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Saturday, April 28, 2012

अकलतरा के सितारे

आजादी के बाद का दौर। मध्‍यप्रांत यानि सेन्‍ट्रल प्राविन्‍सेस एंड बरार में छत्‍तीसगढ़ का कस्‍बा- अकलतरा। अब आजादी के दीवानों, सेनानियों की उर्जा नवनिर्माण में लग रही थी। छत्‍तीसगढ़ के गौरव और अस्मिता के साथ अपने देश, काल, पात्र-प्रासंगिक रचनाओं से पहचान गढ़ रहे थे पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी 'विप्र'। यहां संक्षिप्‍त परिचय के साथ प्रस्‍तुत है उनकी काव्‍य रचना स्वर्गीय डा. इन्द्रजीतसिंह और ठा. छेदीलाल-
बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल
जन्‍म-07 अगस्‍त 1891, निधन-18 सितम्‍बर 1956
पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी 'विप्र'
जन्‍म-06 जुलाई 1908, निधन-02 जनवरी 1982
लाल साहब डॉ. इन्द्रजीतसिंह
जन्‍म-28 अप्रैल 1906 (पासपोर्ट पर अन्यथा 05 फरवरी 1906), निधन-26 जनवरी 1952

अकलतरा में सन 1949 में सहकारी बैंक की स्‍थापना हुई, बैंक के पहले प्रबंधक का नाम लोग बासिन बाबू याद करते हैं। डा. इन्द्रजीतसिंह द्वारा भेंट-स्‍वरूप दी गई भूमि पर बैंक का अपना भवन, तार्किक अनुमान है कि 1953 में बना, इस बीच उनका निधन हो गया। उनकी स्‍मृति में भवन का नामकरण हुआ और उनकी तस्‍वीर लगाई गई। लाल साहब के चित्र का अनावरण उनके अभिन्‍न मित्र सक्‍ती के राजा श्री लीलाधर सिंह जी ने किया। इस अवसर के लिए 'विप्र' जी ने यह कविता रची थी।
स्वर्गीय डा. इन्द्रजीतसिंह
(1)
जिसके जीवन के ही समस्त हो गये विफल मनसूबे हैं।
जिस स्नेही के उठ जाने से हम शोक सिंधु में डूबे हैं॥
हम गर्व उन्हें पा करते थे - पर आज अधीर दिखाते हैं।
हम हंसकर उनसे मिलते थे अब नयन नीर बरसाते हैं॥
वह धन जन विद्या पूर्ण रहा फिर भी न कभी अभिमान किया।
है दुःख विप्र बस यही- कि ऐसा लाल सौ बरस नहीं जिया॥

(2)
सबको समता से माने वे- शुचि स्नेह सदा सरसाते थे।
छोटा हो या हो बड़ा व्यक्ति- सबको समान अपनाते थे॥
वे किसी समय भी कहीं मिलें- हंस करके हाथ मिलाते थे।
वे अपनी सदाचारिता से - हर का उल्लास बढ़ाते थे॥
वह कुटिल काल की करनी से - पार्थिव शरीर से हीन हुआ।
वह इन्द्रजीत सिंह सा मानव- क्यों ''विप्र'' सौ बरस नहीं जिया॥

(3)
राजा का वह था लाल और, राजा समान रख चाल ढाल।
राजसी भोग सब किया और था राज कृपा से भी निहाल॥
जीते जी ऐसी शान रही- मर कर भी देखो वही शान।
हम सभी स्वजन के बीच ''विप्र'' सम्मानित वह राजा समान॥
तस्वीर भी जिसकी राजा का संसर्ग देख हरषाती है।
श्री लीलाधर सिंह राजा के ही हाथों खोली जाती है॥

थोड़े बरस बाद ही डा. इन्द्रजीतसिंह के निधन का शोक फिर ताजा, बल्कि दुहरा हो गया। स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी, युग-नायक बैरिस्‍टर छेदीलाल नहीं रहे, तब 'विप्र' जी ने कविता रची-
ठा. छेदीलाल
अकलतरा के दो जगमग सितारे थे-
दोनों ने अमर नाम स्वर्ग जाके कर लिया।
विद्या के सागर शीलता में ये उजागर थे -
दोनों का अस्त होना सबको अखर गया॥
काल क्रूर कपटी कुचाली किया घात ऐसा-
छत्तीसगढ़ को तू वैभव हीन ही कर दिया-
एक लाल इन्द्रजीत सिंह को तू छीना ही था-
बालिस्टर छेदीलाल को भी तू हर लिया॥
छेदी लाल छत्तीसगढ़ क्षेत्र के स्तम्भ रहे-
महा गुणवान धर्म नीति के जनैया थे।
राजनीति के वो प्रकाण्ड पंडित ही रहे-
छोटे और बड़े के समान रूप भैया थे।
राम कथा कृष्ण लीला दर्शन साहित्य आदि-
सब में पारंगत विप्र आदर करैया थे।
गांव में, जिला में और प्रान्त में प्रतिष्ठित क्या-
भारत की मुक्ति में भी हाथ बटवैया थे॥
छिड़ा था स्वतंत्रता का विकट संग्राम -
छोड़कर बालिस्टरी फिकर किये स्वराज की।
आन्दोलनकारी बन जेल गये कई बार -
चिन्ता नहीं किये रंच मात्र निज काज की।
अगुहा बने जो नेता हुए महाकौशल के -
भारत माता भी ऐसे पुत्र पाके नाज की।
ऐसा नर रत्न आज हमसे अलगाया 'विप्र'-
गति नहिं जानी जात बिधना के राज की॥

बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल जी पर एक पोस्‍ट पूर्व में लगा चुका हूं, उन पर लिखी पुस्‍तक की समीक्षा डॉ. ब्रजकिशोर प्रसाद ने की है। अंचल के प्रथम मानवशास्‍त्री डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह जी का शोध पुस्‍तककार सन 1944 में प्रकाशित हुआ, उनसे संबंधित कुछ जानकारियां आरंभ पर हैं इस पोस्‍ट की तैयारी में तथ्‍यों की तलाश में पुष्टि के लिए उनका पासपोर्ट (जन्‍म स्‍थान, जन्‍म तिथि के अलावा कद 6 फुट 2 इंच उल्‍लेख सहित) और विजिटिंग कार्ड मिला गया, वह भी यहां लगा रहा हूं-

ऐसे अतीत का स्‍मरण हम अकलतरावासियों के लिए प्रेरणा है।

बैरिस्‍टर साहब का जन्‍मदिन, हिन्‍दी तिथि (तीज-श्रावण शुक्‍ल तृतीया) के आधार पर पं. लक्ष्‍मीकांत जी शर्मा के ''देव पंचांग'' कार्यालय, रायपुर द्वारा परिगणित है।

Wednesday, April 25, 2012

बेरोजगारी

तब जो कुछ करता था, वह 'क्‍या करते हो?' के जवाब में पूरा नहीं पड़ता था, इसलिए 'बेरोजगार' शब्‍द टालने के लिए ही नहीं, तब उसकी तासीर समझने में भी काम आया था। लगभग बिना प्रयोजन तब लिखा अपना यह नोट 'कोरबा' के साथ मिल गया, ब्‍लागरी होती तो तभी लग जाता, अब सही...

बिलासपुर जिले के कोरबा-गेवरा की खुली कोयला खदान, दुनिया की अपने तरह की सबसे बड़ी खदानें हैं, जिनमें कभी न बुझने वाली आग धधकती रहती है, और कोयले के आग की तासीर भी कुछ खास होती है। राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम, एनटीपीसी, कोरबा के छंटनीशुदा कर्मचारी, 33 वर्षीय कामेश्वर सिंह ने नियमित सेवा में लिये जाने की मांग पूरी न होने के कारण 26 फरवरी को शाम 6 बजे आत्मदाह की घोषणा की थी।

समय से पहले लोग वहां जमा होने लगे और उत्तेजना बढ़ने लगी थी। उधर कामेश्‍वर एनटीपीसी कार्यालय के पास नाले पर किनारे-किनारे लुकता-छिपता आगे बढ़ रहा था। उसने मैले-कुचैले कपड़े पहन रखे थे, उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं था। 6 बजे के कुछ ही मिनटों बाद वह गेट नं. 2 पर प्रकट हुआ और माचिस की तीली से पेट्रोल बुझे अपने कपड़ो में आग लगा ली। लोगों का ध्यान इस भभकते शोले की ओर गया। कुछ ने रेत और धूल से आग बुझाने की कोशिश भी की किन्तु देखते-देखते वह 80 प्रतिशत झुलस चुका था, उसे तुरंत अस्पताल ले जाया गया। 22 घंटे की उसकी इस जद्दोजहद ने दम तोड़ा, 27 फरवरी को शाम 4 बजे और उसने अपनी धमकी को इस तरह कारगर कर दिखाया।

इस दुर्घटना की पृष्ठभूमि समझने के लिये कुछ दिन पीछे जाना होगा। कामेश्वर सिंह ग्राम रेवा, थाना सरैया, जिला मुजफ्फरनगर, बिहार का निवासी था। सन 1975 में मुजफ्फरपुर से बीए किया। 1978 तक बी.टी.ट्रेनिंग की। नवंबर 1978 में किसी रिश्तेदार के कहने-सुनने पर उसे एनटीपीसी में काम मिल जाने की बात बनी। 80 वर्षीया विधवा मां व 18 वर्षीय अपाहिज भाई का सहारा यह युवक कोरबा चला आया।

तब से 1 जनवरी 81 तक उसे समय-समय पर दैनिक भुगतान पर काम में रखा जाता रहा। कुछ अन्य सहकर्मियों की भांति उसे काम पर नियमित नहीं किया गया तो उसने इस आशय का एक पत्र एनटीपीसी के महाप्रबंधक को लिखा। पत्र पर कोई आशतीत प्रतिक्रिया न देखकर 16 जनवरी को आमरण अनशन पर बैठ गया। 2 दिन पश्चात ही पुलिस ने उस पर दफा 309, आत्महत्या का मामला बना दिया। इसके बाद उसका धैर्य जवाब देने लगा और अंततः उसने आत्मदाह की घोषणा कर डाली, किन्तु 2 फरवरी को महाप्रबंधक को एक पत्र में उसने लिखा कि आपके मौखिक आश्वासन पर अपने आत्मदाह की घोषणा वापस लेता हूं लेकिन आत्मदाह की तारीख 26 फरवरी निकट आते-आते उसने पुनः आत्मदाह की घोषणा कर दी।

इस घटना के बाद आत्मदाह के विभिन्न मसले इतने विवादग्रस्त हो गए कि कुछ मूल तथ्यों को छोड़ किसी भी बात पर दो मत एक जैसे नहीं है। कामेश्वर किस अमानवीयता का शिकार हुआ कि उसने अपना सहेजा-संभाला धैर्य पुनः खो डाला, कहना जरा मुश्किल है। किन्तु उसके आत्मदाह के पश्चात एनटीपीसी की ओर से दिये गये ब्यौरे के कुछ वाक्यों से स्थिति का काफी कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। जैसे- (एनटीपीसी की) ''फिर मानसिकता यह भी थी कि कोई क्यों आत्मदाह करेगा।'' ''प्रबंध तंत्र द्वारा काम पर वापस लेने के आश्वासन के उत्तर में वे कहते रहे कि अब वे एनटीपीसी में नौकरी करने में रूचि नहीं रखते। अंततः वे कतिपय तत्वों के बहकावे में आकर प्रशासन की आंखों में धूल झोंककर आत्मदाह करने में सफल रहे'' आदि। यह भी उल्लेखनीय है कि आयुक्त, जिलाधीश और पुलिस उपमहानिरीक्षक उस दिन कोरबा में ही मौजूद थे।

अब इस घटना पर विभिन्न तरह की चर्चाएं हो रही हैं। एक नेता ने तो इस कांड की न्यायिक जांच की मांग करते हुए स्वयं भी आत्मदाह करने की घोषणा कर दी है। न जाने और किन-किन स्वार्थों की रोटी इस आग में सेंकी जायेगी। हो सकता है सरकार की ओर से मृतक के परिवार को कुछ सहायता दे दी जाय और एनटीपीसी प्रशासन को कुछ कड़े निर्देश दे दिये जाएं। किन्तु अब कामेश्वर नहीं हैं, लेकिन उनके पीछे उठने वाले सवाल जरूर हैं। आत्मदाह की स्थितियां पैदा करने के कारण और तात्‍कालिक परिस्थितियां, इसे रोका क्‍यों नहीं जा सका और सवाल यह भी कि एक बेरोजगार को अपनी स्थिति से ज्यादा सुखद जलकर मर जाना लगे तो बेरोजगारी के आग की तासीर क्या होगी।

Friday, April 20, 2012

कोरबा

रत्नगर्भा धरा के कोष में अनमोल प्राकृतिक खजाना छुपा हुआ है, जो उजागर होकर हमें चमत्कृत और अभिभूत कर देता है। इसका आकर्षण, ऐसे सभी केन्द्रों पर मानव के लिये प्रबल साबित होता है, जैसा कोरबा और उसके चतुर्दिक क्षेत्र में दृष्टिगोचर है। यह भूमि इतिहास के प्रत्येक चरण में मानव जाति की क्रीड़ा भूमि रही है। यह क्षेत्र नैसर्गिक सम्पदा से परिपूर्ण रहा है। हसदेव के सुरम्य और तीक्ष्ण प्रवाह से सिंचित तथा सघन वनाच्छादित उपत्यकाओं से परिवेष्टित यह भूभाग आदि मानवों द्वारा संचारित रहा हैं इसके प्रमाण स्वरूप हसदेव लघु पाषाण उपकरण प्राप्त होते हैं, और कोरबा से संलग्न रायगढ़ जिले का सीमावर्ती क्षेत्र तो मानो आदि मानवों का महानगर ही था। आदि मानवों को विभिन्न गतिविधियों के प्रमाण इस क्षेत्र में सुरक्षित हैं। इसी पृष्ठभूमि पर ऐतिहासिक-पौराणिक ऋषभतीर्थ और अब छत्‍तीसगढ़ का औद्योगिक तीर्थ कोरबा विकसित हुआ है।
ईस्वी पूर्व के धार्मिक-पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख और घटनाओं की संबद्धता से भी इस क्षेत्र की प्राचीनता पर प्रकाश पड़ता हैं महाभारत में उल्लेख है कि दक्षिण कोसल के प्रसिद्ध स्थल, ऋषभतीर्थ में गौदान करने से पुण्य अर्जित होता है। इस उल्लेख की ऐतिहासिकता निकटस्थ गुंजी के शिलालेख से प्रमाणित होती हैं ईस्वी की आरंभिक शताब्दी से संबंधित इस लेख में राजपुरूषों द्वारा सहस्त्र गौदान किया जाना अभिलिखित है। लेख का पाठान्तर इस प्रकार है- ''सिद्धम। भगवान को नमस्कार। राजा श्रीकुमारवरदत्त के पांचवें संवत्‌ में हेमन्त के चौथे पक्ष के पन्द्रहवें दिन भगवान के ऋषभतीर्थ में पृथ्वी पर धर्म (के समान) अमात्य गोडछ के नाती, अमात्य मातृजनपालित और वासिष्ठी के बेटे अमात्य, दण्डनायक और बलाधिकृत बोधदत्त ने हजार वर्ष तक आयु बढ़ाने के लिए ब्राह्मणों को एक हजार गायें दान की। छवें संवत में ग्रीष्म के छठे पक्ष के दसवें दिन दुबारा एक हजार गायें दान की। यह देखकर दिनिक के नाती ... अमात्य (और) दण्डनायक इंद्रदेव ने ब्राह्मणों को एक हजार गायें दान में दीं।'' इन प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र में वैदिक परंपराओं की गतिविधियां सम्पन्न हुआ करती थीं। किरारी (चंदरपुर) का काष्ठ स्तंभ लेख तो अद्वितीय ही है, जिसमें राज्य अधिकारियों के पद नाम हैं।
ऋषभतीर्थ, गुंजी या दमउदहरा
इस क्षेत्र को रामायण के कथा प्रसंगों से भी जोड़ा जाता है। यह क्षेत्र राम के वनगमन का क्षेत्र तो माना ही गया है, सीतामढ़ी आदि नाम इसके द्योतक हैं निकटस्थ स्थल कोसगईं में प्राप्त पाण्डवों की प्रतिमाएं क्षेत्रीय पौराणिक मान्यताओं को और भी दृढ़ करती है। कोरबा के नामकरण को भी कौरवों से जोड़ा जाता है और सहायक तथ्य यह है कि इस क्षेत्र के आसपास कोरवा और पण्डो, दोनों जनजातियां निवास करती हैं। एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि बिलासपुर जिले के ही लहंगाभाठा नामक स्थल से लगभग 12-13 वीं सदी ईस्वी का शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसमें तत्कालीन कौरव राजवंश की जानकारी मिलती है, जिन्होंने अपने समकालीन प्रसिद्ध क्षेत्रीय राजवंश कलचुरियों पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। संभव है कि इस राजवंश की राजधानी कोसगईं, कोरबा क्षेत्र में रही हो। इस क्षेत्र में प्रचलित पंडवानी और फूलबासन (सीता प्रसंग) गाथा में ऐतिहासिक सूत्र खोजे जा सकते हैं।
सीतामढ़ी, कोरबा की गुफा में पूजित राम-लक्ष्‍मण-सीता प्रतिमा
'अष्‍टद्वारविषये' उल्लिखित शिलालेख
कोरबा के सीतामढ़ी में एक शिलालेख है, जिसमें लगभग आठवीं सदी ईस्वी का जीवन्त स्पन्दन है। इस शिलालेख के अनुसार यह क्षेत्र अष्टद्वार विषय में सम्मिलित था और यहां किसी वैद्य के पुत्र का निवास था। अष्टद्वार विषय का अर्थ तत्कालीन अड़भार क्षेत्र है। सातवीं सदी ईसवी के लगभग सक्ती के निकट स्थित अड़भार ग्राम प्रसिद्ध नगर था। यहां से प्राप्त एक ताम्रपत्र में भी इस क्षेत्र का नाम 'अष्टद्वार विषय' उल्लिखित है। संभवतः यह नाम अड़भार के अष्टकोणीय (तारानुकृति) मंदिर अथवा आठ द्वार युक्त मिट्‌टी के परकोटे वाले गढ़ के नाम के आधार पर है। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में एक अन्य प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाणयुक्त ग्राम बाराद्वार (बारहद्वार) भी है। अंचल में प्रचलित विभिन्न दन्तकथाओं में कोरबा तथा गुंजी को अड़भार से सम्बद्ध किया जाता है।
दैनिक लोकस्वर, कोरबा संस्करण के
शुभारंभ दिनांक 1 अगस्त 1992
के पूर्ति अंक के लिए तैयार किया गया,
पृष्ठ -1 पर प्रकाशित मेरा आलेख।
 अखबार की प्रति तो मिली नहीं,
अपना लिखा यह पन्‍ना मिल गया
परवर्ती काल में कोरबा, जिले की विशालतम जमींदारी का मुख्‍यालय बना, जो यहां के राजनैतिक-प्रशासनिक महत्व का द्योतक है। यह जमींदारी 341 गांवों और 856 वर्गमील में फैली थी तथा संभवतः सबसे अंत में रतनपुर राज्य में सम्मिलित की जा सकी अन्यथा इनकी पृथक और स्वतंत्र सत्ता थी। दूरस्थ, दुर्गम और शक्तिशाली जमींदारी होने के कारण ही यह संभव हुआ था। कोरबा जमींदार दीवान कहे जाते थे। संभवतः धार्मिक उदारता के कारण इस क्षेत्र में कबीरपंथ को प्रश्रय मिला, फलस्वरूप कुदुरमाल, कबीरपंथियों के महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में स्थापित हुआ। यहां प्रतिवर्ष माघ में पंथ समाज का मेला भरता है। कुदुरमाल में दो कबीरपंथी सद्‌गुरूओं के अलावा प्रमुख कबीरपंथी धर्मदास जी के पुत्र चुड़ामनदास जी की समाधि है।

कोरबा के चतुर्दिक क्षेत्र में गुंजी, अड़भार, रायगढ़ जिले के प्रागैतिहासिक स्थलों के साथ-साथ कोसगईं, पाली, रैनपुर, नन्दौर आदि ऐसे कई स्थल है जहां पुरातत्वीय सामग्री के विविध प्रकार उपलब्ध हैं। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध और दर्शनीय स्थल पाली है। पाली ग्राम का मंदिर ''महादेव मंदिर'' के नाम से विख्‍यात है। मूलतः बाणवंशी शासक विक्रमादित्य प्रथम द्वारा निर्मित 9-10 वीं सदी ई. के इस मंदिर का जीर्णोद्धार कलचुरि शासक जाजल्लदेव ने 11वीं सदी ई. में कराया। पूर्वाभिमुख यह मंदिर प्राचीन सरोवर के निकट जगती पर निर्मित है। मंदिर की बाह्यभित्तियां प्रतिमा उत्खचित, अलंकृत हैं। प्रतिमाओं में शिव के विविध विग्रह, चामुण्डा, सूर्य, दिक्पालों के साथ-साथ अप्सराएं, मिथुन दृश्य और विभिन्न प्रकार के व्यालों का अंकन है। अलंकरण योजना और स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर छत्तीसगढ़ का विकसित किन्तु संतुलित स्थापत्य और मूर्तिशिल्प का अनूठा उदाहरण है।
सचमुच कोरबा क्षेत्र की नैसर्गिक सम्पन्नता और ऐतिहासिक अवशेषों का आकर्षण प्रबल है। जो पहले कभी ऋषभतीर्थ के रूप में श्रद्धालुओं को आकर्षित करता था, औद्योगिक तीर्थ बनकर कोरबा, आज भी लोगों को आकर्षित कर रहा है।

इस पोस्‍ट के छायाचित्रों के लिए श्री हरिसिंह क्षत्री ने तथा कुछ जानकारियों के लिए डॉ. शिरीन लाखे व गेंदलाल शुक्‍ल जी ने मदद की।

Monday, April 9, 2012

छत्तीसगढ़ी

बोली और भाषा में क्या फर्क है, लगभग वही जो लोक और शास्त्र में है। या कहें ज्‍यों कला का सहज-जात स्‍वरूप और मंचीय प्रस्‍तुतियां/आयोजन में या परम्‍परा-अनुकरण से सीख लिये और स्‍कूली कक्षाओं में सिखाए गए का फर्क। और यह उतना अनिश्चित भी माना जाता है, जितना नदी और नाला का अंतर। भाषा, मंदिर में पूजित विग्रह-मूर्ति का संग्रहालय में सज्जित और सम्मानित कर दिये जाने जैसा है, जबकि बोली ग्राम और लोक-देवताओं की तरह, जो कई बार अनगढ़, अनाकार, अनामित, मगर पूजित, श्रद्धा केंद्र होते हैं। श्रद्धालु अपनी गति-मति से अपना रिश्ता बनाए रखता है।

भाषा के लिए लिपि और व्याकरण अनिवार्य मान लिया जाता है, लेकिन जरूरी नहीं कि वह पृथक लिपि हो और व्याकरण के बिना तो सार्थक अभिव्यक्ति, बोली हो या भाषा, संभव ही नहीं। हां! भाषा के लिए बोली की तुलना में मानकीकरण, शब्द भंडार और साहित्य अधिक जरूरी है। भाषा की आवश्‍यकता शास्‍त्र-रचना के लिए होती है। अभिव्‍यक्ति तो बोली से हो जाती है, साहित्‍य भी रच जाता है। वास्तव में बोली मनमौजी और कुछ हद तक व्‍यक्तिनिष्‍ठ होने से अधिक व्यापक होती है, वह संकुचित, मर्यादित और निर्धारित सीमा का पालन करते हुए भाषा के अनुशासन में बंधती है। बोली-भाषा की अपनी इस मोटी-झोंटी समझ में यह मजेदार लगता है कि अवधी, ब्रज 'भाषा' हैं और हिन्दी की पूर्वज, खड़ी 'बोली'। बोली, अधिक लोचदार भी होती है, शायद यह खड़ी-ठेठनुमा कम लोच वाली बोली, अपने खड़ेपन के कारण आसानी से भाषा बन गई।

फिलहाल यहां मामला छत्तीसगढ़ी का है और मैं चाहता हूं कि यह, भाषा के रूप में तो प्रतिष्ठित हो लेकिन उसका बोलीपन खो न जाए। पिछले दिनों खबर छपी- लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया है कि छत्तीसगढ़ी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव-अनुरोध छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से प्राप्त हुआ है। इसी तरह अंगिका, बंजारा, बजिका/बज्जिका, भोजपुरी, भोटी, भोटिया, बुंदेलखंडी, धात्की, अंग्रेजी, गढ़वाली (पहाड़ी), गोंडी, गुज्जर/गुज्जरी, हो, कच्चाची, कामतापुरी, कारबी, खासी, कोदवा (कूर्ग), कोक बराक, कुमांउनी (पहाड़ी), कुरक, कुरमाली, लेपचा, लिम्‍बू, मिजो (लुशाई), मगही, मुंडारी, नागपुरी, निकोबारी, पहाड़ी (हिमाचली), पाली, राजस्थानी, संबलपुरी/कोसली, शौरसेनी (प्राकृत), सिरैकी, तेंयिदी और तुलु भाषा के लिए भी प्रस्ताव मिले हैं। स्पष्ट किया गया है कि आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए कोई मानदंड नहीं बताए गए हैं और इन्हें अनुसूची में शामिल करने की कोई समय सीमा निश्चित नहीं है। इस तारतम्‍य में छत्तीसगढ़ी बोलते-लिखते-पढ़ते-सुनते-देखते रहा, उनमें से कुछ उल्लेखनीय को एक साथ यहां इकट्‌ठा कर देना जरूरी लगा।

डा. बलदेव प्रसाद मिश्र ने 'छत्‍तीसगढ़ परिचय' में लिखा है- सरगुजा जिले के कोरवा और बस्‍तर जिले के हलबा के साथ कवर्धा के किसी बैगा और सारंगगढ़ के किसी कोलता को बैठा दीजिए फिर इन चारों की बोली-बानी, रहन-सहन, रीति-नीति पर विचार करते हुए छत्‍तीसगढ़ीयता का स्‍वरूप अपने मन में अंकित करने का प्रयत्‍न कीजिये। देखिये आपको कैसा मजा आयेगा!

दंतेश्‍वरी मंदिर, दंतेवाड़ा, बस्‍तर वाला 23 पंक्तियों का शिलालेख छत्तीसगढ़ी का पहला अभिलिखित नमूना माना जाता है। शासक दिकपालदेव के इस लेख में संवत 1760 की तिथि चैत्र सुदी 14 से वैशाष वदि 3 अंकित है, गणना कर इसकी अंगरेजी तिथि समानता 31 मार्च, मंगलवार और 4 अप्रैल, शनिवार सन्‌ 1702 निकाली गई है। लेख की भाषा को विद्वान अध्‍येताओं द्वारा हिन्‍दी कहीं ब्रज और भोजपुरी प्रभाव युक्‍त, छत्‍तीसगढ़ी मिश्रित हिन्‍दी तो कहीं बस्‍तरी भी कहा गया है। यह मानना स्‍वाभाविक लगता है कि छत्‍तीसगढ़ में भी ब्रज का प्रभाव कृष्‍णकथा (भागवत और लीला-रहंस) से और अवधी का प्रभाव रामकथा (नवधा, रामसत्‍ता) परम्‍परा से आया है और लिखी जाने वाली छत्‍तीसगढ़ी अपने पुराने रूप में अधिक आसानी से पूर्वी हिन्‍दी समूह के साथ निर्धारित की जा सकती है।

यह भी उल्‍लेख रोचक होगा कि लेख वस्तुतः साथ लगे संस्कृत शिलालेख का अनुवाद है, इस तरह अनुवाद वाले उदाहरण भी कम हैं और लेख में कहा गया है कि कलियुग में संस्‍कृत बांचने वाले कम होंगे इसलिए यह 'भाषा' में लिखा है। लेख का अन्य संबंधित विषय स्वयं स्पष्ट है -
शिलालेख का फोटो और उसी का छापा 
दंतावला देवी जयति॥ देववाणी मह प्रशस्ति लिषाए पाथर है महाराजा दिकपालदेव के कलियुग मह संस्कृत के बचवैआ थोरही हैं ते पांइ दूसर पाथर मह भाषा लिखे है। ... ... ... ते दिकपालदेव विआह कीन्हे वरदी के चंदेल राव रतनराजा के कन्या अजवकुमरि महारानी विषैं अठारहें वर्ष रक्षपाल देव नाम जुवराज पुत्र भए। तव हल्ला ते नवरंगपुरगढ़ टोरि फांरि सकल वंद करि जगन्नाथ वस्तर पठै कै फेरि नवरंगपुर दे कै ओडिया राजा थापेरवजि। पुनि सकल पुरवासि लोग समेत दंतावला के कुटुम जात्रा करे सम्वत्‌ सत्रह सै साठि 1760 चैत्र सुदि 14 आरंभ वैशाष वदि 3 ते संपूर्न भै जात्रा कतेकौ हजार भैसा वोकरा मारे ते कर रकत प्रवाह वह पांच दिन संषिनी नदी लाल कुसुम वर्न भए। ई अर्थ मैथिल भगवान मिश्र राजगुरू पंडित भाषा औ संस्कृत दोउ पाथर मह लिषाए। अस राजा श्री दिकपालदेव देव समान कलि युग न होहै आन राजा।

रायपुर के कलचुरि शासक अमरसिंघदेव का कार्तिक सुदि 7 सं. 1792 (सन 1735) का आरंग ताम्रपत्रलेख का सम्‍मुख और पृष्‍ठ भाग, जिससे छत्‍तीसगढ़ की तत्‍कालीन दफ्तरी भाषा का अनुमान होता है।
यह ध्‍यान में रखते हुए कि लिखने और आम बोल-चाल की भाषा में फर्क स्‍वाभाविक है, संदर्भवश मात्र उल्‍लेखनीय है कि पुरानी छत्‍तीसगढ़ी के नमूनों में कार्तिक सुदी 5 सं. 1745 (सन 1688) का कलचुरि राजा राजसिंहदेव के पिता राजा तख्‍तसिंह द्वारा अपने चचेरे भाई रायपुर के राजा श्री मेरसिंह को लिखे पत्र (जिसकी नकल पं. लोचनप्रसाद पांडेय ने कलचुरि वंशज बड़गांव, रायपुर के श्री रतनगोपालसिंहदेव के माध्‍यम से प्राप्‍त की थी) और संबलपुर के दो ताम्रपत्रों (दोनों में 80 वर्ष का अंतर और जिसमें पुराना सन 1690 का बताया जाता है) का जिक्र होता है।

उज्‍ज्‍वल पक्ष है कि छत्‍तीसगढ़ी का व्‍यवस्थित और वैज्ञानिक व्‍याकरण सन 1885 में तैयार हो चुका था। जार्ज ग्रियर्सन ने भाषाशास्‍त्रीय सर्वेक्षण में इसी व्‍याकरण को अपनाते हुए इसके रचयिता हीरालाल काव्‍योपाध्‍याय के उपयुक्‍त नामोल्‍लेख सहित इसे सन 1890 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की शोध पत्रिका में अनूदित और सम्‍पादित कर प्रकाशित कराया। पं. लोचन प्रसाद पाण्‍डेय द्वारा, रायबहादुर हीरालाल के निर्देशन में तैयार किए गए इस व्‍याकरण को, सेन्‍ट्रल प्राविन्‍सेस एंड बरार शासन के आदेश से सन 1921 में पुस्‍तकाकार प्रकाशित कराया गया।

छत्‍तीसगढ़ राज्‍य गठन के बाद न्यायालय श्रीमान न्यायाधिपति उच्च न्यायालय, जिला बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के विविध क्रिमिनल याचिका क्र. 2708/2001 में याचिकाकर्ता श्रीमति हरित बाई, जौजे श्री मेमलाल, उम्र लगभग 30 वर्ष, साकिन ग्राम कुर्रू, थाना अभनपुर तह/जिला रायपुर (छ.ग.) विरुद्ध छत्तीसगढ़ शासन, द्वारा - थाना अभनपुर, तहसील व जिला रायपुर (छ.ग.) अपराध क्रमांक- 210/2001 में आवेदन पत्र अन्तर्गत धारा 438 दण्ड प्रक्रिया संहिता - 1973 अग्रिम जमानत बाबत, निम्नानुसार आदेश हुआ-
दिनांक 8.1.2002
आवेदिका कोति ले श्री के.के. दीक्षित अधिवक्ता,
शासन कोति ले श्री रणबीर सिंह, शास. अधिवक्ता
बहस सुने गइस। केस डायरी ला पढ़े गेइस
आवेदिका के वकील हर बताइस के ओखर तीन ठन नान-नान लइका हावय। मामला ला देखे अऊ सुने से ऐसन लागत हावय के आवेदिका ला दू महिना बर जमानत मा छोड़ना ठीक रही।
ऐही पायके आदेश दे जात है के कहुँ आवेदिका ला पुलिस हर गिरफ्तार करथे तो 10000/- के अपन मुचलका अऊ ओतके के जमानतदार पुलिस अधिकारी लंग देहे ले आवेदिका ला दू महीना बर जमानत मे छोड़ देहे जाय।
आवेदिका हर ओतका दिन मा अपन स्थाई जमानत के आवेदन दे अऊ ओखर आवेदन खारिज होए ले फेर इहे दोबारा आवेदन दे सकथे।
एखर नकल ला देये जाये तुरन्त

यहां एक अन्य शासकीय दस्तावेज, संयोगवश यह भी अभनपुर तहसील के कुर्रू से ही संबंधित है। इस अभिलेख में कानूनी भाषा और अनुवाद की सीमा के बावजूद बढि़या छत्‍तीसगढ़ी इस्‍तेमाल हुई है। यह तारीख 10/12/2007 बिक्रीनामा है, जिसे ''बीकरी-नामा'' लिखा गया है। इसी अभिलेख से-
बेचैया के नावः- 1/ चिन्ताराम उम्मर 65 बछर वल्द होलदास जात सतनामी रहवैया गांव जेवरा डाकघर- जेवरा थाना बेमेतरा अउ तहसील बेमेतरा जिला- दुरूग (छ.ग.)

परचा के नं -पी-202328

लेवाल के नावः- 1/ फेरूलाल उम्मर 65 बछर वल्द भकला जात -सतनामी रहवैया गांव पचेड़ा डाकघर - कुर्रू अउ तहसील - अभनपुर जिला- रायपुर (छ.ग.)।

बीकरी होये भुईंया के सरकारी बाजारू दाम बरोबर चुकाय गे हाबय। पाछु कहु बाजारू दाम कोनो कारन कम होही ते लेवाल ह ओला देनदार रईही बीकरी नामा मा सब्बो बात ल सुरता करके ईमान धरम से लिखवाये हावन लबारी निकले मा मै लेवाल देनदार रईही। बीकरी होय भुईंया हा शासन द्वारा भु दान म दे गे भुईंया नो हय। छ0ग0भू0रा0सं0 मा बनाये कानुन के धारा 165/6 अउ 165/7 के उलंघन नई होवत हे। सिलिंग कानुन के उलंघन नई होवत हे। बीकरी करे गे भुईंया हा- सीलींग अउ सरकारी पट्‌टा दार भुईंया नो है , बीकरी करे भुईंया मा कोनो जात के एकोठन रूख नईये। निमगा खेती किसानी के भुईंया आय। बीकरी करेगे भुमि मा तईहा जमाना से ले के आज तक खेती किसानी ही करे जावत हे। बीकरी शुदा भुईंया हा आज के पहीली कखरो मेर रहन या गहन नहीं रखे गेहे।

छत्तीसगढ़ी की वैधानिक स्थिति की चर्चा के पहले उसके मरम-धरम में रंगे-पंगे बद्रीसिंह कटरिया जी जैसे कुछ सुहृद-बुजुर्गों से सुनी बातें याद आती हैं-

ससुर खाना खाने बैठे, पानी-पीढ़ा जरूरी। बहू पहेली बुझाते अनुमति चाहती है-
‘बाप पूत के एके नांव, नाती के नांव अवरू।
ए किस्सा ल जान ले ह, तओ उठाह कंवरू।।
ससुर उसी तरह जवाब देते हैं-
जेकर पिए महिंगल होय, अउ चलावै घानी।
ए किस्सा ल जान ले ह, त ओ जाह पानी।
आशय कि खाना परोसते बहू देखती है कि पानी नहीं है, कहती है बाप और पूत का नाम एक (महुआ) मगर पोते का और कुछ (डोरी/टोरी- महुआ का फल), यह बूझ लें, तब कौर उठावें। ससुर जवाब में पहेली का हल उसी तरह बताते हुए पानी ले कर आने की अनुमति देते हैं कि जिसके पीने से व्यक्ति हाथी की तरह मतवाला हो जाता है (महुआ) और उसके लिए घानी चलती है (महुआ का फल-डोरी), यह बूझते पानी ले आओ।

बरसात, पनिहारिन और पानी पर बुझौवल है, जो कामुक नायक-नायिका के बीच हुए संवाद की तरह जान पड़ता है-
जात रहें तोर बर, भेंट डारें तो ला (छेंक ले हे मो ला)।
जाए दे तैं मो ला, ले आहंव तो ला।
बात कुछ इस तरह कि तुम्हारे लिए (पानी लेने के लिए) जा रही थी, रास्ते में तुम मिल गए, (बरसात ने) रास्ता रोक लिया, मुझे जाने दो गे, तो तुम्हें ले आऊंगी।

एक सवाल-जवाब इस तरह होता है-
‘दोसी अस न दासी, तैं का बर लगे फांसी।
नाचा ए न पेखन, तैं का ल आए देखन।
जिव जाही मोर, फेर मांस खाही तोर।‘
शिकारी ने बगुला फंसाने के लिए फिटका (फंदा) लगाया है और उसमें बतौर चारा, घुंइ को बांध रखा है। बगुला घुंइ को खाने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है, उसके मन में कुछ संदेह भी है, घुंइ से पूछता है कि तुम न दोषी हो न दासी, फिर इस तरह क्यों बंधी-फंसी हो। घुंइ जवाब देती है, यहां नाचा हो रहा है न पेखन (प्रेक्षण, कोई प्रदर्शन), फिर तुम क्या देखने चले आए और आगाह करती है, तुम मुझे खाना चाहते हो तो मेरी जान जाएगी, मगर (शिकारी) तुम्हारा मांस खाएगा।

शिकारी के जाल और पक्षियों का एक मार्मिक प्रसंग यह भी-
तीतुर फंसे, घाघर फंसे, तूं का बर फंस बटेर।
मया पिरित के फांस म आंखी ल दिएं लड़ेर।
शिकारी ने चिड़िया फंसाने के लिए जाल बिछाया। वापस आ कर देखता है कि उसमें तीतर, घाघर जैसी सामान्य आकार की चिड़िया फंस गईं हैं, मगर छोटे आकार का बटेर भी है, जो आसानी से जाल के छेद से बाहर निकल सकता था तो बटेर से पूछता है, तीतर-घाघर फंसे, लेकिन तुम कैसे फंस गए हो। साथ-साथ चरने वाले बटेर का जवाब कि तुम्हारे बिछाए जाल में नहीं, मैं तो साथी चिड़ियों के प्रेम-प्रीत में (कैसे साथ छोड़ दूं) आंखें बंद कर पड़ गया हूं।

छत्‍तीसगढ़ विधान सभा में शुक्रवार, 30 मार्च, 2001 को अशासकीय संकल्‍प सर्व सम्‍मति से स्‍वीकृत हुआ- ''यह सदन केन्‍द्र सरकार से अनुरोध करता है कि संविधान के अनुच्‍छेद 347 के तहत छत्‍तीसगढ़ी बोली को छत्‍तीसगढ़ राज्‍य की सरकारी भाषा के रूप में शासकीय मान्‍यता दी जाए।'' तथा पुनः शुक्रवार, 13 जुलाई, 2007 को अशासकीय संकल्‍प सर्व सम्‍मति से स्‍वीकृत हुआ- ''यह सदन केन्‍द्र सरकार से अनुरोध करता है कि छत्‍तीसगढ़ प्रदेश में बोली जाने वाली छत्‍तीसगढ़ी भाषा को संविधान के अनुच्‍छेद 347 के तहत राज्‍य की सरकारी भाषा के रूप में मान्‍यता दी जाय।''

छत्‍तीसगढ़ राजभाषा अधिनियम, 1957 (क्रमांक 5 सन् 1958), (मूलतः मध्‍यप्रदेश राजभाषा अधिनियम, जो अनुकूलन के फलस्‍वरूप इस तरह कहा गया है) में ''राज्‍य के राजकीय प्रयोजनों के लिए राजभाषा'' में लेख है कि ''एतद्पश्‍चात् उपबंधित के अधीन रहते हुए हिन्‍दी, उन प्रयोजनों के अतिरिक्‍त, जो कि संविधान द्वारा विशेष रूप से अपवर्जित कर दिये गये हैं, समस्‍त प्रयोजनों के लिए तथा ऐसे विषयों के संबंध में, के अतिरिक्‍त जैसे कि राज्‍य-शासन द्वारा समय-समय पर अधिसूचना द्वारा उल्लिखित किये जाएं, राज्‍य की राजभाषा होगी।''
इसी राजपत्र में यह भी उल्‍लेख है कि ''मध्‍यप्रदेश आफिशियल लैंगवेजेज एक्‍ट, 1950 (मध्‍यप्रदेश की राजभाषाओं का अधिनियम, 1950) (क्रमांक 24, सन् 1950 तथा मध्‍यभारत शासकीय भाषा विधान, संवत् 2007 (क्रमांक 67, सन् 1950) निरस्‍त हो जाएंगे।''

छत्तीसगढ़ विधानसभा में 28 नवंबर 2007 को छत्तीसगढ़ी राजभाषा विधेयक पारित हुआ, इसके पश्‍चात शुक्रवार, 11 जुलाई 2008 के छत्‍तीसगढ़ राजपत्र में छत्‍तीसगढ़ राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 2007 को और संशोधित करने हेतु अधिनियम आया कि ''छत्‍तीसगढ़ राज्‍य के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्‍त की जाने वाली भाषा के रूप में हिन्‍दी के अतिरिक्‍त छत्‍तीसगढ़ी को अंगीकार करने के लिए उपबंध करना समीचीन है.'' और इसके द्वारा मूल अधिनियम में शब्‍द ''हिन्‍दी'' के पश्‍चात् ''और छत्‍तीसगढ़ी'' अंतःस्‍थापित किया गया। इसमें यह भी स्‍पष्‍ट किया गया है कि- ''छत्‍तीसगढ़ी'' से अभिप्रेत है, देवनागरी लिपि में छत्‍तीसगढ़ी।'' सन 2013 में 11 जुलाई को ही शासन ने अधिसूचना जारी कर प्रतिवर्ष 28 नवंबर को ‘‘छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस‘‘ घोषित किया है।

तीन-एक साल पहले प्रकाशित पुस्‍तक, जिसमें ''दंतेवाड़ा के छत्‍तीसगढ़ी शिलालेख'' बताते हुए कोई अन्‍य चित्र, 1703 (शिलालेख का काल?, जो वस्‍तुतः सन 1702 है) अंक सहित छपा है।

नन्‍दकिशोर शुक्‍ल जी, पिछले चार-पांच साल में अपने निजी संसाधनों और संगठन क्षमता के बूते, लगातार सक्रिय रहते 'मिशन छत्‍तीसगढ़ी' के पर्याय बन गए हैं, कुछ गंभीर असहमतियों के बावजूद उनके ईमानदार जज्‍बे और जुनून का मैं प्रशंसक हूं।

दक्षिण भारत के मेरे एक परिचित ने मुझे अपने परिवार जन से छत्‍तीसगढ़ी में बात करते सुना तो यह कहकर चौंका दिया कि लगभग साल भर यहां रहते हुए उनका छत्तीसगढ़ी से परिचय मोबाइल के रिकार्डेड संदेश और रेल्वे प्लेटफार्म की उद्‌घोषणा के माध्यम से हुआ जितना ही है तब लगा कि अस्मिता को जगाए-बनाए रखने के लिए गोहार और हांक लगाने का काम, अवसरवादी स्तुति-बधाई गाने वालों, माइक पा कर छत्तीसगढ़ी की धारा प्रवाहित करने वालों और उसे छौंक की तरह, टेस्ट मेकर की तरह इस्तेमाल करने वालों से संभव नहीं है। विनोद कुमार शुक्‍ल जी की कहावत सी पंक्ति में- ''छत्‍तीसगढ़ी में वह झूठ बोल रहा है। लबारी बोलत है।'' तसल्ली इस बात की है कि छत्तीसगढ़ की अस्मिता के असली झण्डाबरदार ज्यादातर ओझल-से जरूर है लेकिन अब भी बहुमत में हैं। छत्‍तीसगढ़ी के साथ छत्तीसगढ़ की अस्मिता उन्हीं से सम्मानित होकर कायम है और रहेगी।

पुनश्‍चः
लगता है अखबार (16 अप्रैल 2012) की नजर इस पोस्‍ट पर पड़ी है।

इसका मुख्‍य अंश मेरी सहमति से, 19 अप्रैल 2012 को जनसत्‍ता, नई दिल्‍ली के संपादकीय पृष्‍ठ पर ब्‍लाग के उल्‍लेख सहित प्रकाशित हुआ है।