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Thursday, September 27, 2012

एकताल

केलो-कूल पर कला की कलदार चमक रही है। यह आदिम कूंची की चित्रकारी के नमूनों, कोसा और कत्थक के लिए जाना गया है। यहां रायगढ़ जिले की छत्तीसगढ़-उड़ीसा सीमा से लगा गांव है- एकताल। इस नाम का कारण जो हो, पूरे गांव की लय, सुर और ताल एक ही है। यहां के झारा या झोरका कहे जाने वाले धातु-शिल्पियों की कृतियों में मानों सदियां घनीभूत होती हैं, प्रवहमान काल-परम्परा ठोस आकार धरती है। इनमें श्रम, कौशल, तकनीक और कला का सुसंहत रूप मूर्तमान होता है।

एकताल, जिला मुख्‍यालय रायगढ़ से आवाजाही के लिए नवापाली हो कर 15 किलोमीटर लंबा रास्ता है, लेकिन नियमित चलता रास्ता 20 किलोमीटर और उड़ीसा के कनकतुरा गांव हो कर जाता है। लगभग 700 जनसंख्‍या वाला यह अकेला गांव होगा, जहां के 7 शिल्पी, यानि आबादी का 1 प्रतिशत, राष्ट्रपति पुरस्कृत हैं। झारा, पारम्परिक रूप से आनुष्ठानिक कृतियां और आभूषण बनाया करते थे, जिनमें कान का गहना मुंदरा और फंसिया, बच्चों के लिए पैर की पैरी, पैसा रखने का मुर्गी अंडा आकार का जालीदार कराट, आभूषण रखने के लिए ढक्कनदार कलात्मक नारियल, पोरा बैल, दिया-जागर, नपना मान और अगहन पूजा के लिए लक्ष्मी होती। ये कृतियां धातु शिल्प की प्राचीनतम ज्ञात मोमउच्छिष्ट प्रणाली (Lost-wax process) से बनती हैं। 10 किलो की कलाकृति बनाने में लगभग 7 किलो पीतल और 700 ग्राम छना-साफ किया हुआ मएन-वैक्स की आवश्यकता होती है, जिसमें धूप और तेल मिलाया जाता है। पहले वैक्स सुलभ न होने के कारण सरई धूप (साल वृक्ष के गोंद-राल) में तेल मिलाया जाता था।

शिल्पी झारा समुदाय के विशाल देवकुल में धरती माता, बूढ़ी दाई, चेचक माता, गुड़ी माता, सेन्दरी देवी, कलारी देवी, काली माई, चंडी देवी, रापेन देवी, बोन्डो देवी, चारमाता, अंधारी देवी, सिसरिंगा पाट, सारंगढ़िन देवी, चंद्रसेनी देवी, नाथलदाई, मरही देवी, खल्लारी माता, बमलेश्वरी, घाटेसरी देवी, घंटेसरी देवी, मन्सा देवी, समलाई देवी, दुर्गा, भवानी, कालरात्रि, कंकालिन, खप्परधारी और न जाने कितनी देवियां है, लेकिन करमसैनी देवी का मान सबसे अधिक है। क्वांर नवरात्रि में पहले मंगलवार को, (दशहरा के समय) करमा वृक्ष में करमसैनी की पूजा करते हैं। गीत गाते हैं- ''जोहार मांगो करमसैनी, अपुत्र के पुत्र दानी, निधन के धन दानी, अंधा ल चक्खु दान दे मां करमसैनी।''

इन कल्पनाशील शिल्पियों में से गोविन्दराम ने अपने समुदाय की गाथा, मान्यता, धारणा, आस्था और विश्वास को कृतियों में ढालना आरंभ किया और करमसैनी के करमा वृक्ष को मूर्त कलाकृति का रूप दे कर 1984-85 का शिखर सम्मान प्राप्त किया। गौरांगो तथा श्यामघन ने गढ़ी राकस-चुरैल (राक्षस-चुड़ैल) की आकृति, जिस पर वे दोनों 1986 में राष्ट्रपति से पुरस्कृत हुए। इसे और सुघड़ रूप दे कर गोविन्दराम भी 1987 में राष्ट्रपति पुरस्कार के हकदार बने, उन्हें 2005 का दाउ मंदराजी सम्मान भी मिला है। गोविन्दराम के बाद एकताल के धनीराम को 1997 में, रामलाल को 1998 में, उदेराम को 2002 में और धनमती को 2003 में राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है।

उधर बस्तर में सुखचंद (घड़वा) पोयाम को 1970 में, जयदेव बघेल को 1977 में, राजेन्द्र बघेल को 1996 में और पंचूराम सागर को 1999 में राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हुआ है। छत्तीसगढ़ से जयदेव बघेल और रजवार कला की सोनाबाई को (नवंबर 2012 में गोविन्दराम को भी) शिल्प गुरु सम्मान भी मिला है तो बस्‍तर के सुशील सखूजा जैसे नवाचारी ढोकरा-ढलाई कलाकार ने इस शिल्‍प को देश के बाहर भी एक अलग पहचान दिलाई है।

इन बरसों में इनकी बनाई कलाकृतियों की मांग वैसी नहीं रही। समय के साथ झारा शिल्पियों ने सीखा कि कृतियों के साथ कहानी जरूरी है और यह भी कि सरकार से मिलने वाले सम्मान की बात ही कुछ अलग है। अब उनकी कृतियां आज के दौर का भी अभिलेखन कर रही हैं।
भीमो बताते हैं- पत्नी के साथ मिल कर 15 किलो की 3 फीट की कलाकृति बनाने में 2 महीना लगा। चित्र में साथ 'कहानी'। शिल्प पर लेख है- छत्तीसगढ़ शासन कि उचित मुल्य कि दूकान। रू 2 रू चावल किलो का काहनी
प्रमाण पत्र के साथ श्री भीमो झारा

समय की नब्‍ज समझते, नए प्रतिमान गढ़ते ढोकरा शिल्‍पी परम्‍परा के साथ प्रासंगिक हैं

23 comments:

  1. उत्कृष्ट लेख |
    सटीक जानकारी |
    आभार सर जी ||

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  2. नये समय के साथ, पुरानी परम्पराओं को सहजता से निभा पाना बड़ी कुशलता का कार्य है, हम निश्चय ही सुखद निष्कर्ष पायेंगे ।

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  3. छत्तीसगढ़ के परंपरा, रित - रिवाज, तीज - त्यौहार, मड़ई, मेला, से लेकर दूरस्थ गाँव में बसे कलाकारों के जीवन शैली जीवन - यापन का हिसाब किताब आपके खाते का हिस्सा बनता गया . रायगढ़ के नवताल में बसे लोगो की गिनती करना और उन्हें प्रादेशिक मंच नहीं राष्ट्रिय मंच प्रदान कर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर आसीन कर सम्मानजनक जीवन की दिशा दिलवाने के लिए संस्कृति विभाग का योगदान हो किन्तु इन्हें ब्लॉग के माध्यम से जन - जन तक प्रचारित और प्रसारित करने का श्रेय आपको जाता है . आपके भंडार का एक और मोती हमारे उपयोग के लिए मिला . इस बार भी न तो आभार कहूँगा न ही धन्यवाद् आपको समस्त कलाकारों की ओर से प्रणाम .
    अद्भुत संग्रहनीय लेखा .

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  4. नया विषय ...लगभग अछूता है मेरे लिए कंटेंट के लिहाज से .
    कृतिकार की रचना प्रक्रिया के परिवर्तन को प्रकट होता देखा इस लेख मे

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  5. लगभग दो माह तक जडता से ग्रस्‍त रहा। इसकी टूटन आपकी यह पोस्‍ट पढने से हो रही है। आप एक व्‍यक्ति मात्र नहीं हैं। आप तो अपने आप में एक संस्‍थान् हैं। मैं एक बार आपको छूकर देखना चाहता हूँ।

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    1. मैं अगर व्यवस्थित रूप से सोच पाता तो यही सोचता जो आपके कमेन्ट में है, और मैं खुद की पीठ थपथपाता हूँ कि इस संस्थान का अल्पकालिक सान्निध्य मुझे प्राप्त हुआ है|

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  6. संस्कृति, सभ्यता, परंपरा, रीती रिवाज, धर्म, लोक कला, बोली, भाषा, सहित छत्तीसगढ़ के मूल भावों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील संस्कृति विभाग सदैव आदर और नमन योग्य है . किन्तु इन सभी चीजों को देश विदेश के सुधि पाठकों के मानस पटल पर उकेरने का दायित्व आपने सहज सरल भाव से छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र के भाव से अपनाया है . लोक जन जीवन में झांककर उनकी पीड़ा, ज़रूरत, को सबसे परिचित करवाना . ब्लॉग के माध्यम से कलाकारों , लोक गायकों को सम्मान दिलाना, उनके जीवन मूल्यों को संरक्षित करना, गुणों को जन जन तक पहुचाने का कार्य बरसों बरस याद रहेगा . आज आपने एकताल के परिवार की सुध ली लोगो को अँगुलियों में गिन दिया ७०० लोग ०७ बड़े कलाकार की गिनती निश्चित ही उनका पूरा ब्यौरा आपने दर्ज किया होगा . बस्तर के कलाकारों सहित रायगढ़ के दूरस्थ गाँव एकताल के कलाकारों को परिचित करवाने के लिए ह्रदय से इन कलाकारों की ओर से और समूचे छत्तीसगढ़ की ओर से आपको सादर प्रणाम .

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  7. एकताल के शिल्पियों की कहानी रोचक है लक्षवेधक भी (यह मराठी का शब्द है अर्थ है ध्यान खींचनेवाली ) । शिल्पी समय के साथ चलते हुए शिल्प बना रहे हैं और उसके पीछे की कहानी भी बता रहे है ।

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  8. बैरागी जी जल्दी पहचान गए मुझे तो २० साल लग गए और अभी भी सिंह साहब मेरे लिए पहेली ही है. बढ़िया लेख नयी जानकारी सहित ....................

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  9. नगीने छुपे पडे हैं खानो में

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  10. ईश्वर करे यह परंपरा चलती रहे ,और इसके पारखी(आप जैसे) इसकी लोकप्रियता में वृद्धि करें !

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  11. शब्‍दों के जादूगर कहूँ या लेख के शिल्पकार ,
    चंद अक्षरों का ऐसे निपुण संयोजक वीरले ही मिलते हैं |
    शब्‍दगुरु के उत्कृष्ट कृति के लिये हार्दिक अभिनंदन ।
    सुशील सखूजा
    व.व.व.सुशीलस.कौम
    ९४२५२०८८७७
    भारत

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  12. समय के साथ बदलते स्वरुप में ही सही यह लोक कला जीवित रहे ऐसी कामना है .भोपाल में स्थित meusium of man की तर्ज़ पर छत्तीसगढ़ में meuseum of folk आर्ट बनाने पर विचार किया जाना चाहिए

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  13. एकताल के साथ बस्तर और अन्य कलाकारों से परिचित करवाने के लिए धन्यवाद

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  14. छतीसगढ़ अंचल की एक बेहतरीन परम्परा गत कला और कलाकारों से रु -बा -रु करवाया .आभारा एकताल एक लय एक नूखा गाँव नुपूर सा बाजे रे ....

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  15. आज 29/09/2012 को आपकी यह पोस्ट ब्लॉग 4 वार्ता http://blog4varta.blogspot.in/2012/09/4_29.html पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!

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  16. लक्षवेधक एकताल शिल्प कहानी निपुण जादू नये समय के साथ, सुखद

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  17. शिल्प शिल्पकार और पारम्परिकता की अनूठी कथा

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  18. मैं विष्णु जी और संयज जी से पूरी तरह सहमत हूँ, आप वास्तव में एक संस्थान हैं - आभार, धन्यवाद सब नितांत छोटे शब्द जान पड़ते हैं!

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    1. इस कतार में हम भी हैं .

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  19. एकताल को समग्रता से आपने समेट लिया. समय के हिसाब से गढ़ना उनके लिए सदैव संभव रहा है परन्तु पारंपरिक या ट्राइबल लुक वाली कला से विमुख होने से उन्हें जानबूझ कर निरुत्साहित किया जाता रहा है.

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  20. सही कहा विष्णु वैरागी जी ने - You are an institution.

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