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Friday, October 24, 2025

भो-रम-देव

‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ कहे जाने वाले भोरमदेव में शब्दों के साथ भटक रहा हूं। यह भटकना, रास्ता भूलना नहीं, रास्ते की तलाश भी नहीं, बल्कि मनमौजी विचरण है। भोरमदेव, शब्द पर बहुत सी बातें कही-लिखी गई हैं, भोरमदेव, बरमदेव है, ब्रह्म, बूढ़ादेव, बड़ादेव, इतने मत-मतांतर कि भरम होने लगे। अलेक्जेंडर कनिंघम 1881-82 में गजेटियर के हवाले से कहते हैं- The Great Temple of Boram Deo, or Buram Deo। भोरम के करीब का छत्तीसगढ़ी शब्द है, भोरहा यानी भ्रम, संदेह या भूल। शायद इसी भूल-भटक में राह सूझे, इसलिए फिलहाल इसे यहीं छोड़कर, उसके आसपास, अगल-बगल। कुछ नादान तोड़-फोड़ करनी हो तो ‘भो!रम देव‘, ‘भोर-म-देव‘, हे देव, भोर होते ही तुझमें मेरा मन रमा रहे।
भोरमदेव मंदिर
भोरमदेव, स्मारक का नाम है न कि गांव का। इस स्मारक के साथ मड़वा महल और छेरकी महल भी हैं, गांव हैं- छपरी और चौंरा। इनमें छपरी का छापर, छावनी या छप्पर नहीं, बल्कि सलोनी मिट्टी से आया होगा, इसी तरह चौरा का ताल्लुक कबीरपंथी मान्यताओं से जुड़ा होना चाहिए। एक गांव लाटा है, जिसे लाटा-बूटा या लता-नार से संबंधित माना जाना है, मगर यह भी ध्यान रहे कि लाटा, गुफा, सुरंगनुमा, संकरे-बंद घिरे स्थान का- जहां लेट कर, सरक कर, रेंग कर जाना पड़े, का भी पर्यायवाची होता है। भोरम और हरम शब्द आसपास हैं, पास ही गांव है ‘हरमो‘, ईंटों वाली महलनुमा संरचना ‘सतखंडा हवेली‘ के कारण यह गांव चर्चित है। इसे कुछ ‘हरम‘ से जोड़ कर देखते हैं तो दूसरी ओर एक आस्था ‘महाप्रभु वल्लभाचार्य‘ से जुड़ी है, जिससे संबद्ध कर हरमो को ‘हरि-नू‘, गुजराती ‘हरि का‘ भी मानने वाले हैं। इतिहास में काल-निर्धारण की दृष्टि से यह क्षेत्र फणिनाग, कलचुरि वंशजों, मंडला के गोंड़ तथा मराठों से जुड़ता है। इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में योद्धा स्मारक और सती स्मारक प्रतिमाएं शक्ति संतुलन के लिए होने वाले युद्धों  का प्रमाण हैं।
सतखंडा हवेली, हरमो 

यह कछारी जमीन वाला इलाका है। जंगल-पहाड़ नदी-नाले और बांध-तालाब से बची रेतीली जगह- कछार, जिस पर छोटी और कंटीली झाड़ियों वाली वनस्पति, कछार में टिकने के लिए जड़ें मजबूत होनी चाहिए। कछार, धान के लिए उपयुक्त नहीं, लेकिन धान से ही तो काम नहीं चलता। जलधाराओं के नजदीक और पानी उतर जाने पर पाल कछार और उससे दूर पटपर कछार। यहां एक और कछार है- सरकी कछार, इस नाम की कई शास्त्रीय व्याख्या होती है, यह भी माना जाता है कि छेरकी ही सरकी बन गया, संभव है, क्योंकि स-द, छ-स होता रहता है, ज्यों रायपुर के पास का गांव छेरीखेड़ी-सेरीखेड़ी। सरकी का जोड़ साकना है यानी रेंगना या खिसकना, छत्तीसगढ़ी का सलगना- पेट के बल सरक-सरक कर चलान, सरीसृप की तरह। मगर यह भी संभव जान पड़ता है कि यह सरकी-चटाई या टाट (ज्यों टाटीबंद) यानि समतल-पटपर का समानार्थी है मगर ‘दादर‘ से कुछ अलग। 

संकरी नदी पर दुरदुरी आता है, जो तुरतुरिया, खरखरा, सुरसुरी की तरह पानी के बहाव से होने वाली ध्वनि से बना शब्द है। मगर यह सोचने का रास्ता दिखाता है कि जलधारा का बहाव कैसा है, स्थान पथरीला, रेतीला, चौड़ा-संकरा, छोटा-लंबा, कम-अधिक ऊँचाई वाला, धाराओं में बंटा हुआ या अन्य कुछ। जिस तरह का नाम है, यानि नामानुरूप ही ध्वनि सबको सुनाई देती है या इस पर सुनने वाले और आंचलिक भाषा का भी प्रभाव होता है। जलधाराओं की बात हो तो गंगा का स्मरण होता ही है और गंगा के लिए कहा जाता है- ‘गं गं गच्छति गंगा‘।

बजरहा यादव जी ठेठवार मिले, मैं पूछता हूं- देसहा, कनौजिया, कोसरिया, झेरिया, बरगाह, महतो? मुस्कुरा कर छोटा सा ‘पॉज‘ देते मेरे इस ‘ज्ञान‘ ध्वस्त करते हुए गर्व से बताते हैं-दुधकौंरा। दुधकौंरा सुनकर पहले तो दूधाधारी-दुग्धआहारी याद आया फिर ठेठवारों के ‘कौंराई‘ का। मैं भी हार मानने को तैयार नहीं, कभी पाली-कटघोरा की ओर किसी कौंराई ठेठवार से मिला था, कौंराई से तुक जमाने की कोशिश करता हूं, वे टस से मस नहीं होते। मड़वा महल में बैठे हैं, आसपास छेरी चराते हैं। अब इन दोनों महलों मड़वा और छेरकी की ओर ध्यान जाता है। महल, पत्थरों वाली पक्की इमारत के कारण नाम पड़ा होगा और मड़वा, इस मंदिर के साथ जुड़ी रोचक बात कि मंदिर के सामने का स्तंभयुक्त मंडप, शादी के मड़वा जैसा है साथ ही इस स्मारक का एक नाम ‘दूल्हादेव’ मंदिर प्रचलित रहा है। इस मंदिर की बाहिरी दीवार पर जंघा में विभिन्न मिथुन मूर्तियां हैं, कुछ अजूबी भी। गर्भगृह के सामने से बाईं ओर परिक्रमा शुरू करें तो, काम-कला वाली मिथुन प्रतिमाओं का ‘अजीबपन‘ बढ़ता जाता है और आखीर पहुंचते तक शिशु को जन्म देती नारी प्रतिमा है। मिथुन प्रतिमाओं के कारण ‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ के नाम से इसकी ख्याति रही, खजुराहो काम-कला वाली मिथुन मूर्तियों का पर्याय बन गया। मंडपयुक्त संरचना, मड़वा वाले इस महल की मूर्तिकला से यह मान लिया गया है कि इस मंदिर की दीवार पर विवाह उपरांत गृहस्थ जीवन के काम पुरुषार्थ के लिए ‘कामसूत्र‘ का शिल्पांकन किया गया है, जो नर-नारी समागम-संसर्ग से संतानोत्पत्ति करते वंशवृद्धि के ज्ञान देने वाली मूर्तियों में जीवंत प्रशिक्षण वाली पाठशाला जैसा है। कहा जाता है, यहां भाई-बहन का साथ जाने का निषेध है, मगर ऐसा अब तक नहीं सुना कि विवाह के बाद इस मंदिर के दर्शन और परिक्रमा करने का नियम है। 
पश्चिमाभिमुख मडवा महल मंदिर
दक्षिणी जंघा पर प्रतिमाएं

कछार और छेरकी या छेरी यानि बकरी-बकरे को जोड़ कर सोचने का प्रयास करता हूं। छेरकी महल के लिए कहा जाता है कि छेरी चराते हुए, बरसात हो जाने पर बकरी चराने वाले चरवार इस मंदिर में शरण लिया करते थे, संभव है मगर लगता है कि इस कछारी इलाके में गोपालक भी बड़ी तादाद में बकरा-बकरी पालन करते हैं इसलिए छेरी-चरवार हैं। फिर बात आती है कि क्या कछार और छेरी का रिश्ता शब्द ‘छ-र‘ से आगे भी कुछ है। गोवंश और अजवंश के एक खास अंतर की ओर ध्यान जाता है। अजवंश की उपरी और निचली, दोनों दंतपंक्तियां होती हैं, जबकि गोवंश की उपरी दंतपंक्ति नहीं होती, इसलिए दोनों की चराई में अंतर होता है। संभव है कि सामान्य मैदानी घास-पात गोवंश के चरने भरण-पोषण के लिए अधिक उपयुक्त होता हो और कछारी भूमि की वनस्पति अजवंश, बकरे, घोड़े और हिरण परिवार के जीवों के लिए। इस क्षेत्र में देसी बकरे ही पाले जाते हैं जो बौनी-नीची झाड़ियों और घास वाली चराई क्षेत्र में graze करते हैं लंबे और लटके कान वाले जमनापारी बकरे, जो graze के बजाय browse करते हैं, ऐसे चराई क्षेत्र के लिए अनुकूल साबित नहीं होते। ‘हरिन छपरा‘ गांव भी दूर नहीं है। उल्लेखनीय कि यहां नाम छेरी-छेरकी है, इसी तरह सरगुजा में प्राचीन मंदिर 'छेरकी नहीं छेरका' हैं। खैर! अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र न हो तो उस पर बहुत बातें करना अपनी जांघ उघाड़ने जैसा है, फिर भी इतना तो मुंह मारा ही जा सकता है।
छेरकी महल मंदिर


यहां एक परत और है, छेरकी महल के आसपास लीलाबाई यादव जी मिल जाया करती थीं और पूछने पर धाराप्रवाह कहानी सुनाती थीं- देवांसू राजा बिना महल के राखय छेरिया, त छेरकिन कहिस, अतका तोर छेरी-बेड़ी ला चराएं देव, फेर एको ठन महल नई बनाये। अभी हमर देवता-देवता के पहर हावय कोई समय मनखे के पहर आहि, त देखे-घुमे ल आही अइसे कहि के। त कस छेरकिन, महूं त एके झन हावंव, कइसे महल बनावंव कथे। चल त एकक कनि तोर छेरिया चराहूं, एकक कनि महल बनान लगहूं। त छेरी चरात-चरात छेरकिन अउ देहंसू राजा बनाय हे एला। बन लिस त भीतरी म दे छेरिया ओल्हियाय हे। त आघू छेरी के लेड़ी रहय इंहा, भीतरी म। ए मडवा महल, भोरमदेव कस भुईयां म गड्ढा रहिसे। त फर्रस जठ गे, माटी पर गे, छेरी लेड़ी मूंदा गे। अब पर्री परया अचानक भकरीन-भकरीन आथे, बकरा ओइले सहिं, तेखर सेती छेरकी महल आय एहर। अउ, भोरम राजा हर न भरमे-भरम में बने हे।

मैदानी छत्तीसगढ़ के गांवों में गुड़ बनाने के लिए सामुदायिक गन्ने की पैदावार, सामुदायिक रूप से बरछा में ली जाती थी। बरछा, तालाब के नीचे की भूमि होती थी। अब भोरमदेव, कवर्धा क्षेत्र की एक पहचान शक्कर कारखाना और गन्ना उपजाने वाले इलाके की भी है। यहां संकरी नदी है। छत्तीसगढ़ में सांकर, संकरी जैसी संज्ञाधारी कई-एक हैं, जिनमें ओड़ार संकरी, संकरी-भंइसा, संकरी-कोल्हिया जैसे ग्राम नाम और संकरी नदी को इन सब के साथ जोड़ कर देखना होगा। संकरी, वर्णसंकर है? सांकर यानी संकल-जंजीर है? संकरा यानी कम चौड़ा है? छत्तीसगढ़ी में कहा जाता है- ‘अलकर सांकर‘। संकरी नदी के करीब का एक नाम चैतुरगढ़-कटघोरा-कोरबा वाली शंकरखोला की जटाशंकरी-अहिरन। इस तरह संकरी, शिव-शंकर के पास भी है। और क्या इसका शर्करा-शक्कर से जुड़ा होना संभव है। पुराने अभिलेखों में शर्करापद्रक, शर्करापाटक, शर्करामार्गीय जैसे स्थान-क्षेत्र नाम आते हैं, ये नाम क्या शक्कर से संबंधित हैं या नदी के रेत-कण को महिमामंडित किया गया है- बुझौवल तो है ही, ‘बालू जैसी किरकिरी, उजल जैसी धूप, ऐसी मीठी कुछ नहीं, जैसी मीठी चुप।‘

जेन अभ्यास होता है, जिसमें सारे विचार ‘मू‘ के अव्यक्त में पहुंचकर मौन हो जाते हैं, ‘चुप‘।

Monday, October 20, 2025

छत्तीसगढ़ ऐसा भी

छत्तीसगढ़ी, हलबी, भतरी, कुड़ुख, सरगुजिया भाषी हम, इन भाषा-विभाषाओं में हो रहे लेखन से जुड़े होते हैं, छत्तीसगढ़ पर हिंदी और अंग्रेजी में हो रहे लेखन से भी परिचित होते रहते हैं मगर हमारा ध्यान इस ओर कम जाता है कि छत्तीसगढ़ से जुड़े अन्य भाषा-भाषी, अपनी भाषा में छत्तीसगढ़ को किस तरह देखते हैं, उसे अपनी भाषा में किस तरह अभिव्यक्त करते हैं। इस दृष्टि से मेरी जानकारी में (छत्तीसगढ़ के)असमी, उड़िया, बंगला और मराठी भाषी मुख्य हैं।

पिछले कुछ समय में ऐसी एक मराठी और दो बंगला पुस्तक देखने को मिली। मराठी पुस्तक डॉ. नीलिमा थत्ते-केळकर की 2023 में प्रकाशित ‘आमचो छत्तीसगढ़‘ है। बंगला पुस्तकों में एक नारायण सेनगुप्ता की 2008 में प्रकाशित ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ है और दूसरी रंजन रॉय की 2020 में प्रकाशित ‘छत्तिशगड़ेर चालचित्र‘ है।


‘आमचो छत्तीसगढ़‘ की लेखक ने पाठकों को संबोधित कर बताया है कि- 


शीर्षक पढ़कर शायद लगे कि मैंने गलती से ‘आमचा‘ की जगह ‘आमचो‘ लिख दिया है। लेकिन ऐसा नहीं है। छत्तीसगढ़ी में यही कहते हैं। यह राज्य हमारा सबसे नज़दीकी पड़ोसी होने के बावजूद, हम इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते। इसका एहसास मुझे दो साल पहले हुआ। जब यात्रा तय हुई, तो मैंने नियमित अध्ययन करके काफ़ी जानकारी इकट्ठा की। फिर, अपनी यात्राओं के दौरान, इस अनजान क्षेत्र ने मुझे इतना अनूठा और समृद्ध अनुभव दिया कि इसे और लोगों के साथ साझा करने का मन हुआ। मैंने फ़ेसबुक और विपुलश्री पत्रिका में लेखों की एक श्रृंखला के ज़रिए ऐसा करने की कोशिश की। फिर भी, मुझे लगा कि ज्यादा लोगों तक पहुँचने की ज़रूरत है। तो अब, यह किताब शुरू होती है। 

इस राज्य में क्या नहीं है? गुफाओं में मानव निवास के समय का इतिहास, खुदाई में मिले प्राचीन अवशेष, पहाड़ियों और घाटियों से बहती नदियाँ-झरने जैसी भौगोलिक विशेषताएँ, हरे-भरे धान के खेतों और मनमोहक वृक्षों से सजी यहाँ की प्रकृति, उससे जुड़े आदिवासी, उनके गोदना, उनके नृत्य, उनकी विचित्र अवधारणाएँ, मिट्टी और धातु की विशेष कला, मंदिर, मूर्तियाँ, मंदिरों से जुड़ी प्राचीन कथाएँ, रामायण-मेघदूत जैसे काव्यों से जुड़े सूत्र और इढ़र, चीला, फरा जैसे प्रामाणिक स्थानीय व्यंजन, और भी बहुत कुछ! रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़, सरगुजा, दुर्ग, राजनांदगाँव, बस्तर यहाँ के प्रमुख जिले हैं।

कवर्धा ज़िले का भोरमदेव मंदिर छत्तीसगढ़ का खजुराहो है और चित्रकूट जलप्रपात छोटा नियाग्रा। मैनपाट यहाँ का शिमला है और राजिम यहाँ का प्रयाग! आप इस छत्तीसगढ़ के बारे में ज़रूर जानना चाहेंगे।

मैंने स्कूल में एक शपथ ली थी। उसमें एक वाक्य था, ‘मुझे अपने देश की समृद्ध और विविध परंपराओं पर गर्व है।‘ इस वाक्य का सही अर्थ समझने के लिए मैं इधर-उधर भटकने लगी। असम, अरुणाचल, ओडिशा, बिहार, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक की यात्रा ने मुझे बहुत कुछ दिया। अब इसमें छत्तीसगढ़ भी जुड़ गया है।

यद्यपि मैंने समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए लेख और लेखों की श्रृंखला लिखी है, लेकिन पुस्तक लिखने का यह मेरा पहला प्रयास है।

यह कोई जानकारीपूर्ण पुस्तिका नहीं है। यह पर्यटन पर लिखी अन्य पुस्तकों की तरह संरचित नहीं है, न ही यह परिपूर्ण होने का दावा करती है। मैं बस आपको छत्तीसगढ़ वैसा दिखाना चाहता हूँ जैसा मैंने उसे देखा। मैंने इस पुस्तक का कोई मूल्य निर्धारित नहीं किया है। क्योंकि मैं वहाँ देखी गई प्रकृति, कला और लोगों के जीवन का मूल्यांकन कैसे कर सकती हूँ? मैं बस यही चाहती हूँ कि आप भी इन सबका उतना ही आनंद लें जितना मैंने लिया। 

दूसरे संस्करण के अवसर पर - मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं किताब लिखूँगी। लेकिन मैंने लिखी और प्रकाशित भी कर दी! इतना ही नहीं, पहली किताब का दूसरा संस्करण भी सिर्फ़ डेढ़ महीने में आने वाला है। पाठकों की ज़बरदस्त प्रतिक्रिया देखकर मुझे बहुत खुशी हो रही है।

पहले संस्करण की कीमत स्वैच्छिक रखी गई थी और एकत्रित सारी धनराशि बस्तर क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों को भेज दी गई थी। 

पाठकों की विशेष माँग पर अब यह दूसरा संस्करण रियायती मूल्य पर लाया गया है। इसमें छत्तीसगढ़ का मानचित्र देवनागरी लिपि में भी दिया गया है। इस संस्करण की बिक्री से प्राप्त राशि का उपयोग भी पूर्ववत ही किया जाएगा।

इस पुस्तक के छत्तीस स्थल-स्मारक आदि शीर्षकों में भोरमदेव, ताला, मदकू, मल्हार, सिरपुर, राजिम, चित्रित शैलाश्रय, केशकाल, कोंडागांव, बस्तर, बारसूर, रायपुर, रामगढ़, चंदखुरी, मैनपाट और अमरकंटक आदि हैं।

बंगला पुस्तकों में पहली ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ में लेखक के परिचय में बताया गया है कि उनका जन्म 1933 में हुआ। पाँच दशकों से अधिक समय से साहित्य सेवा में संलग्न हैं। 12 प्रकाशित पुस्तकें हैं तथा पाँच पत्रिकाओं व छह संस्मरणों का संपादन किया है। दिल्ली के चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट द्वारा बाल साहित्य में पुरस्कृत तथा विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हैं। उन्होंने स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य किया। वर्तमान में, वे छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी के मुख्य सलाहकार हैं।

पुस्तक में लेखक ने बताया है कि-

छत्तीसगढ़ की इस धरती पर 38 वर्ष का लंबा समय बीत चुका है। मुझे छत्तीसगढ़ के आकाश, वायु, लोगों, लोक उत्सवों, साहित्य और समाज को बहुत करीब से देखने का अवसर मिला है। उसी का प्रतिबिम्ब ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ है। श्री सिंह बनर्जी (सिद्धार्थ नाम सार्थक) और उनकी पत्नी पी.के. गांगुली, बंबई के ‘आनंद संगबाद‘ समाचार पत्र के मेरे प्रिय दो प्रमुख, दुनिया भर के बंगालियों को एक मंच पर लाने और रिश्तेदारों के साथ बैठकें करने के प्रयास में बंगाल, आउटर बंगाल और विश्व बंगाल का भ्रमण कर रहे हैं। इन बैठकों के दौरान, एक दिन उन्होंने हमारे निवास पर एक सुखद शाम बिताई। इसकी पहल ‘छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी‘ द्वारा की गई थी। बिलासपुर की लगभग सभी बंगाली संस्थाओं के प्रतिनिधि उपस्थित थे। आनंद संगबाद के प्रतिनिधियों ने इसे एक सूत्र में पिरोया। विदाई के समय, उन्होंने उस स्मृति को अपने हृदय में जीवित रखने के लिए एक पांडुलिपि भेजने का अनुरोध किया था। वह पांडुलिपि है ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘। ... छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी के मुखपत्र ’मातृभाषा‘ के सुयोग्य संपादक और बिलासपुर शाखा के अध्यक्ष डॉ. चंद्रशेखर बनर्जी ने इस पुस्तक के लेखन में विविध प्रकार से योगदान दिया है। ... उनके सच्चे सहयोग के बिना, मेरे लिए अपने रुग्ण शरीर में कुछ दुर्लभ जानकारी एकत्रित करना संभव नहीं होता। ... मेरे मित्र भास्कर देव रॉय ने जानकारी और तस्वीरें एकत्रित करके मेरी विभिन्न प्रकार से मदद की है - मैं उनका आभारी हूँ।

पुस्तक में छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थल, छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य और लोकगीत, कथक नृत्य और छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ के विवाह रीति रिवाज, विभिन्न व्यवसायों में छत्तीसगढ़ की महिलाएँ, बस्तर जिले का प्रसिद्ध दशहरा उत्सव, स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ की भूमिका, स्वतंत्रता आंदोलन में बिलासपुर का अतिरिक्त योगदान, छत्तीसगढ़ और बंगाली साहित्य जैसे शीर्षक हैं।

बंगला की दूसरी पुस्तक ‘छत्तिशगड़ेर चालचित्र‘ के लेखक परिचय में बताया गया है कि उनका जन्म 1950 में कोलकाता में हुआ। ग्रामीण बैंक में अपनी नौकरी के दौरान उन्हें तीन दशकों तक छत्तीसगढ़ के ग्रामीण और आदिवासी जीवन को करीब से देखने का अवसर मिला। उन्हें साहित्य, अर्थशास्त्र, राजनीति और दर्शन पर किताबें पढ़ना और बातचीत करना पसंद है। उनकी विशेष रुचि ‘मौखिक इतिहास‘ में है। कुछ अन्य प्रकाशनों के अतिरिक्त ‘चरणदास चोर-तीन छत्तीसगढ़ी परीकथाएँ हैं। यह पुस्तक ग्रामीण छत्तीसगढ़ के लोक जीवन, भावनाओं, प्रेम और जाति की कहानी है।

पुस्तक का भाग 1: जलरंग और भाग 2: जाति की कहानी है, जिसमें लेखक के संस्मरण हैं। परिशिष्ट में भौगोलिक और राजनीतिक पहचान, पौराणिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, छत्तीसगढ़ के प्रमुख बंगाली और छत्तीसगढ़ का लोक जीवन है। यह पुस्तक मेरे लिए खास, क्योंकि पुस्तक का ‘उत्सर्ग‘ यानी समर्पण है- ‘डॉ. राहुल सिंह, एक प्रसिद्ध इतिहासकार, पुरातत्वविद् और लोक कला विशेषज्ञ‘

टीप - संभव है कि अपनी भाषाई समझ की सीमा के कारण कुछ अशुद्धियां, त्रुटियां हों। सुझाव मिलने पर यथा-आवश्यक संशोधन कर लिया जावेगा।

Sunday, October 19, 2025

ठाकुरबाड़ी

गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर का कुटुंब वृत्तांत है, अनिमेष मुखर्जी की ‘ठाकुरबाड़ी‘ इस किताब का पता लगने और हाथ में आने के बाद पन्ना खोलते हुए जैसा सोच रहा था, किताब वहीं से शुरू हुई, लगा कि लेखक ने माइंड रीड कर लिया है, वस्तुतः, यही समकालिक-विस्तार है। खुलासा यह कि मैं अपने बंगाली परिचितों के लिए सोचा-कहा करता हूं कि वे टैगोर, बोस, विवेकानंद और सत्यजित रे के लिए इतने आब्सेसिव क्यों हो जाते हैं, मेरी ऐसी सोच के पीछे यह होता है कि हम भी उन्हें कम नहीं मानते भाई। तो इस किताब ‘शुरू होने के पहले‘ की शुरुआत है- ‘यार तुम बंगाली लोग टैगोर को लेकर इतना ऑब्सेसिव क्यों होते हो? अगर आप एक बंगाली है, तो संभव है आपने यह सवाल कई बार सुना हो। अगर आप बंगाली नहीं हैं, कि संभव है कई बार आपका मन हुआ हो यह सवाल पूछने का।‘

पूरी किताब एक रोचक शोध-पत्र है, ऐसी कि हर पैरा में सूक्ति या उक्ति या कोई चौंका सकने वाली ऐसी रोचक जानकारी, जो संभव है कि आपको रही हो मगर पक्का स्रोत पता न होने के कारण मन में स्मृति में अधकचरी की तरह दर्ज हो। शुरू में ही बात आती है कि टैगोर ने किसानों के लिए माइक्रो-फ़ाइनेंस क्रेडिट सिस्टम की शुरुआत। जिसका उद्देश्य किसानों को साहूकारों के चक्र से बचाना था। लगभग 150 साल बाद इसी कॉन्सेप्ट को आधार बनाकर मोहम्मद यूनुस ने अर्थशास्त्र का नोबेल जीता। यूनुस ने कहीं ज़िक्र तक नहीं किया कि वे जिस विचार के लिए पुरस्कार ले रहे हैं, उसका मौलिक विचार उनका राष्ट्रगान लिखने वाले कवि का है। ... कर्जा लेने वाले ज्यादातर किसान मुसलमान थे और साहूकार हिंदू। कहा गया कि गुरुदेव हिंदुओं का हित मारकर मुसलमानों का भला कर रहे हैं। विडंबना यहीं ख़त्म नहीं होती, बंगाल में वामपंथ बुद्धिजीविता के नाम पर खूब फला-फूला। इन वामपंथियों ने अपने सबसे बड़े बुद्धिजीवी प्रतीक को हमेशा, ज़मींदार और ग़रीबों का दुश्मन दिखाकर प्रचारित किया।

‘घ्राणेन अर्ध भोजनम्‘ से जाति-धर्म च्युत होता राढ़ी, कुशारी, पीराली, ठाकुर, टैगोर परिवार ऐसी सामाजिक जकड़बंदियों से मुक्त हो कर किस तरह सकारात्मक आधुनिकता की ओर बढ़ता है, जिसमें जोड़साँको और ठाकुरबाड़ी है तो इसके समानांतर पाथुरियाघाट भी है, और चोरबागान जैसी छोटी शाखाएं भी, ढेर सारी करनी और कुछ-कुछ करम-गति भी है, यह सब विस्तार और बारीकी से जानना रोचक है। इसी परिवार की विधवा महिला रामप्रिया अदालत गईं, यही विवाद ठाकुर परिवार के बंटवारे का कारण बना और माना जाता है कि विधवा के संपत्ति हक का अदालत तक पहुंचा यह पहला मामला है।

पत्नी मृणालिनी के अलावा, दिगंबरी देवी, इंदिरा देवी, ऐना-अन्नपूर्णा-नलिनी, विक्टोरिया की दुखियारी-नारी कथा-व्यथा के चटखारे के बीच सामान्यतः यह नहीं उभर पाता कि इसी परंपरा में सरला देवी चौधरानी हैं, महात्मा गांधी और विवेकानंद, दोनों जिनके प्रशंसक थे। गांधी ने उन्हें स्प्रिचुअल वाइफ कहा, खादी के लिए मॉडलिंग कराया और विवेकानंद उन्हें साथ विदेश लेकर जाना चाहते थे। यही सरला अपने बेटे की शादी इंदिरा (गांधी) से कराना चाहती थीं। इसी क्रम में शिवसुंदरी देवी टैगोर, स्वर्णकुमारी, कादंबरी, नीपोमयी देवी, प्रज्ञासुंदरी देवी, सुनयनी और ज्ञानदा यानी ज्ञाननंदिनी देवी टैगोर भी हैं। तब साड़ी को परंपराओं के विरुद्ध और अश्लील मानने वाले समाज में ज्ञानदा के छद्मनाम से विज्ञापन छपा, जिसमें बताया गया था कि आधुनिक महिला के साड़ी पहनने का तरीका क्या है, जो ब्लाउज़, शमीज़, पेटीकोट, ब्रोच और जूतों के साथ साड़ी पहनती हैं। ज्ञानदा ने ही अंग्रेज़ी तारीख के हिसाब से जन्मदिन मनाने की शुरुआत की, जिसमें केक कटता था और हैप्पी बर्थ डे विश किया जाता था। सिनेमा और थियेटर में टैगोर परिवार की तमाम बहुएँ खुल कर काम करती थीं।

पुस्तक का खंड 2 ‘कोलकाता से अलीनगर‘ में क्लाइव और पलासी की बात में पाठक यों डूब जाता है कि टैगोर से ध्यान हट जाता है, इसे लेखन का बहकना मान लें, जैसा लेखक खुद मानते हैं, तो भी यह बहकाव बाहोशोहवास है। बुनी हुई हवा कहलाने वाला ढाका का मलमल, जगत सेठों की रईसी, घसीटी बेगम, सिराजुद्दौला की बेगम लुत्फ़-उन-निसा, जिसके लिए प्लासी के नशे में चूर जाफ़र और उसके बेटे ने प्रस्ताव भिजवाया कि बाप-बेटे किसी एक से शादी कर लो, मुर्शिदाबाद में ‘नमकहराम ड्योढ़ी‘ कहलाने वाली जाफ़र खान की इमारत, 1610 में दुर्गा पूजा का आरंभ, भारत की पहली न्यायिक हत्या मानी गई महाराजा नंदकुमार की फांसी। यह खंड कहावत पर समाप्त होता है कि- ‘प्लासी के बाद नवाबों को धोखा मिला, क्लाइव को पैसा और जनता को अकाल मिला।

सूचना/सूक्ति की तरह आए कुछ वाक्य- ‘भारतीय जाति व्यवस्था उससे कहीं ज़्यादा जटिल है, जितनी सोशल मीडिया पर दिखती है।‘ ... ‘भारतीय ज़मींदारों और बाबुओं की संपत्ति उसी पैसे पर टिकी हुई थी जो भारत में नील की खेती में बुने हुए शोषण और चीन को अफ़ीम की लत लगवाकर आ रहा था।‘ ... ‘जो पैसे का बंदरबाँट ईस्ट इंडिया कंपनी ने किया उसे मैनेज करने में पढ़े-लिखे बंगाली काम आए और इन बंगाली बाबुओं ने भी इस प्रक्रिया में काफ़ी पैसा कमाया। यह बंगाली पहले मुखुज्यो, बाणिज्यो और चाटुज्यो से मुखोपाद्धाय, बंदोपाध्याय और चट्टोपाध्याय बने और फिर मुखर्जी, बनर्जी और चटर्जी बन गए।‘ ... ‘राजनीति जब इतिहास का इस्तेमाल करती है, तो कई बार पुराने खलनायकों को नायक बना देती है। फिर शताब्दी भर बाद लोग बहस करते रहते हैं कि फ़लाँ, नायक था या खलनायक।‘ ... ‘माना जाता है कि अंग्रेज़ों ने भारतीय क्लर्क्स के लिए बाबू शब्द इसलिए इस्तेमाल करना शुरू किया, क्योंकि यह नकलची बंदरों ‘बबून‘ से मिलता-जुलता था।‘ ... ‘उस ज़माने में राजा राम मोहन राय समेत कई प्रगतिशील विद्वान काले जादू और तंत्र-मंत्र में यकीन रखते थे और इस पर शोध करते थे।‘ ... ‘बेचारा हर समय खोया-खोया और उदास रहता था। रह-रहकर दर्द भरी आहें भरता और दारू में दवा की तलाश करता। ज़माने को पता है कि ऐसे लक्षण दुनिया भर में एक ही बीमारी के होते हैं। लोगों ने फौजी से पूछा कि दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है। तो उसने बताया कि उसके अपने देश में उसे किसी कन्या से प्रेम था।‘ ... मेरी और अधिक पसंद की बातें हैं, जिन्हें किताब में ही सिमटे रहने दे रहा हूं।

टैगोर और उनके परिवार पर न जाने कितना विपुल उपलब्ध है, मुझ जैसे गैर-बंगला पाठक के लिए भी हिंदी और अंग्रेजी में ढेरों सामग्री है, जिसमें डूबें तो लगता है कि इसके बाद भी क्या पढ़ना रह जाएगा। आप ऐसा सोचते हों या इन सबसे कोई नाता न हो तब भी यह पुस्तक पठनीय है। टैगोर जानकारों को भी लगेगा कि ऐसी कोई बात नहीं जो कुछ अलग/बेहतर न कही जा सके, अल्टीमेट कुछ भी नहीं। सब कुछ होना बचा रहेगा ... की तरह। यह किस तरह चौंकाने वाली जानकारी है कि टैगोर ने बॉर्नविटा, गोदरेज साबुन, लिपटन चाय जैसे उत्पादों के लिए न सिर्फ मॉडलिंग की, उनके लिए कॉपी भी लिखी।

टैगोर ने बुढ़ापे में नंदलाल बसु से कहा था कि उन्होंने अपने जीवन में जितने भी चित्र बनाए, उनमें कादंबरी की आँखे बनाने की ही कोशिश की। ... उनका प्रसिद्ध गीत है, ‘खैला भाँगार खैला खेलबी आए।‘ यानी आओ खेल ख़त्म कर देने का खेल खेलते हैं।

लेखक ने अपनी मंशा जाहिर की है कि ‘कुछ किस्से चुने जाएं, उनकी तथ्यात्मकता को बरकरार रखते हुए, उन्हें क़िस्सागोई के अंदाज़ में सुनाया जाए ... तीस सेकंड की रील वाले दौर में ढेर सारी जानकारी बोझिल न लगने लगे‘, अपने इरादे पर कायम रहते, इसे बखूबी निभाया है, कर दिखाया है। रोचक बनाए रखने के लिए विश्वसनीय प्रामाणिकता से समझौता नहीं किया है। कुल जमा, किताब मुझे ‘अच्छी लगी‘ कहना काफी नहीं होगा यह कहना जरुरी है कि किताब ‘अच्छी है‘। किताब से प्रभावित हूं, अतिशयोक्ति हो सकती है, यह भी संभव है कि असर कुछ समय बाद कम हो जाए, लेकिन पूरी जिम्मेदारी से अनुशंसा कर सकता हूं कि सुरुचिसंपन्न पाठक किताब के लिए ‘पैसा वसूल‘ जैसी चालू बात नहीं कह सकेगा। हां! किताब का अनुवाद, हो सकता है टैगोर पर हिंदी से बंगला होने के कारण खुले मन से स्वीकार न हो, मगर अंगरेजी अनुवाद का सवागत, शायद मूल हिंदी से अधिक होगा।

Friday, October 17, 2025

धानी छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है, खास कर मध्य छत्तीसगढ़, जहां धान उपज का रकबा और पैदावार अधिक है, वहीं इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर में 23000 से अधिक प्रकार के धान बीजों का संग्रह है। इसके साथ दो बातें जोड़ कर देखना जरूरी है कि फसल-चक्र परिवर्तन और मिलेट्स पर भी जोर दिया जाता है, जो आवश्यक है तथा यह भी कि भोजन में कार्बोहाइड्रेट प्रतिशत सीमित रखना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। 

इस बीच छत्तीसगढ़ में 15 नवंबर 2025 से 31 जनवरी 2026 तक धान खरीदी के कुल 2739 केंद्रों के माध्यम से 3100/ प्रति क्विंटल की दर से प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीदी निर्धारित है। याद आया कि हमने 1965-66 में 'बालभारती' कक्षा-3 में पाठ पढ़ा था-

पाठ 28

धान की खेती


आज रायपुर शहर में किसानों की बड़ी भीड़ थी। सभी बहुत खुश दिखाई देते थे। जिलाध्यक्ष की कचहरी के सामने एक मंडप बनाया गया था। सुन्दर बंदनवारों और झंडियों से मंडप खूब सजाया गया था। मंडप में सभा का प्रबन्ध किया गया था, वहाँ प्रमुख अधिकारी और नेतागण इकट्ठे हुए थे। वहाँ आये हर व्यक्ति की जबान पर धमतरी के किसनसिंह का नाम था, क्योंकि आज का यह उत्सव उन्हीं के सम्मान के लिए हो रहा था। 

परन्तु किसनसिंह का यह सम्मान किसलिए? उन्होंने ऐसा क्या काम किया है? 

इसका कारण यह था कि किसनसिंह ने अपने खेत में सबसे अधिक धान पैदा की थी। छत्तीसगढ़ की मुख्य फसल धान है। अच्छी बरसात होने पर धान के पौधों को रोपने के पन्द्रह-बीस दिनों बाद सभी ओर हरी-हरी धान लहलहाने लगती है। पौष माह में कटाई के बाद धान की फसल तैयार हो जाती है। साधारणतः एक एकड़ जमीन में दस बारह मन धान पैदा होती है। परन्तु किसनसिंह ने अपनी एक एकड़ जमीन में पच्चीस मन धान पैदा की। सारे किसानों को किसनसिंह की इस सफलता पर बड़ी खुशी हो रही थी। वे जानते हैं कि अपने खेतों में अधिक से अधिक अनाज पैदा करना सबसे बड़ी देश-सेवा है। इससे देश में संपत्ति बढ़ेगी और जनता को खूब अनाज मिलेगा। दूसरे देशों के सामने हमें हाथ नहीं फैलाना होगा। इसलिए किसनसिंह ने जो कार्य कर दिखाया है, उसका महत्व बहुत अधिक है और इसीलिए आज उनका सम्मान किया जा रहा है।

सभा का समय होने पर जिलाध्यक्ष के साथ किसनसिंह मंडप में आये। उन्हें मंडप में आता देखकर सब लोग खड़े हो गये। वे मंच पर जाकर बैठ गये। फिर जिलाध्यक्ष ने अपना भाषण शुरू किया- 

‘‘किसान भाइयों! आप सभी जानते हैं कि हम लोग यहाँ श्री किसनसिंह का सम्मान करने के लिए इकट्ठे हुए है। देश में धान की फसल बढ़ाने के लिए सरकार ने अभी-अभी एक नया तरीका बताया है। अपने जिले में भी इस साल बहुत से किसानों ने यही तरीका अपनाया है। इससे उन्हें बहुत लाभ भी हुआ है। जहाँ पहले एक एकड़ जमीन में दस या बारह मन धान पैदा होती थी, वहाँ इस तरीके से बीस-बीस मन तक धान पैदा हुई है। कुछ किसानों ने तो बाईस मन तक धान पैदा की है, परन्तु किसनसिंह इन सबसे आगे बढ़ गये हैं। उन्होंने एक एकड़ जमीन में पच्चीस मन धान पैदा की है। आप सबकी ओर से मैं उनको बधाई देता हूं और उन्हें सरकार को ओर से एक हजार एक रुपये इनाम के रूप में भेंट करता हूँ।‘‘

इसके बाद जिलाध्यक्ष ने किससिंह को फूलों की माला पहनाई और रुपयों की थैली भेंट की। सभा में आये हुए सब लोगों ने तालियाँ बजाईं। तालियों की गड़गड़ाहट समाप्त होने पर किसनसिंह ने अपना भाषण शुरू किया- 

‘‘जिलाध्यक्ष महोदय और किसान भाइयो! आप लोगों ने मेरा जो सम्मान किया, उसके लिए मैं आप सबको बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। देश की संपत्ति बढ़ाना हमारा कर्त्तव्य है। इसके लिए जो कुछ भी हम कर सकें, वही हमारी सबसे बड़ी देश-सेवा होगी। अब मैं धान की फसल तैयार करने के नये तरीके के बारे में दो-चार बातें कहूँगा। पहली बात है, बीज का चुनाव। बीज अच्छा हो तो फल भी अच्छा होता है। धान की अच्छी फसल के लिए ठोस बीज चाहिए। ठोस बीजों का चुनना बहुत सरल है। बीजों को नमक के पानी में डाल दो। जो बीज हलका होगा, वह ऊपर तैर आयेगा। जो बीज नीचे बैठ जाये उसे ठोस समझना चाहिये। इन चुने हुए बीजों में कीड़े मारने वाली दवा लगा देना चाहिये और फिर उन्हें बोना चाहिये। ऐसा करने से फसल को कीड़ा नहीं लगता। 

पौधा लगाने के लिए क्यारियाँ ऊँची होनी चाहिये। उनमें गोबर और राख की खाद डालना चाहिये। जिस स्थान पर ऐसी खाद डाली जाती है, वहाँ पौधे ऊँचे और घने होते हैं। जिस जमीन में इन पौधों को रोपा जाये, उसमें भी खाद देना चाहिये। इसके लिए सड़ी पत्तियां, खली और हड्डियों का चूरा बहुत लाभदायक होता है। 

‘‘पौधों को एक सीधी कतार में रोपना चाहिये और दो पौधों के बीच साधारणतः आठ या दस अंगुल की जगह छोड़ देनी चाहिये। इससे पौधों को बढ़ने के लिए काफी जगह मिलती है। उन्हें धूप, प्रकाश और गरमी भी मिलती है। एक कतार में और थोड़ी-थोड़ी दूर पौधा रोपने से निदाई अच्छी तरह हो सकती है। धान की बाढ़ अच्छी होती है। उसमें अधिक अंकुर फूटते हैं, अच्छी बालें लगती हैं और खूब धान होती है। 

मैंने शुरू से ही बड़ी देखभाल की इसीलिए मैं इतनी धान पैदा कर सका और आपके सम्मान के योग्य ठहरा। मैं आपको इसके लिए बार-बार धन्यवाद देता हूँ।‘‘ 

ऐसा कहते हुए किसनसिंह ने दोनों हाथ जोड़े, और अपना भाषण समाप्त किया। एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट हुई। जिलाध्यक्ष महोदय से कहा-अब राष्ट्र-गीत गाया जायेगा। यह सुनकर सब लोग अपने-अपने स्थान पर चुपचाप खड़े हो गये। राष्ट्रगीत के बाद सभा समाप्त हो गई।