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Sunday, August 26, 2012

दोहरी आजादी

अगस्त 1947 में भारत को दोहरी आजादी मिली। चाही थी एक, मिल गई दो (अब बांगला देश सहित तीसरी भी)। मानों एक के साथ एक जबरन फ्री। एक हिस्सा पाकिस्तान बन कर 14 तारीख को पहले आजाद हुआ और दूसरा भारत उसके बाद 15 तारीख को। जिन्‍ना पाकिस्‍तान डोमिनियन के पहले गवर्नर जनरल बन गए, नेहरू ने स्‍वतंत्र भारत के पहले प्रध्‍यनमंत्री पद की शपथ ली, गांधी ने अपना वह दिन उपवास और प्रार्थना र्में बिताया। 1946 से शुरू हुए दंगे, काश इतिहास में दफन रह जाते। आजादी के टुकड़ों में बंट जाने की त्रासदी के घावों पर भाईचारे के मरहम की चर्चाएं कम हों, लेकिन मिल जरूर जाती हैं।

सत्तर बसंत पार कर चुके बिलासपुर के हरदिल अजीज जनाब हिदायत अली 'कमलाकर' आजादी-बंटवारे के दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि पिता जनाब वासित अली खां, पिछोर, ग्वालियर में नायब तहसीलदार थे, दिन में 200 पान खाते थे, फिर भी 91 साल की उम्र तक दांत सलामत रहे। बड़े भाई इनायत अली खां 'डालडा' व्यंग्य-तंज लिखते थे, नियमित गणेश पूजा करते और गणेशोत्सव के दस दिन पूरे समय इसी में मशगूल होते। वैवाहिक संबंध अब हिन्दू परिवारों से भी हैं। कहते हैं- परिवार में हम चार भाई, दो बहन, माता, पिता और बिस्सी महराज थे। बिस्सी महराज पिताजी के सहयोगी थे, दंगों और अशांति के दौरान मौके आए, लेकिन दोनों एक दूसरे के लिए जान पर खेलने को तैयार रहते।

शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय, बिलासपुर के क्रीड़ा अधिकारी रहे कमलाकर जी को छत्तीसगढ़ शासन द्वारा 2008 में खेल विभूति सम्मान दिया गया है। साम्प्रदायिक सौहार्द के साथ बिलासपुर में बातें अक्सर कमलाकर जी के इर्द-गिर्द होती हैं। बंटवारे की पृष्ठभूमि पर उनका लिखा 'आज़ादी का पहिला दिन' नाटक प्रकाशित है। इसके साथ बाल साहित्य, नाटक, कविताओं की 15 पुस्तकें प्रकाशित हैं तथा 'अर्जुन का मोहमर्दन', 'कैकेयी का संताप', 'पाली का मंदिर' जैसी रचनाएं शीघ्र प्रकाश्य हैं। आपको 1998 में 'वीणा' खंडकाव्य पर मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का पं. हरिहर निवास द्विवेदी पुरस्कार भी मिल चुका है।

कमलाकर जी की एक चर्चित कृति 'समर्थ राम' हैं। पुस्तक में अंकित रामनवमी 06 अप्रैल 2006 तिथि के साथ 'अपनी बात' में आप लिखते हैं कि-
'समर्थ राम' लिख कर मेरे जीवन का एक महती लक्ष्य पूर्ण हुआ है। विगत अनेक वर्षों से ''मर्यादा पुरुषोत्तम राम'' पर कुछ लिखने की ललक थी। परन्तु जिस राम पर अनगिनत लेखनियों की स्याही चलते-चलते सूख गई हो और राम के जीवन का विषय क्षेत्र न बचा हो जिस पर लेखनी चल सकें तब मेरे जैसा अकिंचन राम पर लिखने का साहस कहां से बटोर पाता?
आगे वंदना की पंक्तियां हैं-
राम महासागर से उपजी 'समर्थ राम' मम हृदय।
'कमलाकर' गा रहे कृपा से मां सरस्वती सदय॥

इस साल आजादी की सालगिरह के सप्ताह में आई ईद पर बिस्सी महराजों के साथ हिदायत अलियों, कमलाकरों, दोनों आजाद मुल्‍कों के लिए मुबारकबाद इसी मंच पर।

Wednesday, August 15, 2012

मसीही आज़ादी

छत्‍तीसगढ़ ओरिसा चर्च कौंसिल के मुख्‍यालय रायपुर में १५ अगस्‍त १९४७ को मसीहियों द्वारा किस तरह महसूस किया जा रहा था, दस्‍तावेजी लेख में दर्ज प्रासंगिक अंश-

आज हम स्वतंत्र भारतीय आज़ाद भारत में प्रथम समय यहां एकत्रित हुए हैं स्वतंत्रता दिवस, अगस्त १५ को हम ने सारे देश में कितने आनन्द और समारोह से मनाया। उस की स्मृति हमारे हृदय में सदैव जागृत रहेगी। ऐसे तो यह दिन सब ही के लिये महत्वशील था, किन्तु हम मसीहियों के लिये यह एक विशेष अर्थ रखता है। वास्तविक स्वतंत्रता हमें मिल चुकी है। ... ... ... हम ख्रीष्टियानों का यह कर्तब्‍य है कि हम स्वतंत्रता का असली अर्थ लोगों को बतायें, जिस से जनता का अधिकाधिक हित हो सके। मसीही होने के कारण हमें ये सुनहरा अवसर हाथ लगा है। हम सामुहिक और व्यक्तिगत रूप से इस अवसर का सदुपयोग देश सेवा हितकर सकते हैं। यह व्यर्थ की वार्ता नहीं है। हमारे देश के नेताओं ने जो कार्यक्रम बनाया है उसे सफल बनाने के लिये यीशुमसीह का आर्शीवाद आवश्यक है। ... ... ...
हमें सर्तक रहना होगा और प्रत्येक अवसर का उपयोग करना पड़ेगा। हमारे देश का इतिहास बहुत शीघ्र बदलता जा रहा है। इंगलैंड के प्रधानमंत्री, श्रीमान एटली ने लगभग सात मास पूर्व ये घोषणा की थी कि अंगरेजी राज्य जून सन १९४८ में समाप्त हो जायगा। घटनाएं इतनी शीघ्र घटिं कि वह राज्य साढ़े पांच माह में समाप्त हो गया। बात कहते में पाकिस्तान और भारत खण्ड नामक दो राष्ट्र उत्पन्न हो गये। उस दिन से स्वंतत्रता ने हमें एक विचित्र हर्ष प्रदान किया है। हमारे जीवन में एक नई छटा दिखाई दे रही है। किन्तु हर्ष के साथ शोक और चिन्ता भी आई है। लाखों मनुष्य अवर्णानीय दुख भोग रहे हैं। कलकत्ते और पंजाब में हजारों मनुष्य सामग्री खो बैठे हैं और मारे२ फिर रहे हैं। लाखों की हत्या हुई है और गांवों के गांव नष्ट कर दिये गये। भारत से मुसलमान प्राण बचा कर पाकिस्तान भागे जा रहे हैं और वहां से हिन्दु और सिख प्राण लेकर यहां आ रहे हैं। महात्मा गांधी ने कलकत्ते में जाकर अनुपम आत्मिक वीरता दिखाई। उन्हों ने मसीही शिक्षानुसार घृणा और बैर को प्रेम और सेवा से जीता। फलस्वरूप आज कलकत्ते में अमन है। दिल्ली में भी उन्हों ने ऐसी ही भलाई की। उनका पंजाब जाना जनसमुहों के एक प्रांत से दूसरे प्रान्त भागने के कारण रुक गया। हमारी सरकार का कार्यक्रम भी एकदम बन्द हो गया। मनुष्य की पशुप्रवति जागृत हो उठी और प्रायः देश भर में हाहाकार मच गया। जिन ने अपनी आंखो से सब कुछ देखा है, वे बताते हैं कि दुर्घटनाएं बड़ी रोमान्चकारी, हृदय-विदारक और अकथनीय है। प्रधान मंत्रि पंडित नेहरू ने स्वयंम कहा है कि ऐसा लगता है मानो मनुष्य पागल हो गये हैं। इन सब क्लेशों और कष्टों के साथ ही अकाल और बिमारियां भी आईं हैं। सकल भारत की मंडलियों से कार्यकर्ता भेजने की विनय की जा रही है। डाक्टरर्स नर्सेस और संचालकों की शरणागतों की सेवा के लिये बडी मांग है। पैसों की भी बड़ी आवश्यकता है। मसिहियों को यह अनूठा अवसर हाथ लगा है। हमें यीशु का प्रचार अपने जीवन से करना होगा। जैसी कठिन समस्या है वैसा ही परिणाम भी होगा। हमारी मिशन से कई मिशनरी जाने वाले हैं। देशी मंडलियों से भी कई भारतीय जाने के लिए तत्पर है।
छत्‍तीसगढ़ डायोसिस, रायपुर - अजय जी
छत्‍तीसगढ़ ओरिसा चर्च कौंसिल का रजिस्‍टर, जिसका अंश यहां प्रस्‍तुत है, पृष्‍ठ- २४६ और २४७ पर '' सी.ओ.सी.सी. माडरेटर की रिपोर्ट '' ( अक्‍टोबर १९४६ से दिसम्‍बर १९४७ तक ) शीर्षक से दर्ज है, जिसमें आगे यह भी उल्‍लेख है कि ''ईसाइयों ने (Joint electorate ) युक्‍त निर्वाचन के सिद्धांत को स्‍वीकार किया है। हम लोग साम्‍प्रदायिकता के हमेशा विरोधी रहे हैं। हमने ये बात अपने कार्यों से भी स्‍पष्‍ट कर दी है। हम नहीं चाहते कि हमें कोई एक प्रथक सम्‍प्रदाय समझे।'' यह दस्‍तावेज अप्रत्‍याशित उदारतापूर्वक रायपुर डायोसिस, छत्‍तीसगढ़ के सचिव अजय धर्मराज जी ने उपलब्‍ध कराया।

Friday, August 10, 2012

यौन-चर्चा : डर्टी पोस्ट!

'मिथुन' और 'रति', साथियों में इक्के-दुक्के थे, जो इन शब्दों का बेझिझक उच्चारण कर पाते थे, कस्बाई और कुछ शहरी सिनेमाघर के पोस्टरों पर 'मिठुन' लिखा और बोला भी इसी तरह जाता था। इन नामों को चक्रवर्ती और अग्निहोत्री का सहारा दे कर बोलने में भी पहले-पहल हिचक होती थी। वैसी ही हिचक जैसी गायत्री मंत्र के उच्चारण में। यह हमारे टीन-एज (therteen-ninteen वर्ष की आयु) या कहें अह-आयु (ग्यारह-अट्ठारह वर्ष की आयु) पार कर लेने का दौर था। इस मामले में भाषा, रोजमर्रा वाली न हो तो बात कुछ आसान हो जाती है, ज्‍यों मूर्तिकला और साहित्य-अध्ययन संस्कृतनिष्ठ भाषा के साथ, और जंतुविज्ञान की पढ़ाई अंगरेजी के कारण, सहज हो पाती है। शायद भाषा की ही वजह से कोकशास्त्र का नाम सुनते रह गए, ठीक से देख भी न पाए लेकिन मास्टर्स एंड जॉनसन और द सेकंड सेक्स उसी दौर में पढ़ लिया, लेकिन तब बस इतना ही समझ पाए कि बात आसान नहीं, मामला कुछ तो गंभीर-सा है।

धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ काम, इन चार पुरुषार्थों वाली व्यवस्था हमारी शास्त्र परम्परा और संस्कार के अंग हैं। बच्चों की शिक्षा में धर्म, अर्थ और काम तीनों की शिक्षा आवश्यक होती थी, इसलिए गुरुकुलों में न सिर्फ मनु आदि स्मृतिकारों के धर्मशास्त्र और चाणक्य आदि राजविदों के अर्थशास्त्र, बल्कि वात्स्यायन आदि कामशास्त्रियों के कामशास्त्र का भी अध्ययन कराया जाता था। पंचतंत्र की कहानियां इसका अच्छा उदाहरण हैं, जिनमें नीति और दुनियादारी वाले प्रसंगों के साथ काम-कथाएं भी हैं और यह टीन-एजर के लिए अनूठे रोचक पाठ्‌यक्रम का नमूना नहीं, सीधे पाठ ही हैं।

ऐतिहासिक शिल्‍प परम्परा में खजुराहो और कोणार्क से ले कर भोरमदेव तक की मूर्तियां अधिक चर्चित हैं, लेकिन ऐसी प्रतिमाएं कमोबेश पुराने मंदिरों में होती ही हैं। जिज्ञासा प्रकट की जाती है कि कैसा सामाजिक दौर रहा होगा जब मंदिरों के लिए ऐसी मूर्तियां बनाई गई होंगी। इसका जवाब प्रतिप्रश्न में आसानी से मिल सकता है कि इस दौर के योनिपीठ में स्थापित शिवलिंग की पूजा, स्खलित-वसना और लज्जा गौरी की प्रतिमाओं में उकेरी गई अनावृत्त योनि का संग्रहालयों में सार्वजनिक प्रदर्शित, नागा साधुओं और दिगम्बर जैन मुनियों के आधार पर समाज के यौन-व्यवहार की कैसी व्याख्‍या होगी। ''साहित्य समाज का दर्पण है'' सूत्र से आगे बढ़ें तो प्राचीन पौराणिक और लौकिक साहित्य से ले कर रीतिकालीन काव्य तत्‍कालीन समाज को किस तरह प्रतिबिंबित करेंगे।

अब समाज का एक प्रतिबिंब फिल्में भी हैं। नियोग प्रथा की शास्त्रीय मान्यता वाले हमारे समाज में 'विकी डोनर', न सिर्फ बतौर फिल्म अच्छी मानी गई, बल्कि केवल पांच करोड़ बजट वाली फिल्म ने खासा मुनाफा कमाया और सबसे खास कि आम संस्कारी मध्य वर्ग के अधेड़ दर्शकों को भी इसमें कुछ खटका नहीं। बोल्ड हो चुके आम हिन्दी फिल्म दर्शकों को 'जिस्म-2' में कुछ खास आपत्तिजनक नहीं लगा, वैसे जानकार इसका श्रेय सेंसर की कैंची को देते हुए बताते हैं कि पूजा-सनी ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं रखी थी। बहरहाल विकी डोनर के निर्माता जॉन अब्राहम के कथन कि यह 'एक साफ-सुथरी फिल्म है' से कोई खास असहमति नहीं जताई गई, हां! पिछले दिनों आइफा अवार्ड्‌स में इस फिल्म को ले कर शाहिद कपूर की कॉमेडी में जिस ओछे स्तर की अश्लीलता और फूहड़पन दिखाया गया, उसे भूल जाना ही बेहतर है।

चित्र बतकुचनी से साभार
बड़ों के लिए जो 'बाज़ीचा ए अतफाल' है, अबोध मान लिए जाने वाले बच्चों का खेल छत्तीसगढ़ी में घरघुंदिया कहा जाता है। गुड्‌डा-गुड़िया और फिल्म लव स्टोरी के गीत 'देखो मैंने देखा है ये इक सपना' जैसा मिला-जुला खेल। घरघुंदिया में बच्चे धूल-मिट्‌टी, सींक-चिंदियों जैसी अनुपयोगी लेकिन सुलभ सरंजाम से घरौंदे-आकृतियां बनाते हैं और अपने पसंद की भूमिकाएं चुनकर मां-बाप, भाई-बहन, पड़ोसी-टीचर और पति-पत्नी भी बनते हैं। ''घरघुंदिया खेलबो रांधी पसानी, बन जाबे मोर रानी। ठट्ठे ठट्ठा के बिहा हर होही, घर म भरबे पानी॥'' खेल के बीच में शामिल होने वाले बच्चे को मेहमान या सद्यःजात शिशु जैसी भूमिका दी जाती है। खेल के अंत में 'मोर चुंन्‍दी (चूड़ा=केश) बाढ़ जाय' और 'मोर गाय जनम जाय' कहते हुए घरघुंदिया के लिए बनाई गई सभी आकृतियां मिटा-मेंझाल दी जाती हैं। यौन-शिक्षा के बारे में सोचते हुए शायद हमारे ध्यान में यह साफ तौर पर नहीं आता कि (अपने भी खेले) घरघुंदिया के वार्तालाप और क्रिया-कलाप कितने प्रौढ़ होते हैं और दिन-दिन भर चलने वाले इस खेल में दैनंदिन ही नहीं, मास-बरस भी होता है। कालिदास के कुमारसंभव में पार्वती कुछ सयानी हो जाने पर सखियों के साथ ‘कृत्रिमपुत्रकैः‘ (गुड्डा-गुड़िया या बनावटी पुत्र?) खेला करती थीं। बख्‍शी जी के निबंध 'गुडि़या' का अंश है – ''गुडि़या का विवाह एक खेल है, एक तमाशा है, पर अक्षय तृतीया की ही रात्रि में यह खेल होता है। ... गुडि़या के विवाह का चाहे जो रहस्‍य हो, पर इसमें सन्‍देह नहीं कि लड़कियों के इस उत्‍सव में मैं अवश्‍य सम्मिलित होता हूं।''

यों यौन शिक्षा के औचित्य का प्रश्न वाद-विवाद प्रतियोगिता के विषय तक सीमित होता दिखता है, लेकिन आज के दौर में यौन से जुड़ी, संचार साधनों से सहज उपलब्‍ध, असम्‍बद्ध सचित्र सूचनाओं और अधकचरी जानकारियों का बच्चों तक पहुंचना, हमारे चाहने-न चाहने के आश्रित नहीं रह गया है फिर भी हम अधिकतर अभिभावक के मन में कहीं होता है कि हमने जो बहुत कुछ उम्र से पहले जान लिया था, बच्‍चे वह उम्र आने पर ही जान पाएं। ऐसी स्थिति में यह देखना अधिक जरूरी है कि यौन चर्चा वर्जित 'गुप्त ज्ञान' बन कर ग्रंथि और कुंठा न बन जाए। स्कूलों में हिन्दी के रसिक शिक्षक श्रृंगार रस की कविताओं की जैसी व्याख्‍या करते हैं, सहशिक्षा वाले स्कूल के जीवविज्ञान की कक्षाओं में भी जननांगों और प्रजनन के पाठ पढ़ाए जाते हैं और चिकित्सा महाविद्यालयों में अनिवार्यता के कारण मानव अंगों का प्रत्‍यक्ष अध्‍ययन किस आसानी से संभव हो जाता है, जैसे तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में अनुशासित करने की आवश्यकता है।

एक पिता, 9 साल के बेटे और 13 साल की बेटी के साथ टीवी देख रहे थे। मां किचन में थी। कंडोम का विज्ञापन आने लगा। टीन-एज बेटी की उपस्थिति ने पिता को असहज कर दिया। पिता ने चैनल बदला। 'नासमझ' बेटा वही चैनल देखने की जिद करने लगा, फिर रूठ कर मां के पास किचन में चला गया। 'समझदार' हो रही बेटी ने कहा- ''पापा! भाई कुछ पूछ न बैठे, आपने इसीलिए कंडोम विज्ञापन वाला चैनल बदला न।''

इस प्रसंग के सच होने का प्रमाण यही है कि हम-आप सब के साथ इससे मिलता-जुलता हमें 'चौंकाने वाला' वाक्या जरूर हुआ होता है, होता रहता है।

यह पोस्‍ट रायपुर से प्रकाशित पत्रिका 'इतवारी अखबार' के 26 अगस्‍त 2012 के अंक में प्रकाशित।

Sunday, August 5, 2012

शुक-लोचन

छत्‍तीसगढ़ और छत्‍तीसगढ़ी के आरंभिक साहित्‍यकार पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय का जन्म शिवरीनारायण में 19 जुलाई 1885 (कहीं 1886 मिलता है), आषाढ़ शुक्ल अष्टमी संवत 1942, रविवार को तथा मृत्यु रायगढ़ में 2 जनवरी 1951 को हुई। उनकी प्रमुख प्रकाशित रचनाएं 'मैथिली मंगल', 'छत्तीसगढ़ गौरव' और सन 1918 में प्रकाशित 'छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया' है, जो शेक्सपियर के 'कॉमेडी ऑफ एरर्स' को आंचलिक परिवेश में ढाल कर किया गया पद्यानुवाद है, और यह छत्तीसगढ़ी साहित्य की पहली अनूदित रचना मानी गई है। पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय जी पर रायगढ़ के शत्रुघ्न साहू, भाटापारा के राममोहन त्रिपाठी और बेमेतरा के शत्रुघ्न पांडेय ने शोध किया है।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय -  पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय - रमेश पांडेय जी
यहां पं. शुकलाल प्रसाद पांडेय द्वारा छत्तीसगढ़ के पुराविद-साहित्यकार पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को संबोधित पत्र की प्रस्‍तुति है। इस पत्र की प्रति शुकलाल जी के पौत्र वरिष्‍ठ पुलिस अधिकारी रमेश पांडेय जी ने उपलब्‍ध कराई है।
श्री रामः।
स्वजन-चकोरानन्द-रजनीश-धवल, विधि-कमण्डल-निस्सरित सरितवत विमल, स्वदेशोद्यान-स्थित-प्रभूत-परिमल घृत चन्दन, महितल-विरा-जित-सुकवि-मंडली-मंडन; विश्व-मंदिर-शोभित-दिव्य दीप, निगमाधिक-ग्राम-दाम-अवनीप; धर्म-धुर-न्धर, भूमि-पुरन्दर; अखिल-गुण-गण-मंडित, सकल काव्य-शास्त्र-पंडित; प्रचुर प्रज्ञावन्त, कविता-कामिनी-कंत; यश-धाम, चरित-ललाम; महा महिमा-धृत-पूज्यपाद, श्री र्छ पं. लोचनप्रसाद जी पाण्डेय के त्रि-विध ताप नाशक, सुन्दर-सुशीतल-अमल-कमल-तुल्य शांति-विधायक चरणों में; दीनातिदीन, बुद्धि-विद्या विहीन; पाद-पंकज-मधुकर, दासानुदास; अनुचर; ग्रसित-दुःख-उन्माद, द्विज शुकलाल प्रसाद; भक्ति भरित हृदय-धाम, श्रद्धा-पुष्पांजलि ले ललाम, करता है अनेक अनेकशः दण्डवत-प्रणाम।

देव!
अनेक आधि-व्याधि और उपाधियों के कारण चिरकाल से आपके विपुल विदुषजन-अर्चित, यश-परिमल-पंकचर्चित चारुचरणों में, मैं अपने कुशल-मंगल की मृदुल-मंजुल-पूजा-कुसुमांजलि समर्पित न कर सका। एतदर्थ मुझे बड़ा परिताप है। पर यह सर्वथा सत्य है कि आप के स्मरण-सरोज के अमल आमोद दाम परिमल-प्रवा-ह से मेरा चित्त-चंचरीक यदा कदा आनन्दानु-भव करता ही रहता है। दुर्भाग्य के निकट में इतना सौभाग्य भी बड़ा गर्व मूलक है।

बहुत दिनों से आपलोगों के दर्शनों की हृदय में अतीव लालसा है। प्रजावत्सल महामान्य-वर रायगढ़-नरेश के मंगलमय उद्वाह-कार्य में सम्मिलित हो पूज्यपाद पं. बलदेव प्रसाद जी मिश्र, पूज्यचरण पं. पुरुषोत्तम प्रसाद जी पाण्डेय, श्रद्धास्पद पं. मुकुटधर जी, तथा मनोहरमूर्ति
मनोहरलाल जी सारंगढ़ पधारे थे। दुभार्ग्य से मैं उन दिनों ज्वर ग्रस्त हो शैयाशायी था। अतः उपरोक्त महानुभावों के दर्शनार्थ सारंगढ़ न जा सका। ''मन की मनहीं माहिँ रही।''
मैं आजकल मैथिली-मंगल नामक काव्य का विरचन कर रहा हूँ। दो सर्ग अभी तक बन सके हैं। इसे आपलोगों को दिखा कर कुछ उपदेश ग्रहण करने की मन में बड़ी इच्छा है; पर आपकी अनुमति पाये बिना इसे आप लोगों के पास भेजने से एक प्रकार की असभ्यता होगी, यही सोच मैं इस कार्य से हाथ खींचे बैठा हूं। यदि अवकाश हो, तो कृपया आज्ञा दीजिये।
बद्ध-मुष्ठि रायपुरी काउंसिल शिक्षकों की वेतन-वृद्धि में अनुदारता का प्रयोग चिरकाल से करती आ रही है। मुझे यहाँ ४०/ मासिक मिलता है। बहु कुटुम्बी आश्रम में इतने में जीवन निर्वाह
भली भाँति नहीं हो रहा है। मन सदा उद्विग्न और चिंतित रहता है। अधिक क्या, निम्नलि-खित पद्य मेरी दशा के उज्वल चित्र हैं :-
''मिलता पगार प्रभागार तभी पूर्णिमा है,
ले-दे हुए रिक्त अमावस भय दानी है।
आजतक वेतन के रुपये हजारों मिले;
झोपड़ी बनी न पेट-दरी ही अघानी है॥
पास है न पैसा एक कफन मिलेगा क्या न?
शुकलाल ताक रही मृत्यु महारानी है।
जड़ लेखनी भी रो रही है काले आंसुओं से;
मेरी दुखसानी ऐसी करुण कहानी है॥''
(२)
शिक्षक ने एक रोज पूछा निज बल्लभा से-
''वेतन है अल्प, निरवाह कैसे कीजिये?
अश्रु-ओस-शोभित हो बोली यों कमलमुखी-
''नाथ! मुझे मेरे मायके में भेज दीजिये।
''और इन बालकों को?''(हाय! छाती फट जा तू);
जा अनाथ-आलय को शीघ्र सौंप दीजिये।
कूए में न कूदिएगा चूड़ी मेरी राखिएगा,
बीस दिन खा के शेष दिन व्रत कीजिये।

मैंने सुना है कि हाई स्कूल रायगढ़ में हिन्दी पढ़ाने वाले अध्यापक का स्थान रिक्त है, अथवा उस पद पर किसी अच्छे अध्यापक की नियुक्ति के लिये उस शिक्षा-संस्था के महानुभाव सदस्यगण चिन्ताशील हैं।

मैं नार्मल परीक्षोत्तीर्ण और री-ट्रेंड-टीचर हूं। मेरी सर्विस २२ वर्ष की है। मैं हिन्दी की मध्यमा- परीक्षा में भी उत्तीर्ण हूं। अतः मैं इन्ट्रेन्स कक्षाओं में हिन्दी पढ़ाने का कार्य भलीभाँति कर सकता हूं।

यदि उपरोक्त समाचार सत्य है और यदि वहां मैं सफलता पा अपना हित साधन कर सकूं और आप भी यदि उचित समझें तो रायगढ़ के शिक्षा विभाग के मुख्‍याधिकारी महोदय से
मेरी सिफारिश कर मुझे अपनी अतुलनीया अनुकम्पा से कृतार्थ कीजिएगा।

आशा है, नहीं २, दृढ़ विश्वास है कि मेरी यह विनय-पत्रिका आपके कमनीय कर-क-मलों में समर्पित हो मुझे सफल-मनोरथ कराने में अवश्य सफलता प्राप्त करेगी।

''भिक्षामोघा वर मधि गुणे नाधमे लब्ध कामा।''

विनयाऽवनत
शुकलाल प्रसाद पाण्डेय,
हे.मा. मिडिल स्कूल
भटगांव
आश्विन शुक्ल द्वादशी
८६
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इस तारतम्य में एक अन्‍य पत्र-
हिन्दी व्याख्‍याता पद के लिए मुक्तिबोध जी ने दिनांक 10-5-58 को अंगरेजी में आवेदन किया था, यह भी एक पृथक पोस्ट बना कर प्रकाशित करना चाहता था, किन्तु अपनी सीमाओं के कारण अब तक वह मूल पत्र या उसकी प्रति नहीं देख पाया। विभिन्न स्रोतों से पुष्टि हुई कि यह पत्र टाइप किया हुआ है। यहां इस्‍तेमाल प्रति, सन 1957 में स्थापित शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव के 1982 में प्रकाशित रजत जयंतिका अंक से ली गई है। पत्र में मुक्तिबोध अपने तेवर सहित हैं।


पत्र के कुछ खास हिस्से का हिन्‍दी अनुवाद इस तरह होगा- ''मैं हिंदी कविता के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में प्रभावी आधुनिकतावादी रुझान का अगुवा रहा हूं। ... ... ... मैंने प्राचीन साहित्यिक मूल्यों का पुनर्विवेचन आरंभ किया और कतिपय नये सौंदर्यबोध की अवधारणा सृजित कर इसे व्यष्टि एवं समष्टि की नवीन परिवर्तनशील जीवन शैली से जोड़ा। ... .... ... अब मेरी साहित्यिक प्रतिष्ठा है। प्रायः हिंदी कविता के आलेखों में मेरे उद्धरण लिये जाते हैं।

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छत्‍तीसगढ़ से मेरा लगाव सिर्फ इसलिए नहीं कि यह मेरी जन्‍मभूमि है, यहां गौरव उपादान पग-पग 'जिन खोजा' नहीं 'बिन खोजा' भी पाइयां हैं।