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Saturday, April 17, 2021

अद्वैत का द्वंद्व

‘हैट टांगने के लिए कोई भी खूंटी काम दे सकती है। उसी तरह अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए कोई भी विषय उपयुक्त है।‘ जी हां, यह पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के प्रसिद्ध निबंध ‘क्या लिखूं?‘ में आया है। उन्होंने इसमें कहा है कि यह निबंध नमिता के आदेश और अमिता के आग्रह पर लिखा गया, जिन्हें क्रमशः ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं‘ और ‘समाज-सुधार‘ पर आदर्श निबंध लिखना था। इसी तरह हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं‘ आरंभ होता है- ‘बच्चे कभी-कभी चक्कर में डाल देने वाले प्रश्न कर बैठते हैं। ... मेरी छोटी लड़की ने जब उस दिन पूछ दिया कि ...‘। बच्चों की फरमाइश या सवाल के जवाब में ऐसे कुछ अनमोल निबंध आए। बड़े लोगों की बड़ी बातें। मगर, कहा जाता है कि आपकी बात 5-6 साल के औसत बच्चे को समझ में आ जाए, समझा सकें, तभी जानिए कि आपने खुद ठीक समझ लिया है।

दो घटनाएं याद आती हैं। पहली, कार्डेटा और नान-कार्डेटा। दो बच्चों में से एक, बड़े को स्कूल में पाठ पढ़ाया गया था, वह छोटे को समझा रहा था, छोटा समझने को तैयार नहीं। मैंने मदद करनी चाही, कहा कि हड्डी वाला, कड़ा हो वह कार्डेटा और मुलायम, लिजलिजा, गिजगिजा है वह नान-कार्डेटा। आई बात समझ में। बच्चे ने अपनी समझ का सबूत देते हुए, मेरे समझाने को ध्वस्त करते हुए उदाहरण से बताया- घोंघी, कार्डेटा और छिपकिली, नान-कार्डेटा। सुधार हुआ, जो उपर मुलायम अंदर कड़ा वह कार्डेटा और उपर कड़ा अंदर मुलायम वह नान कार्डेटा। मजबूत आदमी भी अक्सर बाहर से मुलायम तो, खैर ...। दूसरी कि बच्चों को स्वर और व्यंजन में फर्क बताने का प्रयास किया जा रहा था, और बात बमुश्किल उदाहरणों अ, आ, इ, ई और ए, ई, आई, ओ, यू पर आ कर अटक जा रही थी। एक बच्चे को सूझा, मतलब यह कि जो आवाज गले से आए वह स्वर और जिसमें जीभ और होंठ के साथ दांत और तालू में भी हरकत हो वह व्यंजन।

बच्चों के प्रश्नों में जिज्ञासा, तर्क और समझ की तलाश के लिए होती है। कभी इसलिए भी कि स्वाभाविक सी क्रिया, परिस्थिति, घटनाओं में भी कार्य-कारण संबंध तो होता है, लेकिन वह अक्सर स्पष्ट-प्रकट नहीं होता, बच्चे उसे जानना-समझना चाहते हैं। प्रसंगवश बाथरूम सिंगिंग और टायलेट थिंकिंग की तरह एक अदा होती है, प्लेटफार्म चिंतन। ऐसा तब होता है, जब स्टेशन पर पहुंचने के बाद पता लगे कि गाड़ी लेट है और लेट होती जा रही है। ऐसा ही कुछ हुआ, जिसमें बच्चे की पार्श्व सोच यानि लैटरल थिंकिंग का एक उदाहरण आया।

एक सज्जन बताने लगे कि उनकी बच्ची जब भी स्टेशन से वापस लौटती, तो पूछती कि हर गाड़ी सड़क के ऊपर चलती है, लेकिन रेलगाड़ी क्यों नहीं। उसे समझाया जाता कि रेलगाड़ी की सड़क पटरी है, वह पटरी पर चलती है, लेकिन उसकी जिज्ञासा शांत नहीं होती। बात आई गई। प्लेटफार्म चिंतन में चर्चा होने लगी कि बच्ची ऐसा क्यों पूछती थी। बच्ची अब युवती थी और खुद भी यह भूल चुकी थी। अलग-अलग संभावनाओं पर विचार होता रहा और उसे सुझाया जाता रहा, बात नहीं बनी। एक बात आई, कहीं ऐसा तो नहीं कि वह प्लेटफार्म को सड़क मानती थी और सोचती थी कि यही एक ऐसी गाड़ी है जो सड़क के ऊपर नहीं, नीचे चलती है। युवती ने सुना और दस साल बाद जिज्ञासा के उसी उम्र में पहुंच गई, चहक पड़ी, यूरेका।

आगे बातों की राह तो सूझ रही है किंतु बहकने-भटकने की मान्य सीमा तक छूट लेते हुए ...। कहा जाता है कि पैडगरी (पांव-पांव रास्ता), सीधी-सरल हो तो वह मवेशी के चलने का रास्ता और टेढ़ी-मेढ़ी हो तो मानुस की। उसमें भी राह राह कपूत और राह छोड़ सपूत। तो, याद आ रहा है कि एक मास्टर साहब के पुत्र ने प्रथम श्रेणी में भौतिकशास्त्र स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की, साहबजादे यानि मास्टरजादे फूले नहीं समाते, मानों सब कुछ पा लिया। लेकिन पिता को उनके रोजगार की चिंता सताती रहती। पीढ़ी की सोच और यों भी पिता-पुत्र का रिश्ता सार्थक तभी होता है, जब शाश्वत मतभेद सतह पर आने लगे। पुत्र, अपनी प्रथम श्रेणी स्नातकोत्तर उपाधि की शान में रहते, पिता से भिड़ गए। पिता ने कहा- घर का पंखा बिगड़ा हुआ है, बना सकता है तो सुधार, नहीं तो कम से कम मिस्त्री ही बुला ला।

इसी तरह दो व्यवसायी पिता, जिनमें एक का साबुन कारखाना था और दूसरे का बर्तन की दुकान। संयोग से दोनों के बच्चे पढ़ाई में तेज निकले। बी स्कूल और एम स्कूल का जमाना नहीं आया था। अच्छे नंबर आए तो इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला मिल गया। बात आई ब्रांच की। पिता-पुत्र ‘द्वन्द्व समास‘ के ‘शाश्वत भाव‘ को प्राप्त न हुए थे। पुत्र, अब तक आज्ञाकारी थे, पिता से आदेश मांगा। साबुन वाले पिता ने समझा कि केमिकल ब्रांच सही होगा और बर्तन वाले ने ताड़ा कि मेटलर्जी ब्रांच हो तो खरीदी-बिक्री में कोई ठग न सकेगा। आगे की कहानी है दर्दनाक, लेकिन लोग उनकी हंसी उड़ाते ‘ट्रेजिकॉमेडी‘, इसलिए यहीं रुक कर, वापस पटरी पर।

जशपुर की अंकिता जैन लेखिका हैं। फेसबुक पर उनकी रोचक पोस्ट यहां खूंटी बनी, जिसमें उनके लाड़ले अद्वैत ने जिज्ञासा की- ‘सब्जी और फल में क्या अंतर होता है?‘ अंकिता जी ने समझने की कोशिश करते, समझा, समझाया, बहलाया। लेकिन बात नहीं बनी। फिर टाला मौसी पर। मौसी का वनस्पतिशास्त्रीय जवाब कि लौकी, कद्दू आदि भी तकनीकी रूप से फल ही हैं। मगर अंकिता जी की समस्या बनी हुई है, कहती हैं- फिलहाल उसे समझाकर सुला दिया है कि ‘सब्जी मतलब जो किसी के साथ खाते हैं, और फल मतलब जो अकेले खा लेते हैं‘।

कुछ गफलत है, खेंढ़ा, इसके पत्ते, तना और जड़ को भी पका कर खाया जाता है और इस तरकारी को सिर्फ ‘जड़ी या जरी‘ भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ी गीतों में खान-पान और साग-सब्जी के कई गीत हैं, इनमें एक मजेदार गीत है- ‘रमकेरिया म राजा राम बिराजे, जरी म/सेमी म सीता माई।‘ छत्तीसगढ़ में महिलाओं के आपसी मुलाकात पर औपचारिक आरंभिक वाक्य होता है- का साग रांधे, दीदी/गोई?

सुमित्रानंदन पंत की कविता ‘ग्राम श्री‘ के अंश, जिसमें फल-सब्जियों को, बिना भेदभाव एक साथ समेटा है, को याद कर लेने का यहां अवसर बना है-

अब रजत-स्वर्ण मंजरियों से
लद गईं आम्र तरु की डाली।
झर रहे ढाँक, पीपल के दल,
हो उठी कोकिला मतवाली।
महके कटहल, मुकुलित जामुन,
जंगल में झरबेरी झूली।
फूले आड़ू, नीबू, दाड़िम,
आलू, गोभी, बैंगन, मूली।

पीले मीठे अमरूदों में
अब लाल लाल चित्तियाँ पड़ीं,
पक गये सुनहले मधुर बेर,
अँवली से तरु की डाल जड़ीं।
लहलह पालक, महमह धनिया,
लौकी औ' सेम फली, फैलीं,
मख़मली टमाटर हुए लाल,
मिरचों की बड़ी हरी थैली।

फिर भी कह सकते हैं कि अधिकतर सीधे खाने वाले फल के बहुवर्षीय वृक्ष होते हैं जबकि सब्जी वाले फलों के मौसमी, कम आयु वाले पौधे होते हैं। खाने वाला फल सामान्यतः मीठा होता है। पकने के पहले कसैला, खटमिट्ठा फिर मीठा, या खटमिट्ठा या खट्टा। लेकिन पका कर सब्जी के रूप में खाए जाने वाले फल फीके स्वाद वाले होते हैं। खाने वाले फल सामान्यतः सीधे, बिना नमक-शक्कर, मसाले के खाया जाता है या खाया जा सकता है, उन्हें पकाने यानि कुक करने की आवश्यकता नहीं होती। सीधे खाने वाले फल और सब्जी पका कर (यानि राइप नहीं कुक) खाए जाने वाले फल में यह अंतर भी बताया जा सकता है कि ऐसे दोनों फलों का आकार तो बदलता है लेकिन सीधे खाने वाले फल का रंग और स्वाद बदल जाता है, जबकि सब्जी वाले फलों का रंग और स्वाद लगभग वैसा ही बना रहता है। कुछ खास उदाहरणों में टमाटर, जो चटनी, प्यूरी, केचप या सपोर्ट, टेस्ट मेकर होता है, स्वयं पूरी तरह स्वतंत्र सब्जी नहीं। इसी तरह नीबू, करौंदा, मिर्च आदि सब्जी के बजाय मुख्यतः शर्बत, अचार, चटनी, मुरब्बा बनते हैं, उन्हें खींच-तान कर सब्जी बनाया जा सकता है और कान पकड़ कर किसी को खिलाया भी जा सकता है, लेकिन ये सब टमाटर की तरह स्वतंत्र और बिना सहयोगी के, आत्मनिर्भर सब्जी में शामिल नहीं हो सकते।

खान-पान की बात हो तो मुंह में पानी आ जाता है, मगर सब फीका, बात तब तक नहीं बनती, जब तक मीठा-नमकीन न हो। ध्यान रहे कि मीठा यानि नमकीन? छत्तीसगढ़ी में कहा जाता है- ‘मिठात नइ ए, नून बने नइ जनाए हे।‘ मारवाड़ी में नमक फीका होने पर कहने का प्रचलन है- थोड़ा मीठा (जी हां, यानि नमक) और डालो। गुजरात का मीठापुर तो नमक उत्पादक है ही। वस्तुतः मीठा यानि स्वाद, स्वाद यानि षटरस का संतुलन। हमारी जिह्वा, स्वाद इंद्रिय ही ऐसी है, जो जन्म के साथ सक्रिय हो कर मृत्यु तक क्षीण नहीं होती। यह व्यक्ति के संयम-अनुशासन की सहज और सबसे विश्वसीय चुगली भी कर सकती है।

बात की बात, यह कि अंकिता जी की किसानों पर एक पुस्तक ‘ओह रे! किसान‘ है। अब फल-सब्जी पर कम से कम पूरा लेख उनकी ओर से आना रोचक होगा। आवश्यकता अविष्कार की जननी है और ऐसी जिज्ञासा, जहां सुई अटक जाए फिर तो देर-सबेर बात बननी ही है। उनकी एक पुस्तक ‘ऐसी-वैसी औरत‘ है, लेकिन वे ऐसी वैसी नहीं, समर्थ जीवन साथी वाली, अद्वैत की जननी और ‘मैं से मां तक‘ पुस्तक की भी लेखिका हैं।

Saturday, April 3, 2021

जगन्मिथ्या

(‘हंस‘ पत्रिका के नवंबर 2020 में प्रकाशित कहानी)

अम्मां ने टीवी म्यूट कर दिया। दीवार पार मुझ तक आवाज आ रही थी। मैं आवाज कम करने को कहता हूं। एक बार, दूसरी बार, तीसरी बार ...। इससे अधिक ऊंची आवाज में कहना नहीं चाहता। शायद टीवी की आवाज में मेरी आवाज खो जा रही है या वह मान ले रही होंगी कि टीवी पर चल रहे दृश्य में पृष्ठभूमि से आवाज आ रही है। कई बार ऐसा होता है कि वे बिना किसी को संबोधित किए, 'जो चाहे सुन ले', वाले स्वर में पुकारती हैं- देखो, दरवाजे पर कौन आया है, जबकि काल-बेल टीवी में बजा होता है। वे यह भी जानती हैं कि इस समय कोई नहीं आने वाला। बस कोरियर वाला है, जो कभी भी आ जाता है। हर हफ्ते मेरे लिए कोरियर आना ‘शायद‘ उन्हें पसंद नहीं। शायद, क्योंकि उनकी पसंद-नापसंद का अंदाजा लगाना आसान नहीं। इस बारे में कोई राय पुख्ता होने लगे तब तक ऐसा कुछ सामने आ जाता है कि उस पर टिका रहना मुश्किल होता है। शायद वे नहीं चाहती कि हमेशा कोरियर से कुछ मंगाया जाता रहे, फिर भी कौन आया है, के साथ क्या आया है? यह उन्हें बेचैन करता है। कई बार लगता है कि वे ‘देखो, कौन है‘ कहने का बहाना खोजती हैं और अपना होना, मेरा होना के अलावा दरवाजे पर किसी और के होने का आभास एक साथ टटोल लेना चाहती हैं। उनका ‘देखो, कौन है‘ कहने का अंदाज, संभावित आने वाले के प्रति अस्वागत की चुगली कर देता है। ऐसा करना उन्हें अभ्यास से आया है, वे ऐसा करना जानबूझ कर करना चाहती हैं या ऐसा हो जाता है, जैसा वे करना नहीं चाहती, तय नहीं हो पाता। कभी ऐसा भी होता है कि मैं किताब पर निगाह टिकाए, अपना मोबाइल टटोलने लगता हूं। दरअसल यह घंटी मेरे फोन की नहीं, टीवी के किसी दृश्य के साथ बज रही होती है।

अम्मां ने अब टीवी म्यूट कर दिया है। मुझे लगता है कि उन्होंने मेरी बात सुन ली है और शायद थोड़ा चिढ़ कर टीवी को म्यूट किया है। छोटा सा सन्नाटा। और फिर खुद बात करने लगी हैं। किससे बात कर रही हैं? किसी से फोन पर? मेरा ध्यान किताब से उचट गया है। आवाज, जो साफ सुनाई नहीं दे रही है, सुनकर समझना चाह रहा हूं। दीवार पार ‘देखने‘ की कोशिश कर रहा हूं। समझ नहीं पा रहा। अम्मां दूसरी भाषाओं, अंगरेजी या किसी भी भाषा का कार्यक्रम देख सकती हैं, देखती हैं। बिल्कुल समझ में न आती हो ऐसी दूसरी भाषा की फिल्में, सीरियल और कई बार समाचार भी देखना उन्हें भाता है। यह शायद इस सुविधा के कारण कि पात्र, परदे पर अपनी मनमानी करते रहें, लेकिन वे क्या कहेंगे, उन्हें क्या कहना चाहिए यह तय करने की छूट वे अपने हिस्से में ले लेती हैं। कई बार पात्रों की भाव-भंगिमा, उनके सोचे, मन में चल रहे संवादों के अनुरूप न हो तो मान लेती कि उसका अभिनय अच्छा नहीं है। ऐसा भी होता है कि किसी पात्र की बातें उन्हें पसंद न आ रही हों तो वे अपने को रोक नहीं पातीं, दृश्य चलने देती हैं और म्यूट कर उसे समझाइश देती हैं, कभी डांट-फटकार लगाती हैं तो कभी अफसोस जताने या संवेदना प्रकट करने के लिए भी टीवी म्यूट कर देती हैं।

टीवी जब तक म्यूट नहीं होता, अपनी आवाज के साथ कमोबेश पूरे घर में बिखरता रहता है। म्यूट होता तो सिमट जाता, तब कुछ देर के लिए, मानों अचानक, नल से पानी टपकने की आवाज, घड़ी की टिक-टिक और पंखे का घट्ट-घट सुनाई पड़ने लगता। आंख की अपनी सीमा है, टीवी देखना हो तो सामने रहना जरूरी। न देखना हो तो बस पलकें मूंद ली, नजरें घुमा ली, मुंह फेर लिया। देख कर अनदेखा भी किया जा सकता है। आंखें, आईना ही तो हैं। आंखों में बनी तस्वीर को दिमाग उल्टाल-सीधा करता रहता है। मगर कान हमेशा जागता रहता है। उसे हमारे जागे-सोए होने से फर्क नहीं पड़ता। इयरफोन लगा कर कान मूंद लो, कुछ और सुनने लगो फिर भी टीवी की आवाज आती रहेगी, जेसे रेडियो पर दो स्टेशन एक साथ बज रहे हों।

दीवारों के कान होते हों या न हों, कान की पहुंच दीवारों के पार भी होती है। ऐसा आंखों के साथ नहीं होता। इसलिए रेडियो के साथ उससे दूर जाने की छूट है, लेकिन टीवी अपने पास, अपने सामने बिठाए रखता है। अम्मां पुकारतीं- सुनो तो। उस पुकार के जवाब में सिर्फ हां कहने से बात न बनती, अम्मां हां का जवाब सुन लेतीं फिर भी आवाज देती रहतीं। उनकी पुकार सुन कर कोई उन तक पहुंच जाए, उनके पास खड़ा हो तब भी बात नहीं बनती। उनकी नजरें टीवी पर जो होती हैं। बात तब बनती, जब अम्मां मुड़ कर देख लें या वह उनकी आंखों के सामने पहुंच जाए। सामने आने पर नजर भर देख लेतीं, तब मानतीं कि सुन लिया है। फिर समझाना शुरू करतीं- देखो! इस ‘देखो‘ का मतलब होता, ध्यान से सुनो। अम्मां की आंखों सुनी, कानों देखी दुनिया।

कभी अम्मां कहती रहती थीं, उन्हें टीवी देखना पसंद नहीं और दिन भर मोबाइल हाथ में लिए रहना, चोचले से भी उन्हें कोफ्त होती है। काम-धाम छोड़ कर टीवी से चिपके रहना, जैसी निठल्लाई कुछ नहीं। बेमतलब के समाचार, जिनसे कोई लेना-देना नहीं, देखते रहो। उस पर भी बकवास बहसें। खुद भी उलझ पड़ो। खेल कोई खेलना नहीं और घर बैठे क्रिकेट, फुटबाल करते रहो। घर-घर और सास-बहू, एक पर एक बंड, एक से एक डग आगे कुलटा। बड़े बनने वालों की फूहड़ बातें और हरकत। मोबाइल ने सब का दिन-रात हराम किया हुआ है। बात सिर्फ बातों तक थी, तब तक तो फिर भी गनीमत थी। अब तो सब कुछ मोबाइल। यहां तक कि बच्चों को मोबाइल छोड़ पढ़ने को नहीं कह सकते। पढ़ने को कहा कि बस मोबाइल हाथ में। कान में इयर-फोन, फिर बच्चे कहां किसी की सुनने वाले। क्या जमाना आ गया।

सचमुच, क्या जमाना आ गया। घर में बच्चे पढ़ने वाले। सब औरत-मर्द कामकाजी। सुबह होते एक-एक कर अपने काम पर निकलने लगते और बारी-बारी काम वाली बाई आने लगतीं। एक झाड़ू-पोंछा के लिए। एक कपड़ा-बर्तन के लिए। एक खाना बनाने के लिए। और एक, अब हो गई थी मालिश वाली, अम्मां की चहेती। अम्मां और उसकी बातें, दरयाफ्त, पड़ोसियों और मुहल्ले भर की खोज-खबर, फुटकर सामान लाना-ले जाना, कुल मिला कर उसके इतने काम होते थे कि उसे किस काम वाली कहा जाए, तय नहीं हो पाता था। अब मालिश भी करने लगी थी, इसलिए नाम हुआ मालिश वाली। घर के बाकी लोग, इन सबको इसी तरह जानते-पुकारते थे। अम्मां सबका नाम जानती थीं और उनके नाम से बुलाती थीं।

अम्मां को इन काम वाली बाइयों के असली नाम, यानि मायके वाले, पुराने, शादी के पहले वाले नाम भी पता थे। मगर वे उन्हें उनके गांव पर बने नाम से पुकारती थीं। मालिश वाली बेलसपुरहिन थी। झाड़ू-पोंछा वाली ने काम छोड़ा और उसकी जगह नई, उम्रदराज बाई आई, यह भी बेलसपुरहिन थी। अम्मां ने रास्ता निकाला, पहले तो कुछ दिन उसे असली नाम ‘मंगली‘ कह कर पुकारा। वैसे यह भी उसका असली नाम न था। वह बिलासपुर के मंगला की रहने वाली थी। ‘मंगली‘ यों तो छोटा नाम था, मगर इस नाम से बुलाना उन्हें सहज नहीं लगता था। इसी बीच किसी ने उनसे कह दिया कि रोज-रोज, बार-बार मंगली-मंगली क्यों उचारती रहती हो। बेवजह मंगल-अमंगल का फेरा। उस दिन से बूढ़ी बेलसपुरहिन, नवेली हो कर छोटी कहाई और मालिश वाली युवा, घर में पहले आमद दर्ज, बड़ी कहाने लगी, दोनों के नाम के साथ का बेलासपुर कुछ ही दिनों में जाता रहा।

नापसंद के बावजूद अम्मां टीवी के सामने बैठने लगी। रिमोट हाथ में, चैनल भी खुद से बदलने लगीं। क्या करें! ‘इस घर‘ में तो किसी के पास समय नहीं, कोई खाली नहीं बात सुनने को। अम्मां कहतीं। इस घर पर इतना जोर होता, मानों उन्हें पता हो कि बाकी पारा-पड़ोस में क्या होता है। या शायद वे इस बहाने उस घर, अपने घर यानि मायके को, मायके के दिनों को याद कर लेती थीं। उनका ऐसा कहना सपाट-सा होता कि उसमें कोई कुढ़न-अफसोस नहीं पकड़ा जा सकता था। अम्मां ठीक ही कहती हैं, कहानी कहने को नानी-दादी हैं तो बच्चे कहां रह गए सुनने वाले। यहीं प्रवेश होता है, मालिश वाली का। वह मालिश वाली तो बाद में हुई। पहले वह कहानी सुनने वाली बन कर आई थी। जब उसका महीना तय हुआ कि वह रोज शाम एक घंटे के लिए आएगी और अम्मां से कहानी सुनेगी। सिलसिला चल निकला। अम्मां कहतीं- सबकी अपनी रामकहानी।

अम्मां शाम की चाय पी कर बरामदे में आ जाती थीं। ठीक समय पर मालिश वाली आती। जै-जोहार के बाद अम्मां की कहानी कथावाचक-सूत्रधार घोषणा के साथ शुरू होती- ‘आज हम अमुक की कहानी कहेंगे‘, कहानी सुनाएंगे नहीं, कहानी कहेंगे। अमुक होते- राजा हरिश्चन्द्र, भक्त प्रहलाद, लक्ष्मीबाई, शिवाजी महराज, भीष्म पितामह, महाराणा प्रताप, मीराबाई ... ...। महीना तय हुआ, उसमें मालिश वाली के लिए चाय की शर्त नहीं थी। मगर कहानी सुनते-सुनते वह ऊंघने लगती। अम्मां ने इसका बुरा नहीं माना, बल्कि बीच में पांच मिनट का इंटरवल होने लगा, जिसमें मालिश वाली के लिए चाय आ जाती। मालिश वाली जो ठीक चार बजे आती और पांच बजे, चाहे कहानी अधूरी रहे, लौट जाती थी, अब चाय के एवज में कुछ देर होने पर भी न सिर्फ रुकी रहती, अड़ोस-पड़ोस का बुलेटिन सुना जाती। छोटे-मोटे सौदा-सुलुफ निपटा देती। इस तरह वह कहानी सुनते, निठल्ली पगार पाने वाली से, काम कर पैसा कमाने वाली बन गई।

पुरुष विभाग में दूध वाला, पेपर वाला, धोबी और माली थे। इनका नाम रामू या छोटू होता। बालिग हो तो रामू और कमसिन हो तो छोटू। कभी-कभी ऊंचाई में कम हो वह भी छोटू हो जाता था। इन सबके आने का समय अलग-अलग था। पहले अखबार वाला, फिर दूध वाला रोजाना। माली उसके बाद, हफ्ते में एक बार दोपहर तक और शाम को धोबी, हफ्ते में दो बार। इनके आने का समय अलग-अलग और इतना निश्चित था कि इनमें से कोई भी शायद एक-दूसरे को न जानता हो और जानता भी हो तो यह नहीं जानता होगा कि इस घर में जहां उसका आना-जाना है, दूसरा भी इसी घर में आता है। धोबी खुद आता या उसका लड़का छोटू। फिर भी नागा बस उसी का होता था। उसके बढ़ते नागे को देखते हुए दूसरे धोबी पर भी समानांतर विचार होने लगा था।

माली, देस जाता तभी नागा होता। ऐसा हर साल और साल में बस दो बार होता। पूरे साल में कुल दो नागा। साल की बावन में से पचास हाजिरी। इसलिए उसे नागा नहीं माना जाता। दूध वाला और पेपर वाला खुद नहीं आते, तो उनके बदले कोई दूसरा आता होगा। दूध वाला, ऊंची आवाज में ‘दूध‘ कहता और लापता हो जाता। पेपर वाला, चुपचाप पेपर फेंक जाता, ध्यान रहे तभी थोड़ी आहट पता लगती। कभी-कभार ही उसे देख पाते, उसके अस्तित्व में उस खुद से ज्यादा उसका फेंका हुआ पेपर होता। इसलिए उसके बदले कोई और पेपर फेंक जाता तो भी फर्क न पड़ता। पेपर वाला पहली तारीख को नियम से बिल ले कर आता, मान लेते कि वही ‘पेपर वाला‘ है। अम्मां पेपर को गजट कहतीं और बाबूजी से सुना था 'अखबार'। इस तरह समाचार-पत्रों से हमारा रिश्ता भी कुछ-कुछ फर्क था। अम्मां कहतीं- सबहिं नचावत राम गोसाईं।

एक सदस्य डागी था। घर में चली आ रही पिछली कई पीढ़ियों का वंशज। यह एक ऐसा था जिसका नाम हमारे, अम्मां के और सभी के लिए एक ही, ‘डागी‘ था। उच्चारण में जरूर फर्क होता। वह अंतर डा से डॉ होते डो के बीच का। इस तरह वह डागी, डोगी और इसके बीच वाले उच्चारणों से चार-पांच नाम वाला माना जा सकता था। डागी बहुत छोटा था, शायद उसे ठीक से मालूम भी न रहा हो कि उसका नाम भी है तब इस प्रस्ताव पर विचार हुआ था कि इसका नाम बदल कर शेरू कर दिया जाय। अधिकतर को यह नाम पसंद आ गया था। वह भी इस नाम पर पूंछ हिलाने लगा था। तब तक तर्क आ गया कि यह शेर की इज्जत का सवाल होगा, उसकी भी कोई औकात होती है। वितर्क हुआ कि कौन सा शेर को पता लगना है और वह इतनी सी बात का क्यों बुरा मानने लगा। रंगरूट-मजूर को मेठ-मुंशी जी कह देने पर भला कौन सा मुंशी जी की इज्जत में बट्टा लग जाता है।

आखिरकार माना गया कि नाम का असर तो होता है और नाम शेरू हुआ तो वह खूंखार हो जाएगा, इसलिए परंपरा का निर्वाह करते हुए नाम डागी ही चलने दिया जाए। डागी, डागी ही रह गया। इसके असल नस्ल के होने का पुराना पैडिगरी रिकार्ड, घर के अन्य जरूरी दस्तावेजों के साथ रखा था, जिससे पता चलता था कि इसका पुरखा, जर्मन शेफर्ड-जीएसडी, अलसेशियन, जमाने पहले किसी अंगरेज अफसर के घर आया था। इतिहास रूप बदल कर अपने को इस तरह दुहराता है, कि पता न लगे, दुहरा रहा है, नकल कर रहा है। वैसे भी खुद की नकल, नकल कैसे हो सकती है। खैर, यह शेफर्ड कुत्ताग ‘जर्मन‘ कहा गया, जिस तरह अब ट्रंप कोरोना वायरस को चाइना वायरस कहते हैं, कोई वुहान वायरस और बाकी दुनिया चाहे कोविड-19 कहती रहे।

पीढ़ी-दर-पीढ़ी यदि इन्हें डागी प्रथम, डागी द्वितीय, डागी तृतीय कहा जाता तो यह गिनती पंद्रह-बीस तक पहुंच गई होती। रिकार्ड अब गुम हो गया था और ठीक याद रख पाने वाला इस पीढ़ी में कोई नहीं रहा, जो बता सके कि यह डागी की कौन सी पीढ़ी है। यह ठीक उतना ही गैर-जरूरी हो गया था जितना खुद अपनी पांचवी पीढ़ी के ऊपर मातर और सातवीं पीढ़ी के ऊपर के पितर-पुरखों का नाम जानना, मगर अब इतना भी कौन याद रखता है। डागी को अम्मां नापसंद करती थीं, लेकिन अम्मां के व्यवहार से यहां भी तय कर पाना संभव नहीं होता कि वे उसे कितना और कैसे नापसंद करती हैं या पसंद।

चुनावों में वोट किसे देना है, अम्मां यह खुद तय करतीं। उन्होंने वोट किसे दिया, हम कभी ठीक अंदाजा नहीं लगा पाते। पूछने पर कहतीं, गुप्त मतदान। चुनाव कोई भी हो, परिणाम आने पर खुश होतीं, और कुछ दिन बाद नाराज होती रहतीं। बहरहाल, अपनी नापसंद के बावजूद डागी को दोनों समय खाना देना, उसका टीका, तबियत खराब होने पर इलाज और ठंड में उसके लिए गुदड़ी का इंतजाम वही करती थीं। अम्मां ध्यान देती रहतीं कि उसके नाक पर नमी है या नहीं। नाक सूखी दिखती, तो बुदबुदाने लगती कि इसकी तबियत ठीक नहीं है और खाने के समय उसके सामने मठा रख देतीं। मठा की ओर वह ध्यान नहीं देता और भूखा होने पर भी नहीं पीता तो अम्मां मान लेती कि उसकी तबियत ठीक है और उसे दूसरे समय सामान्य खाना दिलवा देतीं। पूछने पर बतातीं कि मठा से डागी के तबियत की जांच भी होती है, न पिये तो तबियत ठीक है, पी ले तो खराब और पिया तो यही दवा और इलाज भी। डागी को टीका लगवाने के अलावा उसके लिए कभी डाक्टर की जरूरत नहीं पड़ी। अम्मां की ऐसी बहुत सारी ज्ञान की बातों का स्रोत क्या है, पता नहीं लगता। मठा-कल्प वाले फार्मूले पर उन्हें टोक दें कि यह तो देसी कुत्तों वाला तरीका है तो वे समभाव से अभिधा में तर्क करते हुए कहतीं, कुत्ता तो कुत्ता ही होता है, फिर यह हमारा कुत्ता है और हम ही कौन से विदेशी ठहरे।

अम्मां एकादशी का व्रत रखतीं और तीज-त्यौहार की तिथियों का ध्यान रखतीं। अम्मां को शायद यही एक बात पसंद आई थी कि डागी ने जब से होश संभाला है, वह एकादशी का व्रत रखता है। न जाने उसे कैसे पता चलता, एकादशी के दिन सुबह आठ बजे वाली खुराक सूंघता भी नहीं, उस दिन एक बार, एकजुनिया रहता। शाम पांच बजे दूध-रोटी। अम्मां का स्नान-ध्यान सुबह दस बजे तक चलता रहता। कभी ऐसा भी होता कि एकादशी की तिथि ध्यान में नहीं रहती। उन्होंने नियम बना लिया था कि खुद मुंह जूठा करने के पहले जा कर डागी का कटोरा देख लेतीं।

डागी, अम्मां के साथ टीवी देखता, ब्रेक में दरवाजे तक चक्कर लगा आता। घुरघुरा कर, गुर्राकर या खंखारते, धीमी आवाज में भूंकते अपनी टीवी पर चल रहे कार्यक्रम के लिए पसंद-नापसंद जाहिर करता। वह जानता था कि अम्मां उसे पसंद नहीं करतीं, अम्मां उसे डांटती, लेकिन चैनल बदल देतीं। वह फिर से दोनों पैरों पर थूथन टिकाए, आंखें मिचमिचाते टीवी देखने लगता। कौन सा न्यूज चैनल देखना है, के मामले में अम्मां डागी की राय को अधिक तरजीह देतीं। अन्य चैनलों के लिए अम्मां की पसंद से डागी की नाइत्तिफाकी कभी-कभार ही होती। डागी का व्यवहार, घर के बोनाफाइड सदस्य सा हो गया था। शायद यह पीढ़ियों का असर था। अपनी उम्र के सात-आठ सालों में ही उसने यह प्रतिष्ठा अर्जित कर ली थी। लगता है कि उसकी अगली पांच-सात पीढ़ियां इसी तरह रहीं तो सेपियन भले न बन पाएं, बंदर जरूर बन सकते हैं। यों भी तो वह अपने भेड़िया पुरखों की कुत्ता संतान था।

अम्मां ने नापसंद के बावजूद मोबाइल युग में प्रवेश कर लिया था। अम्मां का मोबाइल बटन वाला है। उसके फोन बुक में सिर्फ एक नंबर है, मौसी का। नाम की जगह भी नंबर ही लिखा है। इस तरह मौसी का नंबर दुहरा कर लिखा गया है। बाकी के नंबर अम्मां की उस डायरी में हैं, जिसे वह अक्सर यहां-वहां रख कर भूल जाती हैं। इस डायरी में कुछ भजन लिखे हुए हैं, जो सब के सब अम्मां को जबानी याद हैं। इसमें काशी, प्रयागराज, गयाजी, पुरी और बदरी-केदार के पंडाजी महराजों का अता-पता दर्ज था, तीर्थ जाने की बात आए तो कहतीं, अभी तो यहीं हमारे चारों धाम। उनकी इस बात के कई मतलब निकाले जा सकते थे। काम वालियों के नाम और काम पर लगने की तारीख के अलावा इसमें कई डाक-पते लिखे हुए हैं, जिन पर अब चिट्ठियां नहीं भेजी जातीं। इन पतों की जरूरत तभी होती है, जब गमी-खुशी का कार्ड भेजना हो। अम्मां की डायरी का एक-एक हर्फ उनका लिखा हुआ था, लेकिन उसे पढ़ कोई भी सकता था। वह खुली किताब थी, खोया-पाया जैसी। डायरी की जरूरत यदा-कदा ही होती, मगर अम्मां चाहतीं कि डायरी का पता-ठिकाना मालूम रहे। डायरी कहीं भी रखकर भूल जाती, ऐसा अक्सर होता है, उस दिन सारी काम वालियों को डायरी खोजने का अतिरिक्त काम करना होता है।

झाड़ू-पोंछा वाली का चटक-मटक अम्मां को एक नहीं सुहाता। आए दिन नागा भी करती है। टच स्क्रीन, नया मोबाइल खरीद लिया है। अम्मां झिड़कती हैं, नागा हुआ तो फोन कर बताना चाहिए, कि नहीं आ पा रही है। बहाना एक से एक। आने पर कहती है, पानी बरस रहा था, छाता महंगा हो गया है, आप ही खरीद कर दे दो। अम्मां बड़बड़ाती, फोन तो जैसे मुफ्त में आया होगा। फोन डायरी खोज कर लाई और हाथ में पकड़ाते हुए कहा- आप भी स्मार्ट फोन ले लो अम्मां। कुछ दिनों बाद अम्मां उसकी नापसंदगी वाली इस बात को बार-बार याद करने लगीं। पूछतीं कि इसका वाला फोन कितने में आता होगा, स्मार्ट फोन लेने वाली उसकी बात दुहरातीं, मुझे कहती है, आप भी ले लो, इसकी ऐसी ही बेकार की बातें मुझे एकदम पसंद नहीं। लगने लगा है कि उनके लिए टच स्क्रीन लाना, हो सकता है उन्हें पसंद नहीं आने वाला, फिर भी अब मंगाना होगा।

अम्मां के हिसाब से उनका मोबाइल ‘आडियो चैनल‘, सच्चा है। यह बात अलग है कि मोबाइल वार्तालाप में टीवी पर देखी-दिखाई बातें भी होती हैं। मोबाइल वाले चैनलों में से मामा-मायका चैनल में अक्सर बाधा आती रहती थी, नानी के जाने के कुछ दिनों बाद से बंद ही पड़ा है और इसकी जगह मौसी चैनल ने ले लिया है, यह इनकमिंग और आउटगोइंग दोनों है और हर दिन देर-देर तक सक्रिय रहता है। मोबाइल का एक सहेली चैनल है, लेकिन वह तभी जुड़ता है, जब इनकमिंग हो। कभी-कभी एक मामी चैनल भी सक्रिय होता है, वह भी सिर्फ इनकमिंग है। दोनों बुआ के चैनल आउटगोइंग हैं, इस दोनों पर कॉलर ट्यून की तरह स्वागत वाक्य है- ‘आप तो हमें भूल ही गईं।‘ सत्य-आग्रही अम्मां को यह सुनना तनिक भी बुरा नहीं लगता।

अम्मां , टीवी के इंटरटेनमेंट चैनलों को खबरों की तरह और खबरिया चैनलों को इंटरटेनमेंट की तरह देखती हैं। आस्थाय, सास-बहू, तारक मेहता तो चलता ही रहता है। कोरोना, राम मंदिर, एनकाउंटर मामले, मैचमेकिंग भी इन दिनों जोर पर है। अम्मां को दुनिया-जहान की सारी कच्ची-पक्की खबर होती है। टीवी पर सब झूठा-सच होता है, ऐसा अम्मां का दृढ़ विश्वास है, इसलिए सभी चैनल उनके लिए भेदभाव मुक्त, एक जैसे असर वाले हैं। अम्मां, इस स्रोत से मिली खबरें काम वालियों के लिए जारी करती हैं, अलावे मालिश वाली के। मालिश वाली खुद एक बहुरंगी फ्री टू एयर चैनल है।

मेरी आदत बन गई थी कि अब टीवी की आवाज न सुनाई दे, म्यूट हो जाए तो ध्यान भटक जाता था। टीवी की आवाज, तानपूरा हो गया था। टीवी म्यूट में अक्सर अम्मां के मोबाइल चैनल चालू हो जाते थे। दूसरी तरफ मौसी होतीं, तब मालिश वाली का शामिल हो जाना, अम्मां को असहज न करता और मौसी ने भी उसकी उपस्थिति और भागीदारी को जान-मान लिया था। त्रिकोणीय वार्तालाप का चौथा कोण, श्रोता मैं हूं, जिसने इस वार्तालाप में अनजाने ही, अप्रस्तुत मौसी की ओर से आने वाली टिप्पणियां, मन ही मन पूरी करने की जिम्मेदारी ले ली है। बातचीत में ‘सबके जाने का दिन तय है, जिसका जब लिखा हो, मौत का क्या ठिकाना, कब आ जाए‘ जैसे आप्त वचन होते। निश्चित करना आसान नहीं होता कि ऐसा किसी टीवी शो में हुआ है, खबरिया चैनल में या सचमुच। इसी तरह ‘जोड़ियां तो ऊपर से बन कर आती है‘, सुन कर लगता कि मौसी के यहां किसी मांगलिक कार्यक्रम की तैयारी है, पर कुछ देर बाद यह मैचमेकिंग शो के पात्रों में बदल जाते। मौसी की तबियत बिगड़ने पर बातें कम होती और बात के मसले भी कुछ अलग, यानि डॉक्टर, दवाएं, अस्पताल होते। मौसी की ओर से अपनी बहू का दुखड़ा आने लगता, तो पता लग जाता कि फिर लंबी बात होगी, मौसी की तबियत सुधर गई है।

फिल्मी चैनल और गॉसिप क्या, आजकल तो सब कुछ सिनेमा-सिनेमा हो रहा है। अमुक हीरो कैसे मरा? कोरोना से, नहीं बीमारी से। और फलां कैसे मरा? कोरोना से, नहीं अपनी मौत से। वह कैसे मरा? करोना से, नहीं, फांसी लगाकर, नहीं जहर से, नहीं नहीं ड्रग से। मरा या मारा गया। महिला मित्र, स्टाफ, मित्र, भाई, वकील। टीवी के पात्रों का आह्वान-अनुष्ठान ऐसा कि म्यूट हो तो भी लगता है कि छिटक कर स्क्रीन से बाहर आ रहे हैं। घर में चहलकदमी करते आगंतुक घुसपैठिए। अपनी आवाज के पीछे-पीछे घर में बसेरा करने लगे हैं। तमाशा और तमाशबीन लोग। फिल्म वाले मर कर भी फिल्म बन जाते हैं। बायोपिक, रियलिटी शो। सीन क्रिएट, रिक्रिएट किया जा रहा है। दृश्य गढ़े जा रहे हैं। मालिश वाली याद दिला रही है कि अंगरेज लोग मरते हैं उसे सुसाइड कहते हैं, वैसे ही फिल्म वालों की अचानक मौत का सीन हो यानि फिल्मी मौत, उसे ऑटोप्सी कहते हैं। मौसी को कलाकार पर लाड़ आता है। मौसी के लाड़ का तो तकिया-कलाम ही है- मुई, मुआ। अम्मां वचन- होइहि सोइ जो राम रचि राखा।

दीवार के पार दृश्य बन रहा है, एक ऊंची मीनार है, जिस पर कोई चढ़ता जा रहा है, बिना एहसास कि गिरने का खतरा है। कुछ समय बाद वही मीनार, दूरबीन बन कर उसके हाथों में आ गई है। वह दूरबीन पर आंख सटाए चांद-सितारों को छू लेना चाहता है, उन्हीं में समा जाना चाहता है। हमलोग टीवी के फ्रेम में समाए हैं, ग्रुप फोटो बनकर और वह अब दूरबीन लिए टीवी देखते अम्मां की कुरसी पर आ बैठा है।

टीवी, म्यूट है। टप-टप टप-टप, टिक-टिक-टिक, घट्ट-घट।