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Tuesday, November 2, 2021

जांजगीर का विष्णु मंदिर

बीसेक साल पहले मेरे द्वारा तैयार किया गया लेख

जांजगीर के विष्णु मंदिर की पृष्ठभूमि में आस-पास से प्राप्त विभिन्न पुरातात्विक सामग्री इस नगर के इतिहास को आदिम युग अथवा कम से कम मध्य पाषाणयुग से सम्बद्ध करती है। आदिम युगीन चित्रित शैलाश्रय, सिंघनपुर और कबरा पहाड़ जैसे स्थानों से ज्ञात हैं। चांपा के निकट हसदेव नदी के तट से मध्य पाषाणयुगीन औजार प्राप्त हुए हैं। इसी प्रकार ऐतिहासिक युग की आहत मुद्राएं ठठारी से प्राप्त हुई हैं। प्राचीन यात्रा पथ पर स्थित जांजगीर, वाराणसी को रामेश्वरम् से सम्बद्ध करता था। एक अन्य प्राचीन मार्ग सोनहत, मातिन, पाली, बलौदा, जांजगीर और शिवरीनारायण से गुजरने की जानकारी भी मिलती है। जांजगीर की प्राचीनता के स्पष्ट प्रमाण यहां के मंदिर हैं।

लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व, पुरातत्वीय सर्वेक्षणकर्ता अधिकारी जे.डी. बेगलर के अनुसार यह स्थान निश्चय ही प्राचीन है और पुराने समय में यहां अनेक मंदिर रहे होंगे। इस तरह बेगलर ने वर्तमान मंदिरों के अलावा अन्य मंदिरों के अस्तित्व और मंदिरों की संभावना भी व्यक्त की है। पुराने शासकीय प्रतिवेदनों में उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह भी रोचक है कि यहां मंदिर के रख-रखाव और अनुरक्षण के लिए सन् 1907 में रु. 4068/, 1909 में रु. 702/, 1910 में रु. 1120/, 1916 में रु. 29/, 1917 में रु. 9/, 1918 में रु. 7/, 1920 में रु. 420/, इस प्रकार राशि व्यय हुई।

अभिलिखित प्रमाणों में ‘जाजल्लपुर’ नगर, रतनपुर राज्य के हैेहयवंशी राजा जाजल्लदेव प्रथम (ईस्वी सन् 1090-1120) ने बसाया था। जांजगीर नाम इसी जाजल्लपुर का अपभ्रंश माना जाता है, इसके साथ ही जांजगीर, दन्तकथाओं की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध और रोचक है। एक दन्तकथा का उल्लेख बेगलर ने भी किया है, जिसके अनुसार- शिवरीनारायण और जांजगीर के मंदिर निर्माण में प्रतियोगिता थी, क्योंकि भगवान नारायण ने घोषणा की थी कि जो मंदिर पहले पूर्ण होगा, वे उसी में प्रविष्ट होंगे। शिवरीनारायण का मंदिर पहले पूरा हुआ और नारायण ने उसमें प्रवेश किया, फलस्वरूप जांजगीर के मंदिर को उसी स्थिति में अधूरा छोड़ दिया गया।

जांजगीर क्षेत्र में प्रचलित दंतकथाओं में, इस प्रतियोगिता में पाली के मंदिर को भी सम्मिलित बताया जाता है। किंवदती में कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण छमासी रात में हो रहा था, यानि तब रात छः महीने की हुई थी। शिवरीनारायण और पाली के मंदिर भी इसी रात में बनाए जा रहे थे, किन्तु इस मंदिर पर शिखर की तैयारी हो रही थी, तभी पक्षियों ने चहचहाना आरंभ कर दिया और यह अधूरा रह गया। इस दंतकथा के कथाकार, पार्श्व में स्थित शिव मंदिर को इस मंदिर का शिखर बताते हैं। छमासी रात में मंदिर निर्माण की कथा छत्तीसगढ़ में बहुप्रचलित और अंचल के अन्य मंदिरों के साथ भी सम्बद्ध है।

दो अन्य रोचक दंतकथाएं भी जांजगीर में प्रचलित है। ये दोनों कथाएं महाबली भीम से संबंधित हैं। एक कथा के अनुसार मंदिर से लगे तालाब को भीम ने पांच बार फावड़ा चला कर खोदा था, इसीलिए तालाब का नाम भीमा तालाब हुआ। दूसरी कथा में महाभारत युद्ध में भीम ने कौरव सेना के जिन हाथियों को पूंछ पकड़ कर, घुमाकर फेंका था, उनमें से चार यहां आकर गिरे और भीम उस पर सवार हुए।

इस मंदिर के निर्माण से संबंधित एक अन्य किंवदंती में भीम को इस मंदिर का शिल्पी कहा जाता है। कथा संक्षेप में इस प्रकार है- एक बार विश्वकर्मा और भीम के बीच एक रात में मंदिर बनाने की होड़ हुई। मंदिर बनने आरंभ हुए। भीम द्वारा इस मंदिर का निर्माण करते हुए छेनी-हथौड़ी नीचे गिर जाती थी तब भीम का हाथी गिरे उपकरण लाकर पुनः भीम को दे देता था। यही क्रम चलता रहा, किन्तु एक बार भीम की छेनी छिटक कर निकटस्थ तालाब में चली गई, जब तक हाथी तालाब से छेनी निकाल कर ला पाता, तब तक सबेरा हो गया। भीम ने गुस्से में आकर हाथी के दो टुकड़े कर दिए और मंदिर अधूरा रहा। लगभग पचास वर्ष पुरानी स्मृति वाले कुछ लोग, विश्वासपूर्वक यह अनहोनी भी बयान करते हैं कि मंदिर के पास पुराने पीपल वृक्ष पर, जो अब नहीं रहा, पुराने समय के औजार अटके रह गए थे।

वैसे परंपरा में भीमा को पानी का देवता माना जाता है और इस मंदिर को भीमा मंदिर कहा जाता है साथ ही शिखर रहित होने के कारण नकटा मंदिर भी कहा जाता है। इस प्रकार विष्णु मंदिर के निर्माण, भीमा या रानी तालाब और महाबली भीम से सम्बद्ध, चाव से सुनी-सुनाई जाने वाली विभिन्न किंवदंतियों को जन्म देने वाला यह मंदिर, जांजगीर के भीमा तालाब के पश्चिमोत्तर तट पर अपना कला-वैभव समेटे खड़ा है।

स्थापत्य की दृष्टि से मंदिर के चतुर्दिक विशाल जगती या चबूतरा 33.3 मीटर लंबा, 22.3 मीटर चौड़ा और 2.75 मीटर ऊंचा है, जिसके पूर्वी हिस्से का कुछ भाग पुनर्निर्मित किया गया है। इस भाग में विभिन्न स्फुट प्रतिमाओं के साथ राम कथा के दृश्य फलक भी जड़े गए हैं, जिनमें एक फलक पर धनुर्धारी राम, सीता और लक्ष्मण को रावण तथा मृग सहित अंकित किया गया है। दूसरे फलक पर रावण का भिक्षाटन तथा सीताहरण दिखाया गया है। तीसरा अंकन, राम द्वारा एक बाण से सात ताल वृक्षों को भेदने का है। एक अन्य फलक पर सेतुबंध हेतु पाषाण-खंड ढोते वानर अंकित हैं। एक फलक पर सहस्रबाहु कार्त्तवीर्यार्जुन और रावण के युद्ध का दृश्य है। जगती के मूल अवशिष्ट भाग में विष्णु व अन्य देव प्रतिमाओं के साथ पौराणिक कथानकों से संबंधित मानवाकार प्रतिमाएं हैं, जिनमें विशेष उल्लेखनीय प्रतिमा पश्चिम भाग पर कृष्ण-कथा से संबंधित है। कृष्ण-जन्म के पश्चात् वसुदेव द्वारा बालकृष्ण को यमुना पार करा कर नन्द के घर छोड़ने का प्रसंग दर्शाते हुए वसुदेव, कृष्ण को दोनों हाथों से सिर के ऊपर उठाए, गतिमान दिखाए गए हैं। जगती की योजना और अलंकरण विधान, शास्त्रीय प्रतिमानों के अनुरूप है। जगती का यह स्वरूप भारतीय स्थापत्य कला का अत्यंत उन्नत और विशिष्ट उदाहरण है।


क्षैतिज धरातल पर भू-योजना में पूर्वाभिमुख मंदिर का मूल विमान-गर्भगृह, कपिली-अन्तराल और सोपान क्रम सहित प्रवेश द्वार सुरक्षित है। गर्भगृह का भीतरी भाग वर्गाकार है, जिसकी प्रत्येक भुजा 3.9 मीटर तथा बाहरी माप 7.7 मीटर वर्ग है। गर्भगृह से संलग्न आयताकार अन्तराल का माप 2.15X1.76 मीटर है। 1.2 मीटर चौड़े प्रवेश द्वार के पार्श्व अर्द्धस्तंभों, सिरदल के ऊपर की अनगढ़ शिला और जगती के अनुपात के आधार पर यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि मंदिर की मूल योजना में मण्डप का भी स्थान था। जगती के ऊपर पहुंचने के लिए सीढ़ियां, अनुरक्षण कार्यों का परिणाम है। सीढ़ी के ऊपर दाहिनी ओर रखी प्रतिमाएं भीम और उसके हाथी की बतलाई जाती हैं।

मंदिर के उर्ध्वाधर रेखा अर्थात उत्सेध में सादी सपाट खरशिला के ऊपर अलंकृत व स्तरित पीठ है, जिसमें क्रमशः एकान्तर क्रम में त्रिभुजाकार आकृतियां, हीरक आकृतियां, वृत्त अलंकरण और तत्पश्चात् नुकीली सूचिका है। इसके ऊपर गतिमान हाथियों की पट्टी, गजथर और घुड़सवारों की पंक्ति, अश्व-नरथर है। इसके ऊपर वेदिबंध के हिस्से में कीर्तिमुख आकृतियों की ग्रासपट्टी और हंस पंक्ति है, इसी भाग पर प्रक्षेपों में विष्णु के चौबीस रूप- केशव, नारायण, माधव, गोविन्द, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, ऋषिकेश, पद्मनाभ, दामोदर, संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, पुरुषोत्तम, अधोक्षज, नरसिंह, अच्युत, जनार्दन, उपेन्द्र, हरि और कृष्ण आलों में निर्मित हैं। इसके ऊपर अलंकृत थरों के पश्चात् दो तल वाली जंघा का भाग है। जंघा के ऊपर शिखर-मूल अवशिष्ट है।

मंदिर का प्रवेश द्वार अत्यंत अलंकृत व भव्य है। शास्त्रीय प्रतिमानों के अनुरूप, विकसित और उन्नत प्रवेशद्वार, पांच शाखाओं में विभक्त है, जिसमें तीन भीतरी शाखाओं मेें दोनों पार्श्वों पर नदी देवी- गंगा, यमुना और वैष्णव द्वारपालों की मानवाकार प्रतिमाएं हैं। ऊपरी भाग में स्तंभ शाखा पर कोष्ठकों में देव प्रतिमाएं हैं। अन्य शाखाओं पर नागबंध और लता-वल्लरी अलंकरण है। सिरदल पर मध्य में विष्णु तथा पार्श्वों में ब्रह्मा तथा शिव हैं साथ ही नवग्रहों का अंकन भी किया गया है। देहरी पर उदुम्बर भाग में मानव व नाग-पुरूष उपासकों तथा गज और वृषभ का अंकन है। द्वार पार्श्व के दोहरे अर्द्धस्तंभ पट्टियों में विभक्त हैं, जिन पर साधक, उपासक, नर्तक और वादक-वृंद दिखाए गए हैं।

मंदिर का महत्व और आकर्षण, जंघा भाग पर उत्कीर्ण विष्णु के अवतार, शैव, सूर्य, देवियां, अष्ट दिक्पाल व विशिष्ट मुद्राओं में योगी, अप्सराएं तथा व्याल प्रतिमाएं हैं। विष्णु के अवतारों में नृसिंह का अंकन मंदिर की दक्षिणी भित्ति पर है, अष्टभुजी प्रतिमा के हाथों में चक्र, खड्ग, वज्र, पाश व शंख है। नृसिंह गोद में हिरण्यकश्यप को लिए, दोनों हाथों के नाखून से उसका वध कर रहे हैं। दक्षिणी भित्ति पर ही वराह अवतार की प्रतिमा है, चतुर्भुजी वराह के दाहिने ऊपरी हाथ में चक्र्र, निचले हाथ में गदा है। बायां ऊपरी हाथ विशिष्ट मुद्रा में तथा निचले हाथ में शंख है। प्रतिमा के दोनों पार्श्वों में परिचारिकाओं का अंकन है तथा गदा के पास भूमि पर नाग पुरुष अंकित है, जिसके सिर पर सर्पफण-छत्र है। वामन अथवा त्रिविक्रम अवतार का अंकन पश्चिमी भित्ति पर है, चतुर्भुजी प्रतिमा की भाव-भंगिमा रौद्र है। दाहिनी ऊपरी भुजा उठी हुई है और निचला हाथ ज्ञानमुद्रा में है। बाएं ऊपरी हाथ में शंख है, निचला हाथ खंडित है। पैर, जो संभवतः ऊपर उठा रहा होगा, अब भग्न हो चुका है।

मंदिर की अन्य उल्लेखनीय प्रतिमाओं में चतुर्भुजी गणेश की नृत्य मुद्रा है। प्रतिमा का दायां पैर, बायीं ओर मुड़ा है और बायां पैर मुड़कर आसन पर स्थित है। बाएं पैर के पास, वाहन मूषक दिखाया गया है। मोदक पात्र सहित प्रतिमा में शुण्ड, बायीं ओर मुड़कर मोदक को स्पर्श कर रहा है। शूर्पकर्ण, गजवदन प्रतिमा लम्बोदर है और यज्ञोपवीत, कंकण व पैंजनी धारण किए है। महत्वपूर्ण माने जाने वाले स्थान, मंदिर के पृष्ठ भाग के प्रक्षेप अर्थात् मध्य रथ में सूर्य का अंकन हुआ है। उपानह और कवचधारी सूर्य, प्रतिमा शास्त्र के निर्देशों के अनुरूप समपाद स्थानक मुद्रा में है और प्रतिमा के पादपीठ पर सप्ताश्व अंकित हैं।

मंदिर स्थापत्य की पारम्परिक प्रतिमाओं में जंघा के दोनों तलों पर अष्ट दिक्पालों की प्रतिमाएं हैं। अष्ट दिक्पालों में प्रथम, इन्द्र पूर्व दिशा का अधिपति है, जिसे यहां पूर्वी भित्ति के दक्षिणी छोर पर अंकित किया गया है। दक्षिण-पूर्व अथवा आग्नेय कोण का अधिपति, अग्नि दक्षिणी भित्ति के पूर्वी छोर पर दिखाया गया है। इस क्रम में आगे मृत्यु के देवता और दक्षिण दिशा के स्वामी यम, दक्षिणी भित्ति के पश्चिमी छोर पर विराजमान हैं। राक्षसों जैसे क्रूर स्वरूप और राक्षसेन्द्र नाम से ज्ञात, नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) कोण के स्वामी निऋति, पश्चिमी भित्ति के दक्षिणी छोर पर स्थापित हैं। विश्व को जलयुक्त रखने वाला, पश्चिमी दिशाधिपति वरुण, मंदिर के पश्चिमी भित्ति के उत्तरी छोर पर हैं। उत्तर-पश्चिम अर्थात् वायव्य दिशा के पालनहार, मन तुल्य देव वायु की प्रतिमा उत्तरी भित्ति के पश्चिमी छोर पर अंकित है। उत्तर दिशा के अधिपति धनद कुबेर का अंकन उत्तरी भित्ति के पूर्वी छोर पर है और उत्तर-पूर्व कोण, ईशान के ईश पूर्वी भित्ति के उत्तरी छोर पर अंकित हैं।

मंदिर की अन्य महत्वपूर्ण प्रतिमाओं में वैष्णवी, माहेश्वरी, सरस्वती और अम्बिका देवियां हैं। जंघा के उत्तरी तलछंद में आभूषणों से अलंकृत वैष्णवी के दाहिने ऊपरी हाथ में शंख, निचले हाथ में श्रीफल अथवा पुष्प, बायें ऊपरी हाथ में चक्र, निचले हाथ में गदा है। दक्षिणी तलछंद के एक अन्य अंकन में वैष्णवी को अष्टभुजी प्रदर्शित किया गया है, मानवमुखी गरुड़ पर आसीन देवी शंख व चक्र आयुध युक्त हैं। उत्तरी जंघा में अंकित माहेश्वरी की प्रतिमा, पारम्परिक अलंकरण और आयुध सहित अंकित है, दाहिनी ओर नन्दी मुंह ऊपर उठाए प्रदर्शित है। पश्चिमी भाग में चतुर्भुजी वीणापाणी सरस्वती का अंकन है। इसी दिशा में अम्बिका दाहिने हाथ के अंगूठे और तर्जनी से आम्रगुच्छ पकड़े हैं तथा बायीं ओर बालक लिए हुए हैं। प्रतिमा के शीर्ष भाग पर भी आम्रकोरक का अलंकरण है।

मंदिर में व्यालों और विभिन्न रोचक मुद्राओं में योगियों की प्रतिमाओं के अतिरिक्त विभिन्न देवांगनाएं और नायिकाएं हैं, इनमें मृदंग बजाती ‘मृदंगवादिनी’, पुरुष से आलिंगनबद्ध ‘मोहिनी’, खड्गधारी नृत्यांगना ‘मंजुघोषा’, झांझर पहनती ‘हंसावली’, चामरधारिणी ‘चामरा’, आंखों में अंजन देती, अलसयुक्त ‘लीलावती’, बांसुरी बजाती ‘बंसीवादिनी’, दर्पण लेकर बिंदी लगाती ‘विधिचिता’, केश हाथ में लिए ‘केशगुम्फिणी’, कमलनाल लिए ‘माननी’ और वीणा लिए ‘वीणावादिनी’ की बारम्बार पुनरावृत्ति हुई है। इनमें से विशेष उल्लेखनीय एक देवांगना, दक्षिणी जंघा के निचले छंद में स्थित ‘हंसावली’ है। वह अपना दाहिना पैर ऊपर उठाकर, दोनों हाथों से नूपुर बांध रही है। उसके दाहिने पैर के पास लघुकाय मृदंग वादक है। यह त्रिशीर्ष मुकुट, कानों में चक्र कुण्डल, कन्धे पर स्कन्ध माल, गले में ग्रैवेयक, उपग्रीवा, हिक्कासूत्र, स्तनसूत्र धारण किए हैं। भुजा में भुजबंध व कटकवलय है। मुक्तादाम, पादवलय व पादजालक भी स्पष्ट है। इस मूर्ति के तालमान में समानुपातिकता, अंग भंगिमा तथा सौन्दर्य, किसी भी दृष्टि से खजुराहो की ऐसी प्रतिमाओं से कम नहीं है।

मंदिर अपने स्थापत्य, अलंकरण, प्रतिमाओं और समग्र प्रभाव में, भुलाने को बाध्य कर देता है कि यह अधूरा है। इस कला-समृद्ध संरचना और काल के मूक साक्षी को देखकर, दर्शक सम्मोहित हो जाता है, सदियों का इतिहास और सहस्राब्दियों की परम्परा का मूर्तमान रूप है यह मंदिर। यह न केवल जांजगीर नगर अथवा जिले का, बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ और भारतीय कला-स्थापत्य इतिहास का गौरव-विषय है।

परिशिष्ट- जांजगीर के प्राचीन स्मारकों और उनके रख-रखाव की जानकारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के रिपोर्ट्स में मिलती है, वह इस प्रकार है-
Archaeological Survey of India - Annual Report 1905-6 (Conservation (general) - temples in Central Provinces) page 7-8 Visnu temple, Janjgir (with Lakshman temple, Sirpur)

Archaeological Survey of India - Annual Report 1924-5 (Section-I Conservation - Central Provinces) page 33-34 Visnu temple, Janjgir (with Sirpur and Kharod)

Progress Report Archaeological Survey Western India
1905 - Janjgir, special repaires to old Hindu temple(Progress Report 1903-4,para -79) in progress amount Rs. 100/-
1906 - special repaires to old temple Rs. 3970/-

From 1903 report - with the extra charge, added in 1901, of Central India and Hydrabad, and the proposed further addition of Rajputana and the Central Provinces, the work of which I have already begen,

From Annual Report Archaeological Survey Eastern Circle for 1905-6 the central provinces, to which most of the tributary states of Orissa and Chota Nagpur now belong, had just been aided.

Annual Report of the Archaeological Survey Eastern Circle
1907 - Janjgir - repaires to the old Hindu temples - Rs. 4068
1908 - X
1909 - restoration of two Hindu temples at Janjgir - Rs. 702
1910 - Janjgir - restoring the two Hindu temples - Rs. 1120 works - Big temple cleaning of rank vegetation cement concrete on flat roof fixing teak door lifting and fixing large stone in position cleaning site and levelling compound providing outlet for roof rain water works - small temple wire fencing and fixing wooden gate marrum ramping and levelling compound fixing window to aperture concrete in founds uprooting roots and cutting branches of pipal tree.
1911, 1912, 1913, 1914, 1915 - X
1916 - Janjgir - the large Vaishnava temple Rs. 29
1917 - Janjgir - annual repairs - the large Vaishnava temple Rs. 9
1918 - Janjgir - annual repairs - the large Vaishnava temple Rs. 7
1919 - Janjgir - X
1920 - Janjgir - certain repairs to the Vaishnava temple Rs. 420
1921 - Janjgir - X

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