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Friday, May 12, 2017

समाकर्षात्

स्वीकारोक्ति- शास्त्र से लिए गए भारतेन्‍दु जी के शब्दों 'भ्रान्ति पुरुष का धर्म्म है', के साथ 'अपना बनाया यह नोट', पाठक की तरह पढ़ते हुए मुझ खुद को लगा कि सब असम्बद्ध, गुत्थम-गुत्था उलझा तो है ही, घिसा-पिटा भी, तब सहारा मिला योगवासिष्ठ की उलटबांसी का- 'संसार कहानी सुनाने के बाद बचे उसके प्रभाव जैसा है।' या दूसरे शब्दों में 'समूची दुनिया किसी कथा के छूटे प्रभाव की तरह है।' या 'देवस्य काव्यम्' यह समूचा व्यक्त जगत, या 'व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्।'

'कलम' रायपुर (अविवाहित रहकर एक विवाहित पुरुष, पांच बच्चों के पिता के साथ टंगे रहने वाली 'स्त्रीःउपेक्षिता' और 'अन्या से अनन्या' वाली प्रभा खेतान के फाउन्डेशन का साहित्यिक आयोजन) में कलमोत्तरी इस कीबोर्ड दौर की लेखिका नीलिमा चौहान आमंत्रित थीं, 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' के साथ। गोष्ठी और चर्चा में बार-बार बात आती रही कि यहां, इस रचना में कहा गया सब कुछ पहली बार है, एकदम नया। आपसी बातचीत में लेखिका ने यह भी बताया कि उनके पसंदीदा लेखक कृष्ण बलदेव वैद हैं। इसके बाद तो बस 'बदचलन बीवियों का द्वीप' ही याद आ सकता था और मौलिकता पर याद आता है शब्द 'ज़िदगीनामा', जो 26 बरस तक अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती के बीच कानूनी विवाद (तिरिया हठ?) का कारण बना रहा, और अब एक अन्य महिला अन्विता बाजपेई ने चेतन भगत पर 'चोरी' का आरोप लगाते हुए न्यायालय की शरण ली है। यों, पुनर्नवा-परम्परा के नजरिए कहा जा सकता है कि 'नया तो अखबार की तरह रोज होता है, जो अगले दिन पुराना और हर माह रद्दी हो जाता है।'

इसी बहाने नारी चरित्र और मौलिकता पर तलाश की गड्डमड्ड, पढ़ा-सुना वह थोड़ा गुनते हुए, कुछ यों-

तलाश से वैसा कुछ हासिल होता है, जो चाहत नहीं और तलाश स्थगित होती रहती है, कभी अल्प विराम, कभी अर्द्ध विराम, लेकिन पूर्ण विराम सारे परत खुल-उतर जाने पर होता है, जब हासिल में शून्य उपलब्ध हो। यानि परतों में वैसा ठोस-मूर्त कुछ नहीं, और अंत में तो कतई नहीं, जो हो सके तो वह परतों के बीच होता है, 'बिटविन द लाइन्स' या आखिरी हासिल शून्य होता है। लेखन में लिखे-कहे को पाठ की तरह पढ़ लेना, रट लेना तो उसे निरर्थक कर देना हुआ, उसके बीच जो अनकहा रह जाता है, रस रचता है, लक्ष्य वही हो सकता है। जेन दर्शन के सार्थक मौन 'मू' की तरह, रिक्ति में आकार 'दिक्' की तरह।

आदि ग्रंथ, ऋग्वेद, संहिता अर्थात् संकलन है। वैदिक ग्रंथों में पूर्व ऋषियों, उसिज्, जामदग्नि आदि के सूक्त नहीं हैं, मगर उनका स्मरण है-
'यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।'
'देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानानाा उपासते।'
'ये च पूर्वेऋषयः ये च नूत्ना इन्द्र ब्रह्माणि जनयन्त विप्राः।'
'यच्चिद्धि पूर्वे कवयो गृणन्तः।'
'त इद्देवानां सघमाद आसन् ऋतावानः कवयः पूर्व्यासः।'
मानों आदि-मूल निर्गुण-शून्य-अमूर्त ही होगा, परम्परा में अवधारणा में होगा, वही व्यक्त हो, मूर्त हो रहा हो।

गीता में संजय, कुरुक्षेत्र के दृश्य और कृष्ण-अर्जुन संवाद से धृतराष्ट्र को अवगत करा रहे हैं, जो इस काव्य-रचयिता के माध्यम से अभिव्यक्त हो कर, अनाम लिपिकार से होते हम तक पहुंचा है, परत-दर-परत। ''प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।'' सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, तो भी अहंकार-मूढ चित्त वाला अज्ञानी, 'मैं कर्ता हूं', ऐसा मानता है। वैदिक ऋषि अपने रचे मंत्रों को अपौरुषेय मानते हैं और स्वयं को द्रष्टा। ‘कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः‘ कहते हुए कवि ने स्वयं को इसका द्रष्टा मात्र माना है। या जैसा हजारीप्रसाद द्विवेदी के लिए नामवर सिंह बताते हैं- वैष्णव दर्शन का मूल सिद्धांत है अपने को कर्ता न मानना। इस धारणा का आधार है द्विवेदीजी का यह प्रिय श्लोक- तत्रैवं सति कर्त्तानरमात्मानं मन्यते तु यः। श्यत्कृत-बुद्धित्वान्न स पश्यन्ति दुर्मतिः।। और ''उनकी यह भी धारणा थी कि मनुष्य जब स्वयं बोलता है तो अपने असली रूप में नहीं होता। उसे एक मुखौटा दे दीजिए, फिर देखिए वह सच बोलने लगेगा।'' अज्ञेय कहते हैं- ‘किसी भी बड़े सत्य को कहने के लिए मुखौटे की आवश्यकता पड़ती है। मानव इतना बड़ा कहाँ है कि बिना मुखौटे के किसी बड़े सत्य को जबान पर ला सके!‘ गिरीश कारनाड के नाटक 'अग्नि और बरखा' का संवाद है- ''अब अपने आप को समर्पित कर दो इस मुखौटे को ... ज्योंही तुम मुखौटे को जीवंत करते हो तो उस पर तुम्हें नियंत्रण भी साधना होगा। नहीं तो मुखौटा ही तुम पर चढ़ बैठेगा।'' ... और फिर ''मुखौटा जीवंत हो उठा है।''

द्विवेदीजी यह प्रयोग करते हैं और उपन्यास का शीर्षक रखते हैं 'बाणभट्ट की आत्मकथा' इससे एक कदम आगे है, 'अनामदास का पोथा', जिसमें कई परतें हैं, इस उपन्यास के मुख्य पात्र रैक्व में साफ-साफ उपनिषदों के रैक्व के साथ महाभारत के ऋषिकुमार ऋष्यश्रृंग का मेल है, लेकिन ऋष्यश्रृंग का उल्लेख न पा कर असमंजस बना रहता है, मजेदार यह कि उपन्यास में आगे बढ़ते हुए जब पाठक के ध्यान से ऋष्यश्रृंग निकल जाता है तब रैक्व की कहानी उस जगह पहुंचती है जहां भरत मुनि के प्रधान शिष्य कोहल मुनि के सम्प्रदाय वाले कोहलीय विधि-विधानपूर्वक, बहुत जाने हुए ऋष्यश्रृंग के कथानक वाला नाटक खेलते हैं, जिससे यहां वैष्णवी चोले में नाटक, कथा, प्रसंग, संदर्भ और पात्रों की परतों में अद्भुत रस-सृष्टि हुई है। धर्मवीर भारती ने माणिक मुल्ला का बाना धर कर 'सूरज का सातवां घोड़ा' का कथा-चक्र रचा है और स्वयं को इसका प्रस्तुतकर्ता बताया है। मनोहर श्याम जोशी 'कसप' के आरंभ में लिखते हैं- ''किसी के रचे पर मैं जो रच रहा हूं ... क्योंकि मूल कथा संस्कृत में लिखी बेढ़ब-सी कादम्बरी है।'' और 'क्याप' का आरंभ होता है- ''अफसोस कि यह कहानी पहले लिखी जा चुकी है। खास ढंग की परतदार कहानी 'हमज़ाद' वे शुरू करते हैं- ''हर सच्ची कहानी की तरह यह कहानी भी झूठी है। सच्ची कहानी भी कहानी होती है और कहानी का सच हक़ीक़त के सच से ज़ियादः सच होता है और ज़ियादः सच को झूठ मानने का दस्तूर बड़ा पुराना है।'' और भवाल सन्यासी वाले उपन्यास ‘कौन हूॅं मैं‘ वाली राम कहानी के झूठ-सच का लेखक-कथावाचक एकाधिक परतों में है। ... ... ... कुछ मौलिक कर दिखाने की सम्भावना शायद गुणाढ्य के बृहत्कथा लिख डालने के साथ ही चुक गई थी। प्रसंगवश, रामकथा और रामलीला की परतें यह कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं' की व्याख्या अंगरेजी हुकूमत के विरोध का साधन होती थी। एक नजरिया यह भी है कि तुलसी मानस, मुगल साम्राज्य के खिलाफत के लिए एक हथियार की तरह रचा गया था।

कहानियों में पात्र, कभी कथाकार बन जाता है तो कभी कहानी का पात्र। कहानी में कहानी कब शामिल होती है, कब बाहर निकल जाती है, लेकिन यह सब मिल कर होती कथा ही है, गल्प-गप्प। पंचतंत्र के एक पात्र विष्णु शर्मा हैं और वही उसके रचयिता? भी। भगवान सिंह ने पंचतंत्र की भूमिका में लिखा है कि ये बेचारे शर्मा जी होने और न होने के बीच त्रिशंकु की तरह शताब्दियों से लटके हुए हैं और ''यदि मैं पंचतंत्र का लेखक विष्णु शर्मा न हुआ, किसी लेखक का रचा हुआ पात्र ही हुआ तो क्या। मेरे आगे पंचतंत्र के लेखक को कौन पूछता है।'' वाल्मीकि और वेदव्यास अपनी कृतियों में पात्र के रूप में भी उपस्थित हैं। अध्यात्म रामायण के अयोध्याकाण्ड में राम वनवास के लिए प्रस्थान करते हुए सीता से वन के कष्टों की बात कहते हैं कि तुम घर ही रहो, मुझे शीघ्र ही देख पाओगी। इस पर सीता कहती हैं कि आपने बहुत से ब्राह्मणों के मुख से बहुत सी रामायणें सुनी होंगी। बताइये, इनमें से किसी में भी क्या सीता के बिना रामजी वन गये हैं? और वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में लव-कुश का राम को रामायण सुनाया जाना। कहीं रामायण का मूल रचयिता हनुमान बताए जाते हैं, जिस रचना के एक अंश से वाल्मीकि ने रामायण रचा। हमारे महाकाव्य और कथाएं, आरंभ होने से पहले शुरू हो जाती हैं और समाप्त होने के बाद भी पूरी नहीं होतीं। और कहानी के श्रोता तो एकाधिक होते ही हैं, एक ही कहानी के वाचक भी कई-कई हैं।

लुबना मरियम ने 'खोजा नसरुद्दीन के कारनामे' में दानिशमन्द आलिम अबू मुहम्मद अली इब्‍नहज्म की पुस्तक 'बत्तख का हार' का उद्धरण लिया है, रोचक है- ' ... यह कहानी हमने अबू-उमर-अहमद-इब्‍न-मुहम्मद से सुनी, जिन्होंने इसे मुहम्मद-इब्‍न-अली-इब्‍न-रिफा से सुना, जिन्होंने इसे अली-इब्‍न-अब्दुल-अजीज से सुना, जिन्होंने अबू-उबैद-अल-कासिम-इब्‍नसलाम का हवाला दिया, जिन्होंने इसे अपने बुजुर्ग उस्तादों के मुंह से सुना और आखिरी उस्ताद ने सबूत में उमर-इब्‍न-अल-खत्ताब व उनके बेटे अब्दुल्ला-अल्लाह उन पर करम करे-का जिक्र किया ... '

यह अब तक निभता आ रहा है, जहां श्याम बेनेगल की फिल्म 'समर' में एक अलग ही फिल्म पनपने लगती है, मधु राय के नाटक 'किसी एक फूल का नाम लो' के अंदर एक बड़ा नाटक पैदा हो जाता है और गिरीश कारनाड के नाटक 'नागमंडल' में कहानी सुनने-सुनाने की कहानी है। परतदार कहानी की बात पर विनय शुक्ला की फिल्म 'मिर्च' की याद जरूर आती है, जिसमें खासी बदचलनी भी है। छत्तीसगढ़ में प्रचलित आल्हा गाथा के एक सांगीतिक नाट्य स्वरूप 'तारे-नारे' या 'घोड़ा नाच' में कलाकार अपनी भूमिका के साथ-साथ पात्र-स्वयं का परिचय देने वाला सूत्रधार और कभी स्वयं की गाथा सुनाने वाला गायक या कथावाचक भी बन जाता है। यों, गाथा गाते हुए पंडवानी में भी एक ही कलाकार बारी-बारी से हर पात्र को, दो पात्रों के द्वंद्व-युद्ध जैसे प्रसंग को भी जीवंत करता/करती है। मजे की बात कि यह सब सहजता से बिना रसभंग के संभव हो जाता है।

वैसे तो कथा को आख्यायिका से भिन्न बताया गया है, पर कहा गया है कि आख्यायिका का आरंभ आत्मकथ्यात्मक होता है, यद्यपि कवि अपने लिए इसमें अन्य पुरुष का ही प्रयोग करता है। भामह के मत से नायक स्वयं अपना चरित वर्णन करे तो भी आख्यायिका कही जाती है। हां! ऐसा सब किए जाने का मानो गंभीर दार्शनिक और शास्त्रीय विधान, निर्देश- वेदांत के श्रुतिप्रस्थान उपनिषद्, स्मृतिप्रस्थान गीता की निरंतरता में न्यायप्रस्थान ब्रह्मसूत्र के 'समाकर्षात्' की व्याख्या में है, जिसमें पूर्वापर कालभेद के साथ देश और पात्र भिन्नता के समाहार से ही, अभेद देख पाने से ही, किसी कथन के वास्तविक आशय को समझा जा सकता है। कहा जाता है, श्रुति लक्षणावती है और 'उभयस्मिन् अपि अविरोधात्' यानि दो प्रकार का वर्णन होने पर भी (वास्तव में) कोई विरोध नहीं है।

कृष्ण बलदेव वैद का 'बदचलन‘ बीवियों का द्वीप' सोमदेव विरचित कथासरित्सागर, जिसे वे स्वयं बृहत्कथा के सार का संग्रह कहते हैं, का एक बार फिर बयान, 'विचलन' है, वैद ने किसी नाम से (शायद) बचते या परम्परा का सम्मान करते हुए 'कथासरित्सागरकार' को सादर समर्पित किया है। इस ग्रंथ के उद्देश्य पर स्वयं सोमदेव का गूढ़ सा कथन है- औचित्यान्वयरक्षा च यथाशक्ति विधीयते। कथारसाविघातेन काव्यांशस्य च योजना।। इस कथन में संकेत है कि कथासरित्सागर में मूल ग्रंथ के कथाक्रम में कथा के रस की रक्षा के लिए परिवर्तन किया गया है। इस सूत्र को पकड़ कर पीछे, मूल की ओर लौटते हुए पाते हैं कि कथासरित्सागर सहित बृहत्कथामंजरी, हरचरितचिन्तामणि जैसे अन्य ग्रंथ-साहित्य, गुणाढ्य की बृहत्कथा, मूलतः पैशाची भाषा के बड्ढकहा, के वंशज हैं। बृहत्कथा को साक्षात् सरस्वती और गुणाढ्य को स्वयं ब्रह्मा भी कहा गया है।

यहां प्रासंगिक कि कथासरित्सागर के आरंभ में कही गई उपकथा, कहानियों की कहानी, कुछ इस तरह है- पार्वती ने आदि कथक शिव को प्रसन्न देखकर अपनी फरमाइश दुहराई, भगवन! ऐसी कथा सुनाइए, जो किसी ने न सुनी हो। शिव के चित्त में विद्याधरों की कथाएं प्रकाशित होने लगीं। कैलाश पर्वत की गुफ़ा में वे कथा सुनाते गए, द्वार पर नंदी पहरेदार थे। शिव से सुनी वही कथा पार्वती, जया, विजया आदि को सुनाने लगीं। जया बीच में टोक कर आगे की कहानी बता देतीं। जया ने यह अपने पति पुष्पदंत से सुनी थी। क्रोधित पार्वती से शिव ने कहा उन्होंने यह कथा किसी से नहीं कही है। पुष्पदंत ने बताया कि वह दर्शन के लिए आया था। नंदी के मना करने पर योगशक्ति से अदृश्य हो कर गुफ़ा में प्रवेश कर कथा सुन ली। उसे मनुष्य योनी का शाप मिला। उसका मित्र माल्यवान तरफदारी कर शापग्रस्त हुआ। जया के अनुनय पर पार्वती ने शापमुक्ति का उपाय बताया कि यक्ष सुप्रतीक शापग्रस्त होकर काणभूति के नाम से विन्ध्य के वन में पिशाच बन कर रहता है। पुष्पदंत, मनुष्य योनी में उसे यही कथा सुना कर और माल्यवान, काणभूति से यह कथा सुनकर मर्त्यलोक में इसका प्रचार कर शापमुक्त होगा। पुष्पदंत, पाटलिपुत्र के राजा नन्द का मंत्री वररुचि (कात्यायन) बना और माल्यवान सातवाहन राजा का मंत्री गुणाढ्य। वररुचि, यक्ष को कहानियां सुना कर, और गुणाढ्य, काणभूति से इन कथाओं को सुनकर, इनका प्रचार कर, शापमुक्त हुए। इस तरह कहानियों का प्रचलन हुआ।

इस तरह पुष्पदंत-माल्यवान् हैं, काणभूति हैं, वररुचि-कात्यायन हैं, गुणाढ्य हैं, और इस पर यह भी कि भिन्न स्रोतों में अलग-अलग विवरण और अन्य पात्र-नाम भी मिलते हैं। एक अन्य वररुचि का उल्लेख यहां अप्रासंगिक न होगा, जिसने मालवा के परमार राजाओं की प्राचीन राजधानी धारानगरी के भोजशाला वाली चर्चित ‘वाग्देवी‘ प्रतिमा का निर्माण संवत 1091 में कराया था। अब ‘मूल‘ से आरंभ करें तो- किसी दिन पार्वती के सर्वथा नई, न कही गई हो, न सुनी गई हो, और गणनातीत समय निकल जाए, इतनी लंबी कथा सुनने के आग्रह पर शिव ने उन्हें बृहत्कथा (का सार) सुनाई (ज्यों मानस की पंक्ति है- रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा।।)। पार्वती ने फिर यह एकदम ‘नई‘ कथा जया से सुना तो क्रोधित हुईं। जया ने बताया कि यह कथा उसने पति पुष्पदंत से सुनी है। यों कहानी सुनना राजसी लत है, लेकिन राजसी मन तो सब के पास है, देवी-देवता भी इससे अछूते नहीं। पुष्पदंत ने चोरी-चुपके अदृश्य हो कर यह पूरी कथा सुन ली थी, फलस्वरूप पुष्पदंत शापग्रस्त हुए और कहानियां उनके माध्यम से पृथ्वी पर आईं। यहां एक उलट कहानी का उल्लेख भी आवश्यक है- एक बार पुष्पदंत ने अपनी रचना प्रसिद्ध शिवमहिम्नस्तोेत्र, शिवजी को सुनाई, शिव की प्रसन्नता से पुष्पदंत को अपनी मौलिक रचना पर गर्व हुआ तब शिव ने अपने गण भृंगी से मुंह खोलने को कहा, पुष्पदंत ने देखा कि महिम्न के सभी श्लोक भ़ृंगी के दांतों पर लिखे हुए हैं।

वापस बृहत्कथा पर आएं, जिसमें मुख्यतः स्त्रियों और उनकी काम-कमजोरियों, बेवफाई की कहानियां हैं, इनमें से एक में राजा का बीमार सफेद हाथी पतिव्रता स्त्री के स्पर्श से ही ठीक हो सकता है, राज्य की/रनिवास की अस्सी हजार स्त्रियों (पुरुषों की ऐसी कोई परीक्षा की कहानी संभवतः कहीं नहीं, क्या ऐसा इसलिए कि मान लिया जाता है, पुरुष तो बदचलन होंगे ही, मगर पुरुष बदचलन हुए तो सहगामिनी होगी नारी, फिर वह भी बदचलन होगी) से यह काम नहीं बनता। अंत में एक प्रवासी गरीब स्त्री सफल होती है, लेकिन यहां भी कहानी आगे बढ़ कर बदचलन पत्नी तक पहुंचती है, पर बृहत्कथा-कथासरित्सागर का अंत कथन है- 'सदा सभी स्त्रियां बदचलन ही होती हैं, ऐसी बात नहीं है।'

यहां मत्स्य पुराण के एक प्रसंग का आनंद उठाना चाहिए, जिसमें कामदेव के बाणों से संतप्त चींटा, चींटी से अनुनय-विनय करते हुए कहता है कि इस जगत में तुम्हारे समान सुन्दरी स्त्री कहीं कोई भी नहीं है, तुम भारी स्तनों के भार से विनम्र होकर चलने वाली, गुड़ और शक्कर की प्रेमी हो, आदि और मेरे परदेश चले जाने पर तुम दीन हो जाती हो, क्रुद्ध होने पर भयभीत हो उठती हो। लेकिन किस कारण क्रोध से मुंह फुलाये बैठी हो। तब चींटी उस कीट से बोली- अरे धूर्त, अभी कल ही तुमने लड्डू का चूर्ण दूसरी चींटी को नहीं दिया है। कीट ने सफाई दी कि तुम्हारे सदृश्य रूप-रंगवाली होने के कारण मुझसे ऐसी भूल हुई, मुझे क्षमा कर दो। अपने इस उद्यान में भ्रमण कर रहे पांचाल नरेश ब्रह्मदत्त की अनायास हंसी से शंकित उनकी 'ब्रह्मवादिनी' पत्नी संनति के संदेह-निवारण के लिए 'समस्त प्राणियों की बोली के ज्ञाता' राजा ने चींटे की कामचेष्टा और कीट-दम्पति का वार्तालाप बताया। कीट-दम्पति की इस कहानी का आवरण देखने लायक है, जहां ब्रह्मवादिनी संनति को न कीटों की खबर है न पति ब्रह्मदत्त की सुध और ब्रह्मदत्त कीटों के वार्तालाप को तो समझ पा रहे हैं, लेकिन पत्नी के मन को नहीं। पुराणकार, कीट-दम्पति की कथा कह रहा है या उनके माध्यम से राजा-रानी के आपसी संबंध उजागर कर रहा है, शायद दोनों या कुछ और ही।

इसी तरह भोपाल-ग्वालियर अंचल में प्रचलित, उच्चकुल की सर्पिणी और एक नीचकुल के सर्प के सहवास की कहानी का उल्लेख गुलेरी जी ने किया है, जिसमें राजा को यह अनाचार देखना बुरा लगता है, कहानी में जारिणी सर्पिणी, उसका नीचकुल कापुरुष प्रेमी सांप और नागिनी का पति नाग भी है। पति नाग को यह बात पता लग जाती है तब नाग के लिए कहा गया है कि ''उसने अपनी कुलटा स्त्री को क्या‍ दण्ड दिया और उस क्षुद्र सांप की क्या दशा की...''

प्रसंगवश एक अन्य पुराना कम चर्चित, लेकिन इस चर्चा के सबसे करीब ग्रंथ 'शुकसप्तति' है, क्योंकि यहां पूरी तरह स्त्री बदचलनी की ही कथाएं हैं। इसमें हरदत्त नामक व्यापारी का अकर्मण्य पुत्र मदनसेन है, जिसकी 'बदचलनी-उत्सुक' पत्नी प्रभावती, मुख्य पात्र है। एक ओर प्रभावती के साथी उसे देशाटन पर गए पति वियोग-विलाप के बजाय यौवन-सुख के साथ जीवन को सार्थक बनाने की सीख देते हैं वहीं दूसरी तरफ कथावाचक शुक द्वारा उसे सत्तर रातों तक कहानियां सुनाई जाती हैं, जिसके चलते पति की अनुपस्थिति में नायिका पर-पुरुष रमण, कदाचार से बच जाती है, लेकिन कहानियों में अन्य पत्नियों के विश्वासघात और गणिकाओं के धूर्त व्यवहार का बखान है। इनमें से एक कहानी में भागते हुए प्रेमी को पत्नी द्वारा मृत पितर का भूत बताया जाता है, यहां विजयदान देथा की भूत बने पति वाली कहानी ‘दुविधा‘ याद आती है। एक प्रसंग शंकराचार्य का भी आता है, जहां वे अमृतपुर के मृत राजा अमरु के शरीर में प्रवेश करते हैं, किन्तु राजा की सौ रानियों में से बड़ी, इस 'पति' को उसकी भिन्न चेष्टा के कारण पहचान लेती है। यों एक में दूसरी कहानियों को गूंथकर, जिज्ञासा बनाए रखना और आसन्न को टाले रहने का उदाहरण शुक सप्तति के अलावा और भी कई हैं, जिनमें बदचलनी से उपजी, शहरयार और वजीर की बेटी वाली ‘एक हजार एक रातें‘ खासी चर्चित और लोकप्रिय है।

शुकसप्तति की सत्तर कहानियों के बाद इकहत्तरवीं उपसंहार कथा एक विद्याधर, गंधर्व कनप्रभ (या काणप्रभ) और देवताओं के भी होश उड़ा देने वाली रूपवती उसकी पत्नी मदनमंजरी की है। कनप्रभ के प्रवास के दौरान मदनमंजरी के साथ विद्याधर (अन्य कई कहानियों की तरह) उसका पति बन कर रमण करता है, मदनमंजरी उसका साथ देती है। वास्तविक पति को वापस लौटने पर महसूस होता है कि पत्नी उसे देख कर खास खुशी नहीं हुई। शंका में पड़ा पति उसे मार डालना चाहता है, कहा गया है कि नारद से शापित होने के कारण मदनमंजरी के साथ ऐसा हुआ। यह कम मजेदार नहीं कि अनिंद्य सुंदरी मदनमंजरी को देखकर नारद की काम ज्वाला भड़क उठी थी और इसके लिए उन्होंने मदनमंजरी को जिम्मेदार मान कर शाप दिया था। पति के व्यवहार से घबराई मदनमंजरी देवी दुर्गा के मंदिर जा कर विलाप करती है। देवी प्रकट हो कर मदनमंजरी की इस भूल को (संदेह लाभ देते हुए?) निर्दोष ठहराती हैं, क्योंकि विद्याधर ने उसके पति का रूप धरा था, और वह इससे अनजान थी। साथ ही इसका मूल कारण नारद के शाप को बताते हुए उसे स्वीकार कर अपने साथ ले जाने को कहती है। यह परिशिष्ट कथा सुना कर तोता मदन से कहता है कि प्रभावती की कुछ कमजोरियां हैं, लेकिन यह उसका नहीं बल्कि उसके कुसंग का दोष है और तुम्हें मेरी बातों पर भरोसा है तो अपनी पत्नी को ले जाओ, वह दोषी नहीं है। तोते का इस तरह का कथन, कथाकार द्वारा कोई परतदार बारीक संदेह-संकेत तो नहीं।

शुकसप्तति मूल ग्रंथ भी अन्य कइयों की तरह उपलब्ध नहीं है और इसका काल, गद्य या पद्य, संस्कृत या प्राकृत भी निश्चित नहीं है। संस्कृत साहित्य का इतिहास की आधुनिक पुस्तकों में शुकसप्तति में कथा कहने वालों में तोते के अलावा कौवा (शुकदेव-काकभुशुंडी?) या मैना का भी उल्लेख मिलता है, जो संभवतः मूल ग्रंथ के भिन्न संस्करणों, यानि परिष्कृत चिंतामणि भट्ट वाला, औैर साधारण प्राकृत पद्यों वाला, के कारण है। शुकदेव हों या इन कहानियों का तोता, सुनी-सुनाई, (श्रुति-स्मृति, मौलिक नहीं किंतु जैसे का तैसा) तोता-रटंत ही करते हैं। (शुकसप्तति का हिन्दी अनुवाद न मिल पाने के कारण मैंने सन 1911 में प्रकाशित इसके अंगरेजी अनुवाद ‘द एनचान्टेड पैरट‘ को यहां आधार बनाया है।)

आधुनिक दौर के मेले-बाजार, स्टालों का बेस्ट सेलर 'दास्ताने तोता मैना', 'किस्सा तोता मैना' या सिर्फ 'तोता मैना' जैसे नाम वाली किताब का दरजा चोरी-चुपके पढ़ी जाने वाली का रहा है। पुस्तक के संस्करणों में इसे पुराने, लेकिन सदाबहार, प्राचीन भारतीय कथाएं, ग्रामीण आंचलिक जगत की पुरातन कथाएं आदि कहा गया है, लेकिन किसी पुराने स्रोत या शुकसप्तति का उल्लेख नहीं मिलता। हां! तोता-मैना की कई कहानियों का प्रमुख पात्र, शुकसप्तति के नायक का हमनाम मदनसेन है। संस्कृत साहित्य के इतिहास की पुस्तकों में भी शुकसप्तति और तोता मैना की कहानियों के रिश्ते का उल्लेख सामान्यतः नहीं है। किन्तु राधावल्लभ त्रिपाठी ने लिखा है कि 'शुकसप्तति की कथाएं किस्सा तोता मैना के नाम से लोक परम्परा में अत्यधिक प्रचलित रही हैं।'

निर्मला जैन ने 'कथा प्रसंग यथा प्रसंग' पुस्तक में 'शुक बहत्तरी', 'किस्सा तोता-मैना' जैसी कहानियों को संस्कृ्त के धार्मिक-पौराणिक कथा-वृत्तों पर नहीं, बल्कि मनोविनोद-प्रधान लोक प्रचलित किस्सों पर आधारित मानने की चूक की है, लेकिन सन 1985 में छपी फ्रांसिस प्रिचेट (Frances W. Pritchett) की पुस्तक में इस संबंध में पर्याप्त विस्तार से स्पष्ट विचार किया गया है। किस्सा तोता मैना का सर्वाधिक लोकप्रिय संस्करण मथुरा निवासी पंडित रंगीलाल शर्मा ने अनुमानतः 1870 में तैयार किया, जिसकी छपाई 1880 से आरंभ हो गई थी। वैसे शुकसप्तति की अधिक करीबी चौदहवीं सदी ईस्वी के फारसी 'तूतीनामा', इसके बाद उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के उर्दू 'तोता कहानी' और हिन्दी 'शुक बहत्तरी' या मराठी 'शुक बहात्तरी' से है। विलियम क्रुक ने दक्षिण मिर्जापुर में दसरथ खरवार से सुनी इसी मेल की एक लोककथा का उल्लेख किया है (इंडियन एन्टीक्वरी-21, सन 1891), जिससे स्पष्ट है कि किस्सा तोता-मैना वाली कहानी तब मौखिक परम्परा में भी प्रचलित थी। हाल के 'तोता मैना' संस्करणों में लेखक के रूप में प्रस्तुति- गोविन्द सिंह, पं. विष्णु देव या गोपाल शर्मा जैसे नाम हैं, और कहानियों का आधुनिक परिवेश, कालेज के प्रेम-प्रसंग का भी है। शुकसप्तति का सफर देख कर लगता है कि ये कथाएं नैतिकता के चलते दबी रह गई थीं, लेकिन किस्सा तोता-मैना का बेहिसाब प्रचलन, उन कहानियों में लोकप्रियता के तत्वों का प्रमाण तो है ही, उसका यह फुटपाथी स्वरूप, मानों उस निषेध का प्रतिवाद है। फिल्मीै गीतों में भी 'तोता-मैना की कहानी तो पुरानी' और 'एक डाल पर तोता बोले, एक डाल पर मैना' चला आया है। मन में कभी यह सवाल भी उठता है कि जोड़ी तोता और मैना की क्यों, तोता-तोती और मैना-मैनी क्यों नहीं। और यह भी कि क्या कही-सुनाई, सुनी जाने वाली और लिखी-छपी, पढ़ी जाने वाली कहानियों में कोई ऐसा फर्क होता है, जिससे श्रुतिधरता-मौलिकता को समझने में मदद हो।

बृहत्कथा, अपने मूल रूप में नहीं मिलती, इसी तरह शुकसप्तति और भी न जाने कितने ही ग्रंथ। जो कुछ खोया माना जाता है, वह मात्र अपरा रचनाएं थींॽ या संकेत कि जितना कुछ भौतिक-साक्षात है, उन शब्दों के परा रूप का दर्शन कर लेना ही सही मायने में उसका उपलब्ध हो जाना है, वही खोया में पाया हुआ बन जाना है। अपौरुषेय वेद का न कोई रचयिता है, न कर्ता, जो हैं वे सब मंत्रदृष्टा हैं, ज्यों समष्टि की अभिव्यक्ति, लोक साहित्य का रचनाकार अनाम ही होता है। ऋषिमुख से निकले शब्द, पुस्तकों में कैद लिखे-छपे अक्षर, फिर से अपना रूप तज देते हैं, शिरो-रेखाएं धुंधलाने लगती हैं, वक्र और कोणों की लय बदल जाती है। अक्षर, अपनी पहचान खो कर सपाट चिन्ह बनते, जल-तरल फिर सोमरस से अमृत बन कर अर्थवान हो जीवंत। किसी किस्सागो ने बात शुरू की, उसका आसन व्यास गद्दी बन जाता है और बातें रस-सृष्टि करने वाले पवित्र मंत्र। लोक हो या शास्त्र, लिपि का अक्षरों में, अक्षरों का ध्वनि में, ध्वनि का भाव में और भाव का रस में बदल जाना उसे सार्थक-चिरंतन बनाता है।

वापस वररुचि, जिनका नाम श्रुतिधरों में अग्रगण्य है। उनकी ख्याति एकश्रुत की है, यानि जिसे एक बार सुना याद हो जाए, इसी तरह व्याडि का नाम द्विश्रुत और इंद्रदत्त बहुश्रुत, जाने जाते हैं। एकश्रुतिधर कुरेश का उल्लेख भी मिलता है, जो स्वामी रामानुजाचार्य के सहयोगी थे। शारदापीठ में ब्रह्मसूत्र की प्रति द्वेषवश लूट लिए जाने पर दुखी स्वामी जी को कुरेश ने आश्वस्त किया कि वह उस पुस्तक को आद्योपांत देख चुका है और शब्दशः लिख कर दे सकता है फिर आगे इसी से काम बना। एक किस्सा राजा भोज का बताया जाता है। राज दरबार में चर्चा हुई कि इन दिनों कुछ नया, मौलिक नहीं रचा जा रहा है, राजा ने मुनादी करा दी कि जो कोई नया रच कर दरबार में सुनाएगा, उसे एक लाख मुद्राएं दी जाएंगी। कुछ दिन बीते और 'नया-मौलिक' रचा सुनाने वाले आने लगे। दरबार सुनता, मान लेता और इनाम दे दिया जाता, यह क्रम चलता रहा और राजकोष खाली होने लगा तब राजपुरोहित और कोषाध्यक्ष ने परामर्श किया कि श्रुतिधरों की मदद ली जावे। अगले दिन एक कवि आया अपनी लंबी रचना सुनाकर पूरी किया वैसे ही एकश्रुत ने कहा कि यह तो मैं बहुत दिनों से सुन रहा हूं, मुझे याद भी है, कह कर ज्यों का त्यों दुहरा दिया। द्विश्रुत ने कहा कि यह मेरी भी पहले से सुनी हुई है और दुहरा दिया अब तक बहुश्रुत तैयार हो गया था, उसने भी पूरा काव्य दुहरा दिया। अब यह खेल शुरू हो गया। इधर राजकोष की हालत संभल गई, लेकिन दूसरी तरफ कवि-समुदाय में खलबली मच गई तब उनकी मान रक्षा का मोर्चा संभाला भेस बदल कर कालिदास (या उनकी सहायता से किसी परदेसी कवि) ने, और राजदरबार में रचना पढ़ी, 'राजन् श्रीभोजराज ... ... ... देहि लक्षं ततो मे।' आशय कि आपके पिता ने मुझसे निन्यान्बे करोड़ रत्न लिए थे, इसे बहुतेरे जानते हैं। अब सबकी बोलती बंद, दरबार में सन्नाटा छा गया। कहा जाता है कि कालिदास ने इस नयी रचना का एक लाख मुद्रा इनाम पा कर पूछा कि 'बचे' रह गई रत्नों का हिसाब भी करेंगे कि आप भी आगे की पीढ़ी के लिए 'बचा' कर रखना चाहते हैं। संदर्भवश संस्कृत छंद ग्रंथों की चर्चा में कालिदास के नाम से प्रसिद्ध ग्रंथ ‘श्रुतबोध‘ को कभी-कभी इसके कर्ता वररुचि बतलाए जाने का उल्लेख एबी कीथ ने किया है। यह ऐसी मान्यता का सूत्र हो सकता है। ऐसा ही अन्य उल्लेख प्रबन्धकोष में आया है, जिसमें गुजरात के कवि हरिहर ने श्रुतिधरता से सोमेश्वर का मान-मर्दन किया।

चीनी यात्री इत्सिंग सातवीं सदी ईस्वी में भारत आए। भारतीय शिक्षण प्रणाली का विवरण देते हुए उन्होंने बताया है कि ऐसे भी छात्र हैं, जो किसी समूचे ग्रंथ को एक बार पढ़ कर ही कंठस्थ कर लेते हैं। छात्र गुरु-मुख से सुन कर ही वेद अध्ययन करते थे, यद्यपि ऐसा नहीं कि तब ग्रंथों के लिखित रूप नहीं थे। तत्कालीन उल्लेखों में वेद की नकल करने वालों और लिखित प्रतियों से वेद अध्ययन करने, कराने वालों के लिए दंड की व्यवस्था मिलती है। राधावल्ल‍भ त्रिपाठी के उपन्यास 'और फिर' की पृष्ठभूमि कनिष्क-अश्वघोष काल यानि ईसा के आरंभिक सदी की है, इस उपन्यास का उद्धरण- 'इस समय वे ग्रंथ के आधार पर आख्यान कह रहे हैं, तो उन्हें ग्रन्थिक भी कह सकते हैं। ग्रन्थ उनके सामने रखा है। पर वे ग्रन्थ पढ़-पढ़ कर कथा नहीं कह रहे। कथा तो उन्हें कंठस्थ है।' उन्नीसवीं सदी के मध्य में मैक्समूलर भारत आए। वे यहां समूचे वेद का आरोह-अवरोह सहित मौखिक पाठ करने वाले छात्रों से मिले थे, उन्होंने लिखा है कि मेरे संपादित संस्करणों की अशुद्धियों की ओर बिना हिचकिचाहट, पूरे आत्मविश्वास से ध्यान दिलाया। श्रोत्रिय ब्राह्मणों को सजीव पुस्त‍कालय कहते हुए मैक्समूलर ने एक रोचक हिसाब यह भी लगाया है कि किसी वेदपाठी विद्यार्थी को लगभग ढाई हजार दिन, प्रतिदिन औसतन नई 12 पंक्तियां कंठस्थ करनी होती थीं, वह भी पिछले पाठों को दुहराते याद रखते हुए।

उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में भारत आए प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन ने श्रुतिधर प्रसंग का उल्लेख किया है, जिसे उन्होंने वाइसराय के किसी कर्मचारी की डायरी से लिया। मैसूर राजदरबार के इस संस्मरण में वाइसराय के साथ तीस व्यक्ति थे, राज दरबार में एक ब्राह्मण को, जिसे अपनी भाषा के अलावा सिर्फ अंग्रेजी आती थी फ्रेंच, जर्मन, ग्रीक, लैटिन, स्पैनिश, पोर्चुगीज, इटालियन तथा अन्य भाषाओं के वाक्यों से शब्द और आंकड़े टुकड़ों में दिए गए, दो घंटे चली इस कवायद के बाद ब्राह्मण ने टूटे-बिखरे शब्दों को व्यवस्थित करते हुए दुहरा दिया। घटना, अतिरंजित जान पड़ती है, लेकिन प्रज्ञाचक्षु गिरिधर मिश्र उर्फ जगद्गुरु रामभद्राचार्य पद्मभूषण वर्तमान दौर के एकश्रुत हैं। इसी तरह विवेकानंद आश्रम, रायपुर के स्वामी आत्मानंद को याद किया जा सकता है। बहुतेरों की स्मृति में है जैसा एकाधिक बार हुआ, छत्तीसगढ़ आए गैरहिन्दीभाषी संतों के आधे-पौन घंटे के प्रवचन को हिन्दी श्रोताओं के लिए तुरंत शब्दशः, प्रवचन में आए आंकड़ों और व्यक्तिनामों को यथावत क्रम में ठीक-ठीक हिन्दी में अनुवाद कर दिया।

महाभारत, शांतिपर्व का उल्लेख है- स्त्रियां, रत्न और जल- ये धर्मतः दूषणीय नहीं होते हैं। कुबेरनाथ राय के एक निबंध में आया है- ''कहा गया है नारी, आग और अश्व इन तीनों का मुंह 'यज्ञ'-मुख है, कभी भी जूठा या अपवित्र नहीं होता।'' इस तरह से भी कहा जाता है- ''न स्त्री जारेण, दुष्यंति, स्त्रीमुखं तु सदा शुचि, स्त्रियस्समस्ताः सकला जगस्तु व्यभिचारादृतौ शुद्धिः।'' अर्थात स्त्री जार पुरुष के कारण दूषित नहीं होती, स्त्री का मुख सदा पवित्र है, संसार में सभी स्त्रियां कला से युक्त हैं, व्यभिचार के बाद ऋतुवती होने पर स्त्री शुद्ध हो जाती है। महाभारत के पात्र- सत्यववती, कौमार्य अवस्था में वेदव्यास को जन्म देने के बाद भी कुमारी होती हैं, इसी तरह अक्षत कौमार्य वाली कुंती, जो कर्ण को जन्म दे कर और इससे भी आगे माधवी, जो बार-बार पुत्र जन्म दे कर कुंवारी रह जाती है। अहल्या को मानवी सृष्टि में प्रथम सुंदर नारी माना जाता है। हल यानि विरूपता, हल्य का तात्पर्य हुआ विरूपता के कारण प्राप्त निंद्यत्व। हल्य न होने के कारण नाम अहल्या हुआ। अहल्या यानि दोषरहिता। अहल्या, कठोर संयमी पर पंगु तपस्वी गौतम की पत्नी हुईं। अहल्या प्रसंग को इन्द्र का व्याभिचार नहीं, अहल्या का मानसिक सम्भोग या काम-विह्वलता भी कहा जाता है। दूसरी तरफ पत्नी रेणुका के मानसिक व्याभिचार के सजा स्वरूप पति जमदग्नि के आदेश पर पुत्र परशुराम ने न सिर्फ माता, बल्कि अपने सभी भाइयों को भी मार डाला। शतपथ ब्राह्मण के एक उल्लेख से बताया जाता है कि अहल्या रात्रि है, गौतम चन्द्र है तथा इन्द्र को सूर्य मान कर यह रूपककथा निर्मित की गई है। अहल्या प्रातःस्मरणीय उन पांच सती तथा विशुद्ध चरित्र महिलाओं में एक है- 'अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा। पंचकन्याः स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम्।।'

अहल्या, पति के धर्म-पुरुषार्थ की मारी है, विजयदान देथा के दुविधा की नवब्याहता, पति के अर्थ-पुरुषार्थ की मारी और पंचतंत्र के मिथ्याविष्णु-कौलिककथा की राजकन्या और नायक दोनों काम-पुरुषार्थी। इनमें सब से अलग यौवन लोलुप ययाति-पुत्री माधवी की कहानी है, जहां नारी की बदचलनी-विरक्ति में पात्र और समाज के धर्म, अर्थ और काम का पक्ष तो है ही, स्वर्गच्युत ययाति के पुनः स्वर्गगमन में और माधवी की परिणिति- अपने स्वयंवर में किसी राजपुत्र को वरने के बजाय वन में रह कर तपस्या के निर्णय, में मोक्ष भी है। यह सब देखते हुए लगता है कि कहानियां पुरुष बदचलनी के नजरिए से नहीं, बल्कि नारी चरित्र-पतन की कही जातीं हैं, क्या चमत्कारी और पहेलीनुमा नारी बेवफाई का बखान ही, ज्यों भर्तृहरि की रानी और फल, कहानी बनाने का आसान और रोचक तरीका है। नद और नदी का अंतर समझने की कोशिश में विद्यानिवास मिश्र यह भी लिखते हैं- 'नारी में बेवफाई कम होती है, पुरुष में ज्यादा। और नारी के बदचलन हो जाने पर छत्तीसगढ़ी उक्ति है- 'रांड़ी तो काट लै, रंड़वा काटे दै त', आशय कि नारी की बदचलनी का असल जिम्मेदार पुरुष होता है।

सहज जिज्ञासा, अब अराजक प्रश्न के रास्ते पर, क्या बहुस्त्री/बहुपुरुषगमन, आधुनिक मानव- होमो सेपियन का जातिगत स्वभाव है? लेकिन उसमें शील-मर्यादा आचरण भी उतना ही स्वाभाविक नहीं? और क्या इन दोनों के द्वंद्व में वह चाहे मानव जाति का हो, समाज-विशेष का या एक अकेले मानव-मन का, इसी फांक के अकथ अंतराल में कहानी का कथ्य पनपता है? अन्य साहित्यिक अभिव्यक्ति, नाटक और कविता तो शास्त्र-मर्यादा के संबलयुक्त हैं, लेकिन मनमौजी गद्य, कहानी की तथा-कथा क्या यही/इतनी ही है?

नीलिमा चौहान पर उनके पसंदीदा वैद का असर हो सकता है। क्या 'पतनशील ...' शीर्षक भी इस प्रभाव का परिणाम है? वैसे उनकी पतनशीलता में उपर चर्चित या फिल्म गाइड की नायिका की तरह 'बदचलनी' भाव किंचित ही है, लेकिन यह 'जब वी मेट' या 'तनु वेड्स मनु' की पतनशील नायिकाओं में देखा जा सकता है, जो कभी फिल्म 'सीता और गीता' में मनोरंजक ढंग से उभारा गया था। नीलिमा ने इस लेखन में जो तेवर अख्तियार किया है, उसके लिए इस्तेमाल की गई जबान एकदम मुफीद है। उनकी सजग-सावधान दृष्टि, मासूमियत भरी, नाजुक और बारीक है तो अभिव्यक्ति एकदम खिलंदडी, कहते हुए कि 'आपके सामने रू ब रू पेश हुई हूं मैं।' उनके अपने गढ़े जुमले पूरी किताब में तकरीबन मुसलसल और मजेदार हैं, जैसे- 'अपने राज़ों को छिपाने का राज़ उगल देने वालियां' या 'मेरी सास मेरी दुश्मन नम्बर वन औरत है' से बात शुरू कर आखिर में कहना, 'सास को सलाम' या अपने पुरुष मित्रों को खालिस दोस्त के रूप में देखने की चाह सहित कहना कि 'भाई और देवर जैसे रिश्ते के मुलम्मों के पीछे सेफ ज़ोन की निर्मिति करना मुझे ख़ुद की तौहीन लगती है।' कुछ अलग-से मन-मिजाज की अलहदा अंदाज से कही गई बातों को पढ़ना, इस दौर के फटाफट साहित्य वाले लेखन पर नजर रखने के लिए जरूरी है।

बहरहाल, रामानुजन कहते हैं- कथा कहीं भी समाप्त नहीं होती, भले ही पाठों के अंदर उसे समाप्त किया जाता हो। भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में कोई भी कभी पहली बार रामायण या महाभारत नहीं पढ़ता। ये कथाएं वहां हर समय पहले से मौजूद (आलवेज आलरेडी) हैं। नीति विषयक प्रसंगों में अधिकतर महाभारत के शांतिपर्व का उद्धरण दिया जाता है, यहां और अन्य स्थानों पर भी, कथाओं और पूर्व प्रसंगों का उल्लेख आता है। संदर्भ, उद्धरण भरपूर, मानों नया कुछ नहीं, सब दुहराया जा रहा है। बारंबार 'अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्', और जैसा कि वाल्मीकि रामायण माहात्म्य में ‘अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‘ यानि इस विषय में लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, कहते हुए बात आरंभ की गई है। और यह भी- 'पृथ्वीे पर इस इतिहास का अनेकों कवियों ने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन करते रहेंगे।'

'अपनी' बात दुहरा दूं कि इसी तरह यहां भी नया-मौलिक कुछ नहीं है। रामायण, महाभारत, पुराने साहित्य, उन पर लिखी टीका-रचना और कही-सुनी बातें, हजारी प्रसाद द्विवेदी, कुबेरनाथ राय, मनोहर श्याम जोशी और ए के रामानुजन को पढ़े के ऐसे अंश हैं, जो मुझे अपने में सदा से विद्यमान जान पड़ते हैं।