Pages

Thursday, March 17, 2016

सोनाखान, सोनचिरइया और सुनहला छत्तीसगढ़

'अमीर धरती के गरीब लोग' जुमला वाले छत्तीसगढ़ का सोनाखान, अब तक मिथक-सा माना जा रहा, सचमुच सोने की खान साबित हुआ है। पिछले दिनों सोनाखान के बाघमड़ा (या बाघमारा) क्षेत्र की सफल ई-नीलामी से छत्तीसगढ़, गोल्ड कंपोजिट लाइसेंस की नीलामी करने वाला पहला राज्य बन गया है। बलौदाबाजार जिले के सोने की खान, बाघमड़ा क्षेत्र 608 हेक्टेयर में फैला है और आंकलन है कि यहां लगभग 2700 किलो स्वर्ण भंडार है। इस क्षेत्र का एक्सप्लोरेशन 1981 में आरंभ किया गया था और मध्य भारत के इस महत्वपूर्ण और पुराने पूर्वेक्षित क्षेत्र के साथ, अधिकृत जानकारी के अनुसार, रोचक यह भी कि इस क्षेत्र में प्राचीन खनन के चिह्न पाए गए हैं। इसके अलावा मुख्यतः कांकेर, महासमुंद और राजनांदगांव जिला भी स्वर्ण संभावनायुक्त है।
बाघमड़ा (या बाघमारा) गांव के पास की पहाड़ी की वह छोटी गुफा,
जिसे स्‍थानीय लोग बाघ बिला यानि बाघ का बिल या निवास कहते है,
माना जाता है कि इसी के आधार पर गांव का नाम बाघमड़ा पड़ा है.
चित्र सौजन्‍य- डॉ. के पी वर्मा
इस सिलसिले में छत्तीसगढ़ के कुछ महत्वपूर्ण स्वर्ण-संदर्भों को याद करें। मल्हार में ढाई दिन तक हुई सोने की बरसात से ले कर बालपुर में पूरी दुनिया के ढाई दिन के राशन खर्च के बराबर सोना भू-गर्भ में होने की कहानियां हैं। दुर्ग जिले में एक गांव सोनचिरइया है तो सोन, सोनसरी, सोनादुला, सोनाडीह, सोनसिल्ली, सोनभट्ठा, सोनतरई, सोनबरसा जैसे एक या एकाधिक और करीब एक-एक दर्जन सोनपुर और सोनपुरी नाम वाले गांव राज्य में हैं। कुछ अन्य नाम सोनसरार, सोनक्यारी हैं, जिनसे स्वर्ण-कणों की उपलब्धता वाली पट्‌टी का अर्थ ध्वनित होता है और दुर्गुकोंदल का गांव सोनझरियापारा भी है, जिसका स्पष्ट आशय सोनझरा समुदाय की बसाहट का है।

छत्तीसगढ़ के सोनझरा, अपने सूत्र बालाघाट और उड़ीसा से जोड़ते हैं। एक दंतकथा प्रचलित है, जिसमें कहा जाता है कि पार्वती के मुकुट का सोना, इन सोनझरों के कारण नदी में गिर गया था, फलस्वरूप इनकी नियति उसी सोने को खोजते जीवन-यापन की है। जोशुआ प्रोजेक्ट ने छत्तीसगढ़ निवासियों को कुल 465 जाति-वर्ग में बांटा है। इसी स्रोत में देश की कुल सोनझरा जनसंख्या 17000 में से सर्वाधिक उड़ीसा में 14000, महाराष्ट्र। में 1500, मध्यप्रदेश में 400 और छत्तीसगढ़ में 700 बताई गई है।
सुनहली महानदी 
चित्र सौजन्‍य- श्री अमर मुलवानी
मुख्यतः रायगढ़ और जशपुर के रहवासी इन सोनझरों का काम रेत से तेल निकालने सा असंभव नहीं तो नदी-नालों और उसके आसपास की रेतीली मिट्‌टी को धो-धो कर सोने के कण निकाल लेने वाला श्रमसाध्य जरूर है। इन्हें महानदी के किनारे खास कर मांद संगम चन्दरपुर और महानदी की सहायक ईब और मैनी, सोनझरी जैसी जलधाराओं के किनारे अपने काम में तल्लीन देखा जा सकता है। बस्तर की कोटरी, शबरी और इन्द्रावती नदी में बाढ़ का पानी उतरने के बाद झिलमिल सुनहरी रेत देख कर इनकी आंखों में चमक आ जाती है। इन्हें शहरी और कस्बाई सराफा इलाकों की नाली में भी अपने काम में जुटे देखा जा सकता है।
सोनझरा महिला के कठौते में सोने के चमकते कण
चित्र सौजन्‍य- श्री जे आर भगत
सोना झारने यानि धोने के लिए सोनझरा छिछला, अवतल अलग-अलग आकार का कठौता इस्तेमाल करते हैं। इनका पारंपरिक तरीका है कि जलधाराओं के आसपास की तीन कठौता मिट्‌टी ले कर स्वर्ण-कण मिलने की संभावना तलाश करते हैं, इस क्रम में सुनहरी-पट्‌टी मिलते ही सोना झारते, रास्ते में आने वाली मुश्किलों को नजरअंदाज करते, आगे बढ़ने लगते हैं। ऐसी मिट्‌टी को पानी से धोते-धोते मिट्‌टी घुल कर बहती जाती है और यह प्रक्रिया दुहराते हुए अंत में सोने के चमकीले कण अलग हो जाते हैं।

000 000 000

मिथक-कथाएं, अक्सर बेहतर हकीकत बयां करती हैं, कभी सच बोलने के लिए मददगार बनती हैं, सच के पहलुओं को खोलने में सहायक तो सदैव होती हैं। वैदिक-पौराणिक एक कथा है राजा पृथु वाली और दूसरी, मयूरध्वज की। पृथु को प्रथम अभिषिक्त राजा कहा गया है, यह भी उल्लेख मिलता है कि इसका अभिषेक दंडकारण्य में हुआ था। यह पारम्परिक लोकगाथाओं से भी प्रमाण-पुष्ट हो कर सच बन जाता है, जब देवार गायक गीत गाते हैं- ''रइया के सिरजे रइया रतनपुर। राजा बेनू के सिरजे मलार।'' यानि राजा (आदि राजा- पृथु?) ने रतनपुर राज्य की स्थापना की, लेकिन मल्हार उससे भी पुराना उसके पूर्वज राजा वेन द्वारा सिरजा गया है।

पृथु की कथा से पता लगता है कि उसने भूमि को कन्या मानकर उसका पोषण (दोहन) किया, इसी से हमारे ग्रह का नाम पृथ्वी हुआ। वह भूमि को समतल करने वाला पहला व्यक्ति था, उसने कृषि, अन्नादि उपजाने की शुरूआत करा कर संस्कृति और सभ्यता के नये युग का सूत्रपात किया। इसी दौर में जंगल कटवाये गए। कहा जाता है कि सभ्यता का आरंभ उस दिन हुआ, जिस दिन पहला पेड़ कटा (छत्तीसगढ़ी में बसाहट की शुरुआत के लिए 'भरुहा काटना' मुहावरा है, बनारस के बनकटी महाबीरजी और गोरखपुर में बनकटा ग्राम नाम जैसे कई उदाहरण हैं।) और यह भी कहा जाता है कि पर्यावरण का संकट आरे के इस्तेमाल के साथ शुरू हुआ।

बहरहाल, एक कथा में गाय रूप धारण की हुई पृथ्वी की प्रार्थना मान कर, उसके शिकार के बजाय पृथु ने उसका दोहन किया, (मानों मुर्गी के बजाय अंडों से काम चलाने को राजी हुआ)। भागवत की कथा में पृथु ने पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सकल औषधि, धान्य, रस, रत्न सहित स्वर्णादि धातु प्राप्त करने की कला का बोध कराया। राजकाज के रूपक की सर्वकालिक संभावना वाली इस कथा पर जगदीशचन्द्र माथुर ने 'पहला राजा' नाटक रचा है।

मयूरध्वज की कथा जैमिनी अश्वइमेध के अलावा अन्य ग्रंथों में भी थोड़े फेरबदल से आई है। कथा की राजधानी का नाम साम्य, छत्तीसगढ़ यानि प्राचीन दक्षिण कोसल की राजधानी रत्नपुर से है और अश्वमेध के कृष्णार्जुन के युद्ध प्रसंग की स्मृति भी वर्तमान रतनपुर के कन्हारजुनी नामक तालाब के साथ जुड़ती है। कथा में राजा द्वारा आरे से चीर कर आधा अंग दान देने का प्रसंग है। रेखांकन कि पृथु और मयूरध्वज की इन दोनों कथाओं का ताल्लुक छत्तीसगढ़ से है।

मयूरध्वज की कथा का असर यहां डेढ़ सौ साल पुराने इतिहास में देखा जा सकता है। पहले बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। परम्परा में अब तक बस्तर के प्रसिद्ध दशहरे के लिए रथ निर्माण में केवल बसूले का प्रयोग किया जाता है। अंचल में आरे का प्रयोग और आरा चलाने वाले पेशेवर को, लकड़ी का सामान्य काम करने वाले को बढ़ई से अलग कर, 'अंरकसहा' नाम दिया गया है और निकट अतीत तक आवश्यकता के कारण, उनकी पूछ-परख तो थी, लेकिन समाज में उनका स्थान सम्मानजनक नहीं था।

कपोल-कल्पना लगने वाली कथा में संभवतः यह दृष्टि है कि आरे का निषेध वन-पर्यावरण की रक्षा का सर्वप्रमुख कारण होता है। टंगिया और बसूले से दैनंदिन आवश्ययकता-पूर्ति हो जाती है, लेकिन आरा वनों के असंतुलित दोहन और अक्सर अंधाधुंध कटाई का साधन बनने लगता है। यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरण चेतना के बीज के रूप में भी देखी जा सकती है।

सोनझरा की परंपरा और पृथु, मयूरध्वज की कथाभूमि छत्तीसगढ़, स्वर्ण नीलामी वाला पहला राज्य है। पहल करने में श्रेय होता है तो लीक तय करने का अनकहा दायित्व भी। इन कथा-परंपराओं के बीच सुनहरे सच की पतली सी लीक है- सस्टेनेबल डेवलपमेंट (संवहनीय सह्‌य या संपोषणीय विकास) की, जिसकी अवधारणा और सजगता यहां प्राचीन काल से सतत रही है। हमने परंपरा में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को आवश्यक माना है लेकिन इसके साथ ''समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले। विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे॥'' भूमि पर पैर रखते हुए, पाद-स्पर्श के लिए क्षमा मांगते हैं। अब सोने की खान नीलामी के बाद उत्पादन का दौर शुरू होने के साथ याद रखना होगा कि संसाधन-दोहन का नियमन-संतुलन आवश्यक है, क्योंकि मौन और सहनशील परिवेश ही इस लाभ और विकास का पहला-सच्चा हकदार है, लाभांश के बंटवारे में उसका समावेश कर उसका सम्मान बनाए रखना होगा और यही इस नीलामी की सच्ची सफलता होगी।

पुछल्‍ला- सोनाखान के साथ वीर नारायणसिंह, बार-नवापारा, तुरतुरिया, गुरु घासीदास और गिरौदपुरी, महानदी-शिवनाथ और जोंक की त्रिवेणी को तो जोड़ना ही चाहता था, विनोद कुमार शुक्‍ल के 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' की सोना छानती बूढ़ी अम्‍मां भी याद आ रही है और छत्‍तीसगढ़ की पड़ोसी सुवर्णरेखा नदी भी। लेकिन इन सब को जोड़ कर बात कहने की कोशिश में अलग कहानी बनने लगी, इसलिए फिलहाल बस यहीं तक।