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Thursday, September 30, 2010

राम के नाम पर

'विष्णु की पाती राम के नाम' की शुरूआत में ही विष्‍णु, राम के साथ बैठे हैं और कह रहे हैं 'काफी ले आना हनुमान'। यह कोई गड़बड़ रामायण नहीं, अच्छी खासी पुस्तक का जिक्र है, जिसका विमोचन 15 सितंबर को मारीशस में वहां के संस्कृति मंत्री श्री मुखेश्वर ने किया।


पुस्तक, विष्णु प्रभाकर जी द्वारा राम पटवा जी को लिखे पत्रों का संकलन है और हनुमान, काफी हाउस के बैरे का नाम। इसका संपादन सृजन गाथा वाले जयप्रकाश मानस जी ने किया है। फ्लैप पर प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, रायपुर के अध्यक्ष विश्वरंजन जी ने लिखा है- 'इन पत्रों को मैं उस रूप में देखता हूं जिस रूप में शेक्सपीयर द्वारा युवा आलोचक एलेन स्टवर्ट को लगातार लिखे गए पत्र (शैक्सपीयर लैटर्स एडीटर-एलेन स्टूवर्ट) को देखा करता हूं।' उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि 'राम पटवा ऐसे सौभाग्यशाली साहित्यकारों में से एक हैं, जिन्हें विष्णुजी सदैव और सर्वत्र अपने व्याख्‍यानों में याद करते थे।'

विष्णु जी जगह-जगह, राम पटवा जी की लघु कथा 'अतिथि कबूतर' सुनाते हुए कहते कि 'शब्द मेरे हैं पर कथा श्री राम पटवा की है और वह किसी टिप्पणी की मोहताज नहीं है।' आइये देखें उस लघु कथा को-

रोज सुबह एक छत पर दो कबूतर मिला करते थे। दोनों में घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। एक दिन दूर खेत में दोनों कबूतर दाना चुग रहे थे, उसी समय एक तीसरा कबूतर उनके पास आया और बोला, ''मैं अपने साथियों से बिछड़ गया हूं। कृपया आप मेरी मदद करें।''
दोनों कबूतरों ने आपस में गुटर-गूं किया, ''भटका हुआ अतिथि है.. अतिथि देवो भवः,'' लेकिन प्रश्न खड़ा हुआ कि यह अतिथि रूकेगा किसके यहां? दोनों कबूतर अलग-अलग जगह रहते थे, एक मस्जिद की मीनार पर तो दूसरा मंदिर के कंगूरे पर।
अंततः यह तय हुआ कि अतिथि कबूतर को दोनों कबूतरों के साथ एक-एक दिन रूकना पड़ेगा।
तीसरे दिन 'अतिथि' की भावभीनी विदाई हुई। दोनों मित्र अतिथि कबूतर को दूर तक छोड़ने गए। शाम को जब वे लौटे तो देखा - मंदिर और मस्जिद के कबूतरों में 'अकल्पनीय' लड़ाई हो रही है। इस दृश्‍य से दोनों स्तब्ध रह गए। बाद में पता चला कि अतिथि कबूतर संसद की गुंबद से आया था।

इस पुस्तक पर थोड़ी बात। संग्रह के पृष्ठ 31 पर पोस्ट कार्ड का मजमून कुछ इस तरह है-

आपके लेख की प्रतिलिपि मिली। राम की कथा को हर व्यक्ति ने अपनी-अपनी दृष्टि से देखा है। मैने नवभारत टाइम्स में एक छोटा-सा लेख लिखा था और उसमें कितने ही राम गिनाए थे। वास्तव में राम ऐतिहासिक नहीं, पौराणिक पुरुष हैं और उस युग के मूल्यों के प्रतीक हैं जब आर्य लोग पशु चराना छोड़कर खेती करने लगे थे और नदियों के किनारे बस्तियां बसाई थीं। ऐसे समय ही वर्ण-व्यवस्था और आदर्श मूल्यों का निर्माण हुआ था उसी को किसी कवि ने कथा का रूप दिया। अगर यह भी मान लें कि राम कभी हुए थे तो भी वह कुछ मूल्यों के प्रतीक थे; सत्ता का त्‍याग, अन्याय का प्रतिकार, साधुजनों की रक्षा और जितने भी पिछड़े वर्ग है उनको समान स्तर पर लाना। आज जो राम का नाम लेते हैं उनमें से कोई भी इन मूल्यों को नहीं मानता। बौद्ध दर्शन में तो यह आता है कि साकेत कभी किसी राजा की नगरी रही ही नहीं वह तो व्यापार नगरी थी। दशरथ बनारस के राजा थे। बौद्ध जातक में यह कथा दी हुई है सीता किसी के गर्भ में पैदा नहीं हुई थी सीता का अर्थ है जुती हुई जमीन। वाल्‍मीकि स्वयं शुद्र जाति के थे क्रौंचवध के बाद उनके मन में स्वतः ही कविता फूट पड़ी वह बदल गए और उन्होंने एक आदर्श पुरुष की कल्पना करके रामकथा लिखी। वह केवल अयोध्या काण्ड ही लिख पाए थे। ऐसे ही अनके कथानक हैं। लोकगीत में तो और भी विचित्र बातें बताई गई हैं। आज तो राजनीतिज्ञों ने वोट मांगने का साधन बनाया हुआ है। राम के मूल्यों से उन्हें कोई मतलब नहीं।

पुस्तक के पृष्ठ 32 पर विष्णु जी की कविता प्रकाशित है। सर्वनाम संबोधन 'प्रिय आत्मन्‌' से ऐसा लगता है कि यह नया साल 1993 के लिए प्राप्त हुई शुभकामनाओं के जवाब में उनके द्वारा सभी को प्रेषित किया गया होगा, अन्य संदर्भ तो साफ है, लेकिन ध्‍यातव्‍य कि यह तेवर, 80 बरस पार कर चुके 'इन्सान' के उद्वेलित हो कर खीझे, व्यथित मन की अभिव्यक्ति है, जिसमें (सर्वेश्‍वर जी वाले?) 'भेड़िये' भी हैं -


धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम
लो आ गया एक और नया वर्ष
ढोल बजाता, रक्त बहाता
हिंसक भेड़ियों के साथ.
ये वे ही भेड़िये हैं
डर कर जिनसे
की थी गुहार आदिमानव ने
अपने प्रभु से -
'दूर रखो हमे हिंसक भेड़ियों से'
हां, ये वे ही भेड़िए हैं
जो चबा रहे है इन्‍सानियत इन्‍सान की
और पहना रहे हैं पोशाकें उन्हें
सत्ता की, शैतान की, धर्म की, धर्मान्धता की.
और पहनकर उन्हें मर गया आदमी
सचमुच
जी उठी वर्दियां और कुर्सियां
जो खेलती हैं नाटक
सद्‌भावना का, समानता का
निकालकर रैलियां लाशों की.
मुबारक हो, मुबारक हो
नयी रैलियों का यह नया युग
तुमको, हमको और उन भेड़ियों को भी
सबको मुबारक हो.
धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम ...

इस ताजी पुस्तक में शामिल चिटि्‌ठयां, पुरानी और निजी किस्‍म की भी हैं फिर छपी क्योंकर है? किसी ने बौद्धिक मासूमियत से खुद को कहीं 'मोतिया' कहने वाले से पूछा है- 'कबीर! तुम कब अप्रासंगिक होओगे?' दिल-दिमाग दुरुस्‍ती से भरोसा रखें कि 'होइहि सोइ जो राम रचि राखा' तो 'न्याय-मंदिर' की प्रार्थना-इबादत भी 'सर्वजन हिताय रघुनाथ गाथा' साबित होगी।

मंदिर की जोड़-तोड़ः

किसी ने 'जोड़-तोड़' नामक एक सुरक्षा फार्मूला सुझाया है। यह विशेष उपयोगी होता है, दर्शनार्थ मंदिर जाने में, पादुकाएं बचाने के लिए। करना बस यह होता है कि मंदिर में प्रवेश के समय पादुकाएं उतारते हुए, जोड़ी तोड़ दें, एक साथ न रखें यानि एक पादुका एक तरफ और दूसरा परली बाजू में। बस इतने जोड़-तोड़ से आपकी पादुकाएं सुरक्षित रहेंगी। वैसे यह दर्ज करना सुझाने वाले की इस बात का उल्‍लंघन है कि 'जूता चोरों के हित में इसे जारी न किया जाए' लेकिन यह पेज तो हितग्राही और भुक्‍तभोगी सहित, सभी के लाभार्थ, लोक हित में है। इस तरकीब की अनुप्रयुक्‍तता कहां-कहां संभव है, गुणीजन विचार कर सकते हैं।

श्री राम पटवा जी (+919827179294) ने पुस्तक विमोचन की मेरी सहज जिज्ञासा के जवाब में तुरंत पुस्तक सहित मूल दस्तावेज और फोटो उपलब्ध करा दिए। उनकी उदारता से कई परिचित अक्सर लाभान्वित होते हैं।

Wednesday, September 22, 2010

देथा की 'सपनप्रिया'


शाम ढल रही है। दिया-बत्ती की तैयारी होने लगी। अंधेरा घिरने लगा, लेकिन आंखों में नींद और नींद में सपने के लिए अभी देर है। एक बूढ़े ने जरूर खुली आंख का सपना बुनना शुरू कर दिया है। ओसारे में उकडू बैठा, अस्थितना, कृश देह पर आवरण जैसी चिपकी सलदार चमड़ी, उसके ऊपर फिर बन्डी और धोती। चिमनी की टिमटिमाती रोशनी में चेहरा साफ दिखाई नहीं पड़ रहा है। उसकी खनकती आवाज सुनाई पड़ रही है और दिख रही हैं, चमकती आंखें। शायद ये आंखें दिन भर उम्र से बुझी-बुझी रहती हों, लेकिन अंधेरा होते ही चमकने लगती हैं, सपने जो बुनती हैं। इन आंखों ने अतीत के इतने चेहरे, और चहेरों के इतने रंग देखे हैं कि वह सब आंखों में न झिलमिलाए तो आंखें पथरा ही जाएं।

सामने इक्का-दुक्का से शुरू होकर झुण्ड बढ़ने लगी है, जिसमें हर तरह के और हर उम्र के बच्चे हैं। बच्चों के साथ उनकी मासूमियत और जिज्ञासा भरी आंखें हैं, जिनमें थोड़ी-थोड़ी देर में झिलमिल परछाईं उभरती है। बच्चों के चेहरे साफ-साफ दिखाई पड़ रहे हैं, कोई आपकी तरह है, कोई मेरी तरह और कई बच्चे तो हमारे बुजर्गों-पीढ़ियों के हमशक्ल भी हैं।

बूढ़ा फन्तासी गढ़ रहा है, तिलस्म रच रहा है। गाछ-बिरिछ, नदी-नाले, पत्थर-लकड़ी में भी धड़कन होने लगी है। जान आ गई है। चमत्कार हो रहे हैं, और मानुस जात, चाहे राजा हो या रंक, साधु हो या संत, मछुआरा हो या लकड़हारा, लालसा की सभी पुतलियां कठुआ कर नाचने लगी हैं। रात गहराने लगी है और कथा सुनते-सुनते, आंखें उनींदी होने के बजाय खुलने लगीं या अंधेरे में देखने की अभ्यस्त हो गईं। अरे! यह तो बिज्जी है, विजयदान देथा, जो कहता है कि ''एक नैसर्गिक खासियत की बात बताऊं कि तिहत्तर बरस की उम्र में बुढ़ापे का असर देह और मन प्राण पर तो अवश्य पड़ा है, पर अध्ययन और सृजन के सीगे अब भी सोलह बरस का किशोर हूं।'' (पृ.- चौदह)

सृजन और अध्ययन की गति, साहित्य की प्रत्येक विधा के रचनाकार को किशोर बनाए रखती है। यों प्रासंगिक व अद्यतन बने रहने के लिए सतत्‌ अध्ययन की सर्वाधिक आवश्यकता आलोचक को होती है, तो देथा की विधा के रचनाकार के लिए न्यूनतम आवश्यक है, किन्तु इस उम्र में भी उनके अध्ययन का क्रम किसी सजग आलोचक जैसा निरंतर है, इसीलिए वे अपनी रचनाओं में मग्न रहने के साथ अप-टू-डेट रचनाकार हैं। जहां तक सृजन का पक्ष है तो देथा ने जिस गति से और जितनी तादाद में रचना की है, उसका एक नमूना यह संग्रह भी है। 'सपनप्रिया' की बाइस कहानियां सन '97 के केवल पांच माह में लिखी गई हैं। दो कहानियां कुछ पुरानी हैं और दो पर भूमिका के बाद की तारीख पड़ी हैं, जिनमें से एक तो आधे पेज की रचना है और दूसरी, परिशिष्ट की कहानी 'सपने की राजकुंअरी' है। इस परिमाण में लेखन कैसे संभव होता है, यह देथा ने स्वयं भूमिका में स्पष्ट किया है- ''लिखने के पूर्व- चाहे किसी विधा में लिखूं- कविता, कहानी, गद्यगीत, निबंध या आलोचना- न कुछ सोचता था, लिखना शुरू करने के बाद न रूकता था न काट-छांट करता था और न लिखे हुए को फिर से पढ़ता था। (पृष्ठ - ग्यारह) देथा की रचना प्रक्रिया में लेखन की यह प्रवृत्ति उनके लिए अनुकूल हो सकती है लेकिन अनुकरणीय नहीं। वैसे पुस्तक की भूमिका, देथा की रचनाओं से बने उनके कद को कम ही करती है, अच्छा होता कि पूर्व की भांति वे भूमिका लिखने की जिम्मेदारी कोमल कोठारी पर डालकर स्वयं को कहानियां रचने के लिए स्वतंत्र रखते।

पहली और मुख्‍य कहानी 'सपनप्रिया' तथा परिशिष्ट 'सपने की राजकुंअरी' एक ही कथा का पुनर्लेखन है और लेखक के शब्दों में- ''मूलभूत कथानक की समानता के बावजूद (इनमें) फूल और इत्र सा वैविध्य है।'' लेखक ने यह भी कहा है कि- ''मेरी रचनाओं में गहरी रूचि रखने वाले परम हितैषी मुझे टोकते रहते हैं, कि मैं नये सृजन की कीमत पर राजस्थानी या हिन्दी में पुनर्लेखन न करूं। पर मुझे इसमें प्रजापति-सा आनंद आता है। साथ ही लेखक ने अपनी ओर से दोनों कहानियों की व्याख्‍या की जिम्मेदारी अनिल को सौंपी है जिन्हें भूमिका के रूप में लिखित 'इधर-उधर' शीर्षक का पत्र संबोधित है। लेखक ने इस प्रश्न के न्यायसंगत उत्तर की भी आशा की है कि- ''क्या 'सपने की राजकुंअरी' में दीवान की बेटी का हत्या से परम्परागत अन्त करके 'सपनप्रिया' में उसके प्राण बचाने की अनाधिकार चेष्टा तो नहीं की मैंने? कोई अपराध तो नहीं किया है?''

यह लेखक अपने लिखे को फिर से नहीं पढ़ता, लेकिन अपने लिखे पर न्यायसंगत उत्तर की आशा में स्वयं सवाल खड़े करता है, देथा से पाठक को जो उम्मीद है, वह इससे कायम रह जाती है। वैसे 'सपनप्रिया' में दीवान की बेटी की हत्या के बजाय उसके प्राण बचाना अपराध नहीं तो अनाधिकार चेष्टा अवश्य है। लोक स्वरूप की कथाओं में नैतिकता का किताबी आग्रह कभी इतना प्रबल नहीं होता, जितना दीवान की बेटी के प्राण बचाने में हो गया है। यहीं पर विचार कर लेना उपयुक्त होगा कि बोलियों में सुनाई जाने वाली मौखिक परम्परा के किस्से-कहानियां, गाथाएं, भाषा के चौखट में बंधकर, एक जिल्द में सिमटकर, अक्षरों में जम जाती है, तब उसके स्वरूप और प्रभाव में क्या और कितना अन्तर आ जाता है, किताब शुरू करने के साथ यह सवाल बना रहा। लोककथाएं, मुद्रित रूप में इससे पहले फुटकर, जब भी पढ़ा ऐसा कोई सवाल, इतने साफ तौर पर जेहन में नहीं था और संभवतः लेखक के प्रश्न में भी इसी के आसपास की पड़ताल का आग्रह है।

मोटे तौर पर लोककथाएं ऐसी कहानियां है जो शाश्वत, प्राकृतिक स्थितियों और भावों के बिंब पर विकसित होती हैं, अन्य कहानियों का मूल स्रोत भी इससे भिन्न नहीं होता, इसीलिए प्राचीन भारतीय 'वृहत्कथा' भण्डार के जातक, पंचतंत्र और नंदीसूत्र जैसे संग्रह की कहानियों में साम्य मिल जाता है और कुछेक वर्तमान लोककथाओं में भी उनकी छाप आसानी से देखी जा सकती है, लेकिन लोककथा का फलक सदैव अधिक विस्तृत और उदार-उन्मुक्त होता है, क्योंकि ये विशिष्ट देश, काल अथवा पात्र की सीमा में नहीं बंधती, स्थिति के अनुरूप अपना कलेवर बदलकर भी अपनी मौलिकता बनाए रखती हैं। लोककथाएं, सामाजिक मान्यताओं के बजाय मानवीय मूल्यों के प्रति अधिक सचेत रहती हैं और इसी दृष्टि से नीति कथाओं, बोध कथाओं जैसी अन्य कहानियों से अपनी भिन्नता बना लेती हैं। मौखिक परम्परा की लोककथाएं 'बारह कोस पर बानी' से कहीं आगे अपना बाना (शैली) हर कहने वाले के साथ और अर्थ प्रत्येक सुनने वाले के साथ बदलती हैं, पर यह परिवर्तन सिर्फ ऊपरी तौर पर होता है, मूल आत्मा तो सतत्‌ प्रवहमान नदी की तरह एक-रूप अभिन्न होती है, इसीलिए लोककथाएं मुरदा रूढ़ियां और थोथे उपदेश नहीं बल्कि रोचक जीवन्त परम्परा है। 'अस्ति' का सत्य हैं, जो लगातार व्यवहृत रहकर 'भवति' में अपनी रसमय अर्थवत्ता बनाए रखती हैं।

कुछ नमूने देखें कि देथा ने इस बाने का इस्तेमाल किस तरह किया है- 'क्षितिज और चांदनी के सुरक्षित पार्श्व में एक राज्य था। सूर्योदय और सूर्यास्त की किरणों के पालने में झूलता हुआ। ऊषा और संध्या की लाली के बहाने मुस्कुराता हुआ (सपनप्रिया, पृ.-31)। कहानी 'भूल-चूक लेन-देन' की शुरूआत का उद्धरण है- ''समय के अनुकूल बदलती हैं बातें। मौसम के अनुरूप खनकती है रातें। बारह कोस पर बदले बोली। अक्ल की आमद किसने तोली।' तो परमेश्वर सुध-बुध का सार कभी नहीं बिसराये कि हवा, धूप और अंधियारों की शरण में तारों की छांह तले किसी एक गांव में.....।'' 'अस्ति' के रचनात्मक 'भवति' व्यवहार का रस-सौंदर्य इन उद्धरणों में निखरकर आया है।

'सपनप्रिया' की कहानियों में काल का हवाला देने के लिए देथा पारम्परिक 'बहुत पुरानी बात है' जैसे वाक्यों से बचते हैं और स्थान, व्यक्ति-नामों के लिए जातिवाचक संज्ञाओं का इस्तेमाल करते हैं। यह महज संयोग नहीं है, बल्कि यही उनकी शैली की विशेषता है, जिसमें अपने गांव बोरून्दा में सुनी लोककथाओं का बार-बार संदर्भ बदलकर भी वे अपनी कहानियों को लोककथा के करीब बनाए रखकर, मौलिक रचना करने में सफल होते हैं। उनके पात्र राजा, सेठ, दीवान, साधु, मछुआरा, शेर या आप-करनी राजकुमारी आदि हैं। वे व्यक्ति-नामों से बचते हैं और पात्रों को सर्वनाम या विशेषण के आरोपण से भी बचाए रखते हैं। जातिवाचक संज्ञाओं को पात्र बनाकर वे अपनी कहानियों को सर्वव्यापक बनाते हैं, क्योंकि इन संज्ञाओं की जाति का आधार न तो जन्मना होता है न ही कर्मणा, वह तो सुदीर्घ प्रचलित सामाजिक मान्यताओं का स्वीकृत बिंब होती है।

आर्थिक और सामाजिक समस्याएं, बहुत जल्द मुद्‌दे बन कर, जरूरतमंद धार्मिक-राजनैतिकों द्वारा अपना ली जाती हैं। ऐसी समस्याएं यदि मूल प्रवृत्तिजन्य हों और वह भी भूख जैसी व्यापक, तो वह लोककथा के विस्तृत फलक पर कितनी अर्थपूर्ण हो सकती है और हमारे समाज, परम्पराओं, मूल्य-मान्यताओं पर कितने सवाल खड़ा कर सकती है, यह संग्रह के 'खीर वाला राज्य' कहानी में देखा जा सकता है। कुछ उद्धरण सुनिए, अपच के मरीज राजा से पण्डित कहता है- ''राज्य करना तो आप जैसे उमरावों को ही शोभा देता है और खीर बेचारी की क्या बिसात, मुझ जैसे अभागे भी चट कर जाते हैं।'' प्रजा जोर-जोर से चिल्लाने लगी- ''राजा, सेना और दरबारी खीर खाएं तो भले ही खाएं, पर हमारे लिए नमक रोटी का इंतजाम तो होना ही चाहिए।'' और एक उद्धरण- ''खीर खाने से ही मुझे यह राज्य बकसीस में मिला और खीर खाते-खाते ही छिन जाए तो कोई परवाह नही। मैं तो खीर के अलावा कोई दूसरा प्रपंच जानता ही नहीं।'' यह कहानी लोक कथाओं के रूचि-व्यापकता की शर्त पूरा करती है, किन्तु महाकाव्यीय नियतिबद्ध परिणिति जैसी अन्य शर्तें आदिम भावों के साथ कुछ दूसरी कहानियों में अधिक उभरकर आती है।

संग्रह की एक और उल्लेखनीय कहानी 'मरीचिका' है, जिसमें एक शेर, पशु से धीरे-धीरे मनुष्य और मनुष्य से महामानव की प्रवृत्तियां अपना लेता है, अपनी सीधी और सपाट सोच के चलते, किन्तु इस सिलसिले में उसे 'सभ्य' समाज से दो-चार होना पड़ता है तो उसका गुजारा मुश्किल हो जाता है और वह इस जहरीले वातावरण से वापस लौट जाता है। शेर जिसे कहानी में कहीं सिंह और कहीं नाहर कहा गया है, कहता है- ''मैं फकत मौत ही का नहीं, समूची कुदरत का प्रतिरूप हूं, जिसे दुनिया भूल चुकी है।'' शेर यह भी कहता है कि अन्दरूनी इच्छा हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं। मैने हजारों हजार पुरखों की बान छोड़ी ही है.... और अब चुपके-चुपके घास खाने का अभ्यास भी कर रहा हूं। दीवान की पत्नी को अपलक दृष्टि से देखकर शेर कहता है- ''आपका अनिन्द्य रूप निहार कर अब मैं सुख से मर सकता हूं। आपके बहाने समूची प्रकृति ही मेरे सामने झिलमिला रही है।'' और उसकी ''आंखों के सामने मेरी साथिन (शेरनी) और दीवान की पत्नी का चेहरा दोनों साथ-साथ ही चमक रहे थे।''

संग्रह की सभी कहानियों की चर्चा और उद्धरण संक्षेप में भी यहां संभव नहीं है, किन्तु कहानियों का मूड 'मायाजाल' तक अधिक सहज और इसके बाद का सायास जान पड़ता है। इसके बावजूद भी एक पाठक की हैसियत से, आजकल जो कहानियां चाल-चलन में हैं और जितना उनका आतंक है, उस माहौल में न सिर्फ 'सपनप्रिया' बल्कि देथा का पूरा रचना-संसार इतना रोचक और आकर्षक है, इतना तरल, सुकूनदेह है कि उसमें बार-बार डुबकी लगाई जा सकती है। यहां 'गिरवी जीवन' में लोकप्रिय देवता महादेव-पार्वती की उपस्थिति और गणेश को ब्याह की पहली कुंकुम-पत्रिका चढ़ाये जाने की परम्परा के लिए रची गई कथा तथा इसके साथ 'आसीस' के चापलूसी पसंद, महल तक सीमित रहने वाले राजा के राजकीय व्यवस्था पर रची कथा और 'मनुष्यों का गड़रिया' के खुदा की खुदाई का उल्लेख संकलन की अलग-अलग रंग-छटाओं की दृष्टि से आवश्यक है। कुल मिलाकर इस जिल्द में देथा, दर्शन के स्तर पर जड़-चेतन द्वैत के संदेह तक पाठक को पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं तो अभिव्यक्ति के स्तर पर भाषा-बोली के द्वन्द्व के आगे-पीछे संगीत से लेकर बायनरी प्रणाली तक सोच की गुंजाइश बना देते हैं।

अन्ततः एक दीगर लघु कथा का स्मरण- 'इक्कीसवीं सदी में मृत्यु और जन्म, यानि पूरे जीवन पर विजय पा ली गई न कोई मरता, न कोई पैदा होता। कहीं कोई गड़बड़ हुई और एक बच्चा पैदा हो गया, उस बच्चे को लेकर उसके अभिभावक एक संगीत सभा में पहुंचे। सभा में थोड़ी देर बाद बच्चा रोने लगा और सभी श्रोता एक साथ सभा के लिए आयोजित संगीत को रूकवाकर इस बच्चे के अकस्मात्‌ विलाप को सुनते रहे।' देथा का विलाप-संगीत, असंगत विविधताओं पर आधारित लय और मिठास का सहज रस है।

दसेक साल से अधिक अरसा बीता, बिलासपुर में 'पाठक मंच' पुनर्जीवित हुआ, मैंने औपचारिकतावश शुभकामनाएं दीं तो जवाब में यह पुस्‍तक 'सपनप्रिया' थमा दी गई, इस दबावपूर्ण अप्रत्‍याशित प्रस्‍ताव सहित कि अगली बैठक में इस पुस्‍तक की चर्चा मेरे आधार वक्‍तव्‍य पर होगी। संकोचवश और पुस्‍तक पढ़ने की चाह में ऐसा लेखन अभ्‍यास न होने के बावजूद, यह सोच कर रख लिया कि पढ़ने के बाद, मुझसे यह नहीं हो सकेगा, कह कर एकाध दिन में ही लौटा दूंगा। लेकिन पुस्‍तक पढ़ कर पूरे उत्‍साह से एक लंबा नोट सहजता से लिख लिया, उसका लगभग एक तिहाई हिस्‍सा यह है। वही हिस्‍सा, जो पाठक मंच में पढ़ा गया, बाकी का अब सिर्फ यादों में जुगाली के लिए। देथा जी पर कुछ लिखना 'दुविधा' छोड़ कर संभव हुआ। यह शायद अब तक अप्रकाशित भी रहा है। 

Friday, September 10, 2010

गणेशोत्सव - 1934

श्री गणेशाय नमः। सर्वविदित है कि मुख्‍यतः पेशवाओं में प्रचलित गणपति पूजन को सन 1893 में तिलक जी ने समानता, एकता और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध का सार्वजनिक उत्सव बना दिया। छत्तीसगढ़ में इस उद्देश्य-पूर्ति का एक प्रमाण पुराने दस्‍तावेजों में मिलता है-

14 सितंबर 1934 को बेमेतरा के श्री विश्वनाथ राव तामस्कर किसी केस के सिलसिले में रायपुर आए और लौटे क्रांतिकुमार भारतीय के साथ। बेमेतरा में बालक शाला और सप्रे वकील के घर, गणेश प्रतिमा स्थापित की गई थी। क्रांतिकुमार को यहां रामायण पाठ के लिए आग्रह किया गया।

17 सितंबर को स्कूल के कार्यक्रम में छात्रों सहित करीब 100 लोग उपस्थित हुए। क्रांतिकुमार ने यहां प्राच्य और पाश्चात्य सभ्यता के मिश्रण से होने वाली बुराइयां बताईं, उन्होंने छात्रों को बौद्धिक और शारीरिक रूप से सबल बनने की प्रेरणा दी, ताकि आवश्यक होने पर उनकी शक्ति काम आए। उन्होंने खादी पहनने और मात्र स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की नसीहत देकर 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं' की व्याख्‍या की।

सप्रे जी के निवास पर लगभग 400 लोग जमा हुए। यहां क्रांतिकुमार ने रामायण के भरत मिलाप प्रसंग को सही मायने में सुराज, संदर्भ लिया। उन्होंने कहा कि तब लोग राजा के प्रति पूर्ण समर्पित होते थे। राजा भी उनकी सलाह से काम करता था, जबकि आज साम्राज्यवाद से लोग परेशान हैं। उन्होंने कहा कि मातृभूमि की सेवा और स्वाधीनता के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए वह ज्ञान प्राप्ति से हो चाहे चोरी या हत्या ही क्यों न हो। इस मौके पर उन्होंने सिविल नाफरमानी, सेना के लिए किए जाने वाले गौ-वध, स्वदेशी, छुआ-छूत और नशा-मुक्ति की बातें भी कहीं।

इस घटना ने तत्कालीन प्रशासन की नींद फिर हराम कर दी, क्योंकि उन पर पहले भी कई बार शासन विरोधी गतिविधियों के कारण कार्रवाई हुई थी। 7 से 10 अप्रैल 1934 को 'नेशनल वीक' के दौरान नागपुर के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने उन्हें रामायण प्रवचन के लिए कहा लेकिन उनके भाषणों को राजद्रोह प्रकृति का मान कर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 108 के अंतर्गत 14 अप्रैल को चालान किया गया। इस सिलसिले में 27 अगस्त को सिटी मजिस्ट्रेट, नागपुर के समक्ष उनका लिखित बयान दाखिल कराया गया, जिसमें क्रांतिकुमार भारतीय ने कहा था कि वे रामायण प्रवचन करते रहेंगे, लेकिन भविष्य में शासन विरोधी अथवा राजद्रोह के भाषण नहीं करेंगे "It is already known to the Court that I am contesting these proceedings. I deny that my speeches in quistion wewr seditious. I delivered discourses on Ramayan only which I propose to do herwafter also. But I can say that I will not deliver any anti-Government or seditious speech in future." लेकिन वे फिर बेमेतरा में 'रामायण प्रवचन' कर 19 सितंबर को रायपुर लौटे। इस तरह खास रहा छत्‍तीसगढ़ में सन 1934 का गणेशोत्‍सव।

प्रसंगवश :

गणेश, बुद्धि के देवता माने जाते हैं और बुद्धिमत्ता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ही सार्थक होती है। अभिव्यक्ति में गणेश के साथ जैसी छूट ले ली जाती है, वैसी शायद किसी अन्य धर्म में अथवा हिन्दू धर्म के दूसरे देवता के साथ संभव नहीं है। इस संदर्भ में एक प्रसंग का जिक्र। प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण, छत्तीसगढ़ आए। सड़क मार्ग से यात्रा करते हुए उन्हें जहां कहीं भी बंदर या गणेश प्रतिमा दिखाई पड़े, न जाने क्‍यों, कार रुकवा लेते। बंदर और गणेश, मनुष्य के शायद यही दो सर्वप्रिय कार्टून रूप हैं।

गणेश के स्वरूप, पौराणिक कथाओं, पुरानी चित्रकारी से लेकर 'बाल गणेशा', 'माई फ्रेन्ड गणेशा' और गणेशोत्सव में स्थापित की जाने वाली प्रतिमाओं में मजाकिया पुट के साथ कल्पना, सृजनशीलता और अभिव्यक्ति के न जाने कितने रंग-रूप दिखते हैं। दूध पीने-पिलाने का मजाक भी तो गणेश जी के साथ ही हुआ है। खैर...


कालीबाड़ी, रायपुर के कलाकार राजेश पुजारी बताते हैं कि लोग ट्रैफिक पुलिस, बॉडी बिल्डर या किसी अभिनेता के रूप में गणेश प्रतिमा बनाने की भी मांग करते हैं। यहां पुजारी परिवार द्वारा बनाई मूर्ति का चित्र है। युवा राकेश पुजारी (फोन +919669016175) मूर्ति में रंग और बारीकी का काम करते हैं, ने बताया कि यह प्रतिमा सन 2005 में स्थानीय सदर बाजार में स्थापित की गई थी।

डीपाडीह, सरगुजा के प्राचीन कलावशेष को युगल और ब्रह्मा की उपस्थिति से, शिव विवाह की प्रतिमा के रूप में पहचाना जा सकता है। ऐसी अन्य प्राचीन प्रतिमाओं की भांति यहां भी शिव-पार्वती के पुत्र गणेश सशरीर अपने भाई कार्तिकेय (प्रतिमा के दायीं ओर) के साथ पार्वती परिणय के साक्षी बने हैं।

आदि न अंतः उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित 'उर्दू-हिन्दी शब्दकोश' के संकलनकर्ता मुहम्मद मुस्तफा खां 'मद्‌दाह' (अहमक) का लिखा प्राक्कथन का अंश यहां उद्धरण योग्य है- ''कोश लिखने का शौक मुझे पागलपन की हद तक शुरू से ही रहा है। अब से 15-16 वर्ष पहले इसका श्री गणेश पाली-उर्दू शब्दकोश से हुआ।''

जय गजानन।


(इस पोस्‍ट का एक अंश 'नवभारत' समाचार पत्र के संपादकीय पृष्‍ठ पर 14 सितंबर को प्रकाशित हुआ है.)

Tuesday, September 7, 2010

मर्म का अन्वेषण

चित्रकार, फोटोग्राफर, पत्रकार रमन किरण एक हिन्दी पत्रिका 'जंगल बुक' हर महीने निकाल रहे हैं, एक और त्रैमासिक कला पत्रिका 'नया तूलिका संवाद' निकालने की तैयारी कर चुके हैं।
रमन, कवि हैं उनके दो कविता संग्रह 'मेरी सत्रह कविताएं' और 'सत्रह के बाद' आ चुके हैं और पिछले दिनों उनका तीसरा संग्रह 'मर्म का अन्वेषणः 37 कविताएं' आया।

उनके इस नये संग्रह की कुछ कविताएं-

(14/37)
एक पत्ता उम्मीद का
इतना भारी पड़ा
नये-नये पत्ते आने लगे


(15/37)
हैलोजन की रोशनी
कुछ तो सोचो
सड़क भी सोती है

(20/37)
जंगल हूं मैं।
मेरे तन पर,
मोर नाचते हैं।
रेंगते हैं सर्प,
जानवर पलते हैं
मेरे अन्दर
तपोभूमि था मैं।
कभी मेरे साये में,
जीता था आदमी ।।

(21/37)
तवे पर,
रोटी सेंकने के लिए,
गर्म किया जाता है,
तवे को ही।

(33/37)
धागा तोड़ोगे
गांठ बांध लो
जोड़ नहीं सकते

व्ही व्ही रमन किरण, बिलासपुर में मां सतबहिनिया दाई मंदिर के पास, देवरी खुर्द में रहते हैं। उनका मोबाइल नं. +919300327324 और मेल आईडी raman.kiran@yahoo.com है। उनकी कविताएं मुझे पसंद हैं।