Pages

Monday, April 4, 2011

चाल-चलन

शास्‍त्र वचन चरैवेति, चलते रहो... को अपनाया गांधीजी ने, दाण्‍डी यात्रा की और उनकी चाल ने कितने ही कमाल किए। उन्‍होंने कहा- पैदल चलना कसरतों की रानी है। बाद में यही बात शुभचिंतकों ने कही, फिर डॉक्‍टरों ने। अब तो शुरू करना ही होगा, सोचकर लेने गए टी-शर्ट और जूता। लेकिन यह क्‍या, प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः। 'थीम टी-शर्ट' धारण करने से पहले ही किसी ने टोक दिया- सतजुगी चरैवेति और एकला चलो के दिन लद गए, अब एसी जिम के ट्रेडमिल पर वॉक का जमाना है। 'कीप वॉकिंग' का तर्ज, गांधी का ही क्‍यों न हो, अब 'राह पकड़ तू एक चला चल पा जाएगा मधुशाला' हो गया है। आप खु्द समझदार हैं, आगे चले चलिए ...

गांधी और नशे से जुड़ी एक और बात। छत्‍तीसगढ़ में गुणवत्‍तापूर्ण विदेशी शराब का व्‍यापार और सरकार के लिए राजस्‍व अर्जन के उद्देश्‍य से गठित इकाई का एक समाचार था- मुख्यमंत्री ने छत्तीसगढ़ स्टेट बेवरेजेस कार्पोरेशन के नशा मुक्त जीवन जीने का संदेश देने वाले पोस्टरों का विमोचन किया।

समाचार में आगे है- वाणिज्यिक कर मंत्री ने मुख्यमंत्री को बताया कि पिछले वित्तीय वर्ष में कार्पोरेशन को 29 करोड़ रूपए का लाभ अर्जित हुआ है। शराब से राजस्‍व/लाभ अर्जन वाली संस्‍था द्वारा नशा मुक्ति के विज्ञापन का विपर्यय, अनूठा प्रयास है।

इस इकाई का काम विदेशी शराब से जुड़ा है, नाम भी अंगरेजी है। इसका हिंदी नाम शायद है नहीं, होगा तो प्रचलित कतई नहीं। कारण जान पड़ता है कि दारू या शराब के बजाय मदिरा/मादक पेय/बेवरेज कहना शालीन लगता है, जैसे गुप्‍तांग और उससे जुड़ी क्रिया-प्रक्रियाओं के लिए ठेठ बानी को अश्‍लील, अमर्यादित और भदेस मान कर इसके बजाय संस्‍कृत, उर्दू या अंगरेजी के पर्यायवाची का इस्‍तेमाल किया जाता है।

टी-शर्ट से आगे बढ़े, चाल बहकी लगे तो माफ करें और आएं 'वॉक' के लिए जरूरी जूते पर। पढ़े-लिखों की तरह अब हम भी समझदार हो गए हैं। हां, बचपन की बात कुछ और थी, ज‍ब कहीं किसी कापी-किताब या कागज के टुकड़े पर भी पैर पड़ जाए, उस पर अक्षर हों, कुछ लिखा-छपा हो तो उसे माथे से लगाते थे। अब बचपना नहीं रहा हम पढ़े-लिखे समझदार हो गए, मुक्‍त कर लिया है अपने को इन रूढि़यों और संस्‍कारों से। देखिए यह जूता, चप्‍पल या कह लें पादुका और 'वेलकम' से स्‍वागत करता पांवदान।

बाल मन परेशान है, जो जूता पसंद आ रहा है, उस पर देश का नाम, अक्षर-भाषा और पूरी राष्‍ट्रीयता यानि हमारे राष्‍ट्र ध्‍वज जैसा ही तिरंगा भी बना है। फिर 'वेलकम' पांवदान और एक प्‍यूमा इंग्‍लैण्‍ड चप्‍पल ही नहीं यहां तो पूरी श्रृंखला है।

पढ़ाई-लिखाई सब जूती की नोक पर और सारी राष्‍ट्रीयता पैरों तले। समझदार मन ने जमा-नामे शुरू किया। क्‍या इंग्‍लैण्‍ड प्‍यूमा चप्‍पल हमारी कुंठा को राहत देने के लिए है। यह भी जुड़ रहा है कि प्‍यूमा, जर्मन बहुराष्‍ट्रीय कंपनी है। वही जर्मनी, जिसके इतिहास से आप परिचित हैं ही, याद कीजिए, जर्मन कुत्‍ते की नस्‍ल इंग्‍लैण्‍ड आई तो जर्मन शेफर्ड नाम तक से परहेज हुआ और नामकरण हुआ अलसेशियन।

समझदार मन, बाल मन को अपने साथ चला ले रहा है- सुबह-सबेरे पैदल चल कर स्‍वस्‍थ्‍य बने रहने के बजाय शहर के अंदेशे से काजी जी ही क्‍यों दुबले हों, पंडित विचार करें, क्‍या चरैवेति का अर्थ 'सब चलता है' नहीं निकाला जा सकता।

उत्‍पादों और उनमें समानता की जानकारी अनुपम से और कुछ चित्र गूगल से साभार

पुनश्‍चः

इस संदर्भ में मई 2011 के पहले सप्‍ताह में आस्‍ट्रेलियन फैशन वीक में लीसा बुर्क के लक्ष्‍मी चित्रांकित स्विम सूट प्रदर्शित करने की ताजी घटना, सन 2005 में राम के चित्र वाले मिनेली जूतों के विवाद की याद दिलाती है।

59 comments:

  1. रोचक!

    वैसे अब भी संस्कार ऐसे हैं कि किताबों आदि से पैर छू जाये तो हाथ खुद ब खुद किताब से होते हुए माथे तक टच कर जाते हैं।

    ReplyDelete
  2. Mazaa aaya....it goes on to show,how we have transformed blindly into a ONLY fashion oriented/glamourous world.Everything is ok as far as it looks good.One more notable thing is that,everything is good as far as it sounds good i.e people are comparatively less vulgar when they abuse in english rather than hindi,even funnier is the person who gets abused in english dosent mind as much as he/she would have when abused in hindi.
    For a walking example,just head to a college canteen and notice how even the most cultured and the most beautiful girl swears in english....aahhh because hindi might sound a bit vulgar.
    NOTE:-Just an observation above,im totally in for sounding good/better/decent

    ReplyDelete
  3. बहुत ही सार्थक और मर्म पर चोट करने वाली पोस्‍ट। आपने सभी कुछ कह दिया अब कहने का शेष ही क्‍या रहा?

    ReplyDelete
  4. "शराब से राजस्‍व/लाभ अर्जन करने वाली संस्‍था द्वारा नशा मुक्ति का विज्ञापन जारी करने का विपर्याय, अनूठा ही कहा जा सकता है।"

    राहुल जी, अपना अपना कर्म तो सभी को करना ही है, शराब बेचने वाले को शराब बेचना है और राजस्व अर्जन करने वाले को राजस्व अर्जन करने के साथ लोगों को नशामुक्त करने का कार्य भी करना है। भला इसमें किसी का क्या दोष है?

    और हम तथा आप जैसे ब्लोगर्स को कटाक्ष करने का अपना कर्म भी करना है।

    चरैवेति... चरैवेति....

    ReplyDelete
  5. वास्‍तव में हमें देशभक्ति और राष्‍ट्रीयता के प्रतीकों को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है।
    *
    इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि हमारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज हमारे देश का प्रतीक है। पर उसके सम्‍मान का तरीका भी होना चाहिए। पाकिस्‍तान के मैच के दौरान आइसीसी की किसी वकील के द्वारा गुब्‍बारे पर बने तिरंगे के अपमान को लेकर मीडिया ने बहुत हो हल्‍ला मचाया। फायनल जीतने के बाद मैदान में तिरंगा ओढ़कर घूम रहे युवराज अनजाने में ही तिरंगे से अपने मुंह पर आए पसीने को पोंछ रहे थे। पहली बात तो यह ऐसे उन्‍माद के बीच जबरन खिलाडि़यों को तिरंगा नहीं ओढ़ना चाहिए। पर यहां मीडिया इस खबर को उछालने से बच रहा है क्‍योकि यहां देशभक्ति के मायने बदल गए हैं।

    ReplyDelete
  6. भैया चीजे बदल तो रही हैं...पर इस बदलाव के दौर में भी हमारी सारी चिंताए व्यर्थ की चीजो को लेकर अधिक हैं...निश्चित तौर पर हमारे चाल- चलन पर फर्क पड़ा हैं. आपका पोस्ट वर्तमान समय की सच्चाई के इतने करीब हैं कि इसे पड़ते ही मन में एक विचार आया कि काश सब इस पोस्ट को एक बार जरुर पड़ते और गंभीरता से विचार करते कि मनुष्य की स्वतंत्रता के क्या यही लाभ है कि हम-सब चलता है या ''आल इस वेल'' कहते हुए अपनी परंपराओ से तौबा कर ले.सुन्दर पोस्ट के लिए बधाई....बस ऐसे ही लिखते रहिये. छत्तीसगढ़ स्टेट बेवरेजेस कार्पोरेशन का विज्ञापन वाला कारनामा तो निराला है....बेशर्मी की कोई सीमा भी तो होनी चाहिएपटेलजी को पुरस्कृत किया जाना चाहिए....

    ReplyDelete
  7. ध्वज की डिजाइन चप्पल पर, समझ नहीं आ रहा है।

    ReplyDelete
  8. @ शराब से राजस्‍व/लाभ अर्जन करने वाली संस्‍था द्वारा नशा मुक्ति का विज्ञापन जारी करने का विपर्याय, अनूठा ही कहा जा सकता है।
    सच में यह अनूठी घटना है।

    ReplyDelete
  9. मर्म को चोट पहुंचाता यह आलेख कई ऐसे सवाल छोड़ गया है जिसका मंथन मन-मस्तिष्क में चल रहा है। यह अर्थिक सम्पन्नता का दौर है या मानसिक विपन्नता का। देश भक्ति का जज़्बा ग़ायब हो रहा है क्या? और सबसे अहम सवाल जिसके बारे में राजेश जी ने कहा है।

    ReplyDelete
  10. प्रतीक स्वाभिमान से जुडे होते है। उन प्रतीकों का सम्मान ही आत्म-गौरव का सम्मान है। इसे गौरव की मानसिकता हनन के रुप में देखा जाना चाहिए।

    ReplyDelete
  11. रोचक व सुन्दर अभिलेख.नवसंवत्सर पर आपको हार्दिक शुभ कामनाएँ.

    ReplyDelete
  12. Susmita Basu MajumdarApril 4, 2011 at 4:51 PM

    COngratulations!!! Very well composed one. Bilkul aapke style wall. One with a dual meaning......Transending the bundaires of ones own country stepping any country's flag could be equally insulting for any individual reflects your way of thinking and is really appreciable the dual meanings and the new connotation of cahraiveti is a great sarcastic comment.......Loved reading it and espeically the introduction is wonderful and the sentence in the para Ab to shuru karna hi padega... made me create a dual meaning myself though you did not intend it at all.......Chalna to of course shuru karna hi padega but it made me think as if you were trying to say ab to lekh a original sandarbh bhi shuru to karna hi padega.....
    Congrats!!! Throughly enjoyed reading this>...

    ReplyDelete
  13. ये तो सही है...बचपन में पड़े संस्कार कहाँ छूटते हैं..
    पर वाक तो आप tread mill पे नहीं..सडकों पर ही कीजियेगा....
    मॉर्निंग वाक का कोई substitute नहीं

    ReplyDelete
  14. "Keep Walking" सर जी. आपने जो पहली तस्वीर ब्लाग पर लगायी है, लेख तो वहीँ पूरा हो गया. बाकि सारा तो बोनस है हमारे लिए जो आप ने आगे लिखा है.
    आखिरी पंक्तियाँ मारक व्यंग्य है पर आप ने सिर्फ 'पंडितों' की राय मांगी है इसलिए यहाँ चुप रहने से ही इज्जत बचने वाली है अपनी.

    पादुकाओं पर झंडे पश्चिम में "हराम" नहीं मने जाते. एक बार एक स्पेनी मित्र ने मुझे स्पेन के झंडे वाली जुराबें भेंट की थीं. और एक अमरीकी मित्र के पास मैंने अम्रीका के झंडे वाले अधोवस्त्रों(तत्सम; मर्यादा के नाम पर) का पूरा कलेक्शन देख था मैंने.

    भदेस को तत्सम से replace करना मर्यादित आचरण के रूप में कब से जाना जाने लगा (थोडा ऐतिहासिक टच की आशा) इसपर भी कभी विस्तार से आप को सुन/पढ़ पाने का सौभाग्य मिलेगा ऐसी उम्मीद है.

    ReplyDelete
  15. समय के साथ परिभाषाएं भी बदल जाती है चैरवेती की नयी व्याख्या आधुनिक अप्रिवेश में सुंदर तरीके से परिभाषित की है आपने.



    जीत की बधाई के साथ नववर्ष ( सम्वत्सर ) और नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएं

    ReplyDelete
  16. अप्रिवेश के स्थान पर " परिवेश " पढ़ा जाय

    ReplyDelete
  17. अभिव्यक्ति के तरीके अपनी-अपनी संस्कृतियों में अपने-अपने अर्थ देते हैं. जो हमारे यहाँ असंस्कार है वह पश्चिम में संस्कार हो सकता है. हाँ ! हमें अनुकरण से पूर्व यह विचार करना चाहिए कि कहीं इससे हमारे संस्कारों पर दुष्प्रभाव तो नहीं पड़ने वाला ? गुह्य विषयों से सम्बंधित शब्दों के अन्य भाषाओं में अनुवाद से वे शब्द अश्लील नहीं लगते. मैं इसे ऐसे कहता हूँ " अश्लीलता को चड्ढी पहना दीगयी है" वाकई कुछ तो शालीनता तो आ ही जाती है. वस्तुतः, शालीनता या अश्लीलता की यह प्रतीति हमारे अपने मस्तिष्क की प्रतिक्रया है. प्रातः भ्रमण को भी फैशनेबल बना दिया गया ....फैशन में व्यापार जो है ......तो राहुल जी ! इसके लिए आधुनिक उपकरण में पैसा मत खर्च कीजिएगा .....कसम से ....बाहर की शुद्ध हवा में घूमने का मज़ा ही कुछ और है.मशीन पर भ्रमण का चोचला औरों के लिए है ....
    @ मनप्रीत कौर जी ! जाने-अनजाने आपने छग्लिश लिख दी है -"हवे अ गुड डे".

    ReplyDelete
  18. यह क्या ?? जानीवाकर और टीशर्ट के साथ वाक् .....
    आप तो ऐसे न थे :-)

    लिखा पढने की आदत किसे है??
    हमारी समझ में तो यही आया है कि आप कह रहे हो कि रेड लेवल पीने वालों की बात ही कुछ और है ...:-)

    ReplyDelete
  19. आप कभी गुलाब या कोई एक फूल के बजाय गुलदस्ता पेश कर देते हैं जहाँ अपने अपने मन के फूल को निहारने का मौका मिलता है! एक यहाँ मेरे मन का भी है !

    ReplyDelete
  20. @ Arvind Mishra ji,
    आपके मन की 'फूल पहेली' दो-चार रोज पहले होती तो अप्रैल फूल मान लेते, गांधी जी तो फूल माने नहीं जा सकते, बच गई पादुकाएं और उससे आगे बढ़ें तो राह पकड़ तू एक चला चल...ये तो बड़े धर्म-संकट में डाल दिया पंडित जी आपने हम जनता-जनार्दन को.

    ReplyDelete
  21. वास्तव में हम में राष्ट्रीयता के प्रतीकों के प्रति इतना आदर कभी था ही नहीं... खास तौर पर पढ़े लिखे वर्ग के बीच... सुविधाओं के भोग के बाद ये प्रतीक बेमानी लगते हैं उन्हें... वरना हमें आज़ादी के लिए इतना इतंजार नहीं करना पड़ता... भाषा की यों दुर्दशा नहीं होती... गाँधी जी पर तथाकथित पुस्तक पर सरकार की ओर से अभी कोई टिप्पणी भी नहीं आयी है... ऐसे में आपका यह आलेख सोचने पर मजबूर कर रहा है...

    ReplyDelete
  22. Fashion aur naveentam design kee aapaadhaapee me ham rashtrdhwaj kaa samman bhool rahe hain!

    ReplyDelete
  23. राहुल जी सिर्फ दो बातों में अपनी टिपण्णी समेट दूंगा. पहले पहल तो आपको ये सलाह दूंगा की वयस्त रहने वाली सडकों के किनारे प्रातः भ्रमण की लिए कभी नहीं जाईयेगा. एक अध्ययन के अनुसार दिन भर वाहनों से निकालने वाला प्रदूषित धुआं सुबह सघनित होकर इन सडकों पर ही पसरा होता है. सो ताजी हवा की तलाश ऐसी सडकों से दूर के किसी पार्क में ही कीजियेगा.

    दूसरी बात ये की आज का पढालिखा भारतीय ही गंगा को गेंजीस पुकारने में फक्र महसूस करता है इसलिए हिंदी भाषा प्रेमियों को इस बात से ही संतोष कर लेना चाहिए की इस राज्य इकाई के नाम में झारखण्ड शब्द सुरक्षित है.

    ReplyDelete
  24. नए परिवेश में चरैवती बदल रहा है,लगा था, अब अभिलेखन भी हो गया, राकेश जी ने उत्तम लिखा,यूरोप के विषय में.

    ReplyDelete
  25. दारू की कमाई से नशा मुक्ति अभियान,
    गांधी जी होते तो बहुत शाबासी देते।

    ReplyDelete
  26. राहुल जी ! जो अकल्पनीय था वह सच हो कर हमारे व्यवहार में भी आ चुका है. कभी सोचा नहीं था कि पानी बोतलों में बिकेगा. जब बिकना शुरू हुआ तो लगा यह धंधा बैठ जाएगा ...पानी कौन खरीदेगा ...पर देखिये व्यापारी का आत्मविश्वास कि धंधा दौड़ के चला .....आज हम भले ही खीझ में या व्यंग्य में हवा बिकने की बात करें पर वह दिन दूर नहीं जब शुद्ध हवा का व्यापार भी शुरू हो जाएगा. यह विमर्श आमजन के उत्तरदायित्वों को भी तय करने के लिए आवश्यक है. हमें हमारे प्रति अपने उत्तरदायित्वों को गंभीरता से विचारना होगा.
    ============================================
    मैंने अपनी पोस्ट䡤 पर्यावरण में लिखा था- ''पर्यावरण की चर्चा करते और सुनते हुए 'डरपोक मन' में यह आशंका भी बनी रहती है कि बाजारवाद के इस दौर में पर्यावरण की रक्षा करने के लिए कोई ऐसी मशीन न ईजाद हो जाए, जिसका उत्पादन बहुराष्ट्रीय कंपनियां करने लगे और वैश्विक स्तर पर हर घर के लिए इसे अनिवार्य कर दिया जाए।''

    2011/4/4 kaushalendra
    >
    > सत्य वचन ! प्रदूषण अन्दर भी है और बाहर भी.....खोजना पडेगा प्रदूषण मुक्त शुद्ध वातावरण ....पर परेशान होने की बात नहीं ......कल को सिलेंडर में यह भी बिकने लगेगा...पानी बिकना तो शुरू हो ही गया है. व्यापारियों की गिद्ध दृष्टि पड़ चुकी होगी. रेलवे स्टेशन पर पानी की बोतलों के साथ हवा वाले भी चिल्लायेंगे.......हवा लो ....हवा ....हिमालय की शुद्ध बाबा रामदेव मार्का हवा. खुश होइए कि देर-सबेर अरबों डालर का एक और व्यापार शुरू होने वाला है.

    ReplyDelete
  27. यह जॉनी वाकर गांधीजी तो पहले मैंने भी नोटिस किये थे. आपका कमाल ही है कि इसमें और सारे तत्वों और बिम्ब आदि का सम्मलेन करके एक रोचक पोस्ट की रचना की है.
    पिछली दीवाली में यहाँ देखने में आया कि शुभ प्रतीकों (शंख, चक्र, स्वास्तिक, कलश, आदि) अब बहुत सुन्दर बड़े स्टीकरों में प्रिंट करके बेचे जा रहे हैं और इन्हें सभी घरों के बाहर चिपका रहे हैं. श्रीमती जी तो अब तक कदम बचा-बचा के चल रही हैं. भला हो चाइनीज़ गोंद का जो ये स्टीकर बहुत कुछ तो उखाड़कर झाड़ू में निकल गए.
    अब मैं टेंशन नहीं लेता. क्या-क्या देखें!? आयोडेक्स मलिए, काम पे चलिए.

    ReplyDelete
  28. अनोखी चाल, अनोखा चलन ।

    ReplyDelete
  29. यही तो असली मजा है कि सर कटवाने वाला काटने वाले से कहे हुजूर आहिस्ता, जनाब आहिस्ता... सिद्धान्त पर चलने से क्या कुछ मिलता है... मन की ्शान्ति किस ने देखी...

    ReplyDelete
  30. :) ------- :( सब कुछ कहता और हकीकत दिखाता आलेख .....

    ReplyDelete
  31. सचमुच आपका यह पोस्ट अनूठा , रोचक और शानदार है
    पूरे रायपुर शहर में बेवरेज कारपोरेशन के इसी तरह के होर्डिंग लगे है ,
    इसी राह पर अगर वे सचमुच चले तो शायद पूरे छत्तीसगढ़ में शराब बंदी भी हो जाएगी

    ReplyDelete
  32. रोचक आलेख। अल्सेशियन की बात पर याद आया कि जब फ्रांस ने ईराक हमले पर अमेरिका का असहयोग किया तो अमेरिकी संसद की कैंटीन ने फ्रैंच फ्राईज़ का नाम फ्रीडम फ्राई रख दिया था।

    ReplyDelete
  33. आपने मर्म पर चोट कर दशा ऐसी कर दी कि कहा भी न जाय, चुप रहा भी न जाय। अपनी सुविधा के लिए किए गए अपने स्‍खलित आचरण का औचित्‍य सिध्‍द करने के लिए हम लोग बहुत ही असानी से (इसे 'बहुत ही बेशर्मी से' कहना अधिक उपयुक्‍त होगा) तर्क जुटा लेते हैं क्‍योंकि तर्कों से हम वहीं पहुँचते हैं जहॉं पहुँचना चाहते हैं और वांच्छित सदाचरण का जिम्‍मा दूसरों पर छोड देते हैं।

    दारु बिक्री की आय के मामले में याद आया कि मध्‍यप्रदेश के मुकाबले छत्‍तीसगड बेहद गरीब है। दारु बिक्री के पक्ष में बोलते हुए हमारे मन्‍त्री बाबूलाल गौर ने विधान सभा में घोषणा की थी कि प्रदेश के प्रत्‍येक गॉंव में (शुध्‍द पेय जल भले न मिले) शुध्‍द दारु की उपलब्‍धता सुनिश्चित की जाएगी।

    ReplyDelete
  34. सटीक अवलोकन !

    ReplyDelete
  35. बहुत ही अच्छी बात कही पर कभी कभी लगता है की हम प्रतिको को पीछे कुछ ज्यादा ही भागते है उसके पीछे मर्म को नहीं समझते है हा जूते पर तिरंगे का छपना गलत है किन्तु झंडे के लिए संविधान में दिए गए दिशा निर्देश कुछ ज्यादा ही कह जाते है और उसे आम आदमी से दूर कर देता है जैसे वो कुछ साल पहले तक था | जरुरी है की देश भक्ति रहे प्रतिको के प्रति सम्मान तो अपने आप ही आ जायेगा पर सम्मान के नाम पर इतने आडम्बर भी न हो की वो उन प्रतोको से ही दूर भागने लगे | वैसे किताबो को पैर से छूने वाले संस्कार तो हम अपने बच्चो को खुद दे हो सकते है |

    ReplyDelete
  36. टहलना ही है तो किसी पार्क में टहलिये आप । ये कहां टी-शर्ट जूते आदि के चक्करों में पड गये और दुखी हो रहे हैं । तिरंगे को ओढिये पर पसीना पोछना मना है । बचपन में तो एक बात और भी होती थी जो किताब में छपा है सब सच है । किसी से भी कोई विवाद होने पर हमारा ये कहना आज भी याद है कि किताब में लिख्खा है । ये तो बहुत बाद में समझ आया कि हर लिखा सच नही होता । खैर आप तो चलते रहिये चलते रहिये ।

    ReplyDelete
  37. व्यंग्य का सहारा लेकर अपनी बात कहना भी एक कला है| बहुत सुन्दर..

    ReplyDelete
  38. बहुत ही अच्छा पोस्ट राहुल भाई , राजेश उत्साही जी की बात बिलकुल ठीक लगती है कि राष्ट्रीयता की व्याख्या करने की शायद आवस्यकता है अभी गत दिनों ही जब वर्ल्ड कप क्रिकेट का फ़ाइनल मैच हो रहा था तब लोग पागलों की तरह टीवी से चिपके हुए थे लेकिन यह देख कर अत्यंत दुःख हुआ कि मैथ के लिए पागल इन लोगों में से बहुतायत में लोगो ने जब मैच प्रारंभ होने के पहले राष्ट्रगान बजाय जा रहा था तब उसे सम्मान देने की कोई जरुरत नहीं समझी मैं तो समझाता हूँ शायद एक प्रतिशत लोग भी खड़े नहीं हुए होंगे . इन बातों पर विचार करने की क्या हम लोग जहमत उठाएंगे मैं तो इस ओर बहुत आशावादी नहीं हूँ

    ReplyDelete
  39. नौजवान पीढ़ी में राष्ट्रीयता/जीवन के भिन्न प्रतीकों के प्रति सम्मान की भावना की हमारी दृष्टि में कमी वास्तविक कमी है कि उनकी 'चरैवेति' की व्यावहारिकता . सोचते रहिये. ऐसे ही सबसे 'समझदार' बनने की अपेक्षा अब हमें दिखती है.
    ऐसे ही सरकार की २ रु. किलो में चावल देने की योजना समाज के अंतिम व्यक्ति तक भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित कराने, जीवन स्तर सुधारने हेतु है कि मदिरा की सहज उपलब्धता सुनिश्चित कराने.सोचते रहिये. अच्छा सा हास्य-व्यंग्य मोर्निंग वाक करते रहिये और सोचते रहिये.

    ReplyDelete
  40. Marmbhedii aur chintan-manthan ke liye prerit karataa post. Dhanyawaad

    ReplyDelete
  41. टी-शर्ट्स और उन पर लिखे के बारे में कुछ लिखना चाहता हूँ लेकिन आपके यहाँ गन्दगी न फ़ैलाकर अपने ब्लॉग पर कभी लिखना है।
    विश्व का सर्वोच्च शांति पुरस्कार ही बारूद की खोज करने वाले के नाम पर और शायद उन्हीं की फ़ाऊंडेशन द्वारा प्रदान किया जाता है। किस किस को कहाँ कहाँ तक रोईयेगा।

    ReplyDelete
  42. राहुल भाई...अपने शहर की सडको पर चलते जाइए, अनेक विसंगति पूर्ण साइन बोर्ड और होअर्दिंग्स मिल जाएंगे. साईं बाबा बिरयानी सेंटर ...परशुराम सेनिटरी , और भी अनेक उदाहरन होंगे.मुहावरों ने समय सापेक्ष विदाम्ब्न्बा का पूर्वाकलन अरसे पहले ही कर लिया था. लिहाजा ' आँख का अँधा ,नाम नैनसुख " से हम सब परिचिरहो गए.चल -चलन समाज और स्वयंभू नियंताओं के भी बदल चुके है.अब तो काजी भी न तो दुबलाते है न शहर की चिंता करते है. चरैवेति.. चरैवेति... का अर्थ यहाँ के स्वयंभू पंडितो ( साहित्यिक) के कानो में फूक कर देखिये ... कही न कही से धुआ जरूर निकलता देखेंगे/ महसूस करेंगे. सारा लब्बो-लुबाब " कथनी और करनी में अंतर का है . मजा आ गया !!!!!!

    ReplyDelete
  43. प्रतीक स्वाभिमान से जुडे होते है पर हर आंख इनको देख भी नही पाती अब लोग देखेंगे ही नही तो क्या किया जा सकता है

    ReplyDelete
  44. कहने वाले तो बहुत कुछ कहते हैं और चले भी जातें हैं पर सवाल ये उठता है की मानने वालों पर इसका कितना असर होता है अगर दिल में उसके प्रति कोई एहसास ही नहीं होगा तो उनकी कही बातें किसपर असर करेगीं बिना एहसास के तो कुछ भी संभव नहीं फिर चाहे वो किसी ने भी कही हो ? गाँधी जी गाँधी जी तो सारा देश कहता है पर गाँधी जी की बातों में कौन चलता है |
    बहुत अच्छी पोस्ट |

    ReplyDelete
  45. आपकी अभिव्यक्ति की रोचक प्रस्तुति मन के तारों को झंक़ृत कर गयी।धन्यवाद।

    ReplyDelete
  46. duniya kadmon tale... kisi ne kaha bado ke pad-chinnho pe chalo... humne unhi ko apna pad-chinh bana liya to sikwa kaisa...

    ReplyDelete
  47. चरैवेति तो मूल- चलते रहो, ही रहेगा, जब यह - सब चलता है, बन जाये या जाता है तो सब कुछ चला जाता है।
    मदिरा के मामले में बेचने वाले तो अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन दिखायेंगे ही, यह तो लोगों पर निर्भर करता है कि वे, उनकी जीभ, और उनकी प्यास कितनी आतुर हैं। भारत जैसे गर्म देश में बोतल से चलने वाली बात अपना कर बहकना, पीकर दंगा करना नासमझी की निशानी है। ये पीने वाले खुद ही अफसाने बना देते हैं। सम्भलती है नहीं और इसे बहादुरी, मर्दानगी की निशानी समझ दिल से लगा लेते हैं। बाजार में तो मदिरा जैसी वस्तुयें रहेंगी ही और इन्हे बनाने वाली कम्पनियों को ढ़ोंग भी करना पड़ेगा क्योंकि इन वस्तुओं की छवि इन्हे इस्तेमाल करके ऊट्पटांग काम करने वाले लोगों से बनती है। बाजार में तो जहर भी बिकता है और चाकू भी। बात इनके सही या गलत इस्तेमाल की है। भारत जैसे देश अनूठे हैं यहाँ नशेड़ी खुशी में भी बोतल खोल लेते हैं और ग़म में भी। समय इनसे कटता नहीं, सच्चाई इनसे बर्दाशत नहीं होती सो बोतल में ही खो जाते हैं।
    नशामुक्त्त समाज कोई नहीं होता न कभी था न कभी रहेगा। नशे के साधन जरुर बदल सकते हैं। शराब बंद कर दो लोग कुछ और ढूँढ लेंगे। नशामुक्त आदमी होते हैं और वे मधुशालाओं की कतारों के मध्य से भी सधे कदमों से निकल जाते हैं।

    ReplyDelete
  48. विचारोत्तेजक आलेख ! निशान्त मिश्र जी की टिप्पणी का पूर्वार्द्ध अपना भी !

    ReplyDelete
  49. आपको बहुत बहुत धन्यवाद आपने सचमुच सिहांवलोकन किया है अनूठे ढंग से व्यंग किया है शासन में रहते हुवे इतनी हिम्मत एक साहित्यकार हि कर सकता है |जन आंदोलनों के चलते चलते कई दुकाने बंद करनी पड़ी |सरकार शासन नहीं व्यापार कर रहि है राजस्व बढाने फूहड़ हत्कंडे अपनाये जा रहे है हांथी चोर को छोड़ मुर्गिचोर पकड़ा जाता है आबकारी में दारू ठेकेदारों ने सिंडिकेट बनाकर सरकार के इनकम में सेध लगाया है सरकार कह रहि है कि हम शराब बंदी कि दिशा कि ऑर बढ़ रहे हैं

    ReplyDelete
  50. पंडित विचार करें, क्‍या चरैवेति का अर्थ 'सब चलता है' नहीं निकाला जा सकता।... बाज़ार वाद ने ढेरों मानकों को चलता कर दिया है और "सब चलता है" की नयी अवधारणा पैदा की है...

    ReplyDelete
  51. संवेदनशील लोगों के लिए ही ये चीज़ें महत्त्व की हैं,अन्यथा आज संस्कार-रहित विचार में ऐसे भाव आते कहाँ हैं ?

    ReplyDelete
  52. :) हमने भी देखा है..

    वैसे, ये बात आपने झांसे के लिए कही है न, :) :)

    "बचपन की बात कुछ और थी, ज‍ब कहीं किसी कापी-किताब या कागज के टुकड़े पर भी पैर पड़ जाए, उस पर अक्षर हों, कुछ लिखा-छपा हो तो उसे माथे से लगाते थे। "

    हम तो अभी भी करते हैं ऐसा, आप भी...है न? :) :)

    ReplyDelete
  53. पोस्ट ........ रोचक और शानदार है

    ReplyDelete
  54. जूते और टीशर्ट के माध्यम से कई चीजें संप्रेषित कर गए आप

    ReplyDelete