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Saturday, October 9, 2021

सुराजी

आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर हरि ठाकुर स्मारक संस्थान से ‘हमर सुराजी‘ का प्रकाशन पिछले दिनों हुआ है। इसमें छत्तीसगढ़ के नौ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों- गैंद सिंह, वीर नारायण सिंह, हनुमान सिंह, गुण्डा धूर पं. सुंदरलाल शर्मा, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, डा. खूबचंद बघेल, क्रांति कुमार भारतीय और परसराम सोनी का जीवन-वृत्तांत है। पुस्तक में हरि ठाकुर जी के लेखों का अंगरेजी भावानुवाद अशोक तिवारी जी द्वारा किया गया है और आशीष सिंह ने उनका छत्तीसगढ़ी नाट्य रूपांतरण किया है। भाई आशीष से इस पुस्तक की पाण्डुलिपि देखने का अवसर मुझे मिला तब इस पर मेरी प्रतिक्रिया को उन्होंने लिख कर देने का कहा, वह अब इस पुस्तक में शामिल है, इस तरह-

पहला भी, अनूठा भी

पराधीन सपनेहु सुख नाहीं, करि विचार देखहु मन माहीं।।

गोस्वामी तुलसीदास की ये पंक्तियां मानों अग्निमंत्र हैं। पं. माधवराव सप्रे ने ‘जीवन-संग्राम में विजय-प्राप्ति के उपाय‘ में स्वावलंबन शीर्षक में बात आरंभ करने के लिए इन्हीं पंक्तियों को आधार बनाया है। सन 1908 में परिस्थितिवश उन्होंने सरकार से क्षमा मांगी और पश्चातापग्रस्त रहे। किंतु इससे उबरने के लिए उन्होंने श्रीसमर्थरामदासस्वामी कृत मराठी ‘दासबोध‘ का हिन्दी अनुवाद किया। दासबोध के कुछ शीर्षक ध्यान देने योग्य हैं- राजनैतिक दांवपेंच, अभागी के लक्षण, भाग्यवान के लक्षण, राजनीति का व्यवहार आदि। सप्रे जी ने भूमिका में लिखा कि ‘इसमें ऐसी अनेक बातें बताई गई हैं जो आत्मा, व्यक्ति, समाज और देश के हित की दृष्टि से विचार करने तथा कार्य में परिणत करने योग्य हैं।‘ यह आसानी से देखा जा सकता है कि रामकथा हो या दासबोध, संतवाणी हो या राजनय संहिता, हमारी परंपरा में ऐसी रचनाओं, उनकी टीका-व्याख्या का उद्देश्य सदैव सुराज रहा है।

ऐसा ही एक प्रसंग सन 1934 का है, जब क्रांतिकुमार भारतीय ने बेमेतरा में गणेशोत्सव के अवसर पर रामायण के भरत मिलाप प्रसंग को सही मायने में सुराज, संदर्भ लिया था। उन्होंने कहा कि मातृभूमि की सेवा और स्वाधीनता के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए। इस मौके पर उन्होंने सिविल नाफरमानी, सेना के लिए किए जाने वाले गौ-वध, स्वदेशी, छुआ-छूत और नशा-मुक्ति की बातें भी कहीं। उल्लेखनीय है कि अप्रैल 1934 में ’नेशनल वीक’ के दौरान नागपुर में क्रांतिकुमार भारतीय के प्रवचन-भाषणों को राजद्रोह प्रकृति का मान कर उन्हें चालान किया गया। उनका लिखित बयान दाखिल कराया गया, जिसमें उन्होंने (चतुराईपूर्वक) कहा था कि वे रामायण प्रवचन करते रहेंगे, लेकिन भविष्य में शासन विरोधी अथवा राजद्रोह के भाषण नहीं करेंगे।

बैरिस्टर साहब, ठाकुर छेदीलाल ने अकलतरा में सन 1919 में रामलीला मंडली की स्थापना की, 1924 से 1929 तक व्यवधान रहा इसके बाद 1933 तक अकलतरा रामलीला की पूरे इलाके में धूम होती थी। अकलतरा के रंगमंच में पारम्परिकता से अधिक व्यापक लोक सम्पर्क तथा अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध अभिव्यक्ति उद्देश्य था। इसका एक दस्तावेजी प्रमाण, लाल साहब डा. इन्द्रजीत सिंह की निजी डायरी से मिलता है कि सन 1931 में 23 से 26 अप्रैल यानि वैशाख शुक्ल पंचमी से अष्टमी तक क्रमशः लंकादहन, शक्तीलीला, वधलीला और राजगद्दी नाटकों का यहां मंचन हुआ। कहना न होगा कि इन सभी नाटकों का चयन संवाद और प्रस्तुति शैली सोद्देश्य सुराजी होती थी।

छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने सुराज में स्व-राज और सु-राज, दोनों को लगभग समान आवश्यक माना। हमारे ये पुरखे, एक ओर ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देते रहे वहीं सुशासन के प्रति भी सजग रहे। ब्रिटिश हुकूमत, राज्य-व्यवस्था का ढोंग करते हुए हमें गुलाम बनाए रखना चाहती थी, उसकी मानसिकता उपनिवेशवादी थी और प्राथमिक उद्देश्य भारत जैसे ‘सोने की चिड़िया‘ को गुलाम बनाए रखते शोषण, दोहन करते रहना। इसके लिए बर्बरता और क्रूरता का सहारा लेने में उन्हें तनिक भी देर न लगती थी।

हमारे पुरखे स्व-राजियों ने हमारी परंपरा के सु-राज के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर किया। इस भावना की मुखर अभिव्यक्ति गांधी में हुई। हमारी स्वाधीनता के रास्ते में रोड़े पैदा करने वाले तत्वों- धर्म, जाति-वर्ग, भाषा, प्रांत के भेद और सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वास को दूर करने के लिए सदैव उद्यत रहे। अंग्रेजी हुकूमत द्वारा देशी रियासतों को दिए जा रहे महत्व के बावजूद, राष्ट्रवादी विचार और नेता प्रभावी होते गए। नेहरू, टैगोर, बोस, जिन्ना, अंबेडकर, राजगोपालाचारी जेसे नेताओं से मतभेदों के बावजूद समावेशी गांधी ने साध्य और साधन की पवित्रता और तात्कालिक स्व-राज के साथ सु-राज के वृहत्तर और दूरगामी लक्ष्य को कभी ओझल होने नहीं दिया। यही कारण था कि उन्होंने देश की आजादी के जश्न में स्वयं के शामिल होने को जरूरी नहीं समझा और उस मौके पर हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में लगे रहे।

‘हमर सुराजी‘ शीर्षक इस पुस्तक में स्वाधीनता संग्राम के नौ सेनानियों के जीवन-पक्ष अनूठे स्वरूप में उद्घाटित हो रहे हैं। काल की दृष्टि से इनमें 1857 के बहुत पहले, पिछड़े समझे जाने वाले परलकोट-बस्तर क्षेत्र के गैंदसिंह हैं, जिन्होंने जनजातीय दमन और अत्याचार के विरोध का बिगुल फूंका था। दूसरी तरफ डॉ. खूबचंद बघेल, जिन्होंने आजादी के बाद भी स्वाधीनता को सुराज में बदलने के लिए कोई कसर न रखी। ये सभी सेनानी वास्तव में छत्तीसगढ़ी अस्मिता के नवरत्न हैं।

छत्तीसगढ़ की गौरव-गाथा के प्रखर स्वर हरि ठाकुर की कलम ने इन पुरखों और उनके जीवन-संग्राम को अमर बनाया है, जिनका संकलन इस पुस्तक में प्रकाशित किया जा रहा है। किन्तु खास बात यह है कि इन सेनानियों के जीवन-वृत्तांत को मूल के साथ सुगम और प्रवाहमयी अंग्रेजी में भी प्रस्तुत किया जा रहा है और हमारे इन अस्मिता पुरुषों के जीवन-पक्षों को जीवंत-प्रभावी बनाने के लिए नाट्य रूपांतर भी किया गया है। इस दृष्टि से यह प्रकाशन आपने आप में न सिर्फ अनूठा, बल्कि संभवतः पहला भी है। निसंदेह, इस विशिष्ट स्वरूप से इसकी उपयोगिता और इसका महत्व बहुगुणित है।

हमारे इन सुराजियों का स्मरण और उनकी इस गांधी-अभिव्यक्ति की सार्थक प्रासंगिकता, उनकी प्रेरणा में है कि स्व-राज का लक्ष्य पा लेने के साथ सु-राज के लिए हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। यही सुराज, जो दीर्धकालीन, बल्कि सतत प्रक्रिया है, वास्तविक रामराज्य है। इसके लिए हमें सजग और सक्रिय रखने की कड़ी में यह दस्तावेज, एक प्रकाश-स्तंभ, हमारा पथ-प्रदर्शक हो सकता है।

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  1. छत्तीसगढ़ के 9 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों- गैंद सिंह, वीर नारायण सिंह, हनुमान सिंह, गुण्डा धूर पं. सुंदरलाल शर्मा, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, डा. खूबचंद बघेल।

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