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Monday, December 19, 2022

पदुम-नलिन

सत्यं कटु न हो मगर प्रियं होने से अच्छा है कि वह सुंदरं हो और ऐसा तब होता है, जब सत्यं, सहजं हो। इसी सत्यं सहजं के दर्शन होते हैं 75 वर्षीय डॉ. नलिनी श्रीवास्तव में। 2007 में प्रकाशित, 8 खंडों और लगभग 5000 पृष्ठों वाले, ‘पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ग्रन्थावली‘ का संपादन आपने किया है। बख्शी जी के बड़े सुपुत्र महेंद्र कुमार बख्शी जी की ज्येष्ठ पुत्री नलिनी जी ने 1986 में अपने दादाजी पर पी-एच डी की, विषय था, ‘हिन्दी निबंध की परम्परा में बख्शी जी के योगदान का अनुशीलन‘।


बताती हैं किस तरह बख्शी जी की रचनाओं को एकत्र किया, तब जीवनसाथी, श्रीवास्तव जी (वही जैसा गायक का नाम था, यानि किशोर कुमार श्रीवास्तव जी) का सहयोग होता था। ‘यात्री‘ जैसी उनकी कुछ पुस्तकें बस देखने को मिलीं तो दिन-रात लग कर स्वयं कापी पेन नकल बनाई। अब भी सृजन-सक्रिय, सजग-स्मृति संपन्न हैं। फिटनेस की तारीफ को सहजता से स्वीकार करते कहती हैं, लिखती-पढ़ती रहती हूं, स्वास्थ्य ठीक रहा है, न शुगर न बीपी, सिरदर्द भी नहीं हुआ। 

बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष ललित कुमार जी के आमंत्रण पर अरविंद मिश्र जी, आशीष सिंह जी और राकेश तिवारी जी के साथ भिलाई गया। पूर्व अध्यक्षों में मध्यप्रदेश के दौरान गठित इस पीठ के पहले अध्यक्ष प्रमोद वर्मा जी, छत्तीसगढ़ गठन के बाद सतीश जायसवाल जी, बबन मिश्र जी, डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र के कार्यकाल के साथ, पीठ के गठन के और इसके महत्वपूर्ण कारक कनक तिवारी जी की स्मृतियां ताजी होती रहीं। लंबे समय बाद सुअवसर बना नलिनी जी से प्रत्यक्ष मुलाकात का। फोन पर चर्चा जरूर होती रही। एक प्रसंग- बख्शी जी की एक रचना ‘कला का विन्यास‘ टटोल रहा था। ग्रन्थावली में न पा कर उन्हें फोन किया। पहले लगा कि उनका जवाब अनमना सा है- ‘देख लीजिए, निबंध वाले खंड में होगा‘ साथ ही पूरे भरोसे से यह भी कहा कि इस शीर्षक से तो उनका कोई निबंध नहीं है। 

मैंने निबंध का पहला पेज उन्हें वाट्सएप किया, फिर पहला पैरा पढ़ कर सुनाया कि शैली तो उन्हीं की है, वे सहमत हुईं, फिर कहा कि देख कर बताउंगी। मुझे बिलकुल अनुमान न था कि इस बात ने उन्हें कितना बेचैन कर दिया है। देर शाम हुई बात के जवाब में अगली सुबह ही फोन आ गया कि खंड 1, पेज 223 देखिए। फिर बताया कि मुझसे बात होने के बाद रात भर उन्हें नींद नहीं आई। सोचती रहीं कि यह रचना क्योंकर छूट गई होगी। ग्रन्थावली के संस्करण में इसे जोड़ना होगा, आदि। 

सहज सरल मास्टर जी यानि बख्शी जी के व्यक्तित्व की उदारता और सहजता, साहित्यिक जिम्मेदारी और आग्रह की परंपरा को नलिनी जी से मुलाकात कर जीवंत महसूस किया जा सकता है। प्रातः और नित्य स्मरणीय मास्टर जी को नलिनी जी के माध्यम से नमन।

Thursday, December 15, 2022

पुरानी खड़ी बोली

हरि ठाकुर जी ने छत्तीसगढ़ की गौरव-गाथा को कण-कण समेटा, उसका एक नमूना यह लेख, जिसकी हस्तलिखित प्रति आशीष सिंह जी ने उपलब्ध कराई, उनका आभार। लेख के प्रकाशन की जानकारी नहीं मिली है। यहां प्रस्तुत-


दक्षिण कोसल में सोलहवीं शताब्दी की खड़ी बोली का नमूना 

कितने आश्चर्य की बात है कि पन्द्रहवीं शताब्दी की खड़ी बोली के गद्य का नमूना हमें उस क्षेत्र प्राप्त हुआ है जहां अब पूर्णरूप से उडिया भाषा बोली जाती है। छत्तीसगढ़ से लगा हुआ उड़ीसा प्रदेश का एक जिला है सुन्दरगढ़। इस जिले के बड़गाँव थाने के अन्तर्गत बरपाली नामक गाँव में एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है जिसकी भाषा प्रारंभिक खड़ी बोली है। सम्पूर्ण लेख नागरी लिपि तथा गद्य में है। वह ताम्रपत्र लेख ‘एन्सियेंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रैडिशन्स‘ नामक शोध पत्रिका में श्री के.एस. बेहरा ने प्रकाशित किया है। 

अठारहवीं शताब्दी तक यह क्षेत्र कोसल या दक्षिण कोसल कहलाता था। इस दक्षिण कोसल की भौगोलिक सीमा का वर्णन करते हुए श्री एस.सी. बेहरा ने अपने शोध निबंध में लिखा है- रायपुर, बिलासपुर, सम्बलपुर, सुन्दरगढ़, बोलांगीर, कालाहांडी, बौद-फूलबनी और कोरापुट- ये क्षेत्र दक्षिण कोसल में थे। रायपुर और बिलासपुर छत्तीसगढ़ में हैं ही। शेष जिले उड़ीसा में हैं। उक्त निबंध के लेखक ने रायगढ़, सरगुजा, दुर्ग और राजनांदगाँव जिलो को भूलवश छोड़ दिया है। वस्तुतः ये जिले प्राचीन दक्षिण कोसल में ही थे। बस्तर का कुछ हिस्सा दक्षिण कोसल में था। शेष दण्डकारण्य कहलाता था।

सन् १७५० में छत्तीसगढ़ पर मराठों का अधिकार हो गया। लगभग उसी समय यह सम्पूर्ण क्षेत्र छत्तीसगढ़ कहलाने लगा। उस समय भी उड़ीसा के उपर्युक्त जिले छत्तीसगढ़ के तत्कालीन राजा बिम्बाजी के अधीन थे और छत्तीसगढ़ के ही परगना माने जाते थे। सन् १९०५ में बंग-भंग के समय छत्तीसगढ़ के ये उड़ियाभाषी जिले उड़ीसा में मिला दिए गये। इस प्रकार यदि देखा जाये तो इस ताम्रपत्र को दक्षिण कोसल या छत्तीसगढ़ का माना जा सकता है। किन्तु, तथ्य यह है कि वर्तमान में बरपाली उड़ीसा में है। 

इस ताम्रपत्र के प्रदाता थे हम्मीर देव जो सुन्दरगढ़ राज्य के शासक थे। वे परमार शेखर राजवंशके प्रारंभिक राजा थे। यह ताम्रपत्र लेख वस्तुतः एक दानपत्र है। यह दानपत्र राजा हमीरदेव ने अपने स्वर्गीय पिता के आदेश का पालन करने हेतु राजगुरु श्री नारायण बीसी को प्रदान किया था। दानपत्र में राजगुरु को बरपाली गांव दान में देने का उल्लेख है। दान पत्र पर विक्रम तिथि अंकित है तदनुसार २४ जनवरी १५४४ ई. की तारीख पड़ती है। उस दिन सूर्य ग्रहण पड़ा था। 

हमीरदेव का ताम्रपत्र लेख

(१) 
‘‘ सोस्ती श्री माहाराजा धीराज माहाराज
श्रीश्री हंमीर देव के राजगुरु श्री
नारायण वीसीई को परनाम पूर्व
सो पीता स्यामी का हुक्म था
के एक गांव कुसोदक दे देना सो
बमौजी व हुकुम पीता जी के
वो अपने घुसी में मौजे बरपाली

(२)
गांव आसीन्त करके सुर्ज्य ग्रहन
में कुसोदक कर दिआ पुत्र पौत्र
भादीक भोग किया करो जावत
चन्द्र दीवाकर रहेगे तावत भोग
करोगे वौ गार्गवंस वीन्द होगा
औवर जो कोहि होय सो जगह
को ग्राश्चन्ही करेगा तारीफ १५
पुस समत १६०० साल सही ‘‘

भाषा की दृष्टि से दान-पत्र का यह लेख ऐतिहासिक महत्व रखता है। उड़िया भाषी क्षेत्र में इस दान पत्र का प्राप्त होना इस बात का संकेत करता है कि सोलहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र की भाषा वही थी जो इस दानपत्र में है। कम से कम राज-काज की भाषा तो यह निश्चित रूप से ही थी, यह ताम्रपत्र लेख से स्वयं प्रमाणित है। निश्चय ही इस भाषा को उस समय की जनता समझ सकती थी। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि सुन्दगढ़ राज्य छतीसगढ़ की सीमा से सटा हुआ है। छत्तीसगढ़ के राजाओं के कामकाज की भाषा भी लगभग यही थी।

इस लेख की दूसरी विशेषता है कि वह शुद्ध गद्य में है और खड़ी बोली में है। इसकी भाषा पर हमें ब्रज या अवधी का कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता। खड़ी बोली के व्याकरण के अनुसार इस प्रकार की भाषा का इस क्षेत्र में प्राप्त यह प्रथम और दुर्लभ लेख है।

लेख में हिज्जे की अनेक त्रुटियां हैं। ये त्रुटियां ताम्रपत्र पर लेख को उत्कीर्ण करने वाले की भी हो सकती हैं। स्वस्ति को सास्ति, महाराजा का माहाराजा, वीसी को बीसीई, पूर्वक को पुर्व पिता को पीता, स्वामी को स्यामी, एक को येक, कुशोदक को कुसोदक, खुशी को घुसी, गांव को गाव, आसीमांत को आसीन्त, सूर्य को सुर्ज्य, दिशा को दिआ, पौत्रादिक को पौत्रादीक, यावच्चंद्र को जावतचन्द्र, दिवाकर को दीवाकर, व या औ को वौ, वृन्द को वीन्द और को अवर, कोई को कोहि, ‘ग्रहण नहीं‘ को ग्राश्चन्हीं, तारीख को तारीक, पूस को पुस, संवत् को समत लिखा गया है। ये त्राुटियाँ दान-पत्र को लिपिबद्ध करने वाले की भी हो सकती हैं।

लेख की अन्य विशेषता है- संस्कृत तथा अरबी-फारसी के शब्दों का एक साथ प्रयोग। संस्कृत के शब्द स्वस्ति, कुशोदक, आसीमान्त, यावच्चन्द्र दिवाकर आदि प्रयोग इस बात का घोतक है कि दान पत्र लिखने वाला संस्कृत का पंडित था। साथ ही वह उर्दू के शब्दों से भी परिचित था जैसे बमौजी, हुकुम, खुशी, मौजा, तारीख, साल आदि। उर्दू शब्दों के प्रयोग से यह भी सिद्ध होता है कि इस क्षेत्र की राज-काज की भाषा पर उर्दू का प्रभाव पड़ चुका था।

लेख में १५ पंक्तियां हैं। ताम्रपत्र के प्रथम पृष्ठ पर ७ पंक्तियां हैं। द्वितीय पृष्ठ पर ८ पंक्तियां हैं। खड़ी बोली के गद्य के विकास का अध्ययन करने वालों के लिए यह लेख पर्याप्त रुचिपूर्ण हो सकता है।

उपर्युक्त लेख में की पंक्ति क्रमांक १२ में बीन्द शब्द आया है। इस शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं है। संभवतः यह वृन्द के अर्थ में आया हो। वस्तुतः यहाँ पर ‘‘गोत्र‘‘ शब्द होना चाहिए था। इस लेख को आज की भाषा में इस प्रकार लिखा जायेगा-

‘‘स्वस्ति श्री महाराजा धिराज महाराज श्री श्री हम्मीर देव के राजगुरु श्री नारायण वीसी को प्रणाम पूर्वक सो पिता स्वामी का हुक्म था कि एक गांव कुशोदक दे देना सो बमौजी (स्वेच्छा से) व हुक्म पिताजी के व अपनी खुशी से मौजा बरपाली गाँव आसीमांत सूर्यग्रहण में कुशोदक कर दिया (कि) पुत्र पौत्रादिक भोग किया करो यावच्चन्द्र दिवाकर रहेंगे तब तक भोग करोगे और गर्ग वंश गोत्र में रहेगा और जो कोई भी हो इस जगह (गाँव) को अधिग्रहण नहीं करेगा तारीख १५ पूस संवत् १६०० साल सही।‘‘

सोलहवीं शताब्दी के पूर्व की खड़ी बोली के कुछ नमूने उपलब्ध हैं जैसे पृथ्वीराज, मेवाड़ के राजा रावल समर सिंह, महात्मा गोरखनाथ, तथा स्वामी विट्ठलनाथ जी को पत्र। किन्तु इन पत्रों की भाषा को खड़ी बोली का गद्य कहना न्यायोचित नहीं कहा सकता। खड़ी बोली का उत्कृष्ट प्रारंभिक उदाहरण अमीर खुसरो का है किन्तु उसकी भाषा पर भी ब्रज भाषा का गहरा प्रभाव है। दूसरी बात, उनकी रचनाएं पद्य में हैं।

प्रस्तुत ताम्रपत्र लेख की खड़ी बोली के गद्य के समकक्ष स्वामी विट्ठल नाथ जी का यह गद्यांश रखा जा सकता है-

‘‘स्वामी तुम्हैं तो सतगुरु अम्हे तो लिष सबद एक पूछिवा दया करि कहिबा, मन न करिबा रोस। पराधीन उपरांति बन्धन नाहीं, सो आधीन उपरांति मुकुति नाई। यह भी १६००वीं शताब्दी का गद्य है। अब इसी के समकक्ष समकालीन दक्षिण कोसल के ताम्रपत्र लेख के लेख को गद्य की भाषा से तुलना कीजिए-
 
‘‘ सो पीता स्वामी का हुक्म था के येक गाँव कुसोदक दे देना सो बमौजी व हुकुम पीताजी के वो अपने घुसी में मौजे बरपाली गाँव आसीन्त करके सुर्ज्य ग्रहन में कुसोदक कर दिआ।‘‘

यदि इस गद्य को लिपिबद्ध करने वाले ने हिज्जे के प्रति सावधानी रखी होती तो यह अपने समय के उत्कृष्ट गद्य का उदाहरण होता फिर भी मेरे विचार से इन दोनों उदाहरणों में से यह दूसरा उदाहरण खड़ी बोली का अधिक शुद्ध रूप है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि खड़ी बोली के गद्य का यह नमूना हमें अहिंदी क्षेत्र से प्राप्त हुआ है जो इस बात का भी प्रमाण है कि अहिन्दी क्षेत्र में भी सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी प्रचलित थी और राजकाज की भाषा थी।
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Saturday, December 10, 2022

पीथमपुर - सतीश जायसवाल

लीलागर-महानदी-हसदेव तट के मेलों में पीथमपुर की खास पहचान है। होली-धूल पंचमी पर भरने वाला यह मेला मौसम और भूगोल की संधि पर होता है। यह मेला छोटी-मोटी फौजदारी से ले कर कभी हत्या तक की घटनाओं के लिए बदनाम रहा हैं। यह भी देखा गया है कि इस दौरान आंधी-तूफान से एक बार मेला उजड़ कर फिर जमता है। यहां कलेश्वरनाथ मंदिर के पुजारी साहू जाति के हैं। इस अंचल में कनकी के जांता महादेव मंदिर के पुजारी यादव होते हैं और राजिम के राजीव लोचन मंदिर के पुजारी क्षत्रिय हैं।

पीथमपुर पर अश्विनी केशरवानी जी ने कलम चलाई है और यहां सतीश जायसवाल जी की लेखनी का प्रवाह है। सतीश जी कविता-कहानी वाले साहित्य में रमे रहते हैं, लंबे समय तक पत्रकारिता भी की है, अवसर अनुकूल अपनी भूमिका निर्धारित कर लेते हैं। कथा और कथेतर के भेद को जोड़ते-मिटाते अपनी धारणा को साहित्यिक रंग देते, खतरनाक प्रयोग करना उन्हें आनंदित करता है, जो उनके पात्रों के लिए हमेशा सहज नहीं होता। ऐसे ही कुछ विवादित प्रयोग मुक्तिबोध का ‘विपात्र‘ और हबीब तनवीर का नाटक ‘हिरमा की अमर कहानी‘ है। इस शैली में उनके कुछ संतुलित प्रयोग भी हैं, जैसे ‘मछलियों की नींद का समय‘। कहानी के नायक डॉ. शंकर शेष हैं और एक पात्र सतीश (कहानी के लेखक स्वयं) भी।

मेरी दृष्टि में उनका महत्वपूर्ण काम यात्रा-संस्मरण और छत्तीसगढ़ की संस्कृति, कला, इतिहास और परंपरा के विशिष्ट आयाम को बेहद सजग और संवेदनशील देखना-समझना और संजीदगी से अभिव्यक्त-दर्ज करना है। भाट चितेरे, नरसिंहनाथ, बालपुर, जयरामनगर और जनजाति, बस्तर, महानदी जैसे विषयों से जुड़े उनके लेख छत्तीसगढ़ की अस्मिता और गौरव के ऐसे दस्तावेज हैं, जो अन्यथा दुर्लभ हैं। बातचीत के दौरान हां-हूं करते वे अपनी इस खासियत के प्रति रूखे की हद तक उदासीन रहते हैं। आभार कि ऐसी टिप्पणी की छूट, इतना अधिकार उन्होंने मुझे दे रखा है या कहें मैंने ले रखा है।

नवभारत, बिलासपुर में 14-3-93, पृष्ठ -7 पर प्रकाशित रपट, यहां प्रस्तुत-

पीथमपुर मेला: भीड़ कम और धार्मिकता ज्यादा 
मान्यता: रोगियों की पीड़ा का हरण
कलेश्वरनाथ की कृपा

(पीथमपुर से सतीश जायसवाल की रपट)


बिलासपुर. महानदी के तट पर भरने वाले शिवरीनारायण के मेले में घटित घटना का जो असर हसदो तट पर भरने वाले पीथमपुर मेले में पड़ना आशंकित था, वैसा ही हुआ। धूलि- पंचमी के दिन, शिव-बारात के उठने के समय, पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष शिव बारात के प्रमुख बाराती नागा-साधुओं की संख्या अधिक थी, लेकिन इस बारात को देखने के लिये दूर-दूर से आने वाले दर्शनार्थियों की संख्या कम थी और शिव-बारात की व्यवस्था के लिये नियुक्त किये जाने वाले नियमित पुलिस बल के मुकाबले विशेष सशस्त्र बल के सिपाहियों की संख्या अधिक थी, जो किसी भी आशंकित स्थिति के लिये पूरी तरह तैयार थे, लेकिन सौभाग्य से कोई भी अप्रिय स्थिति निर्मित नहीं हुई।

पीथमपुर के पुराने मेले की याद रखने वालों का कहना है कि जिस समय शिव जी का बारात लेकर नागा साधू चलते है, उस समय एक लाख लोगों तक की भीड़ जुड़ जाया करती थी, लेकिन इस वर्ष यह भीड़ २५ से ३० हजार के बीच सिमट कर रह गई। लोगों ने बताया कि शाम होने के साथ-साथ भीड़ यहां जिस हिसाब से बढ़ती है, उस हिसाब से दिया-बत्ती के बाद भी वह भीड़ ४० हजार लोगों को पार नहीं कर पायेगी। बताया गया कि शिवजी की बारात के साथ चलने वाले नागा साधुओं की संख्या पिछले वर्ष १४-१५ से अधिक नहीं थी, लेकिन इस वर्ष ३५-३६ से अधिक साधू शिवजी की बारात के साथ नजर आये। इस वर्ष ये साधू दक्षिण में केरल से लेकर, जूनागढ़ (गुजरात) गोरखपुर तथा वाराणसी (उ.प्र.) अमरकंटक (म.प्र.) और हिमाचल प्रदेश आदि के अखाड़ों से आये। एक शताब्दि से भी अधिक पुराना होने जा रहा यह पारम्परिक मेला, भीड़ के अतिरिक्त भी अपने बिखराव की तरफ दिखाई दे रहा है। शिवजी की बारात के आगे-आगे चलने वाले पटे बाज, तलवार के हुनर दिखाने वाले, रंगे-चंगे नंदी, झांकी के साथ चलने वाले हनुमान, शिव-पार्वती आदि अब नहीं दिखते, लेकिन कुछ नई धार्मिक परम्पराएं स्थापित होती भी दिखाई दीं। चांपा के करीब तपसी बाबा आश्रम से लगभग दो-अढ़ाई सौ कांवड़ियों ने यहां शिवजी को जल अर्पित किया। नई मनोकामना लेकर अथवा पुरानी मनौतियां पूर्ण होने पर, जमीन पर लेटते हुये पीथमपुर पहुंच कर भगवान कलेश्वर नाथ (शिवजी) को नारियल चढ़ाने वाले आस्थावादी भी बढ़ रहे हैं। चांपा से पीथमपुर तक, लगभग ८ किलोमीटर की दूरी, जमीन पर लेटकर नापती हुई पहुंची एक महिला श्याम बाई ने बताया कि उसके पांच वर्षीय नाती को गंभीर खूनी पेचिश थी और उसकी जान बचाने के लिये बिलासपुर के सरकारी अस्पताल में २ बोतल खून मांगा गया। दो बोतल खून के लिये श्याम बाई के पास न तो पैसे थे, न परिचय, लेकिन पता नहीं कहां से एक अपरिचित युवक आया, जिसे श्याम बाई नहीं जानती कि वह मनुष्य था या देवता, दो बोतल खून दे गया। उसके नाती की जान बच गई। श्याम बाई ने तभी मनौती मांगी थी कि जमीन पर लेटते हुये पीथमपुर आयेगी तथा भगवान कलेश्वर नाथ को नारियल चढ़ायेगी।

पुरानी मान्यता है कि भगवान कलेश्वर नाथ की कृपा से पेटदर्द के रोगियों की पीड़ा का हरण होता है इसलिये पेट दर्द से छुटकारा पाने की आस लिये आने वाले दर्शनार्थियों की संख्या बढ़ रही है। इन आस्था वादियों में चांपा के एक पत्रकार भी भगवान कलेश्वरनाथ के दर्शन के लिये पहुंचे। पीथमपुर का धार्मिक महत्व अब होली या धूलि पंचमी के दो दिनों में केन्द्रित न होकर, शिवरात्रि से शुरू होने लगा है। लोगों बताया कि पिछले वर्षों के मुकाबले इस वर्ष पीथमपुर में महाशिवरात्रि पर सर्वाधिक चढ़ाये गये। दरअसल, पीथमपुर का कुल महत्व उसके धार्मिक तथा व्यावसायिक पक्षों में बंटा हुआ है। भगवान कलेश्वर नाथ की अर्चना-पूजा महाशिवरात्रि पर्व से प्रारंभ हो जाती है और वस्तुतः पीथमपुर मेले की धार्मिक शुरूआत महाशिवरात्रि पर्व से ही प्रारंभ होती है, जबकि पारम्परिक मेले की व्यावसायिक शुरूआत होली के दिन से होती है, जब दूर-दूर से यहां पहुंची दुकानों में लेन-देन प्रारंभ होता है।

इस वर्ष मेले की जगह भी बदली गई है। एक सीध वाली लम्बाई में भरने वाला मेला अब चौड़ाई में फैला है और दुकानों की कतारें नदी तट की ओर उतरी है। जिन दुकानदारों ने पहले की तरह, लम्बी सीध से अपना शामियाना लगाया, उनकी दुकानदारी कमजोर रही। पहुंच की दृष्टि से पीथमपुर, जांजगीर, चांपा तथा सारागांव से लगभग बराबर-बराबर दूरी पर है। लगभग ८ किलोमीटर, लेकिन चांपा और सारागांव की तरफ से यहां आने वालों का रास्ता नदी की तरफ से है इसलिये इस वर्ष नदी तट की तरफ वाले दुकानदारों को अधिक ग्राहकों का लाभ मिला।

स्थानीय लोगों ने शिकायत की कि मध्यप्रदेश राज्य परिवहन निगम पीथमपुर मेला को फायदे का सौदा नहीं मानता। एक दिन में, न्यूनतम १० हजार से लेकर अधिकतम १ लाख तक यहां पहुंचने वाले दर्शनार्थियों के लिये या तो तांगों का सहारा है अथवा निजी टैक्सियां। गांवों के लोग गाड़ा-गाड़ी से आ जाते है और बकाया के लिये यहां पैदल ही जाना है ... पुलिस सुरक्षा व्यवस्था के साथ साथ दीगर प्रशासनिक व्यवस्था भी इस वर्ष पहले के मुकाबले बेहतर है। एक प्रशासनिक आदेश के जरिये, मेला-अवधि के दौरान, मध्य भारत पेपर मिल को हसदो नदी में जल प्रवाहि करने पर पाबंदी लगा दी गई। हसदो नदी उस तट पर स्थित, मिल द्वारा रसायनिक द्रव युक्त प्रदूषित पानी के नदी में प्रवाहित किये जाने से यहां जल प्रदूषण की शिकायतें आसपास के गावों से की जाने लगी है। अपने सार्वजनिक कल्याण कार्यक्रम के तहत पेपर मिल ने अपनी ओर से मेले में पेयजल के लिये ‘प्याऊ‘ लगाया है। विभिन्न शालेय तथा विश्वविद्यालयीन परीक्षाओं को ध्यान में रखकर लाउडस्पीकरों के उपयोग पर लगे प्रतिबंध का असर मेले में देखने मिला। लाउडस्पीकर पर बजने वाले फिल्मी गीतों के अभाव में मेला सूना- सूना लगा।

एक जनश्रुति के अनुसार, यहां के स्वयंभू शिव की मूल प्रतिमा जिस तेली हीरा साय के घर घूरे के नीचे से मिली थी, उस परिवार के लोगों को शिव बारात प्रस्थान से पूर्व पूजा का प्रथम अधिकार प्राप्त है तथा उस परिवार के पुरुष सदस्य शिवजी की पालकी उठाकर चलना अपना गौरव मानते हैं। इस परिवार की महिलाएं आज भी यही मानती और बतलाती है कि शिवजी का मूल स्थान उनका घर है, इसलिये उनके घर को शिव गद्दी होने का महत्व है। पत्रकारों के एक दल ने पीथमपुर और आसपास, से मेले में आयी हुई तेली युवतियों की भूरी-हरी आंखों चमत्कारिक सौदर्य को देखा और तथ्यों की पुष्टि की। इस पत्रकार दल ने राष्ट्रीय सेवा योजना की चांपा इकाई के समक्ष प्रस्ताव रखा है कि इस नृतत्व शास्त्रीय विशिष्टता का प्रारंभिक अध्ययन करें। अनुमान किया जा रहा है कि आगामी वर्षों में, यह विशिष्टता, पीथमपुर के मेले में आने वाले दर्शनार्थियों के लिये आकर्षण का मुख्य केन्द्र होगी। 
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Monday, December 5, 2022

डीपाडीह - वेदप्रकाश

वेदप्रकाश नगायच
1988 से 1990 सरगुजा में पुरातत्वीय गतिविधियों के उल्लेखनीय वर्ष हैं। इस दौरान डीपाडीह के स्मारक, पुरावशेष अनावृत्त हुए। इस कार्य में जी.एल. रायकवार जी के साथ, लगभग पूरे समय मेरी सहभागिता रही। आरंभिक चरण में बारी-बारी शामिल विभाग के अन्य अधिकारी में वेदप्रकाश नगायच जी की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही। काम के साथ, विभिन्न प्राप्तियों पर विस्तार से विचार-विनिमय होता। नगायच जी ने इन अधपकी चर्चाओं को करीने और सलीके से अपने अनुभव का आधार दे कर लेख का स्वरूप दिया, जो ‘मध्यप्रदेश संदेश‘ के 25 फरवरी 1989 अंक में प्रकाशित हुआ, यहां प्रस्तुत-

डीपाडीह
मंदिरों का नगर

मध्यप्रदेश के पूर्वी अंचल में स्थित सरगुजा जिला प्राचीन इतिहास की अनेक श्रृंखलाओं को अपने में समाहित किये हुये है। सरगुजा का संपूर्ण क्षेत्र अलौकिक सौंदर्य से ओत प्रोत है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति ने वनों, पर्वतों, नदियों एवं सरोवरों की नैसर्गिक छटा यहां बिखेर दी हो। संभवतः इसी से इसे ‘स्वर्गजा‘ की संज्ञा से विभूषित किया गया एवं पश्चातवर्ती काल में अपभ्रंश होते हुये इसका नाम सरगुजा हो गया।

इस जिले के पुरातत्वीय महत्व के स्थलों में रामगढ़ स्थित जोगीमारा एवं सीतावेंगा की गुफायें तथा पहाड़ पर ही स्थित विश्व की सबसे प्राचीन नाट्यशाला है जो तीसरी दूसरी शती ईसा पूर्व की है। जिसका अभिलेखीय साक्ष्य भी है। इसके अतिरिक्त मुख्य पुरातत्वीय स्थलों में महेशपुर, लक्ष्मणगढ़, सतमहला, देवगढ़, सीतामढ़ी, हरचौका, बेलसर, एवं डीपाडीह है। परंतु ये सभी स्थल पुरातत्वीय संपदा से सम्पन्न होते हुये भी रामगढ़ की विश्व विख्यात कीर्ति के समक्ष अपनी पहचान व महत्व के लिये उपेक्षित ही बने रहे।

हाल ही में मध्यप्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के आयुक्त श्री के. के. चक्रवर्ती ने इन उपेक्षित स्थलों का निरीक्षण करते हुये प्रथम दृष्टया डीपाडीह को पुरातत्वीय अन्वेषण का केंद्र बनाया। यहां के टीलों में दबे पड़े मंदिरों, मूर्तियों, परावशेषों को अनावृत्त करने हेतु राज्य पुरातत्व विभाग के अधिकारियों द्वारा मलवा सफाई का कार्य उनके निर्देशन में जारी है।

ग्राम डीपाडीह जिला मुख्यालय अंबिकापुर से ७३ कि.मी. उत्तर की ओर स्थित है जो कुसमी तहसील के अंतर्गत आता है। डीपाडीह की स्थिति अत्यन्त मनोरम है. चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ तथा कन्हर, सूर्या तथा गलफुल्ला नदियों के संगम के किनारे बसा है। जहां सूर्या नदी का पानी गर्म है वहीं कन्हर एवं गलफुल्ला नदियों का पानी ठंडा है। समुद्रतल से डीपाडीह की ऊंचाई लगभग २९०० फीट है जिस से यहां का मौसम काफी सुहावना रहता है।

ग्राम डीपाडीह से करीब २ कि.मी. पर शाल वृक्षों के घने झुंडों के मध्य मुख्य रूप से शिव मंदिरों के करीब २० टीले एवं एक बावली है। इस स्थल को यहां के लोग सामत सरना कहते हैं। यहां की प्रचलित लोक-कथा के अनुसार बिहार प्रांत के टांगीनाथ से यहां के सामत या सम्मत राजा का युद्ध हुआ था जिसमें टांगीनाथ ने अपनी कुल्हाड़ी फेंककर सामत राजा पर वार किया और वह यहीं वीरगति को प्राप्त हुये थे, जिनकी यहां स्थित विशाल प्रतिमा को लोग पूजते हैं। वस्तुतः यह परशुधर शिव की प्रतिमा है जो कालक्रम में कई भागों में भग्न हो गई जिसे ग्रामवासियों द्वारा इस स्थल के विविध टीलों (मंदिरों के) से अलंकृत प्रस्तर खंड व प्रतिमाएं लाकर घेरकर एक लघु मढ़िया का रूप दे दिया है तथा सामत राजा के नाम से इन्हें पूजते हैं व आदिवासी लोग यहां अपने समाज की बैठकें किया करते हैं।

सामत सरना में टीलों के ऊपर भी प्रतिमाएं यत्र-तत्र बिखरी है जिनमें गणेश, भैरव, वीरभद्र, शिवगण, नदी-देवी, महिषासुरमर्दिनी, चामुण्डा व विविध शिल्पखंड प्रमुख हैं।

सामत सरना से थोड़ा आगे उरांवटोली (उरांव लोगों की बस्ती) स्थित है। सामत सरना एवं उरांव टोली के मध्य करीब ७-८ टीले तथा एक पक्का रानी तालाब भी है। सामत सरना से करीब १ कि.मी. पश्चिम की ओर कन्हर नदी के किनारे भी दो मंदिरों के भग्नावशेष हैं जिस में मंदिरों की द्वार चौखटें तथा अलंकृत शिल्पखंड यत्र तत्र बिखरे हुये हैं।

इस प्रकार डीपाडीह के ४-५ कि. मी. के क्षेत्रफल में करीब ३० मंदिरों के टीले हैं जो स्पष्टतया डीपाडीह के मंदिरों का नगर होना प्रमाणित करते हैं। अभी तक डीपाडीह के उरांवटोली स्थित एक विशाल टीले तथा सामत सरना के ३ टीलों की मलवा सफाई कार्य संपन्न हुये हैं जिनसे मंदिर के वास्तु एवं प्रतिमा विधान के नये आयाम स्थापित हुये हैं।

उरांवटोली जो कन्हर एवं गलफुल्ला नदियों संगम के समीप स्थित है, के विशाल टीले की मलवा सफाई में शिवमंदिर के ध्वंसावशेष प्रकाश में आये हैं। मंदिर का शिखर एवं मंडप भाग पूर्णतः धराशायी हो चुके हैं मंदिर की जगती एवं अधिष्ठान अपने मूलरूप में अनावृत्त हुये हैं।

मंदिर निर्माण योजनानुसार एक विशाल चबूतरे पर जिसमें मंडप, अंतराल एवं गर्भगृह तीनों अंग स्पष्ट हुये हैं। पूर्वाभिमुख इस मंदिर के मंडप में तीन सीढ़ी चढ़कर पहुंचते हैं। मंडप १६ स्तंभों पर आधारित रहा होगा। चार स्तंभों की तीन पंक्तियां हैं जिनकी कुंभियां अपने मूल स्थान पर हैं तथा उत्तर व दक्षिण दिशा में दो दो दीवाल स्तंभ हैं।

अंतराल खंड में एक एक शार्दूल प्रतिमा शार्दूल मंडप में स्थापित थी जिसमें एक शार्दूल मंडप में रखा पाया गया है। अंतराल की उत्तरी दिशा में नदी देवी गंगा तथा दक्षिणी दिशा में यमुना की प्रतिमायें प्रदर्शित थी जो वर्तमान में मूल स्थान से हटकर पायी गयी हैं। मात्र गंगा की प्रतिमा का निचला खंड भाग मूल स्थान पर है।

मंदिर की द्वार चौखट में मात्र दो द्वार शाखायें हैं जिनमें विद्याधरों का पुष्पहार लिये अंकन है। इस प्रकार का अंकन राजिम (रायपुर) एवं मल्हार (बिलासपुर) के मंदिरों में भी पाया गया है। 

मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार है तथा बीच में स्लेटी प्रस्तर का विशाल शिवलिंग गोलाकार जलहरी सहित मूल स्थान पर भग्नावस्था में स्थापित है। 

मंदिर की बाह्य भित्ति पर खुरभाग में गोधा, सर्प, विच्छू, केला खाते बंदर, सर्प, मयूर, युद्ध, कमंडलु, व दंड को एक ओर रखे उपासक की लेटे हुये तथा मुक्तालड़ी युक्त मयूरों आदि का अंकन है। सामान्यतया छत्तीसगढ़ क्षेत्र में इस प्रकार का अंकन नगण्य है। मालवा की परमार कला में ही ऐसा अंकन पाते हैं। मंदिर के जंघा भाग पर कमलफुल्लों, पुरुष शीर्ष, चैत्यगवाक्ष में उमा महेश्वर युगल आदि का अंकन है। 

इस मंदिर की मलवा सफाई में प्राप्त प्रतिमाओं में दंडधारिणी कीचक, नदी देवी गंगा, एक सिर दो धड़ युक्त सिंह, मिथुन युगल, अर्ध उत्कटासन में बैठा पुरुष, चैत्य गवाक्ष में सूर्य, कुत्ते पर सवार त्रिशूल लिये भैरव तथा नक्काशीदार शिल्पावशेष प्रमुख हैं। 

यह मंदिर मूर्तिविद्या एवं स्थापत्य के आधार पर लगभग ८वीं शती ई. के उत्तरार्द्ध में निर्मित प्रतीत होता है। 

सामत सरना स्थित विशाल टीले की मलवा सफाई के पश्चात् इसका वर्गाकार गर्भगृह, द्वारचौखट, वर्गाकार मंडप, विशाल एवं अद्वितीय प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। इसी के सामने ध्वस्त आयताकार नंदी मंडप मिला है जिसमें अतिसुंदर एवं विशाल नदी का भक्तिभाव से अपने आराध्य एवं स्वामी शिव की ओर निहारते हुये रखा है। मलवा सफाई में निकले इस शिव मंदिर की जगती दोहरे चबूतरे युक्त है तथा ऊंचे चबूतरे पर मंडप की दीवार बनी है।


यह पूर्वाभिमुख सप्तरथयुक्त मंदिर विशाल वर्गाकार मंडप, अन्तराल तथा गर्भगृह इन तीन अंगों वाला है। वर्गाकार मंडप आठ स्तंभों पर आधारित रहा है जिसके दो स्तंभों की कुंभियां अपने मूल स्थान पर है। मंडप से प्राप्त दो स्तंभों पर जो गोलाकार है, नीचे से ऊपर तक चारों ओर मान्मथ अंकन है। मंडप के उत्तरी एवं दक्षिणी भित्ति से लगी प्रतिमाओं के ४-४ पादमूल (पेडेस्टल) पाये गये हैं जिनमें उत्तरी भित्ति के केवल दो पादमूलों पर १० भुजी महिषासुर मर्दिनी, १० भुजी भैरव, प्रतिमा प्रदर्शित पायी गयी तथा दक्षिणी भित्ति के एक पदमूल पर गौरी की (दो भागों में विभक्त) प्रतिमा है। पूर्वी भित्ति के प्रवेश द्वार के दोनों ओर भी एक- एक पादमूल पर क्रमशः नृवराह तथा कल्याण सुंदर मूर्ति (शिव विवाह दृश्य का आधा खंड भाग ही) प्रदर्शित है। इस प्रतिमा में ब्रम्हा को पुरोहित का कार्य करते एवं अग्नि द्वारा भी मानव रूप में विवाह दृश्य देखने का लोभसंवरण न कर पाना स्पष्टतः अंकित है। गणेश एवं कार्तिकेय भी विवाह में उपस्थित हैं व नंदी भी प्रसन्न होकर निहार रहा है। 

मंदिर के अंतराल एवं गर्भगृह में प्रविष्ट होने हेतु प्रस्तर निर्मित विशाल द्वार चौखट है जिसका उदुम्बर अपने मूल स्थान पर है जिसमें मध्य में चंद्रशिला अर्धपद्माकृति में है तथा दोनों ओर ढाल तलवार लिये योद्धा एवं गज पर पीछे से हमला करते हुये सिंह का अंकन है। प्रवेशद्वार की द्वार शाखायें त्रिशाल हैं। दायीं ओर की द्वारशाखा में वाहन मकर पर सवार नदी देवी गंगा का अनुचरों सहित अंकन है बीच में वानर एवं ऊपर वीणाधारिणी बनी है तथा लता पत्रावली का सुरुचिपूर्ण अंकन है। ऐसा ही अंकन बायीं ओर की द्वारशाखा नदी देवी यमुना वाहन कच्छप के अंकन सहित है। सिरदल भी त्रिशाख है मध्य में गजलक्ष्मी का अंकन है तथा दोनों ओर माला लिये विद्याधरों का अंकन है। दायें किनारे पर नंदी पर आरूढ़ चतुर्भुजी नृत्य शिव तथा बायीं ओर चर्तुभुजी परशुधर शिव अंकित है। ऊपर व नीचे के शाख पर लता-पत्रावली का अंकन है।

वर्गाकार गर्भगृह के बीच में चौकोर जलहरी के मध्य विशाल सिलेटी प्रस्तर का भग्न शिवलिंग है। मलवा सफाई में मंदिर के मंडप की बाहय भित्तियों के पास नृत्यगणेश, कार्तिकेय, विराट स्वरूप विष्णु, ब्रम्हा की अतिसुंदर एवं विशालकाय प्रतिमायें पायी गयी हैं जो समानुपातिक एवं कलात्मक हैं तथा गर्भगृह की बाह्य भित्तियों के मलवे में गौरी प्लेक एवं विविध देव सिर, अर्धनारीश्वर, भैरव, शिव, विष्णु उमा-महेश्वर, शिवगण, सूर्य, शार्दूल, गणेश आदि की प्रतिमायें व प्रतिमा खंड मिले हैं।

इस शिव मंदिर का चबूतरा जगती एवं अधिष्ठान मलवा सफाई में प्रकाश में आये हैं। अधिष्ठान में पद्मपत्र अलंकरण युक्त अधिष्ठान बंध है। अधिष्ठान बंध के ऊपर जंघाभाग में लघु स्तंभों पर आधारित मंडपिकाओं का अंकन है जिनके छाद्य में कमल पत्रों पर लघु कलशों का अंकन है। इनके ऊपर मध्य रथिका में चैत्य गवाक्ष का क्रमिक अंकन है। अधिष्ठान बंध के ऊपर कुड्य स्तंभों से बनी मंडपिकाओं पर बीच में बने पद्म अलंकरण युक्त दो घंटों के दोनों ओर सिंह (शार्दूल) अंकन है। यह अंकन मंदिर की तीनों ओर की बाह्य भित्ति पर हुआ है उत्तरी दिशा में अधिष्ठान बंध में कीर्तिमुख अंकन युक्त जलहरी बनी है।

इस मंदिर का शिखर एवं मंडप पूर्णतः धराशायी हो चुका है जिनके भग्नावशेष एवं शिल्पखंड चारों ओर पाये गये हैं। प्रतिमाओं एवं स्थापत्य विधा को देखते हुये इस मंदिर का काल लगभग ९वीं शती ई. का निर्धारित होता है। इस मंदिर के दक्षिणी पार्श्व में ५-६ लघु मंदिर, लघु शिवलिंग की स्थापना सहित चबूतरे पर स्थापित हैं।


सामत सारना स्थित मुख्य शिव मंदिर के उत्तरी पार्श्व में तीन गर्भगृह वाला मंदिर समूह मलवा सफाई में निकला है जो पूर्वाभिमुख हैं तथा एक दीवाल से दो भागों में विभक्त है जिस से एक मंडप व एक गर्भगृह का एक मंदिर तथा एक मंडप दो गर्भगृह के दो मंदिर के रूप में यह दीवाल विभक्त करती है। ये मंदिर समूह मात्र अधिष्ठान तक ही चारों ओर है शेष भाग पूर्णतः ध्वस्त हो चुका है।

दक्षिणी ओर के एक गर्भगृह वाले मंदिर का प्रवेश सादा सिल पर है, जिस पर पूर्व में द्वारशाखा रही होगी। मंडप वर्गाकार है जिसमें ४ कुंभियां अपने मूल स्थान पर है पर स्तंभ नहीं, तथा दीवारों के किनारे दो प्रतिमाओं के पादमूल है पर प्रतिमायें नहीं हैं। मंडप के दोनों ओर दीवारें मात्र एक मीटर तक ही ऊंची हैं। आयताकार अंतराल भाग में दक्षिणी ओर शिव एवं उत्तरी ओर चतुर्भुजी शिव की स्थानक भग्नसिर प्रतिमायें पादमूल पर स्थापित हैं।

इस शिव मंदिर के गर्भगृह की द्वारशाखा में दायीं ओर कूर्मवाहना नदी देवी यमुना एवं बायीं ओर नदी देवी गंगा है जिसके वाहन का अंकन पादमूल पर नहीं हुआ है दोनों को घट एवं छत्र सहित अंकित नहीं किया गया है, पर दोनों हाथ में माला लिये सौम्य मुख मुद्रा एवं अलंकरण युक्त हैं। गंगा एक कान में चक्र कंडल एवं दूसरे में पोंगी पहने हुये हैं। यहां की काफी प्रतिमाओं के कानों में पोंगी का अंकन प्रभूत मात्रा में हुआ है। आज भी उरांव जनजाति की स्त्रियों के कानों में पोंगी पहनने का प्रचलन पाते हैं।

गर्भगृह छोटा वर्गाकार है जिसकी जलहरी ३-४ भागों में भग्न मंडप में शिवलिंग प्रतिमा सहित पायी गयी। गर्भगृह भी साल वृक्ष के कारण ध्वस्त है व करीब २ मीटर ऊंचा ही शेष है। 

इस मंदिर के बाह्य दक्षिणी पश्चिमी किनारे पर चतुर्भुजी परशुधर शिव की अद्वितीय प्रतिमा लगी है जो हाथों में नागपाश, त्रिशूल, अक्षमाला तथा परशु लिये हैं तथा उनका दायां पैर परशु पर रखा है। पीछे पर्वत का अंकन है तथा शिव की जटायें लहराते हुये. अंकन है। यह प्रतिभा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण मूर्ति है।

मूर्तिविद्या एवं स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर व प्रतिमायें ८ वीं शती ई. की निर्धारित की गयी है। 

इस मंदिर के उत्तरी पार्श्व में दो गर्भगृह एवं एक मंडप युक्त शिव मंदिर मलवा सफाई में निकाला गया है। पहले मंदिर की तरह इन दोनों के गर्भगृह भी एक ही सीध में हैं। ये दोनों भी साल वृक्ष के कारण ध्वस्त हैं। इसका मंडप आयताकार हैं जिसमें ४ स्तंभों की कंुभियां मंडप के मध्य हैं पर स्तंभ प्राप्त नहीं हुये हैं। मध्य मंडप का धरातल कुछ ऊंचा है मंडप के दोनों ओर की दीवालें मात्र १ मीटर ही ऊंची हैं मंडप की उत्तरी दीवारों एवं दक्षिणी से लगी ४ प्रतिमाओं में से तीन ही पायी गयी हैं। जो ठीक आमने सामने हैं। दक्षिणी दीवाल से लगी चतुर्भुजी नृत्यगणेश एवं समपाद स्थानक विष्णु की प्रतिमायें हैं इन दोनों के सिर भग्न हैं। उत्तरी दीवाल से लगी नृत्य गणेश प्रतिमा के ठीक सामने सूर्य प्रतिमा का निचला भाग है जिस में गमबूट पहने पैरों व नीचे सप्त अश्वों का अंकन मात्र ही है। चौथी प्रतिमा का मात्र पाद्मूल ही शेष है। 

पहले गर्भगृह की दायीं द्वार शाखा में नदी देवी यमुना को वाहन कूर्म पर सवार एवं हाथ में माला लिये अंकन है। यमुना बांयें कान में पोंगी व दांयें में चक्र कुंडल पहने हैं तथा केयूर, कंकण, हार, पाजेब आदि अलंकरण भी धारण किये हैं। बायीं द्वारशाखा की नदी देवी गंगा मूल स्थान पर नहीं है। मात्र सादा पादमूल ही है। सादा गर्भगृह लघु एवं वर्गाकार है पर ध्वस्तावस्था में है। इसके पार्श्व के दूसरे गर्भगृह का उत्तरी भाग ध्वस्त है जिसकी दायीं ओर की सादा द्वारशाखा ही शेष है।

केवल एक शिवलिंग एवं जलहरी (भग्न) ही इस मंडप में मलवा सफाई में प्राप्त हुई है।

पूर्व मंदिर की तरह यह भी कालक्रम में ८वीं शती ई. का है।

मंदिर समूह के ठीक पीछे पश्चिम में स्थित टीले की मलवा सफाई में चारों कोनों पर चार छोटे मंदिर अवशेष अनावृत्त हुये हैं जिनमें छोटे छोटे खंडों में शिवलिंग स्थापित है। मध्य टीले से मुख्य मंदिर एवं उसके चारों ओर पक्के फर्श का प्रदक्षिणा पथ प्रकाश में आया है जिसके मध्य में मंडप रहा है तथा यह मंदिर उत्तराभिमुख है। गर्भगृह के मध्य चामुंडा प्रतिमा तीन भागों में भग्न प्राप्त हुई है। इसका पादमूल सादा आयताकार प्रणालिका युक्त पाया गया है जबकि प्रणालिका शिवलिंग वाले मंदिरों में ही पायी जाती हैं। 

चबूतरे पर चारों ओर निर्मित लघु मंदिर एवं मध्य में प्रमुख मंदिर युक्त यह पंचायतन मंदिर भी ८वीं शती ई. का है। 

यहां के शेष टीलों का मलवा सफाई कार्य जारी है।

डीपाडीह के पूर्वाेत्तर में करीब २ कि. मी. पर चैला पहाड़ है जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यहां पर प्राचीन शिल्पकारों ने पहाड़ से चट्टान काटकर शिल्पाकृतियां तैयार की थी तथा यहीं से ले जाकर डीपाडीह के सामत सरना व उरांव टोली के मंदिरों का निर्माण एवं मूर्तियां स्थापित की गयी।

इस पहाड़ को तीन स्तरों में काटकर शिल्पियों ने समतल स्थान तैयार किये व शिल्पांकन किया। इनका नीचे से ऊपर की ओर क्रमिक स्तरीकरण पाते हैं निचले स्तर पर शिल्पांकन चिन्ह, मध्य स्तर पर एक स्थल पर ‘ॐ नमः विश्वकर्मायः‘ अभिलेख तथा बालि सुग्रीव युद्ध, हाथी, पुरुष, वज्र आदि का अंकन तथा ऊपर के स्तर पर अनगढ़ कुबेर, नंदी आदि की प्रतिमायें व शिल्पांकन चिन्ह पाये गये हैं। इन तीनों स्तरों पर चट्टानों, पत्थरों की छीलन व सादा सपाट कार्य करने के चबूतरे ऐसी झलक देते हैं कि शिल्पी कार्य करके अभी ही गये हों।

- वेद प्रकाश नगायच

Friday, December 2, 2022

बिलासपुर भास्कर: कल, आज और कल

सितंबर 2022, पहला हफ्ता। रात साढ़े दस बज गए हैं, फोन आता है। यह अक्सर अखबार वालों के फोन का समय होता है, फोन पर बात पूरी करने के बाद बता-दुहरा दिया करता हूं कि नींद से उठकर बात कर रहा हूं और ‘जागते रहो‘ वाला रिटर्न गिफ्ट दूंगा, कल सुबह-सुबह फोन कर के। मगर इस बार ऐसा नहीं हुआ। फोन बिलासपुर वाले हर्ष पांडेय जी का था, दुआ-सलाम और एकाध औपचारिक बातों के साथ, बिलासपुर भास्कर प्रकाशन के 29 वर्ष पूरे होने पर पांचेक सौ शब्द में बिलासपुर कल, आज और कल, जैसा कुछ लिख कर देने का आग्रह।


बिलासपुर भास्कर के 1993 वाले आरंभिक दिनों को याद करता हूं। हमारे दफ्तर और संग्रहालय के बीच रास्ते, रेस्ट हाउस के सामने, तहसील चौक पर भास्कर प्रेस होता था। हर दूसरे चौथे दिन हमलोग, बिलासपुर के आयोजन पुरुष रामबाबू सोनथलिया जी और प्रेस के लोगों से मिलने वहां ठहर जाते। बिलासपुर भास्कर से इस तरह का पड़ोसी रिश्ता तब भी बना रहा, जब वह नार्मल स्कूल-हाई कोर्ट के सामने आ गया। यह मेरे निवास का पड़ोस था। मेरे लिए श्री बुक डिपो और कोचिंग के रास्ते के बीच। यह करीबी रिश्ता बना रहा। सुशील पाठक जैसे तब के कुछ साथी अब नहीं रहे। भास्कर परिवार के दिवाकर मुक्तिबोध, संजय द्विवेदी, अविनाश कुदेशिया, मनीष दवे से मोल-जोल बना रहा।

प्राण चड्ढा जी से लगभग रोज की मुलाकात थी। वे बरास्ते फोटोग्राफी और वन्य-जीवन, शौकिया अखबारों से जुड़े और भास्कर के संपादक रहे, सेवानिवृत्ति के बाद भी भास्कर परिवार से जुड़े रहे। छत्तीसगढ़ राज्य बनने की आहट थी, उनके और प्रेस परिवार के मशविरे पर योजना बनी कि छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विशिष्टता पर भास्कर के लिए लिखूं। शीर्षक तय हुआ ‘छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी, छत्तीसगढ़िया‘। छत्तीस दिनों में छत्तीस नोट तैयार करने थे। इनमें से बीस नोट 9 से 29 मई 1998 के बीच प्रकाशित हुए। भास्कर के प्रवीण शुक्ला जी, सुनील गुप्ता जी जैसे साथी अब संपादक हैं। इस दौरान खबर मिली की हर्ष जी ने भी सिटी चीफ से संपादक तक का सफर तय कर लिया है, उन्हें बधाई।

हर्ष जी की बात पर लगा कि इस दौरान थोड़ी आमदरफ्त और लिखना-पढ़ना हाथ में लिया हुआ है कि तुरंत नहीं कर पाया तो यह पक्का लटका रह जाएगा। इसलिए उनसे फोन पर हुई बात का ही सूत्र पकड़ कर ब्रह्म मुहूर्त में नोट्स लेने लगा। यह ध्यान में था कि लोग सामान्यतः विवरणात्मक लिखेंगे, इसलिए दुहराव न हो, कुछ अलग हो। अलग इतना भी न हो कि अप्रासंगिक हो कर, हास्यास्पद हो जाय, सहज पठनीय प्रवाहमय, अपना-अपना सा लगे। नोट पूरा करते हुए देखा कि यही 500 शब्द हो गए हैं तो बस सुबह-सुबह साढ़े छह बजे, फोन आने के आठ घंटे बाद, जिसमें लगभग सात घंटे नींद के थे, जो रिटर्न गिफ्ट वाट्सएप पर भेजा वही यहां-

बिलासपुर: कल आज और कल

छत्तीसगढ़ के दोनों प्रमुख शहर, रायपुर और बिलासपुर से मेरा ताल्लुक लगभग बराबर रहा है। शहरों का अपना मिजाज होता है, अपनी पहचान होती है और वह सिर्फ भवनों, सड़कों, प्रतिष्ठानों से ही नहीं, शहर के निवासियों से अधिक होती है। बिलासपुर के आत्मीय स्वभाव और रायपुर के कामकाजी-व्यावसायिक स्वभाव को फोन पर होने वाली बात से समझने का प्रयास करें। रायपुर में अभिवादन और कुशल-क्षेम के बाद फोन करने वाला, फोन करने के प्रयोजन पर न आए तो अगला उससे पूछ लेता है, ‘अच्छा, ठीक है, बताओ फोन कैसे किया?‘ दूसरी तरफ ठेठ बिलासपुर के फोन वार्तालाप में दो-चार मिनट देश-दुनिया, आगत-विगत की बात होती है और कई बार तो विदा भी, तब दूसरी बार फोन आता है कि ‘असल में फोन इसलिए किया था ...‘। यह पहचान किसी व्यक्ति-विशेष के गुण-दोष से नहीं, समय के साथ, अपने-आप, शहर की अपनी पहचान-‘सिगनेचर‘ जैसा विकसित होता है। मेरे लिए बिलासपुर, एक ऐसा ही आत्मीय शहर है।

शहरों के साथ इतिहास का वैसा आग्रह उचित नहीं होता कि उसके शिलान्यास और लोकार्पण की तिथि और मुख्य अतिथि निर्धारित करने लगें। उसका तो वैसा ही होना फभता है, जैसा बिलासपुर के साथ है, यानि आस्था और विश्वास से सराबोर मान्यता-दंतकथा। बिलासपुर, रतनपुर राज का कैम्प रहा, वहां जाजल्लदेव जैसे राजा भी हुए, जिनके नाम पत्थर पर खुदे हैं, प्राचीन राजधानी महामाया मंदिर के साथ वाहरसाय के नाम का शिलालेख है, मगर वह पत्थरों पर खुदी इबारत बन कर जड़ है। दूसरी तरफ, गोपालराय बिंझिया या गोपल्ला वीर और कल्याण साय का नाम, लोगों के मन-प्राण और जबान पर रहा, अमूर्त, और चला आ रहा है। कह सकते हैं- तू कहता पत्थर की लेखी, मगर आंखों की देखी हो न हो, मन में तो बसी और कायम है, ऐसा ही जीवन-स्पंदन नाम है ‘बिलासा‘, जिससे बिलासपुर शहर की धड़कन और असल पहचान है।

अरपा और जवाली नाले का संगम बसाहट का मंच बना। अरपा के दाहिने और जवाली के दाहिने, जुना बिलासपुर के साथ किला वार्ड, तो जवाली के बांयें शनिचरी पड़ाव। पहले-पहल तीन मालगुजारी गांव- बिलासपुर, चांटा और कुधुरडांड, यानि अब के जुना बिलासपुर, चांटापारा और कुदुदंड मिलकर आधुनिक बिलासपुर बने। रेलवे के साथ पेट्रोलियम डिपो, डीपूपारा बना, रेलवे की ही सीमा पर तार-घेरा के दूसरी ओर तारबाहर और चहारदीवारी सीमा के बाहर देवालबंद या दयालबंद। कतियापारा, गोंडपारा, तेलीपारा, घसियापारा, करबला, टिकरापारा, मसानगंज पर नगर, वार्ड, कॉलोनी की परतें चढ़ने लगीं और एसईसीएल, रेल-जोन, संस्कारधानी, न्यायधानी नई पहचान बनी। मगर शहर के दिल की आदिम धड़कन, जो जुना बिलासपुर और गोलबाजार-गोंडपारा में थी, सरकंडा तक फैल गई अब भी उसी तरह यहीं धड़कती है। खांटी बिलसपुरिहा भाषा और लहजे से जान लेता है कि अगला गोंडपारा वाला है या नदी पार का। शहर का मिजाज, उसकी नब्ज आज भी यहीं आसानी से टटोली जा सकती है। फैलते शहर में शामिल होते गांव, कॉलोनी और सोसाइटी में बदलते जा रहे हैं, बदलते जाएंगे, मगर शहर की पहचान, उसकी अंतर्धारा, उसकी आत्मीय उष्मा जस की तस बनी रहे।

Wednesday, November 9, 2022

संस्कृति संवाहक सरिताएं

‘अ हो देवी गंगा‘ भोजली गीत है। मोक्षदायी गंगा पवित्र है, साथ ही 'गंगा', नदी या प्राकृतिक जलप्रवाह का पर्याय शब्द भी है। ‘अटकन बटकन ...‘ सब से लोकप्रिय बालगीतों में से एक, जिसके छत्तीसगढ़ी रूप में पंक्ति है- चल चल बेटी गंगा जाबो, गंगा ले गोदावरी।

पहाड़ी की कोख-कंदरा में पला सभ्यता-शिशु, क्रीड़ा करते तलहटी से मैदान में आ कर नदी के किनारे ठहरता है। यों सड़क और नदी, बसाहट के लिए परिवहन का रास्ता, नस-नाड़ी हैं। सड़क, स्थितिज है, जिस पर गति होती है और नदी गतिज, स्वयं भी चलायमान, जीवन-रेखा भी, संस्कृति-संवाहक।

‘छत्तीसगढ़ की संस्कृति संवाहक सरिताएं‘ राष्ट्रीय संगोष्ठी का अयोजन 16 से 18 सितंबर 2022 को संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व, छत्तीसगढ़ द्वारा घासीदास स्मारक संग्रहालय सभागार, रायपुर में किया गया। आयोजन के दूसरे दिन, छठें सत्र का संचालन डॉ. आशुतोष चौरे ने किया और अध्यक्षता, राहुल कुमार सिंह यानि मेरे जिम्मे थी। इस अवसर पर यहां प्रस्तुत मेरे वक्तव्य में थोड़ी दुरुस्ती की गई है। नदी-संगम वाले महादेव पाली का उलेला पूरा और मउहाडीह का भेड़ू प्रसंग वाला, जैसे कुछ अंश, जो समय-सीमा के कारण तब नहीं कहे गए थे, को शामिल किया गया है, मगर स्वरूप यथासंभव वक्तव्य जैसा ही रखा गया है-

आप सभी का सादर अभिवादन।

मुझे नदी पर कुछ बातें करनी थी, आयोजकों की ओर से प्रस्ताव आया कि सत्र की अध्यक्षता करूं और उसके साथ ही जोड़ कर अपनी बात कहूं। आयोजकों ने मेरे लिए यह संयोग बनाया, जो बातें कहना चाह रहा था, कुछ बातें सोन पर, कुछ हसदेव के लिए, संयोग कि उन्हीं विषयों पर इस सत्र में ज्यादातर परचे पढ़े गए। इसलिए आसानी होगी कि जो परचे पढ़े गए उन पर अलग-अलग कहने के बजाय, उनसे मिलती जुलती बातें और अपनी थोड़ी बात के साथ ... इस सत्र के निष्कर्ष तक पहुंचने का प्रयास कर रहा हूं।


आज और कल के भी सत्रों में नदियों पर चर्चा हो रही थी, उस पर विचार आ रहा था कि हम अक्सर प्रकृति और जिसमें नदी भी है, उसके साथ कभी मानों शीत युद्ध और कभी आमने सामने मुकाबिल होने का प्रयास करते हैं और ऐसे प्रकृति पर विजय पाने जैसी भावना मन में लाते हैं। हमने कई जगहों पर नदियों पर उस तरह से ‘विजय‘ पाई है। नदी हमारा राह रोकती थी, बाधक थी, हमने उस पर पुल बना दिए। नदी में बाढ़ आती थी हमने बांध बना दिए, नहर बना दिए। हमने बहुत सारे इसी तरह के काम नदी-प्रकृति पर ‘विजय‘ पाने वाले किए हैं इसलिए स्वाभाविक ही सभ्यता जो एक तरह से गुमान में रहती है कि उसने नदियों पर विजय पा ली है, हम हर साल देखते हैं कि वह नालियों से हार रही है। नालियों का पानी बरसात में घर में घुस जाता है, पूरी कॉलोनी डूब जाती है, जीवन मुश्किल हो जाता है। बैगलोर शहर की खबरें आपने देखी होंगी कि वहां क्या स्थिति हुई है, पहली बार वहां ऐसा हुआ बताया जा रहा है। बंबई की स्थिति देखिए। कोई भी महानगर ऐसा नहीं है, जहां इस तरह की स्थिति न बनती हो। जैसाकि कहा जाता है कि प्रकृति को न तो विजेय रूप में देखा जा सकता है और न ही आराध्य रूप में। आशय कि सभ्यता के क्रम में, प्रकृति में मानवीय दखल तो होगा ही, मगर वह प्रकृति के साथ मेल वाला होना चाहिए। मानव उद्यम कहीं न कहीं प्रकृति को प्रभावित तो करेगा, लेकिन सभ्यता प्रकृति के साथ जितना सहजीवन में होगी, उससे मेल वाली होगी, उसके साथ मिल कर चलेगी, विकास उतना ही सम्यक होगा, संतुलित होगा।

आपका ध्यान गया हो, यों तो कालिदास का मेघदूत, पूरा ही प्रकृति-मैत्री का काव्य है। बादल को संदेश के लिए दूत बनाया गया है। इस काव्य के दो अंशों का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा। कवि मेघ से कहता है- जब तुम वहां पहुंचकर गरजने लगोगे तो सिद्धांगनाएं घबरा कर अपने-अपने प्रियतम के गले से लिपट जाएंगी। इस घबराहट भरे आलिंगन को पा कर सिद्धजन तुम्हारा उपकार मानेंगे (पूर्वमेघ, 23)। इसी तरह जो स्त्रियां अपने यारों से मिलने के लिए घनी अंधेरी रात में निकली होंगी, उन्हें जब सड़कों पर कुछ न सूझता हो, तुम कसौटी पर सोने के समान दमकने वाली अपनी बिजली चमकाकर उन्हें रास्ता दिखाना। मगर गरजना-बरसना नहीं, वरना वे घबरा जाएंगी (पूर्वमेघ, 41)। ऐसा ही कुछ वे कुमारसंभव में भी कहते हैं कि वर्षा के समय रात की घनी अंधियारी भयावह नगर-मार्गों पर बिजली की कड़क से डर जाने वाली कामिनियों को उनके प्यारों के घर अब तुम्हारे सिवाय कौन पहुंचाएगा (सर्ग-4, 11) यही बात 1945 की फिल्म ‘मेघदूत‘ के गीतकार फैयाज हाशमी ने इस तरह कहा है- ‘देख अंधेरा, पिया मिलन को, चलेगी छुप कर कोई गोरी। बस तुम बिजली चमका कर, खोल न देना उसकी चोरी‘। पं. मुकुटधर पाण्डेय द्वारा किया गया इस अंश का छत्तीसगढ़ी समर्थ अनुवाद है- ‘उहां रात म प्रीतम के घर जावत होहीं नारी, अउ मारग म छाए होही जब बिरबिट अंधियारी। चमक, कसौटी कसे सोन कस बिजली डहर देखाबे, डर म उठि हीं झझक, गरज के झन पानी बरसाबे।। बिजली चमकने को किस मित्र-भाव से देखने की हमारी परंपरा रही है। कालिदास का ही एक और उदाहरण कुमारसंभव से, जिसमें वे कहते हैं कि जब वहां किन्नरियां शरीर पर से वस्त्र हट जाने के कारण लजाने लगती हैं, तब बादल उन गुफाओं के द्वारों पर जा कर परदा का रूप धारण कर लेते हैं (सर्ग-1, 14)।

प्रकृति, चाहे नदी हो, पहाड़ हो उसके साथ हम अपने सहजीवन को किस तरह निभाते हैं। गंगा और यमुना यहां चित्र में हैं, प्रतीक रूप में मंदिरों में, यहां मल्हार का चित्र आप देख रहे हैं। माना जाता है कि हम दर्शन के लिए जाएं तो दोनों द्वार शाख पर गंगा और यमुना की प्रतिमाएं होती हैं यह मनस-शुद्धि है, अभिषेक और स्नान उतना आवश्यक नहीं होता है जितना मनस-शुद्धि, चित्त की शुद्धि आवश्यक होती है और उसके लिए प्रतीक रूप में गंगा और यमुना, प्रत्येक मंदिर के द्वारशाख पर होती हैं। इस संगोष्ठी में भी इसी तरह पवित्र विचार आएं, इसी उद्देश्य से आयोजित किया गया है। गंगा और यमुना पर एक-दो छोटी-छोटी बातें कहना चाहूंगा, थोड़े परिप्रेक्ष्य अलग हैं।


गंगावतरण की कहानी ... शिव को गंगाधर कहा जाता है, बातें आती हैं कि पार्वती उनसे सौतिया डाह भी रखती हैं कि गंगा को सिर पर चढ़ा रखा है, किस्म की बात लोक में और अन्यथा भी आती हैं, बहुत सुंदर ढंग से आती हैं, लेकिन शिव के जटाजूट में गंगा, गंगाधर शिव की एक बहुत सुंदर व्याख्या है, वह पर्यावाण का, उस क्षेत्र उत्तर भारत का, वहां जो पतले-नुकीले पत्ते वाले वृक्ष होते हैं, बरसात-पानी के लिए मुश्किल होते हैं, क्योंकि उन पर पानी रुकता नहीं है, जैसे पतले सुलझे बाल हों। जबकि जो जटाएं हैं, शिव की जटाएं हैं वह ऐसा चौड़े पत्ते वाले पेड़ का जंगल है, जिनके कारण बरसाती पानी पत्तों पर रुककर, ठहर कर आता है। सीधे जमीन पर नहीं आता, मिटटी नहीं कटती। आजकल एक बहुत कामचलाउ शब्द इस्तेमाल होने लगा है, ग्रीन कवर, इस ग्रीन कवर में हम हरियाली, शायद अपने बगीचे की उस घास को भी मान लेते हैं, जो सिंथेटिक लॉन है। यह महत्वपूर्ण है, जब हम पर्यावरण की बात करते हैं, कि वह ग्रीन कवर किस तरह का है, वह ब्रॉड लीफ है या कि वह पाइन है। ऐसे वृक्ष जिनके पत्ते बड़े-चौड़े और घने होते हैं, जब बरसात होती है, तब पानी देर तक पत्तों पर रुका रहता है, टपकते-रिसते उतरता है, इसी तरह गंगावतरण है, शिव के जटा-जूट में ठहरती हुई आती है। ऐसे वृक्षों वाले घने वन, इस तरह पर्यावरण की रक्षा में सहायक होते हैं।

यहां किसी ने नदी के किनारे वृक्षारोपण की बात कही, वह तो अच्छी बात है, उसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन नदियों के जीवन के लिए बहुत आवश्यक होता है हम उसके उद्गम के जंगल को, जो वनस्पतियां है, उद्गम स्थल पर, उसे कायम रखा जाए। हमारे गुरुतुल्य रायकवार साहब यहां है, हमलोग जब कभी सर्वेक्षण में जाते थे तो यह मैंने उनसे सीखा है और हमारे जितने भी पुराने अधिकारी थे वे बताया करते थे कि सर्वेक्षण में नदियों के उद्गम और संगम को जरूर देखें। मुझे यह समझ में नहीं आता था, मगर बाद में लगा कि यह पवित्र माने जाते हैं, प्राचीन आस्था के केंद्र होते हैं इसलिए पुरातत्व की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण हैं हीं, हमारी संस्कृति, हमारी आस्था, हमारे पर्यावरण, इन सभी के लिए आवश्यक है। रायकवार साहब से अक्सर इस बात के लिए बहस हो जाती थी, नदी के आसपास से गुजर रहे हों तो बोलते थे कि नदी जल का स्पर्श किए बिना नहीं जाएंगे। लगता कि हम बेवजह आधे घंटे खर्च कर रहे हैं। अब मैं उसका महत्व समझ पाता हूं, उस समय अपनी नादानी से उनसे बहस कर लेता था, जबकि वे गुरु हैं, उन्होंने कई जगहों पर सिर्फ पुरातत्व ही नहीं, जीना भी सिखाया है।

एक दूसरी बात यमुना पर। यमुना के साथ बलराम भी याद आते हैं, बलराम का एक नाम संकर्षण है, कर्ष जो शब्द आता है। कर्ष का मतलब थोड़ी खींचतान, चालू भाषा में कहें, बलराम खींचतान वाले देवता हैं, हलधर, कृषि के तो देवता हैं ही, (कृष्टि, संस्कृति, संकर्षण, कृष्ण सभी शब्द कृषि से ही जुड़े बताए जाते हैं और किशन भी किसान के करीब ही है।) उनका एक उल्लेख आता है, संकर्षण नाम, क्योंकि गर्भ प्रत्यारोपण जैसी बात उनके साथ जुड़ी हुई है। उनका एक नाम यमुनाकर्ष भी है, इसलिए कि कहा जाता है कि व्याख्या होती है तो जो नारीवादी लोग हैं वे मान सकते हैं कि बलराम व्याभिचारी थे, कहा जाता है कि उन्होंने हल से या यमुना को पकड़ कर उसके साथ जबरदस्ती की और उसको मथुरा ले आए। हमारी इस तरह से पौराणिक कथाओं को देखना चाहिए, उसके प्रति जो दृष्टि होनी चाहिए। दरअसल इस पूरी कहानी में विष्णु पुराण में आई कथा सावधानीपूर्वक पढ़ें तो यह स्पष्ट है कि एक व्यक्ति जो कृषक है, जो हलधर है, वह कृषि की आवश्यकता के लिए, जल की व्यवस्था के लिए, यमुना के पानी की धारा को मोड़ कर, यमुना से कोई नहर निकालने का उद्यम कर रहा है। नारी विमर्श के नजरिए कथा पढ़ें तो लग सकता है कि बलराम ने यमुना नाम की कोई कन्या थी, उसका बलात्कार किया था। आधुनिक विमर्शवादी लोग हैं, उनसे सावधान रहने की जरूरत है। हमारी परंपरा में यह कथा प्रतीक रूप में, सुंदर ढंग से आती है।

कुछ अन्य बातें, जिन पर चर्चा हुई है, सोन की बात हो रही थी। निसंदेह अमरकंटक में सोन और मुड़ा, दो नदियां हैं, कहा जाता है कि वह सोन का उद्गम है लेकिन भूगोल के जितने भी गंभीर अध्ययन हैं, उनमें यह सिद्ध और प्रमाणित है कि सोन बचरवार, बिलासपुर से रतनपुर हो कर जो रास्ता पेंड्रा को जाता है, उस पर कारीआम के पास है, वहां सोन का उद्गम है। हम आज भी चर्चा कर रहे थे कि एक जगह उद्गम होता है फिर सूख जाता है, फिर दूसरी जगह दिखता है। नदियों के उद्गम को ले कर गड़बड़ियां होती हैं, उनकी धार्मिक आस्था को ले कर, कि उद्गम है तो वहां पर दुकानदारी बन गई, फिर उसके भी पीछे एक जगह खोज ली गई कि इसका वास्तविक उद्गम तो यहां है। मैं जब महानदी का उद्गम, मुझे आज भी स्पष्ट नहीं है, मैं भूगोल वालों से बार-बार यह समझना चाहता हूं कि महानदी का उद्गम जिस जगह को बताया जाता है, सिहावा पहाड़ी के नीचे तो मुझे दिखता है कि नदी तो उसके बहुत पीछे से आ रही है, फिर इसको उद्गम क्यों माना जाता है।

नदियों का उद्गम न सिर्फ भौगोलिक रूप से, बल्कि सांस्कृतिक रूप से ध्यान कराती है और सोन की जो बात हो रही थी, देव कुमार मिश्र जी की पुस्तक है ‘सोन के पानी का रंग‘ मेरा ख्याल है हिंदी में लिखी हुई, नदियों पर जिस व्यापक दृष्टि से और जिस समग्रता के साथ, संस्कृति हो, पुरातत्व हो, पर्यावरण हो, धार्मिक आस्था हो, विभिन्न केद्र हों ‘सोन के पानी का रंग‘, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी से प्रकाशित पुस्तक है। देवकुमार मिश्र सोन की परिक्रमा किया करते थे। नर्मदा के परिक्रमा की अक्सर, बहुत चर्चाएं होती हैं, पुस्तकें भी हैं, ढेर सारा काम हुआ है, लेकिन सोन की जिस तरह परिक्रमा और प्रकाशन हुआ है। एक बहुत सुदर प्रकाशन, जब हम पुरातत्व की बात करते हैं, जो पुरातत्व के महानिदेशक रहे हैं, राकेश तिवारी साहब, वे शौकिया तौर पर नाव चलाया करते थे, किंतु उन्होंने 62 दिन में दिल्ली से यमुना, यमुना से गंगा से कलकत्ते तक की यात्रा उन्होंने बासठ दिन में की थी, खुद अकेले नाव चलाते हुए ‘सफर एक डोंगी में डगमग‘, इस तरह का जो साहित्य रचा गया है।

ऐसे साहित्य का और इस शोध संगोष्ठी की आवश्यकता क्यों है? हम अपने नदी से रिश्तों को पुनर्जीवित करने का, जैसा मैंने कहा पुल बन गए हैं, नदी से हमारा रिश्ता, हमने नदी को जीत लिया, नदी से हमारा ताल्लुक नहीं रहा, अब हमें पुल से गुजर जाना है, नदी जब तक हमारे जीवन का हिस्सा नहीं रहेगी अभी तक जो हो रहा था, नदी कि किनारे जो अनुष्ठान होते हैं, नदी की पूजा होती है जो सबसे ज्यादा स्वाभाविक है निषाद, आस्ट्रिक कुल के आग्नेयवंशी हैं उनके लिए नदी का सबसे ज्यादा महत्व है, उनका पूरा जीवन ... एक बहुत रोचक बात है कि हम भड़भूजा कहते हैं, चना, मुर्रा, लाई हम सभी हमारे यहां आती थीं केंवटिन बेचा करती थीं, करी लड्डू, मुर्रा लड्डू, चना, मुर्रा ये सब बेचा करती थीं, एक हमारे बुजुर्ग ने कही थी, जो मेरे ध्यान में कभी नहीं आई थी, जब एक केंवट, एक निषादराज, नाव ले कर नदी में समुद्र में हेल जाता है तो उसे कितना वक्त लगेगा, वह कितने दिन बाद आएगा मालूम नहीं, खाने का क्या इंतजाम होगा पता नहीं तो हम एक बहुत ही न्यूनतम प्रासेस से, हम बिना किसी प्रिजर्वेटिव के अगर कोई खाद्य सामग्री कई दिनों तक सुरक्षित रख सकते हैं तो वह चना-मुर्रा है, इसीलिए केवटिन एक्सपर्ट होती थीं, अपने केंवट पति को चना-मुर्रा, करी लड्डू दे पाती थीं। तो ये हमारी जीवन शैली में किस तरह, ऐसी बहुत सारी बातें, कल बात हो रही थी।

बात हो रही थी बइहा पूरा या उलेला पूरा की यानि उड़ेला पूरा, जैसे पानी उड़ेल दिया गया हो। उलेला पूरा पहाड़ी नदियों में होता है। नदी पाटो-पाट बहने लगती है, और लीलागर तो ऐसी नदी है, जिसमें उलेला पूरा आता है तो पानी, पाट के बाहर तक छलकता है। एक बहुत सुंदर प्रकरण है, देवधर महंत जी अपने परचे में हसदेव नदी की चर्चा कर रहे थे। इस संदर्भ में उस गांव का नाम आना चाहिए, जहां पर हसदेव या हसदो नदी का संगम महानदी से होता है, वह गांव है मउहाडीह। छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदियों में यह नदी का संगम इसलिए विशेष उल्लेखनीय है कि वह अकेला ऐसा संगम है, जहां हसदेव नदी, महानदी पर नब्बे अंश के कोण पर मिलती है। मेरे ध्यान में और कोई दो मुख्य नदियां ऐसी नहीं हैं जो नब्बे अंश के कोण पर संगम बनाएं। हसदेव धीरे-धीरे अब बहाव की दिशा बदल रही है, पुराना कोर्स भी दिखता है, नया कोर्स भी। तेज बहाव वाली यह नदी चोर बालू के लिए भी जानी जाती है। लोग बताते हैं कि कोरबा में दर्री बराज बन जाने के बाद बहाव की दिशा भी बदली और पूरा भी तभी आता है, जब गेट खोल दिया जाता है। हसदेव अपने बायीं ओर मउहाडीह की जमीन, मरार समाज के लोग हैं, वे लोग परेशान होते हैं, जमीन कटती है, पट्टा दिया जाता है। बहुत रोचक कि नदी हमारे जीवन का हिस्सा कैसे है, हम जब वहां गए थे, कुछ पुरातात्विक सामग्री और विद्यालय की बात जो महंत जी अपने परचे में कही, मउहाडीह ऐसा गांव था, जहां लगभग सौ साल पहले टेलीफोन की लाइन थी, और उसका कारण कि वहां पुराना चर्च था, उसकी बुनियाद आज भी वहां बची है। हमलोगों ने वहां से बिलासपुर संग्रहालय के लिए दुर्लभ ‘लज्जा-गौरी की प्रतिमा संग्रह की।

वहां एक बुजुर्ग से हमारी मुलाकात हुई। नदी कैसे हमारे जीवन का हिस्सा है, उन्होंने बहुत सारी बातें बताई उसमें से एक रोचक बात थी, जब हमने हसदेव और महानदी की बात कही तो उन्होंने ... देखिए एक साहित्यिक व्यक्ति होता तो कहता कि महानदी धीरा है, गंभीरा है, मैदानी क्षेत्र से आती है, लेकिन हसदेव पहाड़ी क्षेत्र से मैदान में आती है, उसके बाद बांगो हसदेव बांध है, आदि ... मगर यहां मिले वे याद कर रहे थे उसके पहले के समय को हम नदी को क्या महसूस करते हैं, हम तो कुछ देर समझ नहीं पाए उनकी बात को, वो बताने लगे हमन बसे हन हमन ल घुंचे बर परथे, अउ पानी चउमास म तो का बर, दुनों बहुरिया के झगरा, हमने पूछा क्या बहुरिया के झगरा, कहा कि बड़की हर तो थिराए रथे, बड़की हर नइ रिसावय, कतको कहिबे ओ हर सहत रथे, बिचारी बड़की हर। छोटकी फनफनही हे, एक घरी होइस तहां फनफन फनफन। बड़की बिचारी हर जतका सहे सकथे सहथे, लेकिन ओहू हर तो आखिर एक झन आदमिच्च आय। सहत सहत म कभू ओ कर मिजाज बिगड़ गे, त हमन कथन अब जी नइ बांहचय। अब दुनो बहुरिया के फदक गे। होता यह है कि तेज ढलान वाले उफनते हसदेव का पानी, आसानी से महानदी के चौड़े पाट में समाहित होता जाता है, मगर महानदी भी बढ़ी रही, तो पानी का ठेल, उलट मारता है और हसदेव अपने बायें तट पर दूर तक डुबाती-फैलती जाती है।

प्रसंगवश, यही कोई पैंतीस साल पुरानी दो घटना। दोनों महानदी की। एक मांद का संगम और दूसरा हसदेव संगम।

किसी बरसाती सुबह हमलोगों ने राह पकड़ी बालपुर की। मंजिल थी, पं. लोचन प्रसाद और पं. मुकुटधर जी का गांव। चंदरपुर पहुंचने के पहले ही रास्ते में लोगों ने बताया ऐसी बरसात है, नाले पूर होंगे, वहां तक नहीं पहुंच पाएंगे। हम आगे बढ़ते गए। महादेव पाली से आगे नाले ने रास्ता रोक लिया तो वापस महादेव पाली आ कर वहीं काम से लग गए। नाम रोचक था, महादेव और पाली भी। पूछताछ करते हुए पुराने अवशेषों की जानकारी मिली। प्राचीन कलात्मक स्थापत्य खंड मिल गए। बताया गया कि कुछ अवशेष नदी में अंदर भी हैं। इस तरफ नदी का पाट काफी उंचा था, मगर बांयें पाट से एक स्थान पर नदी में उतरने का रास्ता था, पानी बरस जाने के कारण, फिसलन भरा। किसी तरह नदी में उतरे। नदी के पाट की चौड़ाई में दो तिहाई रेत, उसके बाद महानदी संगगम की दिशा में एक तिहाई चौड़ाई में छिछली धारा। दाहिनी ओर पुल, जिसे पार कर महादेव पाली आए थे। कैमरा साथ था, तस्वीरें ले रहे थे, एक बुजुर्ग महिला नाराज हुई कि फोटो ले रहे हैं, कहीं-कहीं यह माना जाता है कि जिसकी फोटो उतारी जाती है, चित्र या पुतला बनाया जाता है, उसके साथ अनिष्ट होता है, उसकी उम्र कम हो जाती है। रेत-रेत काफी आगे जा कर पानी की धारा थी। कुछ आगे एक जगह थोड़े पत्थर इकट्ठे थे। कोई खास बात नहीं थी। चहलकदमी करते लौटने लगे। जल-प्रवाह का स्पर्श किया।

रायकवार जी ने तटस्थ भाव से, लेकिन भविष्यवाणी की तरह कहा नदी का पानी बढ़ रहा है। ध्यान से देखने पर समझ में आया, सचमुच पानी बढ़ रहा था, बहुत धीरे-धीरे। फिर उनकी दूसरी भविष्यवाणी हुई, हमें बाहर निकल जाना चाहिए, पानी तेजी से बढ़ सकता है। हमलोगों ने समझना चाहा कि ऐसा वे किस आधार पर कह रहे हैं। उन्होंने बताया कि बुलबुले तेजी से आ रहे हैं, हमें सावधानी बरतनी चाहिए। हंसी-ठिठोली होती रही, कि अचानक दूर पाट के उपर पेड़ पर चढ़े दो लड़के चिल्लाने लगे, अफरा-तफरी मच गई, हमें कुछ समझ में आए तब तक देखा कि हमारे साथ आ गया एक कुत्ता किनारे की ओर भाग रहा है। ध्यान गया, नदी का पाट सात-आठ फुट पानी सर्पफण लहरों के साथ भरता, घरघराता, गर्जन करता आ रहा है। सारे खतरे-आशंकाओं के बावजूद रायकवार जी, कैमरा के अपरचर पर राय करना चाह रहे थे और क्लिक कर के ही माने। सब के सब जान बचा कर भागे, स्थानीय मांझी-मल्लाहों की मदद से किसी तरह बाहर निकल पाए। वापस आ कर देखा कि हम नदी में जिस जगह पानी में बुलबुले आता देख रहे थे अब वहां पांच-सात फुट पानी था। बुजुर्ग महिला अब फिर से बड़बड़ाने लगी। किसी साथी ने पूछा कि न निकल पाले तो क्या होता, उन्होंने सहज भाव से कहा, कल आफिस बंगाल की खाड़ी में लगता।

दूसरा प्रसंग मउहाडीह का है, अधिकतर मरार जाति के सौ-एक परिवार का गांव। तिवारी जी मिले, इसी गांव के बाशिंदे। सब्जी-बाड़ी वाले मरार, जिनका उत्पादन वाया बिर्रा, कोरबा जाता हैै। हसदेव के बहाव की दिशा बदलने से इस गांव के सैकड़ों एकड़ जमीन नदी में समा गई है। गांव वालों ने बताया कि कोरबा के दर्री बराज की तैयारी में सन 1965-66 में पूरी बस्ती नदी के दूसरे पाट पर केरा गांव में जमीन पट्टा दे कर बसाई गई थी, मगर बात न बनी। इनलोगों को ठीक-ठीक पता नहीं कि उनका गांव, अब सरकारी रिकार्ड में है या नहीं और वे खुद कागजों में केरा में हैं, अपने गांव में या पड़ोस के गांव सिलादेही में। फिर गांव वाले 1980 की बाढ़ याद करते हैं, शायद बिना पूर्व सूचना के दर्री बराज के गेट खोल दिए गए और यह पूरी बस्ती दसेक दिन के लिए जल-मग्न हो गई थी, तब बिर्रा वालों ने आसरा दिया था। तिवारी जी बइहा पूरा और उसके साथ ‘भेंड़ू‘ ले कर उफनती नदी में हेल जाने का किस्सा सुनाने लगे। चाय, हमारे मना करने पर भी तय कर दिया दूध वाली, कम शक्कर की। भेंड़ू, सेमल की लकड़ी का तख्ता होता है, ‘फ्लोट बोर्ड‘, फाउंटेन पेन की निब के आकार का, लगभग चार फुट लंबा। एक बालक को कहते हैं और वह हमें दिखाने के लिए भेंड़ू दिखाने के लिए दौड़कर जाता है और भेंड़ू ले कर वापस आ जाता है। बाढ़ की मुश्किलों के साथ, उससे जूझने के आनंद की भी स्मृतियां कम नहीं हैं। बगल में बैठे बुजुर्ग की ओर इशारा कर बताते हैं, देखिए ‘पूरा‘ सुन कर कैसे इनकी आंखों में चमक आ गई है, अभी भी बाढ़ आ जाए तो कमर में रस्सी बांध, भेंड़ू ले कर बौराई नदी में छलांग लगा देंगे।

फिर बताने लगे कि किस तरह कोरिया राज के बड़े-बड़े पेड़ और ढेर कुछ बाढ़ में बह कर आता था। गांव के लोग भेंड़ू ले कर नदी में समा जाते और बह कर आ रह पेड़ के साथ बहते, कमर की रस्सी खोल उसे बांध लेते और भेंड़ू से चिपके तैरते-उतराते, मील-दो मील बहते धीरे-धीरे किनारे लगते। जमीन छूते ही टिक जाते। फिर आसपास जिस गांव में होते वहां के लोगों की मदद ले कर गाड़ा-भंइसा में सामान लाद कर गांव वापस लौटते। गड़हा को आग्रहपूर्वक एक रात रोक लेते, खाना-पीना होता फिर विदा। सामान्यतः नदी बहाव की दिशा में नीचे के निवासी, उपर वालों को अग्रज की तरह सम्मान देते हैं और उपर वाले उन पर, अनुज की तरह स्नेह लुटाते हैं। हमने पूछा बाढ़ में और क्या-क्या बह कर आता था। इस पर तिवारी जी ने याद किया कि एक बार किसी दुकानदार का पचासों टीपा तेल-घी बह कर आया था। कई भेंड़ू-वीर, भिड़ गए और सारा कुछ बचा लिया। तीन-चार दिन बाद व्यापारी अपना माल पता करते आया, तो उसे सारा माल लौटा दिया। कुछ टीपा खर्च हो गया था, बताने पर व्यापारी ने उतना ही और छोड़ दिया, बाकी माल ले कर वापस लौटा। फिर याद किया कि कभी एक बछिया बहते हुए आ गई थी, किसी तरह उसकी जान बची, मगर उसे लेने उसका मालिक नहीं आया, गांव में ही रह गई। तब तक चाय आ गई थी, पंडित जी ने कहानी को नाटकीय ट्विस्ट वाला क्लाइमेक्स दिया कि उसी बछिया के पीढ़ी के दूध की चाय आपलोग पी रहे हैं।

यहां पढ़े गए परचों में चर्चा हो रही थी, उस संदर्भ में एक जरूरी नाम, ठाकुर जगमोहन सिंह का है। वे शिवरीनारायण में तहसीलदार थे, महानदी में 21, 22 और 23 जून 1885 को आई बाढ़, जिसे उन्होंने बूड़ा या पूर कहा है, ‘प्रलय‘ शीर्षक लंबी कविता रची, जिसमें में तिथि बताई है- ‘रविवासर उजियार जेठ मास दूजो सुभग। ईकइस जून विचार सन पचासी-आठ दस।‘ इसी तरह महानदी के उससे भी पहले (1835?) के बड़ा पूर-बाढ़ का उल्लेख राजिम में दो पंक्तियों के शिलालेख में मिलता है- ‘जे दिन वियापेउ अंम्बु छुटत शिव गिरि गहि रहैउ जगतिराउ तहं षंभ, शंभु सुषासन रहेउ तहं।‘ बताया जाता है कि बड़ा पूर आने पर मंदिा में रहने वाले साधु ने पेड़ पर तीन दिन काटे थे और जिसे याद करते यह लेख खुदवाया था। ऐतिहासिक तथ्य है कि खरौद परगना, जो शिवरीनारायण तहसील बना था, 1891 में जांजगीर तहसील बना। इसी तरह सिमगा 1906 तक तहसील था, वह शिवनाथ नदी से प्रभावित होने के कारण बदल कर बलौदा बाजार चला गया।


और बात हो रही थी जोंक नदी की, खारुन नदी की। एक दौर था, जब नदियों की यात्रा, खारुन नदी की यात्रा, पेटेचुवां से सोमनाथ तक यात्रा की गई थी या जोंक (जोग, जौंगी, जुंगिया नाम भी मिलता है।) नदी की यात्रा या शिवनाथ के अंश की यात्रा की गई थी। जोंक का पुरातत्वीय सर्वेक्षण डॉ. शिवाकांत बाजपेयी और डॉ. अतुल प्रधान ने किया। इसी तरह शिवनाथ का सर्वेक्षण डॉ. केपी वर्मा ने किया है, जिसका प्रतिवेदन पुस्तक रूप में प्रकाशित भी है। बिलासा कला मंच के सदस्य अरपा यात्रा किया करते हैं। ‘बोलती नदी‘ वाले युवा आमिर हाशमी ने लगभग 90 किलोमीटर लंबी संकरी नदी की यात्रा कर, वृत्त-चित्र बनाया है। शिव राजपूत ने केलो की उद्गम-संगम यात्रा कर ‘केलो कपूत‘ बन गए हैं। ऐसी यात्राएं इन्टैक किया करती थी, लोग किया करते हैं, यह सब नदी से रिश्ता है। आपका नदी से रिश्ता नहीं रहा तो यह मान कर चलिए कि नदी का बचना संभव न होगा। पता नहीं, हो सकता है हम भविष्य में नदी के बजाय किसी दूसरी चीज के लिए बहुत रोमांटिक हो जांय, और दूसरी चीजें हमारे जीवन का हिस्सा बन जाएं, पांच सौ साल बाद क्या हो, पता नहीं, लेकिन जो अभी पिछले पचास साल में मेरे अनुभव में मैंने देखा है, नदी और सूखती नदियों की बात अशोक तिवारी जी कर रहे थे, वह ...।

यह मैंने महानदी पर देखा है, नांदघाट के पुल पर भी देखा है और बलौदा बाजार से कसडोल जाते हुए नाले आते हैं, उन पर भी। बहुत शांत ढंग से कुछ चीजें होती हैं, जिन पर अगर आपका ध्यान न जाए तो अच्छा है, अगर आपका ध्यान जाता है तो दिल दहल जाता है, दिल दहल जाने वाली बात यह कि उन पुलों पर तीर का निशान लगाया गया था और नीचे लिखा था, बहाव की दिशा। हम नदियों के, नालों के बहाव की दिशा पुलों पर दर्शाने के लिए मजबूर हो गए हैं, क्योंकि उसमें पानी नहीं होता, कि बहाव की दिशा देख सके, वह संकेत में आ गई है, नदी में बारहमासी पानी, इतिहास की बात हो गई है।


इस सिलसिले में 03 अगस्त 2016 को छपी खबर का उल्लेख, जिसमें बताया गया था- ‘छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के केवई नदी को हसदो नदी से जोड़ा जाएगा। इसके फलस्वरूप जल संरक्षण और संवर्धन के साथ ही चिरमिरी और मनेन्द्रगढ़ क्षेत्र में जल संकट की स्थिति नहीं आएगी। साथ ही ग्राम रोकडा, लोहारी, महाई, धरमपुर, बांही एवं ग्राम मुसरा को सिंचाई एवं निस्तारी सुविधा मिलेगी। उल्लेखनीय है कि केवई नदी का उद्गम कोरिया जिले के ग्राम बैरागी (विकासखंड मनेन्द्रगढ़) में और हसदो नदी का उद्गम इसी जिले के ग्राम मेन्ड्रा (विकासखंड सोनहत) में है।‘

नदियों को जोड़ने से क्या होगा, पता नहीं, यह जरूर कहा जा सकता है कि नदियों से खुद को जोड़े रखने से..., अपना रिश्ता महसूस करते रहें, उसकी संस्कृति, जीवन शैली, जो हमारी संवेदनाओं को, मानवता को बहुत समृद्ध करती है, मुझे लगता है कि यह पूरा सेमिनार इसी से संबंधित है। कई बार होता यह है कि लोग कहते हैं कि इस सबसे होता क्या है और मेरा हमेशा यह कहना होता है कि जन्मदिन मनाने से किसी की उम्र नहीं बढ़ जाती, लेकिन फिर भी जन्मदिन मनाया जाता है, मनाने के कई आशय होते हैं, वैसे ही इस आयोजन के भी।

धन्यवाद आप सभी का।

Monday, November 7, 2022

केलो

रायगढ़, हमारे राज्य गीत ‘अरपा, पइरी के धार ...‘ में मंउरे मुकुट है। रायगढ़ की पहचान, केलो नदी की गौरव गाथा में मेरी स्मृति में बारेननाथ बैनर्जी का नाम आता है। स्टेशन से निकलते ही सबसे पहले उनके निवास पर जाते। वे सदैव चुस्त, तत्पर मिलते। इसके साथ यहां प्रस्तुत रचना में आए नामों के साथ देवेंद्र प्रताप सिंह, वेदमणि सिंह ठाकुर, डॉ. बिहारीलाल साहू, हरिहर सिंह, रवि मिश्रा, जगदीश मेहर, शिव राजपूत ‘केलो कपूत‘, अजय आठले, डॉ. अतुल श्रीवास्तव, विनोद पांडेय, राजू पांडेय, प्रताप खोड़ियार, डॉ गंगा डनसेना भी मेरे लिए रायगढ़ के साथ जुड़े रहे हैं। 

अनुपम कुमार दासगुप्ता, लंबे समय तक 'नवभारत' समाचार पत्र के सम्मानित प्रतिनिधि रहे। 13 मार्च 1978 को प्रकाशित रायगढ़ के इस विवरणनुमा कविता के रचयिता के साथ किसी का नाम नहीं है, मगर उनसे होने वाली बातों-मुलाकातों से यह अनुमान आसान कि ये पंक्तियां उन्हीं की हैं। 

नहीं थमा है, केलो तुम्हारा प्रवाह अभी... 

केलो तुम एक प्रवाह हो 
तुम्हारे सुरमय तट के घनघोर हरियाली मध्य 
शिलाओं पर उकेरता है आदिमानव 
सभ्यता का अमूल्य धरोहर 
विंध्याचल की इन पर्वत श्रृंखलाओं में जीवन्त है 
मनुष्य में जन्म लेती 
सभ्यता का प्रथम कलात्मक हस्ताक्षर 
कलात्मक अनुभूति/रंग और भावनाओं की 
प्रागैतिहासिक पाषाण पाण्डुलिपि 
सिंघनपुर, कबरा, कर्मागढ़, भैसगढ़ी से टेरम तक 
तुम्हारी तटीय सभ्यता के प्रथम दस्तावेज आज भी है। 


केलो तुम एक धारा हो 
उत्तर वैदिकाल में 
तुम्हारे सघन वनप्रान्तरों से ही होकर गुजरे थे 
चौदह वर्षीय वनवासी राम 
आखिर तुम प्रवाहित होती हो 
सरगुजा की सीता बेंगरा, जोगीमारा गुफाओं से 
दण्डकारण्य के रास्ते के मध्य। 
तुम्हारे तट पर बसे मुकडेग, केसला, आमगांव में 
यत्र तत्र बिखरी पड़ी है 
मोहनजोदड़ो सा वही प्रस्तर शिल्प-पाषाण स्तंभ 
कर्मागढ़ का पाषाण सिंह द्वार 
महाभारत कालीन प्रस्तर शिल्प का साक्ष्य। 
मौर्यों ने दक्षिण पथ की विजय यात्रा 
तुम्हारे तट से होकर की थी 
मौर्यों ने तुम्हारे ही तट पर बौद्ध धर्म का प्रसार किया था 
नेतनागर, कलमी बुनगा से पुजारी पाली तक फैला है 
जैन धर्म के प्रभाव का साक्ष्य 
तुम्हारे तट से कुछ दूर जमरगी में 
सहज ही मिलते हैं विश्व के प्राचीनतम महाजनपदकालीन आहत सिक्के 
तुम्हारे तटीय भू-भाग पर शासन करते रहे 
सातवाहन, शरमपुरी, सोमवंशी, कलचुरि, नल, नागवंशी नरेश। 

केलो तुम इतिहास के कालचक की मूक साक्षी हो 
अलिखित इतिहास हो 
कोई चार शताब्दी पहले 
तुम्हारे ही तट पर किसी राज्य की नींव रखी थी, 
चांदा के नागवंशी गोड़ों ने 
हटराज साय के स्थापित इस राज्य में 
जुझारसिंह, देवनाथ सिंह थोड़ा बहुत जुझे जरूर 
पर जिसे युद्ध कहा जाए वह कभी हुआ नहीं 
भूपदेवसिंह ने जिस कला परम्परा की आधार शिला रखी
... त कर गए चक्रधर सिंह 
कला साहित्य संस्कृति की दृष्टि से 
इस शताब्दी का वह चौथा दशक 
आज भी तुम्हारे तट पर बसे इस नगरी का 
कहते हैं वह स्वर्णकाल था 
तुम्हारे इस शासक के 
अवसान और अकाल मृत्यु का कारण न पूछो 
इतिहास के कुछ तथ्य नेपथ्य में रहने दो 
व्यक्ति कालजयी नहीं होता 
उसका ललित कला प्रेम चिरस्थायी रह गया। 

केलो तुम एक संस्कृति हो 
तुम्हारे तट की इस कला धनी नगरी में 
उस काल में कौन नहीं आया 
संगीत ऋषि विष्णु दिगम्बर पुलस्कर से मल्ल सम्राट राममूर्ति तक 
गायक मनहर बर्वे, नृत्याचार्य लच्छू महाराज, अच्छन महाराज, सितारादेवी, 
डा. रामकुमार वर्मा, जानकी वल्लभ शास्त्री, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, आनन्द मोहन बाजपेई। 
चक्रधर पुरस्कार के अधिकारी बने 
कवि जगन्नाथ ‘भानु‘/डा. रामकुमार वर्मा/कवि अंचल 
और अनेकों नाम हैं 
प्रति वर्ष लगता था महाव्यापी गणेश मेला 
पर अब वह अतीत की बाते हैं 
तुम्हारे इस नरेश को सद्बुद्ध देने विद्वानों का साथ था 
मानस मर्मज्ञ डा. बल्देव मिश्र/दीवान जे. एन. महंत प्रभृति विद्वान थे 
पर ये सभी राजशाही के अंग भी थे 
दबाव के उनके अपने तरीके थे 
इसीलिए लोकमत तेजी से जागा नहीं 
आजादी के बिना मन रमा नहीं 

केलो तुम एक प्रेरणा हो 
तुम्हारे तट के महल में 
माटी के कलाकारों ने ऊंचाई को छुआ 
कार्तिक/कल्याण/बर्मन/बडकू मिया/जगदीश सिंह ‘दीन‘ 
बहुत कुछ सीखा और पीढ़ियों में बांटा। 
अनन्तराम पाण्डेय ने हिन्दी में प्रथम सानेट लिखा 
डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ने तुलसी दर्शन की रचना की 
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने भारतीय इतिहास की खोई कड़ियों को कालक्रम से एकबद्ध किया। 
पं. मुकटधर पाण्डेय ने हिन्दी में छायावाद को अवतरित किया 
चिरंजीव दास ने गीत गोविन्द हिन्दी में रचा 
बनमाली प्रसाद शुक्ल ने हिन्दी को प्रथम बीजगणित दिया 
इससे भिन्न कलमकार सजग प्रहरी की तरह रहे 
राजपथ से जनपथ की दिशा देते रहे 
महादेव प्रसाद मिश्र ‘अतीत‘/मनोहर प्रसाद मिश्र/अमरनाथ तिवारी, बन्दे अली फातमी
अपने कलम का पैनापन बराबर दर्शाते रहे, जगाते रहे 
किशोरी मोहन त्रिपाठी हर दौर में साथ रहे 
कभी सामने रहे कभी नेपथ्य में रहे 
आजादी के बाद नये कलमकार आए 
... धूमकेतु की तरह छाये 
... ... तेवर उभरे 
...प्रकृति के नये गीत गाए 
किरोड़ीमल ने शहर को नया रूप दिया 
पालू ने पंच का दायित्व निबाहा 
रामकुमार ने सामंती विरोध को जनवादी तेवर दिया 
उमाशंकर ‘दद्दू‘ ने नई पौध को विचारों का रंग मंच दिया 
राममूर्ति बचई यायावर की तरह जीया। 

केलो तुम्हारे तट की प्रतिभाएं कहीं कुठित नहीं हैं 
प्रमोद वर्मा, गुरूदेव कश्यप, अशोक झा, प्रभात त्रिपाठी ने 
इस शहर को फिर प्रसिद्धि दी है 
मुस्तफा/जीवतसिंह ठाकुर/दिनेश पाण्डेय/डा. महेन्द्र परमार/डा. बल्देव/
अम्बिका वर्मा/ मुमताज भारती/हरिकिशोर दास/हेमचन्द्र पाण्डेय/रवीन्द्र चौबे अभी सजग हस्ताक्षर हैं 
यहां राजनीति का तेवर अभी वाम नहीं है 
राजशाही से वर्तमान तक खंडित पहचान नहीं है 
कल जो रंक थे आज वे वक्त के शहजादे हैं 
कल जो खास थे आज वे खाक हो रहे हैं। 
बढ़ते शहर को, बढ़ते विचारों को 
अभी तेज चलना है 

केलो तुम्हारा प्रवाह अभी थमा नहीं है। 
अभी तुम्हें और बहना है, और बहना है।

रायगढ़ के साथ मेरी स्मृति में स्थायी दर्ज यह चित्र।
सन 1948 में बने श्री गौरीशंकर मंदिर में
दशावतारों के बीच नेहरू-गांधी हैं।


Sunday, November 6, 2022

खजानों की खोज

पुरातत्व के साथ रहस्य, गुफा, सुरंग और चमत्कारों की कहानी, उसमें रंग भरती है। खुदाई, हनुमान छाप, राम दरबार सिक्के ठगी के साधन बनते हैं। अभिलेख और चित्रों-आकृतियों को बीजक, गुप्त खजाने का पता मान लिया जाता है। रमल, नजूमी, ज्योतिष, बैगा, आंख में खास तरह का काजल आंज कर जमीन में गड़ा धन देख लेने वालों की भी जाने-अनजाने हवा बनाई जाती है।

पुरातत्व में खजाना, चोरी, ठगी और इससे जुड़े अपराध से दो-चार होना पड़ता है। ऐसे कई प्रकरणों में से एक, 1997 में जबलपुर की घटना है, जिसमें भेड़ाघाट के रास्ते में बड़ी तादाद में गड़ा धन, सिक्के मिले थे। तत्कालीन विभागीय मुद्राशास्त्री जे.पी. जैन जी के द्वारा इस दफीने की सामग्री के परीक्षण में मैं साथ था। ‘कनक कनक ते सौ गुनी...‘ पता लगा कि जिन्हें भी यह सामग्री मिली, बंटवारा हुआ, उसमें से लगभग सभी के साथ कोई न कोई हादसा हुआ और इनमें से एक अनिष्ट आशंकाग्रस्त ने तो कुछ सोने की अशरफियां थाने ला कर खुद जमा कराईं।

ऐसी घटनाओं से पुरातत्व में लोगों की रुचि पैदा की जा सकती है, यह बिलासपुर के वरिष्ठ पत्रकार महेन्द्र दुबे जी ने रेखांकित किया। राजिम अंचल के निवासी दुबे जी, संत कवि पवन दीवान के सहयोगी रहे। छत्तीसगढ़ी अस्मिता के घोर-प्रबल हिमायती। दुबे जी, नवभारत समाचार पत्र से जुड़े रहे, बल्कि तब के संपादक गोविंदलाल वोरा जी से। समय बदल रहा था, बिलासपुर के नवभारत संवाददाता बी.आर. यादव जी विधायक और फिर मंत्री बने। मोतीलाल वोरा जी मुख्यमंत्री बने, तब उनके भाई गोविंदलाल वोरा जी ने अपना समाचार पत्र ‘अमृत संदेश‘ आरंभ किया। दुबे जी ‘अमृत संदेश‘ में आ गए। सामान्यतः कम बोलने वाले, मुस्कुराते दुबे जी की सजगता की चुगली उनकी चंचल आंखें कर देती थीं। मुलाकातों में समाचार, खबर-असर, न्यूज-व्यूज जैसी प्रेस-पत्रकारिता बातों-बातों में कह जाते। ऐसी ही बातों के दौरान कटघोरा में घटी घटना के समाचार एंगल से अलग, उन्हें इसमें एक्सक्लूसिव दिखा। लंबी बैठक की, नोट्स लिए और यह सामने आया-

बिलासपुर अंचल के ऐतिहासिक खजानों की चोरियां इस तरह हुयीं

भाजपा नेता श्री कृष्णकुमार पांडे को कटघोरा पुलिस ने उनके साथियों सहित कल्चुरी शासकों की प्रथम राजघानी तुमान से ५ कि.मी. दूर जटाशंकरी नदी एवं झाबर नाला के संगम पर स्थित नगोई ग्राम के ऐतिहासिक महत्व के टीले में खजाने की खोज में खुदाई करते हुये गिरफ्तार किया है। बताया जाता है कि तुमान में निवास कर रहे एक साधु ने श्री पांडे को उक्त टीले में खजाना होने की जानकारी दी थी। इसके पूर्व भी साधु ने तुमान गांव के एक कृषक को ऐतिहासिक स्थल सतखंडा महल के समीप खजाना होने का संकेत दिया था जहां कृषक को मात्र सूर्य की एक मूर्ति मिली।

ईसा पूर्व ७ वीं शताब्दी से लेकर आज तक की ऐतिहासिक किवदंतियों से भरपूर इस अंचल में खजाने की खोज कोई नयी बात नहीं है। बैगा गुनिया या तथा कथित ग्रामवासियों ने ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई की परंतु खजाना उन्हें नहीं मिला। खजाना उन्हीं को मिला जिन्होंने इस के लिये हाथ पैर नहीं मारे। पुरातत्व विभाग के एक संदर्भ ग्रंथ के अनुसार आजादी पूर्व १९३० में सोनसरी ग्राम में सोने के ६०० सिक्के मिलने के प्रमाण मिलते हैं। ये सिक्के त्रिपुरी के कल्चुरी शासक गांगेयदेव, रतनपुर के कलचुरी शासक जाजल्लदेव, रत्नदेव, पृथ्वीदेव, बस्तर के नागवंशी शासक सोमेश्वर एवं गोविंद चंद्र के काल के हैं। तब सभी सिक्के नागपुर संग्रहालय में जमा करा दिये गये। राज्य शासन को चाहिये कि अंचल के सिक्के को नागपुर से यहां स्थानांतरित करे।

अंचल में खजाना मिलने और उसके गायब होने की एक दिलचस्प घटना जांजगीर के समीप पचेड़ा गांव की है जहां एक बैगा की सलाह पर मनहरण बसाइत, गिरजानंद, पंचराम, माखन, शिवनारायण, बुडगा, कौशल, गेंदराम चौहान आदि ९ व्यक्तियों ने घोर अंधेरी रात्रि में एक खेत की खुदाई की। खेत मालिक मनहरण ने पुलिस के समक्ष स्वीकार किया कि खेत की खुदाई में सोने के सिक्कों से भरा हुआ एक बटलोही मिला। रात में ही बटलोही घर लाया गया और बैगा के सामने सिक्कों की गिरजानंद के घर में गिनती प्रारंभ हुयी। अभी वे ४०० सिक्के गिन ही पाये थे कि माखन बैगा ने उसे प्रसाद दिया जिसके खाने से वह मूर्छित हो गया और सारे सिक्के गायब हो गये। पुलिस जांच के दौरान गिरजानंद ने भी स्वीकार किया कि बटलोही में ३६००० सिक्के थे। ये सिक्के कहां गये यह आज तक पता नहीं लग सका है। अलबत्ता पुलिस ने निष्कर्ष निकाला कि शिवनारायण, बुडगा, कौशल, गेंदराम नैला से गायब हैं। ये सभी अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। पुलिस ने मनहरण के बड़े भाई गौकरण से भी पूछताछ की थी जिन्होंने स्वीकार किया कि उसकी मां ने खेत में खजाना होने की जानकारी दी थी परंतु हमने कभी खुदाई करने की आवश्यकता नहीं समझी। खेत बंटवारा के समय मनहरण और उसके बीच यह तय हुआ था कि जब कभी भी खजाने की खुदाई की जावेगी प्राप्त धन दोनों के बीच बराबर बंटवारा होगा। बटवारे में खेत मनहरण को मिला था। 

पचेडा गांव के इस रहस्यमय खजाना की प्रथम सूचना २६.१२.७७ को जांजगीर थाने में स्वयं मनहरण ने दर्ज कराई थी। पुलिस अधिकारियों के अतिरिक्त जांजगीर के तत्कालीन अनुविभागीय अधिकारी श्री मित्तल ने भी स्थल का निरीक्षण किया और जिला प्रशासन को प्रेषित रिपोर्ट में स्वीकार किया कि खेत में ७ फीट गड्ढा खोदा गया है। गड्ढे के आकार से आभास मिलता है कि यहां बटलोही रही होगी। परंतु सिक्के के बारे में उन्होंने भी चुप्पी साध ली। इसी तरह बैगा की सलाह पर कमरीद गांव के एक कृषक घसिया कुर्मी ने जमीन की खुदाई की जिसमें एक सोने की मूर्ति एवं सिक्के से भरा एक हंडा निकला। चर्चा रही कि उक्त कृषक ने मूर्ति के मात्र सिर भाग को ही नैला में १३००० रुपये में बेचा इस प्रकरण की भी पुलिस में रिपोर्ट हुयी परंतु खजाना हाथ नहीं लगा। अलबत्ता इस खजाने की एक अन्य जानकार उसी परिवार की एक महिला की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी।

कहते हैं कि किसी की तकदीर खुलती है कि अनायास खजाना उसके हाथों में आ जाता है। आठ वर्ष पूर्व ऐसे ही शिवरीनारायण के समीप केरा गांव के कुछ लोगों की तकदीर खुली और खजाना उनके हाथों में आ गया। गांव का एक कृषक मकालू पिता बुडगा गढ़ी जाने के रास्ते में स्थित एक झाड़ के नीचे पड़े एक पत्थर के ऊपर २१ अगस्त ७८ को प्रातः दस बजे बैठा हुआ था कि उसको विचार कौंधा कि क्यों न इस गड्ढे बने गोल पत्थर को ढेंकी का बाहना बनाने के लिये घर ले जावे। इस विचार के साथ ही जमीन से करीब ३ ऊपर उठे गोल पत्थर के मुंह में भरे हुये मिट्टी को निकालने के लिये हाथ चलाया तो उसके हाथों में अनायास मिट्टी से सने सोने के सिक्के लग गये। पहले तो उसकी समझ में नहीं आया और सिक्कों को पुनः रगड़ा तो सोने की चमक देख उसकी आंखें चौंधिया गयीं। फिर तो उसने जल्दी जल्दी मिट्टी हटाई और जितना उसकी जेब में आ सकता था खोल से सिक्का निकाला और घर चला गया। इस अनायास हाथ लगे खजाने की जानकारी गांव के अन्य लोगों को मिली तो वे भी तकदीर अजमाने के लिये उस ओर दौड़ पड़े। भय एवं आश्चर्य के वातावरण में जिससे जितना बन पड़ा पत्थर की खोल से सिक्का निकाला और घर की राह ली। इस बीच विद्यानंद ग्रामीण को समझाते रहा कि यह मकालू के भाग से मिला है उसे दे दो परंतु इसे सुनने का समय किसके पास था। सब अपनी जेब गरम करने में लगे हुये थे। मकालू पुनः घर से आया और जेब भरकर पुनः चला गया। इस भाग दौड़ के बीच खजाना मिलने की जानकारी जब गांव के कोटवार को लगी तो वह शिवरीनारायण थाने की ओर दौड़ा। रास्ते में ही उसे थानेदार मिल गया। 

जानकारी मिलते ही थानेदार भी बदहवास तकदीर अजमाने गांव की ओर दौड़ा और घटनास्थल पर १२ बड़े ४२ छोटे सोने के सिक्के जब्त किया। इसी तरह से जांजगीर के तत्कालीन अनुविभागीय अधिकारी श्री पी.सी. जैन को जब इस खजाने की भनक मिली तो वे भी गांव पहुंचे और ग्रामीणों को डांट डपट एवं जमीन देने का लालच देकर मकालू, विद्यानंद, लक्ष्मीप्रसाद, विजय, रमेश, चांदमल, झुमरु, मंगल बाई, जानकीदास, संतोष, मनहर, राजकुमार आदि से ४९ सिक्के बरामद किये। कहते हैं कि थानेदार एवं एस.डी.ओ. के हाथों इससे भी ज्यादा मात्रा में सोने के सिक्के हाथ लगे परंतु अधिकारियों ने इतनी ही बरामदगी बताई। गांव वालों के कथनानुसार एक फीट से अधिक गहरे पत्थर के खोल से करीब १० किलो वजन सोने के सिक्के निकले थे। बहरहाल यहां प्राप्त रतनपुर के कलचुरी शासकों जाजल्वदेव, रत्नदेव एवं पृथ्वीदेव कालीन ११ वीं एवं १२ वीं शताब्दी के २०० ग्राम वजन के १०३ सिक्के आज भी जबलपुर के संग्रहालय में छत्तीसगढ़ के वैभव पूर्ण अतीत को उजागर कर रहे हैं परंतु अतुल संपति को सदियों से अपने में समाहित किया खोल युक्त पत्थर के ढेंकी का बाहना तो नहीं बन सका अलबत्ता जिला कचहरी के नाजरात में पड़ा अपने अतीत पर अवश्य आंसू बहा रहा है।

Saturday, November 5, 2022

गुड़ी-सीपत

गुड़ी से पहले सीपत, जिसने यह राह दिखाई। अब एनटीपीसी के लिए जाने गए सीपत के साथ बीच के दौर में पं. रमाकांत मिश्र, पं. बद्रीधर दीवान, अरुण तिवारी, चंद्रप्रकाश बाजपेयी का नाम जुड़ा रहा। पचासेक साल पहले तक रामेश्वर शर्मा के नाम से जाना जाता था, मगर शर्मा जी का नाम उर्फ ‘सूचीपत्र‘ के साथ पूरा होता था। बताया जाता है कि उन्हें यह नाम बैरिस्टर साहब यानि ठाकुर छेदीलाल जी ने दिया था, इसलिए कि उनसे कुछ पूछने पर वे व्यक्तियों, वस्तुओं के नामों को सरपट गिनाते थे, इस पर बैरिस्टर साहब, हंसी में कहते- ‘महराज, तूं तो पूरा सूचीपत्तर आव‘। यही आगे उनका उपनाम बन गया। बैरिस्टर साहब के दिए कुछ नाम, इसी तरह ऐसे प्रचलित हुए कि लोग वास्तविक नाम भूल से गए, जिनमें एक नंदेली वाले बाजा मास्टर हैं। बैरिस्टर साहब के पिता का नाम पचकौड़ सिंह था, जो बाजा मास्टर का भी नाम था। पिता के हमनाम, नंदेली वाले संगीतज्ञ का नाम न लेना पड़े इसलिए ‘बाजा मास्टर‘ पुकारने लगे और यही नाम प्रचलित हो गया।

राजनीति में सक्रिय रामेश्वर शर्मा जी, मध्यप्रदेश में सिंचाई मंत्री रहे। भोपाल और दिल्ली में भी निवास था। उनके नाक के पास बड़ा सा मस्सा था, बताते थे कि यह अच्छा तो नहीं लगता, लोग कहते है कि निकलवा दूं, मगर मैडम (श्रीमती इंदिरा गांधी) मुझे इसी से पहचानती हैं। उनसे मिलने जाता हूं तो मस्से पर उंगली फिराता रहता हूं, उनकी नजर इस ओर जाती है और पूछती हैं, कैसे हैं शर्मा जी? 1980 के दशक के आरंभिक वर्षों में चुनाव लड़कर फिर किस्मत आजमाना चाहते थे और टिकिटार्थी बने रहे।

मुलाकात होने पर मुझे मेरे परिवार-जन से जुड़े किस्से और अपने बारे में ढेरों बातें बेलाग बताया करते थे। 1967 का विधानसभा चुनाव, आज का बेलतरा, इसके पहले सीपत और उससे भी पहले बलौदा विधानसभा क्षेत्र था, जहां वे प्रत्याशी थे। याद करते हुए बताते कि वोटों की गिनती के दौरान पिछड़ते जा रहे थे। जीतने की संभावना न के बराबर थी। मतगणना स्थल छोड़ कर जाने लगे तो मेरे पिता 'संत बाबू' ने ढाढस बंधाया कि अभी हमारे प्रभाव वाले मतदान केन्द्रों की गिनती बाकी है। आप देखिएगा कि यह अंतर आसानी से न सिर्फ कवर हो जाएगा, बल्कि हम जीतेंगे भी। ऐसा ही हुआ और मामूली अंतर से, मगर जीत हुई।

यहां प्रसंग सीपत वाले उनके भाई रामाधीन शर्मा जी से जुड़ा है। अनुमान होता था कि दोनों भाई के बीच रिश्ते सहज नहीं हैं। रामाधीन महराज, भक्त-साधक किस्म के व्यक्ति थे। गांव-समाज में आना-जाना कम। बिलासपुर न्यायालय में अक्सर आते। 1985-90 के बीच का दौर। पेशी से समय निकलता तो सीपत वाला शिलालेख पता करते, अन्य मूर्तियां देखने जिला पुरातत्व संग्रहालय आ जाते। संग्रहाध्यक्ष रहते हुए, मैं लगभग हर हफ्ते संग्रहालय की दर्शक पंजी देखता था। रामाधीन जी से इसी माध्यम से संपर्क हुआ। पंजी में उन्होंने टिप्पणी की थी कि उनके घर में कुछ प्राचीन अवशेष हैं, जिसे वे संग्रहालय को देना चाहते हैं। हमलोग, यानि मैं रायकवार जी के साथ सीपत उनसे मिलने गए।

पहली, दूसरी, तीसरी फिर मुलाकातों में उनकी नेकदिली और आत्मीयता देखने को मिली। हमलोगों को उनके घर में अंदर तक आवाजाही की छूट मिल गई, चाय-पान कराते। सहज भाव से कहते यह जीवन व्यर्थ जा रहा हे। ईश्वर की भक्ति न कर सका। मोह माया में पड़ा रह गया। मनाता हूं अगला जन्म मिले तो भगवान में मन रमे। बताते कि इस जीवन में तंत्र-मंत्र-यंत्र सब आजमाया है। वेंकटेश स्टीम प्रेस या ऐसे ही किसी अच्छे प्रकाशक से किताब मंगाया। उसमें मंत्र दिए थे। परीक्षण के लिए मोहन-मारण आजमाने लगा। सभी मंत्र सच्चे निकले, सध गए। आजमाने के लिए जिस पर मोहन का प्रयोग किया था, उसे किसी तरह समझा-बुझा कर बच गए। मारण मंत्र, आजमाने के लिए आह्वान कर लिया, मगर अपराध-बोध हुआ, बात खुद पर आने लगी, जान छुड़ना मुश्किल हो गया। तब हनुमान चालीसा से काम नहीं बना, हनुमान बाहुक और बजरंग बाण से बात बनी। पेशी से लौटते हुए आफिस आते। मधुमेह, मगर शक्कर वाली चाय और एक सिगरेट पीते। फिर गांव वापस। हम छेड़ते- लइका मन, महराजिन गम पाहीं त हमन बर रिस करिहीं, सदा गंभीर मुख-मुद्रा, मगर यह सुन कर चेहरे पर दुर्लभ मुस्कान आती।

संग्रहालय के लिए स्वयं पहल कर मूर्तियां दीं ही, साथ सीपत गांव में पड़े प्राचीन अवशेषों को दिखाया। गांव के बाहर खेतों में, तालाब के पास के अवशेष और तब मंदिर के बच रहे ढांचे को भी दिखाया, जो बाद में ढह गया। उन्होंने ही खबर दी कि मंदिर गिरने के कुछ देर पहले ही शिव-भक्त उनके ज्येष्ठ पुत्र वहां से लौटे थे। इस ढांचे से कलचुरि मंदिर-स्थापत्य समझने का अवसर मिला। जानकारी मिलती थी कि इस काल के मंदिरों की जंघा दो परतों में होती है। बाहिरी परत में मूर्तियां और भीतरी परत सादी चिनाई वाले पत्थर। और इन दोनों के बीच पत्थर के कत्तल-टुकड़े भरे होते हैं। इस संरचना में मंदिर के अंदर वाली परत बची रह गई थी और इसके विपरीत बिल्हा के पास स्थित किरारी गोढ़ी मंदिर में बाहिरी मूर्ति वाली परत है, अंदर की परत नहीं है।

रामाधीन जी ढेरों ज्ञान-विज्ञान, धर्मशास्त्र की बातें बताते। जाते-आते हमलोगों ने अनुभव किया कि सीपत में चाय का स्वाद अलग ही होता है। इस आसपास में ऐसा स्वाद हमारे अनुभव में सिर्फ गतौरा के दूध में है। रामाधीन महराज ने बताया कि मवेशी के चरने के लिए खुले मैदान, उपयुक्त वनस्पति हो तो दूध का स्वाद अच्छा होता है। रायकवार जी ने पुष्टि की, जिसे बाद में मैंने स्वयं भी अनुभव किया कि बनगवां राज में चैत-बैसाख, महुए के दिनों में दूध-चाय में महुए का स्वाद आ जाता है। पास के गांव नरगोड़ा के बारे में पता चला था कि वहां भी तालाब के किनारे कुछ पुरावशेष हैं। नाम भी रोचक लगा। पास-पास गांव, गुड़ी और (नर)गोड़ा। गुड़ी के पुरावशेषों के बारे में भी रामाधीन जी ने बताया।

अब आते हैं गुड़ी। छत्तीसगढ़ के मैदानी गांवों में गलियों का मेल, केंद्र, जहां सामान्यतः बीच बस्ती वाले ग्राम देवता का स्थान होता है, गुड़ी कहा जाता है। बस्तर का गुड़ी-गुड्डि, इससे मिलता-जुलता मगर कुछ अलग होता है। यहां गांव का नाम ही गुड़ी है और रोचक कि जिस टीले के कारण हमलोगों का ध्यान आकर्षित हुआ वह जिस तालाब के किनारे है, उस तालाब का नाम ‘चौड़ा‘ है। इस टीले के अवलोकन से संभावित काल, संरचना स्पष्ट हुई थी, जिसका प्रतिवेदन तब मेरे द्वारा तैयार किया गया था। इसके साथ स्व. सीतेश जी की याद।

खरौद निवासी सीतेश द्विवेदी जी मेरे परिचितों में, वास्तविक अर्थों में ‘श्रमजीवी‘ पत्रकार थे। बिलासपुर नवभारत की नींव की मजबूती में उनका नाम अविस्मरणीय रहेगा। जीवन में निरंतर मुश्किलों से जुझते हुए भी बाल-जिज्ञासु और प्रौढ़ रचनाशील बने रहे। हमलोगों के अभिन्न थे ही।

यहां उनके नाम से नवभारत, रायपुर, संपादकीय पृष्ठ पर 4 सितंबर '90 को प्रकाशित यह अंश, जिसे उन्होंने हमारे कार्यालयीन प्रतिवेदन के तथ्यों को यथावत रखते हुए, उसके आधार पर तैयार किया था।

टीले से निकलेगा प्राचीन विष्णु मंदिर अवशेष

बिलासपुर जिले के सीपत समीप ग्राम गुड़ी के टीले से प्राचीन विष्णु मंदिर का ध्वंसावशेष निकलेगा। पुरातत्वविदों का मानना है कि १२वीं-१३वीं शताब्दी के आसपास निर्मित इस कलचुरी कालीन मंदिर के अवशेष का छत्तीसगढ़ (म.प्र.) के लिये विशेष महत्व का है। क्योंकि विष्णु मंदिरों की संख्या यहां न्यून है। टीले के नीचे दबे पुरावशेष को जानने सभी उत्सुक हैं।


यूं तो 'गुड़ी' से तात्पर्य किसी ग्राम का वह स्थान होता है जहां पंचायत बैठती है, पर यह उस ग्राम का नाम है जो बिलासपुर से २२ किलो मीटर दूर सीपत-बलौदा मार्ग पर स्थित है। जनसंख्या लगभग ढाई हजार है। अन्य ग्रामों की भांति यह भी सामान्य है। इसके उत्तर पश्चिम बाहरी भाग में ठरकपुर जाने वाली सड़क के किनारे वृक्ष एवं छोटी झाड़ियों से आच्छादित एक टीला है। यह टीला दूर से सामान्य व साधारण प्रतीत होता है। इसके आसपास कुछ पत्थर बिखरे पड़े है। इस टीले के समीप पहुंचने एवं बिखरे पत्थरों को देखने से उसके महत्व का आभास होता है।

ये पुरावशेष हैं, जो इतिहास की धरोहर हैं। बिखरे पत्थरों में से एक पर चतुर्भुजी विष्णु भगवान की प्रतिमा है, दूसरे पर हंस पंक्ति, तीसरे पर भी हंस पंक्ति, चौथे पर मिथुन युगल, पांचवें पर अश्वारोही, छठवें पर मंदिर शीर्ष, सातवें पर नारी आदि। टीले का दक्षिणी भाग अंशतः स्पष्ट है। ये सब विष्णु मंदिर के अवशेष. हैं। कालकम से प्रभावित होकर यह टीले के रूप में बदल चुका है। मिट्टी एवं पेड़-पौधों से ढंके इस टीले से प्राचीन विष्णु मंदिर का ध्वंसावशेष निकलेगा। पत्थरों पर की गई कलाकारी से इसका निर्माण १२वी-१३वीं शताब्दी के आसपास होने का अनुमान होता है। इनसे कलचुरि शैली स्पष्ट परिलक्षित होता है।

यह टीला एवं पुरावशेष लगभग १००० वर्ग मीटर में फैला है तथा अक्षांश मा २०-१० उत्तर एवं देशांश ८२-२० पूर्व पर स्थित है। गुड़ी ग्राम से होते नियमित निजी यात्री बसें चलती है। ग्रामीण बरसों से इस टीले को सिद्ध बाबा एवं देउर के रूप में दशहरा के समय विशेष पूजा करते आ रहे हैं। इस स्थल को प्राचीन व पवित्र मानते हैं। ग्राम देवता स्थान भी माना जाता है। यह पर्व त्यौहारों पर यहां धार्मिक कार्यक्रम यथा नवधा रामायण, कथा पारायण, प्रवचन आदि का आयोजन किया जाता है। प्राचीन काल से मंदिर होने की बात भी प्रचलित है।

यह टीला भू-सतह से लगभग ८ मीटर, ऊंचा, पूर्व पश्चिम में २३ मीटर लंबा एवं उत्तर-दक्षिण में लगभग १.? मीटर चौड़ा है। टीले पर विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां उग आई है। इन वनस्पत्तियों और मिट्टी पत्थर से टीला पर्याप्त रूप से ढंक चुका है। किन्तु दक्षिणी पार्श्व का एक भाग उघड़ा हुआ है जिससे अधिष्ठान की संरचना अंशतः परिलक्षित होती है।

टीले के पूर्व में चौड़ा तालाब है, पश्चिम में एक नहर प्रवाहित है, जबकि अन्य ओर यह खेतों से घिरा हुआ है। समीप ही गुड़ी से ठरकपुर जाने वाली सड़क है। यह मैदांनी भू भाग है। इस टीले में ध्वस्त मंदिर होने की बात ग्रामीण बरसों से पुरखों से सुनते आ रहे हैं। पर पुरातत्वीय और ऐतिहासिक महत्व के इस स्थल का विवरण अब तक अप्रकाशित रहा।

इस टीले पर पड़े अवशेषों एवं दक्षिणी खुले भाग से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ध्वस्त मंदिर १२वीं सदी ईस्वी में बनाया गया रहा होगा। मंदिर के पूर्वाभिमुख तथा सप्तरथ तल विन्यास योजना (चतुरंग) में होने का अनुमान स्पष्ट किया जा सकता है। वैसे छत्तीसगढ़ में विष्णु मंदिरों की संख्या न्यून है। जांजगीर एवं शिवरीनारायण में अवश्य इसके अच्छे प्रमाण हैं। अतः इस स्थल का विशेष महत्व है।

यह स्थल छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर से पूर्व दिशा की ओर लगभग १६ कि.मी. सीपत जूना शहर-शिव मंदिर से, आठ कि.मी. एवं बछौद गढ़ से लगभग १४ कि.मी. दूर स्थित है। ये तीनों प्राचीन ऐतिहासिक स्थान है। रतनपुर राजधानी, सीपत शिव मंदिर एवं बछौद गढ़ तीनों ध्वस्त हो गया है। समीपवर्ती इन तीनों प्राचीन स्थलों के बीच यह टीला विद्यमान है।

काल के किसी अज्ञात क्रम में ध्वस्त हुये, गिराये या दबाये गये इस मंदिर के अवशेषों को मिट्टी एवं पेड़ पौधों ने ढंक लिया है। कुछ अवशेषों को ग्रामीण अपने घरों में द्वार, सीढ़ी या दीवाल बनाने ले गये है, कुछ ने पनघट एवं श्मशान घाट में पुरावशेषों का उपयोग किया है। तो कुछ सिंघरी तालाब एवं चौड़ा तालाब के किनारों पर पड़े हैं। प्रकृति की बारहमासी मार को चलते ये अवशेष नष्ट भ्रष्ट होने जा रहे हैं। बलुआ पत्थरों से बनी अधिकतर पाषाण प्रतिमायें खंडित है इसलिये इनका क्षरण दर भी अधिक है।

सतह पर पड़ी कुछ प्रतिमाओं में प्रमुख ये है जिनमें प्रायः सभी बलुआ पत्थरों पर बनी खंडित एवं क्षरित है-
(१) सिरदल में खंडित नवग्रह पटल मध्य चतुर्भुजी विष्णु।
(२) मिथुन युगल प्रतिमा- जिसकी भंगिमा और कलात्मक सौंदर्य विशेष उल्लेखनीय है।
(३) अर्द्ध स्तम्भ पर नारी की खंड़ित प्रतिमा यह संभवतः किसी मुख्य देव प्रतिमा के पार्श्व उत्कीर्ण परिचारिका या पार्श्व देवी का अंश है।
(४) हंस पंक्ति-पंक्तिवार उत्कीर्ण हंस अत्यंत संतुलित और नियमित है।
(५) एक और पाषाण पटल में हंस पंक्ति है जिनमें पूर्व की भांति साम्यता एवं हंसों के उकेरण में लयात्मकता और व्यतिक्रम उल्लेखनीय है।
(६) एक पाषाण फलक पर तीन अश्वारोही हैं। संभवतः किसी वीर सैनिक या सती की स्मृति में यह बनाया गया होगा।
(७) टीले के नीचे पड़े दो पत्थर मिले है जो गर्भगृह एवं सभा मण्डप में ऊपर लगने वाले शीर्ष पत्थर है।
(८) टीले के ऊपर दो विशाल पत्थर भी रखे है संभवतः ये तरासकर मंदिर सभा मंडप के खंभे बनाये जाते।

टीले पर से खड़े होकर देखने पर चारों ओर का वातावरण मनमोह लेता है। दो ओर खेत, पास में बहती नहर, एक ओर तालाब, दूसरी ओर हरा-भरा मैदान। खेतों के पार दूर पहाड़ियों की श्रृंखला।

१२वीं- १३वीं शताब्दी के आसपास निर्मित पूर्वाभिमुख विष्णु मंदिर के ध्वंसावशेष की पूर्ण प्राप्ति, स्थल मलबा सफाई एवं उत्खनन से संभव है। हालांकि दो वर्ष पूर्व शासन ने इस स्थान को संरक्षित स्थल घोषित कर दिया है। पर अभी तक कोई रक्षक यहां नियुक्त नहीं किया गया है। निर्जन स्थान पर मैदानी भाग में टीले व आसपास बिखरे पुरावशेषों की सुरक्षा के लिये चौबीसों घंटे सुरक्षा आवश्यक है। स्थल मलबि सफाई एवं उत्खनन से मुख्य विष्णु प्रतिमा सहित अन्य पुरा-प्राप्तियां मिलने की संभावना है। तभी मंदिर की शेष संरचना एवं इतिहास का पता चल पायेगा। प्रकृति एवं विभिन्न कारणों से खंडित व क्षरित हो रही प्रतिमाओं की सुरक्षा के लिये पत्थरों का रासायनिक उपचार भी आवश्यक है।

पुरातत्व विभाग का कहना है कि आदेश की प्रतीक्षा में हैं। पर आसपास के ग्रामीण सहित स्वयं पुरातत्व विभाग टीले में दबे मंदिर अवशेषों को जानने अविकल है।

- सीतेश कुमार द्विवेदी