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Friday, August 27, 2021

देवबलौदा - लक्ष्मीशंकर

देवबलौदा का कलचुरि कालीन शिव मंदिर
लक्ष्मीशंकर निगम

रायपुर और भिलाई के मध्य स्थित एक छोटा सा रेल्वे स्टेशन है, ‘चरौदा देवबलौदा‘। चरौदा रेल्वे का विस्तृत यार्ड है, किन्तु देवबलौदा निकटस्थ स्थित एक ग्राम का नाम है। देव बलौदा का छत्तीसगढ़ के कला एवं स्थापत्य में महत्वपूर्ण स्थान है। यहां एक छोटा, किन्तु अत्यंत कलात्मक कलचुरि कालीन शिव मन्दिर स्थित है। रायपुर-भिलाई मार्ग पर, चरौदा से २-३ किलोमीटर पहले दक्षिण की ओर रेल्वे मार्शलिंग यार्ड हेतु मार्ग है। इसी मार्ग से लगभग ३ किलोमीटर जाने पर देव बलौदा पहुंचा जा सकता है।

देव बलौदा के इस प्राचीन मन्दिर के निर्माण से सम्बंधित अनेक किवदन्तियां प्रचलित हैं। इस कथा के अनुसार देव बलौदा और आरंग का मन्दिर एक ही स्थपति (Architect) द्वारा निर्मित किया गया था। जब दोनों मन्दिरों का निर्माण पूर्ण हो गया तब एक मन्दिर के शिखर पर स्थपति चढ़ गया तथा दूसरे मन्दिर के शीर्ष-भाग में स्थपति की बहन। वस्तुतः एक औपचारिक अनुष्ठान की प्रक्रिया के अन्तर्गत मन्दिरों की शीर्ष भाग में निःवस्त्र होकर पहुंचना था। मन्दिरों की ऊंचाई के कारण दोनों ने एक दूसरे को निःवस्त्र देखा और शर्म एवं पश्चाताप के कारण दोनों मन्दिरों के शिखर से कूद पड़े तथा पाषण में परिवर्तित हो गये। इनमें से आरंग का मन्दिर जैन मन्दिर है तथा भाण्ड देवल के नाम से प्रसिद्ध है, दूसरा मन्दिर देव बलौदा का शिव मदिर है। दोनों मंदिर भिन्न-भिन्न धार्मिक सम्प्रदायों से सम्बंधित है, अतः एक स्थपति द्वारा निर्माण किये जाने का उल्लेख उपयुक्त प्रतीत नही होता।

उपरोक्त किवदन्ती के कथानक में थोड़ी सी विभिन्नता भी मिलती है। एक जनश्रुति के अनुसार इस क्षेत्र में वनसूकर उत्पात मचाया करते थे, यहां रहने वाले उक्त शिल्पी के मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि इसे ‘शिव क्षेत्र‘ में परिवर्तित करना चाहिए। इस प्रकार वह शिव मंदिर के निर्माण में समर्पित हो गया, अन्ततः उसका लक्ष्य पूरा हुआ। निर्माण कार्य के समय, उसकी एक मात्र बहन उसकी सेवा में संलग्न रही। एक दिन उक्त स्थपति ने मंदिर के शिखर में कलश चढ़ाने का मुहूर्त निकाला। उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुए कि ईश्वर और उनके बीच पावनता में वस्त्र क्यों बाधक बनें। अतः वह निःवस्त्र होकर मंदिर के शिखर में स्वर्ण कलश सहित पहुंचा। इसी समय स्थपति की बहन, भाई के लिए भोजन लेकर पहुंची। तेज सूर्य रश्मियों के मध्य स्वर्ण कलश स्वयं सूर्य जैसा प्रकाशित हो रहा था उसके निकट कलश चढ़ाने को तत्पर शिल्पी खड़ा था। अचानक बहन को देख कर, अपनी निःवस्त्रता पर उसे ग्लानि हुई और मंदिर के निकट तालाब में वह कूद गया। एक मात्र भाई को मृत्यु का दुःख उसकी बहन सहन न कर पाई और वह भी तालाब में कूद पड़ी और दोनों पाषाण में परिवर्तित हो गए। एक अन्य जनश्रुति भी इस मंदिर के सम्बन्ध में प्रचलित है, जिसके अनुसार इस मंदिर का निर्माण एक ही रात्रि में किए जाने का उल्लेख है।

स्थापत्य एव कला की दृष्टि से यह मन्दिर उत्तरी भारत के अन्य मंदिरों के सदृश्य है। भू-विन्यास (Ground Plan) के अंतर्गत मण्डप, अन्तराल एव गर्भगृह निर्मित है। गर्भगृह (जहां देव प्रतिमा अथवा शिवलिग स्थित रहता है), का बाह्य भाग वर्गाकार है तथा प्रत्येक ओर १३ फीट है। मण्डप, स्तभों पर आधारित है तथा खुला हुआ है, इसकी लम्बाई २२ फीट १ इन्च है। गर्भगृह और मण्डप के मध्य भाग को अन्तराल कहा जाता है, यह ३ फीट ५ इंच चौड़ा है। इस प्रकार मंदिर ३९ फीट लम्बा और २९ फीट चार इंच चौड़ा है। मंदिर का शिखर ध्वस्त हो चुका है, १८८१-८२ में यहां आये भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक अलेक्जेंडर कनिंघम ने इसकी ऊंचाई लगमग ४० फीट उल्लिखित की है। पुराने गजेटियर के एक चित्र में मंदिर का शिखर दिखाई पड़ता है। मंदिरों में सामान्यतः एक ही प्रवेश द्वार होता है जो पूर्व दिशा की ओर स्थित रहता है। सूर्य की प्रथम किरणें मदिर प्रवेश करें, यही इसका प्रमुख उद्देश्य होता है। यहां पूर्व दिशा में प्रवेश तो है ही, साथ ही एक अन्य प्रवेश द्वारमण्डप के उत्तर दिशा में निर्मित किया गया है जो संलग्न तालाब की ओर खुलता है। यह तालाब ६० फीट लम्बा तथा ५२ फीट चौड़ा है, जिसके चारों ओर पाषाण के सोपान बने हुए हैं।

मण्डप, भूमि सतह से ४,१/२ फीट ऊंचा है, जबकि मण्डप से अन्तराल होते हुए गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए चार सीढियां नीचे उतरना पड़ता है, इस आधार पर कनिंघम महोदय ने मत व्यक्त किया है कि मन्दिर का निर्माण दो चरणों में किया गया है। अपने मत के समर्थन में उन्होंने गर्भगृह तथा मण्डप को वाह्य भित्तियों में अंकित कला वैष्णव और शैव देवी-देवताओं की प्रतिमाएं उत्कीर्ण की गई हैं। विष्णु के विभिन्न अवतारों में से नृसिंह, वाराह, वामन तथा कृष्ण का अंकन मिलता है। शिव का विविध रुपों में अंकन के साथ ही गणेश तया महिषासुर मर्दिनी का चित्रण भी मिलता है। इन प्रतिमाओं के अंकन में कलात्मकता के साथ प्रतिमा लक्षणों का प्रयोग सम्यक रुप से किया गया है। गर्भगृह को दक्षिणी दीवार में अंकित एक प्रतिमा का उल्लेख कनिंघम ने अष्टभुजी देवी के रुप में किया है। इस प्रतिमा को कनिंघम के मत का अनुकरण करते सभी विद्वानों ने अप्टभुजी देवी माना है। वस्तुतः यह देवी प्रतिमा नहीं बल्कि यहां शिव के गजासुर-वध का चित्रण किया गया है, जिसमें शिव को ऊपरी दो हाथों से हाथी को सिर के ऊपर उठाए हुए प्रदर्शित किया गया है।

मंदिर की बाह्य दीवारों में तत्कालीन जन-जीवन को प्रतिबिम्बित करने वाले अनेक दृश्यों का अंकन परिलक्षित होता है। शिकार से सम्बन्धित अनेक दृश्यों को उत्कीर्ण किया गया है। सूकर तथा हिरण पर कुत्तों द्वारा आक्रमण करने का चित्रण अत्यंत स्वाभाविक ढंग से किया गया है। नृत्य, और मिथुन मूर्तियां अत्यन्त सुन्दर उत्कीर्ण की गई हैं। एक स्थान पर राजकीय शोभा-यात्रा का चित्रांकन है, जिसमें राजा छत्र सहित प्रदर्शित है।

मंदिर के मण्डप में स्थित स्तंभ, अत्यन्त कलात्मक तथा चमकदार हैं। इसमें विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का चित्रण किया गया है। स्तंभों के कीर्तिमुखों को विशेष महत्व का कहा जा सकता है। विभिन्न स्तंभों में अंकित कीर्तिमुख, शिल्पी के प्रखर कल्पना-शक्ति तथा कला कौशल से परिचित कराती है। कीर्तिमुखों के चित्रण में किसी भी आकृति की पुनरावृत्ति परिलक्षित नहीं होती। गर्भगृह का द्वार पारम्परिक कला से युक्त है। इसके ऊपरी भाग के मध्य में गणेश के अंकन से ज्ञात होता है कि यह मंदिर शिव को समर्पित किया गया था।

मंदिर के सामने शिव मंदिरों की परम्परा के अनुसार नन्दी की एक प्रतिमा मिलती है, इसके अतिरिक्त कई लेखविहीन सती स्तंभ मिलते हैं, जो इस क्षेत्र के ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व को प्रदर्शित करते हैं।

देवबलौदा की स्थिति छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण नगर रायपुर और औद्योगिक तीर्थ भिलाई के मध्य है, फिर भी सामान्यजनों को स्थापत्य के इस उत्कृष्ट उदाहरण के विषय में पर्याप्त जानकारी नहीं है। रायपुर-भिलाई के बीच तेजी से विकसित होते आवागमन एवं व्यापारिक सम्बन्ध के बीच यदि कुछ समय मनोरंजन एवं पर्यटन के लिए निकाला जावे तो उसमें इस मंदिर के भ्रमण को सम्मिलित किया जाना सर्वथा उपयुक्त कहा जा सकता है। रायपुर-भिलाई पर्यटन योजना बनाकर, उसमे नंदनवन, देवबलौदा, मैत्रीबाग और भिलाई इस्पात संयंत्र को सम्मिलित किया जा सकता है। वर्तमान में देव बलौदा का परिचय देते हुए एक बोर्ड जी.ई. रोड में लगाया जाना चाहिये, जिससे इसके विषय में लोगों को पर्याप्त जानकारी मिल सके।

मंदिर से लगे तालाब को विकसित एवं सुन्दर बनाने हेतु प्रयास के साथ ही, बैठने की व्यवस्था सहित एक छोटा सा उद्यान निर्मित किया जावे, तो यह स्थान एक ओर प्राचीन गौरव और वैभव को प्राप्त करेगा वहीं दूसरी ओर पर्यटकों को पर्याप्त रूप से आकर्षित भी करेगा।


यह लेख भिलाई की संस्था ‘समता‘ की स्मारिका, सन 1986 में प्रकाशित हुआ था।


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