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Wednesday, March 28, 2012

भूल-गलती

स्वदेश-परिचय माला में प्रकाशित ग्यारह पुस्तकों में एक, ''भारत की नदियों की कहानी'', आइएसबीएन : 978-81-7028-410-9 है। हिन्दी के प्रतिष्ठित राजपाल एण्ड सन्ज़ द्वारा प्रकाशित इस पुस्तकमाला के लेखक हैं, प्रसिद्ध साहित्यकार, इतिहास और कला के मर्मज्ञ डॉ. भगवतशरण उपाध्याय। यह भी बताया गया है कि- ''प्रत्येक पृष्ठ पर दो रंग में कलापूर्ण चित्र, सुगम भाषा और प्रामाणिक तथ्य।'' पुस्तक देखते-पढ़ते यह अजीब लगा कि पुस्‍तक में कुछ रेखांकन जरूर हैं, लेकिन चित्र प्रत्येक पृष्ठ पर नहीं।
सुगम भाषा और प्रामाणिक तथ्यों वाली बात के परीक्षण के लिए पुस्तक के अंश उद्धृत हैं-

''नर्मदा
मैं अमरकण्टक की पहाड़ी गाँठ से निकलती हूँ और भारत के इस सुन्दर प्रदेश को ठीक बीच से बाँट देती हूँ। मेरे एक ओर विन्ध्याचल है, दूसरी ओर सतपुड़ा और दोनों के बीच चट्‌टानें तोड़ती तेज़ी से मैं पश्चिमी सागर तक दौड़ती चली जाती हूँ। अनेक बार मैं पहाड़ की चोटी से गिरती भयानक प्रपात बनाती हूँ, अनेक बार पहाड़ी भूमि की गहराइयों में खो जाती हूँ, अनेक बार जामुन के पेड़ों के बीच फैली हुई बहती हूँ। मेरा इतिहास पुराना है, मेरी घाटी में सभ्यताओं ने समाधि ली है।''

पुस्‍तक के उपरोक्‍त अंश में पहाड़ी गाँठ शब्द का प्रयोग सुगम-सहज नहीं लगा। सुन्दर प्रदेश को बांटने वाली बात जमती नहीं, ऐसा लगता है कि इस प्रदेश को बांटने के लिए नदी प्रवाहित हुई है। भयानक शब्द का प्रयोग भी खटकता है (याद करें, वेगड़ जी की नर्मदा पर लिखी पुस्तकें- सौंदर्य की नदी नर्मदा, तीरे-तीरे नर्मदा, और अमृतस्‍य नर्मदा) और ''सभ्यताओं ने समाधि'' जैसा प्रयोग भी अखरता है।

एक और अंश देखें-

''सोन
मैं भी ब्रह्मपुत्र की तरह नद की संज्ञा से ही विभूषित हूँ।... बरसाती दिनों में बड़ा भयंकर स्वरूप होता है मेरा। ... मेरी बालुका-राशि अति शक्तिशालिनी होती है, इसीलिए भवन-निर्माण आदि में सोन की रेत सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। ... प्रसिद्ध तीर्थस्थल अमरकंटक मेरा उद्‌गम है। ... एक छोटे-से चहबच्चे से 'पेंसिल' के आकार में निकलती हूँ मैं।
... मुझे गर्व है कि अमरकंटक के सदृश पुनीत पर्वत से मेरा प्राकट्‌य हुआ। ... ज्ञात ही है कि नर्मदा का उद्‌गम-स्थल भी यही है, अतः नर्मदा मेरी बड़ी बहन है। ... नर्मदा और अमरकंटक का वर्णन विस्तार से इसलिए करना पड़ा क्योंकि जहाँ से मेरी प्यारी सखी निकलती है, वहीं से थोड़ी दूर उत्तर में मेरी एक सहायिका नदी भी निकलती है, जिसे ज्योतिरथ्या का नाम प्राप्त है। ... ज्योतिरथ्या को अपभ्रंश में जोहिला भी कहते हैं। ... ज्योतिरथ्या या जोहिला के जल को ग्रहण करने के पश्चात्‌ ही मैं नदी से नद बनती हूँ। ... एक दूसरी महत्वपूर्ण नदी जो मेरे उदर के आकार को बढ़ाती है, वह है महानदी।''

यहां नद कहते हुए संज्ञा के बजाय लिंग (स्‍त्रीलिंग-पुल्लिंग) की बात उचित होती, वैसे आत्मकथन शैली में लिखे होने पर भी कहीं मेरी रेत के बजाय 'सोन की रेत' लिखा गया है साथ ही सोन और ब्रह्मपुत्र दोनों के लिए लिंग का ध्यान नहीं रखा गया है। भयंकर (विशाल, विकराल का प्रयोग उपयुक्त होता) शब्द के प्रति लेखक की आसक्ति यहां भी बनी हुई है। ... भवन-निर्माण के लिए क्या शक्तिशालिनी बालू होती है? ... पेंसिल के आकार से आशय स्पष्ट नहीं होता। नद-नदी के आकार के लिए प्रचलित 'काया' के बजाय उदर शब्द का प्रयोग अजीब लगता है। महानदी के जिक्र में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह छत्तीसगढ़ वाली प्रसिद्ध महानदी (हीराकुंड बांध वाली) नहीं, बल्कि इससे इतर छोटी महानदी है। गोपद नदी को ही शायद यहां गोमत कह दिया गया है इसी तरह ओंकारेश्‍वर को बार-बार ओंकालेश्‍वर कहा गया है।

सोन के लिए एक बार अमरकंटक 'मेरा उद्गम' और दूसरी बार अमरकंटक से 'मेरा प्राकट्‌य' बताया गया है, इससे लगता है कि लेखक के मन में सोन के उद्‌गम को लेकर संदेह रहा है या वे जान-बूझ कर पाठक को भ्रमित करना चाहते हैं ऐसा तो संभव नहीं कि इन दोनों से अलग उन्हें यह पता ही न रहा हो। इसी तारतम्य में सोन उद्‌गम के लिए मध्यप्रदेश राज्य पर्यटन विकास निगम लिमिटेड द्वारा एक तरफ अमरकंटक से 3 किलोमीटर पर सोनमुड़ा को ''The source of river Sone'' बताया जाता है वहीं अपने अमरकंटक फोल्डर में 'निगम' ने (सोनमुड़ा को प्रूफ की भूल से? सोन मुंग लिख कर) ''उद्‌गम है'' के बजाय ''उद्‌गम माना जाता है'' छापा है।
सोन, नर्मदा और जोहिला के उद्‌गम अंचल में राजकुमार सोन, राजकुमारी नर्मदा की उसके प्रति आसक्ति, दोनों का विवाह तय होना, जोहिला नाइन का छलपूर्वक सोन से संगम और नर्मदा का रूठकर कुंवारी रह जाने की कथा व गीत प्रचलित है- ''माई नरबदा सोन बहादुर जुहिला ल लेइ जाय बिहाय'' और ''मइया कंच कुंवारी रे, सोन बहादुर मुकुट बांध के जुहिला ल लाने बिहाय।'' संबंधित प्रकाशनों में भी आसानी से यह कथा छपी मिल जाती है, फिर जोहिला को सहायिका कहने तक तो ठीक है, लेकिन नर्मदा को सोन की बड़ी बहन कहने की बात एकदम नहीं जमती।

सोन का वास्‍तविक उद्‌गम, छत्‍तीसगढ़ के पेन्‍ड्रा के पास सोन बचरवार में मौके पर स्पष्ट है ही, स्‍तरीय अध्ययनों तथा सर्वे आफ इण्डिया के प्रामाणिक नक्शे में भी इसका तथ्यात्मक विवरण उपलब्ध है। इस तरह ''भारत की नदियों की कहानी'' पुस्‍तक में अमरकंटक को सोन का उद्‌गम बताया जाना भारी भूल है। अपनी पसंदीदा पुस्‍तकों में से एक 'पुरातत्‍व का रोमांस' के लेखक के रूप में, भगवतशरण उपाध्‍याय जी के प्रति मेरे मन में बहुत सम्‍मान है लेकिन उनकी पुस्‍तक 'सवेरा-संघर्ष-गर्जन' वाले (राहुल सांकृत्‍यायन की 'वोल्‍गा से गंगा' की तुलना का) विवाद के कारण उनकी छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा, वह इस प्रकाशन से गंभीर हो जाता है। याद करें, छपाई की श्रमसाध्‍य, समयसाध्‍य और जटिल प्रक्रिया के दौर में अधिकतर अच्‍छे प्रकाशनों में शुद्धि पत्र का पृष्‍ठ होता था। ऐसा भी उदाहरण मैंने देखा है, जिसमें पुस्‍तक की मुद्रित प्रतियों में लेखक स्‍वयं द्वारा कलम से प्रूफ की गलती का सुधार किया गया है।

प्रसंगवश, ब्‍लागिंग का प्रभाव, उसकी ताकत, सार्थकता मात्र ब्‍लाग और पोस्‍ट की संख्‍या के आधार पर या टिप्‍पणियों के आदान-प्रदान से तो संभव नहीं है। कविताओं पर सुंदर, नादान-कामुक वाली 'हॉट एन सॉर' या 'स्‍वीट-सॉर', बेमेल तस्‍वीरें लगाना जैसी प्रवृत्ति भी तेजी से फैलती है। संभव है यह जल्‍दी ही बहुमत बन जाए, तब तो असहमति के बावजूद जन-भावना का सम्‍मान करते हुए जनता-जनार्दन का निर्णय शिरोधार्य करना पड़ सकता है, सो इसकी आलोचना में देर करना ठीक न होगा। ऐसे ब्‍लागर अच्‍छी तरह समझते होंगे कि उनकी रचना कितनी प्रभावी है। यह भी अंदाजा होता है कि वे अपने अपेक्षित पाठक का क्‍या मूल्‍यांकन करते हैं।

इसका खास प्रयोजन यह कि हिन्‍दी ब्‍लागिंग में जिम्‍मेदारी और गंभीरता का सामूहिक भाव, उसे मजबूती देने में सहायक हो सकता है इस दृष्टि से विचार है कि एक जन-मंच (फोरम) हो, जिसमें खास कर प्रतिष्ठित-स्‍तरीय प्रकाशक-लेखकों की ऐसी पुस्‍तकों की चर्चा हो, जिसमें गंभीर तथ्‍यात्‍मक चूक होती है। ऐसी लापरवाही सामान्‍य ज्ञान की पुस्‍तकों में भी मिल जाती है। ऐसा फोरम यदि अच्‍छे संपादन सहित काम करने लगे तो शायद इस प्रवृत्ति पर अंकुश हो, यह लोक-नियंत्रण (पब्लिक सेंसर) जैसा काम होगा। यानि 'भूल-गलती उदासीनता का फायदा लेते, जिरह-बख्‍तर पहन कर न बैठ जाए।' ऐसा फोरम वांछित गति और स्‍तर पा ले तो प्रकाशक और लेखक भी अपना पक्ष स्‍पष्‍ट करने यहां आएंगे। उपभोक्‍ता और बौद्धिक जागरूकता, प्रतियोगी परीक्षाओं के वस्‍तुनिष्‍ठ प्रश्‍नों के उत्‍तर, कानूनी संदर्भ-अड़चन जैसे अन्‍य पक्ष इसके विस्‍तार में शामिल होंगे। अधिक गंभीर गलतियों वाले प्रकाशन पर रोक भी लग सकती है।

यहां ऐसी टिप्‍पणियां अपेक्षित हैं, जिनसे पता लग सके कि क्‍या आपके पास इस तरह के कुछ ठोस उदाहरण हैं? ऐसे फोरम में आपकी कितनी भागीदारी, कैसा योगदान हो सकता है? यह पोस्‍ट वस्‍तुतः ऐसे फोरम के लिए उदाहरण सहित विचार-प्रस्‍ताव है। तकनीक-सक्षम, ब्‍लागिंग पर निगरानी रखने वाले सक्रिय ब्‍लागर चाहें तो इस योजना पर काम कर सकते हैं।

Monday, March 19, 2012

ताला और तुली

सन 2003, अप्रैल की पहली तारीख, बिलासपुर में अपनी पुस्तक ''इंडिया इन स्लो मोशन'' पर व्याख्‍यान में मार्क तुली ने मापी-तुली, लेकिन जरा मजाकिया ढंग से बातें कहीं, सवाल-जवाब भी हुए। कार्यक्रम के बाद चाय पर चर्चा के लिए कुलपति गिरिजेश पंत जी ने मुझे रोक लिया। बातचीत के दौरान अपने शहर आए मेहमान के लिए मेजबान बनते हुए मैंने अगले दिन का कार्यक्रम जानना चाहा, पता चला कि दोपहर भोजन के बाद अमरकंटक के लिए रवानगी होगी। सुबह के खाली समय में 'ताला' देख लेना तय हुआ और यह जिम्मेदारी स्वाभाविक ही मुझ पर आई।

अगली सुबह बातें होती रहीं। आपरेशन ब्लू स्टार, अयोध्या विवाद, भोपाल गैस त्रासदी जैसे नाजुक मौकों पर और खास कर आपातकाल के दौरान बीबीसी ट्‌यून करने की याद अधिक आती। किस तरह हमारे लिए मार्क तुली का नाम बीबीसी का पर्याय रहा। 1977 के विधानसभा चुनावों में बिलासपुर जिले के 19 सीटों में से 13 पर कांग्रेस और 6 पर जनता पार्टी के प्रत्याशी विजयी हुए थे, इस पर बीबीसी की टिप्पणी थी- ''मध्यप्रदेश का बिलासपुर अनूठा जिला है जिसने पूरे देश से अलग फैसला दिया है। मैंने यह भी याद दिलाया कि इसी चुनाव में यहां एक ऐसे प्रत्याशी जीते, जो परचा भरने के पहले से परिणाम आने के बाद तक इलाज के लिए बंबई के अस्पताल में भरती रहे, अकलतरा क्षेत्र से राजेन्द्र कुमार सिंह जी।

आगे बातों में जेनकिन्‍स, एग्‍न्‍यू, टेम्‍पल, चीजम, नेलसन, डि-ब्रेट, कनिंघम, बेग्‍लर, वी बॉल और फॉरसिथ, रसेल आदि ब्रिटिश अधिकारियों की रिपोर्ट्‌स-पुस्‍तकें के साथ विलियम डेलरिम्पल के लेखन से उनके लिखे की तुलना होती रही, किसमें कितनी समझ, आत्मीयता और गहराई है। कौन तथ्यपूर्ण है, किसका विश्लेषण और किसकी व्याख्‍या कितनी सटीक मानी जा सकती है, आदि। इस दौरान उनकी सह-लेखिका मित्र जिलियन राइट भी साथ थीं, पता चला कि वे न सिर्फ हिन्दी बोल-लिख पाती हैं, बल्कि आंचलिक उपन्यासों का गहराई से अध्ययन और प्रसिद्ध 'राग दरबारी' का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है। हम ताला पहुंच गए, रूद्र शिव प्रतिमा के सामने।
भारतीय कला के डेढ़ हजार साल पुराने इस अनूठे कला केन्‍द्र की रूद्रशिव कही जाने वाली रौद्रभाव की यह भारी-भरकम प्रतिमा ढाई मीटर से अधिक ऊंची है। इसे महाशिव, परमशिव या पशुपतिनाथ भी कहा गया है। सिर पर नागयुग्म की भारी पगड़ी है। जीव-जन्तुओं से रूपान्तरित चेहरे के विभिन्न अवयवों के साथ वक्ष पर दो, उदर पर एक तथा जांघ पर चार मानव मुखों के अतिरिक्त दोनों घुटनों पर सिंह मुख अंकित हैं। ठुड्‌ढी-दाढ़ी पर केकड़ा, मूंछ के स्थान पर दो मछलियां तथा नाक व भौंह का रूप गिरगिट का है। आंख की पलकें मेढक या सिंह का मुखविवर और नेत्र गोलक अंडे हैं। कान के स्थान पर मोर, कंधे मकर मुख, भुजाएं हाथी के सूंढ सदृश और हाथों की उंगलियों पर सर्पमुख हैं। शिव के स्वधिष्ठित संयमी पुरूष, पशुपति रूपांकन में कछुए के गर्दन और सिर को उर्द्धरेतस और अंडकोष को घंटी सदृश लटके हुए जोंक आकार दिया गया है।
मार्क तुली ने छत्‍तीसगढ़ डायरी शीर्षक से 21 अप्रैल 2003 के आउटलुक में लिखा।
ताला और इस मूर्ति पर जिलियन राइट ने अपनी टिप्पणी का आरंभ हिन्दी से किया और मार्क तुली ने लिखा-

We were delighted to be shown this unique image. Neither of us have ever seen anything similar to it. There is also so much else to see here. Being a remote site and on the banks of a perennial river Tala still retain a peacefulness a tranquility, denied to better known sites. It may be rather selfish to say this, I personally can't help hoping it never makes it to tourist map.
We were particularly privileged to be shown the site by Shri Rahul Kumar Singh who has such a deep knowledge of all that there is to see.
Mark Tully
2/4/2003

संयोग ही था कि कागजात खोजते हुए यह मिल गया। आखिरी वाक्य- 'पंच लाइन', पर ध्यान गया तो सहेजना और सार्वजनिक करना जरूरी लगा, वैसे भी सर मार्क तुली जैसे पत्रकार के लिखे को प्रकाशित करने का अवसर जो मिल रहा है।

इस एक प्रतिमा पर पूरी पुस्‍तक भी छपी है, ताला के कुछ अच्‍छे फोटोग्राफ्स और जानकारियां यहां हैं।

Saturday, March 10, 2012

दक्षिण कोसल का प्राचीन इतिहास

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात इस अंचल से संबंधित विभिन्न प्रकाशन हुए हैं, किन्तु प्राचीन इतिहास पर केन्द्रित किसी विस्तृत ग्रंथ का प्रकाशन लंबे समय से प्रतीक्षित था। छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास पर स्तरीय शोध-कार्य और प्रकाशनों की जानकारी आम पाठक तक नहीं पहुंच पाती, ऐसी स्थिति में अंचल के इतिहास के प्रसंग में कई अनहोनी स्थापना व व्याख्‍या भी कर दी गई हैं। इस पृष्ठभूमि में वरिष्ठ इतिहासकार डा. प्रभुलाल मिश्रा द्वारा तैयार की गई पुस्तक 'दक्षिण कोसल का प्राचीन इतिहास' जैसा प्रकाशन, समय की आवश्यकता और लेखक के गहन अकादमिक अनुभवों के अनुरूप है।

पुस्तक में छत्तीसगढ़ के सामान्य परिचय के साथ-साथ, साहित्यिक स्रोतों में आए दक्षिण कोसल के उल्लेख से परिचित कराया गया है, मूल पुस्तक, ईसा पूर्व से लगभग दसवीं सदी ईस्वी तक के अभिलेखों और सिक्कों से ज्ञात इतिहास पर केन्द्रित है। पुस्तक का एक उल्लेखनीय पक्ष, अंचल के वृहत्तर ऐतिहासिक आकार की प्रबल लेखकीय पक्षधरता है, जिससे छत्तीसगढ़ से संलग्न उड़ीसा के महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश भी पुस्तक में हो गया है। छत्तीसगढ़ और कोसल पर डॉ. मिश्रा के विचारों पर मत-मतान्तर हो सकता है, किन्तु पड़ोसी अंचल के प्रति, भले ही प्रशासनिक-राजनैतिक दृष्टि से वह अब पृथक हो, लेखक द्वारा महसूस की गई आत्मीयता से संभवतः कोई भी असहमत नहीं हो सकता।

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण नवंबर 2000 के पहले पखवाड़े में संस्कृति विभाग के एक महत्वपूर्ण आयोजन में डॉ. मिश्रा ने मराठा-ब्रिटिशकालीन छत्तीसगढ़ पर एक विस्तृत व्याख्‍यान बिलासपुर में दिया था और तब से समय-समय पर उनकी इस कार्य-योजना पर विचार-विमर्श का अवसर मुझे मिलता रहा, किन्तु इसका कलेवर इतना बड़ा बनेगा, यह अनुमान नहीं था। पुस्तक की कुछ कमियां भी मेरे लिए अप्रत्याशित हैं, लेखक ने इनका उल्लेख करने की अनुमति दी है, यह उनकी उदारता है।

दक्षिण कोसल और छत्तीसगढ़ सहित विभिन्न शब्दों के संक्षिप्त रूप (दक्षिण कोसल तथा छत्तीसगढ़ को क्रमशः द.को. तथा छ.ग., महाशिवगुप्त बालार्जुन के लिए म.शि.गु.बा. आदि) का प्रयोग अखरने वाला है। ताला की इमारत के ध्वस्त होने का कारण नौसिखियों ने उत्खनन किया, कहना लेखक की जानकारियों का अभाव दर्शाता है। सिरपुर के प्रति लेखक का विशेष आकर्षण दिखाई पड़ता है, क्योंकि बार-बार बिना ठोस तर्क-प्रमाणों के सिरपुर मंदिर को प्राचीनतम स्थापित करने का प्रयास किया गया है। पृष्ठ 251 पर बिलासपुर जिले में पाली के 'ईंटों के मंदिर' का उल्लेख, लेखक की मैदानी जानकारियों का अभाव और संदर्भों के उपयोग में हुई असावधानी का द्योतक है। पृष्ठ 255 पर रामगढ़ को नल वंश से सम्बद्ध करना भी अप्रत्याशित चूक है। डॉ. मिश्रा अंग्रेजी के अभ्यस्त हैं और महाराष्ट्र में उनका लम्बा समय बीता है, पुस्तक में वर्तनी और भाषा की असंख्‍य भूलें संभवतः इसी वजह से हैं। इस सबके बावजूद ग्रंथ महत्वपूर्ण है, विशेषकर परिशिष्ट-4 में दी गई अभिलेख, सिक्कों की तालिका अत्यंत उपयोगी है।

छत्तीसगढ़ के इतिहास के प्रमुख संदर्भ ग्रंथ, जो अधिकतर अंग्रेजी में हैं, को आधार बनाकर तैयार की गई यह पुस्तक शोधार्थियों और सामान्य जिज्ञासु का मार्गदर्शन कर सकने में समान रूप से समर्थ है। 'मनोगत' से पता लगता है कि ''70 वर्ष की आयु में स्थल सर्वेक्षण का कार्य जितना अवसर मिला, उतना लेखक ने किया है।'' इस कार्य हेतु परिश्रम की दृष्टि से डॉ. मिश्र की जितनी प्रशंसा की जाय वह कम है। पुस्‍तक की प्रकाशक श्रीमती सरला मिश्र, 266, समता कालोनी, रायपुर हैं। अंत में पुस्तक के मूल्य पर अवश्य प्रश्न हो सकता है कि रू. 900/- मूल्य अंकित इस पुस्तक का ग्राहक-पाठक कौन होगा?

24 जून 2003 को पुस्‍तक के विमोचन अवसर के लिए डॉ. मिश्र ने इस पर मुझसे प्रतिक्रिया देने को कहा, कार्यक्रम में स्‍वयं व्‍यक्तिशः उपस्थित न हो पाने तथा कुछ बिंदुओं पर असहमति, आलोचना के बावजूद भी उनका स्‍नेह-औदार्य कि पुस्‍तक पर इस टीप का न सिर्फ तब स्‍वागत किया, बल्कि अब पुनः इसे ब्‍लाग पर लगाने की सहर्ष अनुमति भी प्रदान की।


डॉ. प्रभुलाल मिश्र, सन 1978 में प्रकाशित The Political History of Chhattisgarh जैसी महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक के लेखक के रूप में जाने गए, बाद में उन्‍होंने अपने इस शोध प्रबंध का संशोधित संस्‍करण 'मराठाकालीन छत्‍तीसगढ़' प्रकाशित किया। राज्‍य प्रशासन व्‍यवसाय प्रशिक्षण संस्‍थान, मुंबई के संचालक तथा एलफिंस्‍टन कालेज, मुंबई व राजाराम कालेज, कोल्‍हापुर के प्राचार्य रहे सतत सृजन सक्रिय डॉ. मिश्र मूलतः छत्‍तीसगढ़ निवासी हैं।

Saturday, March 3, 2012

मिक्स वेज

कुछ दृश्य ऐसे होते हैं, जिन्हें देखते ही मन, ब्लाग पोस्ट गढ़ने लगता है मगर वह पोस्ट न बन पाए तो तात्कालिक रूपरेखा धूमिल पड़ जाती है पर तस्वीरें कुलबुलाती रहती हैं। कुछ साथी हैं, जो मामूली और अकारण सी लगने वाली एक तस्वीर पर पूरी पोस्ट तान सकते हैं या पोस्ट किसी विषय पर हो, उसमें उपलब्ध तस्वीर के अनुकूल प्रसंग रच लेते हैं, जैसा कई बार फिल्मों में गीत के सिचुएशन के लिए होता है। स्वयं में वैसी रचनात्मक क्षमता का अभाव पाता हूं, इसलिए यहां फिलहाल honesty को best policy माना है।

परिस्थितिवश अनुपयोगी साबित हो रही तस्वीरें उसी तरह हैं जैसे कुछ कम कुछ ज्यादा बची, कुछ ताजी, कुछ बासी सब्जियां, जिनके बारे में तय नहीं हो पाता कि क्या बनाया जाय तो अक्सर इसका आसान हल निकलता है, मिक्स वेज। यह किसी की रुचि और जायके का हो न हो, नापसंद शायद ही कोई करता है। इसी भरोसे तस्वीरों वाली, मसाला फिल्मों की तरह भक्त और भगवान, भ्रष्टाचार-घोटाला, परी, दिल, शिक्षा, पैसा, ज्योतिष, इलाज, राजनीति और गांधी तक शामिल यह पंचमेल तस्‍वीरों वाली पोस्ट।
बजरंग बली मंदिर पर शिव, गांधीजी के बंदर और अशोक स्तंभ (सरकार का सिक्का)
बगल में गिरोद मेला में युवक के बाजू पर गुरु घासीदास का गोदना
परी, जनाना या नचकारिन (नचकहारिन या नहचकारिन भी)
 छत्तीसगढ़ के पारम्परिक लोकमंच 'नाचा' के पुरुष कलाकार
नीचे ''भ्रष्टाचार एवं घोटाला'', प्रेस- प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ और
ऊपर एक ही जगह तीन दल व कहीं चार अखबार साथ-साथ
यहां कोई पचासेक कोचिंग संस्थान घेरे हुए हैं। ऊपर, बांया भाग, बीच में सम्मुख और नीचे दाहिने हिस्से का दृश्य, अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस बिंदु से तस्वीरें ली गईं हैं, वह स्कूल का प्रवेश-द्वार ही होगा
ऊपर सौतन से छुटकारा, लव मैरिज, वशीकरण स्पेशलिस्ट,
बीच में ''किसी प्रकार के दर्द से छुटकारा पाऐं बैध बीबी ...? (वैद्य बी बी श्रीवास्तव)
और नीचे जी हां, शादी ब्याह के लिए ... दिल कटिंग 15 मिनट में
अपनी रसोई है, यहां 'अलवा-जलवा' भी 'नवरतन कोरमा.'