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Wednesday, May 12, 2021

कोरोना में गांधी

कोई साल भर से गांधी को पढ़ता रहा हूं। उनकी, उन पर लिखी किताबों से या संपूर्ण वांग्मय से। बीच-बीच में बदलाव के लिए ब्रजकिशोर जी की गांधी वाली पोस्ट। कुछ सुना, कुछ समझा, जो नहीं समझा वह प्रशांत किशोर के शब्दों में- ‘अगर आप उनकी बात को नहीं समझ पा रहे हैं तो इसका मतलब है कि आपमें और पढ़ने की, मेहनत करने की, समझ को डेवलप करने की जरूरत है।‘ फिलहाल जो थोड़ी बात समझ सका वह है, कोई वस्तु/सुविधा आवश्यक न होने पर भी, वह हमें सहज उपलब्ध हो जा रही है और उसे हासिल करने में समर्थ हैं, महज इस कारण, उसके प्रति लालायित न हो जाएं यानि संयम। व्यक्तिगत सत्याग्रह, आत्म-अनुशासन के बाद ही समाज-उन्मुखता। आत्म-निर्भरता, स्वावलंबन, अपने आसपास के छोटे-मोटे काम खुद करना आदि प्रयोग। इसे सार्थक करने का अवसर दिया कोरोना के लाॅकडाउन ने। स्कूली पढ़ाई के दिनों में और फिर बाद में हाॅस्टल में रहते हुए कई ऐसे काम स्वयं करने का अभ्यास था, जो अब छूट गया था। इस दौरान वह सब फिर से शुरू करने और कुछ नये काम सीखने का प्रयास किया।

स्कूली दिनों में आटे की लोई को चपटा कर बेलते हुए, बेलन के नियंत्रण से रोटी को गोल घुमा लेना सीख लिया था, हाॅस्टल में यह सिर्फ मैं कर पाता था, इसलिए मुझे और कोई काम नहीं करना पड़ता था, मसलन झाड़ू, बर्तन मलना आदि। ढेंकी-जांता, चलनी के साथ सूप का काम भी आता था, यानि चालना, पछिनना, फटिकना, हलोरना आदि, जो अब भूल चुका था, अभ्यास तो रहा ही नहीं। थोड़े प्रयास से यह कौशल वापस पा लिया है। कार धोने का काम नया सीखा है, बहुत आनंद का होता है, गांधी जी ने यह आनंद कभी लिया था? पता नहीं।

बर्तन धोना अब बहुत आसान है, कालिख नहीं होती, असरदार साबुन और पानी भी सुलभ है। अपने हाथ के धुले साफ कप में चाय पीने और बर्तन में खाने का स्वाद ही कुछ अलग होता है। एक बार बाथरूम साफ करने जाइए और फिर थोड़ी देर बाद साफ-सुथरे चमचमाते उस कक्ष को इस्तेमाल करने, देखिए क्या आनंद आता है। कोरोना काल में ऐसे ढेरों सत्य के प्रयोग हो रहे हैं। गांधी को पढ़ना सार्थक हो रहा है।

पिछले साल सेवानिवृत्त होने पर लोग पूछते थे, इसके बाद क्या करेंगे, ऐसा कभी सोचा नहीं था, लेकिन पता था कि कुछ न कुछ तो करता ही रहूंगा। हां! जैसा जजमान, वैसी पूजा। लोगों को जवाब के लिए प्रश्नकर्ता के अनुरूप एफएक्यू के चार-पांच एफए जवाब बना रखा था, जिससे इस विषय पर अधिक बात न हो, पूछने वाला संतुष्ट हो जाए और न हो तो कम से कम यह समझ ले कि इस मुद्दे पर इस बन्दे से बात करना निरर्थक है। जैसे, पराधीन-नौकरी के साथ लालसा यही कि कब रिटायर-स्वतंत्र हों। या अक्सर बताने के और करने के काम अलग होते हैं, इसलिए अब बताने वाले नहीं, करने वाले काम करूंगा या सेवानिवृत्ति होती ही इसलिए है कि चलो बहुत कर लिया, जो करना था, या देखता हूं कब तक बिना कुछ किए अधीर नहीं होता। या किसी ने कहा है- ‘निष्क्रियता ही उच्चतर बुद्धिमत्ता है और कर्म अधैर्य का सूचक।‘ और फिर ‘कुछ करने की उत्सुकता अधैर्य की निशानी है।‘ आदि। वह दौर तो बीत गया। अब कोई नहीं पूछता, लेकिन सोच में पड़ा रहता हूं कि लाॅकडाउन के बाद यह सब काम छूट जाएगा? फिर करूंगा क्या!

मंजूर न करूं तो भी यह आत्मश्लाघा है ही लेकिन इसे जो सोचकर सार्वजनिक कर रहा हूं उसका कारण कि- मेरे कुछ सच्चे प्रतिस्पर्धी हैं। मेरे साथ उन्हें कुछ ऐसी होड़ है कि मुझे 100 बुखार हो तो वे खुद के लिए 102 चाहेंगे और 101 के बिना तो चैन ही न लें। वे चाहे गांधी न पढ़ें, मगर उसका मुझ पर हो रहे असर के साथ मुकाबिल होने की चुनौती स्वीकार करें, इसी आशा से...

7 comments:

  1. Nice one... Entertaining confessions

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  2. कोरोना काल में ऐसे ढेरों सत्य के प्रयोग हो रहे हैं। गांधी को पढ़ना सार्थक हो रहा है...
    सच है, मजबूरी में ही सही, घर अब घर लग रहा है। पहले रेस्टहाउस लगता था जहाँ रात में सात आठ घंटे सोने के लिए आते और सुबह उठते ही वही आपाधापी।
    सोच में पड़ा रहता हूं कि लाॅकडाउन के बाद यह सब काम छूट जाएगा? फिर करूंगा क्या!
    ये तो अपने ऊपर है। आप जारी रखना चाहें तो रख सकते हैं।

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  3. Badhiya post. Maja aa gaya. Sadhuwad.

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