतिमा की तुलना नागपुर के निकट मांडल से प्राप्त शिव प्रतिमाओं से की जा सकती है, मांडल से चतुर्मुखी, अष्टमुखी एवं द्वादशमुखी शिव प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं किन्तु ताला की प्रतिमा शिल्पांकन एवं प्रतीक की दृष्टि से अद्भुत एवं मौलिक कही जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न प्राणियों यथा-जलचर (मछली, मकर आदि), थलचर (सिंह, छिपकली आदि), उभयचर (कछुवा, केकड़ा, सर्प आदि) तथा नभचर (मयूर) का अंकन समस्त चराचर जगत का परिचारक कहा जा सकता है। इसी आधार पर इस प्रतिमा को शिव के ‘विश्व-रूप‘ से अभिज्ञानित करने का प्रयास भी किया गया है।

इस प्रतिमा में अंकित विभिन्न पशु-पक्षियों का अंकन किस उद्देश्य से किया गया है? वर्तमान में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। इसमें अंकित विभिन्न प्रतीकों का अर्थ निकालने के लिए इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता प्रयत्नशील हैं। प्रसिद्ध कला-समालोचक एवं हार्वर्ड विश्वविद्यालय में भारतीय कला इतिहास के प्रोफेसर डॉ. प्रमोद चन्द्र, जो इस मूर्ति की खोज के समय ताला में उपस्थित थे, ने विचार व्यक्त किया है कि यह प्रतिमा कला-इतिहासकारों के लिए कम से कम एक शताब्दी तक समस्या बनी रहेगी। भारतीय कला के देश-विदेश के अध्येता इस प्रतिमा के रहस्य की खोज में लगे हुए हैं। इन पंक्तियों के लेखक के सम्पादन में एक पुस्तक ‘रिडिल ऑफ इण्डियन आइकनोग्राफी‘ का प्रकाशन हुआ है, जिसमें विश्व के पन्द्रह अध्येताओं ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। किसी एक मूर्ति पर केन्द्रित एकाग्र प्रकाशन पहली बार किया गया है। यद्यपि इस अध्ययन से इस मूर्ति के अभिज्ञान की दिशा में नए आयाम मिले हैं तथापि अन्तिम निष्कर्ष अभी तक नहीं निकल पाया है।

प्रतिमा के अभिज्ञान तथा प्रतीकों के संबंध में भले ही मतभेद हों किन्तु इस तथ्य में कोई सन्देह नहीं है कि शिल्पी ने मूर्ति के संयोजन में अपनी मौलिक कल्पना का अद्भुत परिचय दिया है और साथ ही भारतीय परम्परा के विभिन्न आयामों को समेकित रूप में प्रदर्शित करने का अनोखा प्रयास भी किया है। 

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The image under discussion is 2.70 metre in height and approximately five tonnes in weight. This two-armed image standing in samapāda posture is massively built with emphasis on muscular strength. It has unusual iconographic features depicting various animals alongwith human and lion heads components. The description of the image is interesting enough. A turban made of a pair of snakes. The serpent is probably a favourite depiction of the artist. Therefore, the waist band and finger nails are also designed like snake. Apart from these, a pair of serpent-hood figures on either side of the head above the shoulders. A snake is also shown entwining the left leg. Among other animals, peacock is depicted ornamenting ears. Eyebrows and nose are made of a descending lizard. Eyelash are either in the pattern of an open mouth of a frog or the mouth of a roaring lion. Two figures of fish form moustaches of the image alongwith the upper lip, while the lower lip and the chin are shaped like a crab. Both the shoulders have depiction of makara (crocodile). Seven human heads as body are engraved in various parts of the body. Of these a pair of small heads may be seen on either side of the chest. A bigger face forms the abdomen. These three faces have moustaches. Each thigh consists of a pair of heads of which two smiling faces are carved on the front side in añjali-baddha posture, while the other two are carved on sides. Heads of lion are depicted on each knee. The ūrdhvamedhra (penis-erectus) is made of head and neck of a tortoise. Two bell-like testicles are designed as forelimbs of the same animal. The legs of the icon are formed in the shape of elephant's legs.

प्रसंगवश- धमनी, चकरभाठा निवासी पं. अजय शर्मा का ताला से घनिष्ठ लगाव रहा है, उनमें काव्य प्रतिभा तो है ही, लोकमन के भावों को सहज अभिव्यक्त करने का कौशल भी है, उनकी काव्य पुस्तिका ‘गाथा बगरे नता‘ में एक तरह से इस प्रतिमा से अपना नाता रेखांकित किया है-

रूद्र शिव सिंगार
(तालागांव)

भोलेबाबा, भोलेबाबा, तोर लीला अपरमपार।
तालागांव म खड़े, जीव जंतु के करे सिंगार।।

रूद्र रूप के बाना म, तय महा बिकराल।
भक्त रक्षा करथस, बारो मास आठो काल।।

उँगरी म पहिरे, नाग लोक के कतको सांप।
दरसन भर म, तनधारी के, भसम होथे पाप।।

नाक भऊँ छिपकिल्ली, पूँछी तिलक लगाये हस।
बिखहर राज के बांधे पागा, अद्भुत रूप बनाये हस।।

दुनो कान म, होके मस्त, नाचय मन मजूर।
हमरो सुन ले बबा, कर दे जमो दुःख दूर।।

खांध म बईठे मंगरा, मच्छरी के मेंछा अईठे।
जऊन रूप म भजथे तोला, दिखथस तेला तईसे।।

हिरदय म मनखे, पेट हवय महाकाल।
जेती देखबे तोर रूप, हवय बिकराल।।

थोथना म केकरा ओरमे, झपकी मारथे बेंगवा।
कऊँवा, गरूड़, कम्मर ओरमे, माड़ी गरजथे बघवा।।

कुकरी अड़वा के बट बट ले आंखी लक-लक लउकथे।
पहिली कोन आईस, घट घट वासी पूछत हे।।

नारी महिमा हवय अपार तोर गोदी म पाथे दुलार।
तंय ओला अइसे संवारे, उही बने हे श्रृष्टि अधार।।

अवतारी कच्छप ल लिंग रूप बइठारे।
आदि अनादि के संघरा पूजा बने जोग बइठारे।।

तालागांव के रूद्रशिव, तंय अद्भुत रूप धरे।
जल, थल नभचर के सिंगारी, विश्व रूप तय धरे।।

1 comment:

  1. ऊँगारी की जगह उँगरी
    नाक आऊँ की जगह नाक भऊँ
    महिला की जगह महिमा
    आदरणीय भईया जी ,पुस्तक में प्रिंट मिस्टेक है 🙏

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