Pages

Wednesday, September 1, 2021

सीमेंट

ईस्वी पूर्व 2500-1500 - भारतीय स्थापत्य की संरचना प्रक्रिया में सीमेन्टिंग (ज्वाइंटिंग मीडिया) की आवश्यकता सदैव रही है। ज्ञात इतिहास में संरचनात्मक स्थापत्य के आरंभिक काल, हड़प्पायुगीन अवशेषों में इस हेतु जुड़ाई और प्लास्टर के लिए मिट्टी, चूना तथा जिप्सम का व्यापक प्रयोग हुआ है, सिन्धु सभ्यता में अधिकांश संरचना पकी अथवा कच्ची ईंटों (आग में पकी और धूप में पकी) का उपयोग हुआ है। सिन्धु सभ्यता में मोहनजोदड़ो के उत्खनन से प्राप्त स्नान कुंड में प्लास्टर व उसे जलरोधी बनाने के लिए जिप्सम और बिटुमिन (पुराने साहित्य में गिरिपुष्पक, वज्रलेप नाम से ज्ञात) का प्रयोग किया गया है, यहां एक इंच मोटी गिरिपुष्पक का प्लास्टर किया गया है।

ईस्वी पूर्व 1500-500 - वैदिक काल की अधिकांश संरचनाओं के बारे में जो जानकारी उपलब्ध है उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वैदिक संरचनाओं में मिट्टी व लकड़ी का प्रयोग मुख्यतः हुुआ करता था, जबकि छप्परों के लिए फूस और आधार-नींव के लिए पत्थर का इस्तेमाल हुआ है। इस प्रकार मिट्टी की दीवारों को उठाते हुए अलग से किसी अन्य ज्वाइंटिंग मीडिया की आवश्यकता नहीं होती थी और लकड़ी-लकड़ी या लकड़ी-पत्थर को आपस में जोड़ने के लिए चूलें बनाई जाती थीं, जो (होल-सॉकेट) वस्तुतः काष्ठ संरचनाओं की तकनीक है। वैदिक काल में स्तंभ लकड़ी के हुआ करते थे, जिन्हें उर्ध्वाधर खड़ा करने के लिए पत्थर की कुभियों का प्रयोग होता था।

ईस्वी पूर्व 500-ईस्वी 300- भारतीय इतिहास में वैदिक काल के पश्चात स्थापत्य का स्वरूप, जिन प्राप्त अवशेषों के आधार पर ज्ञात होता है, वे स्तूप, लाट (विशाल एकाश्म स्तंभ), तथा शिलोत्खात वास्तु का रहा, वास्तु का यह स्वरूप संश्लिष्ट संरचनात्मक होने के बजाय सरल और एकाकी हुआ करता था और प्राप्त स्मारक-अवशेषों से अनुमान होता है कि उनमें- यथा स्तूपों में प्लास्टर के लिए चूना-गारे का प्रयोग होता था तथा पत्थरों की आपस में जुड़ाई के लिए चूलों (होल-साकेट) की, काष्ठ माध्यम के लिए प्रयुक्त होने वाली तकनीक-पद्धति का ही प्रयोग हुआ है। साहित्यिक प्रमाणों में गचकारी, पकी मिट्टी के मकान का उल्लेख तथा समरांगण सूत्रधार के 41 वें अध्याय में चयनविधि-चुनाई का विवरण आया है। वृहत्संहिता के वज्रलेपलक्षण अध्याय में वज्रलेप की विधि बताई गई है।

ईस्वी 400 से - गुप्त काल भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग था, स्थापत्य के क्षेत्र में भी गुप्त काल में ही नये आयाम उद्घाटित और स्थापित हुए इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर वास्तु संरचनाओं का नियमित क्रम इसी काल से मिलना आरंभ होता है, किन्तु गुप्तकालीन आरंभिक मंदिर सादे, सपाट और न्यून प्रतिमा-अलंकरणों वाले होते थे-जिनमें धीरे-धीरे विकास होता गया। यहां भार-संतुलन के सिद्धान्त पर मुख्यतः निर्भर रहने के साथ-साथ काष्ठ माध्यम की तकनीक का अनुसरण के कारण ज्वाइंटिंग मीडिया की आवश्यकता नहीं रही, क्लैम्प्स का प्रयोग भी आरंभ कर दिया गया, जो विकास काल में संरचनात्मक वास्तु का अभिन्न अंग बन गया।

6-8 वीं सदी ईस्वी - वास्तु संरचनाओं के प्राचीन उदाहरणों में ईंटों से निर्मित ऐतिहासिक काल के भवन-मंदिर पाये गये हैं। कलात्मक वैभव, बहुलता और विविधता की दृष्टि से दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) क्षेत्र में इस काल में निर्मित ईंटों के मंदिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पकी हुई लाल ईंटों के ऐसे मंदिर पलारी, धोबनी, खरौद आदि स्थलों पर आज भी विद्यमान हैं साथ ही साथ सिरपुर के अन्य ईंट निर्मित संरचनाओं के साथ लक्ष्मण मंदिर इस कड़ी में सर्वोपरि है। इन मंदिरों में एक विशेषता सामान्य रूप से परिलक्षित होती है वह है ईंटों के थर की जुड़ाई आपस में इस सफाई से की गई है कि उसे जोड़ने के लिए प्रयुक्त मसाले या माध्यम का अनुमान कठिन होता है क्यांेकि बीच का अन्तर कागज की तरह पतला जान पड़ता है। स्थापत्य अध्येताओं का अनुमान है कि धूप में पकी ईंटों को अत्यंत बारीक पतली छनी मिट्टी के लेप से जोड़कर संरचना पूर्ण कर ली जाती थी तब एक साथ पूरी संरचना को भट्टे जैसा पका लिया जाता था।

लगभग 12 वीं सदी ईस्वी के बाद रेत में चूना, बेल, गुड़, जिप्सम, घोंघा-सीपी, राल, लासा-गोंद, अलसी, हरड़ का पानी, मेथी आदि (सड़ाकर, पेराई कर) मिलाकर गारा तैयार करना सुल्तान-मुगल काल से आरंभ हुआ, जो सीमेंट के व्यापक प्रचलन तक लोकप्रिय रहा। बाद की संरचनाओं में पिछली सदी तक और पुरातत्वीय अनुरक्षण कार्यों में तथा कहीं-कहीं अब भी (जन स्वास्थ्य सहयोग, गनियारी, बिलासपुर के एक भवन में जुड़ाई ऐसे ही गारे से हुई है।) ऐसा मसाला तैयार कर प्रयोग में लाया जा रहा है। अब सीमेंट आ गया जो पलस्तर, जुड़ाई-चिनाई और सीलिंग (plaster, jointing, sealing) के लिए उपयोगी हुआ।

1990 आदि वर्ष में यह नोट किसी शोधार्थी के लिए मैंने यूं ही तैयार किया था, लगा कि इस पर कुछ और काम किया जा सकता है, इसलिए उसकी प्रति रख ली थी। तब सोचा था कि इसे विस्तार दे कर, कुछ संदर्भ जोड़ कर, एक लेख तैयार करूंगा ...

No comments:

Post a Comment