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Friday, July 27, 2018

एक थे फूफा


एक थे फूफा, बड़े-छोटे सबके, जगत फूफा। मानों फूफा रिश्ता नहीं नाम हो, इस हद तक फूफा। ... ... ...

'एक थे फूफा' 1 दिसंबर 2018 को आई और 20 दिन में सारी प्रतियां बिक गई, अब दूसरा संस्‍करण जनवरी 2019 में आ गया है।


आकस्मिक लेखक और आदतन पाठक, कभी-कभार टिप्पणीकार हूं। अपने लिखे 'एक थे फूफा' को इतने समय बाद पाठक की तरह पढ़ते हुए टिप्पणी करने का मन बना, इसलिए यह प्रयोग, स्वयं के लिखे पर पाठकीय नजरिए से टिप्पणी-

'फूफा‘ का अफसाना जहां से शुरू होता है, समाप्त भी होता है उन्हीं शब्दों ‘एक थे फूफा‘ पर, मानों जीवन-वृत्त, वही आदि वही अंत। शीर्षक का 'थे' यह अनुमान करा देता है कि आगे जो कुछ आने वाला है वह हो चुका है, बीत चुका है, यह बस दुहराया जा रहा है। पहले पैरा के अंश ‘अपने ही घर में फूफा‘ में अपने-इनसाइडर के बेगाने-आउटसाइडर हो जाने का संकेत मिलता है।

फूफा का 'फू-फा' और 'फूं-फा' और इसी तरह के अन्‍य शाब्दिक खिलवाड़ रोचक है, जिस तरह फूफा का अपने अधिकारों के प्रति सचेत होना 'जागते रहो' फिल्‍म देखकर और पारिवारिक मिल्कियत हाथ में लेना 'लैंडलार्ड' धोती पहनते हुए। छत्तीसगढ़ी के शब्दों और वाक्याशों का प्रयोग आंचलिक माहौल बनाता है, लेकिन कभी ठिठकने को मजबूर भी करता है, इसलिए छोटी रचना होने के बावजूद इसे एक बैठक में और रवानी के साथ पढ़ पाने में अड़चन होती है। जीवन-चक्र एक बार फिर, अपनी बातों-फैसलों के असर की परवाह न करने वाले फूफा के जीवन में पहले तेज-तर्राट छोटी बहू, फूफा की खांसी और तबियत की चिंता के आड़ में बिड़ी के बेवजह खर्च की बातें परदे से करती है, जो फूफा के कानों में पड़ती है और फिर जिस तरह फूफा ने लम्मरदारी बुजुर्गों से अपने हाथ में ली होती है, उसी तरह कहानी के उत्तरार्द्ध में कहा गया है कि ‘योग्य सुपुत्रों ने कोई खास काम उनके लिए छोड़ा न था।‘

बुआ और नोनीबाई का प्रसंग प्रत्येक पाठक-रुचि के अनुकूल है, लेकिन दोनों थोड़ी असमंजस वाली, खासकर नोनीबाई, जिसमें पाठक आगे क्या होगा का अनुमान के साथ व्यग्र रहता है और इस प्रसंग का अंत अप्रत्याशित होता है, किसी भी संभव अनुमान से अलग। दूसरी तरफ फूफा का अंत इतना पूर्वनिर्धारित होता है, पाठक मान सकता है कि कहानी उसकी ही तय की गई और लिखी हुई है।

बिड़ी पर इस बारीकी से शायद अब तक नहीं लिखा गया है, साथ ही चिड़ियों की बोली वाली बात मजेदार है जिसे समझने की वंशगत थाती को फूफा के पिता चोचला मानते थे कि अगल-बगल की बात तो समझ में आती नहीं और वाह रे चिड़ियों की बोली के ज्ञाता। काकभुशुंडी और शुकदेव, पौराणिक कथावाचक हैं तो कौआ पितरों का प्रतीक भी माना जाता है, वही फूफा के जन्म का संकेत देता है और उसी के साथ वंश आगे बढ़ने 'नामलेवा-पानीदेवा' की बात आती है तो दूसरी तरफ शुक-तोता को शुभ-अशुभ का संकेत देने वाले माना गया है और देह पिंजर में जीव-शुक के प्रती‍क को कहानी में सहज गूंथा गया है। उन्मुक्त पक्षियों की बोली का रस लेने वाले फूफा ने चौथेपन में पिंजरे वाली चिड़िया, तोता पाल लिया, सारी कवायद के बाद वह तोतारटंत टें-टें ही करता रहा, मानों जीवन का बेसुरा राग।

कहानी का प्रवाह उबड़-खाबड़ सा है, कुछ बातें-प्रसंग बेढंगी, जीवन की तरह। कहानी के बीच रेखाचित्र और खंड-शीर्षक इस उलझी सी बुनावट को कसावट देते हैं, फिर भी पूरा मसौदा ऐसा, जिसे सुगढ़ लेखन कतई नहीं माना जा सकता, शुरुआती लेखकीय वक्तव्य अपना बचाव करते दिखता है- 'पाठक नीर-क्षीर विवेक को सक्रिय न होने दे। और कहानी का परिशिष्ट ‘दस्तावेजी कच्चा-चिट्ठा‘ है, जिसमें इसे किसी डायरी के अंश की तथा-कथा बताया गया है, कि जिसमें कुछ खाली पन्ने भी हैं, ऐसी डायरी, जो समय के साथ ‘रद्दी‘-निरर्थक हो जाती है। यह भी तय नहीं हो पाता कि यह कहानी है, उपन्याेसिका, व्यसक्ति चित्र या कुछ और। कहीं लगता है कि 'ये लिखना भी कोई लिखना है लल्लूल' क्यों्कि लेखन में अनगढ़-अनाड़ीपन है।

अवसान, दिन का हो, जीवन का या कहानी का, उदास करता है। फूफा का अंत सहज-स्वाभाविक नियति की तरह है फिर भी तटस्थ भाव से कही जा रही कथा में पाठक फूफा के साथ खुद को जोड़कर ऐसी सहानुभूति महसूस करने लगता है कि फूफा की चिंता, पाठक की व्यथा बन जाती है। और कहानी खत्म होते ही पाठकीय मन लौटकर आ जाता है पहले वाक्य पर- एक थे फूफा।

12 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, तस्मै श्री गुरुवे नमः - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. Gajab kar diya aapne to. Haan, thoda jaanch lijiyega ki MASHGOOL hai sahi shabd ya ki MASROOF. Karan, Narayanpur me rahte samay ek Khan saheb ne Mashgool aur Masroof ka fark samjhaya tha jo ab dyan me nahin hai. Isi tarah Aakashwani Jagdalpur kendr me padasth ek Krishi Radio Adhikari Shri Khakha ji ne BAAWJOOD BHI ko galat istemal batate huye kewal BAAWJOOD ko sahi bataya tha. Unka kahna tha ki BAAWJOOD me BHI swatah antarnihit hai.

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  3. Gajab kar diya aapne to. Haan, thoda jaanch lijiyega ki MASHGOOL hai sahi shabd ya ki MASROOF. Karan, Narayanpur me rahte samay ek Khan saheb ne Mashgool aur Masroof ka fark samjhaya tha jo ab dyan me nahin hai. Isi tarah Aakashwani Jagdalpur kendr me padasth ek Krishi Radio Adhikari Shri Khakha ji ne BAAWJOOD BHI ko galat istemal batate huye kewal BAAWJOOD ko sahi bataya tha. Unka kahna tha ki BAAWJOOD me BHI swatah antarnihit hai.

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  4. बहुत खूब , प्रभावशाली लगा आपका नया अंदाज़ । बधाई आपको कलम को

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  5. Mast Article hi sir ji time pass ho gya hamara

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