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Sunday, September 14, 2025

ललितलोचन सीताराम

असंपादित व अपूर्ण

 
सीय राममय सब जग जानी। करउं प्रनाम जोरि जुग पानी। 
लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्। 

पहले लोक और राम, इन दोनों शब्दों पर थोड़ा विचार कर लें। ‘लोक‘ का अर्थ ‘फोक‘ जैसा सीमित नहीं, व्यापक रूप से यह ‘लौकिक‘ दृश्यमान जगत का पर्याय है, जिससे अवलोकन बनता है और आंचलिक भाषाओं, जैसे भोजपुरी में लउक-दिख रहा है। छत्तीसगढ़ी में यदा-कदा इस्तेमाल होता है, लउकत-गरजत, यानि बादल का गरजना और बिजली की चमक। यह इसलिए कि अंधेरी रात में बिजली चमकती है तो सारा दृश्य क्षण भर के लिए प्रकाशमान हो जाता है, ‘लउक‘ जाता है। छत्तीसगढ़ी में ऐसा ही एक अन्य प्रयोग है- ‘लोखन-लोकन या लउकन ले बाहिर‘, यह ऐसी बात के लिए कहा जाता है, जो प्रत्यक्ष न किया जा सके, इसलिए अजीब, अनहोनी, अविश्वसनीय के आशय में भी प्रयुक्त होता है। अंगरेजी का ‘लुक‘ भी इसी मूल से आता है और त्रिलोचन, राजीवलोचन का ‘लोचन‘ तो है ही। बंगला कृत्तिवास रामायण और निराला के ‘राम की शक्तिपूजा‘ का स्मरण करते चलें, जिसके आरंभ में राम-राजीवनयन और रावण-लोहितलोचन कहे गए हैं। और उत्कर्ष में राम याद करते हैं ‘कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन‘ और अपना एक नयन देकर एक सौ आठ में एक कम पड़ रहे नीलकमल की पूर्ति करने को उद्यत होते हैं। यहां शास्त्रीय संदर्भ की ओर ध्यान जाता है- पुरुषों को सप्त-पद्मांग माना जाता है, एक मुख, दो आंखें, दो हाथ और दो पांव, मगर नारायण विशिष्ट ‘अष्ट-पद्मांग‘ हैं, जिनकी नाभि, सृजन-पद्म है। इसी कविता में उल्लेखनीय पद है ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन‘, यहां ऐसा जान पड़ता है कि पूजा के लिए आंख बंद कर, आंतरिक शक्तियों का स्मरण और उन्हें जागृत करने का संकेत है, कि आंखें बंद करने, खो देने, न रहने पर दृश्यमान लौकिक जगत के व्यापार से मुक्त अंतःकरण उन्मुख होना है, जिससे शक्ति की मौलिक कल्पना संभव होगी। कृत्तिवास रामायण, तमिल कम्बन रामायण और तुलसी मानस, आंचलिक भाषाओं में रचित सोलहवीं सदी की लगभग समकालीन रचनाएं हैं, इस संदर्भ में माधव कंदली के असमी रामायण को याद कर लेना चाहिए, जिसे आधुनिक आर्य-भाषाओं का प्रथम काव्य माना गया। यों अब विष्णुदास के ‘रामायनकथा‘, रचनाकाल संवत 1499, सन 1442 ई. को हिंदी की पहली रामायण माना जा रहा है। माधव कंदली ने सीता का नख-शिख वर्णन, रीतिकालीन नायिकाओं की तरह या कालिदास के कुमारसंभव की पार्वती से प्रभावित जैसा है, जो श्रद्धा-भक्ति भाव को आहत करने वाला हो सकता है। इसी तरह 14 वीं सदी ई. की कुम्हारिन मानी जाने वाली महिला कवि मोल्ल की तेलुगु ‘मोल्लरामायण‘ में नारीदेह के अंगों के वर्णन में तुलसी वाली मर्यादा का संकोच नही है। तुलसी इसके लिए अनूठा प्रयोग करते हैं, जहां वे पशु-पक्षी-वृक्षों, जिनसे नारी अंगों की उपमा दी जाती है, कहते हैं- ‘सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू।।’ कवि माधव स्वयं को ‘अहर्निशि चिंता राम राम‘ करने वाले और अपने बारे में कहते हैं- ‘कविराज कंदली आमा के से बूलिकय, कविलो हो सब जन बोधे। रामायण सुपयार श्री महामानिक्य थे, वाराहराजाय अनुरोधे।‘ यों स्पष्ट है- मुझे कविराज कंदली बुलाते हैं। मैं सब लोगों के बोध का कवि हूं, वाराह राजा महामाणिक्य के अनुरोध पर सु-पयार छंद में रामायण रच रहा हूं। असम अंचल के वाराही राजाओं में दो के नाम ‘माणिक्य‘ मिलते हैं, दोनों का काल चौदहवीं सदी होने के कारण माधव के असमी रामायण का काल भी सहज यही निर्धारित किया जा सकता है, कुछ विद्वानों ने असमी रामायण का रचना काल पंद्रहवीं शताब्दी माना है। माधव के नाम के साथ ‘कंदली‘ उपाधि जान पड़ती है, कंदल करने वाला कंदली हुआ जिसका अर्थ ‘वाद करने वाला‘ या ‘काव्य-शास्त्र चर्चा करने वाला‘। लोक के ठेठपन वाले इस छत्तीसगढ़ी बुझौवल के साथ रामकथा के प्रति जिज्ञासा पैदा की जाती है- घर निकलत तोर ददा मर गे, अधमरा हो गे तोर भाई जी, आधा बीच म तोर नारी के चोरी, काम बिगाड़े तोर दाई जी। लोक-दृष्टि और राम को वाल्मीकि ने जोड़ा है कि- ‘यश्च रामं न पश्यत्तु यं च रामो न पश्यति। निन्दितः सर्वलोकेषु स्वात्माप्येनं विगर्हते।। कुछ-कुछ ‘राम को न देखा तो ..., राम ने न देखा तो क्या देखा‘ जैसा। दूसरा शब्द ‘राम‘, जिसकी विस्तार से चर्चा कामिल बुल्के ने की है और इसका रोचक शास्त्रीय निरूपण कुबेरनाथ राय ने किया है। यहां संक्षेप में, ‘राम‘ शब्द ऋग्वेद में एक राजा के व्यक्ति नाम की तरह आया है, उसे दुःशीम पृथवान और वेन नामक राजाओं की तरह प्रशंसनीय दानवीर बताया गया है, इसे करपात्री जी ने रामायण के ही राम माना है। तथा इक्ष्वाकु उल्लेख इस प्रकार है- ‘यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान् मराय्येधते‘, अर्थात् जिसकी सेवा में धनवान और प्रतापवान इक्ष्वाकु की वृद्धि होती है। इस संज्ञा वाले अन्य पात्र वैदिक-पौराणिक साहित्य मेें भी हैं। भद्रो भद्रया सचमानः आगात, स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्। सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन, रूशर्द्भिर्वर्णेरभि राममस्थात्।। (ऋग्वेद 10-3-3) इस एक वैदिक ऋचा में संपूर्ण रामकथा संक्षेप में आ जाती है, ऐसी व्याख्या भी प्रचलित है- भजनीय रामभद्र, भजनीय सीता द्वारा सेवित होते हुए उनके साथ वन में आए। सीता को चुराने के लिए राम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति में रावण आया। वह सीता को चुरा कर ले गया। राम द्वारा रावण के मारे जाने पर अग्नि देवता राम की पत्नी सीता के साथ राम के सामने तेज के साथ उपस्थित हुए और असली सीता को उन्हें सौंप दिया। प्रसंगवश, स्वामी करपात्री जी महाराज ने अपने विशाल ग्रंथ ‘रामायणमीमांसा‘ में महाभारत-रामोपाख्यान को रामायण का स्रोत नहीं, रामायण को ही रामोपाख्यान कर स्रोत मानते हैं साथ ही पाठ-भेद आदि की समीक्षा करते हुए बौद्ध-जैन रामचरित, भदंत आनंद कौसल्यायन और बुल्के सहित डॉ. वेबर, डॉ. याकोबी, डॉ. हाप्किन्स, डॉ. वान नेगलैन जैसे विदेशी अध्येताओं की प्रखर आलोचना करते हैं। असहमत होने पर ‘यह सब अटकलपच्चू भिड़ंत भिड़ाना मात्र है‘ कहते हुए धज्ज्यिां उड़ते हैं। करपात्री जी की पुस्तक ‘रामायणमीमांसा‘ का दूसरा अध्याय ‘कामिल बुल्के की रामकथा‘ है, जिसका आरंभ इस प्रकार है- ‘वास्तव में ईसाइयत फैलाने की दृष्टि से ही श्रीबुल्के ने रामकथा लिखी है‘। करपात्री जी को पढ़ते हुए स्पष्ट होता है कि रामकथा-आस्था की जिन विसंगतियों को रेखांकित करने के लिए भिन्न स्रोत-संदर्भ का आधार लिया जाता है, उन विसंगतियों, विरोधाभास को अन्य संदर्भों का आधार लेते, टीका करते उन्हें तार्किक रूप से औचित्यपूर्ण भी ठहराया जा सकता है। बहरहाल, विभिन्न रामकथाओं का उल्लेख, उन पर विस्तृत समीक्षात्मक विवरण और टिप्पणी के लिए यह ‘रामायणमीमांसा‘ और फादर कामिल बुल्के की ‘रामकथा‘ विशेष महत्व के हैं। ‘राम‘ शब्द विभिन्न एशियाई भाषाओं में है, अधिकतर सकारात्मक आशय वाला। वैदिक साहित्य के ‘राम‘ का शाब्दिक अर्थ रम्य, रमणीय या सुखद जैसा है। राम का एक अर्थ सुखद -आदर्श पुत्र भी माना गया है। श्रीरामरहस्योपनिषद के अंतिम पांचवे अध्याय में हनुमान ‘राम‘ शब्द की व्याख्या करते हुए यह भी कहते हैं- ‘अग्नीषोमात्मकं रूपं रामबीजे प्रतिष्ठितम् ... रामबीज-रां में अग्नि-सोम विश्वरूप प्रतिष्ठित है। इस रामबीज शब्द या एकाक्षर मंत्र रां को रांड्ा, जिसका उच्चारण रांगा-रंगा हो जाता है, से भी जोड़ा जाता है। इसी से रंज या गुस्से में लाल होना निकलता है या ‘जियो मेरे लाल‘ या लल्ला, जहां लाल का अर्थ पुत्र है और दूसरी तरह छत्तीसगढ़ी का लाल के लिए समानार्थी शब्द ‘रंगहा‘, जहां रंग का मतलब ही लाल है। संभव है कि यह खून के रंग के कारण समानार्थी हुआ हो, जैसे अपने पुत्र-पुत्री वंशजों को ‘अपना खून‘ कहा जाता है। सब जग सीयराम मय है, यहां सीता-राम के विवाह-संयोग को युग-संधि प्रसंग की तरह देखा जा सकता है। मानव सभ्यता के क्रम में खाद्य-संग्राहक आखेटजीवी काल को त्रेतायुग और कृषिजीवी गोपालक काल का जोड़ द्वापर के साथ बिठाया जाता है। त्रेता के धनुर्धारी राम (परशुधारी एक अन्य परशु‘राम‘), शिकारी हैं और सीता, कृषि-कर्म, हल जोतने से उत्पन्न हैं, द्वापर के गोपालक कृष्ण और हलधर एक अन्य बल‘राम‘ से जुड़ती हुई, यों भी सीता के पिता विदेहराज जनक, सीरध्वज हैं यानि जिनके ध्वज पर सीर-हल हो, मानों वह कृषक समाज के झंडाबरदार हों। गौरी-पूजन के लिए फुलवारी में आई जनकतनया की विशिष्ट ‘शुभदृष्टि‘ का नाजुक प्रसंग है- ‘सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे।। रामकथा का बालकांड मांगलिक है ही, वैवाहिक-मंगल, रामकथा का अनूठा नाटकीय-तत्व युक्त प्रसंग भी यही है। इसकी महत्ता ‘सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं। तिन्ह कहूं सदा उछाहु मंगलायतनु राम जसु।।‘ के कारण भी गाई-सुनी जाती है। तुलसी ने मानस में एक अन्य ‘लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई।।‘ मांगलिक अवसर शिव-पार्वती विवाह का भी बनाया है। उनका मन इतने से नहीं भरा, उन्होंने अलग से ‘पार्वतीमंगल‘ और जानकी मंगल‘ भी रचा। इसके अलावा उनकी एक रचना ‘रामलला नहछू‘ है। यों नहछू विवाह संस्कार के अलावा यज्ञोपवीत के अवसर पर भी होता है। और कवितावली का मांगलिक पद- ‘दूलह श्री रघुनाथ बने, दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीं‘। अब वाल्मीकि रामायण का पैंसठवें और उससे आगे के सर्ग देखना रोचक होगा, जहां विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ यज्ञ में आए हैं। विश्वामित्र जनक से कहते हैं कि दशरथ के ये दोनों पुत्र आपके यहां रखे धनुष को देखना चाहते हैं। ये दोनों धनुष के दर्शन मात्र से संतुष्ट हो कर अपनी राजधानी लौट जाएंगे। जनक धनुष और अयोनिजा सीता का वृत्तांत सुनाते हुए कहते हैं कि मैंने यह निश्चय किया है कि जो इस धनुष को चढ़ा देगा, उसी से सीता का ब्याह करूंगा। यदि श्रीराम इस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा दें तो सीता को इनके हाथ में दे दूंगा। धनुष लाया गया और राम ने उसे उठा कर सहज प्रत्यंचा चढ़ा दी। धनुष को कान तक खींचते ही वह बीच से टूट गया। तब जनक ने अपनी पुत्री, श्रीराम को समर्पित करना तय किया। विश्वामित्र की अनुमति से दशरथ को लिवाने भेज दिया गया। दशरथ को बताया गया कि विश्वामित्र के साथ घूमते-फिरते आए आपके पुत्र राम ने अपने पराक्रम से सीता को जीत लिया है। दशरथ के मिथिला पहुंचने पर यज्ञ यमाप्ति के बाद विवाह का शुभ कार्य सम्पन्न होना निश्चित हुआ। वसिष्ठ इक्ष्वाकु वंश का और जनक अपने कुल का परिचय देते हैं। तदंतर सीता को राम के लिए और उर्मिला को लक्ष्मण के लिए समर्पित करते हैं। जनक के छोटे भाई कुशध्वज की दोनों कन्याओं का विवाह भरत और शत्रुघ्न के साथ तय हो जाता है। सारी तैयारी के बाद सीता को ला कर अग्नि के समक्ष (पहली बार) राम के आगे बिठाया जाता है, पाणिग्रहण होता है। चारों भाइयों का विवाह होता है और वे अपनी-अपनी पत्नियों के साथ जनवासे चले जाते हैं। यहां इस तरह सारा कुछ संपन्न हो जाने के बाद परशुराम आते हैं। देखते चलें कि अध्यात्म रामायण का छठां सर्ग धनुर्भंग और विवाह का है, जिसमें विश्वामित्र, राम और लक्ष्मण को जनक की मिथिलापुरी में यज्ञोत्सव दिखाने ले जाते हैं। विदेह नगर में पहुंच कर जनक से कहते हैं कि तुम्हारे यहां शंकर का धनुष देखने आए हैं। इस पर जनक अपनी ओर से बात जोड़ते हैं कि राम धनुष उठा कर, उसे चढ़ा देंगे तो अपनी क्न्या सीता उनसे विवाह दूंगा। राम ने आसानी से धनंष को थाम कर उसे चढ़ा कर खींचा और तोड़ डाला तब सीता मंद-मंद मुसकाती जयमाल राम को पहना कर प्रसन्न हुईं। फिर दशरथ को विवाहोत्सव के लिए बुलावा जाता है। राम-सीता के विवाह के साथ अपनी औरसी कन्या उर्मिला लक्ष्मण को तथा अपने भाई की पुत्रियां मांडवी और श्रुतकीर्ति क्रमशः भरत और शत्रुघ्न को ब्याह दीं। आनंद रामायण, सार कांड के तीसरे सर्ग में विवाह प्रसंग कुछ इस तरह आता है- अहल्या उद्धार के बाद गंगा पार कर राम मिथिलापुरी की ओर बढ़े। वहां बड़ी संख्या में निमंत्रित राजा और अनामंत्रित रावण भी पहुंचा। विश्वामित्र के शिष्य नेएकांत में ले जा कर राजा जनक का संदेश सुनाया कि वे अपने साथ दशरथ के दो पुत्रों को साथ लेकर आए हैं, ये सीता तथा उर्मिला का पाणिग्रहण करेंगे और धनुष रामचंद्र जी तोडेंगे, जब तक धनुष भंग न हो, तब तक यह किसी से न बताइएगा। जनक ने विश्वामित्र से अनजान की तरह दोनों बालकों का परिचय पूछा। राम-लक्ष्मण का स्वागत देख कर राजाओं को संदेह होने लगा कि सीता-परिणय पूर्वनिर्धारित तो नहीं! धनुष आता है, राजाओं के असफल होने के बाद रावण की बारी आती है, रावण धनुष तो उठा ही नहीं पाता, उल्टे धनुष उसकी छाती पर गिर जाता है, मुकुट दूर जा गिरता है इतना ही नहीं धोती खुल जाती है और उसके पहने हुए वस्त्रों में मल-मूत्र निकल जाता है। तब राम आगे आए और आसानी से धनुष उठा कर डोरी चढ़ा दी, और धनुष के तीन टुकड़े हो गए। इस बीच सीता प्रार्थना करती है कि राम धनुष चढ़ाने में समर्थ हों और मुनिवृत्ति धारण कर राम की अनुगामिनी बन कर उनके साथ चौदह वर्ष तक वन में भ्रमण करूं। सीता हथिनी पर सवार हो कर आती हैं, नेत्र कटाक्ष से राम को देखती हुई हथिनी से उतर कर लज्जापूर्वक नवरत्नों का हार अपने हाथों से राम के गले में डालती हैं। डोंगरे जी महाराज की रामकथा और उनके वचनों में ऐसी तल्लीनता होती है कि वाल्मीकि-तुलसी परंपरा से अभिन्न हो जाते हैं, श्रद्धालु उन्हें ‘अर्वाचीन शुक‘ के समान मानते हैं। उनके ‘तत्त्वार्थ रामायण‘ में आया प्रसंग विशिष्ट मनभावन है- विश्वामित्र, राम को मांगने आए हैं, दशरथ अपने आंख के इस तारे को अपने से दूर होने की सोच भी नहीं सकते। इस पर वशिष्ठ दशरथ को समझाते हुए कहते हैं कि कल ही राम का जन्माक्षर देखते मुझे विश्वास हुआ कि इसी वर्ष राम के लग्न का योग है और लगता है विश्वामित्र राम के लग्न के लिए ही आए हैं। दशरथ यह कहते हुए सहमत होते हैं कि राम में वैराग्य जागृत हुआ है, उसे कुछ समझाइये। यहीं योगवासिष्ठ की भूमिका बनती है। मगर डोंगरे जी की कथा में आगे धनुषभंग के बाद सीता, राम को विजयमाला अर्पण करने आती हैं, राम सोचते हैं, सीता बहुत सुंदर हैं, इससे क्या? मां आज्ञा दें तो ही मैं लग्न करूं। साथ ही लक्ष्मण का भी विवाह करने को कहते हैं। ... विश्वामित्र के निश्चित किए अनुसार लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का भी लग्न क्रमशः उर्मिला, मांडवी और श्रुतिकीर्ति के साथ निश्चित हुआ। कन्यादान-पाणिग्रहण पर राम को ‘प्रतिगृह्णामि‘ कहने को कहा जाता है, राम वैसा ही कहते हैं किंतु लक्ष्मण को ‘प्रतिगृह्णामि‘ बोलने को कहा जाता है तो उन्हें मौज सूझती है, वे सोचते हैं कि मंगलाष्टक हो गया है, कन्या का हाथ मेरे हाथ में आ गया है, क्यों न थोड़ा हठ करूं, और कहते हैं कि प्रतिगृह्णामि तो ब्राह्मण बोलते हैं, जो दान लिया करते हैं, हम क्षत्रिय दान लेते नहीं, दान दिया करते हैं ‘प्रतिगृह्यताम‘ बोला करते हैं। उन्हें समझाया जाता है कि तुम्हारे बड़े भाई ने भी तो प्रतिगृह्णामि कहा है। इस पर लक्ष्मण कहते हैं कि वे तो भोले हैं, उन्हें जैसा कहा गया उन्होंने किया। बात अड़ गई वशिष्ठ के मनाने पर भी लक्ष्मण राजी नहीं हुए। तब विश्वामित्र ने उन्हें समझाया कि चाहे मंगलाष्टक हो गया हो, प्रतिगृह्णामि नहीं बोलोगे तब तक लग्न पक्की नहीं मानी जाएगी, तब कहीं जा कर लक्ष्मण मानते हैं। विवाह के दौरान हास-परिहास होता है। जनकपुरी की एक स्त्री बोलती है कि अयोध्या की स्त्रियां तो जबरदस्त हैं, खीर खाती हैं और बालक को जन्म देती हैं। राम आनंद लेते हैं, मगर लक्ष्मण को बात बरदाश्त नहीं होती, खझ कर जवाब देते हैं कि जनकपुर का तो ऐसा भी रिवाज है, यहां की स्त्रियां तो ऐसी करामाती हैं कि इनके यहां धरती फटने से ही छोकरियां जन्मती हैं। छत्तीसगढ़ के पुराने कवि शुकलाल प्रसाद पांडेय की रचना है ‘मैथिली मंगल‘। उन्होंने सरल भाव से व्यक्त किया है कि जबलपुर के राजा गोकुलदास के यहां विवाह का कल्पनातीत वृहद आयोजन देख कर उनके मन में आया कि राम-सीता का विवाह कितना दिव्य रहा होगा और उसे किस तरह से शब्दों में, काव्य में उतारा जा सकता है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ की ही एक अन्य उल्लेखनीय और मनोरम रचना गिरधारीलाल रायकवार जी रचित हल्बी नाटक ‘सीता बिहा नाट‘ है। इस नाटक के संदर्भ में 1998 में मध्यप्रदेश के जनसंपर्क विभाग से प्रकाशित (तत्कालीन मंत्री हमारे गृह जिले के डॉ. चरणदास महंत) डॉ. हीरालाल शुक्ल संपादित-संयोजित हल्बी, माड़िया और मुरिया रामकथा के तीन भारी-भरकम खंडों का उल्लेख आवश्यक है, जिनमें गिरधारीलाल जी की यह रचना शामिल है। हमारी संस्कृति में जन्म-मृत्यु के अनिवार्य संस्कार के अलावा विवाह ही सबसे मांगलिक और शास्त्रीय आधार वाला संस्कार है, उल्लेखनीय कि ‘विवाह सूक्त‘ वैदिक ग्रंथों के ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में अपनी विशिष्टताओं सहित शामिल है। एक अन्य उल्लेख, छत्तीसगढ़ सम्मिलित मध्यप्रदेश के दौरान भोपाल में 1970 में ‘रामचरित मानस चतुश्शताब्दी समारोह समिति’ का गठन किया गया, जिसके संस्थापक हमारे गृहग्राम अकलतरा निवासी पं. रामभरोसे शुक्ल के मानस-मर्मज्ञ पुत्र पं. गोरेलाल शुक्ल जी (आईएएस) थे और भोपाल के इस मानस भवन से तुलसी मानस भारती (मासिक) पत्रिका का प्रकाशन पं. शुक्ल के प्रधान संपादकत्व में आरंभ हुआ। इस क्रम में छत्तीसगढ़ के राम-साहित्य साधकों का स्मरण आवश्यक है, उन बहुतेरों में से कुछेक- डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, मानस में रामकथा (1952), भारतीय संस्कृति को गोस्वामी तुलसीदास का योगदान (चार व्याख्यानों का संग्रह 1953), मानस-माधुरी (1958), खंड काव्य राम-राज्य (1960, पाठ्य संस्करण 1972), तुलसी-दर्शन (1938-39 में डी. लिट्. के लिए हिंदी में प्रस्तुत प्रथम शोध-प्रबंध, सातवां संस्करण 1967 में प्रकाशित) जैसी पुस्तकों के लेखक हैं। डॉ. मिश्र की नातिन सुश्री आभा तिवारी की 2021 में प्रकाशित पुस्तक ‘डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र‘ में जानकारी दी गई है कि 1911 के लुइजि पियो टैसीटोरी और 1918 के जे.एन. कार्पेन्टर के बाद बलदेव प्रसाद मिश्र का तुलसीमानस पर तीसरा, हिन्दी में लिखा प्रथम शोध प्रबंध ‘तुलसी दर्शन मीमांसा‘ 1938 में नागपुर विश्वविद्यालय की डी.लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ था। बलदेव प्रसाद मिश्र पुस्तक ‘मानस में रामकथा‘ (1952) में कहते हैं- ‘पिता का आदेश मानकर एक राजकुमार वन को जाते हैं। उनकी साध्वी सुकुमारी पत्नी भी उनका साथ देती है। वहां एक प्रभुता-मदान्ध सत्ताधीश उस साध्वी बाला को हर ले जाता है जिसकी प्रतिक्रिया में वे राजकुमार वन्यों की सहानुभूति प्राप्त करते और उनकी सहायता से ऐसे प्रबल प्रतिस्पर्धी को भी परास्त करके पत्नी को उन्मुक्त करते और आदेश पूर्ण होने पर पिता के राज्य का उपभोग करते हैं। यही रामायण की मूलकथा है।‘ डॉ. मिश्र की 122 वीं जयंती पर आयोजित ऑनलाइन परिसंवाद के वक्तव्यों को डॉ. चन्द्र शेखर शर्मा द्वारा संकलित-संपादित कर 2020-21 में पुस्तिका के रूप में ‘मानस के राजहंस, डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र‘ शीर्षक से प्रकाशित कराया गया है। इस पुस्तिका में आई जानकारी के अनुसार डॉ. मिश्र के शोध-प्रबंध पर परीक्षक रामचंद्र शुक्ल ने लिखा- ‘उन्होंने वैदिक, पौराणिक और भक्ति-साहित्य के विशाल भण्डार से सामग्री संकलित करके बड़े विवेक के साथ उसका उपयोग किया है। उनका शोध-प्रबंध महान अध्वसाय और व्यापक अध्ययन का परिणाम है।‘ इसी स्रोत का एक अन्य उद्धरण और भी महत्व का है, महावीर प्रसाद द्विवेदी के पत्र का हवाला इस प्रकार है- ‘तुलसी-दर्शन‘ की कापी आपने क्या भेजी मुझे संजीवनी का दान दे डाला। मैं मुग्ध हो गया। आप धन्य हैं। ऐसी पुस्तक लिखी जैसी तुलसी पर आज तक किसी ने न लिखी और न ही आशा है कि आगे कोई लिखेगा। आपने इस विषय में जो विद्वता प्रदर्शित की है वह दुर्लभ है। भैया मिश्र जी मैं रामायण का भक्त हूँ-मुझे मेरे मन की पुस्तक लिखकर भेजी, धन्यवाद। भगवान आपका कल्याण करें।‘ गगर यह कुछ पढ़ते-लिखते मन में सवाल अटका रह जाता है कि इसका मूल स्रोत/दस्तावेज, सुरक्षित और कहीं उपलब्ध हैं? रायपुर में नृतत्वशास्त्र के प्राध्यापक रहे डॉ. ठाकोरलाल भाणाभाई नायक ने जनजातीय समुदाय में प्रचलित रामकथाओं का सर्वेक्षण कर प्रकाशित कराया था, जिसमें अगरिया जनजाति में प्रचलित रामकथा तथा ‘भिलोदी रामायण‘ की चर्चा है। डॉ. नायक के संपादन में आदिमजाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्था, छिन्दवाड़ा से 1964 में छत्तीसगढ़ से जुड़े मुडला अंचल में परधानों की गीतकथा ‘रामायनी‘ का प्रकाशन हुआ था। हरि ठाकुर ने ‘छत्तीसगढ़ में रामकथा का विकास‘ शीर्षक लेख द्वारा इस विषय का विस्तार से परिचय दिया था। उनकी 1990 की डायरी में 47 रामकथा-साहित्य की सूची है, जो महाकवि नारायण के रामाभ्युदय महाकाव्य से आरंभ होती है, मगर क्रमांक में आरंभिक 10 इस प्रकार हैं- 1 राम प्रताप-महाकवि गोपाल, 2 तास रामायण-ठाकुर भोला सिंह बघेल, 3 छत्तीसगढ़ी रामचरितनाटक- उदयराम, 4 मैथिली मंगल-शुकलाल प्रसाद पाण्डेय, 5 कोशल किशोर-डा. बलदेव प्रसाद मिश्र, 6 छत्तीसगढ़ी रामायण-पं. सुन्दरलाल शर्मा, 7 वैदेही-विछोह- कपिलनाथ कश्यप, 8 राम विवाह- टीकाराम स्वर्णकार, 9 राम केंवट संवाद-पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र 10 राम बनवास- श्यामलाल चतुर्वेदी (पूरी सूची अन्यत्र उपलब्ध है)। मुकुटधर पांडेय ने छत्तीसगढ़ी का सामर्थ्य प्रमाणित किया है कालिदास के ‘मेधदूत‘ का छत्तीसगढ़ी अनुवाद कर और मानस के उत्तरकांड का भी छत्तीसगढ़ी अनुवाद किया है और हेमनाथ यदु ने किष्किंधाकोड का छत्तीसगढ़ी अनुवाद किया। 1992-93 में ‘छत्तीसगढ़ी सरगुजिया गीत नृत्य रामायण‘ प्रकाशित हुई, जिसके संगृहिता लेखक समर बहादुर सिंह देव जी हैं, इस पुस्तक की पहली प्रति तत्कालीन राष्ट्पति शंकरदयाल शर्मा जी को प्रेषित की गई थी, जिसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने इस संग्रह को महत्वपूर्ण मानते हुए इसकी प्रशंसा की थी। अंबिकापुर के ही रामप्यारे ‘रसिक‘ की पुस्तिका सरगुजिहा रामायण है। इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पश्चात डॉ. मन्नूलाल यदु जी ने रामकथा पर कई छोटी-बड़ी पुस्तकों का प्रकाशन कराया। श्री प्रहलाद विशाल वैष्णव ‘अचिन्त‘ का तीन भागों में ‘रमाएन‘ क्रमशः 2013, 2015 तथा 2016 में प्रकाशित हुआ है, पुस्तक के शीर्षक के साथ जिसे ‘श्रीराम कहानी छत्तीसगढ़ी पद‘ कहा गया है। मेरी जानकारी में आए दो अन्य ग्रंथों का उल्लेख- रामसिंह ठाकुर द्वारा रामचरित मानस का हल्बी पद्यानुवाद और हमारे गृह-ग्राम निवासी गुलाबचंद देवांगन का ‘छत्तीसगढ़ी रमायेन‘। यह क्रम लंबा है, इसे यहां विराम देते हुए आगे बढ़ते हैं। राम के वन-गमन से जुड़े दो रोचक प्रसंग हैं जिसमें पहला, भास के ‘प्रतिमा‘ नाटक का है। भास के इस नाटक की विलक्षण नाटकीयता बार-बार चमत्कृत करती है। नाटक के आरंभ में राम के राज्याभिषेक की तैयारी हो रही है ‘सामयिक अभिनय‘ दिखाने की तैयारी हो रही है। सीता की सेविका संयोगवश अशोकपत्र के बजाय वल्कल वस्त्र ले आती है। सीता पहले तो उसे लौटाने को कहती हैं, मगर उनकी इच्छा वल्कल धारण कर देखने की हो जाती है। तभी राज्याभिषेक के लिए बज रहे बाजों की आवाज अचानक थम जाती है और पात्र चेटी कहती है कि मैंने ऐसा सुना है कि राजकुमार का तिलक कर महाराजा वन में चले जायेंगे। इधर महाराजा ने राम का राज्याभिषेक स्थगित कर वन के लिए विदा कर दिया। अब राम सीता से मिलने आते हैं, दासी कहती है राजकुमार आ रहे हैं, आपने वल्कल नहीं उतारा! राम और सीता के बीच वार्तालाप होता है और राम कहते हैं मेरी अर्द्धांगिनी होकर तुमने पहले ही वल्कल पहन लिया, तो समझो मैंने भी पहन लिया। दूसरा रोचक प्रसंग सोलहवीं शताब्दी की रचना ‘अध्यात्म रामायण‘ का है, जिसमें राम द्वारा सीता को छोड़ कर वन गमन जाने की बात पर सीता का तर्क, आपने बहुत-से ब्राह्मणों के मुख से बहुत-सी रामायणें सुनी होंगी, बताइये, इनमें से किसी में भी क्या सीता के बिना रामजी वन को गये हैं? (प्रसंगवश राम वनगमन पथ पर अकादमिक-शोध दृष्टि से आरंभिक लेख एफ.इ. पार्जिटर का है, जो ‘द जर्नल ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड‘, अप्रैल 1894 अंक में पेज 231-264 पर प्रकाशित हुआ था।) राम के राज्याभिषेक और वनवास के बीच मंथरा-कैकेयी के आने के पहले ही वाल्मीकि के राजा दशरथ केकय नरेश और मिथिलापति को राज्याभिषेक के लिए नहीं बुलवाते। यह भी कहते हैं कि जब तक भरत इस नगर से बाहर अपने मामा के यहां हैं, इसी बीच राज्याभिषेक हो जाना उचित प्रतीत होता है। राम लक्ष्मण से कहते हैं तुम मेरे साथ इस पृथ्वी के राज्य शासन करो, तुम मेरे द्वितीय अंतरात्मा हो, यह राजलक्ष्मी तुम्हीं को प्राप्त हो रही है। इधर तुलसी के राम ‘भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। कहते हुए भरत को याद करते हैं। यह भी कहते हैं- हम सब भाई एक साथ जन्मे, खाना-सोना, खेल-कूद, संस्कार साथ-साथ हुए ‘बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।’ पर सब भाइयों को छोड़ कर राज्याभिषेक एक बड़े का ही हो रहा है। दशरथ की मृत्यु के बाद राम से मिलने गए भरत बचपन के ‘हारेहुं खेल जितावहिं मोही‘ याद कर रहे हैं, मानों इसी तरह उन्हें राजगद्दी मिली है। यहां एक अन्य उल्लेख प्रासंगिक होगा। रामकथा में शत्रुघ्न की चर्चा कम होती है। उत्तरकांड के बासठवें-तिरसठवें सर्ग में मधु-कैटभ वाले मधु के पुत्र लवणासुर के वध का काम भरत अपने जिम्मे लेने को तैयार होते हैं, इस पर मझले भैया तो बहुत सारा कार्य कर चुके हैं कहते हुए शत्रुघ्न यह काम अपने हिस्से लेना चाहते हैं। राम उन्हें इसकी स्वीकृति देते हुए मधु के नगर में राजा के पद पर अभिषिक्त करने की बात कहते हैं। इस पर शत्रुघ्न से कहलाया गया है कि बड़े भाइयों के रहते हुए छोटे का अभिषेक कैसे किया जा सकता है? राज्याभिषेक के बजाय वनवास की खबर पा कर कौसल्या सोच रही हैं ‘लिखत सुधाकर गा लिखि राहू‘ और राम से कही गई उनकी बात बहुत बारीक और खास है- ‘जौं केवल पितु आयसु ताता ...‘, केवल पिता की आज्ञा हो तो माता को बड़ी जा कर वन मत जाना, किंतु पिता-माता दोनों कहें तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों अयोध्या समान है। मगर खुलासा यह भी कहती हैं कि बड़ी रानी होकर भी छोटी सौतों से अप्रिय वचन सुनना पड़ेगा, तुम्हारे निकट रहने पर भी मैं उनसे तिरस्कृत रही हूं और बेहद मारक- ‘पति की ओर से मुझे सदा अत्यंत तिरस्कार अथवा कड़ी फटकार ही मिली है, कभी प्यार और सम्मान प्राप्त नहीं हुआ है। मैं कैकेयी की दासियों के बराबर अथवा उनसे भी गयी-बीती समझी जाती हूं।‘ रामकथाओं के अंदर शामिल ऐसी राम-कथा, अध्यात्म रामायण में ही नहीं, अन्यत्र भी है। वाल्मीकि रामायण के बालकांड के चौथे सर्ग में ही राजकुमार कुशीलव- कुश और लव, दोनों भाइयों को ‘काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायाश्चरितं महत्। पौलत्स्यवधमित्येवं चकार चरितव्रतः।। सीता चरित युक्त संपूर्ण रामायण नामक महाकाव्य, जिसका एक नाम पौलस्त्यवध है, का अध्ययन कराया। और फिर उत्तरकांड, तिरानबेवें सर्ग में पात्र-रूप में स्वयं वाल्मीकि द्वारा कुशीलव- कुश और लव को ‘कृत्स्नं रामायणं काव्यं गायतां परया मुदा‘ संपूर्ण रामायण-काव्य का गान करने के लिए कहने-गायन करने का उल्लेख आता है। मगर इसके पहले इकहत्त्रवें सर्ग में शत्रुघ्न अयोध्या जाते हुए रास्ते में वाल्मीकि आश्रम में रुकते हैं, वहां उन्हें रामचरित सुनने को मिला, जो पहले ही काव्यबद्ध कर लिया गया था। ... उस काव्य के सभी अक्षर एवं वाक्य सच्ची घटना का प्रतिपादन करते थे और पहले जो वृत्तांत घटित हो चुके थे, उनका यथार्थ परिचय दे रहे थे। साथ ही हरिवंशपुराण में बताया गया है वाल्मीकि के पहले रामकथा का गायन सूतों, चारण-कुशीलवों द्वारा किया जाता था और विष्णुपर्व में यदुवंशियों द्वारा ‘रामायणं महाकाव्यमुद्दिश्य नाटकं कृतम्‘ रामायण का नाटक खेलने का उल्लेख है। मानस रामकथा, शिव-पार्वती संवाद या प्रश्नोत्तर, जिज्ञासा-समाधान है। देवताओं में शिव बड़े किस्सागो हैं। सबसे पुरानी लौकिक कथा ‘वृहत्कथा’ भी शिव द्वारा पार्वती को सुनाए गए किस्से है। यहां स्पष्ट होता है कि पार्वती रामकथा के किसी संस्करण से पूर्व-परिचित हैं, लेकिन उनके मन में कई जिज्ञासा-शंका है, जिसे दूर करने के लिए वे शिव जी से, उन शंकाओं के समाधानकारक रूप में रामकथा सुनना चाहती हैं। कालिदास के रघुवंश, चौदहवें सर्ग में राज्य पाकर राम भवन में सीता सहित निवास कर रहे हैं, जहां वनवास काल के चित्र टंगे हैं, वे गर्भवती सीता से उनकी इच्छा पूछते हैं। सीता गंगा तटवर्ती तपोवनों को देखना चाहती हैं ... जहां उनकी तपस्वी कन्याएं सखियां रहती हैं और कुशा की झाड़ियां चारों ओर फैली हैं। इस पर राम कहते हैं, तुम्हें उस तपोवन में अवश्य भेजूंगा। यहीं गुप्तचर भद्र जनता द्वारा रावण के घर रही सीता को स्वीकार कर लिए जाने को अनुचित मानने की बात कहता है। प्रसंगवश राधावल्लभ त्रिपाठी ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि इसी प्रसंग में बन्धु शब्द का विशिष्ट प्रयोग है- तैंतीसवें श्लोक में ‘वैदेहिबन्धोः हृदयं विदद्रे- वैदेही-बन्धु राम का हृदय फट गया।‘ कालिदास ने ऐसा ही प्रयोग अन्यत्र मेघदूत के पूर्वमेध के छठें श्लोक में है, जहां यक्ष, यक्षिणी ‘बन्धु‘ का प्रयोग करता है- ‘विधिवशात् दूरबन्धुः- भाग्यवश जिसका बंधु (प्रियजन) दूर है। रवींद्रनाथ टैगोर अपने पत्रों में संबोधन ‘भाई‘ का प्रयोग करते थे, अपनी पत्नी के लिए भी- ‘भाई छुटि‘। कालिदास के परवर्ती भवभूति के ‘उत्तररामचरित‘ का अंश उल्लेखनीय है, जिसके आरंभ में ही लक्ष्मण, राम से कहते हैं- ‘अर्जुनेन चित्रकरेणास्मदुप-दिष्ठमार्यस्य चरितमस्यां वीथ्यामभिलिखितम्। तत् पश्यत्वार्यः। ’ - अर्जुन चित्रकार ने हमारे आदेशानुसार आपके चरित्र को इस चित्रमय श्रेणी में चित्रित किया है। अतः आप इसे देखें। राम चित्रवीथि में जाने से पहले पूछ लेते हैं कि चरित्र कहां तक चित्रित किया गया है?, आगे वीथि में लक्ष्मण, सीता को चित्रों से परिचित कराते हैं। मांगलिक कृत्य कर विवाह के लिए दीक्षित चारों भाइयों का चित्र देख कर सीता कह पड़ती हैं- ‘ऐसा लग रहा है कि उसी स्थान एवं उसी समय में हूं।‘ आगे बढ़ते सीता-वियोग प्रसंग आते राम लक्ष्मण को टोकते हैं और लक्ष्मण कहते हैं ‘(गर्भवती) आर्या भी थक गई हैं, इसलिए निवेदन करता हूं कि विश्राम करें। यहीं नाटकीय पेंच आता है, सीता कहती हैं ‘मुझे लगता है कि फिर स्निग्ध और निस्तब्ध वनवीथियों में विहार करके पवित्र, स्वच्छ और शीतल जलवाली भगवती में स्नान करूं। और नाटक का अगला संवाद राम का है- ‘वत्स, अभी ही गुरुजनों का संदेश मिला है कि गर्भवती सीता की अभिलाषा शीघ्र पूर्ण होनी चाहिए। अतः अबाध गति वाला रथ उपस्थित करो। उत्तररामचरित की चर्चा में नाटक के पांचवें अंक में राम पर व्यंग्यात्मक आक्षेप से कटाक्ष का उल्लेख होता ही है, जिसमें पात्र लव से कहलाया गया है- ‘वृद्धास्ते(वन्द्याः) न विचारणीयचरितास्तिष्ठन्तु किं(हुं) वर्ण्यते ... वे (राम) वृद्ध गुरुजन हैं, अतः उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए, उनके लिए क्या कहें, सुन्द-पत्नी का (ताड़का-स्त्री पर शास्त्र-निषिद्ध प्रहार) वध कर देने पर भी निर्दोष कीर्ति वाले वे लोक में महान ही हैं। खर से युद्ध में तीन पग पीछे हटाए (वस्तुतः सन्निकट होने से बाण में तीव्रता नहीं आती, इसलिए पीछे हट कर संधान किया था) थे, इंद्र-पुत्र (वाली) के वध में जिस कौशल (ताल वृक्षों के ओट में छुप कर वार) का प्रयोग किया, उससे तो सभी परिचित हैं। परवर्ती टीकाकारों में इस अंश का खंडन-मंडन होता रहा है। इतना ही नहीं नाटक के पहले अंक में सीता निर्वासन का फैसला करने को मजबूर, व्यथित राम स्वयं के लिए ‘अतिवीभत्सकर्मानृशंसोऽस्मि, छद्मना परिददामि, अपूर्वकर्मचण्डालमयि‘ तक पहुंच जाते हैं। वापस उत्तररामचरित, जहां चित्रवीथि है और प्रसंगवश, कालिदास के पूर्ववर्ती भास के प्रतिमा नाटक के तृतीय अंक में भरत, पिता दशरथ की मृत्यु से अनभिज्ञ अयोध्या लौट रहे हैं और नगर प्रवेश के पहले देवकुलिकाओं की प्रतिमा से परिचित होते हैं, जिनमें क्रमशः दिलीप, रघु, अज की प्रतिमा है, आगे बढ़ने से भरत घबरा कर पूछते हैं ‘क्या जीवितों की भी प्रतिमा स्थापित की जाती है?, जवाब मिलता है, ‘नहीं, केवल मृतकों की।‘ यह सुन कर भरत जाने की बात कहते हैं, मगर देवकुलिक कहता है- ‘ठहरो, जिन्होंने स्त्री शुल्क के लिए अपने राज्य और प्राण सब कुछ त्याग दिए, उन महाराज दशरथ्र की प्रतिमा के विषय में आप क्यों नहीं जानना चाहते।‘ यह सुनते ही आशंकित भरत मूर्च्छित हो जाते हैं। काव्य रघुवंशम् और नाटक के इन दो उद्धरणों की नाटकीयता है कि राम का वन-गमन में सीता का अनजाने वल्कल धारण करना और गर्भवती सीता का वनवीथियों में विहार की दोहद-साध से उनका निर्वासन परोक्ष ही सही, उत्तरदायित्व स्वयं सीता पर है। कालिदास के रघुवंश का आरंभ सदाचारी राजा दिलीप और उनकी पत्नी सुदक्षिणा की संतान-कामना से होता है और समापन दिलीप-राम के उन्तीसवीं पीढ़ी वंशज दुराचारी अग्निवर्ण के संतानोत्पत्ति प्रसंग से होता है, यहां अनूठापन है कि अग्निवर्ण की मृत्यु के बाद मंत्रियों ने उसकी पत्नी को गर्भ धारण किए देखकर उसे राजगद्दी पर बिठा दिया। मान लें कि ऐसा गर्भस्थ शिशु को राजसिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में अनुमान करते किया गया हो, किंतु यह निश्चय कि गर्भस्थ शिशु पुत्र ही होगा, पुत्री नहीं, जो उत्तराधिकार प्राप्त करे, साथ ही किसी महिला के राज्याभिषिक्त होने का यह प्रसंग विशिष्ट है। स्त्री के राज्याभिषिक्त होने का उल्लेख वाल्मीकि करते हैं, जहां वसिष्ठ कैकेयी को फटकारते हुए यह भी कहते हैं कि देवी सीता वन में नहीं जाएंगी, राम के वन जाने पर उनके लिए निर्धारित राजसिंहासन पर सीता बैठेंगी। वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड के तिहत्तरवें सर्ग में शंबूक वध प्रसंग में ‘अप्राप्तयौवनं बालं पंचवर्षसहस्रकम्‘ आया है, यानि पांच हजार वर्ष का बालक, जिसे यौवन प्राप्त नहीं हुआ है‘ चौंकाता है। मगर इसकी व्याख्या में बताया जाता है कि वर्ष का अर्थ यहां दिन समझना चाहिए। इस प्रकार बालक की आयु होगी तेरह वर्ष साढ़े आठ माह। बालकांड के प्रथम सर्ग में रामचंद्र दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च’ इस प्रकार ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करने का उल्लेख आता है, इन वर्षों को दिन मानने पर अवधि लगभग साढ़े तीस वर्ष होगी और इसमें राज्याभिषेक के समय उनकी आयु के इकतालीस वर्ष जोड़ दें तो राम की आयु साढ़े इकहत्तर वर्ष बनती है। यहां उल्लेखनीय कि युद्धकांड के अंतिम एक सौ अट्ठाइसवें सर्ग में ‘‘राज्यं दशसहस्राणि प्राप्य वर्षाणि राघवः‘ आता है यानि राघव ने राज्य पा कर दस सहस्र वर्षों तक राज्य किया, यहां टीकाकार दस को ग्यारह बोधक मान लेते हैं। ऐसे कई प्रसंग आते हैं, जहां ठिठकना होता है, उनमें से एक वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड के नवें सर्ग में सीता का कथन है- दूसरों के प्राणों की हिंसारूप जो यह तीसरा भयंकर दोष है, उसे लोग मोहवश बिना वैर-विरोध के भी किया करते हैं। वही दोष आपके सामने भी उपस्थित है ... मैं आपको उस प्राचीन घटना की याद दिलाती हूं तथा यह शिक्षा भी देती हूं कि आपको धनुष लेकर किसी तरह बिना वैर के ही दण्डकारण्यवासी राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिए। युद्धकांड के एक सौ सोलहवें सर्ग में सीता के संभवतः सबसे कठोर वचन, राम के लिए कहती हैं- पहले ‘जैसे कोई निम्न श्रेणी का पुरुष निम्न कोटि की ही स्त्री से न कहने योग्य बातें भी कह डालता है, उसी तरह आप भी मुझसे कह रहे हैं और ‘‘लघुनेव मनुष्येण ... (ओछे मनुष्यों की भांति- गीताप्रेस के अनुवाद में) कह पड़ती हैं। इसी तरह तुलसी लंका कांड-110 में चौंकाते हैं यह कह कर- ‘आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी।।‘ - तदंतर सदा के स्वार्थी देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे हैं मानों बड़े परमार्थी हों। और फिर दोहावली 349 में यह कह कर- ‘बलि मिस देखे देवता, कर मिस मानव देव। मुए मार सुबिचार हत, स्वारथ साधन एव।।‘ - बलिदान के बहाने देवताओं को और राज्य-कर (दण्ड) के बहाने राजाओं को देख लिया। दोनों ही स्वार्थ साधने वाले विचार शून्य और मरे को मारने वाले हैं। वाल्मीकि रामायण के अन्य कई प्रसंग बहुत रोचक और विशिष्ट है। सुंदरकांड के तीसवें सर्ग में हनुमान-सीता के बीच वार्तालाप का प्रसंग, चूंकि उनका आपस में परिचय नहीं होता, हनुमान सोचते हैं कि वानर होकर भी मैं संस्कृत वाणी का प्रयोग करूंगा तो सीता मुझे छद्मवेशधारी रावण समझ लेंगी, ऐसी दशा में मुझे अयोध्या के आसपास की साधारण जनता वाली सार्थक भाषा का प्रयोग करना चाहिए, फिर भी मेरे वानर-रूप मुख से मानवोचित भाषा सुन कर वे भयभीत हो जाएंगी, अंततः बहुत सोच-विचार कर हनुमान ने रास्ता निकाल लिया। कहन के ढंग का एक नमूना अयोध्याकांड के चौंवालीसवें सर्ग में है- ‘सूर्यस्यापि भवेत् सूर्यो ह्यग्नेरग्नि प्रभोः प्रभु ...‘ राम सूर्य के भी सूर्य, अग्नि के भी अग्नि, प्रभु के भी प्रभु, लक्ष्मी की भी उत्तम लक्ष्मी और क्षमा की भी क्षमा हैं। वे देवताओं के देवता और भूतों के भी उत्तम भूत हैं। वैसा ही एक और कहन युद्धकांड के एक सौ सातवें सर्ग में है- ‘गगनं गगनाकारं सागरसागरोपमः ...‘ गगन गगन जैसा और सागर सागर की तरह वैसे ही राम और रावण के बीच युद्ध, राम-रावण युद्ध जैसा ही है। उत्तरकांड के बहुचर्चित और विवादित शंबूक वध प्रसंग में इस अजीबपन की ओर कम ध्यान दिया गया है कि धनुर्धारी राम ने ‘भाषतस्यस्य शूद्रस्य खड्गं सुरुचिाप्रभम् ..., संभवतः यहीं एकमात्र बार तलवार का इस्तेमाल किया है। ‘नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि’ कह कर तुलसी ने छूट ली है अन्यत्र-लोक से लेने या मौलिक रचने की। ऐसी छूट लेते कुछ प्रसंग, जैसा मैंने किसी कथा वाचक से सुना है- लंका विजय के बाद सबको विदा करते हुए हनुमान की बारी आने का है। रामचंद्र जी हनुमान के प्रति शायद सर्वाधिक ‘थैंकफुल‘ हैं। वे अपनी भावना हनुमान से व्यक्त करने के लिए सोचते हुए ठहर जाते हैं। बहुत बारीक बात आती है, रामचंद्र जी कहना चाहते हैं कि मुझ पर आए संकट में जिस तरह तुम सहायक बने वैसा तो और कोई हो नहीं सकता। राम के लिए हनुमान ‘तुम मम भरत सम भाई’ और ‘तुम मम प्रिय लछिमन ते दूना‘ हैं ही। मगर उन्हें यह भी लगा कि प्रत्युपकार सोचने में निहित होता है, उपकारी पर विपत्ति आएगी ‘मय्येव जीर्णता यातु यत् त्वयोपकृतं ..., यह ठीक नहीं, इसलिए राम काष्ठ मौन, निःशब्द हैं। सीता रसोई से जुड़ी दो कथाएं, जिनका संदर्भ मेरी जानकारी में किसी ग्रंथ में नहीं, इन्हें मैंने लोक में प्रचलित सुना है। पहली, जिसमें कहा जाता है कि रामभक्तों को कटहल नहीं खाना चाहिए, क्योंकि भगवान राम ने स्वयं अपने भक्तों को इसे खाने से मना किया है। हुआ यों कि रामचंद्र को सदल-बल ससुराल में भोज का न्योता मिला। भोज में सारी ऋक्ष-सेना को तो जाना ही था। रामचंद्र जी को चिंता हुई कि पंगत में बैठे बंदर किस तरह पंगत-अनुशासन का पालन करते हुए भोजन करेंगे। हनुमान से मशविरा हुआ और नेता जामवंत को जिम्मा सौपा गया। जामवंत ने वानर-यूथ को समझाया कि पंगत में मेरी ओर नजर रखना, जैसा मैं करूं, तुम सब भी वैसा ही, अनुकरण करना। पंगत बैठी, भोज आरंभ हुआ। अनुशासनबद्ध बंदर कसमसाते रहे, भोजन स्वादिष्ट मगर उसमें उन्हें कोई आनंद नहीं, खाने से अधिक ध्यान जामवंत पर। भोज में कटहल की सब्जी परोसी गई थी। जामवंत कटहल के बीज से गिरी खाने के लिए उसे बीच से दो भाग करते हैं और गिरी निकालने के लिए बीज को नीचे से दबाते हैं, यहीं गड़बड़ हो जाती है, गिरी का टुकड़ा उछल जाता है, इस चूक को संभालने के लिए जामवंत गिरी के उछले टुकड़े को लपकने की कोशिश करते हैं, जो और भारी चूक साबित होता है। सारे बंदरों को लगता है कि कटहल की गिरी को इसी तरह खाना है, बस उछल-कूद शुरू और सारी पंगत, सारा भोज मटियामेट। ससुराल में जगहंसाई हो जाती है। और फिर रामचंद्र जी का अपने भक्तों के लिए फरमान जारी ... दूसरी कहानी पाक-पारंगत सीता जी की, जिसमें सारे ऋषि-मुनियों को भोज पर आमंत्रित किया गया है। पाकशाला की सारी जिम्मेदारी स्वयं सीता जी ने अपने पर ले रखी है। तरह-तरह के सुस्वादु व्यंजन। पंगत बैठती है, सारे आगंतुक एक-एक व्यंजन का स्वाद लेकर भोज का आनंद लेने लगे। सभी ‘आइटम‘ एक से बढ़ कर एक। एक अपवाद थे, जिन्होंने परोसा गया सारा भोजन-व्यंजन एक साथ मिला दिया था, ‘सड्ड-गबड्डा‘ और ‘जेंव‘ रहे थे। जिन्होंने देखा, भृकुटि तन गई, ऐसे सुस्वादु व्यंजनों के साथ ऐसी जाहिलाना हरकत! हालत आ गई कि उनसे पूछ लिया गया कि आप ऐसा गड़बड़ क्यों कर रहे हैं?, ऐसे में व्यंजनों के स्वाद का क्या ही पता लगेगा, सारी रसोई का अपमान है यह। उन्होंने कहा- मैं पूरा स्वाद लेकर खा रहा हूं, दरअसल दाल में शायद चुटकी भर नमक कम है। सब लोग हैरान। बात सीता जी तक पहुंची। सीता ने उन ऋषि को आ कर प्रणाम किया और बताया कि मेरी रसोई की सच्ची परीक्षा इन्होंने ही की है, वास्तव में दाल बनाते हुए नमक कम पड़ गया था, जब तक नमक आता, तब तब पंगत बैठने लगी तो जितना नमक था, एक चुटकी कम, उतना ही डालकर दाल बनी और परोस दी गई। टीकाकारों ने लोक-मन को समझने की कोशिश की होगी? पता नहीं। कटहल-निषेध और नमक-अल्पता पर तुक्का भिड़ाने की कोशिश की जा सकती है, क्यों न दूर की कौड़ी हो। अधिकतर तो कली, कली से फूल और फिर फल आता है, पर एक गुलाब है, जो फूलता है, मगर उसके फल का पता नहीं लगता। वहीं गूलर और बेल की तरह कटहल के फूलों का ठीक पता नहीं लगता, सीधे फल दिखता है, वह भी तने पर और कई बार जड़ से जुड़ा। तो क्या रामजी की समझाइश है कि सीधे फल की आशा से बचो, फूलो तब फलो, ज्यों फलो-फूलो का आशीर्वचन। या किसी कल्पनाशील रामभक्त के प्रत्यक्ष अनुभव, भोगे हुए यथार्थ को ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं‘ ..., के भरोसे राम के नाम पर गढ़ दिया। या कि भोजन का षटरस संतुलन वही है, जब वह समरस हो। तब लगता है कि गांधी के अस्वाद में शायद समरसता का रामरस होता था। एक बार कुंभकर्ण ने रावण से पूछा- तुम माया द्वारा राम का वेश धारण करके क्यों नहीं सीता को छलपूर्वक भोगते हो? रावण का उत्तर था- क्या करूं, रामरूप धारण करने पर, मेरी वासना ही शांत हो जाती है, सारी कामतृषा ही समाहित हो जाती है। और अब में तो रूप धरने की भी जरूरत नहीं, ‘कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।‘ इसी तरह हरि अनंत, हरि कथा अनंता ..., राम चरित सत कोटि अपारा ... और ‘यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च यावत् तिष्ठति मेदिनी। यावच्च मत्कथा लोके ... जब तक चन्द्रमा और सूर्य रहेंगे, जब तक पृथ्वी रहेगी, संसार में यह कथा प्रचलित रहेगी...‘ तो फिर इसी तरह सीता की रसोई हो न हो, षटरस-समरस हो न हो, रामनाम रस पीजै मनवा ... 000 ध्यान जाता है कि वाल्मीकि रामायण या तुलसी मानस के मूल! तक पहुंच कैसे हो और पहुंच भी गए तो अपने समझ की सीमा है। पता लगता है कि वाल्मीकि रामायण के मुख्य तीन- दाक्षिणात्य, गौड़ीय और पश्चिमोत्तरीय (एक अन्य बंबई का देवनागरी संस्करण) पाठ हैं, जिनके आधार पर गीता प्रेस वाला सर्वसुलभ संस्करण तैयार किया गया है। चित्रमय पांडुलिपि-प्रति वाला रामचरितमानस अब 2024 में यूनेस्को के ‘मेमोरी ऑफ वर्ल्ड एशिया-पैसिफिक, रीजनल रजिस्टर‘ में शामिल की खबर के साथ जिज्ञासा होती है कि वह कौन सा संस्करण है, सर्व-मान्य या कोई विशिष्ट पाठ वाला। यों, गीता प्रेस गोरखपुर से छपे मानस का संस्करण मानक की तरह स्थापित है, मगर यहां तक पहुंचने की यात्रा का अनुमान मानस की विभिन्न प्रतियों-स्रोतों और उनका चयन, पाठालोचन को देखने से पता लगता है। तुलसी स्वयं अपना स्रोत ‘नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि‘ के साथ ‘मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत‘ बताते हैं। विभिन्न स्रोतों की जानकारी के लिए एक प्रमुख, हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा 1949 में प्रकाशित, मूर्धन्य पाठालोचक माताप्रसाद गुप्त सम्पादित ‘राम चरित मानस का पाठ‘ (तुलसी ग्रन्थावली, भाग 1, खण्ड 2) पुस्तक है। पुस्तक की प्रस्तावना में सम्पादक ने भारत कला भवन काशी, श्री शंभुनाथ चौबे, श्री कमलाकर द्विवेदी, काशी नरेश महाराज श्री विभूतिनारायण सिंह, श्रावण कुंज के महंत श्री जनक किशोरी शरण, राजापुर के श्री मुन्नीलाल उपाध्याय, मिर्ज़ापुर के श्री हरिदास दलाल, बहोरिकपुर के श्री धनंजय शर्मा, और मुँगरा बादशाहपुर की हिंदू सभा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है, जिन्होंने अपनी प्रतियों के उपयोग की सुविधा उन्हें दी। साथ ही पुस्तक के आरंभ में अन्य महत्वपूर्ण विभिन्न प्रतियों की परिचयात्मक सूची दी है, जिनके अधार पर मानस का ‘मूल-शुद्ध‘ पाठ तैयार करने का उद्यम हुआ। अब नयी खोज और तथ्यों के साथ 2019 में ‘रामचरित मानस की पांडुलिपियां, ज्ञात-अज्ञात तथ्य‘, उदय शंकर दुबे और डॉ. विजय नाथ मिश्र की पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिससे इस विषय पर और प्रकाश पड़ता है। क़ामिल बुल्के की ‘रामकथा-साहित्य की तालिका‘ में पौराणिक ग्रंथों को छोड़कर भी 1700 ई. तक के शताधिक रामकथाओं की कालक्रमवार सूची है। ए.के. रामानुजन का लेख ‘थ्री हंड्रेड रामायंस ...’, वस्तुतः शोध-निबंध है, पाठ्यक्रम में होने से इसकी पहुंच विद्यार्थी और अध्येता तक थी, 2011 में इस पर हुआ विवाद उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा, नतीजा कि इसके बाद यह आम पाठकों तक मूल और अनुवाद सहित, सहज पहुंच गया। तुलसी कहते हैं- रामकथा कै मिति जग नाहीं ... ... रामायन सत कोटि अपारा। इस विवरण के पीछे मंशा यह है कि किसी शब्द-पद को ले कर भावुक या उत्तेजित हो जाना ठीक नहीं। इन ग्रंथों से इतिहास, भूगोल और समाज की झलक मिलती है, किंतु उन्हें इन विषयों का पाठ्य-पुस्तक नहीं मान लेना चाहिए। जो इन ग्रंथों में निहित काव्य, भक्ति और अध्यात्म का रस ले सके, बुद्धिभेद से भावअभेद तक पहुंच सके, वही इनका सत्पात्र पाठक हो सकता है। राम का नाम लिख दो, कैसा भी पत्थर तैर जाता है, पार लग जाता है, जैसे मेरी यह चौपदी। इस लेख को तैयार करने में असमी, तेलुगु रामायण जैसे कुछ ग्रंथों के अलावा सभी संदर्भ प्राथमिक स्रोतों, मूल ग्रंथों से लिए गए हैं।

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