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Monday, August 30, 2010

रंगरेजी देस

''अमरीका में 38% डॉक्‍टर, 12% वैज्ञानिक, 36% नासा वैज्ञानिक, 34% माइक्रोसाफ्ट कर्मी, 17% इंटेल कर्मी, 28% आइबीएम कर्मी भारतीय हैं, आइये गर्व करें कि हम भारतीय हैं''. शायद ही कोई भारतीय ईमेल आइडी या मोबाइलधारी होगा जिसके पास यह संदेश एकाधिक बार न पहुंचा हो. 'यह संदेश सारे भारतीयों को फारवर्ड कीजिए, सच्‍चे भारतीय बनिए' बार-बार संदेश आने पर लगा कि इसे फारवर्ड करना ही होगा, कहीं मेरी राष्‍ट्रीयता संदिग्‍ध न हो जाए लेकिन आशंकित मन में संदेह हुआ कि यह संदेश सेवा प्रदाताओं की 'बेच कर ही दम लेंगे' वाली 'स्‍थाई सेल' तो नहीं है.

गणितीय पद्धति से यह हिसाब नहीं लगाया है कि मुझे भारतीय होने पर क्‍यों गर्व है और वैसे भी इसमें कोई गणित लागू होता तो वह बीजगणित के 'मान लो' जैसा या टोपोलॉजी के 'आकार में अनाकार' का हिसाब लगाने जैसा होता. सभी को अपने-अपने मां के हाथ की रसोई सबसे स्‍वादिष्‍ट लगती है. ऐसा क्‍यों होता हैॽ क्‍या हमें वही स्‍वाद भाता है, जो बचपन से पहचाना हैॽ मां अच्‍छी कुक-शेफ हैॽ, याकि हमें मां पसंद होने के कारण उसके हाथ का बना खाना पसंद आता हैॽ पता नहीं. उद्दाम बौ‍द्धिक भी सहमत होंगे कि कुछ ऐसे प्रश्‍न हो सकते हैं जो उठने नहीं चाहिए, उठे तो उनका उत्‍तर न तलाशा जाय और प्रयास करें तो यह सदा चलता रहे. मां की रसोई के स्‍वाद का या मातृभूमि के प्रेम रहस्‍य का संधान, इसी श्रेणी में होगा. संक्षेप में मुझे तो 'अकारण' ही भारतीय होने का गर्व है.

एक और हिसाब लगाकर देखें. हमारे देश में शक, यवन, हूण, तुर्क, मुस्लिम आए और यहां के रंग में रंग गए, आत्‍मसात हो गए. इस हिसाब-किताब में अंगरेजों को शामिल नहीं किया जाता. चुनांचे, अंगरेज नहीं लेकिन देश में कितनी अंगरेजियत जज्‍ब है, इस पर यहां चर्चा न किया जाना ही बेहतर होगा. समाज विज्ञान की विभिन्‍न शाखाएं, खासकर भाषाविज्ञानी और मानवशास्‍त्री मानते हैं कि प्राचीन काल में दक्षिण-पूर्व से आस्ट्रिक या आग्‍नेयवंशी निषाद, दक्षिण-पश्चिम से मेडेटेरेनियन या भूमध्‍यसागरीय द्रविड़, पूर्वोत्‍तर से मंगोल-किरात आए. आर्यों की उत्‍पत्ति, मूल निवास, आगमन की धार्मिक और राजनैतिक व्‍याख्‍याएं भी हैं और उन्‍हें आदि आर्य, नव्‍य आर्य कह कर किश्‍तों में पश्चिमोत्‍तर से भारत आना बताया जाता है. इस तरह से भारत के मूल निवासी के प्रश्‍न की पड़ताल भी ज्‍यादा बारीकी से करने पर यह प्‍याज का छिलका बन सकता है, जो छिलते हुए रुलाएगा और हासिल भी शून्‍य रहेगा.

इंग्‍लैण्‍ड के साउथहाल और लिवरपूल जैसा इलाका अहिंसक ढंग से भारतीयों का उपनिवेश बन गया कहा जाता है. कनाडा में पंजाबियों की संख्‍या और प्रभाव उल्‍लेखनीय है. मारीशस, फिजी के राष्‍ट्राध्‍यक्षों का भी स्‍मरण करें. ऐसे अनेक उदाहरणों की चर्चा होती रहती है. अब यदि अमरीका में भारतीयों के आंकड़े सही हैं फिर भी अमरीका चिंतित नहीं है जबकि हमारी गौरवशाली सनातन परंपरा के साथ अमरीका की कोई तुलना नहीं और हम अपने प्रवासियों पर गर्व करते हैं तो बाहर से आने वालों के लिए हमें चिंता नहीं, बल्कि अपनी परम्‍परा के अनुरूप विदेशियों के भारत में प्रवेश और प्रभाव का स्‍वागत करने को तैयार रहना होगा.

सुश्री तीजनबाई, हबीब तनवीर जी और छत्‍तीसगढ़ मूल के झारखण्‍ड में बस गए वरिष्‍ठ और प्रभावशाली राजनेता श्री रघुवरदास के छत्‍तीसगढि़या होने पर हम गर्व करते हैं. हमारे कलाकार राज्‍य से बाहर जाकर या विदेशों में प्रस्‍तुति देकर प्रशंसित होते हैं, हमें खुशी होती है. जमशेदपुर, नागपुर, भोपाल जैसे शहरों में छत्‍तीसगढि़यों की संख्‍या और प्रभाव का शान से जिक्र करते हैं, लेकिन बाहर से यहां आने वालों के लिए अपने दरवाजे बंद रखना चाहते हैं यहां तक कि ऐसे छत्‍तीसगढ़ी, जो न जाने कब से यहां रचे-बसे हैं और अपनी जड़ों को भूल चुके हैं, उन्‍हें भी सरयूपारी, कन्‍नौजिया (कई जाति-वर्ग के लिए प्रयुक्‍त) वर्गीकृत किया जाता है. 'खुंटिहर नो हय, बहिरहा आय' कह कर अनजाने ही अपमानित कर डालते हैं. यह दोहरा मानदंड राह का रोड़ा ही बनेगा. हम अस्मिता के साथ अपना प्रभुत्‍व परंपरा, प्रतिभा और उद्यम जैसी अहिंसक क्षमता से अर्जित करते आए हैं और करेंगे.

(इस पोस्‍ट का एक अंश 'नवभारत' समाचार पत्र के संपादकीय पृष्‍ठ पर 'अभिमत' में आज, 30 अगस्‍त को प्रकाशित हुआ है.)

Thursday, August 26, 2010

हितेन्‍द्र की 'हारिल'

अरसे बाद, एक बैठक में पढ़ जाने वाली पुस्तक हितेन्द्र पटेल की 'हारिल' मिली। फ्लैप पर कहे गए ''सरल गति के कारण बेहद रोचक और पठनीय तथा प्रौढ़ मगर सहज लेखकीय निर्वाह'' की पुष्टि पहले पेज से होने लगती है और आखीर तक निभ जाती है। 'मैं' के अहम्‌ का अहिंसक स्तर भी इसका कारण है लेकिन अनाक्रामकता के बावजूद बाकर साहब को दिए लम्बे उत्तर में उसकी अस्मिता झलक जाती है। निरपेक्षता, उसे अधिकतर आउटसाइडर तो बनाए हुए है पर विसंगत नहीं और यह महज संयोग भी हो सकता है कि पहला 'उपन्यास' होने के बावजूद फ्लैप लेखे में लेखक का परिचय तो है लेकिन चित्र नहीं और यह भी नहीं कि जन्म कहां हुआ। यह कृति के 'मैं' और उपन्यासकार को (जेनुइन) घनिष्ट बनाता है।

रचनाओं के 'मैं' पर अक्सर, लेखक की छवि लद कर पठनीयता बोझिल करती है। वह 'मैं' सुदर्शन, बौद्धिक, संवेदनशील, सर्वगुणसम्पन्न हुआ करता है। जैसे नाटक अथवा फिल्मों में लेखक-कलाकार या निर्देशक-अभिनेता हो तो किसी दृश्य या 'डायलाग' में नायक पर कोई हावी नहीं हो सकता, वही सबको 'तत्व-ज्ञान' बांटता है, निरुत्तर करता है और उसके सामने पड़ने वाला यों पराजित हो, जैसे यही परिणिति हो, विधि का विधान हो, लेकिन यहां तकरीबन सभी पात्रों और विशेषकर समीर बाबू, कालिया साहब और जामिनी के हिस्से के वक्तव्य, संवाद और प्रश्न 'मैं-प्रशांत' पर भारी पड़ते रहते हैं, ऐसी लेखकीय उदारता कम मिलती है, जो यह भी साबित करती है कि लेखक प्रथम पुरुष में ही नहीं, अन्य पुरुष में समान रूप से विद्यमान है। इस मायने में भी यह रचनाकार की प्रौढ़ता का परिचायक है।

आखिर में जरूर प्रशांत का नायकत्व उभरने लगता है और अंतिम पृष्ठ पर स्थापित भी हो जाता है। अंत में ''ऐसा क्या कि हमारी सारी मेधा, सारी तपस्या, सारे आदर्श तभी बचें जब हमें शक्तिशाली लोगों की बैसाखी मिले'' सवाल पर अशांत प्रशांत को अपना चुनाव करना है। सवाल का यह दोराहा अब मैं-प्रशांत के रूप में लेखक का नहीं, पाठक के सामने है। ऐसा नहीं कि यहां जवाब नहीं आ सकता था लेकिन आता तो लेखक की निजता से व्याख्‍यायित हो कर। सवाल अनुत्तरित है, क्योंकि शायद अपना जवाब अपने तईं सबको खुद खोजना है या इसलिए कि सवाल का बना रह जाना भी चेतना को जागृत रखने में सहायक होता है, जो जवाब से कीमती हासिल हो सकता है।

बहरहाल एक सुझाव है- चुनौतियों का चयन कर सुविधानुसार मुकाबला या उनसे बचते जाना दुनियावी और सोच के स्तर पर अन्जाने ही पंगु करता जाता है। हम मौके और जरूरत के अनुरूप नहीं बल्कि मरजी और सुविधा से अपनी मनो-मुद्राओं में सदैव खुद को औचित्यपूर्ण ठहराते हैं। महत्वाकांक्षाएं और उद्यम बेमेल हों फिर भी स्वयं परीक्षक बनकर अपने को हर बार पूरा नंबर देते हैं, ऐसा कितनी दूर तक चल सकता है फलस्वरूप एक सीमा के बाद प्रश्नाकुल होने लगते हैं। दूसरी ओर जिसने चुनौतियों का न सिर्फ सम्मान और सामना किया बल्कि आमंत्रित कर स्वागत भी किया उसे बैसाखियों की जरूरत नहीं होती।

(बिना रिश्वत या कमीशन के रिजर्वेशन कन्फर्म करा लेने जैसे आदर्शों की रक्षा के लिए ऐसा पद या प्रभार हासिल करने की ख्‍वाहिश, जिससे भ्रष्टाचार का आरोपी मातहत बना रहे और आपके आदर्श की रक्षा होती रहे या महकमे वाले से घनिष्टता की तसल्ली और गर्व कि वह इमरजेंसी, एच-क्यू कोटे की सुविधा दिला सकने में सक्षम है, अंततः बैसाखी के लिए विवश करेगी।)

इसके अलावा दो-तीन छोटी बातें। कभी अपनी आजादी (स्वच्छंदता) से, सघन सभ्य परिवेश से तो कई बार, घबराहट होती है। प्रशान्त के संस्कारित आदिम में यह होगा ऐसा लगता है, लेकिन वह दोनों से सहज ही निपट लेता है। इसमें भी उसका बेगाना बना रहना सहायक होता है। भाई, पिता और मां का संक्षिप्त और जिस तरह से जिक्र है वह नायक के थोड़े अलग-से चरित्र को सहज विश्वसनीय बनाता है। कभी ऊब तो कभी परिस्थिति से विस्थापित पात्रों में घनी मोह-माया और सामाजिकता, उनके बेगानेपन को तदर्थ बनाती है। पात्र, मिलते ही रिश्ते की लय बिठाने के स्थायी भाव युक्त हैं। यह जड़ से जुड़े, स्थापित, उपस्थित रह कर भी असम्बद्ध रखे गए पात्र (चरित्र नहीं) लड़का-मोनू के विपर्यास से अधिक उजागर होता है। रचना, उपन्यास नहीं बल्कि ज्यादातर लंबी कहानी है। घटनाक्रम, वार्तालाप और चरित्रों का विकास-निर्वाह भी औपन्यासिक कम लेकिन कथ्य अनुकूल है।

शीर्षक का 'हारिल', हारा हुआ है या पक्षी हरियल? या 'हमारे हरि हारिल की लकड़ी' है? हारिल के न कबूतर, न तोता होने का द्वंद्व है? गोया तोता पिंजरे में रहने को तो कबूतर घोंसला न बना पाने के लिए अभिशप्त माना जाता है। शीर्षक का यह शब्‍द पुस्‍तक में तो शायद कहीं दुहराया नहीं है।

मांग या आग्रह पर नहीं बल्कि स्वस्फूर्त, जहां तुरंत प्रतिक्रिया बनी सिर्फ वही टिप्पणियां हैं इसलिए अन्य हिस्से-पक्ष छूट रहे हैं। पुस्तक के लिए और भी जरूरी बातें हैं, जो चर्चा के लायक हैं लेकिन आपस में बैठ कर आमने-सामने की गोष्ठी में या फिर कभी। इतने से भाव तो बन ही गया जान पड़ रहा है, फिर भी शब्द जरूरी हों तो हारिल का स्वागत और हितेन्द्र को बधाई।

पुनश्‍चः रायपुर से प्रकाशित पत्रिका 'साप्‍ताहिक इतवारी अखबार' के 26 सितंबर 2010 के अंक में 'एक बैठक में पढ़ जाने वाली 'हारिल' शीर्षक से प्रकाशित.

चलते-चलतेः
पिछले माह भारतीय रुपए के लिए आइआइटियन डी उदय कुमार द्वारा बनाए चिह्न के चयन की सचित्र खबर आई.

यह मेरे लिए चौंकाने वाली खबर थी, क्‍योंकि इन्‍हीं दिनों मेरे हाथ में जो पुस्‍तक थी, एकबारगी लगा कि यही चिह्न, उस पुस्‍तक पर भी है. इन कुछ चिह्नों को साथ रख कर देखें.

अब इन दो रंगीन चित्रों का मिलान कीजिए.

सोचता रहा कि इस समानता का कहीं कोई जिक्र होगा, लेकिन अभी तक इसका कोई जिक्र मैंने कहीं नहीं देखा, तो कुछ सवाल मेरे मन में उठे-
1. क्‍या दोनों में कोई समानता है या यह मेरा भ्रम है ॽ
2. क्‍या रुपए के चिह्न पर कोई प्रभाव माना जा सकता है ॽ
3. क्‍या यह चर्चा कहीं और हुई है ॽ
4. यदि नहीं तो क्‍या यह समानता चर्चा योग्‍य नहीं है ॽ
यह सब मैं खुद से पूछ रहा हूं, जवाब मिला तो इस पर अगले पोस्‍ट का पक्‍का आश्‍वासन.

Wednesday, August 25, 2010

मेल टुडे में ब्‍लॉग

'पीपली में छत्‍तीसगढ़' ब्‍लॉग पेज को अखबारों, पत्रिकाओं, चैनलों ने अपनी चर्चा का विषय बनाया. कुछ ने पूछा, किसी ने बताया, कुछ औरों ने बताया, हो सकता है कुछ की जानकारी मुझे अब तक न हो.
लेकिन 'मेल टुडे', दिल्‍ली के 9 अगस्‍त, पेज-7 का हिस्‍सा यहां लगा रहा हूं, जिन्‍होंने छापने के पहले न सिर्फ पूछा बल्कि ब्‍लॉग के उपयुक्‍त उल्‍लेख सहित यह प्रकाशित किया.